Monday, August 31, 2020

किताबों की दुनिया -213 


सूरज है वो कि चाँद है देखूँगा फिर उसे 
पहले वो मेरी आँख का कंकर निकाल दे 
***
होगा न सेहरकारी में उससे बड़ा कोई 
वो बूँद रक्खे सीप में गौहर निकाल दे 
[ सेहरकारी : जादूगरी ]
***
काँटे तो सब निकाल लिये मैंने अपने आप 
अब कोई मेरे पाँव का चक्कर निकाल दे 

तारीख़ 24 अक्टूबर 1942, क़ायदे से आज घर में जश्न का माहौल होना चाहिए था लेकिन इस घर में इस तरह के फ़िज़ूल क़ायदे के लिए कोई जगह नहीं थी, इसीलिए जिस बच्चे की आज छठवीं सालगिरह थी उसके सामने केक के बजाय 'उर्दू' का क़ायदा पड़ा था, जिसे बच्चे के अब्बा उसे पढ़ा रहे थे। अब्बा ही पढ़ाते थे, वो भी जब उनका मन करता ,बच्चे को स्कूल भेजना उन्होंने कभी ज़रूरी नहीं समझा। अपनी सालगिरह के मौके पर बच्चे के तसव्वुर में केक तो नहीं अलबत्ता नारंगी रंग की मीठी गोली जरूर थी और इसी वज़ह से उसका ध्यान किताब में नहीं था। तभी तेज आवाज़ के साथ गाल पर अब्बा के पड़े थप्पड़ से बच्चे की आँखों के सामने सितारे नाचने लगे। ऐसे में कोई भी बच्चा दो काम करेगा पहला 'वो रोयेगा' दूसरा 'वो थप्पड़ मारने वाले के मरने की दुआ करेगा। इस बच्चे ने पहला काम नहीं किया क्यूंकि उससे दूसरा थप्पड़ पड़ने का अंदेशा था लिहाज़ा दूसरा काम बड़ी शिद्दत से किया। मुश्किल ये है कि ऊपरवाला आसानी से किसी की दुआ कबूल नहीं करता .इस बच्चे की भी नहीं की .बच्चा बड़ा होता रहा, उर्दू पढ़ता रहा और पिटता रहा। नतीज़ा ? ग्यारह बरस की उम्र तक बच्चे को ' मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा दीवान याद हो गया, मीर, मोमिन और दाग़ के सैंकड़ो शेर याद हो गए। बच्चा खुद भी धीरे धीरे शायरी  करने लगा .लोग जब सुनते और बच्चे को इज़्ज़त की नज़रों से देखते तब बच्चे की समझ मेंआया कि ऊपर वाले ने क्यों उसकी दुआ क़बूल नहीं की थी। अब्बा जैसे भी थे, बच्चे को उर्दू से बेपनाह मोहब्बत करना सिखा गये।

बच्चे के हिंदी सीखने के पीछे की कहानी भी मज़ेदार है. पड़ौस में रहने वाला दोस्त हिंदी फिल्मों और गीतों का दीवाना था और उसके घर ऐसी पत्र पत्रिकाओं का खज़ाना था। बच्चा पत्र पत्रिकाओं में फोटो देख कर खुश होता लेकिन पढ़ नहीं पाने से निराश होता। दोस्त ने लगन से बच्चे को हिंदी के वर्णाक्षरों से परिचय कराया। बच्चे ने पत्रिकाएं पढ़ने के लालच में हिंदी भी सीख ली। थोड़ा और बड़ा हुआ तो अंग्रेज़ी भी ऐसे ही खुद की मेहनत से सीखी और इन तीनों ज़बानों पर अधिकार, बिना स्कूल का मुंह देखे कर लिया।  

कहीं भी जाये चमकने का शौक़ है उसको 
वो अपने साथ अँधेरे ज़रूर रखता है 
***
वहीं से चाँद मेरे साथ साथ चलने लगा 
जहाँ से ख़त्म हुई रौशनी मकानों की 
***
मुझे कुछ भी नहीं आता मगर ये होशियारी है 
ये मत समझो कि सब कुछ जानता हूँ इसलिए चुप हूँ 
***
ठहर भी जाय तो पानी की सतह पर किश्ती 
सफ़र का शौक़ लिए डगमगाती रहती है 
***
मैं उसको देखूँ कुछ ऐसे कि देख भी न सकूँ 
वो अपने-आप में छुप जाय जब दिखाई दे 
*** 
छत पे सोने का ख़ूब लुत्फ़ रहा 
मैंने ओढ़ा कभी बिछाया चाँद 
***
जागता हो तो न देखे कोई महलों की तरफ़ 
किस तरह सोया हुआ आदमी ख़्वाबों से बचे 
***  
ध्यान में तेरे कभी बैठूँ तो क्या बैठूँ बता 
जब तलक तेरा तसव्वुर भी तेरे जैसा न हो 
***
ये जो सुकून सा है नतीजा है सब्र का 
हँसता हुआ सा जो भी है रोया हुआ-सा है 
***
सराब प्यास बुझाता नहीं कभी लेकिन 
ये बात खूब समझता है कौन प्यासा है 
[ सराब : मृगतृष्णा

ये बच्चा अब बड़ा हो चला है ,हारमोनियम बजाता है और सुर से गाने भी लगा है। मौसिकी के अलावा इसे चित्रकारी का भी शौक चढ़ गया है। बहुत खूबसूरत पेंटिंग करने लगा है, लोग पेंटिंग देखते हैं और बच्चे का हुनर देख कर दांतों तले उँगलियाँ दबा लेते हैं। संगीत, पेंटिंग और शायरी का शौक बच्चे को अपने अब्बा से मिला है जो दूसरा निकाह कर अब ये घर छोड़ कर अलग रहने जा चुके हैं। घर चलाने की जिम्मेदारी अब इस बच्चे के नाज़ुक कांधों पर आ पड़ी है। घर में माँ के अलावा छोटे भाई बहन भी हैं।अब्बा की सिफारिश से बच्चे की 'ग्वालियर इलेक्ट्रिक सप्लाई' में नौकरी लग गयी है, जहाँ नक्शों की ट्रेसिंग करनी होती है। जो तनख्वा मिलती है उस से घर का गुज़ारा किसी तरह चल जाता है। सिर्फ हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के ज्ञान से  ज्यादा ढंग का काम मिलना मुश्किल था। कोई डिग्री हाथ में होती तो और बात थी लेकिन यहाँ तो स्कूल की शक्ल भी कभी नहीं देखी थी। खैर वक़्त अपनी रफ़्तार से चलता रहा और इस बच्चे की, जो अब जवान हो गया था, शादी भी हो गयी। ज़िन्दगी के 24 साल मुश्किलों से जूझते हुए गुज़र रहे थे राहत का कहीं कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था. तभी एक ऐसी घटना घटी जिसने इस जवान की पूरी ज़िन्दगी बदल दी . एक बार किसी रिश्तेदार ने उनके अनपढ़ होने का मज़ाक उड़ाया और सबके सामने खुल कर उड़ाया। इस घटना से बजाय अपमानित हो कर आंसू बहाने के, जवान ने क़सम खाई कि एक दिन इन सबका मुंह बंद करके दिखायेगा। बस ये धुन सवार हो गयी. प्राइवेट केंडिडेट की हैसियत से मेट्रिक की परीक्षा दे डाली। उसमें पास हुए तो फिर हायर सेकेंडरी भी पास कर डाली और उसके बाद इंटर फिर बी. ऐ. और अंग्रेजी में एम. ऐ. की डिग्री हासिल की। याने अगले आठ सालों में वो जवान तालीम के मुआमले में फर्श से अर्श पर पहुँच गया। ये बात लिखने, पढ़ने में जितनी आसान लगती है उतनी है नहीं। सोच कर देखिये ये कितने कमाल की बात है कि जिस शख़्स ने 24 साल की उम्र तक स्कूल का रुख़ न किया हो उसने अपने बलबूते पर एम.ऐ. करली वो भी अंग्रेजी भाषा में, फिर उर्दू में । इस शख्स ने सबको  दिखला दिया कि इंसान अगर ठान ले तो क्या नहीं कर सकता। उर्दू शायरी के इतिहास में ऐसा करिश्मा करने वाला शायद ही कोई दूसरा शायर हुआ हो 

सवाब का तो कोई काम मुझसे हो न सका 
किसी गुनाह से राहे -निजात निकलेगी 
[ राहे -निजात : मुक्ति का रास्ता ]
***
बस एक आह भरी और सो गये चुपचाप 
जरा सी देर में निबटाया रात-भर का काम 
***
रखा संभाल के यूँ जाँ को जिस्म में हमने 
कि जैसे क़ैद हवा को हबाब में रक्खा 
[ हबाब :बुलबुला ] 
***
पैसे नहीं हों जेब में जिस चीज़ के लिये 
वो चीज़ ये समझ लो कि बाज़ार में नहीं 
***
वो राहबर हैं तो फिर आगे क्यों नहीं आते 
समझ में आ गया रस्ते में रात करनी है 

जैसे जैसे डिग्रियां मिलती गयीं वैसे वैसे नौकरी में इस शख्स को तरक्की मिलती गयी। मामूली ट्रेसर के ओहदे से एल.डी.सी. फिर यू.डी.सी.और यू.डी.सी से एस.जी.सी तक. पूरे आफिस में इस शख्स के जोश और जूनून की धाक जम गयी। नौकरी अपनी जगह चलती रही और इस शख्स की शायरी अपनी जगह। शायरी इस शख्स की रूहानी जरुरत बनकर ज़िन्दगी में दाख़िल हुई। शायरी को इस शख्स ने ज़िन्दगी की जद्दोजहद और घुटन को बाहर निकालने का जरिया बनाया। पेंटिंग का शौक था जो बाद में कमर्शियल आर्ट में तब्दील हो कर अतिरिक्त आय का ज़रिया बनने लगा। नौकरी से हर महीने रुपया तो मिलता था लेकिन सुकून धीरे धीरे कम होता जा रहा था और मन शायरी और पेंटिंग में उलझा रहता था। इस कश्मकश से निज़ात पाने के लिए मात्र 48 वर्ष की उम्र में सं 1984 में आखिर वो दिन आया जब इस शख्स ने अपनी 30 साल की नौकरी से प्री रिटायरमेंट ले लिया। 
अब अपनी पसंद के दो काम इस शख्स के हाथ में रह गए थे ,पहला शायरी और दूसरा पेंटिंग। शायरी रूह के लिए और पेंटिंग घर खर्च के लिए। नौकरी छोड़ कर इस शख्स ने अपना 'ग्राफिक डिजाइनिंग' का काम शुरू किया जो चल निकला।

