Monday, August 30, 2021

किताबों की दुनिया - 239

बड़े वसूक़ से दुनिया फ़रेब देती रही 
बड़े ख़ुलूस से हम ऐ'तबार करते रहे 
*
रविश रविश पे चमन के बुझे बुझे मंजर 
ये कह रहे हैं यहाँ से बहार गुज़री है
*
मज़हब का सिर्फ़ नाम है वरना समाज पर 
अब तक है मुहर सब्द वही जात पात की
सब्त: लिखना/खुदी हुई
*
ये वो ही परिंदा है कि साधे हुए चुप था
इस तरह जो अब हो के रिहा बोल रहा है
*
साए के वास्ते ता'मीर करेंगे फिर लोग 
धूप के वास्ते दीवार गिराने वाले
*
दुश्मन है आदमी का अज़ल से खुद आदमी 
यानी मुक़ाबला ये बला का बला से है
*
बढ़ूँ अगर तो किसी तक मिरी रसाई न हो 
रुकूँ तो यूंँ लगे वो मेरी दस्तरस में है
*
हैरत है कि हासिल जिसे आराम बहुत है 
इतना ही ज़ियादा वो परेशाँ नज़र आए
*
जिस कदर बढ़ती गई है उम्र, कम होती गई 
जिस कदर घटती गई है, और नादानी बढ़ी
*
'शौकत' हमारे साथ बड़ा हादसा हुआ 
हम रह गए हमारा ज़माना चला गया

ये शेर जो अभी आपने ऊपर पढ़ें हैं, उस शायर के नहीं हैं जिनकी किताब की बात हम किताबों की दुनिया की इस कड़ी में करेंगे। ऐसा पहली बार हुआ है, इससे पहले इस श्रृंखला में हमने जिस किसी शायर की किताब की बात की है तो उसके साथ किसी दूसरे शायर के शेर कभी नहीं पोस्ट किये । तो फिर ये अपवाद अबकी बार क्यों ? वो इसलिए कि ये हमें जरूरी लगा। यूँ समझिये ये ऐसा ही है जैसे कोई गंगा की बात करने से पहले हिमालय की बात करे। गंगा का उद्गम हिमालय ही है न। ये शेर जनाब शौक़त वास्ती साहब मरहूम के हैं । शौकत साहब के वालिद सय्यद नेमत अली शाह यूँ तो अम्बाला के पास के एक गाँव के निवासी थे लेकिन वो अपनी सरकारी नौकरी के चलते पेशावर आ गये और वहीँ बस गए। उनका इरादा था कि रिटायरमेंट के बाद वो वापस अपने गाँव चले जायेंगे और अपने बड़े-छोटे भाइयों और बाकि परिवार जन के साथ पुश्तैनी घर में इकठ्ठा रहेंगे

जनाब नेमत अली शाह साहब का अम्बाला के पास अपने गाँव शाहाबाद वापस लौटने का सपना उस वक़्त चूर चूर हो गया जब विभाजन के बाद बलवाइयों ने उनके घर को जला कर ख़ाक कर दिया और उनके सगे भाइयों का बेरहमी से क़त्ल कर दिया। हर इंसान में शैतान रहता है जिसे हम बड़ी मुश्किल से अपने अंदर दबाये रखते हैं ये शैतान मौका मिलते ही इंसान के बाहर निकल आता है। भीड़ में इस शैतान को बाहर निकलने में आसानी होती है। विभाजन के समय हुई मारकाट इसी शैतान के बाहर निकलने के कारण हुई। 

जनाब नेमत अली शाह साहब के यहाँ एक अक्टूबर 1922 को शौकत साहब का जन्म हुआ। शौकत साहब को पढ़ने का शौक बचपन से ही था। उन्होंने हिंदी, अंग्रज़ी ,उर्दू, संस्कृत, फ़ारसी और अरबी भाषा में महारत हासिल की। शायरी का शौक़ भी छोटी उम्र में ही उन्हें लगा जो बाद में मशहूर उस्ताद शायर अब्दुल हमीद 'अदम' साहब की रहनुमाई में परवान चढ़ा। मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन में 30 साल मुलाज़मत करने के बाद शौक़त साहब ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्र लेखन करने लगे। शायरी के अलावा उन्होंने हॉमेर, मिल्टन और रबिन्द्र नाथ टैगोर के काम को उर्दू में अनुवादित भी किया। शौक़त साहब के घर देश विदेश के शायरों और विद्वानों का आना जाना लगा रहता था। शौकत साहब, जिनका पूरा नाम 'सलाहुद्दीन शौकत वास्ती' था, को आधुनिक उर्दू शायरी के महान शायरों में शुमार किया जाता है। आप 3 सितम्बर 2009 को इस दुनिया ऐ फ़ानी से रुख्सत हुए लेकिन अपने काम की वज़ह से वो हमेशा हमारे बीच मौजूद रहेंगे। जनाब शौक़त वास्ती के यहाँ उनके बेटे हमारे आज के शायर जनाब सबाहत आसिम वास्ती का 5 नवम्बर 1957 को जन्म हुआ। उनकी ग़ज़लों की देवनागरी में रेख़्ता बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब 'लफ़्ज़ महफूज़ कर लिए जाएँ ' हमारे सामने है जिसे उन्होंने अपने बहुत अज़ीज़ जनाब सय्यद सरोश आसिफ़ और संजीव सराफ़ की नज़र किया है। जनाब सय्यद सरोश साहब आसिम साहब के शागिर्द हैं और उनसे पिछले पाँच सालों से शायरी के गुर सीख रहे हैं। मेरी नज़र से अब तक जो पाँच छै सौ ग़ज़ल की किताबें गुज़री हैं उनमें से ये अकेली किताब है जिसे एक उस्ताद ने अपने अपने शागिर्द को नज़र किया है। ये बात पढ़ने में जितनी आसान लगती है उतनी है नहीं, इस छोटी सी लेकिन बेहद अहम बात से एक उस्ताद का अपने शागिर्द के लिए जो प्यार झलकता है वो बेमिसाल है। इससे ये भी पता लगता है कि उस्ताद जी शायर ही बेहतर नहीं हैं इंसान भी कमाल के हैं। ये किताब आप अमेज़न से ऑन लाइन या रेख़्ता दिल्ली से मँगवा सकते हैं।
'

वक्त इज़हार का नहीं है अभी
लफ्ज़ महफ़ूज़ कर लिए जाएं
*
टपकेगा लहू लफ़्ज़ कोई चीर के देखो
तुम लोग समझते हो कि बे-जान ग़ज़ल है
*
वो इत्तेफ़ाक़ से मिल जाए रास्ते में कहीं 
मुझे ये शौक़ मुसलसल सफ़र में रखता है
*
मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं 
मैं आदमी हूं मेरा ऐ'तबार मत करना
*
जो जख़्म दिए आपने महफ़ूज़ हैं अब तक 
आदत है अमानत में ख़यानत नहीं करते
*
उ'रूज पर है चमन में बहार का मौसम 
सफ़र शुरू ख़िज़ाँ का यहाँ से होता है
*
इस क़दर ताजगी रखी है नज़र में हमने 
कोई मंज़र हो पुराना तो नया देखते हैं
*
ख़ुश्क़ रूत में इस जगह हमने बनाया था मकान 
ये नहीं मालूम था ये रास्ता पानी का है
*
हर बाग में ऐसे भी तो होते हैं कई फूल 
कोई भी जिन्हें देखने वाला नहीं होता
*
मैं तेरे वास्ते बदला तो बहुत हूँ लेकिन 
कुछ कमी रह गई होगी तेरे क़ाबिल न हुआ

ये कहना कि जनाब आसिम वास्ती साहब को शायरी घुट्टी में मिली, ग़लत नहीं होगा। जिस बच्चे की शायरी की जड़ें अपने वालिद जनाब शौक़त वास्ती से होती हुई जनाब अब्दुल हमीद 'अदम' साहब और फिर 'अदम' साहब से होती हुई उस्तादों के उस्ताद जनाब 'दाग़' साहब तक पहुँचती हों उसमें पुख़्तगी होना लाज़मी है। सिर्फ़ ग्यारह साल की उम्र से आसिम साहब शायरी करने लगे थे। उनका घर पेशावर में था जहाँ उनके वालिद से मिलने को पाकिस्तान और दूसरे देशों के उस्ताद शायरों की आवाज़ाही रहती ही थी. लिहाज़ा उनकी आपस की गुफ़्तगू सुन सुन कर ही उन्होंने बहुत कुछ सीखा। जनाब अहमद फ़राज़ और मोहसिन एहसान साहब तो लगभग रोज़ यहाँ आते। इनके अलावा गुलाम मुहम्मद क़ासिर ,फ़ारिग बुख़ारी ,परवीन शाकिर साहिबा ,इफ़्तिख़ार आरिफ़ और इब्ने इंशा जैसे नामवर शायर भी इनके यहाँ आये। शौक़त वास्ती साहब के उस्ताद जनाब अब्दुल हमीद 'अदम' साहब ने तो पूरा एक महीना उनके यहाँ क़याम किया। इस पूरे महीने आसिम साहब ने ही उनकी सुबह की चाय से लेकर खाने तक पूरी खिदमत की। आसिम साहब को इन सब बड़े शायरों को क़रीब से देखने और जानने का मौका मिला। ऊपर वाले ने भी शौक़त साहब के बेटों में से सिर्फ़ आसिम साहब को ही शायरी का हुनर अता किया।

