अक्सर ऐसा होता है के खजाने की तलाश में आप दर दर भटकतें हैं और तब कहीं जाकर खज़ाना आपके हाथ लगता है लेकिन कभी कभी खज़ाना आपको अचानक बैठे बिठाए ही मिल जाता है. अचानक मिले खजाने की ख़ुशी लफ़्ज़ों में बयां नहीं की जा सकती . हुआ यूँ की मेरी अनुभूति पर प्रकाशित गजलों को पढ़ कर श्री अनमोल जी ने मुझसे संपर्क किया, मेरे आग्रह पर अपनी किताब
"दरिया डूब गया " भेजी जिसका जिक्र हम किताबों की दुनिया श्रृंखला में पहले कर चुके हैं, इस बार अचानक उन्हीं के एक मित्र, जो खुद भी शायर हैं, का मेरे पास मेल आया जिसमें उन्होंने मेरी गजलों को अच्छा बताते हुए अपनी लिखी किताब का जिक्र भी किया, किताब का जिक्र सुनते ही हमने उनसे किताब भेजने की फ़रियाद कर डाली. थोड़े दिनों बाद उनकी किताब मेरे हाथ में थी. किताब पढ़ कर जो आनंद मुझे मिला उसे आज मैं आप सबके साथ किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी के माध्यम से बांटना चाहता हूँ .
दर्द के रिश्ते, याद के बंधन, आँख के आंसू, उसका गम
पीड़ा ने मन को समझाया, सब पानी का रेला है
फूल की खुशबू, उसकी आँखें, शाम का मंज़र, जुल्फ़ घनी
चाँद, घटा, यादों का साया, सब पानी का रेला है
खिलता बचपन, प्यासा यौवन, अभिशापित सा वृद्धापन
किसने किसा साथ निभाया, सब पानी का रेला है
एक मुश्किल रदीफ़ को इतनी ख़ूबसूरती से निभाने वाले नौजवान शायर का नाम है
" मनोज अबोध " जिनकी लिखी किताब "गुलमोहर की छाँव में" से ये अशआर लिए गए हैं
उनकी शायरी की खूबी है सहज और कोमल भाव से अपनी बात कहना. वो अपनी बात चीख कर नहीं कहते धीमे लहजे में कहते हैं. वो जानते हैं के सच कभी चिल्लाकर नहीं बोला जाता धीमे स्वर में ही वो अधिक प्रभावशाली होता है. शायरी में अक्सर लोग जटिलता से कही बात पसंद करते हैं लेकिन मनोज जी अपनी बात को सरलता से कहने के पक्षधर हैं. दोनों ही तरह से कही गयी बात का अपना आनंद है लेकिन जटिलता अगर पाठक तक पहुंचकर खुल नहीं पाती तो अर्थ हीन है और सरलता अगर पाठक तक पहुंच कर निष्प्रभावी हो जाती है तो व्यर्थ है. मनोज जी के अशआर सरलता से कहे जाने के बावजूद प्रभावशाली हैं:
ज़ख्मों पर मरहम रखना तो, एक बहाना था जैसे
चारागर की शक्ल में मुझको, खंज़र खंज़र लोग मिले
जानें क्यूँ फिर उस विधवा की फ़ाइल आगे बढ़ न सकी
यूँ तो काम कराने वाले, दफ्तर दफ्तर लोग मिले
शिक्षा , मज़हब, कल्चर का कुछ ज्ञान न था उनको, लेकिन
दूर बियाबानों में मुझको, बेहतर बेहतर लोग मिले
पिता स्व.श्री चंडी प्रसाद एवं माता श्रीमती सोमवती देव के पुत्र मनोज जी का जन्म 30 अप्रेल 1962 को झालू जिला बिजनौर उत्तर प्रदेश में हुआ. मनोज जी ने बी.एस.सी, एम्. ऐ(इकोनोमिक्स)., स्नातकोतर पत्रिकारिता, आर्युवेद रत्न, स्टडी इन होम्यो एंड बैच फ्लावर रेमेडीज जैसे विविध विषयों में शिक्षा ग्रहण की. स्कूल शिक्षा के समय से ही लेखन का ऐसा शौक लगा जो आजतक छूटा नहीं है बल्कि दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है. उनकी एक और पुस्तक प्रकाशन के दौर से गुज़र रही है जो जल्द ही उनके पाठकों में हाथ में होगी. छोटी बहर में जरा उनकी कलम का चमत्कार देखिये:
गीत जब ब्रह्मचारी हुए
दर्द के पाँव भारी हुए
मन किसे देखना है यहाँ
रूप के सब पुजारी हुए
नेह के बैंक से आज फिर
याद के चैक जारी हुए
छंद सी नायिका क्या मिली
सूर से वो बिहारी हुए
इस किताब की भूमिका में मनोज लिखते हैं "पिताजी के साथ शहरी माहौल से दूर ग्रामीण आँचल में मेरी किशोरावस्था बीती, जहाँ नदी थी, चाँद था, तितलियाँ थीं, फूल थे, पूरी मस्ती में इठलाती प्रकृति थी और मैं -बेहद भावुक किशोर जिसके मन में हर मौलिक सौन्दर्य के प्रति बला की आसक्ति थी." ये सौन्दर्य उनकी गजलों में स्पष्ट दिखाई देता है:-
किसने आज नदी के तट पर यौवन पुष्प बिखेरे हैं
सारा जंगल महक उठा है, संदल-संदल चौतरफा
बौराए मौसम के जुगनू दहक रहे हैं पलकों पर
अमराई में छनक उठी है, पायल पायल चौतरफा
नफ़रत बोने वालो सोचो, कैसी फ़सलें काटोगे
झुलस गए हैं माँ-बहनों के, आँचल आँचल चौतरफा
"हिंदी साहित्य निकेतन" बिजनौर द्वारा प्रकाशित इस किताब में मनोज जी की 68 ग़ज़लें हैं जो उन्होंने सन 2000 से पहले लिखी थीं लेकिन जो आज भी उतनी ही ताज़ा हैं. दरअसल शायरी कोई अखबार नहीं के बासी हो जाए. असली शायरी वो ही है जिसपर समय का असर न हो जिसे आप जब पढ़े ताज़ी लगे. इंसान की फितरत उसके दुःख, सुख और मुश्किलें बयाँ करती शायरी कभी पुरानी नहीं पड़ सकती ये ही कारण है के मिर्ज़ा ग़ालिब आज भी उतने ही चाव से पढ़े और सुने जाते हैं जितने उस समय पढ़े या सुने जाते थे .मुझे यकीन है के मनोज जी जो इन दिनों
"मंथन फीचर्स" ( राष्ट्रिय स्तर पर प्रकाशित साप्ताहिक समाचार फीचर सेवा) के मुख्य संपादक हैं , इसके साथ साथ वो
"शोध दिशा" ( समकालीन सृजन त्रैमासिकी) के संयुक्त संपादक और
"शांति" ( आध्यात्मिक उत्थान की अंतरराष्ट्रिय द्वैमासिक पत्रिका) के संपादक कार्य में अति व्यस्त होने के बावजूद भी अपने मोबाइल फोन न.
9457013570, 9319317089 पर आप जैसे सुधि पाठकों से प्राप्त बधाई स्वीकारने में देरी नहीं लगायेंगे. तो सोचते क्या हैं उठाइए अपना मोबाईल और मिलाइए मनोज जी को, यदि आप अधिक संकोची हैं तो उन्हें बधाई आप उनके इ-मेल
manojabodh@gmail.com पर भी दे सकते हैं. चलते चलते आईये उनकी एक प्यारी सी ग़ज़ल के चंद अशआर भी पढ़ते चलें...
हादसों के दरमियाँ रहता हूँ मैं
फिर भी खुश हूँ, आज तक जिंदा हूँ मैं
भीड़ है चारों तरफ मेरे मगर
आके देखो किस कदर तनहा हूँ मैं
जिस्म पर मेरे कई हैं आवरण
कोई बतलाये मुझे कैसा हूँ मैं
पास आओ छू के तो देखो मुझे
गुलमोहर की छाँव में जलता हूँ मैं
उम्मीद है मनोज जी की इस किताब के अशआर आपको पसंद आये होंगे...आप इन्हें फिर से पढ़ें तब तक हम निकलते हैं आपके लिए एक और किताब की तलाश में...