Monday, June 29, 2015

किताबों की दुनिया -105

हो रही है शाम से साकिन घड़ी की सुइयां 
पाँव फैलाता है क्या एक एक पल फ़ुर्क़त की रात 
साकिन : रुक जाना : फ़ुर्क़त : जुदाई 

सर्द सर्द आहों से यूँ आंसू मिरे जमते गए 
हो गया तामीर इक मोती-महल फ़ुर्क़त की रात 
तामीर : तैयार 

दर्द में डूबे हुए हैं शेर सारे ऐ 'वफ़ा' 
किस क़ियामत की कही तूने ग़ज़ल फ़ुर्क़त रात 

आप समझ ही गए होंगे की आज 'किताबों की दुनिया' श्रृंखला में हम किस तरह की शायरी की किताब की चर्चा करने वाले हैं। नहीं समझे ? हम समझाते हैं , आज हम उस तरह की रिवायती शायरी की चर्चा करेंगे जिस तरह की शायरी आजकल बहुत कम या बिलकुल ही पढ़ने सुनने को नहीं मिलती। शायरी का ये दौर खत्म हुए अरसा हो गया है लेकिन साहब इस शायरी का अपना नशा है जो सर चढ़ के बोलता है :

क्या मेहरबानियाँ थीं क्या मेहरबानियाँ हैं 
वो भी कहानियां थीं ये भी कहानियां हैं 

इक बार उसने मुझको देखा था मुस्कुराकर 
इतनी सी है हकीकत बाक़ी कहानियां हैं 

सुनता है कोई किसकी किसको सुनाये कोई 
हर एक की ज़बां पर अपनी कहानियां हैं 

कुछ बात है जो चुप हूँ मैं सब की सुन के वरना 
याद ऐ 'वफ़ा' मुझे भी सब की कहानियां हैं 

इन शेरों में आये तखल्लुस से आप इतना जो जान ही गए होंगे कि हम किसी 'वफ़ा' साहब की शायरी का जिक्र करने वाले हैं ,अब जब आप इतना जान गए हैं तो ये भी जान लें कि हमारे आज के बाकमाल शायर का पूरा नाम था "मेला राम 'वफ़ा' ". चौंक गए ? क्यूंकि हो सकता है आपने ये नाम पहले न सुना हो , सच बात तो ये है कि हमारी या हमारे बाद की पीढ़ी में से बहुत कम ने शायद ही ये नाम सुना हो. इस नाम और इस किताब से अगर जनाब राजेंद्र नाथ 'रहबर ' साहब मेरा तार्रुफ़ न करवाते तो मैं भी आपकी तरह उनकी शायरी से अनजान रहता। 'रहबर' साहब ने बड़ी मेहनत से वफ़ा साहब की ग़ज़लों को 'संगे-मील' किताब की शक्ल में दर्ज़ किया है। 


नहीं,हाँ हाँ, नहीं आसां बसर करना शबे ग़म का 
शबे-ग़म ऐ दिले नादां बसर मुश्किल से होती है 

गुज़र जाती है राहत की तो सौ सौ उम्रें ब-आसानी 
घडी भी इक मुसीबत की बसर मुश्किल से होती है 

ये दर्दे इश्क है, ये जान ही के साथ जायेगा 
दवा इस दर्द की ऐ चारागर मुश्किल से होती है 
चारागर : चिकित्सक 

जनाब मेला राम जी का जन्म 26 जनवरी 1895 को गाँव दीपोके जिला सियालकोट (पाकिस्तान ) में हुआ। शायरी के अलावा उन्होंने पहले लाहौर के बहुत से उर्दू अखबारों जैसे 'दीपक' , 'देश' , 'वन्दे मातरम' , 'भीष्म' , 'वीर भारत' आदि में संपादक की हैसियत से काम कियाऔर फिर खुद के दैनिक अखबार 'भारत' , 'लाहौर', 'पंजाब मेल', 'अमृत' आदि नामों से निकलने लगे जो बहुत मकबूल हुए। आपने नेशनल कालेज लाहौर में उर्दू फ़ारसी के अध्यापन का काम भी किया। अख़बारों के साथ उनकी शायरी का शौक भी परवान चढ़ता रहा हालाँकि अख़बारों में अधिक ध्यान देने से उनकी शायरी की गुणवत्ता पर असर पढ़ा।

महफ़िल में इधर और उधर देख रहे हैं 
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं 