कोई कुछ भी कहे सुनो ही नहीं 
ऐसे बन जाओ जैसे हो ही नहीं 

न सही कोई सायादार शजर 
रास्ते में कहीं रुको ही नहीं 

हो कोई बदगुमाँ तो होने दो 
इसका मतलब तो है हंसो ही नहीं 

ऐसी बातों का सोचना भी क्या 
कहना चाहो तो कह सको ही नहीं 

'ग्राफिक डिजाइन' की बात आयी है तो एक वाक़्या बताता हूँ। नवंबर 1987 ,ग्वालियर शहर में गहमागहमी चरम पर थी। पूरा शहर सजाया जा रहा था । राजमहल का तो हाल ही मत पूछें । लोगों में भागदौड़ मची हुई थी । किसी के पास सर खुजाने तक का वक़्त नहीं था । ये सब लोग दिसम्बर याने अगले महीने में होने वाली, श्री 'माधवराव सिंधिया' जी की बेटी की शादी की तैयारी में व्यस्त थे । सबसे बड़ी समस्या से वो टीम जूझ रही थी जिसके ज़िम्मे शादी का कार्ड फ़ाइनल करना था। समय कम था और काम भी बहुत महत्वपूर्ण था क्यूंकि कार्ड ही तो गणमान्य अतिथियों को पहला सन्देश देता है कि शादी किस स्तर की होने जा रही है। देश-विदेश से हज़ारों डिज़ाइन के एक से बढ़कर एक लाजवाब कार्ड सामने पड़े थे। हर एक कार्ड पर चर्चा हो रही थी लेकिन कोई कार्ड पसंद नहीं आ रहा था। तभी एक ऐसा कार्ड सामने आया जिसकी डिज़ाइन देखकर सब की बांछे खिल गयीं ये वो कार्ड था जो सभी को पसंद आया। ये कार्ड ऐसा था जैसे किसी ने मानो शायरी पेंट की है   
वो, मुसव्विर याने चित्रकार जिसने ये कार्ड डिज़ाइन किया था हमारे आज के शायर 'शकील ग्वालियरी' हैं । शायरी भी एक तरह से मुसव्विरी ही तो है। इसमें शायर लफ़्ज़ों से पेंटिंग करता है। इस वाक़ये से आप उनके हुनर का अंदाज़ा लगा सकते हैं। 
उसी हुनरमंद इंसान 'शकील ग्वालियरी' साहब की ग़ज़लों की हिंदी में एकमात्र छपी किताब 'लम्हों का रस' हमारे सामने है । इस किताब में लगभग 125 ग़ज़लें संकलित हैं.। शकील साहब की ग़ज़लें बेहद आसान ज़बान में हैं और यही इनकी सबसे बड़ी ख़ूबी है । डॉक्टर 'मुख़्तार शमीम (उज्जैन )' लिखते हैं कि,"शकील ग्वालियरी जिस सलीके से शेर कहते हैं और एक मिसरे में जिस तरह नया मोड़ देते हैं ये सलीक़ा कम ही शायरों को नसीब हुआ है ।"      
देखते सब हैं मगर बंद ज़ुबाँ रखते हैं 
इस तरह शहर में हम अम्नो-अमाँ रखते हैं 
***
इश्क़ की इब्तिदा और इन्तेहा हम से पूछो 
फूल को चूम के काँटों पे ज़ुबाँ रखते हैं 
***
तह में मिट्टी है कि पत्थर हैं मुझे क्या मालूम 
मैं तो ये देखता हूँ फूल खिला पानी पर 
***
ज़ात क्या नाम भी पूछा न नदी का उसने 
                   इतना प्यासा था कि आते ही गिरा पानी पर               
           
 शायरी जैसे शकील साहब के भीतर छुपी हुई थी तभी तो उन्होंने मात्र 15 -16 बरस की उम्र में बिना कोई खास तालीम हासिल किये बाक़ायदा शेर कहना शुरू कर दिए । उनके इस हुनर को तराशा उनके उस्ताद-ऐ-मोहतरम हज़रत 'गनी मुहम्मद क़ुरैशी गनी ग्वालियरी' साहब ने । सन 1953 याने 17 बरस की उम्र से उन्होंने सलीक़ेदार ग़ज़लें कहनी शुरू कर दीं।  उनके लेखन का दायरा सिर्फ ग़ज़ल तक ही सीमित नहीं रहा उनके समीक्षात्मक लेख और  लोक-साहित्य पर किये शोध-पत्र साहित्य जगत में चर्चा का विषय रहे । अपनी शायरी के बारे में उन्होंने लिखा है कि' मेरी शायरी का  तअल्लुक़ मेरी अपनी तरह की सोच से है और मेरी सोच बनी है उन हालात से जिनसे मैं गुज़रा हूँ। यहाँ एक ख़ास बात ध्यान में रखने के क़ाबिल है कि ग़ज़ल के शेर में शायर की शख़्सियत कई छलनियों में छन कर थोड़ी बहुत अपनी झलक दिखाती है। हर शायर कुछ मख़्सूस बहरें इस्तेमाल करता है। मीर की खास बहर को ग़ालिब ने कभी इस्तेमाल नहीं किया, इसलिए कि वो उनके मिज़ाज से मेल नहीं खाती थी।मैंने भी अपनी ग़ज़लों में उन्हीं चंद बहरों का इस्तेमाल किया जो मेरे ख़्याल को आसानी से शेर में पिरोने में मददगार थीं. मैं शायरी में किसी भी लफ्ज़ का इस्तेमाल बिना उसका ओरिजिन जाने नहीं करता हूँ क्यूंकि हर लफ्ज़ का एक कल्चर होता है उस कल्चर का परसेप्शन न हो तो शब्द का उचित इस्तेमाल नहीं हो सकता। मैं अपनी शायरी में लफ़्ज़ों के माध्यम से अस्ल मफ़्हूम (विषय )के अलावा भी कई बातें कह जाता हूँ। मानी और मफ़्हूम के अलावा मेरी शायरी में आप तास्सुर भी पाएंगे मैं कहता हूँ शायरी में तास्सुर लाने के लिए हिंदी कवियों को उर्दू और उर्दू कवियों को हिंदी साहित्य पढ़ना चाहिए '

हो सलीक़ा अगर बरतने का 
लफ़्ज़ रहते हैं हर जुबान में ख़ुश
***
दुनिया का कोई काम हो आसान से आसान 
होना हो तो होता है वगरना नहीं होता 
***
तुम्हारी जीत उसे तुमसे दूर कर देगी 
निबाह चाहो तो दानिश्ता हारते रहना 
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अम्न एक लफ़्ज़ है अक्सर जो उभर आता है 
ख़ूने-इंसान में डूबी हुई तलवारों पर 
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साहिल पे एक कमीज़ मिली चाक की हुई 
ये किसने ख़ुदकुशी का इरादा बदल दिया 
***
इश्क़ करने चले थे चाँद से हम 
ख़त न फेंका गया अटारी तक 
***
लिखा है जिसकी तख़्ती पर मुहब्बत 
वो दरवाज़ा कोई जाँ-बाज़ खोले 
***
किसी की राहतें भी बे-मज़ा हैं 
किसी के दर्द में लज़्ज़त बहुत है 
***
ये बात न होती तो कभी रंग न चुभते 
काँटों का असर कुछ तो गुलाबों में भी आया 
***
कितने नादाँ हैं वो जो सोचते हैं 
इश्क़ में कामयाब हो जायें  

शकील साहब की ग़ज़लों की पहली किताब 'तरकश' मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा 1986 में प्रकाशित की गयी। ग्वालियर में उर्दू ग़ज़ल के 100 साल के इतिहास के विवेचन और समीक्षा पर केंद्रित उनकी दूसरी किताब 'पत्थरों के शहर में' सन 1996 में प्रकाशित हुई जो उर्दू साहित्य के क्षेत्र में ख़ासी चर्चित हुई । तीसरी किताब एक ग़ज़ल संग्रह 'आसमां पर आसमां' सन 2000 में चौथी और एकमात्र देवनागरी में छपी किताब 'लम्हों का रस' सन 2003 में प्रांजल शिक्षा एवं साहित्य समिति ग्वालियर द्वारा प्रकाशित की गयी । देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं जिनमें धर्मयुग ,हंस ,युद्धरत तथा अक्षरा प्रमुख हैं । इसके अलावा राणा प्रताप पर खंड-काव्य लिखा है । उनका शोध-पत्र स्कंदगुप्त : एक अध्ययन है ।कविता संग्रहों में 'फसल बनती उम्मीदें' , 'पुष्पगंध' तथा 'ऐसा क्यों होता है' विशेष उल्लेखनीय हैं । उन्होंने दतिया से प्रकाशित 'उद्भव' और 'विकास' सन्दर्भ-ग्रन्थ तथा 'ज्ञान ज्योति' और 'अस्मिता' पत्रिकाओं का संपादन भी किया है । शकील साहब म. प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन , म. प्र . साहित्य अकादमी से सम्बद्ध रखते हैं । आकाशवाणी के ग्वालियर केंद्र के प्रारम्भ से लेकर अब तक सहयोगी रहे हैं । आकाशवाणी ग्वालियर ने आप पर तीन घंटे की रेडियो ऑटोबायोग्राफ़ी 2014 में तैयार की थी  

पलकों पे आके रुक गए ख़्वाबों के काफ़िले 
पानी के पास शहर-सा आबाद हो गया 
***
जो हाथ थपकियों से सुला देते थे कभी 
तकिये पे बस ग़िलाफ़ चढाने के रह गये 
***
पागल हूँ, घर की तन्हाई 
ढूंढ रहा हूँ बाहर आकर 
***
मैं ही कश्ती भी हूँ मल्लाह भी तूफ़ान भी हूँ  
और अब डूब रहा हूँ तो परेशान भी हूँ  
***
अजीब बात है उनसे जो मेरे अपने हैं 
मुझे ये कहना पड़ा मेरा ऐतबार करो 
***
बजा रहा है कोई साज़ बंद कमरे में 
लरज़ रही है छतें सात आसमानों की          
***
मौजे-खूँ की तह में क्या है ये किसे मालूम था 
नदी उतरी तो भारी पत्थरों के सर खुले   
***
 सैयाद छोड़ दे दरे-ज़िन्दान खुला हुआ 
फिर कोई क़ैद रह के दिखाये मेरी तरह  
***
आओ ,सो जाओ उठो और चल दो 
ये ठिकाना भी ठिकाना है कोई 
***
पानी जहाँ है डूबे हुओं की है यादगार 
आग उनकी यादगार है जो ख़ाक हो गये 
    
यूँ तो शकील साहब पर लिखने के लिए एक पोस्ट काफी नहीं है, लेकिन हमारी मज़बूरी है इसलिए शकील साहब की इस किताब में दर्ज जनाब 'रामकिशोर शुक्ल' साहब की इन पंक्तियों से इस पोस्ट को विराम देते हैं,"शकील की शायरी लगभग पचास साल का सफ़र तय कर चुकी है । इस दौरान उनका मिज़ाज पूरी तरह ग़ज़ल में रच-बस गया है । उनका ये ग़ज़ल-संग्रह आपको एक ऐसी दुनिया में ले जायेगा जहाँ आप अपने अतीत वर्तमान और भविष्य से रूबरू होंगे, जहाँ आप पुरानी तहज़ीब की धरोहरों और नये तौर-तरीकों से ख़त्म हो रही पुरानी क़द्रों के अहसासात महसूस करेंगे, जहाँ आप सच्चाइयाँ बयाँ करते हुए किरदार और धरती से आकाश तक फैली कायनात के मंज़र देखेंगे, जहाँ आप कान से देख सकेंगे और आँख से सुन सकेंगे, जहाँ आप हार-जीत से ऊपर होंगे, जहाँ आप बिना पर वाली चीजें उड़ती हुई देखेंगे,जहाँ आप वो सब देखेंगे और महसूस करेंगे जिनकी तलाश में इंसान सदियों से है।  सबसे ऊपर आप यह महसूस करेंगे कि दुनिया में ईश्वर के बाद कोई है जो आपको पार लगा सकता है वो कोई और नहीं सिर्फ आप ख़ुद हैं ।"       

उससे बिछड़े एक मुद्दत हो गई लेकिन हमें 
आज भी हर काम में उसकी इजाज़त चाहिए 
***
तजरुबों ने ख़राब कर डाला 
दोस्तों हम भी साफ़ थे दिल के 
***
अगर है तंज़ ही करना नज़र मिला के करो 
चढ़ा हो तीर तो सीधा रखो कमान का रुख़ 
***
ये तो गुलिस्तानों में रोज़ के क़िस्से हैं 
फूल खिले, खिलकर शाखों से दूर हुए  
***
ग़मे-हयात से ऐ दिल फ़रार क्या मानी 
सिपाही छोड़ के लश्कर तो जा नहीं सकता 
*** 
इज़्ज़त बचा के अपनी कैसा निकल गया है 
कहते हैं चाँद भी है टुकड़ा इसी ज़मीं का 
***
रौशनी में कहीं उगल देगा 
मेरा साया निगल गया है मुझे 
***
शायरी में शायरी हमने बहुत कम की 'शकील'
शेर भी कहना हुआ तो सादगी से कह दिया


(ये पोस्ट ग्वालियर के मशहूर शायर 'अतुल अजनबी' जी द्वारा भेजे गए 'पहल' पत्रिका के उस अंक से तैयार की गयी है जिसमें शकील साहब ने अपने बारे में एक लेख लिखा था )  

Monday, August 24, 2020

किताबों की दुनिया -212

अगर मानूस है तुमसे परिन्दा 
तो फिर उड़ने को पर क्यूँ तौलता है 
[ मानूस : हिला हुआ ]

