मुंह पर मल कर सो रहे काली कीचड़ ज़िन्दगी
जैसे यूँ धुल जाएँगी होने की रूसवाइयां
गिर कर ठंडा हो गया हिलता हाथ फकीर का
जेबों में ही रह गयीं सब की नेक कमाईयां
फिरता हूँ बाज़ार में , रुक जाऊं लेता चलूँ
उसकी खातिर ब्रेज़ियर , अपने लिए दवाइयाँ
चलता -फिरता गोद में नीला गोला ऊन का
गर्म गुलाबी उँगलियाँ , गहरी सब्ज़ सलाइयां
कहन में अलग अंदाज़ और नए लफ़्ज़ों के प्रयोग के कारण अपने बहुत से साथी शायरों की आँख की किरकिरी बने पाकिस्तान के जिस शायर की किताब ' बिखरने के नाम पर ' का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं उनका नाम है 'ज़फर इक़बाल '
रात फिर आएगी, फिर ज़ेहन के दरवाज़े पर
कोई मेहँदी में रचे हाथ से दस्तक देगा
धूप है , साया नहीं आँख के सहरा में कहीं
दीद का काफिला आया तो कहाँ ठहरेगा
दीद : दृष्टि
आहट आते ही निगाहों को झुका लो कि उसे
देख लोगे तो लिपटने को भी जी चाहेगा
पाकिस्तान के ओकारा में 1933 को जन्में ज़फ़र साहब ने पिछले चार दशकों में जितना लिखा है उतना आज के दौर के किसी और उर्दू शायर ने शायद ही लिखा हो। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल की पारम्परिक भाषा उसके रूपकों, प्रतीकों, उपमाओं और दूसरे बंधे बंधाये सांचो को तोड़ते हुए अपनी अलग ही ज़मीन तैयार की। शायरी में नए प्रयोग किये जो बहुत सफल रहे।
जिस्म जो चाहता है, उससे जुदा लगती हो
सीनरी हो मगर आँखों को सदा लगती हो
सदा : आवाज़
सर पे आ जाये तो भर जाए धुंआ साँसों में
दूर से देखते रहिये तो घटा लगती हो
ऐसी तलवार अँधेरे में चलाई जाए
कि कहीं चाहते हों, और कहीं लगती हो
छठी दहाई में उभरने वाले शायरों में ज़फर इक़बाल सबसे चर्चित शायर रहे हैं। उन्होंने बोलचाल की शैली को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रस्तुत किया और रचनात्मक स्तर पर एक नयी काव्यात्मक भाषा की रचना की। उनकी ग़ज़लों में कुछ बातें अटपटी जरूर लगती हैं लेकिन ये सभ्य समाज की अलंकृत भाषा एवं काल्पनिक विषयों से आगे आम आदमी की मानसिक स्थिति की सीधी अभिव्यक्ति करती हैं।
कोई सूरत निकलती क्यों नहीं है
यहाँ हालत बदलती क्यों नहीं है
ये बुझता क्यों नहीं है उनका सूरज
हमारी शमअ जलती क्यों नहीं है
अगर हम झेल ही बैठे हैं इसको
तो फिर ये रात ढलती क्यों नहीं है
मुहब्बत सर को चढ़ जाती है, अक्सर
मेरे दिल में मचलती क्यों नहीं है
'वाणी प्रकाशन' दिल्ली से प्रकाशित 'ज़फर' साहब की पहली देवनागरी भाषा में छपी शायरी की इस किताब में उनके छ: अलग अलग संग्रहों से चुनी हुई ग़ज़लों को संकलित किया गया है। ज़फर साहब की शायरी को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का भागीरथी प्रयास जनाब 'शहरयार' और 'महताब हैदर नकवी' साहब ने मिल कर किया है।
जिस से चाहा था, बिखरने से बचा ले मुझको
कर गया तुन्द हवाओं के हवाले मुझ को
तुन्द : तेज़
मैं वो बुत हूँ कि तेरी याद मुझे पूजती है
फिर भी डर है ये कहीं तोड़ न डाले मुझको
मैं यहीं हूँ इसी वीराने का इक हिस्सा हूँ
जो जरा शौक से ढूढ़ें वही पा ले मुझको
ज़फर साहब को पूरा पढ़ने की हसरत रखने वालों को उर्दू पढ़ना आना जरूरी है क्यों की उनकी कुलियात जो चार भागों में 'अब तक ' के शीर्षक से छपी है उर्दू में है। हालाँकि उन्होंने जितना लिखा है उसका एक छोटा सा अंश ही इस किताब में शामिल है फिर भी इस किताब में छपी उनकी सवा सौ ग़ज़लें पढ़ कर उनकी शायरी के मिज़ाज़ का अंदाज़ा उसी तरह हो जाता है जैसे कुऐं के पानी के स्वाद का उसकी एक बूँद चखने से हो जाता है।
खोलिए आँख तो मंज़र है नया और बहुत
तू भी क्या कुछ है मगर तेरे सिवा और बहुत
जो खता की है जज़ा खूब ही पायी उसकी
जो अभी की ही नहीं, उसकी सज़ा और बहुत
जज़ा : नेकी का बदला
खूब दीवार दिखाई है ये मज़बूरी की
यही काफी है बहाने न बना, और बहुत
सर सलामत है तो सज़दा भी कहीं कर लूँगा
ज़ुस्तज़ु चाहिए , बन्दों को खुदा और बहुत
अंत में अपने पाठकों का मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ जिनके लगातार उत्साह वर्धन, सहयोग और प्रेम ने मुझे इस श्रृंखला को 100 के जादुई आंकड़े तक पहुँचाने में मदद की।