भागे चले जाते हैं उधर को तो खबर क्या 
रुख लोग हवाओं का जिधर देख रहे हैं 

शिकवा करें गैरों का तो किस मुंह से करें हम 
बदली हुई यारों की नज़र देख रहे हैं '

वफ़ा' साहब बड़े देश भक्त थे , देश प्रेम का ज़ज़्बा कूट कूट कर उनके दिल में भरा हुआ था , देश को गुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने के लिए शायरी के बे-खौफ इस्तेमाल में उर्दू का काबिले जिक्र शायर यहाँ तक की 'जोश मलीहाबादी 'भी वफ़ा साहब का मुकाबला नहीं कर सकते। उन्हें एक बागियाना नज़्म लिखने के जुर्म में दो साल की कैद भी भुगतनी पड़ी। बानगी के तौर पर पढ़ें उसी नज़्म के कुछ अंश :- 

ऐ फिरंगी कभी सोचा है ये दिल में तू ने 
और ये सोच के कुछ तुझ को हया भी आई 

तेरे क़दमों से लगी आई गुलामी ज़ालिम 
साथ ही उसके गरीबी की बला भी आई 

तेरी कल्चर में चमक तो है मगर इस में नज़र 
कभी कुछ रोशनिये -सिद्को सफ़ा भी आई 
सिद्को सफ़ा = सच्चाई 

तेरी संगीने चमकने लगी सड़कों पे युंही 
लब पे मज़लूमो के फरयाद ज़रा भी आई 

1941 में वफ़ा साहब की देश भक्ति और सियासी नज़्मों का संग्रह 'सोज-ऐ-वतन ' के नाम से प्रकाशित किया गया। 1959 में उनकी अदबी ,सियासी,और रूहानी ग़ज़लों का संग्रह 'संग-ऐ-मील' के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुआ। संगे मील प्रकाशित अपने कलाम को वफ़ा साहब ने चार भागों में बांटा था 1 .महसूसात 2 .सियसियात 3 . रूहानियत और 4 . ग़ज़लियात , किताब में उनकी ग़ज़लियात वाला भाग ही प्रकाशित किया गया है। 

ये बात कि कहना है मुझे तुम से बहुत कुछ 
इस बात से पैदा है कि मैं कुछ नहीं कहता 

कहलाओ न कुछ ग़ैर की तारीफ़ में मुझसे 
समझो तो ये थोड़ा है कि मैं कुछ नहीं कहता 

कहने का तो अपने है 'वफ़ा' आप भी काइल 
कहने को ये कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता 

"संग-ऐ-मील" ग़ज़ल संग्रह का संपादन और लिप्यंतरण मशहूर शायर जनाब राजेंद्र नाथ 'रहबर' साहब ने किया है और इसे जनाब तिलक राज 'बेताब' साहब ने प्रकाशित किया है। उर्दू शायरी के कद्रदानों के पास ये नायाब किताब जरूर होनी चाहिए।  इस किताब की प्राप्ति के लिए आप जनाब रहबर साहब से 0186 -2227522 या 09417067191 पर संपर्क कर सकते हैं.

पंजाब सरकार से "राज कवि " का खिताब पाने वाले जनाब मेला राम 'वफ़ा' साहब 19 सितम्बर 1980 को इस दुनिया-ऐ -फानी को अलविदा कह गए और अपने पीछे शायरी की वो विरासत छोड़ गए जो आने वाली सदियों तक उनके नाम को ज़िंदा रखेगी। चलते चलते उनकी ग़ज़ल के ये चंद शेर और आपको पेश करता हूँ :

ग़मे- फ़िराक़, शदीद इस कदर न था पहले 
दुआ है अब न मिले राहते-विसाल मुझे 
ग़मे-फिराक : वियोग का दुःख , शदीद : तीव्र , राहते विसाल : मिलन का सुख 

तिरी ख़ुशी हो अदू की ख़ुशी के ताबे क्यों 
तिरी ख़ुशी का भी होने लगा मलाल मुझे 
अदू :दुश्मन , ताबे : अधीन 