कहीं कुछ है,कहीं कुछ है,कहीं कुछ 
मिरा सामान सब बिखरा हुआ है 

अभी तो घर नहीं छोड़ा है मैंने 
ये किसका नाम तख़्ती पर लिखा है 
 
"सुनो बोरिया बिस्तर बांधना पड़ेगा, ये घर छोड़ कर अब ग्वालियर जाना है ।" रसोई से इस जुमले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी । उन्होंने गला खंखारते हुए फिर कहा,"गवर्मेंट कमला राजा गर्ल्स कॉलेज में प्रोफ़ेसर और सदर-शोबए उर्दू का ओहदा मिला है।" कोई जवाब नहीं । कभी-कभी ख़ामोशी वो सब कुछ कह देती है जो बोल कर नहीं कहा जा सकता । बल्कि उससे भी ज़्यादा । मुलाज़मत के सिलसिले में मुख़्तलिफ़ मक़ामात का सफ़र घर के बाशिंदों के लिए सबसे मुश्किल होता है ; गृहस्थी बसाना फिर उसे समेटना और फिर बसाना वो भी एक बार नहीं कई बार । अमरावती से जबलपुर फिर भोपाल और अब ग्वालियर । आप ही बताएं इस ख़बर को सुनकर भला कौन ख़ुश या दुखी होकर जवाब देगा ? इसीलिए जवाब नहीं आया । अफ़सोस ! ज़वाब न देने से समस्या ख़त्म नहीं होती , वहीं की वहीं रहती है । समस्या का समाधान बोलने या चुप रहने से नहीं होता उससे सामना करने से होता है । लिहाज़ा सामान बाँधकर कूच की तैयारी शुरू कर दी गयी ।             

हम तो बिखराते हुए चलते हैं साए अपने 
किसी दीवार से साया नहीं मांगा करते
*
हर एक काम सलीक़े से बांट रक्खा है 
ये लोग आग लगाएँँगे, ये हवा देंगे
*
कोशिशें है उसे मनाने की 
ये भी डर है कि बात मान न ले 
*
नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने 
अब समंदर की ज़िम्मेदारी है
*
वो ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता 
तो ये किया कि मुझे वक्त पर दवाएँँ न दींं
*
मैं तो चाहता ये हूँँ बहस ख़त्म हो जाए 
आओ तौल कर देखें, किस का बोझ भारी है
*
तू मुझे काँँटा समझता है तो मुझसे बच के चल 
राह का पत्थर समझता है तो फिर ठोकर लगा
*
जो मुझसे दूर बैठे हैं, सब गुल-फ़रोश हैं 
मुझसे खरीदना हो तो ख़ुशबू खरीदना
*
माहौल को ख़राब न मैंने किया कभी 
टूटा भी हूं तो अपने ही अंदर बिखर गया
*
उसमें चूल्हे तो कई जलते हैं 
एक घर होने से क्या होता है

भोपाल से ग्वालियर शायद ही कोई आना चाहे जब तक कि कोई मजबूरी ही न हो । भोपाल हरा-भरा है और झीलों से घिरा है और आपको ये बता दूँ कि रहने और जीवन-यापन के लिए ग्वालियर से सस्ता भी है - चौंक गए ? जी हाँ, मैं भी चौंक गया था जब गूगल ने ये जानकारी मुझे दी । ये जानकारी अब की है जबकि मैं बात कर रहा हूँ सन 1968 की । और मैं मान लेता हूँ कि तब भी भोपाल ग्वालियर से सस्ता ही होगा । ग्वालियर आना इस परिवार की मजबूरी थी लिहाज़ा आना पड़ा । ये लोग आये और रहने लगे । ऐसा होता है कि हम जहाँ कहीं रहने लगते हैं धीरे-धीरे वो घर,मोहल्ला,लोग और शहर हमें अच्छा लगने लगता है । इस परिवार को भी ग्वालियर अच्छा लगने लगा और इतना अच्छा लगने लगा कि पूरे परिवार ने ऊपर वाले से दुआ की कि वो अब उन्हें और कहीं विस्थापित न करे । ऊपर वाला हमेशा सब की बात नहीं मानता लेकिन कभी-कभी मान भी लेता है और उसका ये कभी कभी मान लेना ही इंसान को उससे जोड़े रखता है । ऊपर वाले ने परिवार की इस दुआ को क़बूल कर लिया । ग्वालियर में बसने के बाद ये परिवार विस्थापन के दर्द से मुक्त हुआ । 
भूमिका लम्बी ही नहीं हो रही बे-मक़सद भी होती जा रही है इसलिए इसे विराम देते हुए बताता हूँ कि हम जिस परिवार की बात कर रहे हैं उसके मुखिया याने हमारे आज के शायर हैं जनाब डॉ. 'अख़्तर नज़्मी' साहब जिनकी देवनागरी में छपी किताब 'सवा नेज़े पे सूरज' हमारे सामने है ।    
 

उलझनेंं और बढ़ाते क्यूँ हो 
मुझको हर बात बताते क्यूँ हो 

मैं ग़लत लोगों में घिर जाता हूं 
तुम मुझे छोड़ के जाते क्यूँँ हो 

फिर मेरा दिन नहीं काटे कटता 
तुम ज़रा देर को आते क्यूँँ हो 

वादी-ए-गुल से गुज़रते जाओ 
हाथ फूलों को लगाते क्यूँँ हो

सबसे पहले बात करते हैं इस किताब के शीर्षक की.  'सवा नेज़े पे सूरज' का अर्थ क्या हुआ ? इस किताब में दिए विवरण के अनुसार ऐसा इस्लाम में विचार किया गया है की  'जब क़यामत का दिन आएगा तब सूरज सातवें आसमान पर आ जायेगा जो ठीक पृथ्वी के ऊपर है। सूरज का सातवें आसमान पर यानी ठीक पृथ्वी के ऊपर आना ' सवा नेज़े' पे आना है जिससे सूरज के प्रचंड ताप से धरती पर सब विनष्ट होने लगेगा और किसी को होश नहीं रहेगा और नेज़ा याने भाला है ।  हम इस बात की व्याख्या पर नहीं जाएंगे क्यूंकि ये इस पोस्ट का मक़सद नहीं है । अभी हम क़यामत की नहीं बल्कि क़यामत ढाते उन अश'आरों की बात करेंगे जो इस किताब में जगह-जगह बिखरे पड़े हैं ।  
   .
कुछ लोगों को इसका भी तजुर्बा नहीं अब तक 
जो सबका है वह शख़्स किसी का नहीं होता 

हैरत है कि ये बात भी समझानी पड़ेगी 
सूरज ही के छुपने से अँँधेरा नहीं होता 

मैं ज़हन में उसके हूँँ मेरे दिल में है वो भी 
इस तरह बिछड़ना तो बिछड़ना नहीं होता

इलाहबाद के जनाब मुमताज़ उद्दीन 'बेखुद' के यहाँ सन 1931 में 'सैयद अख़्तर जमील' का जन्म हुआ जो आगे चल कर 'अख़्तर नज़्मी ' के नाम से उर्दू ग़ज़ल के आसमां का रोशन सितारा बना । मुमताज़ साहब का परिवार और नाते-रिश्तेदारों को रोज़ी-रोटी की तलाश में इलाहबाद छोड़ना पड़ा और वो लोग जिसको जहाँ ठिकाना मिला बस गए । घर की माली हालत खस्ता थी लिहाज़ा बचपन में अख़्तर साहब के बहुत से अरमान पूरे नहीं हो सके । जवानी में भी किसी ने उनकी तरफ़ जितना देना चाहिए था उतना ध्यान नहीं दिया-। वो अगर ग़लत राहों पर चल पड़ते तो उन्हें कोई समझाने वाला भी नहीं था लेकिन ऊपर वाले की मेहरबानी से उनके क़दम कभी बहके नहीं और वो सीधे रास्ते पर चलते हुए तालीम हासिल करते रहे । इसी दौरान ज़िन्दगी की जद्दोजहद को वो अश'आरों में ढालने लगे और कभी-कभी ग़ज़लें भी कहने लगे । एक अच्छे उस्ताद की तलाश शुरू हुई लेकिन दूर-दराज़ में बसे शायरों तक उनकी पहुँच नहीं हो पायी और आसपास वालों ने उन्हें तवज्जो तक नहीं दी ।   .

न सोचा था वो कर गुज़रेगा ये भी 
मुझे अपना बना कर छोड़ देगा 

मेरे हाथों में जब पतवार होगी 
मेरे पीछे समंदर छोड़ देगा 

ख़रीदेगा उसे जिस पर नज़र है 
मुझे बोली लगाकर छोड़ देगा

उनके वालिद अफ़साने, तन्ज़िया और मज़ाहिया रेडियाई ख़ाके लिखते थे और शे'र भी कहते थे । आम-फ़हम ज़ुबान में तहदार मानवियत से आरास्ता लेकिन अपनी इल्मी बे वज़ाअति के बाइस अख़्तर साहब की उनसे मशवरा लेने की जुर्रत नहीं हुई । क्या ज़माना था जब बच्चे अपने बाप की इज़्ज़त करते थे और उनसे ख़ौफ़ खाते थे अब मामला थोड़ा उल्टा हो गया है । आप इस बात का बुरा न मानें  लेकिन अपवाद कहाँ नहीं होते । वालिद के स्टाइल की नक़ल करते हुए उन्होंने ग़ज़लें कहनी शुरू की और जब उनके वालिद को इस बात की ख़बर मिली तो उन्होंने सुनने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की । वालिद ग़ज़ल सुनते जरूर लेकिन उन्होंने दाद कभी खुलकर बुलन्द आवाज़ में नहीं दी और अगर दाद मिलती भी थी तो ग़ज़ल सुनकर कभी उनकी आँखों में आयी चमक से तो कभी लबों पर बिखरी हलकी-सी मुस्कराहट से तो कभी हाथ की हल्की-सी जुम्बिश से । ये बात सन 1952 की है याने जब अख़्तर साहब 21 साल के थे।      

सर्फ़ कर दिया मैंने ज़िन्दगी का हर लम्हा 
इसको याद करने में, उसको भूल जाने में
*
यही सच है कोई माने न माने 
सब अच्छा है तो कुछ अच्छा नहीं है
*
मैं अपनी घुटन अपने दिल में लिए 
हमेशा हवादार घर में रहा
*
सारे दरवाज़े एक जैसे हैं 
झुक के निकलो तो सर नहीं लगता
*
 शराब पी के तो मैं ख़ुद ख़रीद लूं सबको 
वो सोचता है पिलाकर ख़रीद लेगा मुझे
*
ये कहा तो बात की तह तक पहुंच सकते हैं लोग 
दूर से अच्छा नज़र आता है मेरा घर मुझे
*
मेरी ज़ुबाँँ ही फँस जाती है, मैं ही पकड़ा जाता हूँँ 
वो तो यार बदल देता है अपनी बात सफ़ाई से
*
जब चलो उसके रास्ते पे चलो 
क्या इसी को निबाह कहते हैं
*
क्या किया है निबाहने के सिवा 
जब से इस ज़िन्दगी से रिश्ता है
*
ये तरक़्क़ी पसंद शायरी के उरूज का दौर था । सभी का रुख़ उसी ओर हुआ करता था लेकिन अख़्तर साहब का रिश्ता न तरक़्क़ीपसंद शायरी से जुड़ सका न रिवायती शायरी से पूरी तरह टूट सका । धीरे-धीरे 1955 तक आते-आते उनका लहजा तब्दील होते होते पूरी तरह से जदीद शायरी पे टिक गया । इसके साथ ही उनकी मकबूलियत का दौर शुरू होता है जो चालीस से अधिक सालों तक लगातार चलता रहा । उनकी ग़ज़लों को बड़े ग़ज़ल गायकों जैसे 'जगदीश ठाकुर', 'जगजीत सिंह', 'अनूप जलोटा' और 'अहमद हुसैन -मोहम्मद हुसैन' बंधुओं ने अपने स्वर दिए और जन-जन तक पहुँचाया । 'अख़्तर' साहब मुशायरों के शायर कभी नहीं रहे,यही वजह है कि उनके मुशायरे पढ़ते हुए के वीडियो इंटरनेट पर कहीं नहीं मिलते। वीडियो तो छोड़िये उन पर किसी का हिंदी या अंग्रेजी में लिखा लेख भी नहीं मिलता। उर्दू का मुझे पता नहीं क्यूंकि मुझे उर्दू पढ़नी नहीं आती । उनकी शायरी का सफ़र 1 सितंबर 1997 को मात्र 65 साल की उम्र में ग्वालियर में रुक गया  वो अपने परिवार और चाहने वालों को रोता-बिलखता छोड़ गए । उनकी बेग़म 'निशात अख़्तर' लिखती हैं कि "उनका साथ छूटा कहाँ है । उनकी फ़िक्र, उनका क़लाम, उनके अश'आर और इन्हीं में वो ख़ुद हर जगह मौजूद हैं । उनकी दुनिया किताबों में थी और उस दुनिया में आज भी वो हर जगह नज़र आते हैं।"            
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 हंगामे में खोई हुई ख़ुशियाँ नहीं मिलतींं 
बारात में खोया हुआ ज़ेवर नहीं मिलता 

