Wednesday, September 17, 2014

किताबों की दुनिया - 100

मुंह पर मल कर सो रहे काली कीचड़ ज़िन्दगी 
जैसे यूँ धुल जाएँगी होने की रूसवाइयां 

गिर कर ठंडा हो गया हिलता हाथ फकीर का 
जेबों में ही रह गयीं सब की नेक कमाईयां 

फिरता हूँ बाज़ार में , रुक जाऊं लेता चलूँ 
उसकी खातिर ब्रेज़ियर , अपने लिए दवाइयाँ 

चलता -फिरता गोद में नीला गोला ऊन का 
गर्म गुलाबी उँगलियाँ , गहरी सब्ज़ सलाइयां 

कहन में अलग अंदाज़ और नए लफ़्ज़ों के प्रयोग के कारण अपने बहुत से साथी शायरों की आँख की किरकिरी बने पाकिस्तान के जिस शायर की किताब ' बिखरने के नाम पर ' का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं उनका नाम है 'ज़फर इक़बाल '


रात फिर आएगी, फिर ज़ेहन के दरवाज़े पर 
कोई मेहँदी में रचे हाथ से दस्तक देगा 

धूप है , साया नहीं आँख के सहरा में कहीं 
दीद का काफिला आया तो कहाँ ठहरेगा 
दीद : दृष्टि 

आहट आते ही निगाहों को झुका लो कि उसे 
देख लोगे तो लिपटने को भी जी चाहेगा 

पाकिस्तान के ओकारा में 1933 को जन्में ज़फ़र साहब ने पिछले चार दशकों में जितना लिखा है उतना आज के दौर के किसी और उर्दू शायर ने शायद ही लिखा हो। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल की पारम्परिक भाषा उसके रूपकों, प्रतीकों, उपमाओं और दूसरे बंधे बंधाये सांचो को तोड़ते हुए अपनी अलग ही ज़मीन तैयार की। शायरी में नए प्रयोग किये जो बहुत सफल रहे।

जिस्म जो चाहता है, उससे जुदा लगती हो 
सीनरी हो मगर आँखों को सदा लगती हो 
सदा : आवाज़ 

सर पे आ जाये तो भर जाए धुंआ साँसों में 
दूर से देखते रहिये तो घटा लगती हो 

ऐसी तलवार अँधेरे में चलाई जाए 
कि कहीं चाहते हों, और कहीं लगती हो 

छठी दहाई में उभरने वाले शायरों में ज़फर इक़बाल सबसे चर्चित शायर रहे हैं। उन्होंने बोलचाल की शैली को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रस्तुत किया और रचनात्मक स्तर पर एक नयी काव्यात्मक भाषा की रचना की। उनकी ग़ज़लों में कुछ बातें अटपटी जरूर लगती हैं लेकिन ये सभ्य समाज की अलंकृत भाषा एवं काल्पनिक विषयों से आगे आम आदमी की मानसिक स्थिति की सीधी अभिव्यक्ति करती हैं।

कोई सूरत निकलती क्यों नहीं है 
यहाँ हालत बदलती क्यों नहीं है 

ये बुझता क्यों नहीं है उनका सूरज 
हमारी शमअ जलती क्यों नहीं है 

अगर हम झेल ही बैठे हैं इसको 
तो फिर ये रात ढलती क्यों नहीं है 

मुहब्बत सर को चढ़ जाती है, अक्सर 
मेरे दिल में मचलती क्यों नहीं है 

'वाणी प्रकाशन' दिल्ली से प्रकाशित 'ज़फर' साहब की पहली देवनागरी भाषा में छपी शायरी की इस किताब में उनके छ: अलग अलग संग्रहों से चुनी हुई ग़ज़लों को संकलित किया गया है। ज़फर साहब की शायरी को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का भागीरथी प्रयास जनाब 'शहरयार' और 'महताब हैदर नकवी' साहब ने मिल कर किया है।

जिस से चाहा था, बिखरने से बचा ले मुझको 
कर गया तुन्द हवाओं के हवाले मुझ को 
तुन्द : तेज़ 

