साँप बनकर डस रही हैं सब तमन्नाएँ यहाँ
कारवाँ आकर कहाँ ठहरा दिल-ए-बेताब का
*
कुछ दूर हम भी साथ चले थे कि यूँ हुआ
कुछ मसअलों पे उनसे तबीयत नहीं मिली
*
वो और लोग थे जो माँग ले गए सब कुछ
यहाँ तो शर्म थी दस्त-ए-तलब उठा न मेरा
किसे कुबूल करें और किस को ठुकराएँ
इन्हीं सवालों में उलझा है ताना-बना मेरा
*
माना की कड़ी धूप में शाये भी मिले हैं
इस राह में हर मोड़ पर धोखा भी हुआ है
*
दरिया के किनारों की तरह साथ चले हम
मैं आज तलक मैं ही रहा तू भी रहा तू
*
'हर नहीं, हाँ से बड़ी है' यह हक़ीक़त समझें
हाँ बहुत सीख चुके अब तो कोई ना सीखें
*
रंग कुम्हला दिया, बालों में पिरो दी चाँदी
तूल खींचेगी अभी और कहानी कितना
ये तलातुम ये अना आबला पाई, ये जुनूँ
हम भी देखेंगे कि है जोश-ए-जवानी कितना
डूबकर साँसो में रग रग में समा कर देखो
मसअला दिल का सुलझता है जबानी कितना
इससे पहले कि हम आज के शायर और उनकी शायरी के बारे में बात करें आइये पढ़ते हैं उनका एक लेख जो ये बताता है कि उनकी क़लम से नस्र भी उसी खूबसूरती से उतरती है जितनी कि उनकी शायरी :
"दूर ऊंचे टीलों पर खजूरों के जो झुंड नजर आ रहे हैं उसके पीछे कच्चे-पक्के मकानों की एक बस्ती है - धूल भरे टेढ़े मेढ़े रास्ते हैं, मस्जिदे हैं, इमामबाड़े हैं, टूटे-फूटे मकबरे हैं, फैले हुए तालाब में जब सुर्ख़ सूरज की आखिरी किरनों का अक्स काँपने लगता है, पीले-पीले सरसों के खेत लहलहा उठते हैं, आम के बौरों की भीनी-भीनी खुशबू फैल जाती है, बाँसों के साये में दम लेने को ठहरी हुई हवाएँ मुझे पहचान कर लिपट जाती हैं, घरों से उठता हुआ धुआँ हमारी बस्ती को अपनी लपेट में ले लेता है और फिर अँधेरा फैलते ही यादों के जंगल में मैं अपने आप को ढूँढता हुआ इन्हीं खजूरों के झुंड तले टूटी-फूटी एक क़ब्र पर बैठ जाता हूँ ,ममता की पुरवाई मुझे छू लेती है धुँधलकों से कुछ शरारतें उभरती हैं, कुछ कहकहे बिखरते हैं... फिर एक चीख...और फिर भयानक सुकूत याने ख़ामोशी... घना जंगल...और तारीकी...जैसे एक नन्हा सा चंचल बच्चा इस जंगल की तारीख की में कहीं गुम हो गया हो मैं यादों के इस जंगल में इस चंचल हंसमुख बच्चे को ढूंढता हूँ।
तेरे ख्य़ाल से ही चिरागाँ था शहर में
सब कुछ बुझा बुझा था तेरी याद जब न थी
*
एक मुसलसल जुस्तजू के बाद मंजिल के करीब
एक मुर्दा साँप था, माल व खज़ाना कुछ न था
*
ताशों का खेल सुहाना बचपन का
छूमंतर सी भरी जवानी लगती है
शाम हुई तो काले साए उमड़ पड़े
सुबह को तो हर चीज़ सुहानी लगती है
टूटे जैसे कोई खिलौना मिट्टी का
पत्थर जैसी सख़्त जवानी लगती है
*
मुश्तहर कर दे किताब ए ज़िंदगी के बाब सारे
राज़ ए दिल के कुछ मगर सफ़हे ज़रा महफ़ूज कर ले मुश्तहर: प्रचार
कौन जाने, खुश्क हो जाएँ कहाँ खुशियों के धारे
कुछ हँसी बच्चों की, बूढ़ों की दुआ महफ़ूज कर ले
*
लुट गया शाम ही को जब सब कुछ
जागकर सारी रात क्या करते
*
सफर है शर्त तो कुछ ज़ाद ए राह भी होगा
किसी की तल्ख़ सी यादें ज़रूर लेता जा
ज़ाद ए राह : सफ़र ख़र्च