ये नींद का आलम है के शब-भर नहीं आती 
आराम का ये हाल है दिन भर नहीं मिलता 

पानी की तरफ़ पानी का रुख़ होता है 'नज़्मी'
सूखी हुई नदियों को समंदर नहीं मिलता

अख़्तर साहब की किताबों में  'शब -रेज़े' (उर्दू में सन 1982 में) , 'ख़्वाबों का हिसाब' (उर्दू में सन 1986 में) , 'सवा नेज़े पे सूरज' (उर्दू में सन 1996 में और देवनागरी में सं 2006 में) तथा मीर सय्यद अली 'ग़मगीन' पर शोध-ग्रंथ 2008 में मंज़र-ए-आम आया । हिंदी में इस किताब को 'मेधा बुक्स' नवीन शाहदरा, दिल्ली ने प्रकाशित किया है लेकिन अब उनके पास ये किताब उपलब्ध है या नहीं ये कहना मुश्किल है । अख़्तर साहब ने सिर्फ ग़ज़लें ही नहीं क़ता, नज़्म, रुबाई और दोहों जैसी विधा पर भी सफलतापूर्वक क़लम चलाई है ।   
 
आख़िर में प्रस्तुत हैं नज़्मी साहब की इस किताब से चुने हुए चंद अश'आर :-        

चश्मदीद एक भी गवाह नहीं
जुर्म छुप जाएगा गुनाह नहीं
*
आग तो लग गई इस घर में बचा ही क्या है 
बच गया मैं तो वो कह देगा जला ही क्या है
*
इतनी सूरज से दोस्ती न करो 
छोड़ जाएगा ये अँँधेरे में
*
इतना अच्छा न कहो उसको के फँस जाए ज़ुबाँ 
जब बुराई नज़र आए तो बुरा कह न सको
*
हमेशा घर ही में रहने से दम-सा घुटता है 
तुम्हारी बात भी सच है मगर किधर जाएँँ
*
 इसीलिए तो बनाया है घर किताबों में 
 के बार-बार तुम्हारी नज़र से गुजरूँगा
*
लगता नहीं है पढ़ने में, लगने लगेगा दिल 
ऐसा करो रहीम के दोहे पढ़ा करो
*
नहीं है कोई मुरव्वत नहीं है पानी में 
जो हाथ-पाँँव न मारेगा डूब जाएगा
*
आँँख सूरज की बंद होते ही 
चाँँद ने आसमाँँ खरीद लिया
*
मुश्किल था खेल दिन के उजाले में खेलना 
सूरज छुपा तो आई नज़र रौशनी मुझे
*

Monday, August 17, 2020

किताबों की दुनिया -211

 
(ये पोस्ट भाई अखिलेश तिवारी और जनाब लोकेश कुमार सिंह 'साहिल' जी के सहयोग के बिना संभव नहीं थी )

आज 'किताबों की दुनिया' की इस  शृंखला का आगाज़ पद्मभूषण जनाब "गोपीचंद नारंग" साहब की उस टिप्पणी से करते हैं जो उन्होंने प्रसिद्ध शायर 'प्रियदर्शी ठाकुर 'ख़याल' साहब की ग़ज़लों की किताब 'धूप, तितली, फूल' पर 'धर्मयुग' पत्रिका में बरसों पहले की गयी समीक्षा में की थी । उन्होंने लिखा कि "हमारा दुर्भाग्य है कि हम ऐसे युग को झेल रहे हैं जहाँ धरती के बंटवारे के साथ संस्कृति का भी बंटवारा हो रहा है । मेरा बरसों से ये मत है कि भाषाओं का धर्म नहीं हुआ करता । भाषा तो हर उस व्यक्ति की अपनी हो जाती है जो उसे चाहता है । जो भाषा के नाज़ उठाता है भाषा भी उसके नाज़ उठाती है । अफ़सोस की बात ये है कि अब भाषा को धर्म के साथ जोड़ दिया गया है । भाषा ही नहीं रंगों का भी विभाजन धर्मानुसार हो गया है । भाषा तो सम्प्रेषण का माध्यम है इसका धर्म से क्या लेना देना इसी तरह रंग तो ईश्वर ने सब के लिए बनाये हैं फिर क्यों उन्हें धर्म के साथ चस्पा करना ? अब ग़ज़ल को ही लें, इस विधा को भी एक भाषा और धर्म-विशेष की मिल्कियत माना जाने लगा है जबकि ऐसा है नहीं । 
 
ब-मुश्किल बचाया था चिंगारियों से,
घिरा है मगर अब चमन आरियों से

कभी कोई जयचन्द, कभी मीर जाफ़र 
भरा है ये इतिहास ग़द्दारियों से

सुनिश्चित है उसका पतन इस वतन में 
प्रशंसा सुनी जिसने दरबारियों से

हमारे आज के शायर ' जस्टिस शिव कुमार शर्मा ' हिंदी में आज से नहीं बरसों से ग़ज़लें कहते आ रहे हैं और साहित्य में अपनी धाक जमा चुके हैं। उनकी ग़ज़लों की किताब  'हिलते हाथ दरख़्तों के' तब प्रकाशित हुई थी जब वो 'कुमार शिव' के नाम से साहित्य जगत में विख्यात थे। चूँकि इस किताब की सभी ग़ज़लों की भाषा हिंदी है और इनमें उर्दू के बहुत कम शब्द हैं तो  सिर्फ इस बिना पर आप इन्हें 'हिंदी ग़ज़लों' का भले ही नाम दें लें लेकिन मेरी नज़र में ये सिर्फ़ ग़ज़लें ही हैं । जब उर्दू में कही ग़ज़लें 'उर्दू ग़ज़लें' नहीं कहलाती तो फिर हिंदी या मराठी या गुजराती या पंजाबी या ब्रज-भाषा में कही ग़ज़लें क्यों उस भाषा के नाम से सम्बोधित की जाती हैं ? ग़ज़ल अगर किसी भी भाषा में ग़ज़ल के निर्धारित व्याकरण के अंतर्गत कही जाती है तो वो ग़ज़ल ही कहलानी चाहिए। 
वैसे ये बहस का विषय हो सकता है और हमारा उद्देश्य यहाँ बहस नहीं बल्कि किताब खोलकर आपके सामने रखना है तो चलिए वो ही करते हैं :-    
   

नहीं था चाहे बदन पर लिबास लोगों के,
हुज़ूर आए तो बस्ती ने झंडियाँ पहनींं
*
उदास देहरी है, गुमसुम है बंद दरवाज़े
ये एक घर का नहीं, क़िस्सा है ये घर-घर का
*
सुख धुएँँ-सा दीखता चिमनी के ऊपर
दुख तरल होकर सतह पर बह रहे हैं
*
कितना अपनापन था, बोझिल मन से हमको विदा किया,
पीछे मुड़कर देखे हमने हिलते हाथ दरख़्तों के
*
काँटे तो हँसते-हँसते सह लेता था,
उसने अब उँगली में फूल चुभाया है
*
चट्टानों से फूट पड़े हैं,
हम जल के ऐसे निर्झर हैं
*
ये रिश्ते ये नाते, ये अपने-पराए
भरा है यह घर-बार व्यापारियों से
*
जब से ये सावन आया है, वृक्ष हुए अनुशासनहीन,
युवा चांदनी ने जंगल में आना-जाना छोड़ दिया
*
मैं तो टूट चुका भीतर तक, मुझको तो परवाह न थी,
तुम तो फागुन के मौसम थे, तुमने क्यों दर्पण तोड़ा ?
*
बारिश में भीगी तो ख़ुशबू फैल गई,
हुआ देह पर जादू टोना मिट्टी का

राजस्थान के कोटा शहर में 24 सितम्बर 1945 को जन्में जनाब 'शिव कुमार शर्मा' उर्फ़ 'कुमार शिव' का बचपन अभावों में गुज़रा । परिवार के सदस्यों के आपसी क्लेश के चलते उनके परदादा द्वारा स्थापित किया गया प्रिंटिंग का जमा-जमाया व्यवसाय धीरे धीरे उजड़ गया । पिता सीधे-सादे नेक दिल इंसान थे इसलिए परिवार में चल रहे षड़यंत्र के शिकार होने के बावजूद उन्होंने किसी का बुरा नहीं चाहा । माँ के दिए संस्कारों की वजह से कठिन समय में उनमें कभी हीनता का भाव नहीं आया । उनकी माँ हमेशा अडिग चट्टान की तरह उन्हें हर मुश्किल में सम्बल देती रहीं । वो सोचते थे कि विपरीत परिस्थितियों में बिना निराश हुए वो पढ़-लिखकर इन अभावों को दूर कर लेंगे और अपनी इस सकारात्मक सोच के चलते उन्होंने ऐसा करके दिखाया भी । 

गीली लकड़ी, चूल्हा-चौका चिमटा-बेलन और धुआँ,
भीगा अंजन, बजते कंगन, यह गोरा तन और धुआँ 

यादें पीहर की सुलगी हैं धधक उठी है सीने में,
आँखों से बाहर निकला है मन का चंदन और धुआं 

द्वार-द्वार पर कढ़े माँँडने आँँगन-आँँगन रंगोली,
कमरों में लेकिन मकड़ी के जाले, सीलन और धुआँ 

उनका इंजीनियर बनने का सपना तब टूट गया जब हाईस्कूल में उनके उतने अंक नहीं आये जो उन्हें विज्ञान और गणित विषयों में प्रवेश दिला सकते इसलिए हार कर उन्हें कॉमर्स विषय चुनना पड़ा । समझौते किये बिना जीवन जीना संभव नहीं था । लालटेन की रौशनी में पढ़ते हुए आख़िर उन्होंने 1964 में बी.कॉम डिग्री हासिल कर ली और चम्बल-प्रोजेक्ट के कार्यालय में कनिष्ठ लिपिक की नौकरी से अपना घर चलाने लगे । दिन में नौकरी और शाम को राजकीय महाविद्यालय कोटा में चलने वाली कानून की कक्षाओं में जाने लगे । आख़िरकार मेहनत रंग लायी और 1967 में राजस्थान बार काउन्सिल ने उन्हें एडवोकेट के रूप में मान्यता दे दी । ये सब लिखने का मक़सद सिर्फ़ उस शायर के संघर्ष को जानना और उससे प्रेरणा लेना है जिसकी किताब आज हमारे सामने है ।  
       
एक काग़ज़ आग से कुछ दूर है,
यूं समझ लो आग को आराम है

ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी का क्रम यहाँ,
सुबह थी, दोपहर थी, फिर शाम है 

आजकल यारों तुम्हारी दोस्ती 
दुश्मनी का ही नया उपनाम है 

इससे पहले कि हम 'कुमार शिव' साहब के साहित्य पक्ष की और चलें यहाँ उनकी प्रतिभा का एक दृष्टान्त लिखना उचित लग रहा है । वकील बन कर कुमार शिव कोटा के एक प्रसिद्ध वकील  के चेंबर में काम सीखने लगे लेकिन जब 'कुमार शिव' को वकालत में आगे बढ़ने के अधिक मौक़े नहीं नज़र आये तो उन्होंने हिंदी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. कर किसी सरकारी कॉलेज में व्याख्याता बनने का विचार किया । हिंदी विभागाध्यक्ष ने ये सोचकर कि एक कॉमर्स ग्रेजुएट जिसने हिंदी कभी पढ़ी नहीं एम.ए. कैसे करेगा ! लिहाज़ा उन्हें हिंदी में एडमिशन देने से मना कर दिया । भला हो प्रिंसिपल साहब का जिन्होंने सिर्फ़ इसलिए कि ये लड़का अपने कॉलेज की क्रिकेट टीम का कप्तान था ; उन्हें विभागाध्यक्ष के विरोध के बावजूद एडमिशन दे दिया । वकालत की ट्रेनिंग और हिंदी की कक्षाएं साथ-साथ चलने लगीं । आख़िर वही हुआ जिसका डर था वकालत की ट्रेनिंग के चलते एम.ए. की कक्षाएँ  छूटने लगी और उनकी अटेंडेंस फ़ाइनल परीक्षा में बैठने के स्तर से कम हो गयीं । 'कुमार शिव' साहब के विभागाध्यक्ष एवं प्रिंसिपल को दिए इस आश्वासन पर भरोसा कर कि वो परीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण होकर दिखाएंगे ; उन्हें परीक्षा में बैठने दिया । परिणाम आने पर विभागाध्यक्ष हैरान रह गए जब 'कुमार शिव ' न केवल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए बल्कि कक्षा में प्रथम भी रहे।         

आँखें पगडंडी पर रख दी दीया जलाया देहरी पर, 
तुमने मेरे इंतज़ार में क्यों लट में उलझाई रात ?