मैं वो बुत हूँ कि तेरी याद मुझे पूजती है 
फिर भी डर है ये कहीं तोड़ न डाले मुझको 

मैं यहीं हूँ इसी वीराने का इक हिस्सा हूँ 
जो जरा शौक से ढूढ़ें वही पा ले मुझको 

ज़फर साहब को पूरा पढ़ने की हसरत रखने वालों को उर्दू पढ़ना आना जरूरी है क्यों की उनकी कुलियात जो चार भागों में 'अब तक ' के शीर्षक से छपी है उर्दू में है। हालाँकि उन्होंने जितना लिखा है उसका एक छोटा सा अंश ही इस किताब में शामिल है फिर भी इस किताब में छपी उनकी सवा सौ ग़ज़लें पढ़ कर उनकी शायरी के मिज़ाज़ का अंदाज़ा उसी तरह हो जाता है जैसे कुऐं के पानी के स्वाद का उसकी एक बूँद चखने से हो जाता है।

खोलिए आँख तो मंज़र है नया और बहुत 
तू भी क्या कुछ है मगर तेरे सिवा और बहुत 

जो खता की है जज़ा खूब ही पायी उसकी 
जो अभी की ही नहीं, उसकी सज़ा और बहुत 
जज़ा : नेकी का बदला 

खूब दीवार दिखाई है ये मज़बूरी की 
यही काफी है बहाने न बना, और बहुत 

सर सलामत है तो सज़दा भी कहीं कर लूँगा 
ज़ुस्तज़ु चाहिए , बन्दों को खुदा और बहुत 

अंत में अपने पाठकों का मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ जिनके लगातार उत्साह वर्धन, सहयोग और प्रेम ने मुझे इस श्रृंखला को 100 के जादुई आंकड़े तक पहुँचाने में मदद की।

Monday, September 1, 2014

किताबों की दुनिया - 99

नर्म लहज़े में दर्द का इज़हार
गो दिसंबर में जून की बातें 
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जुर्म था पर बड़े मज़े का था 
जिसको चाहा वो दूसरे का था 
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ज़ेहन की झील में फिर याद ने कंकर फेंका 
और फिर छीन लिया चैन मिरे पानी का
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जब भी चाहें उदास हो जाएँ 
शुक्र है इतना इख़्तियार मिला 
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कोई मंज़िल न मुझको रोक सकी 
खुद मिरा घर भी मेरी राह में है 
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जो छुपाने की थी बात बता दी मुझको 
ज़िन्दगी तूने बहुत सख्त सज़ा दी मुझको 

हमारी "किताबों की दुनिया " श्रृंखला की ये पोस्ट इस लिहाज़ से अनूठी है कि हमारे आज के शायर के मशहूर वालिद साहब की किताब का जिक्र भी हम इस श्रृंखला में पहले कर चुके हैं। इस श्रृंखला में पिता के बाद उसके पुत्र की किताब का जिक्र पहली बार हो रहा है । मज़े की बात ये है कि इनके बड़े भाई भी आज हिन्दुस्तानी फिल्मों के बहुत बड़े लेखक और गीतकार हैं और साथ ही बेहतरीन शायर भी। इस शायर के नाम पर से पर्दा उठे उस से पहले आईये एक नज़र उनकी एक ग़ज़ल के इन शेरों पर डाल लें :

अंदर का शोर अच्छा है थोड़ा दबा रहे 
बेहतर यही है आदमी कुछ बोलता रहे 

मिलता रहे हंसी ख़ुशी औरों से किस तरह 
वो आदमी जो खुद से भी रूठा हुआ रहे 

बिछुडो किसी से उम्र भर ऐसे कि उम्र भर 
तुम उसको ढूंढो और वो तुम्हें ढूंढता रहे 

उस्ताद शायर जाँ निसार अख्तर के 31 जुलाई 1946 को लखनऊ में जन्में बेटे और जावेद अख्तर साहब के छोटे भाई "सलमान अख्तर" साहब की किताब "नदी के पास " का जिक्र हम आज इस श्रृंखला में करेंगे। ज़ाहिर सी बात है सलमान साहब को अदबी माहौल विरासत में मिला।


कौन समझा कि ज़िन्दगी क्या है 
रंज होता है क्यों, ख़ुशी क्या है 

जिन के सीनों पे ज़ख्म रोशन हों 
उनके रातों की तीरगी क्या है 

लोग, किस्मत, खुदा, समाज, फ़लक 
आगे इन सबके आदमी क्या है 

हम बहुत दिन जियें हैं दुनिया में 
हम से पूछो कि ख़ुदकुशी क्या है 

बहुत ज्यादा के हकदार इस बेहतरीन शायर की चर्चा बहुत कम हुई है क्यों की 'शायद उन्हें अपने आपको बेचने का हुनर नहीं आया। सलमान साहब पर उनकी माँ 'सफ़िया ' की बीमारी का बहुत गहरा असर हुआ शायद इसीलिए उन्होंने पांच साल की कच्ची उम्र में में डाक्टर बनने की ठान ली। पहले उन्होंने कॉल्विन तालुकदार कालेज से पढाई की और फिर अलीगढ विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान चिकित्सा में एम.डी की डिग्री हासिल की.