बचपन में आसिम साहब अपनी तुकबंदियाँ अपने वालिद साहब को दिखाया करते और वो हमेशा उनकी हौसला अफजाही करते। जहाँ जरुरत होती उन्हें मशवरा देते। आसिम साहब की ज़बान को सुधारने में शौक़त साहब का बहुत बड़ा हाथ है। इसके अलावा अहमद फ़राज़ भी उन्हें ग़ज़ल की बारीकियाँ सिखाते थे। अहमद फ़राज़ साहब से उनका रिश्ता बड़ा दोस्ताना था। एक बार तो जब अहमद फ़राज़ साहब को आसिम साहब कार से उनके घर छोड़ने जा रहे थे तो रास्ते में एक तेज़ रफ़्तार से आ रहे ट्रक से टक्कर होते होते बची। सेकण्ड की देरी से दोनों ख़ुदा को प्यारे हो गए होते। आज भी उस वाक़ये को याद कर आसिम साहब को ठंडा पसीना आ जाता है। 

आसिम साहब ने अपने स्कूल के दिनों में बल्कि आठवीं जमात में ही मीर और ग़ालिब को पढ़  लिया था। उस वक़्त उन्हें वो शायरी तो पूरी तरह समझ नहीं आयी लेकिन शेर कहने का हुनर और ज़बान बरतने का सलीक़ा थोड़ा बहुत समझ आया। बड़े होने के बाद भी उनका इश्क़ ग़ालिब, इक़बाल और मीर की शायरी जरा भी कम नहीं हुआ है। बचपन में वो वालिद साहब के साथ मुशायरों, रेडिओ और टीवी के प्रोग्रामों में जाया करते। बाद में उन्होंने कई बार अपने वालिद साहब के साथ मुशायरे पढ़े भी हैं।  

बांँधा हर इक ख्याल बड़ी सादगी के साथ 
लेकिन कोई ख्याल भी सादा नहीं कहा
*
इक जंग सी होती है मुसलसल मेरे अंदर 
लेकिन कोई नेज़ा है न तलवार है मुझ में

क्या उसके लिए भी है कहीं कोई जहन्नम 
मुझसे भी बड़ा एक गुनाहगार है मुझ में
*
गैरों के मोहल्लों को बड़े रश्क से देखा 
ख़ुद हमने मगर फूल न लगवाए गली में
*
बर्फीले पहाड़ों के सफर पर तो चले हो 
क्या तुमने फिसलने का हुनर सीख लिया है
*
कोशिश में इक अ'जीब सी उज्लत का दख़्ल है 
मैं बीज बोल रहा कि ख़्वाहिश समर बनी 
उज्लत: जल्द बाजी, समर : फल

बैठे थे एक बेंच पे कुछ देर पार्क में 
इतना सा  वाक़िया था मगर क्या ख़बर बनी
*
तोड़ना हाथ बढ़ाकर ही नहीं है लाज़िम 
पक चुका हो तो हवा से भी समर टूटता है 
समर: फल
*
मैं इन्हिमाक में ये किस मक़ाम तक पहुंँचा 
तुझे ही भूल गया तुझको याद करते हुए
इन्हिमाक: तल्लीनता
*
दरख़्त काटने का फ़ैसला हुआ 'आसिम' 
समर को छू न सके लोग जब उछल कर भी

पढ़ाई में तेज़ होने की वज़ह से उन्होंने मेडिकल प्रोफेशन चुना और ख़ैबर मेडिकल कॉलेज पेशावर से डाक्टरी की पढाई पूरी की। मुशायरों में शिरक़त की वजह से अब लोग इन्हें शायर के रूप में पहचानने लगे थे।

इनकी शायरी में अक्सर कम्युनिज़्म के प्रति झुकाव नज़र आता था। एक बार ये पाकिस्तान के क्रन्तिकारी शायर जनाब 'हबीब जालिब' साहब की सदारत में मुशायरा पढ़ रहे थे। हबीब जालिब से जिया उल हक़ साहब की सरकार ख़ासी नाराज़ थी। जालिब' साहब से पाकिस्तान की सभी सरकारें नाराज़ रहीं उन्होंने जितना वक़्त जेल की दीवारों के पीछे गुज़ारा उतना शायद ही किसी और शायर ने कभी गुज़ारा हो। मुशायरे के बाद बुज़ुर्ग हबीब जालिब साहब ने उन्हें पाकिस्तान में कम्युनिज़्म की मशाल थामने का मशवरा दिया। हबीब साहब और उनके बहुत से चाहने वालों की तरफ़ से बार बार जोर दिए जाने पर आसिम साहब इन्क़लाबी शायरी करने लगे। शायर के साथ साथ बतौर डॉक्टर भी इनका नाम तेजी से पाकिस्तान में फैलने लगा था। जब हुक़ूमत को इनकी इंक़लाबी शायरी की भनक लगी तो इन्हें भी हबीब जालिब साहब की तरह घेरने की योजना बनाई जाने लगी। इससे पहले की जिया उल हक़ की सरकार इन्हें सीखचों के पीछे बंद करती ये मेडिकल की एडवांस पढाई करने यू.के.आ गए। यहाँ आ कर उन्होंने मेडिसिन की पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की और फिर यू. के. में वहीँ की नागरिकता लेकर बस गए। जिया उल हक़ और उन जैसे बहुत से दूसरे तानाशाहों के ज़ुल्मों से तंग आकर पाकिस्तान को अदब के बेहतरीन ख़िदमदगारों और दूसरे प्रोफेशन के कामयाब लोगों को जब अपना मुल्क़ छोड़ना पड़ा तो इससे मुल्क़ को कितना बड़ा नुक़सान हुआ इसका अंदाज़ा शायद ही कभी ये तानाशाह लगा पायें।

बाइस तो मिरे क़त्ल का हालात हैं मेरे 
क़ातिल मेरा दुश्मन है कि दुनिया है कि मैं हूंँ
*
दूर उफ़ुक़ पर सूरज उभरा है लेकिन 
कौन हटाएगा खिड़की से पर्दों को 

करते हैं जो लोग तिजारत शीशों की 
खुद ही नहीं पहचानते अपने चेहरों को
*
देने लगा हूं जन्नत-ओ-दोजख़ के हुक्म भी 
परवरदिगार रोक ख़ुदा हो रहा हूंँ मैं
*
न था मुम्किन वहाँ हालात को तब्दील करना 
जहांँ तारीख़ को यक्सर भुलाया जा चुका था
यक्सर: पूरी तरह
*
हमने तिनके से तो साहिल पे उतर जाना है 
इससे आगे नहीं मालूम किधर जाना है 

जो गया महफ़िल-ए-याराँ से गया ये कह कर 
दिल तो करता नहीं जाने को मगर जाना है   

ये कि लगता ही गया बज़्म की रानाई में 
और मैं दिल से यह कहता रहा घर जाना है
*
ये कह रही हैं वो आंँखें जो ख़ुद नहीं खुलतीं 
शदीद आँधियों में आज़माए जाएंँ चराग़ 
शदीद: तेज 

अगर नज़र को अंधेरे में तेज रखना है 
तो फिर यह अम्र है लाज़िम बुझाए जाएंँ चराग़
अम्र: काम
*
कैसे उस आंँगन को 'आसिम' कमरे में तब्दील करूं
जिसमें चिड़िया और तितली से मेरी बेटी खेली है

आसिम साहब का यू. के. आने और वहां की नागरिकता लेने का फ़ैसला उनकी ज़िन्दगी में बहुत अहम तब्दीली लाया। मेडिकल में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल करने के अलावा उन्हें रॉयल कॉलेज ऑफ आयरलैंड की मेम्बरशिप हासिल हुई , लीडस टीचिंग हॉस्पिटल में रिहेब्लिटेशन मेडिसिन की ट्रेनिंग लेने का मौक़ा मिला बाद में वो शेफील्ड टीचिंग हॉस्पिटल में रिहेब्लिटेशन मेडिसिन के कंसलटेंट नियुक्त हुए जहाँ वो लगभग नौ साल तक काम करते रहे। प्रोफेशनल ज़िन्दगी में तरक़्क़ी के साथ साथ उनकी ज़िन्दगी में रोज़ी साहिबा जो ब्रिटिश नागरिक हैं बतौर शरीके हयात शामिल हुईं। अब उनके परिवार में दो बेहद समझदार और कामयाब बेटियाँ भी हैं जिन पर फ़क्र किया जा सकता है। 

रोज़ी साहिबा के अलावा एक और शख़्स ने आसिम साहब की ज़िन्दगी को गुलज़ार किया और वो हैं मशहूर शायर नासिर काज़मी साहब के बेटे जनाब 'बासीर सुल्तान काज़मी' साहब। बासीर साहब ने मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी से एम्ए एड और एम्ए फिल की डिग्रियाँ हासिल की हैं। उनकी शायरी यू.के. के मैकेंज़ी स्केवर की एक शिला पर उकेरी गयी है। 1953 में जन्में बासीर साहब जो 1990 में यू.के. आ कर बस गए, आसिम वास्ती साहब के गहरे दोस्त हैं। आसिम साहब के दोस्तों में शायर जनाब 'अब्बास ताबिश' साहब का नाम भी आता है जिनकी पहली किताब जनाब शौक़त वास्ती साहब की रहनुमाई में मंज़र-ए-आम पर आयी थी।

मेरा दिल है मेरी पनाह में तेरा दिल है तेरी पनाह में 
मगर इख़्तियार का मस्अला तिरा और है मिरा और है
*
ये बात सच है कि मस् रुफ़ हूँ बहुत फिर भी 
सताए जब तुझे तन्हाई तो बुला लिया कर 

समझना ठीक नहीं बेवफ़ाई गफ़्लत को 
जब आए दिल में कोई शक तो आज़मा लिया कर
*
पूछा था दरवेश से मैंने प्यार है क्या और उसने 
काग़ज़ पर इक फूल बनाया साथ बनाई तितली
*
अगर लहू नहीं करता मैं अपने पाँव यहाँ 
तिरी ज़मीं पे कहीं रास्ते नहीं होते