*
न जाने तुमने क्या समझा है हमको
जमाने ने मगर समझा अलग है
इस घुप सन्नाटे में बैठा हुआ मैं इस अरसे की तमाम छोटे-बड़े हादसों का हिसाब जोड़ता हूं और आखिर में पाता हूं सिर्फ एक बेनाम ख़लिश एक बेनाम दर्द, जो हर बार बचा रह गया है, मेरी हड्डियों तक धँसा हुआ, कभी-कभी लगता है मैं एक भीड़ की तरह अपने झुण्ड से बाहर धकेल दिया गया हूं या फिर एक बेनाम अजनबी ग़ार में एक बूढ़े जानवर की तरह रह रहा हूँ ।इस ग़ार में रेंगता हुआ मैं वहां पहुँच जाता हूँ जहाँ रात है मेहँदी का पेड़ है और एक मुन्जमिद लम्हा-वो मुन्जमिद लम्हा बरसों की लंबाई फलाँग कर मेरे पास क्यों नहीं आ जाता-मुझे अपना घर याद आने दो, मुझे वो धुआँ याद आने दो जो हमारे जिस्मों, हमारी बस्ती को घेरे हुए है-मुझे याद आने दो इन लंबे बरसों के दरमियान क्या हुआ इस काले वक्त को क्या हुआ जो पानी की तरह मेरे चारों तरफ बहता रहता है और मैं एक चट्टान की तरह बे हरकत किसी जगह खड़ा, किसी अनजाने मंजिल को अपनी पथरीली आंखों से देखता रहता हूँ ।"
अपने बारे में इतनी खूबसूरत ज़बान में लिखने वाले हमारे आज के शायर हैं जनाब 'शाहिद माहुली' साहब जिनकी शायरी की हिंदी में एकमात्र छपी किताब 'शहर खामोश है' हमारे सामने है ।आज हम इसी किताब से लिए कुछ चुनिंदा अशआर आपके सामने पेश करेंगे और साथ ही साथ शाहिद साहब के बारे में जितना हमें मालूम हो सका है आपको बताएंगे।
ज़ख़्म भर जाएगा रह जाएगी ता उम्र चुभन
ये जो काँटा है किसी तरह निकल जाएगा
*
ये दर्द वो है कि जिसका नहीं है कोई इलाज
ये किस उम्मीद पर हम चारागर को देखते हैं
हमारी खुद नज़री खो गई कहाँ 'शाहिद'
क़दम क़दम पे हर इक राहबर को देखते हैं
*
यह बुझी शाम, ये उदास सी रात
तू जो आ जाए जगमगा जाए
*
स्याह रात की तनहाइयाँ गवारा हैं
जो हो सके तो सहर दे सुनहरे ख़्वाब न दे
*
बिस्तर था एक जिस्म थे दो ख़्वाइशें हज़ार
दोनों के दरमियान था खंज़र खुला हुआ
उलझा ही जा रहा हूँ मैं गलियों के जाल में
कब से है इंतजार में इक घर खुला हुआ
*
तेरी यादों ने बहुत शमें जलाई लेकिन
न गया सर से मेरे रात का साया न गया
मैं वो नगमा था जो होठों के तले टूट गया
मैं इक आँसू था जो आँखों से छुपाया न गया
*
बंद कमरे में बला ए जाँ है अहसास ए सुकूत
और बाहर हर तरफ आवाज़ का पत्थर लगे
जैसे-जैसे टूटता जाए निगाहों का भरम
शख़्सियत अपनी भी अपने आप को कमतर लगे
'माहुल' उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले का एक छोटा सा गाँव है जो बीसवीं सदी के उर्दू के बहुत बड़े स्कॉलर एहतशाम हुसैन साहब की वजह से प्रकाश में आया । इसी गाँव में 1 मार्च 1943 को शाहिद हुसैन साहब का जन्म हुआ। माहुल के सरकारी स्कूल में आपने इब्तिदाई तालीम हासिल की। आगे पढ़ने के लिए आप गोरखपुर चले गये और वहीं की यूनिवर्सिटी से बैचलर ऑफ आर्टस की डिग्री हासिल की। कॉलेज में पढ़ने के दौरान ही शाहिद साहब की दिलचस्पी ग़ज़लों में बढ़ी और वो उर्दू शायरों की परम्परा को निभाते हुए अपने नाम के बाद गाँव का नाम जोड़ते हुए ' माहुली' तखल्लुस से ग़ज़लें कहने लगे।