तुमने इस जीवन में सौंपे यादों के कुछ बीज हमें,
हमने आँखों के गमलों में इनसे ही महकाई रात 

पलकें हैं बोझिल-बोझिल और चेहरे पर सिंदूर लगा,
सुबह पूछती है सूरज से बोलो कहाँँ बिताई रात 

बड़े वकील के यहाँ ट्रेनिंग के दौरान रोज़ अदालतों के चक्कर और साथ ही हिंदी में एम.ए. फ़ाइनल की तैयारी चलती रही । आख़िरकार उन्होंने हिंदी से एम.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और वकालत को छोड़-छाड़ कर विश्वविद्यालय में व्याख्याता बनने के ख़्वाब देखने शुरू कर दिए लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था । अचानक उनके हाथों एक दिन एक ऐसा मुक़दमा लगा जिसमें उनके जीतने की और ग़रीब मुवक्किल की ओर से केस लड़ने पर उससे कोई पैसे मिलने की उम्मीद नहीं थी । उन्होंने मुक़दमा लड़ा और नामी-गिरामी सरकारी वकील को पटखनी देते हुए उसे शान से जीत लिया । उनकी पैरवी से ख़ुश होकर जज ने उन्हें अपने कैबिन में बुला कर कहा,"वन डे यू विल रीच द टॉप , दिस इज माई प्रिडिक्शन ।" जज साहब के इस वाक्य से मिले हौसले ने उनके व्याख्याता बनने की सोच को सदा के लिए भुला दिया ।     

थामने कल जो चले थे रोशनी की उंगलियाँ,
हाथ में लेकर खड़े हैं तीरगी की उंगलियाँ 

जा रहा है शाम को सूरज किनारा छोड़कर, 
हिल रही है देख कर उसको नदी की उंगलियाँ 

आज इसका चप्पा चप्पा खून से है तर-ब-तर,
किन फ़सादोंं में कटी हैं इस गली की उंगलियाँ 

वकालत के साथ- साथ राजनीति में भी उनका दख़ल बढ़ने लगा और प्रदेश कांग्रेस पार्टी में उनकी साख बढ़ने लगी । इसी दौरान जयपुर से सहायक जनसम्पर्क अधिकारी के पद पर देश के प्रसिद्ध कवि 'तारादत्त 'निर्विरोध' कोटा ट्रांसफर हो कर आये । उनसे मित्रता के बाद 'कुमार शिव' का काव्य-प्रेम परवान चढ़ा । पारिवारिक गोष्ठियों से शुरू हुआ उनका काव्य-सफ़र अखिल भारतीय कवि-सम्मेलनों तक जा पहुंचा । कोटा में ही नहीं देश के अन्य भागों से भी उन्हें कवि-सम्मेलनों में काव्य-पाठ के निमंत्रण आने लगे । उनका नाम देश के काव्य-प्रेमियों में सम्मान से लिया जाने लगा ।  ये सब होते हुए भी उनके मन में देश की सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक-पत्रिका  'धर्मयुग' में अपनी रचना को स्थान न मिल पाने की कसक थी । धर्मयुग के संपादक श्री 'धर्मवीर भारती' उनकी हर रचना को खेद-पूर्वक लौटा देते थे । युवा पाठक शायद न जानते हों लेकिन उस दौर में 'धर्मयुग' में आपकी रचना का छप जाना आपके उच्च-कोटि के लेखक होने का प्रमाण हुआ करता था । आख़िर 'कुमार शिव' साहब की मेहनत रंग लायी और 1973 में उनका गीत 'सांझ निर्वसना' धर्मयुग में छप ही गया ।  
            
धूप के साधक तिरस्कृत हो गए,
तिमिर के चारण पुरस्कृत हो गए 

क्या समय बदला कि जल थे जो कभी, 
कुछ हुए नवनीत, कुछ घृत हो गए

जब चली पछुआ अँँधेरा बज उठा,
झील के सब तार झंकृत हो गए 

प्याज कच्चे और रोटी ज्वार की,
मिल गई तो लोग कृत-कृत हो गए

'धर्मयुग' में फिर वो निरंतर छपते रहे और उनकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लगते रहे । कोटा में उनकी भेंट वहां के अज़ीम शायर जनाब 'अक़ील शादाब' साहब से हुई और उनसे उन्होंने शायरी, ख़ासतौर से ग़ज़ल कहने के गुण सीखे ; इस प्रकार गीत-ग़ज़लों से लैस हो कर वो जिस कवि सम्मेलन में जाते अपनी धाक जमा लेते । उनकी लेखनी सतत चलती रही और वो प्रसिद्ध कवि श्री वीर सक्सेना, बृजेन्द्र कौशिक ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार, कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ,गोविन्द व्यास, सोम ठाकुर, कन्हैया लाल नंदन, हरिराम आचार्य, ताराप्रकाश जोशी, रमानाथ अवस्थी, बालस्वरूप राही, कुबेर दत्त, गोपाल दास 'नीरज' तथा हरिवंश राय बच्चन आदि जैसे मूर्धन्य रचनाकारों के साथ मंच साझा करते रहे ।     
गहन कूपों के निकट हैं,
दोस्तो! हम तो रहट हैं 

फाइलों में दब गए हम,
एक निर्धन की रपट हैं 

झुर्रियाँ मुख पर लिखी हैं,
हम समय के चित्रपट हैं 

भाग्य ही अपना बुरा है,
मित्र तो सब निष्कपट हैं 

मैं आपको जयपुर के सवाई मान सिंह मेडिकल कॉलेज में हुए एक कवि-सम्मेलन का क़िस्सा बताता हूँ । कवि सम्मेलन चल रहा था लेकिन जम नहीं रहा था । छात्र हुड़दंग के मूड में थे और बिना कवि की प्रतिष्ठा का ख़याल किये उन्हें हूट किये जा रहे थे । संचालक महोदय और कवि गण असहाय नज़र आ रहे थे । तभी कुमार शिव को रचना पाठ के लिए पुकारा गया । ऐसे माहौल में माइक पर जाना जोखिम भरा काम होता है । कुमार शिव उठे माइक पर जा कर हाथ जोड़े और बोले "मेरा ये गीत जॉन्डिस का पेशेंट है, आप देश के होनहार डॉक्टर हैं इसलिए ये गीत इलाज़ के लिए आप के सामने पेश कर रहा हूँ अब आप चाहे इसे मार दें या ठीक कर दें।" छात्र हंसने लगे, अधिकांश ने इस जुमले पर तालियाँ बजाई और सभी छात्र गीत सुनने को एकदम चुप हो गए। इसके बाद उन्होंने सस्वर वो गीत पढ़ा जो आगे चलकर उनकी पहचान बना और उसे उन्हें सभी कवि सम्मेलनों में श्रोताओं की फ़रमाइश पर सुनाना पड़ता था । गीत का शीर्षक था 'पीलिया हो गया है अमलतास को' जिसकी शुरुआत इन पंक्तियों से होती है,
"तुमने छोड़ा शहर, धूप दुबली हुई , पीलिया हो गया है अमलतास को, 
नींद आती नहीं है हरी घास को ।" उसके बाद छात्रों ने उनसे एक के बाद एक ढेरों गीत सुने और तालियाँ बजाई। इस तरह एक असफल-सा होता कवि सम्मेलन अत्यधिक सफल हुआ ।     

जानते थे दूरियों के सख़्त नियमों को मगर,
आपकी नज़दीकियाँँ हम आदतन बुनते रहे

काश वो ये सोचते, जाना उन्हें भी एक दिन,
ज़िंदगी भर दूसरों का जो कफ़न बुनते रहे 

ठोकरें लगती रहींं, छोड़े नहीं पर हौसले, 
आँँधियों में भी दिए अपने सपन बुनते रहे 

कवि-सम्मेलन के मंचो से उनका जुड़ाव बहुत समय तक नहीं रहा । वो अपनी आत्मकथा 'वक़्त ने लिखा है मुझे' में लिखते हैं कि " कवि-मंचों  लोकप्रिय तो बनाया किन्तु मुझे आत्मसंतुष्टि नहीं मिली ।  मंचों पर सस्ती लोकप्रियता भुनाने की होड़ मची है और कविता शायरी के नाम पर जाने क्या-क्या परोसा जा रहा है. मेरा कविता लिखना छूटता नहीं है लेकिन मंच पर जाकर श्रोताओं की तालियाँ बटोरने में अब रुचि नहीं रही । इस देश या समाज में कविता की कितनी ही उपेक्षा हो ,जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है कविता मेरे अंतर्मन की ख़ुराक है " लोकप्रियता के शिखर से वापस लौटने का निर्णय लेना आसान नहीं होता जबकि लोग शिखर पर बने रहने के लिए कितने ही हथकंडे अपनाते हैं ।            
क्षण किसी के साथ महक के थे गुलाबों की तरह,
अब फफूँँदी छा गई उन पर अचानक सड़ गए 

फूल पलकों में सँजोकर रख लिए थे याद के,
दूरियों की धूप में झुलसे सभी फिर झड़ गए 

सोचते थे ढूंढ लेंगे ज़िन्दगी का हल कभी,
नोक वाले प्रश्न अनगिन रास्ते में अड़ गए 

'कुमार शिव' की ग़ज़लों की ये किताब विकास पेपरबैक्स, दिल्ली से सन 1991 में प्रकाशित हुई थी इसमें उनकी लगभग 100 ग़ज़लें संकलित हैं । इस किताब के बाजार में मिलने की संभावना क्षीण ही है अलबत्ता आप इस किताब के शायर रिटायर्ड जज श्री 'कुमार शिव' साहब  जो अब जयपुर शहर के निवासी हैं, आप उनके मोबाइल नम्बर 9829051118 पर कॉल कर उन्हें इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए बधाई दे सकते हैं और उनकी कालजयी कवितायेँ 'अमलतास' और उनका चाँदनी पर लिखा अद्भुत गीत 'गोरी लड़की' सुनने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं । 
आख़िर में, उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शे'र पढ़वाता चलता हूँ :-

तुमने छोड़ा है गाँव सावन में,
मौसमी आँँख से झरे बादल

नभ के चौड़े-सपाट सीने से,
सट गए आज छरहरे बादल 

देख लो खिलखिला रहे कैसे,
धूप में श्वेत मसखरे बादल 

देखकर निर्वचन दुपहरी को,
आह भरते हैं छोकरे बादल

Monday, August 10, 2020

किताबों  की दुनिया -210

उसने पढ़ी नमाज़ तो मैंने शराब पी 
दोनों को, लुत्फ़ ये है बराबर नशा हुआ
***
ज़रूरत है न जल्दी है मुझे मरने की फिर भी 
मेरे अंदर बहुत कुछ चल रहा है ख़ुदकुशी सा
***
जादू-भरी जगह है बाज़ार,तुम न जाना 
इक बार हम गए थे बाज़ार हो के निकले
***
मैं शहर में किस शख़्स को जीने की दुआ दूं 
जीना भी तो सबके लिए अच्छा नहीं होता
***
मुसाफ़िर हो तो निकलो पांव में आंखें लगा कर 
किसी भी हमसफ़र से रास्ता क्यों मांगते हो
***
तभी वहीं मुझे उस की हंसी सुनाई पड़ी 
मैं उसकी याद में पलकेंं भिगोने वाला था
***
वो अक़्लमंद कभी जोश में नहीं आता 
गले तो लगता है, आग़ोश में नहीं आता
***
अब तो ये जिस्म भी जाता नज़र आता है मुझे 
इश्क़ अब छोड़ मिरि जान कि मैं हार गया
***
मैंने मकांँ को इतना सजाया कि एक दिन 
तंग आ के इस मकाँँ से मिरा घर निकल गया
***
दुहाई देने लगे सुब्ह से बदन के चराग़ 
हमें बुझाओ कि हम रात भर जले हैं बहुत