यह लोग इज्ज़ की तासीर से नहीं वाक़िफ़ 
इसीलिए तो यहां मोजज़े नहीं होते
इज्ज़: विनम्रता , मोजज़े: चमत्कार
*
रहते हैं जिस गली में बहुत मालदार लोग 
हैरत है उस गली में गदागर नहीं गया 
गदागर :भिखारी
*
शहर का हाल अब ऐसा है ज़रा देर अगर 
नींद आए भी तो ग़ाफ़िल नहीं हो सकता मैं
*
जो मिरा रिज्क़ है सारा है मेरी क़िस्मत का 
ये तो सोचा ही नहीं छीनने वाले तूने
रिज्क़: जीविका, रोज़ी
*
अभी ये लम्स मुकम्मल नहीं हुआ मेरी जान 
अभी ये ख़ून के दौरान तक नहीं पहुंचा
लम्स: स्पर्श

यू.के. में ज़िन्दगी ख़ुशगवार तरीके से बसर हो रही थी कि सन 2007 में डाक्टर आसिम को यू ऐ ई के विश्व प्रसिद्ध 'शेख़ ख़लीफ़ा मेडिकल सिटी' से फ़िजिकल मेडिसिन और रिहेब्लिटेशन के सीनियर कंसल्टेंट पद का ऑफर आया। पचास वर्ष की उम्र में जब इंसान किसी एक जगह ठिकाना बना कर रहने की सोचता है अचानक यू.के. से जमा जमाया सब कुछ छोड़कर किसी दूसरी जगह जा कर फिर से आशियाँ बनाने का निर्णय लेना बनाना आसान नहीं होता लेकिन डॉक्टर आसिम ने इस चेलेंज को स्वीकारा और अबुधाबी आ गए। अबुधाबी में आसिम साहब ने बहुत से प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर के रिहेब्लिटेशन सेंटर्स के विकास में अभूतपूर्व काम किया। आजकल वो अबुधाबी के विश्वप्रसिद्ध क्लीवलैंड क्लिनिक में स्टॉफ फिजीशियन के पद पर काम कर रहे हैं। रिहेब्लिटेशन के क्षेत्र में डा.आसिम का नाम विश्व के सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर्स में शुमार होता है।

डॉक्टर साहब के पास यूँ तो सब कुछ है सिवा वक़्त के। मसरूफ़ियत के चलते वो सोशल मिडिया पर एक्टिव नहीं है इसलिए उनसे इन प्लेटफॉर्म्स के मार्फ़त राबता बनाये रखना बहुत मुश्किल है। इतनी मसरूफ़ियत के बावज़ूद वो अपने प्रोफेशन में से पैशन के लिए वक़्त निकाल ही लेते हैं। शायरी ही उनका पैशन है। वो तकरीबन रोज़ ही शेर कहते हैं उनके लिए शेर कहना शायद सांस लेने जैसा ही अहम् काम है। उन लोगों को जो वक्त की कमी का रोना रो कर अपने पैशन को पूरा नहीं कर पाते डॉक्टर साहब से सीखना चाहिए कि कैसे अपने शौक़ के लिए वक्त निकाला जाय। प्रोफेशन और पैशन के बीच तालमेल बिठाना एक बहुत बड़ी कला है जो डॉक्टर साहब को बखूबी आती है। 

पत्थरों में तुझे हीरा नहीं आता है नज़र 
तू मेरे दिल का ख़रीदार नहीं हो सकता 

हाल जैसा भी हो माहौल बना लेता है 
दिल क़लंदर हो तो बेज़ार नहीं हो सकता 
क़लंदर : फ़क़ीर
*
देखता रहता है क्यों बैठा परिंदों की तरफ़ 
तू अगर पर्वाज़ करना चाहता है पर निकाल

लौटने या रुख बदलने के तो हम क़ाइल नहीं 
रास्ता रोके अगर दीवार 'आसिम' दर निकाल
*
तअल्लुक़ात में लाज़िम है ताज़गी रखना 
ग़लत नहीं जो इबादत में तजर्बा किया जाए 

मैं कह रहा हूं दरिंदा है फ़ितरतन हर शख़्स 
मिरे बयान पे बेलाग तब्सिरा किया जाए 

अगर लगाव है तो बारहा भी जायज़ है 
अगर है इश्क़ तो बस एक मर्तबा किया जाए
बारहा: बार बार
*
एक जंगल ही उजाड़ा हमने 
शहर जब भी कोई आबाद किया
*
संभलता ही नहीं है वक्त हमसे 
बहुत करते हैं ख़ुद अपना जियाँ हम
जियाँ :नुकसान 
*
ये बताओ मुझे तुमसे कोई एहसान मेरा 
जब उठाया नहीं जाता तो उठाते क्यों हो

यू.ऐ.ई.के ही नहीं भारत और पाकिस्तान के युवा शायर डॉक्टर आसिम की शायरी के क़ायल हैं और कहीं न कहीं उनकी शैली अपनाते भी दिखाई देते हैं। उनकी शायरी के बारे में सय्यद सरोश साहब फरमाते हैं कभी हमें किसी शेर को पढ़ सुन कर हैरत होती है और कुछ वक़्त बाद हो के ख़तम हो जाती है लेकिन आसिम साहब के शेर की जो हैरत है उसे सुन कर आप घर पे आएंगे आप सोचते रहेंगे आप दूसरे दिन सो के उठेंगे तब भी ख़तम नहीं होगी। उनका शेर आपको देर तक बांधे रखता है। आसिम साहब के यहाँ शायरी बहुत लिबरल है याने वो सख़्त मिज़ाज़ी नहीं है कि शायरी में ऐसा हो ही नहीं सकता या आप ऐसा कर ही नहीं सकते। उनके यहाँ शायरी में फ्रीडम है और उन्हें नए-नए तजुर्बे करने से परहेज़ नहीं है। वो अपने शागिर्दों को बंधी बंधाई लीक को छोड़ कर अलग रास्ता बनाने को कहते हैं लेकिन इसके साथ ही लफ्ज़ को सलीके से बरतने, जम के पहलु से परहेज़ करने और उरूज़ की बंदिशों को मानने पर भी जोर देते हैं। शायरी में वो ज़बान को बहुत अहमियत देते हैं उनके यहाँ आपको बहुत सजे सजाये मिसरे मिलेंगे जैसे किसी से कोई बात कही जा रही हो। उनका ये भी कहना है कि जब भी किसी का शेर आपकी नज़र से गुज़रे तो पहले उसे चार ज़ानिब से देखें और फिर देखें कि क्या इसमें पांचवी जानिब कोई रास्ता निकल सकता है। बातें तो शायरी में लगभग सब कही जा चुकी हैं ऐसे में आप उन्हीं बातों को नए जाविये से पेश कर सकते हैं या नए लफ़्ज़ों के माध्यम से कह सकते हैं ताकि वही बात जो कई मर्तबा सुनी जा चुकी है सुनने वाले को एक दम नई सी लगे।

आसिम वास्ती साहब की ग़ज़लों की तीन किताबें 'किरण किरण अँधेरा' सं 1989 में , 'आग की सलीब' सन 1995 में 'तेरा एहसान ग़ज़ल है' सन 2009 में और नज़्मों की एक किताब 'तवस्सुल' सन 2017 में मंज़र ए आम पर आ चुकी हैं और उर्दू शायरी के दीवानों में काफ़ी मक़बूलियत हासिल कर चुकी हैं। हिंदी में उनकी एकमात्र किताब 'लफ़्ज़ मेहफ़ूज़ कर लिए जायँ' सन 2018 में रेख़्ता ने प्रकाशित की। अगर आप अच्छी शायरी पढ़ने के शौक़ीन हैं कुछ नया सा पढ़ना चाहते हैं तो आसिम वास्ती साहब की देवनागरी में छपी ये किताब आपके पास होनी ही चाहिए। इस किताब में उनकी लगभग 150 बेहतरीन ग़ज़लें शामिल हैं जिनका हर शेर आपको बेहद मुत्तासिर करेगा और आप उसके तिलस्म से आसानी से नहीं निकल पाएंगे।

डॉक्टर साहब क्यूंकि बेहद मसरूफ़ शख़्सियत हैं इसलिए हो सकता है वो आपका फोन न ले पाएं इसलिए अगर आप उन्हें इस किताब के लिए मुबारक़बाद देना चाहें तो जनाब सय्यद सरोश आसिफ़ साहब को +971 50 305 3146 पर व्हाट्सएप कर देंगे। आपका सन्देश डॉक्टर साहब तक शर्तिया पहुँच जायेगा।

आखिर में मैं जनाब सय्यद सरोश आसिफ़ साहब और रेख़्ता के जनाब सालिम सलीम साहब का बेहद शुक्रगुज़ार हूँ जिनकी मदद के बिना ये पोस्ट लिखनी मुमकिन नहीं होती।

पेश हैं डॉक्टर सबाहत आसिम वास्ती साहब की ग़ज़लों के कुछ और शेर :

ख़ुदाई के भरोसे आ गए हैं 
खुले सेहरा में ज़ेर-ए-आसमाँ हम 
ज़ेर ए आसमाँ: आसमाँ के नीचे 

कहानी में नुमायाँ हो रहे हैं 
परिंदे पेड़ आंधी आशियांँ हम
*
बूंद में देखती है बेचैनी 
आंख ठहरी हुई रवानी की 

बेगुनाहों को पहले क़त्ल किया 
फिर जनाजों पे गुल-फ़िशानी की 
*
मुसलसल गुफ्तगू करता रहा वाइज़ बदन की 
हमें उम्मीद ये थी बात रूहानी करेगा
*
घर के अंदर है बहुत खूब तेरा बाग़ीचा 
घर की दहलीज़ से बाहर भी तो फुलवारी रख
*
महाज़ ए जंग पे लाया हूं साथ चंद गुलाब 
दुआ करो कि ये हथियार कारगर हो जाए
महाज़ ए जंग: रणभूमि
*
घर के मुआमलात पे हर रात देर तक 
करते हैं गुफ़्तगू दर-ओ-दीवार और मैं
*
बताएंँ किस तरह तन्क़ीद में इंसाफ़ बरतेंगे 
अगर हम आपके मेयार से बेहतर निकल आए 
तन्क़ीद: आलोचना, मेयार :कसौटी
*
तमाम वक्त़ गुजरता है अपने साथ तिरा 
तू अपने आप से उकता गया तो क्या होगा