बी.ए. करने के बाद उर्दू ज़बान से बेपनाह मुहब्बत के चलते उर्दू साहित्य में एम.ए. करने आगरा यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। ये वो दौर था जब उनके समकालीन शायर बशीर बद्र निदाफ़ाजली, अहमद फ़राज, वसीम बरेलवी, राहत इंदौरी, जावेद अख़्तर, इफ्तिखार आरिफ़ जैसों की लोकप्रियता परवान चढ़ रही थी इनके लिए फ़ैज साहब, फ़िराक़, कैफ़ी आज़मी मजरूह और साहिर जैसे शायरों की मौजूदगी में उनके साथ मुशायरे का मंच शेयर करना फ़क्र की बात हुआ करती थी। शाहिद साहब एम.ए. की पढाई और शायरी शिद्दत से करने लगे थे।
शानदार नंबरों से उर्दू में एम.ए. करने के बाद शाहिद साहब दिल्ली आ गये और काँग्रेस पार्टी ज्वाइन कर ली। काँग्रेस पार्टी का पूरा इतिहास उर्दू में सबसे पहले शाहिद साहब ने ही लिखा जो बहुत चर्चित हुआ। उनकी लेखन क्षमता और ज्ञान से उस वक्त काँग्रेस कार्य समिति के सदस्य जनाब फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ,जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी नियुक्त हुए, बहुत प्रभावित हुए। उनकी तमन्ना थी कि शाहिद साहब ग़ालिब इंस्टीट्यूट में काम करें जो उनके जीते जी तो संभव नहीं हो पाई अलबत्ता उनके अचानक हार्टअटैक से गुजर जाने के लगभग तीन साल बाद पूरी हुई।
किसी से लड़के भी तस्कीन पाई
किसी को टूट कर चाहा बहुत है
तस्कीन दिलासा
*
घर से चला था तोड़ने इस खुशनुमा कँवल
उलझा हुआ मैं कब से मगर काइयों में हूँ
*
साफ आती है बिखरते हुए लम्हों की सदा
अब न आएगा कोई बज़्म उठाई जाए
*
नाव कागज की गई डूब, घरौंदे बिखरे
खेल सब खत्म हुआ ख़ाक उड़ाई जाए
*
तिलिस्म टूट गया धुंध छँट गई 'शाहिद'
कहीं पर ठहर के सोचें कि हमने क्या पाया
*
वो जिस पे फूटी न मुद्दत से कोई शाख़ नई
वो खुश्क पेड़ हरी बेल से सँवरता रहा
*
किसी की याद में अपनापन भी भूल गया हूँ
कौन मेरे बिस्तर पर आकर लेट गया है
*
भटकता फिरता है मुद्दत से कारवाने ए हयात
मिले कहीं कोई मंजिल कहीं क़याम तो हो
क़याम :ठहराव
*
वह अब के गिर गई दीवार जिस पर नाम मेरा
लिखा था तुमने कभी अपने नाम के आगे
*
हुआ है सामना जब भी बिगाड़ दी सूरत
ख़फा-ख़फा सा है कुछ जैसे आईना मुझसे
शाहिद साहब ने 1976 में गा़लिब इंस्टीट्यूट में काम करना शुरू किया। उनके संपादन में निकलने वाली अदबी पत्रिका 'मयार' में भारत और पाकिस्तान के नामवर शोअरा के क़लाम छपते थे और वो अपने जमाने की बेहतरीन उर्दू पत्रिकाओं में से एक थी। उन्होंने 'क़ैफ़ी आज़मी', 'अख़्तर उल इमान', 'फ़ैज़ अहमद फ़ैज़', 'जोश मलीहाबादी', 'मोमिन', 'दाग़' और ग़ालिब जैसे महान शायरों पर विशेष अंक भी निकाले जो बहुत पसंद किए गये। 'क़ैफ़ी आज़मी' साहब की शख़्शियत और शायरी पर सबसे पहले लिखने वाले शाहिद माहुली साहब ही थे।