क्या उम्र रही होगी यही कोई 4 या 5 साल के बीच की। एक बच्चा नए कपड़े पहने, काँँधे पर छोटा सा बस्ता लटकाए अपने वालिद का हाथ पकड़े, डरता हुआ स्कूल जा रहा है। वालिद बार-बार समझा रहे हैं कि स्कूल बहुत अच्छी जगह है और वहां के उस्ताद फ़रिश्ते जैसे ख़ूबसूरत और नरम दिल हैं जिन्हें बच्चों से सिवा प्यार करने के और कुछ नहीं आता। बच्चा मुस्कुराते हुए फ़रिश्ते का तसव्वुर करने लगता हैै । स्कूल जा कर देेेखता है कि उस्ताद, फ़रिश्ता तो दूर की बात है शैतान से भी खौफ़नाक नजर आ रहे हैं. बच्चे की डरके मारे घिग्घी बँध गई।उसे पहली बार पता लगा कि हक़ीक़त की दुनिया ख़्वाबों की दुनिया से कितनी अलग होती है।
उस्ताद ने उस बच्चे को उस दीवार के पास बिठा दिया जिसमें एक बड़ी सी खिड़की थी। थोड़ी देर बाद बच्चे ने सामने देखा कि उस्ताद दरवाजे के बाहर खड़े किसी पर चिल्ला रहे थे, फिर उसने खिड़की की तरफ देखा और अगले ही पल बस्ते समेत बाहर कूद गया। घर जा नहीं सकता था लिहाज़ा स्कूल की छुट्टी के समय तक बाहर ही घूमता रहा।बाहर की दुनिया स्कूल की दुनिया से कितनी अलग थी, हवा से हिलते पेड़, फुदकते चहचहाते परिंदे, कितने ही रंगों में खिले फूल और उन पर नाचती तितलियां देखते-देखते कब सुबह से शाम हो गयी उसे पता ही नहीं चला।
ये सिलसिला महीनों चलता रहा।खेत, खलिहान और वीरान पगडंडियों पर चलते हुए इस बच्चे ने क़ुदरत से जो सीखा वो स्कूल की चारदीवारी में बंद बच्चे कभी नहीं सीख पाते

तुमको रोने से बहुत साफ़ हुई हैं आँखें  
जो भी अब सामने आएगा वो अच्छा होगा 

रोज़ ये सोच के सोता हूं कि इस रात के बाद 
अब अगर आँँख खुलेगी तो सवेरा होगा 

क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आँँखों में 
बस यही देखता रहता हूं कि अब क्या होगा

बहराइच उत्तर प्रदेश के एक मुस्लिम परिवार में 25 दिसंबर 1952 (या 1950? क्योंकि रेख़्ता की हिंदी साइट पर और किताब के फ्लैप पर 1950 है) जन्मे इस बच्चे का नाम रखा गया था 'फ़रहततुल्लाह खां' जो आज उर्दू शायरी की दुनिया में 'फ़रहत एहसास' के नाम से जाना जाता है। घर का माहौल मज़हबी जरूर था लेकिन उसमें कट्टरपन नहीं था। जवानी में मुस्लिम लीगी रहे उनके वालिद अपने सभी बच्चों को रामलीला दिखाने ले जाते थे। आज के दौर में इस बात पर शायद किसी को यकीन ना आए लेकिन हक़ीक़त यही है कि मज़हब को लेकर आम लोगों के दिलों में तब इतनी कटुता नहीं थी जितनी कि आज है । आज हम 'फ़रहत एहसास' की देवनागरी में छपी किताब 'क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा' की बात किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में करेंगे। सबसे पहले बता दूं कि किताब का टाइटल मीर तक़ी मीर साहब के मशहूर शेर ' मीर के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो , क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया' (क़श्का़ खींचा अर्थात तिलक किया) से लिया गया है, और इस शेर की झलक पूरी किताब में नज़र आती है।


तुम अपने जिस्म के कुछ तो चराग़ गुल कर दो 
मैं, रौशनी हो ज़ियादा तो सो नहीं सकता
***
 मैं तो आया हूंँ लिबासों की ख़रीदारी को 
और बाज़ार ये कहता है कि नंगा हो जाऊं
***
कभी नीचा रहा सर और कभी छोटे रहे पांव 
मैं भी हर बार कहांँ अपने बराबर निकला
***
छाँव पहले से भी बहुत कम है 
पेड़ जब से घने हुए हैं बहुत
***
छिड़कनी पड़ती है खुद पर किसी बदन की आग 
मैं अपनी आग में जब भी दहकने लगता हूं
***
चादर पे इक भी दाग़ नहीं क्या अज़ाब है 
इक उम्र हो गई है कि हैंं जस के तस पड़े 
अज़ाब :मुसीबत
***
यह सांसे मिल्कियत तो मौत की हैं 
मुझे लगता है चोरी कर रहा हूं
***
जिन्हें चेहरा बदलना हो बदल लें 
मैं अब पर्दा उठाने जा रहा हूं
***
कहानी ख़त्म हुई तब मुझे ख़याल आया 
तेरे सिवा भी तो किरदार थे कहानी में
***
और दुश्वार बना सकते हैं दुश्वार को हम 
लेकिन आसान को आसान नहीं कर सकते

चलिए बात वहीं से शुरू करते हैं जहां छोड़ी थी फ़रहतुल्लाह खाँँ अब उम्र के उस दौर में हैं जब क़ुदरत बिना मज़हब, रंग, देश देखे इंसान की आंखों पर ऐसा चश्मा लगा देती है जिससे उसे सब कुछ गुलाबी दिखाई देने लगता है। फ़रहत साहब लिखते हैं कि "बात नौ-बालगी (किशोरावस्था) से कुछ पहले की उम्र के लड़के की है जो पहली बार एक लड़की के चेहरे पर खून की दमकती ख़ुश्बू की चकाचौंध से हैरत और हसरत ज़दा है। ये हुस्न के एक मक्तब (स्कूल) की तरह खुलने, जिस्म के दिल बनकर धड़कने और इश्क़ की पैदाइश का लम्हा था." ये चश्मा किसी के चेहरे से नून तेल लकड़ी के चक्कर में जल्द ही उतर जाता है तो कोई इसे फ़ितरतन उतार फेंकता है। फ़रहत साहब पर ये चश्मा अब तक चढ़ा हुआ है तभी उनके ढेरों अशआर आज भी गुलाबी रंग में रंगे मिलते हैं। 
अपनी शायरी के आगाज़ के सिलसिले में वो लिखते हैं कि " घर में शायरी का माहौल दूर दूर तक नहीं था ।शायरी मेरे बाहर कहीं नहीं थी, जो भी थी अंदर ही रही होगी जो एक दिन अचानक एक झमाके से ज़ाहिर हुई। 1967 की गर्मियों में, जब मेरा दूसरा बाकायदा इश्क़ चल रहा था, यूँ ही बैठे बैठे दो बराबर के मिसरे ज़हन में कौंधे।ये अहसास कि मुझ में कुछ बज रहा है जो लफ़्ज़ों में ढाला जा सकता है मेरे लिए एक ऐसा इन्किशाफ़ (प्रगट होना) था जिसका सिलसिला आज तक जारी है।

ख़ुदा ख़ामोश बंदे बोलते हैं 
बड़े चुप होंं तो बच्चे बोलते हैं 

सुनो सरगोशियाँ कुछ कह रही हैं 
ज़बाँ-बंदी में ऐसे बोलते हैं 

मोहब्बत कैसे छत पर जाए छुपकर 
क़दम रखते ही ज़ीने बोलते हैं 

हम इंसानों को आता है बस इक शोर 
तरन्नुम में परिंदे बोलते हैं

सभी मज़हब के दोस्तों से दोस्ती निभाते, कबीर, सूर, तुलसी, रसखान और जायसी पढ़ते हुए उनकी रूह क़लन्दर सूफ़ियों वाली हो गई। इस किताब को पढ़ते वक्त आपको कबीर की याद ना आए ऐसा हो ही नहीं सकता। ये क़लन्दरी शायद उन्हें अपनी मां के नाना के भाई से भी मिली हो सकती है जो वाकई क़लन्दर थे और साल में एक बार ऊंट पर सवार अपने पीछे ढोल ताशे बजाते मुरीदोंं का मजमा लिए बहराइच आया करते थे।
 ये क़लन्दरी ही है जो उन्हें बाज़ार तक आने से रोकती  है। वो लिखते हैं कि "गाहे-बगाहे मुशायरे में मजबूरन या अपनी सी महफ़िल हो तो ब-रज़ा-ओ-रग़्बत( अपनी मर्जी से )शरीक हो जाता हूं। बेशतर( अधिकतर) एक फ़र्ज़ ए किफ़ाया (दूसरों की ओर से अदा किए जाने वाला कर्तव्य) की अदायगी के लिए ।" उनके नज़दीकी लोगों में आप बजाए उनकी हम उम्र के वो नौजवान ज्यादा देखेंगे जिनकी ज़िन्दगी शायरी के इर्दगिर्द घूमती है।
हैरत की बात है कि आज के इस दौर में 'थोथा चना बाजे घणा' कहावत को चरितार्थ करते हुए जहाँ लोग अपने आपको प्रमोट करने और स्वगान में जी जान से लगे हुए हैं वहीं ये बच्चा जो अच्छा खासा बड़ा हो चुका है हमेशा उस खिड़की की तलाश में रहता है जिससे कूद कर वो फिर से अपनी मस्ती की दुनिया में जा सके।यही कारण है कि बेहतरीन शायर होने के बावज़ूद आप सोशल मीडिया पर इंटरव्यू तो छोड़िए उनके शायरी पेश करते हुए अधिक वीडियो नहीं देख पाएंगे।

तुम जो तलवार लिए फिरते हो दुनिया के ख़िलाफ़  
काश ऐसा हो कि आप अपने मुक़ाबिल हो जाओ
***
बहुत मिठास भी बे-ज़ाइक़ा सी होने लगी 
वो खुश-मिज़ाज किसी बात पे ख़फ़ा भी तो हो
***
कुछ मर गए कि उनको पहुंचना न था कहीं
और कुछ कहीं पहुंचने की जल्दी में मर गए
***
हज़ार भेष बदल लें मगर रहेंगे वही 
जो कह रहे हैं नया आईना बनाया जाए
***
तेरे गुलाब में कांटे बहुत ज़ियादा हैं 
तुझे न भूलने देगा तेरा गुलाब मुझे
***
इसे बच्चों के हाथों से उठाओ 
ये दुनिया इस क़दर भारी नहीं है
***
मेरी बदसूरती मुकम्मल कर 
मेरे पहलू में आ हसीन मेरे
***
किनारे को बचाऊँ तो नदी जाती है मुझसे 
नदी को थामता हूँँ तो किनारा जा रहा है
***
मैं तो समझा था कि हम दोनों अकेले हैं मगर 
उसको छूते ही हमारे बीच ख़्वाहिश आ गई
***
छोटा-मोटा तो नुकसान उठाया कर 
कोई दिन तो दफ़्तर देर से जाया कर
***
सुनकर अक्सर दुनिया वालों की चीखें 
दूध उतर आता है मेरे सीने में

फ़रहत साहब मुहब्बत के शायर हैं. इंसान की इंसान से मुहब्बत के। लोग कहते हैं कि उनकी शायरी में जिस्म को बहुत अहमियत दी गई है. जयपुर में प्रभा खेतान फाऊंडेशन और रेख़्ता की ओर से आयोजित 2018 में 'लफ्ज़' ऋँखला के पहले प्रोग्राम में प्रसिद्ध शायर और कवि लोकेश कुमार सिंह 'साहिल' साहब से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था कि "जिस्म के रास्ते बड़ी दुश्वारियां पैदा कर दी गई हैं। जिस्म को जीन्स के साथ जोड़ दिया गया है। रूह एक कंडीशन है, जो अजर- अमर है। मगर इंसान को जीन्स से जोड़ दिया है। वो मेटाफ़र बन गया है। शायरी में शायर रूह का मेटाफ़र के रूप में इस्तेमाल करने लगा है। जब हम किसी से मुहब्बत करते हैं, पहली दफ़ा उसके जिस्म से इश्क़ करते हैं। फिर आगे जाकर हमारी संवेदनाएं उनसे जुड़ती हैं। और फिर इंसान अपनी मुहब्बत को अपने तरीक़े से इंटरप्रेट करता है।"