Monday, August 16, 2021

किताबों की दुनिया - 238

बस्ती बस्ती में सुनिए जिंदाबाद के नारे
पहले मुल्क होता था अब महान हैं चेहरे 
*
लालमन की हर कोशिश मिल गई न मिट्टी में
चार बीघा खेतों में बढ़ गई हवेली फिर
*
हर शख्स किसी तौर मिटाने पे तुला है 
चेहरे पे हुईं जब से नमूदार लकीरें
*
इन दिनों ख़ामोश रहता हूं
आ गया है गुफ़्तगू करना
*
रोशनी, ताज़ा हवा, खुशियां, सुकून 
ये हमारे हक़ नहीं है भीख हैं
*
 तब उल्टी बात का मतलब समझने वाले होते थे 
समय बदला, कबीर अब अपनी ही बानी से डरते हैं 

पुराने वक़्त में सुल्तान ख़ुद हैरान करते थे 
नए सुल्तान हम लोगों की हैरानी से डरते हैं 

न जाने कब से जन्नत के मज़े बतला रहा हूं मैं 
मगर कम-अक़्ल बकरे हैं कि कुर्बानी से डरते हैं
*
सब कहते हैं बस कुछ ही दिन 
सचमुच क्या ऐसा लगता है

ये शायद 2009 की बात होगी। मैं तब खोपोली में नौकरी कर रहा था कि किसी एक रविवार को मोबाइल की घंटी बजी ,अनजान नंबर था मैंने देख के अनदेखा ये सोच के कर दिया कि किसी बैंक वाले का होगा जो मुझे उसके बैंक से लोन लेने के हज़ार फायदे गिनवायेगा मेरे मना करने पर भी नहीं मानेगा। कुछ समय बाद मोबाइल की घंटी फिर से बजी वो ही नंबर था। मैंने सोचा कि बैंक वाले यूँ लगातार फोन नहीं करते कोई और ही होगा लिहाज़ा उसे उठा लिया। उधर से खनकदार आवाज़ आयी 'नीरज जी बोल रहे हैं ?' मैंने कहा 'जी हाँ -आप कौन ?' जवाब आया 'अरे हमें छोडो मियाँ ये बताओ हमने आपका क्या बिगाड़ा है ?' मैंने हैरान हो कर कहा कि 'भाई जब मैं आपको जानता ही नहीं तो आपका क्यों और क्या बिगाड़ूँगा ?' उधर से एक बड़े जोरदार कहकहे के साथ जवाब आया कि 'लगता है नीरज भाई आप हमारी दुकान बंद करवा के ही मानेंगे' अब मैं कुछ झल्लाया और बोला ' आप क्या बात कर रहे हैं ? कौनसी दुकान? फिर उसके बाद जो जवाब आया उसे सुन कर मेरी बांछें खिल गयीं क्यूंकि मुझे कहा गया कि नीरज जी आप बहुत अच्छी ग़ज़लें कह रहे हैं और अगर आप इसी तरह कहते रहे तो बहुत से उभरते शायरों की दुकानें बंद हो जाएँगी। मैंने हंस कर बात टाल दी और कहा कि आप मुझे चने के झाड़ पर न चढ़ाएं क्यूंकि मैं तो अभी ग़ज़ल का ककहरा सीख रहा हूँ। तब सोशल मिडिया पर झूठी वाह वाही करने का शुरूआती दौर था जो आज अपने पीक पर है। तब मुझे मालूम नहीं था कि जो शख़्स मेरी तारीफ़ कर रहा है वो खुद एक कद्दावर शायर है। 

मेरी बात सुन कर मोबाईल पर कुछ देर सन्नाटा रहा फिर आवाज़ आयी कि नीरज जी आप अगर सीखने के दौर में ऐसा कह रहे हैं तो यकीन मानिये आने वाले वक़्त में आप बेहतरीन कहेंगे। वो बेहतरीन वक्त तो खैर नहीं आया क्यूंकि थोड़े ही वक्त में मुझे ये बात समझ में आ गयी थी कि अच्छी शायरी क्या होती है और जब ये बात समझ में आयी तब मैंने ग़ज़लें कहना छोड़ दिया। 

उस दिन के बाद से फोन का सिलसिला अभी तक जारी है जिसमें शायरी की बात कम और कहकहों के अनार ज्यादा फूटते हैं।           

क़दम ठहरे तो उग आते हैं घास और फूस धरती पर 
क़दम बढ़ते रहें तो इससे पैदा लीक होती है 

बहुत से नाम है इमदाद राहत कर्ज़ हमदर्दी 
समझ पाना कठिन है कौन सी शै भीख होती है
*
 क्या कहा लेता नहीं कोई सलाम 
मशवरा मानो मेरा, सजदा करो
*
थोड़ा और उबर के देखो 
जीवन कारावास नहीं है 

बाहर तो सारे मौसम हैं 
आंगन में मधुमास नहीं है 

इक जीवन इतने समझौते 
हमको बस अभ्यास नहीं है
*
मैंने सिर्फ एक सच कहा लेकिन
यूं लगा जैसे इक तमाशा हूं 

मैं न पंडित न राजपूत न शेख़ 
सिर्फ़ इंसान हूं मैं, सहमा हूं
*
आइना हूं मैं दीवार पर 
आइए देखिए जाइए 

लीजिए मुल्क जलने लगा 
अब तो सिगरेट सुलगाइए 

बात बात पर एक से बढ़ कर एक लाजवाब जुमले उछालने वाला कहकहे लगाने वाला और ग़ज़ब की सेन्स ऑफ हूयूमर वाला ये बंदा किसी दूसरे पर नहीं अपने ऊपर ही हँसता है। ये बंदा शायरी बहुत संजीदगी से करता है जिसमें न जुमले बाज़ी होती है न लफ़्फ़ाज़ी जिसमें होती है ज़िन्दगी की हक़ीक़त और इंसान की फ़ितरत की दास्तान। बतौर राम प्रकाश 'बेखुद' जिसकी शायरी में एक आम आदमी की समस्याएं , ग़रीब की बेबसी, मज़दूर के माथे का पसीना , अबला की चीखें ,समाज की विसंगतियाँ , सियासत की साज़िशें साफ़ साफ़ दिखाई दें तो समझिये वो शायर 'सरवत जमाल' है। 'सरवत जमाल' एक ऐसा शायर भी है जिसने उर्दू और हिंदी वालों की खेमा बंदी को तोड़ा है। उनकी शायरी की ज़बान खालिस हिंदुस्तानी है जिसमें हिंदी और उर्दू दोनों ज़बानों का अक्स नज़र आता है।

अभी हमारे सामने 'सरवत जमाल' साहब की पहली ग़ज़लों की किताब 'उजाला कहाँ गया' रखी है जिसे नमन प्रकाशन लखनऊ ने प्रकाशित किया है। इस किताब में सर्वत साहब की 83 ग़ज़लें शामिल हैं। इस किताब को आप नमन प्रकाशन से 9415094950 पर मंगवा सकते हैं और सरवत जमाल साहब को इन ग़ज़लों के लिए मुबारक़ बाद देते हुए उनसे 7905626983 पर बात कर सकते हैं।


कहीं भी सर झुका दिया, नया खुदा बना लिया 
ग़ुलाम क़ौम को मिलेगी कब निजात, देखिए
*
अगर है सब्र तो नेमत लगेगी दुनिया भी 
नहीं है सब्र अगर फिर तो जंग है दुनिया
*
कितने दिन, चार,आठ,दस, फिर बस 
रास अगर आ गया क़फ़स, फिर बस 

जम के बरसात कैसे होती है 
हद से बाहर गई उमस, फिर बस 

हादसे, वाक़यात, अफ़वाहें 
लोग होते हैं टस से मस, फिर बस
*
इस तरफ आदमी उधर कुत्ता
बोलिए, किसको सावधान करें
*
आंधी से टूट जाने का ख़तरा नज़र में था 
सारे दरख्त़ झुकने को तैयार हो गए
*
फिर यूं हुआ कि सब ने उठा ली कसम यहाँ 
फिर यूं हुआ कि लोग ज़बानों से कट गए
*
कुछ घरों में धुंआ ही उठता है 
हर जगह रोशनी नहीं होती
*
हमारे दौर के बच्चों ने सब कुछ देख डाला है 
मदारी को तमाशों पर कोई ताली नहीं मिलती

गोरखपुर निवासी जनाब जव्वाद अली और ज़ीनत बेग़म के यहाँ जब 29 ऑक्टूबर 1956 को सरवत का जन्म हुआ तब घर में कोई बैंड बाजे नहीं बजे। बस चुपके से सात बहन भाइयों में एक बेहद आम शक्ल-ओ-सूरत के बच्चे का शुमार हो गया। सब बच्चों के साथ इनकी भी परवरिश होती रही। कुछ सालों बाद उनकी माँ को अहसास हुआ कि, ये लोगों को अपने जुमलों से हंसा हंसा कर लोट-पोट कर देने वाला ,खूबसूरत आवाज़ में गाना गाने वाला, अपनी एक्टिंग से सबको हैरान कर देने वाला और भाषण देने में आगे रहने वाला बच्चा सबसे अलग है। कभी कभी संजीदा हो कर कुछ लिखता भी है। पिता जव्वाद अली साहब को उनके इस लिखने के हुनर का पता चलता उससे पहले ही वो इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुख़सत फ़रमा गए। जब तक 'सरवत' ग़ज़ल कार के रूप में शोहरत हासिल करते, माँ भी उन्हें छोड़ कर चली गयीं। 'सरवत' साहब को इस बात का आज भी बेहद मलाल है कि उनके माँ-बाप अपने बेटे के इस हुनर को बिना जाने ही उन्हें छोड़ गए।