लगभग चालीस सालों तक माहुली साहब गालिब इंस्टीट्यूट से जुड़े रहे जिसमें से आखरी के 15 वर्ष उन्होंने डायरेक्टर की हैसियत से काम किया। अपने कार्यकाल में उन्होंने इंस्टीट्यूट में बेहतरीन किताबों का प्रकाशन, विभिन्न विषयों पर सेमिनार और अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों का आयोजन किया। जब कभी भी गा़लिब इंस्टीट्यूट का इतिहास लिखा जाएगा उसमें शाहिद माहुली साहब का जिक़्र सबसे पहले किया जाएगा।
माहुली साहब का पहला शेरी मजमूआ 'पसमंजर' 1977 में शाऐ हुआ, दूसरा मजमुआ ' सुनहरी उदासियां' है और तीसरा मजमुआ 'कहीं कुछ नहीं होता' है। देवनागरी में छपने वाला उनका एक मात्र शेरी मजमुआ ' शहर खामोश है' वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है जो अमेजन पर भी उपलब्ध है। इस किताब में शाहिद माहुली साहब की 70 लाजवाब ग़ज़लें और 36 नज़्में शामिल हैं।ये किताब हर शायरी प्रेमी के पास जरूर होनी चाहिए। अमेजन पर उनकी दीगर किताबें जैसे 'क़ैफ़ी आज़मी अक्स और जहतें', 'अख़्तरुल इमान अक्स और जहतें', 'फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अक्स' और जहतें भी उपलब्ध हैं।
दुनिया में जहाँ कहीं उर्दू पढ़ी या समझी जाती है वहाँ शाहिद साहब मुशायरे पढ़ने गये हैं। नेशनल अमीर ख़ुसरो सोसायटी के सेक्रेटरी और अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू, दिल्ली ,के जनरल सेक्रेटरी रह चुके शाहिद साहब ने निमोनिया की गंभीर बीमारी से लड़ते हुए नोएडा के 'फोर्टिस हस्पताल' में 28 सितंबर 2019 को आखरी साँस ली। उनके जाने से उर्दू साहित्य जगत में जो खालीपन आया है उसका भरना संभव नहीं है।
आखिर में पढ़िये शाहिद माहुली साहब के कुछ और चुनिंदा शेर ।
कितने सपने डूब गए हैं इन कजरारी आंखों में
कितनी कसमें टूट चुकी है उस काफ़िर अंगड़ाई से
*
मिल जाएगी कहीं न कहीं आगही की भीख
फिरती है दरबदर लिए कश्कोल ज़िंदगी
आगही: ज्ञान
*
टूट चुके हैं भले बुरे के सब पैमाने
किसको सच्चा समझें किस पर दोष लगाएँ
*
क्या मानें किस को झुठलाएँ, क्या चाहें क्या त्याग करें
नित दिन एक नया युग आए पल पल बदले नीत यहां
मन के भेद को किसने समझा शब्दों ने कब साथ दिया
अपना दुख किसको समझाएँ कौन है अपना मीत यहां
*
तुम्हारे शहर से जब भी कभी गुजरता हूँ
हर एक सिम्त से आते हैं याद के पत्थर
*
सेफ़ों में बंद हो गए आसूदगी के ख़्वाब
दफ़्तर की फाइलों में ख़यालात हैं असीर
आसूदगी: खुशहाली, असीर: कैदी
*
अजीब मोड़ पर आकर ठहर गई है हयात
कोई ख़्याल न ख़्वाइश न ख़्वाब है यारो
*
मज़ा न मौत की ख्वाहिश में और न जीने में
ये कैसी आग सुलगती है मेरे सीने में
किसी ने रोक के रस्ते में ख़ैरियत पूछी
किसी का भीग गया है बदन पसीने में
सितारे टाँक लिए कहकहों के होठों पर
अजब नशा सा हुआ आँसुओं के पीने में
*
जिसकी हर बात चुभो देती है सौ सौ नश्तर
दिल भी कमबख्त उसे हद से सिवा चाहता है
22 comments:
Bahut khoob ❤️
शाहिद माहुली, नाम ही काफ़ी है
आप की लेखनी का जादू यूंही चलता रहे
रंग कुम्हला दिया, बालों में पिरो दी चाँदी
तूल खींचेगी अभी और कहानी कितना
एक मुसलसल जुस्तजू के बाद मंजिल के करीब