तुम्हें उससे मोहब्बत है तो हिम्मत क्यों नहीं करते 
किसी दिन उसके दर पर रक़्स ए वहशत क्यों नहीं करते 
रक़्स ए वहशत: दीवानगी में किया जाने वाला नृत्य 

इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस-किस से 
मोहब्बत करके देखो ना मोहब्बत क्यों नहीं करते 

मेरे दिल की तबाही की शिकायत पर कहा उसने 
तुम अपने घर की चीजों की हिफ़ाज़त क्यों नहीं करते 

कभी अल्लाह मियां पूछेंगे तब उनको बताएंगे 
किसी को क्यों बताएं हम इबादत क्यों नहीं करते

इसी प्रोग्राम में उन्होंने अपने और आज के दौर की शायरी और उर्दू ज़बान के बारे में बहुत दिलचस्प बातें की जिसे पढ़ कर आप उनकी सोच को और अधिक समझने में शायद कामयाब हो जाए:
"मेरे अंदर शायरी हर वक्त चलती रहती है। वो मुसलसल है। मेरे लिए ख़ुद को इंटरप्रेट करने का तरीका है। वो सारे एलीमेंट्स जिनसे मेरा जिस्म बना है, वो किसी बनी-बनाई शक्ल में नहीं जाते हैं। जिस्म का बहुत बड़ा समुद्र है, जिसे हम मौसिकी के चाक पर रखकर चलाते हैं।
देश की आजादी के 20-25 सालों बाद उर्दू ज़ुबान के साथ ज़्यादती शुरू हुई। खासकर इसलिए क्योंकि उस जमाने के शायर मुशायरों में चिल्ला-चिल्ला कर, चेहरा बिगाड़ कर शायरी करने लगे। जैसे सब्ज़ी बेचने वाले चिल्ला कर सब्ज़ियां बेचता है। एक दौर वो भी आया जब भाषा का बड़े पैमाने पर कॉमर्शियलाइजेशन हुआ। डिमांड हुई तो सप्लाई होने लगी। भाषा का स्वरूप बदलकर उसे तोड़-मरोड़कर पेश किया। मानो एक तरह का मुस्लिम अफ़ेयर शुरू हो गया हो। मगर पिछले 10 सालों में माहौल बदला है। अब पढ़े-लिखे आईआईटीयिन उर्दू ज़ुबां के साथ जुड़ रहे हैं।'

न होता मैं तो यह दुख भी ना होता 
यही तो सारा रोना है कि मैं हूँँ 

चलाता फिर रहा हूं हल जमींं में
कहीं इक बीज बोना है कि मैं हू्ँँ 

ये मेरा जिस्म ही क्या मेरी हद है 
ये मिट्टी का खिलौना है कि मैं हूँँ

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से शिक्षा प्राप्त फ़रहत एहसास साहब की इस किताब पर जनाब 'मुजीब क़ासमी' साहब ने यूँ लिखा है " 
फ़रहत एहसास के फिक्र-ओ-ख्याल के जाविये को क़ैद नहीं किया जा सकता. अगर उनके यहां रिंदो सर मस्ती है तो इश्क़-ओ-मोहब्बत का इज़हार भी. अगर उनके यहां शिव की शक्ति है तो पार्वती का हुस्न भी, उनके यहां बयान का जमाल है तो मौजू का जलाल भी.
इस संग्रह में हयात और कायनात के मसले, समाजी भ्रम, तशद्दुद-जुल्म, हुस्न-दिलकशी की अक्कासी है. पाठकों के लिए यह मुफ़ीद शेरी मजमूआ है।"
फ़रहत एहसास साहब और उनकी इस किताब पर जिसमें उनके 2500 से ज्यादा चुनिंदा अशआर हैं, एक पोस्ट में कैद नहीं किया जा सकता। 
जनाब संजीव सर्राफ़ द्वारा  "रेख़्ता.ओआरजी" को दुनिया में उर्दू ज़बान की सबसे बड़ी वेबसाइट बनाने के सपने को साकार करने के पीछे 'फ़रहत अहसास' साहब और उनकी रहनुमाई में काम कर रही पूरी टीम का कमाल है ।  
ये किताब रेख़्ता बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है जिसे खुद संजीव सर्राफ साहब ने सालिम सलीम की मदद से संकलित किया है. इस किताब को आप अमेजन और रेख़्ता की वेबसाइट से खरीद सकते हैं।

पहले दरिया से सहरा हो जाता हूं 
रोते-रोते फिर दरिया हो जाता हूं 

तनहाई में इक महफ़िल सी रहती है 
महफ़िल में जाकर तन्हा हो जाता हूं

जिस्म पे जादू कर देती है वह आग़ोश 
मैं धीरे-धीरे बच्चा हो जाता हूँँ

फ़रहत साहब की शायरी पर बात खत्म करने के लिए उनके इस शेर का सहारा ले रहा हूँ जिसमें उन्होंने अपने और अपनी शायरी को यूँ जा़हिर किया है:

फ़रहत एहसास हूं बाकी रहूं फ़रहत एहसास 
तर्ज़ ए ग़ालिब, सुख़न ए मीर नहीं चाहता मैं


Monday, August 3, 2020

किताबों की दुनिया -209/2

(ये पोस्ट भाई 'मनोज मित्तल , इरशाद खान सिकंदर और गोविन्द गौतम के सहयोग के बिना संभव नहीं थी )

  
जिसे भी देखो हमारी तरफ ही देखता है 
इसी ख्याल ने दुश्वार कर दिया हमको
***
अजब सुरूर है खुद को गले लगाते हुए 
ये मेरे साये मिरे बाजूओं में आते हुए
***
मेरे लिए तो मेरे अश्क काफी होते हैं 
सितारे तोड़ने जाता हूं बस्तियों के लिए
***
किसी भी हाल में उससे जुदा नहीं होना 
बिगाड़ता हूं तबीयत अगर संभलती है
***
गेंद के आगे पीछे भागता रहता हूं 
रोज मेरा मैदान बड़ा हो जाता है 
***
सबसे लड़ लेता हूं अंदर-अंदर 
जिसको जी चाहे हरा देता हूं
***
काश आवाज़ को तस्वीर किया जा सकता 
एक ही लय में हुए झील का पानी और मैं
***
मुस्कुराओ मियां आदमी की तरह 
इतनी शिद्दत भी क्या आंख हंसने लगे
***
सुनो यह शोर अच्छा लग रहा है 
किसी मकतब में छुट्टी हो रही है 
मकतब: पाठशाला
***
अब नई तरकीब सोची जाएगी 
इन लबों से मुस्कुराए जा चुके
***
ख़सारे जितने हुए हैं वो जागने से हुए 
सो हर तरफ़ से सदा है कि जा के सो जाओ 
ख़सारे: घाटा 
***
वो ये कहते हैं सदा हो तो तुम्हारे जैसी 
इसका मतलब तो यही है कि पुकारे जाओ

अब एक दिसंबर की रात है तो ठण्ड तो होगी ही, वक्त भी तो देखो रात के ग्यारह बजे हैं और मैं पुरानी दिल्ली के चितली कबर चौक में चाय की दुकान ढूंढ रहा हूँ .मुझे किसी ने बताया था कि मियां अगर दिल्ली के शायरों से मिलना है तो पुरानी दिल्ली चले जाओ वहां जामा मस्जिद के पास चितली कबर चौक में किसी चाय की दुकान में आपको महफ़िल जमी मिलेगी। मैं चल पड़ा। यहाँ चौक के आसपास खूब दुकानें हैं और अच्छी ख़ासी भीड़ भी। किसी से पूछा कि जनाब वो चाय की दुकान कहाँ है जहाँ देर रात शायरों की महफ़िल जमती है? तो एक ने इशारा कर के बताया उधर। जब उधर थोड़ा बढ़ा ही था कि सामने की दुकान पे लगे बोर्ड पर नज़र गयी "सुलेमान टी स्टाल". ये एक छोटा सा रेस्टॉरेंट था जिसमें कुल जमा छै टेबल थीं और हर टेबल पर चार लोगों के आमने सामने बैठने की कुर्सियां रखी थी। रेस्टॉरेंट खाली था, सिवा एक कोने को छोड़ कर जहाँ पांच छै लोग बैठे बतिया रहे थे चाय के खाली गिलास सबके सामने पड़े थे. मैं उनके पास गया और बोला क्या आप लोग शायर हैं? मैं आप लोगों से मिलने आया हूँ. सब मुझे हैरत से देखने लगे.उनमें से जो सबसे बुजुर्ग थे उन्होंने मुझे बैठने का इशारा किया और कहा देखो बरखुरदार मैं इक़बाल फ़िरदौसी हूँ,  मेरा हारमोनियम के पार्ट्स बनाने का काम है , ये मुनीर हमदम है और इ-बुक्स पब्लिश करता है, ये जावेद मुंशी है 'सियासी तक़दीर' अखबार का जनर्लिस्ट है, ये जावेद नियाज़ी है इसका रबर का व्यापार है और फिर एक लम्बे बालों वाले शख्स की ओर देख कर बोले ये जनाब इंटीरियर डिज़ायनर हैं और इनका नाम ---तभी उस शख्स ने बात बीच में काटते हुए कहा 'छोडो भी इक़बाल साहब नाम में क्या रखा है इनके लिए पहले चाय मंगवा लें " ये कह कर उन शख्स ने अपने लम्बे बालों पे हाथ फेरा सामने रखे 'हावड़ा बीड़ी' के पैकेट से बीड़ी निकाली, सुलगायी और गहरा कश लेकर ढेर सा धुआं फ़िज़ा में बिखराते हुए हाथ से किसी को चाय लाने का इशारा किया । इक़बाल साहब ने लम्बे बालों वाले सज्जन के हाथ से बीड़ी छीन कर ऐश ट्रे में मसलते हुए कहा 'बस भी करें, आप इन दिनों बीड़ी ज्यादा नहीं पीने लगे ? दुनिया से भले बग़ावत करो लेकिन डाक्टर की सलाह से नहीं।'लम्बे बालों शख्स ने मुस्कुराते हुए फिर से बीड़ी सुलगाई गहरा कश लिया और बोले ' मुझे क्या होना है'           

हर सदी को इक नया ग़मशनास चाहिए 
मोम का बना हुआ धूप में खिला हुआ 

रोशनी दिखाई दे चाप तो सुनाई दे 
इक किवाड़ आदतन रखता हूं खुला हुआ 

आज कल की ज़िंदगी जी सको तो बात है 
जैसे क़तरा ओस का घास पर टिका हुआ

 मैंने शर्मिंदा होते हुए उन सबसे कहा 'मुआफ कीजिये, मैंने आप लोगों को डिस्टर्ब किया दरअसल मुझे किसी ने बताया था कि यहाँ रोज रात दिल्ली के शायर आपस में मिलते हैं आपस में सुनते सुनाते हैं तो मैं उन्हें ढूंढने चला आया । आप लोग अपनी गुफ़्तगू जारी रखिये मैं चलता हूँ। इक़बाल साहब हाथ पकड़ कर मुझे बिठाते हुए बोले 'बैठो मियां अब आ गए तो चाय पी कर चले जाना ,ठण्ड में मज़ा आएगा'। मैं जावेद साहब की बगल में बैठ गया वो मेरे कंधे पे हाथ रख कर बोले ' जिस किसी ने आपको यहाँ के बारे में बताया है उस बन्दे को दुआ देता हूँ कि किसी ने तो शायरों के लिए एक श्रोता भेजने की इनायत की'  उनकी इस बात पर सब ने जोर का ठहाका लगाया। 'दरअसल हम सब लोग अलग अलग काम करके अपने पेट की ख़ुराक का इंतज़ाम करते हैं लेकिन हम सब के पेट के अलावा ये कमबख़्त दिमाग़ भी ख़ुराक मांगता है ,इसलिए यहाँ इकठ्ठा होते हैं। तुम ने सही सुना 'हम शायरी भी करते हैं और यहाँ एक दूसरे को सुनते सुनाते हैं '.मुनीर साहब बोले और अपनी एक नज़्म सुनाने लगे. इसी बीच चाय आ गयी। काली कड़क मीठी। चाय ने जादू सा कर दिया सब पर और सभी बारी बारी से अपनी शायरी सुनाने लगे। मैंने झूम झूम कर दाद देते हुए कहा सुभानअल्लाह क्या शायरी है। इक़बाल साहब ये सुन कर बोले जनाब शायरी क्या है इनसे सुनें और फिर बीड़ी पीते शख्स से बोले 'रऊफ' साहब अता हो. तब मुझे पता लगा कि ये मेरे सामने बैठा शख़्स उर्दू का मशहूर शायर 'रऊफ रज़ा है'. रऊफ साहब ने बीड़ी का एक जोर का कश लिया और बोले सुनो मियां शायरी क्या है :