संजीदगी से 'सरवत' साहब का यूँ तो छत्तीस का आंकड़ा रहता है सिर्फ ग़ज़ल कहते वक्त ही वो संजीदा रहते हैं इसीलिए वो अपनी ग़ज़लों को भी संजीदगी से नहीं लेते। उनके बेहद क़रीबी दोस्त जनाब 'मलिक ज़ादा जावेद' साहब उनके बारे में लिखते हैं कि 'सरवत जमाल को न सिले की परवाह है न सताइश की तमन्ना है इसलिए वो शोहरत के पीछे नहीं भागते बल्कि शोहरतें इनके इर्द गिर्द तवाफ़ करती हैं। ,

भला तोता और इंसानों की भाषा
 मगर पिंजरे के मिट्ठू बोलते हैं 

जिधर घोड़ों ने चुप्पी साध ली है 
वहीं भाड़े के टट्टू बोलते हैं
*
उसकी चुप क्या है, कोई सोचने वाला ही नहीं 
लोग ख़ुश हैं कि सवालात कहां तक पहुंचे
*
तुम तो यही कहोगे निकाला कहाँ गया
फिर ये सवाल है कि उजाला कहाँ गया

यह ठीक है कि आप की ख़ूराक बढ़ गई 
लेकिन हमारे मुंह का निवाला कहाँ गया 

चोरी हुई तो इसकी कोई फ़िक्र ही नहीं 
सबको यही पड़ी है कि ताला कहाँ गया
*
इक हवेली भी गिरी छप्पर के साथ 
हौसले देख़ो ज़रा तूफ़ान के
*
तमाम चर्चे, तमाम ख़र्चे, तमाम कर्ज़े 
मगर हमारा वतन अभी तक महान है ना
*
महाभारत में अबकी कौरवों ने शर्त यह रख दी 
बिना रथ युद्ध होगा सारथी का क्या भरोसा है
*
यह जीवन है कि बचपन की पढ़ाई 
ज़रा सी चूक पर सौ बार लिखना

सरवत साहब अपनी शायरी को लेकर किस कदर लापरवाह थे इसका अंदाजा आपको उनके एक पुराने दोस्त रवि राय की इस बात से लग जाएगा रवि लिखते हैं कि "मैं काफी दिनों बाद शायद ईद के मौके पर इनके घर गया था। हम दोनों बेडरूम में ही बैठे थे ।मुझे तकिए के नीचे एक पर्ची दिखी जिस पर एक मुकम्मल ग़ज़ल लिखी हुई थी ।लिखावट सरवत की ही थी । मेरी सवालिया निगाहों के जवाब में बोले 'ये तो कल रात अचानक बन गई'। मैं पर्ची पढ़ रहा था तभी नाश्ता लेकर भाभी कमरे में आईं । उन्होंने तकिए के गिलाफ में हाथ डालकर वैसी ही 10-12 पर्चियां बिस्तर पर रख दीं । 'ये क्या है' मैंने हैरत से पूछा 'बैठे-बैठे यही सब तो करते रहते हैं दिनभर' कह कर भाभी चाय रख कर चली गईं।

मैंने सारी पर्चियां तरतीबवार देखीं ।एक से बढ़कर एक ग़ज़लें । मैं हक्का-बक्का रह गया ।'अबे तू कब से शायर बन गया?' सरवत का मुंह देखने लायक था, जैसे चोरी करते रंगे हाथ पकड़े गए हों ।'अरे ये सब ऐसे ही है ' । 'गजब हो भाई, इसको कम से कम किसी कॉपी या डायरी में लिख डालो । एक किताब छप जाएगी। 'छोड़ो यार, किताब का क्या करेंगे?  कहते हुए सरवत ने लापरवाही भरे अंदाज़ में इस बार पलंग के गद्दे के नीचे हाथ घुसेड़ कर रखी वैसी ही ढेर सारी पर्चियां निकाल कर मेरे सामने बिखेर दीं । भाभी ने बताया कि पहले ऐसी न जाने कितनी पर्चियां झाड़ू मार कर कूड़ेदान के हवाले की जा चुकी हैं। ये तो मैं हूँ जो उन्हें बटोर बटोर कर गद्दे के नीचे डालती रहती हूँ वरना इनकी फिलॉस्फी तो ग़ज़लें लिख कूड़े में डाल वाली है। ये बात माननी पड़ेगी कि सरवत साहब बहुत खुशकिस्मत हैं इतनी समझदार और लगातार हौसला बढ़ाने वाली शरीके हयात उन्हें नसीब हुई वरना ज्यादातर शायरों की बीवियां उनकी शायरी पर कुढ़ती ही मिलेंगी। इस बात को सरवत साहब फ़क्र से सबको बताते भी हैं। बीवी ही नहीं उनके बच्चों ने भी हमेशा उन्हें उत्साहित किया है। उनकी ज़िंदादिली का सबसे बड़ा राज़ भी शायद यही है।
 
रवि लिखते हैं कि 'बहरहाल शायद मेरे बार-बार कहने और कुछ इनकी एक दोस्त की मेहरबानी से सरवत जमाल की ये सारी पर्चियां रेलवे की एक काली डायरी में दर्ज हो गईं । लंबे वक्त तक यह डायरी मेरे पास रही।'

सफर आसान पहले भी नहीं था
 मगर तब ज़िंदगी भी ज़िदगी थी
*
 वह कह रहा है कि दरवाजे बंद ही रखना 
मैं सोचता हूं कि इस घर में खिड़कियां होती
*
दिन बुरे भी हों तो ये हैं दिन ही 
रात रोशन भी हो तो काली है
*
जिंदा है सभी लेकिन 
किस बदन में जुंबिश है 

खाली पेट और ईमान 
सख़्त आजमाइश है 

फिर वो धीरे से बोला 
पास में सिफारिश है

सन 2006 के आसपास सोशल मिडिया लोकप्रियता की और बढ़ रहा था। उसी दौर में सरवत साहब की ग़ज़लें फेसबुक और ब्लॉग में पोस्ट होने लगीं। धीरे लोग उन्हें पहचानने और पसंद करने लगे और उन्हें दिल्ली, भोपाल, पटना, इलाहबाद लखनऊ के अलावा देश के छोटे बड़े शहरों में होने वाले मुशायरों में बुलाया जाने लगा। पत्र-पत्रिकाओं में में भी उनके छपने की रफ़्तार बढ़ने लगी। उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा आप रवि राय जी द्वारा बयां की एक घटना से लगा सकते हैं। शिमला में आल इण्डिया मुशायरा था वसीम बरेलवी सहित देश के तमाम बड़े शायर उसमें शिरकत कर रहे थे। सरवत साहब ने अपने कलाम से मुशायरा लूट लिया। उनके शेरों पर दाद देने के लिए वसीम साहब अपनी कुर्सी से उठ कर माइक तक आये और उन्हें गले लगा लिया। मुशायरा ख़तम होने के बाद सारे शायर और आयोजक डिनर के लिए चले गए लेकिन सरवत जमाल को उनके चाहने वाले घेरे रहे। इतनी लोकप्रियता हासिल करने के बावजूद सरवत को मुशायरों का माहौल ज्यादा रास नहीं आया। अपने उसूलों से समझौता न करने वाले सर्वत का दिल मुशयरों में होने वाली चाटुकारिता को देख दुखी होता। उन्हें किसी ख़ेमे से जुड़ना ग़वारा नहीं है और मुशायरों में किस क़दर खेमे बाज़ी है ये बात आज किसी से छुपी नहीं है इसलिए मुशायरों में उन्होंने जाना बहुत ही कम कर दिया।

सरवत साहब से मेरा हालाँकि दस सालों से ज्यादा का राबता है एक बार उनके दोस्त मालिक जादा जावेद के साथ उनसे दिल्ली के बुक फ़ेयर में मुलाक़ात भी हुई है ।उनसे फोन पर इतनी बार बात हुई है कि रूबरू न मिल पाने का कभी मलाल नहीं रहा ।जब मैंने इस लेख के लिए उनसे उनकी ज़िन्दगी के मुश्किल दौर के बारे में पूछा तो बोले ' यार क्या करेंगे लोग मेरे और मेरी दुश्वारियों के बारे में जानकर, वो मुझे पढ़ लें इतना ही बहुत है।' सरवत साहब से बरसों से हो रही बातचीत के बाद मुझे पता लग चुका है कि ये इंसान बला का खुद्दार इंसान है और जब किसी की मदद का मौका आता है तो उस पर सब कुछ न्यौछावर करने में गुरेज़ नहीं करता। लोगों ने सरवत की इस भलमनसाहत का भरपूर फायदा उठाया है. बदले में बजाय उसका शुक्रगुज़ार होने के उसकी टांग ही खींची है। जिन्हें सरवत ने क़लम पकड़ना सिखाया वही उसे शायर मानने को तैयार नहीं हैं।  ऐसे लोगों के मानने न मानने से सरवत साहब को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता उनका मानना है कि वक़्त अच्छे बुरे का फैसला खुद कर देगा। बहुत से लोकप्रिय वाह वाही लूटने वाले बड़े बड़े शायर आज गुमनामी के अँधेरे में खो गए हैं याद सिर्फ वो रह जाते हैं जिनके क़लाम में जान होती है लफ़्फ़ाज़ी नहीं। 