एक मुर्दा साँप था, माल व खज़ाना कुछ न था
वाह
Dhanyvaad Jayanti ji
Shukriya Sarwar Bhai
Shukriya Pradeep bhai
किताबों की दुनिया230 शाहिद माहुली। कांटों में सुई ढ़ूढने का काम करना इतना आसान ही नहीं बल्कि दुश्वार भी बहुत है इसके लिए नीरज गोस्वामी जी को दिली मुबारकबाद शौहरतों का सफ़र किसी किसी को नसीब होता है मेरे नज़रिये से ये बात शाहिद साहिब पर पूरी तरह ख़री उतरती है क्योंकि जिस दौर में मोहतरम जनाब डाक्टर बशीर बद्र मजरुह,साहिर राहत इंदौरी और चंद मोहतबर नाम सरे फहरिस्त आप ने बयान किए हैं जो सितारा रौनके फ़लक क्यों न बन सका इतना पुख्ता कलाम होने के बावजूद।ये मुकद्दर की बात है हालांकि शाहिद साहिब की शायरी अकेडमिक है। अल्लाह उनको जन्नत दे। आप की कोशिश को सलाम
मेरे कहन में कुछ तल्ख़ियां और गुस्ताखियां हो सकती हैं आप तो जानते ही हैं जब क़लम ज़ेरे दस्त हो तो सच्चाई का साथ देना मैं अपना धर्म समझता हूं। शुक्रिया
सागर सियालकोटी
लुधियाना
बेहतरीन 👌
किसी अनजाने मंजिल को अपनी पथरीली आंखों से देखता रहता हूँ ।
आप हर बार जिस तरह शायर, उसका अंदाज और जीवनी एक साथ पिरोकर सामने रखते हैं, यकीनन हर बार संग्रहणीय हो जाता है।
धन्यवाद शिवम जी
अच्छी जानकारी दी आपने ! 🙏
बेहतरीन
ख़ूबसूरती से से लिखा गया एक और ख़ूबसूरत तब्सरा वाह नीरज जी वाह वाह क्या कहना ज़िन्दाबाद
मोनी गोपाल 'तपिश'
धन्यवाद स्वरांगी जी
ओंकार जी शुक्रिया
धन्यवाद भाई साहब
वाह वाह वाह शाहिद माहुली साहब के अशआर यहां प्रस्तुत करके आपने पाठकों पर बहुत कृपा की है। शेर पढ़कर बहुत अच्छा लगा। आपके जादुई क़लम ने भी उनके शेरों को बड़ी सुंदरता के साथ विस्तार दिया है। आप दोनों महानुभावों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
बहुत शुक्रिया नाज़ भाई
शाहिद माहुली साहब की किताब 'शहर खामोश है' पर ख़ूबसूरत और आत्मीय बातचीत आपके हवाले से पढ़ने को मिली।निश्चय ही हर बार एक नई ग़ज़ल की किताब की तलाश और उसमें से चुनिंदा शेर उद्धृत करना किसी कुशल शनावर के गोता लगाकर मोती तलाशने जैसा दुष्कर और श्रमसाध्य है जिसे आप मुझ जैसे ग़ज़ल के शैदाइयों के लिए बार बार अंजाम देते रहे हैं।यह किताब भी उसी की एक कड़ी है।और उससे भी अच्छी और गौर करने वाली बात यह है कि कभी ऐसा नही हुआ कि आपने किसी शायर पर बातचीत करते हुए उसके सम्मान में कोई हेठी या ग़ज़ल की आत्मीयता से इतर उसके बारे में कोई बात कही हो ।
सच तो यह है कि तमाम शायरों के बारे मेंआपके लिखने के बाद ही जानकारी हुई।आपको ग़ज़लों की विभिन्न किताबों के हवाले से पढ़ने की अब तो प्रतीक्षा रहती है एक आदत की तरह!
सादर
अखिलेश तिवारी
Har baar ki tarah bahut badhiya.. sadhuwad.
लुट गया शाम ही को जब सब कुछ
जागकर सारी रात क्या करते
Kya baat hai . Bahut khub .
नाव कागज की गई डूब, घरौंदे बिखरे
खेल सब खत्म हुआ ख़ाक उड़ाई जाए
.
बहुत सुन्दर स्तम्भ ...
.
- उमेश मौर्य
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