ये जानता हूं कि अगली सीढ़ी पे चांद होगा 
मैं एक सीढ़ी उतर रहा हूं, ये शायरी है 

ख़ुदा से मिलने की आरजू थी वो बंदगी थी 
ख़ुदा को महसूस कर रहा हूं, ये शायरी है 

शरीर बच्चे ने आंसुओं की जुबां पकड़ ली 
मैं उसके लहजे से डर रहा हूं, ये शायरी है 

वो कह रहे हैं बुलंद लहजे में बात कीजे 
मैं हार तस्लीम कर रहा हूं, ये शायरी है 

वाह वाह के शोर से रेस्ट्रोरेंट की दीवारें हिलने लगीं। ये दौर रात दो बजे तक चलता रहा। मेरा तो दिन बन गया या कहूं रात गुलज़ार हो गयी । अब तक मैंने सबके मोबाईल नंबर ले लिए थे और उन सब ने मेरा। वक्ते रुख़सत मैंने कहा किसी को कहीं छोड़ना हो तो मैं छोड़ देता हूँ वहां कोने में मेरा स्कूटर खड़ा है। इकबाल साहब बोले 'आप रऊफ मियां को गली मेम साहब तक छोड़ दें'. रऊफ साहब ने मना कर दिया बोले 'बीस मिनट का ही तो रास्ता है बस दो बीड़ी पीते पीते कट जाएगा'. मैं चला जाऊंगा . मुझे क्या पता था वो वाकई चले जायेंगे। वो चले गए। सुबह 9 बजे इक़बाल साहब का फोन आया रुंधे गले से बोले 'मियां, रऊफ हमें छोड़ कर चला गया ' मैं समझा नहीं बोला 'कहाँ ? कहाँ चले गए ?' जवाब में इक़बाल साहब के सिसकने की आवाज़ आयी। 'कैसे कब ?' मैंने पूछा। 'सुबह 8 बजे मैसिव हार्ट अटैक आया संभल ही नहीं पाये , सुबह अच्छे से उठे थे चाय बनाई पी फिर सुबह फ़ज्र की नमाज़ घर में ही पढ़ी जबकि रोज पास की मस्जिद 'सय्यद रिफाई' में जाया करते थे. बेग़म ने पूछा क्या हुआ ख़ैरियत तो है आज आप ने नमाज घर में पढ़ी तो मुस्कुराते हुए बोले 'मुझे क्या होना है? मैं अभी हम दोनों के लिए फिर से चाय बना कर लाता हूँ , चाय बनी उन्होंने पी या नहीं, ये तो पता नहीं बस उसके थोड़ी देर बाद ही उन्हें अटैक आया और वो इस दुनिया को छोड़ गए।' ये सुनकर मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं क्या कहूँ.    
        
भीड़ है जश्ने हुनर जारी है 
कुछ न कहने में समझदारी है 

हम वही उम्र गुजारेंगे जहां 
सांस लेने में भी दुश्वारी है 

कुछ नहीं कुछ नहीं कुछ भी तो नहीं 
बस कहीं और की तैयारी है

हम सब कहीं ओर चलने की तैयारी में ही तो ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं कुछ समय से पहले निकल लेते हैं कुछ इंतजार में रहते हैं लेकिन किस ओर चलने की तैयारी है ये पता अभी तक नहीं लग पाया. जो गया उसने कभी किसी को बताया ही नहीं कि वो किधर गया।  ये दार्शनिक बातें कोई नयी तो है नहीं फिर क्यों न इन्हें यहीं छोड़ वापस रऊफ साहब की ओर लौटें ? रऊफ रज़ा साहब के इन्तेकाल के बाद ऐवाने ग़ालिब में उनकी याद में एक प्रोग्राम हुआ जिसमें 'फ़रहत एहसास, साहब ने कहा " मौत ने अपना काम कर दिया अब ज़िन्दगी को अपना काम करने दीजिये --रऊफ की मौत का जो मुझे दुःख है वो ये कि उन्हें भरी बहार में उठाया गया। इस वक्त वो अपनी शायरी के उरूज़ पर थे --खूब ग़ज़लें कह रहे थे--"  

हाथों में नब्ज़े वक्त है आंखों में आसमान 
लेकिन ये मेरे पांव से लिपटी हुई जमीन 

मेरी कलंदरी मेरे बच्चों में आ गई 
गुलज़ार हो गई मेरी सींंची हुई जमीन 

फिर यह हुआ कि चूल्हा जलाने में जल गई 
दोनों के काग़ज़ात में लिखी हुई जमीन

चलिए बात शुरू से शुरु की जाए. रऊफ़ रज़ा का जन्म सन 1954 में अमरोहा में हुआ था। उनका पैतृक मकान अमरोहा के बड़ी बेगम सरा में था।परिवार 1955 के आसपास दिल्ली आ गया और वही का होकर रह गया।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा मदरसा करीमिया में हुई उसके बाद रऊफ़ रज़ा ने अलीगढ़ से अदीब फाज़िल और अदीब कामिल के इम्तिहान पास किए। इसके कुछ साल बाद उन्होंने आगरा यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम.ऐ. की डिग्री हासिल की। इसके आगे भी वो पढ़ना चाहते थे लेकिन हालात माकूल नहीं बन पाए तो नहीं पढ़ पाये.

ये आंखें बंद किए किस तरफ पड़े हो तुम 
इसी तरफ़ से तो सैलाब की निकासी है 

यक़ींं के जोश में अपना क़सीदा लिख डाला 
मैं खुदशनासी को समझा ख़ुदाशनासी है 
खुदशनासी:खुद को पहचानना ,ख़ुदाशनासी: ईश्वर को पहचानना

इन्हीं दिनों तेरी क़दआवरी के चर्चे हैं 
इन्हीं दिनों तेरे चेहरे पर बदहवासी है
क़दआवरी: ऊंचाई

उनकी शायरी के सफ़र की शुरुआत 1975 के आसपास शुरू हुई और उन्होंने अपना नाम रज़ा अमरोहवी रखा लेकिन इसी नाम के एक शायर के अमरोहा में होने की जानकारी मिलने के बाद उन्होंने अपना क़लमी नाम रऊफ़ रज़ा कर लिया।शायरी के सफ़र की शुरुआत में उन्होंने एक वरिष्ठ शायर और अरूज़ के जानकार जनाब इफ्तेख़ार अल्वी से परामर्श लिया लेकिन यह सिलसिला अधिक दिन नहीं चल पाया।70 के दशक में नए शायरों ने किताबों को पढ़ना और नए विचारों को अपनी गजलों में जगह दे रहे शायरों का अनुसरण करना शुरू कर दिया और इसे उस्ताद शागिर्द की परंपरा पर तरजीह दी। इस अमल से शायरी का एक नया रूप निखरता चला गया और रऊफ़ रज़ा की शायरी भी इसी रौशनी में परवान चढ़ी।

उनकी शुरुआती शायरी रिवायती रही लेकिन जल्द ही वह जदीद ग़ज़ल की तरफ मुड़ गए।

प्यासा है तो प्यास दिखा 
तू कोई पैग़ंबर है 

मैं कैसे मर सकता हूं 
कितना कर्जा़ मुझ पर है 

अच्छी है बारिश लेकिन 
छत पर एक कबूतर है

रऊफ़ साहब की 1980 में शादी हुई, पहले सब कुछ ठीक चला और फिर धीरे-धीरे घर की माली हालत बद से बदतर होती चली गई। काम मिलना बंद हो गया। फाकाकशी की नौबत आ गई ।1988 में उनके एक दोस्त ने उन्हें अपने परिचित के यहां उड़ीसा में मार्बल चिप्स बनाने वाली कंपनी में सुपरवाइजर की पोस्ट पर लगवा दिया। आप ही बताएं जो इंसान संगमरमर के पत्थरों से ताजमहल तामीर करने की कुव्वत रखता हो उसे संगमरमर को चूरा करने के काम पर लगा दिया जाए तो कैसा लगेगा ? लिहाजा दिल ने बगा़वत करनी शुरू कर दी। दिल के साथ यही समस्या है, कभी दुनिया तो कभी दिमाग उसे दबाने में लगे रहते हैं।उसे अपनी करने ही नहीं देते। जिनका दिल दबा रह जाता है वो लोग घुटन के अंधेरों में खो जाते हैं लेकिन जिनका दिल अंगड़ाई लेकर बगावत कर देता है वो दुनिया और दिमाग की कैद तोड़कर ऐसा करिश्मा करते हैं कि दांतों तले उंगलियां दबानी पड़ती हैंं 
तो हुआ यूं कि हज़रत 3 साल बाद दिल की सुनकर याने1991 में उड़ीसा की लगी लगाई नौकरी छोड़ वापस दिल्ली लौट आए और फिर से इंटीरियर डेकोरेशन का काम शुरू कर दिया, जो चल निकला। यूं समझें घने कोहरे के बाद धूप निकलने लगी

हाय वह शख़्स जो मायूस मेरे घर से गया 
अपनी तनहाइयां रखने के लिए आया था
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मैं जी उठा, मैं मर गया दोबारा जी उठा 
ये सारी वारदात ज़रा देर की है बस
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मेहरबानो! मेरी आवाज ज़रा धीमी है 
मैं बहुत चीख़ने वालों में उठा बैठा हूं
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काम ही काम है बस काम ही काम 
कुछ तो बर्बादी-ए-लम्हात करो
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कुछ नया करके गुज़ारी जाए 
वरना ये उम्र गुजारी हुई है

1997 में उन्हें जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा और इसके बाद डिप्रेशन ने भी उन्हें घेर लिया। लेकिन इन मुश्किल हालात में भी उन्होंने कई अच्छे शेर कहे।उनकी ग़ज़लों, आजाद और मुअर्रा नज़्मों और कुछ हाइकु का पहला संकलन 'दस्तकें मेरी' 1999 में प्रकाशित हुआ। 2007 में सोशल मीडिया से जुड़ने के बाद  रज़ा की सीमित दुनिया को नया विस्तार मिला और उनके सुस्त हो रहे शायर को एक नई ऊर्जा मिली और लोगों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। 2012 में अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरी कर लेने के बाद रज़ा का पूरा ध्यान शायरी पर केंद्रित हो गया और उनकी शायरी बेहतरीन होती चली गई।

यूं भी हो जाए कि बरता हुआ रास्ता न मिले 
कोई शब लौट के घर जाना जरूरी हो जाए
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अब यह पथराई हुई आंखें लिए फिरते रहो 
मैंने कब तुमसे कहा था मुझे इतना देखो
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काश आवाज को तस्वीर किया जा सकता 
एक ही लय में हुए झील का पानी और मैं
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तोड़ा गया हूं ऐसा कि जुड़ता नहीं हूं मैं 
बस और देखभाल की हसरत नहीं मुझे
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मैं भी मक़तल से निकल जाने को तैयार नहीं 
वो भी अच्छा कोई क़ातिल नहीं देता है मुझे

सब कुछ सही चल रहा था, शायरी अपने उत्कर्ष की ओर सफ़र कर रही थी और वो माने बैैैठेे थे कि अब 'मुुझे क्या होना है' तभी वो मनहूस रात आई जिसका जिक्र हम ऊपर कर चुके हैं .
उनके देहावसान के बाद दो हजार अट्ठारह में उनका एक अन्य संकलन "यह शायरी है" प्रकाशित हुआ।
हिंदी में पहली बार नौजवान शायर  'इरशाद खान सिकंदर ' साहब द्वारा उनकी ग़जलों के लिप्यांतरण को तुफैल चतुर्वेदी जी ने संपादित किया और राजपाल ने प्रकाशित किया। इस किताब का पहला भाग आप पिछली पोस्ट में पढ़ ही चुके हैं।


आखरी में उनकी एक ग़जल के ये अशआर भी पढ़वाता चलता हूँ

रौनक़े-शहर तो बस मुँँह की तका करती है 
वो उजाला किए रहती है कहानी मेरी 

जो़र इस बात पे था इश्क का क्या हासिल है 
वो हंसी छूटी कि आंखे हुई पानी मेरी 

तुम चले आओगे इंकार का सामान लिए 
आखिरी मोड़ से गुज़रेगी कहानी मेरी