सरवत साहब और उनकी की शायरी पर दैनिक जागरण के हिमांचल प्रदेश राज्य के संपादक श्री नवनीत शर्मा ने जो लिखा है उसके बाद और किसी के लिखने को कुछ खास नहीं बचता। वो लिखते हैं है कि 'सरवत जमाल किसी भी तौर आरी से घबराने का नाम है ही नहीं। ग़ज़ल हो या जीवन पेशेवर क्षेत्र हो या निजी इलाक़ा सरवत जमाल पत्थर खाते हुए ही आगे बढे हैं। ' उजाला कहाँ गया' कहने वाले रौशनी के तलबगार तो कई मिलेंगे लेकिन उजाले के मुरझाने के कारणों की तलाश करने वाला विरला ही होता है। सरवत की शायरी में आपको थके या घिसे पिटे शब्द नहीं मिलेंगे। शायद ही कोई ऐसा शब्द उनकी ग़ज़ल में हो जिसके लिए शब्दकोश देखना पड़े। ग़ज़ल की सकारात्मक प्रयोगशाला का बड़ा नाम है सरवत जमाल।'

सरवत जमाल जैसा कि मैंने पहले बताया अपने बारे में ज्यादा कुछ बताने में विश्वास नहीं रखते। आत्मप्रचार और यश लोलुपता से उनका तअल्लुक़ नहीं है इसलिए उनके बारे में जो कुछ भी लिख सका हूँ वो सब इसी किताब 'उजाला कहाँ गया' से ही लिया हुआ है। आखिर में पेश हैं और चुनिंदा शेर :

जो मेरे हाथ में माचिस की तीलियां होतीं 
फिर अपने शहर में क्या इतनी झाड़ियां होतीं 

पचास साल इसी ख़्वाब में गुज़ार दिए 
बहार होती, चमन होता, तितलियां होतीं 
*
सफर आसान पहले भी नहीं था 
मगर तब जिंदगी भी जिंदगी थी 

विभीषण और विभीषण बस विभीषण 
भरत से कब किसी की दोस्ती थी 

वो पत्थर पत्थरों पर मारता है 
कभी ये भूल हमसे भी हुई थी
*
बचा है कोई भी, जो आज खुद को 
बिना तोड़े मरोड़े पालता है
*
रोशनी की बहार है फिर भी 
रोशनी का अकाल पहले सा
*
जश्न है, ख़मोशी है सब पड़े हैं सजदे में 
इस जगह से राजा का क़ाफ़िला निकलता है

उम्र बीत जाती है सिर्फ ये समझने में 
चक्रव्यूह से कैसे रास्ता निकलता है
*
सफाया जंगलों का हो गया फिर 
अकेली सिर्फ़ आरी रूबरू थी

Monday, August 2, 2021

किताबों की दुनिया - 237

समा सकती नहीं गुलशन की कोई शै निगाहों में 
कि तुम को देखकर सू-ए-गुलिस्तां कौन देखेगा 
सू-ए-गुलिस्तां :उपवन की ओर 
*
यूं तो है हर शख्स़ हाजतमंद दुनिया में मगर 
जिस के घर में कुछ न हो उसकी ज़रूरत देखिए
हाजतमंद: ज़रूरत मंद
*
यह किस्से चंद रोज़ा हैं भुला देगी इन्हें दुनिया 
न रुसवा होके जाता है न कुछ आता है शोहरत से
*
क्या किनारे से ग़रज़ थी क्या ग़रज़ मझधार से 
जिस जगह डूबी वही कश्ती का साहिल हो गया 
*
चले ये कितना भी सहने चमन में इतरा कर 
सबा को कब तेरा तर्ज़े-ए-ख़िराम आएगा 
सबा: हवा,  तर्ज़े ए ख़िराम : चलने का ढंग
*
मैं मुब्तिला ए फिक्र ए सुख़न हूं तो क्या हुआ 
वो कौन है जहां मैं जिसे कोई ग़म नहीं 
मुब्तिला ए फिक़रे सुख़न : काव्य चिंतन में लीन
*
जिंदगी के जो ये दो दिन हैं गुज़र जाएंगे 
साथ अपनों के रहे या कहीं बेगानों में
*
वहशत है आज उसके हर इक क़ौल-ओ-फ़ैल में 
इंसानियत थी जिनमें वो इंसा कहांँ गए 
क़ौल-ओ-फ़ैल: कथनी और करनी
*
अभी है ज़हन में तामीर-ए-आशियां का ख़्याल
तड़प रही हैं अभी से ये बिजलियां क्या क्या
तामीर ए आशियां : नीड़ का निर्माण
*
चूंकि इक उम्र गुज़ारी थी इसी जिंदां में 
सोच कर रह गया दीवार में दर कौन करे

छम छम गली, गुदड़ी मंसूर खां आगरा, स्थित दरगाह हज़रत क़ासिम शाह की मज़ार पर जो ख़ातून चादर चढ़ा कर दोनों हाथ उठाए खड़ी है, उसका नाम है 'माज़िदा'। दुआ मांग कर जब मुस्कुराती हुई 'माजिदा' मुड़ी तो पास खड़े उनके शौहर 'अब्दुल समद' साहब ने धीरे से उनसे पूछा ' बड़ी मुस्कुरा रही हो बेगम, अल्लाह से क्या मांगा?' 'बेटा' माजिदा ने लजाते हुए कहा और तेजी से अपनी माँ के घर की ओर चल पड़ी। उसकी बात सुनकर 'अब्दुल समद' भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सके और ऊपर देख कर बुदबुदाते हुए कहा 'ऐ परवर दिगार, मेरी 'माजिदा' की मुराद पूरी करना'। 'अब्दुल समद' साहब जब अपने ससुराल में 'माजिदा' को छोड़ कर अपने घर की ओर रवाना हुए तो ख़ुशी से उनके पाँव जमीं पर नहीं पड़ रहे थे।

1 जनवरी 1925 के दिन 'माजिदा' को बेटा हुआ। नाम रखा गया 'अब्दुल सलाम'। नानी का पूरा घर नन्हें 'सलाम' की किलकारियों से गूँज उठा। मामू और खालाएँ बलाएँ लेने लगीं। अपनी हैसियत के हिसाब से 'सलाम' की नानी ने घर में जश्न की तैयारियां शुरू कर दीं । पर साहब ऊपर वाले का खेल भी अजीब होता है, जो उसके बाशिंदों को कभी समझ में नहीं आ सकता। जश्न की शहनाईयों की आवाज़ अभी धीमी भी नहीं पढ़ी थी कि माहौल में मातम छा गया । माजिदा' अपने दुधमुंहे बच्चे 'सलाम' को इस दुनिया में तन्हा छोड़ कर अचानक चल बसी।

इस बच्चे का 'दर्द' से रिश्ता तभी से क़ायम हो गया।

आबोहवा जो कल थी वही तो है आज भी 
लेकिन चमन के फूलों पे वो ताज़गी नहीं

मैं क़ैस तो नहीं दर-ए-लैला को छोड़ जाऊं 
ये इश्क़ इश्क़ है कोई दीवानगी नहीं
*
खुली हो आंख ही जिसकी क़फ़स में वो ये क्या जाने
किसे कहते हैं गुलशन और किसे वीराना कहते हैं

कभी देखा न आंखों से न तुझसे बात की मैंने 
जहां वाले न जाने क्यों तेरा दीवाना कहते हैं
*
ये मतलब तो नहीं तुम एक को इनमें से कम कर दो 
ख़नकते हैं जहांँ होते हैं दो बर्तन तो बर्तन से
*
क़ैद-ए-तन्हाई में क्या इसके सिवा हो मश्गला 
खेलता रहता हूं अपने पांव की ज़ंजीर से
*
दरअस्ल ये हयात भी इक इम्तिहान है 
देना है इम्तिहां यूं ही हर इम्तिहां के बाद
*
गुलों की आरजू में पहले कुछ कांटे भी पाले हैं 
कि हमने पावों के कांटे भी कांटों से निकाले हैं
*
किया और फिर करके गाया नहीं 
कभी हमने एहसां जताया नहीं 

उसे याद करने से हासिल हो क्या 
कभी जिसको दिल से भुलाया नहीं

बिन मां के दुधमुएँ बच्चे को संभालना आसान काम नहीं होता, लेकिन 'सलाम' की नानी, मामा और मामी ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया। मामा-मामी रात-रात भर जागकर इनकी परवरिश करते रहे। हर छोटी बड़ी बात का नानी पूरा ध्यान रखतीं। फूफी, माँ का हक़ अदा करती रही ।इन सबके बीच 'सलाम' बड़े होने लगे ।

अपने मामूज़ाद भाई बहनों के साथ खेलते, फूफा की हवेली में धमाल मचाते और पास ही में बनी दरोगा जी की बड़ी सी हवेली की छत से पतंग उड़ाते 'सलाम' का बचपन गुज़रता रहा । हाँलाकि उनकी देखभाल करने को हर तरफ़ लोग थे लेकिन माँ की कमी उन्हें सालती रहती। थोड़ा बड़ा होने पर 'सलाम' अपने दद्दीहाल  जो आगरा के ग़ालिब पुरा कलाँ में था रहने चले गए । जहां वालिद ने उनकी बेहतर परवरिश की ग़रज़ से अपनी शादीशुदा जिंदगी की दूसरी पारी का आगाज़ किया । शुरू में 'सलाम' को दीनी तालीम के लिए मोहल्ले की मस्जिद में दाखिला दिला दिया फिर कुछ अर्से बाद उनके वालिद ने उन्हें आगरा की 'शोएब मोहम्मदिया हाई स्कूल में दाखिला करा दिया जहां उनकी तालीम की बाकायदा इब्तेदा हुई ।उन दिनों आगरा में कहीं बिजली नहीं थी इसलिए स्कूल का काम चराग की रोशनी में किया करते थे। बरसो बाद जब बिजली आई तो पढ़ने लिखने में आसानी हुई।