कब लौट के आओगे बता क्यों नहीं देते 
दीवार बहानों की गिरा क्यों नहीं देते 

तुम पास हो मेरे तो पता क्यों नहीं चलता 
तुम दूर हो मुझसे तो सदा क्यों नहीं देते 

बाहर की हवाओं का अगर खौफ है इतना 
जो रौशनी अंदर है, बुझा क्यों नहीं देते 

सलमान साहब ने अपनी शायरी की शुरुआत अपने बड़े भाई जावेद से पहले ही कर दी थी तभी तो जावेद साहब ने उनकी इस हिंदी-उर्दू लिपि में छपी किताब की भूमिका में लिखा है कि "उम्र में तो ये मुझसे कोई ढेढ़ साल छोटा है लेकिन शायरी में मुझसे पूरे दस साल बड़ा है " इनकी पहली किताब जो सं 1976 में प्रकाशित हुई थी जिसका आमुख उनके वालिद जाँ निसार अख्तर साहब ने लिखा था।

तीर पहुंचे नहीं निशानों पर 
ये भी इल्ज़ाम है कमानों पर 

जिस ने लब सी लिए सदा के लिए 
उसका चर्चा है सब ज़बानों पर 

सर झुकाये खड़े हैं सारे पेड़ 
और फल सज गए दुकानों पर 

सच की दौलत न हाथ आई कभी 
उम्र कटती रही बहानों पर 

मनो विज्ञान विषय पर उनकी 13 किताबें और 300 से अधिक आलेख विभिन्न देशों के मेडिकल जर्नल्स में छप कर प्रसिद्धि पा चुके हैं। शायरी में 'नदी के पास' उनका तीसरा संकलन है जो "कूबकू " और 'दूसरा घर " के बाद शाया हुआ है। ये किताब देवनागरी और उर्दू दोनों लिपियों में प्रकाशित हुई है. इस किताब में सलमान साहब की कुछ नज़्में और पचास के ऊपर ग़ज़लें संग्रहित हैं।

थोड़े बड़े हुए तो हकीकत भी खुलगयी 
स्कूल में सुना था कि भारत महान है 

देखूं मिरे सवाल का देता है क्या जवाब 
सुनता हूँ आदमी बड़ा जादू बयान है 


गो देखने में मुझसे बहुत मुख्तलिफ है वो 
अंदर से उसका हाल भी मेरे समान है 

सन 2004 में स्टार पब्लिकेशन 4 /5 आसफ अली रोड नई दिल्ली -110002 द्वारा प्रकाशित इस किताब को मंगवाने के लिए आपके पास सिवा उन्हें पत्र लिखने के और कोई दूसरा रास्ता मुझे नहीं मालूम। मुझे ये किताब अलबत्ता उभरती शायरा और स्थापित कवयित्री "पूजा प्रीत भाटिया ' जी के सौजन्य से प्राप्त हुई थी बहुत ही दिलकश अंदाज़ में जावेद अख्तर द्वारा लिखी भूमिका और सलमान साहब की बेहतरीन ग़ज़लों को समेटे ये किताब हर शायरी के प्रेमी को पढ़नी चाहिए। आखिर में सलमान साहब की एक ग़ज़ल के ये शेर आपके हवाले कर मैं अब चलता हूँ अगली किताब की तलाश में। खुश रहें।

फर्क इतना है कि आँखों से परे है वर्ना 
रात के वक्त भी सूरज कहीं जलता होगा 

खिड़कियां देर से खोलीं, ये बड़ी भूल हुई 
मैं ये समझा था कि बाहर भी अँधेरा होगा 

कौन दीवानों का देता है यहाँ साथ भला 
कोई होगा मिरे जैसा तो अकेला होगा