तब के और अब के स्कूल की पढ़ाई में फ़र्क आ गया है । तब के मास्टर, आज की तरह बच्चों और उनके मां-बाप से डरे बिना, गलती करने पर बच्चों की तबीयत से पिटाई किया करते थे। 'सलाम' साहब के स्कूल के मास्टर 'फतेह मोहम्मद' जब बेंत से पिटाई करते तो पिटने वाले बच्चे को लगता जैसे किसी ने उसके हाथों में मेहंदी लगा दी है।चिल्लाने पर एक की जगह दो बेंत पड़ती। मार के डर से 'सलाम' कभी कभी तो रात भर जाग कर होमवर्क करते लेकिन मास्टर फ़तेह मोहम्मद फिर भी बेंत चलाने का कोई न मौका ढूंढ ही लिया करते थे। 'सलाम' अपने दोस्तों को वो किस्से सुनाते हुए मज़े लेकर बताते कि उस पिटाई का भी अपना मज़ा हुआ करता था।

उसको तो अपने वादे का है हर घड़ी ख़्याल
क़ायम ज़बां पे अपनी मगर ख़ुद बशर नहीं
*
तमन्ना जिसको मंज़िल की न थी मंजिल पे जा पहुंचा 
भटकता फिर रहा है वो जिसे अरमान-ए-मंजिल था
*
चमन का हाल ख़ुदारा न पूछिए मुझसे 
कुछ ऐसे गुल भी यहांँ हैं जो मुस्कुरा न सके
*
आराम मिलेगा क्या घर जैसा कहीं हमको 
यूं जाके कहीं रहलो घर कुछ भी हो कहो घर है
*
है जुस्तजू इस दिल को रह ए इश्क में किसकी 
जब आ गई मंजिल तो ठहर क्यों नहीं जाता 
*
देखा तो दिलो जां से उसी पर मैं फिदा हूं 
जिस शोख़ के दामन की हवा तक से बचा हूं 

किस कैफ़ के आलम में तेरे दर से चला था 
गोया कि अभी तक तेरे दर पर ही खड़ा हूं
*
बहुत चाहा मोहब्बत को मोहब्बत ही कहे दुनिया 
मगर उसने हक़ीक़त को बनाकर दास्तां छोड़ा
*
यही दिन-रात यारब रास आ जाएं कभी शायद
यूं ही ये सुबह रहने दे यूं ही ये शाम रहने दे
*
उसको रुकना पड़ा वही आखिर 
जिसका जिस जा मुक़ाम आया है

स्कूल छोड़ने के बाद भी वो तालीम के लिए बेचैन रहे। पढ़े लिखे लोगों की सोहबत और किताबों से मोहब्बत की वजह से उनकी तालीम का सिलसिला बंद नहीं हुआ ।इसी बीच उन्हें शायरी का शौक चढ़ा और वो 'दर्द' तख़ल्लुस से गजलें कहने लगे ।शायद 'दर्द' के अलावा कोई दूसरा तख़ल्लुस उन्हें रास भी नहीं आता । घर के पास ही एक बाग था जिसमें मशहूर शायर जनाब 'सीमाब अकबराबादी' सुबह-शाम चहल क़दमी किया करते थे ।'दर्द' साहब से उनकी रोज गुफ्तगू होती और शायरी के हवाले से वो उन्हें बहुत सी बातें बताया करते। सीमाब साहब से मुलाकातों का नतीज़ा कहें या फिर उनके अंदर बसा तन्हाई का दर्द ,जो भी समझें , उन्होंने महज़ 15 साल की उम्र में शायरी का आगाज़ कर डाला और ग़ज़लें कहने लगे ।आगरा और उसके आसपास होने वाले मुशायरों में पहले सुनने जाने लगे और फिर धीरे धीरे शिरकत करने लगे। शायरी भी नशे की लत की तरह है एक बार लग जाय तो फिर मुश्किल से छूटती है। आगरा, वो भी चालीस के दशक का, तब उसका हर घर उर्दू शेरो-अदब की एक अंजुमन नज़र आता था। जहाँ लोग इस सलीक़े और शाइस्तगी से गुफ़्तगु करते थे कि बात बात पे फूल झड़ें और मज़ाक ही मज़ाक में तुरंत शेर पढ़ दिए जाएँ ,आखिर ये वही आगरा था जिसमें नज़ीर अक़बराबादी के दौर में तरबूज़ की फांके बेचने वाला भी 'मनफाश फरोश दिल सद पारह ख़्वेशाम' याने ' मैं अपने टुकड़े टुकड़े दिल की एक एक फाँक बेचता हूँ 'की सदायें लगाता नज़र आता था। आगरा के इस माहौल में दर्द साहब की शायरी परवान चढ़ी। 

वालिद साहब ने जब देखा कि उनके शहजादे स्कूल तो खैर बीमारी की वजह से नहीं जा पा रहे लेकिन शायरी में मुकम्मल तौर पर ग़र्क़ होने की ओर बढ़ रहे हैं तो उन्होंने उनके क़दमों में नकेल डालने की गरज़ से आगरा के तिकोनिया बाज़ार में एस.एम बारी के नाम से मशहूर दुकान पर बिठा दिया जिसमें ग्लास वेयर, गैस वेयर, क्राकरी और कटलरी का सामान बिकता भी था और किराए पर भी जाता था। हज़रत दुकान पर बैठ तो गए लेकिन दिमाग शायरी में ही उलझा रहा। जनाब रात को दुकान बढ़ाते ही किसी नशिस्त या मुशायरे में शिरकत के लिए पहुँच जाते। इसी के साथ इन्हें गाने बजाने का शौक़ भी चर्राया सो रात में कभी हारमोनियम तो कभी वॉयलिन बजाते और गाते। बाजार में बैठने की वजह से लोग अब इन्हें पहचानने भी लगे थे। दुकान पर बैठने का सिलसिला भी लम्बा नहीं चला क्यूंकि दुकान ढंग से न चलने की वजह से बंद हो गयी। नाई की मंडी में वालिद साहब की ब्रश फैक्ट्री थी लिहाज़ा अब दर्द साहब वहां जाने लगे। इसी बीच उन्हें एक बार अपने खालू के पास जयपुर जाने का मौका मिला। खालू 'दर्द' साहब के हुनर को पहचान गए लिहाज़ा उन्होंने दर्द साहब के वालिद से गुज़ारिश की की वो उन्हें जयपुर भेज दें। वालिद साहब को भी ये बात ठीक लगी क्यूंकि आगरा में रह कर उनका सुधारना उन्हें नामुमकिन लग रहा था। 

तेईस साल के नौजवान अब्दुल सलाम 'दर्द' अक़बराबादी आगरा को हमेशा के लिए अलविदा कह कर जयपुर चले आये और अपने आखरी वक़्त तक जयपुर की शायरी की महफिलों को रौशन करते रहे। उन्हीं की ग़ज़लों की किताब 'आबशारे ग़ज़ल' अभी हमारे सामने है। इस किताब में दर्द अक़बराबादी साहब की चुनिंदा उर्दू ग़ज़लों का जयपुर के वरिष्ठ शायर जनाब मनोज मित्तल' कैफ़' ने हिंदी में अनुवाद (लिप्यांतरण) किया है। ये किताब सं 2010 में जयपुर के 'अदबी संगम 'और 'काव्यलोक' संस्थाओं के प्रयासों से मन्ज़रे आम पर आयी। किताब खरीद कर पढ़ने वाले  शौकीनों के लिए अब इसका मिलना अगर असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है।         


      लब वो कि तेरा ज़िक्र हमेशा रहे जिन पर
दिल वो जो तेरी याद से ग़ाफिल नहीं होता 

उस दिल से सनम ख़ाने का पत्थर है ग़नीमत 
जिस दिल में कोई दर्द न हो दिल नहीं होता
*
काकुल-ओ- जुल्फ़ पे बेकार ख़फ़ा होते हो 
आईना सामने रखते न परेशां होते 

अश्कबारी मेरी ऐ काश कुछ ऐसी होती 
मेरे आंसू तेरी पलकों से नुमायां होते
*
किया है तौक़-ओ-सलासिल को ज़ेब-ए-तन हमने
क़फ़स में रह के भी हम बांकपन से गुज़रे हैं 
तौक-ओ-सलासिल: बेड़ी और जंजीर, ज़ेब-ए-तन: श्रृंगार
*
यहां किसी की नज़र में नहीं कोई क़ातिल 
क़दम क़दम पे मगर क़त्लेआम होता है 

ये मैकशों की नज़र का फ़रेब है वर्ना 
न मैकदा ही किसी का न जाम होता है
*
कुछ इख़्तियार जिसको हुकूमत से मिल गया 
उसने जो कुछ भी चाहा सहूलत से मिल गया 

मिलता है बे सबब भी किसी से कोई यहां 
मिलना था उसको अपनी ज़रूरत से मिल गया 
*
लम्हे जो ज़िंदगी में गुज़ारे तेरे बग़ैर 
लम्हे वो ज़िंदगी के सभी रायगां गए 
रायगां: व्यर्थ

'दर्द' साहब के खालू जनाब एस.एम.इस्लाम साहब की जयपुर में तीन दुकानें थीं, एक जनरल मर्चेंट की, एक सिगरेट की और एक आर्म एम्युनेशन की। खालू तीन दुकानें संभालने में ख़ासे परेशां हो रहे थे लेकिन उनका मक़सद 'दर्द' साहब को सिर्फ़ इन दुकानों की देखभाल के बुलाना नहीं था। असल में वो इन्कमटेक्स के तकादों से परेशां थे क्यूंकि पिछले पांच सालों में उन्होंने इन दुकानों के बही खाते ही तैयार नहीं किये थे। 'दर्द' साहब जयपुर आये उन्होंने सबसे पहले बहीखाते तैयार किये और इन्कमटेक्स के अफसरों के सवालों का तसल्लीबख़्श जवाब भी दिया जिससे खुश हो कर इनकम टेक्स डिपार्टमेंट ने खालू पर कोई टेक्स नहीं लगाया।'दर्द' साहब की मेहनत और होशियारी देख कर खालू बहुत ही खुश हुए और सोचने लगे कि क्या किया जाय ताकि 'दर्द' को आगरा याद ही न आये। हक़ीक़त तो ये थी कि जयपुर की चौड़ी सड़कें, खूबसूरत बाजार ,गुलाबी रंग, तीन और से शहर को घेरे पहाड़, उन पर बने हैरतअंगेज़ किले ,बड़े बड़े बागीचे, महल और झील देख कर 'दर्द' खुद भी वापस आगरा नहीं जाना चाहते थे। जब खालू ने 14 अगस्त 1955 को जयपुर में ही उनका निकाह करवा दिया तो 'दर्द' साहब के आगरा कूच करने के इरादों पर हमेशा के लिए बर्फ़ गिर गयी।
 
जयपुर से मोहब्बत और जयपुर में ही निक़ाह के अलावा 'दर्द' साहब की आगरा वापस न जाने की एक और बड़ी वजह थी उनके खालू 'इस्लाम' साहब का शेरो शायरी से बेहद लगाव। 'इस्लाम' साहब की दोस्ती जयपुर के सभी बड़े और नामवर शायरों से थी। उनके घर अक्सर शेरो-सुख़न की महफिलें जमतीं। इस्लाम साहब के यहाँ 'जिगर मुरादाबादी' और 'जोश मलीहाबादी' जैसे शायर क़याम करने आते। 'दर्द' साहब ऐसी महफ़िलों का हिस्सा बनते और बहुत कुछ सीखते। ये सिलसिला सालों चला। इस बीच 'इस्लाम' साहब की माली हालत बद से बदतर होती चली गयी तीनों दुकानें भी हाथ से निकल गयीं और इस्लाम साहब लम्बी बीमारी के बाद इस दुनिया से रुख़्सत हो गए।
 
'दर्द' साहब ने अपने साले 'मुहम्मद उस्मान' के साथ मिल कर जयपुर के मशहूर जौहरी बाजार की जामा मस्जिद के नीचे बनी एक दुकान में कपड़ों का काम शुरू किया। 'वैरायटी क्लॉथ स्टोर' नाम की ये दुकान आज भी इस बाज़ार में खूब चल रही है। 'दर्द' साहब ने पच्चीस सालों तक जामा मस्जिद का हिसाब किताब भी संभाला। ज़िन्दगी जब पटरी पर आयी तो 'दर्द' साहब शायरी में डूबने लगे। दुकान पर जयपुर के अदबी लोगों का जमावड़ा लगता। 'दर्द' साहब की शायरी को संवारने में जयपुर के उस्ताद शायर मुंशी 'मनमोहन लाल' "बिस्मिल" जनाब 'मोहम्मद इक़बाल हुसैन 'ख़लिश' अकबराबादी , क़ाज़ी अमीनुद्दीन 'असर' , टोंक के जनाब 'साजिद हुसैन' और 'राही शहाबी' का नाम ख़ास तौर पर लेने लायक है। 23 जनवरी 1967 को अलहाज 'क़मर' वाहिदी के यहाँ 'दर्द' साहब ने पहली बार अपनी ग़ज़ल पढ़ी और उसके बाद कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

गुल तो गुल इस बार कांटे भी परीशां हो गए 
पहले ऐसा तो कभी दौर-ए-ख़िज़ां देखा न था
*
मंजर तो गुलिस्तां के न थे ऐसे दिलफरेब 
धोखे में जाने अहल-ए-चमन कैसे आ गए
*
आठों पहर ही दैर-ओ-हरम में रहा है तू 
फिर भी तेरी तलाश में दैर-ओ-हरम रहे
*
जिसको अपना कह दिया तुमने तो फिर उसके लिए 
ये ज़मीं कुछ भी नहीं वो आसमां कुछ भी नहीं
*
सियासत कल भी थी अहल-ए-सियासत थे यहांँ कल भी 
मगर इस दौर का रंग-ए-सियासत और ही कुछ है
*
किसने खाई न रात में ठोकर 
किस की किस्मत में हादसात नहीं
*
क्या सुनेंगे ये भला पत्थर के लोग 
हमने तोड़ा भी तो पैमाना कहां

हम से बेख़ुद क्या बताएं अब तुम्हें 
काबा किस जा है सनम ख़ाना कहां
*
दिल मेरा अभी जवां  है 'दर्द' से तुम पूछ लो 
ज़िंदगी की कशमकश ने जिस्म बूढ़ा कर दिया
*
सलीक़ा हमें ही नहीं मांगने का 
खज़ाने में उसकी भला क्या कमी है

जयपुर के वरिष्ठ रचनाकार श्री मुकुट सक्सेना और श्री सोहन प्रकाश 'सोहन' जी जिन्होंने दर्द साहब के साथ बहुत सी नशिस्तों में हिस्सा लिया उन्हें याद करते हुए बताते हैं कि ''दर्द साहब बहुत ही सरल और सादा जीवन जीने वाले व्यक्ति थे। आप हर संस्था की गोष्ठी और कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते और पूरे वक़्त तक बैठे रहते। छोटे और बड़े रचनाकार की अच्छी रचनाओं पर खुल कर दाद देते। उनका सबसे बहुत दोस्ताना व्यवहार रहता था। वो हर दिल अजीज़ थे। किसी ने कभी भी उनके मुँह से किसी की बुराई नहीं सुनी न ही उन्हें किसी ने कभी किसी पर नाराज़ होते देखा । 'सोहन' जी उन्हें याद करते हुए भाव विभोर हो कर बताते हैं कि इतने बड़े क़द के शायर मेरी 'लूना' पर बड़ी बेतकल्लुफी से बैठ कर नशिस्तों में चले जाया करते। सोहन जी उनकी उम्र का ध्यान करते हुए बहुत सावधानी से डरते हुए लूना चलाते और वो आराम से पीछे बैठे अपनी ही किसी ग़ज़ल को गुनगुनाते रहते। एक बार दर्द साहब को किसी संस्था ने सम्मान स्वरुप माँ सरस्वती की धातु की मूर्ती प्रदान की उन्होंने फोन कर सोहन जी को बुलाया और कहा कि 'भाई सोहन जी मुझे ये माँ सरस्वती की मूर्ती मिली है और इसकी पवित्रता का ख़्याल रखना बहुत जरूरी है इसलिए इसे आप ले जाएँ और अपने मंदिर में प्रतिष्ठित कर रोज़ पूजा करें। 'सोहन' जी गदगद होते हुए बताते हैं कि ये मूर्ती आज भी उनके मंदिर की शोभा बढ़ा रही है। 

'दर्द' साहब नशिस्तों और मुशायरों में जब अपना क़लाम लाजवाब तरन्नुम में पढ़ते तो भरपूर दाद से नवाज़े जाते। यहाँ आपको ये बताता चलूँ कि उन्होंने 292 से अधिक तरही मिसरों पर ग़ज़लें कहीं जो 'दर्द और दरमाँ' किताब में सिलसिलेवार दर्ज़ हैं। इसके अलावा 'गुल हाए रंग रंग' और 'याद-ए-माजी' भी उनकी देवनागरी में प्रकाशित हुई किताबें हैं। बड़े अफ़सोस की बात है कि अब इनमें से कोई भी क़िताब आसानी से बाजार में नहीं मिलेगी। 'दर्द' साहब को जयपुर की बहुत सी नामवर संस्थाओं ने सम्मान से नवाज़ा जिनमें राजस्थान उर्दू अकादमी, काव्यलोक, राजस्थान पत्रिका, अदबी संगम, मिर्ज़ा ग़ालिब सोसाइटी , पिंक सिटी प्रेस क्लब और मित्र परिषद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 

उम्र के आखरी पड़ाव में उनकी सेहत में लगातार गिरावट आती रही उन्हें प्लूरेसी, एग्ज़िमा ,पीलिया, मोतियाबिंद हार्ट अटेक ,पाइल्स और प्रोस्टेट जैसी सभी गंभीर बीमारयां हुईं लेकिन कोई बीमारी उनके शायरी के ज़ज़्बे को कमज़ोर नहीं कर पायी। बीमारियों के लश्कर के साथ वो आखरी दम तक नशिश्तों और मुशायरों में झूम झूम कर अपना क़लाम पढ़ते रहे। 16 जनवरी 2011 को ज़िन्दगी के 86 साल पूरे करने के बाद इस दुनिया से रुख़्सत हो गए। जोहरी बाजार में उनके द्वारा शुरू किया 'वैराइटी क्लॉथ स्टोर' और 'जमा मस्जिद' आज भी ज्यूँ का त्यूँ है बस नहीं हैं तो जनाब 'अब्दुल सलाम दर्द अकबराबादी साहब। 

आखरी में उनकी ग़ज़लों के कुछ शेर और पढ़वाय देता हूँ :

तुम अपने इश्क़ से वाबस्ता मुझको रहने दो 
सुलगती आग में शामिल धुआं भी होता है
*
हां बहुत देख ली अक़्ल-ओ-ख़िरद की दुनिया 
बेझिझक अब कोई दीवाना बना दे मुझको 
अक़्ल ओ ख़िरद: बुद्धि और विवेक
*
दिल का सुकून कहते हैं ए दोस्त जिसको हम 
पुख़्ता मकां में है न वो मिट्टी के घर में है
*
हमारे पांव में जो देखकर ज़ंजीर हंसते हैं 
किसी दिन वो भी अपने पांव में ज़ंजीर देखेंगे
*
किसी का ग़म हो रग-रग में तो फिर ऐसा ही होता है 
छलक पड़ते हैं आंखों के कटोरे मुस्कुराने से
*
काम लाखों पड़े हैं करने को 
और दो दिन की ज़िंदगानी है
*
जब न आने की बात करते हो 
जान जाने की बात करते हो 

क्या तुम्हें हम भी याद आते हैं 
भूल जाने की बात करते हो 

फिर बुरा कहते हो ज़माने को 
फिर ज़माने की बात करते हो
*
रातें ही बस मिलेगी यहां एतिबार की 
दिन ढूंढते हो आप कहां ऐतिबार के