कभी जो उसने इज़ाज़त सवाल की दी है 
जवाब दे गयी है ताकत-ऐ-सवाल मुझे

Monday, June 15, 2015

किताबों की दुनिया - 104

ठीक उस वक्त जब मैं किताबों की दुनिया श्रृंखला बंद करने की सोच रहा था मेरी नज़र पोस्ट के उन आंकड़ों पर पड़ी जिसमें बताया गया था कि फलां पोस्ट को कितने लोगों ने विजिट किया या यूँ कहें कि पढ़ा और किस जगह से। मेरे ख्याल से ये आंकड़े चौकाने वाले थे। पहली "किताबों की दुनिया" में पोस्ट की किताब से अब तक (103 ) किताबों में से 12 % किताबों को एक हज़ार से अधिक ,36 % किताबों को दो हज़ार से अधिक , 15 % किताबों को तीन हज़ार से अधिक, 18 % किताबों को चार हज़ार से अधिक और 8 % किताबों को दुनिया भर से पांच हज़ार से अधिक पाठकों ने पढ़ा या देखा। मजे की बात ये भी देखी कि पाठक पुरानी पोस्ट्स को अब भी विजिट कर रहे हैं. किताबों की दुनिया की पहली और पांचवी पोस्ट को कल ही क्रमश: चार और सात लोगों ने विजिट किया।  दुनिया के 27 देशों से लोगों का इन पोस्ट्स पर आना सुखद अहसास भर गया.    

इन आंकड़ों ने एक नयी ऊर्जा  का संचार किया और इस श्रृंखला को आगे बढ़ाने की चाह मेंअगली किताब की औरमेरे हाथ अपने आप उठ गए। इस किताब और शायर का पता मुझे तब चला था जब इस वर्ष के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में मेरे प्रिय मित्र और शायरी के जबरदस्त दिवाने जनाब प्रमोद कुमार मुझे लगभग घसीटते हुए अंजुमन प्रकाशन स्टाल पर ले जाकर खुद ही इस किताब को शेल्फ से निकाल कर बोले भाई साहब इन्हें पढ़ो।     

आज हम उसी शायर "एहतराम इस्लाम " साहब की किताब " है तो है "  का जिक्र करेंगे और देखें कि क्यों उनका नाम उर्दू ग़ज़ल के छंद शास्त्र का निर्वाह बेहतरीन तरीके से करने वाले हिंदी ग़ज़ल के शायर के रूप में इज़्ज़त से लिया जाता है।  




आये न आये आपकी तस्वीर मन-पसन्द 
मिलते ही कैमरे से नयन, मुस्कुराइए 

नेवले के दाँत सांप की गर्दन में धँस गए 
बोला मदारी भीड़ से, ताली बजाइए 

मैं डूबने की चाह में बैठा हूँ 'एहतराम
मेरे करीब आप नदी बन के आईये 

हिंदी और उर्दू ज़बान में ग़ज़ल को तकसीम वाले लोगों को जनाब एहतराम साहब का कलाम पढ़ना चाहिए और समझना चाहिए कि ग़ज़ल भाषा की नहीं भाव की विधा है , जिसके पास भाव हैं वो ही अच्छी और कामयाब ग़ज़ल कह सकता है। 

आँखों में भड़कती हैं आक्रोश की ज्वालायें 
हम लाँघ गए शायद संतोष की सीमाएं 

सीनों से धुआँ उठना कब बंद हुआ कहिये 
कहने को बदलती ही रहती हैं व्यवस्थाएँ 

तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो 
कुछ तैरती पतवारें, कुछ डूबती नौकाएँ 

" है तो है " किताब का पहला संस्करण 1994 में छपा था फिर उसके बीस साल बाद याने 2014 में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। ये शायर के हुनर और कहन का विलक्षण अंदाज़ ही है जिसकी वजह से ये ग़ज़लें आज भी मौलिक और ताज़ा लगती हैं।  

देश क्या अब भी नहीं पहुंचेगा उन्नति के शिखर पर 
नित्य ही दो-चार उद्घाटन कराये जा रहे हैं 

छिड़ गया है स्वच्छता अभियान शायद शहर भर में 
गन्दगी के ढेर सड़कों पर सजाये जा रहे हैं 

झूठ, तिकड़म, लूट, रिश्वत, रहज़नी, हत्या, डकैती 
ज़िन्दा रहने के हमें सब गुर सिखाये जा रहे हैं          

5 जनवरी 1949 को मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) में जन्मे एहतराम इस्लाम ने अपना कर्मक्षेत्र चुना प्रयाग को। एहतराम इस्लाम अब महालेखाकार कार्यालय के वरिष्ठ लेखा परीक्षक पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वर्ष 1965 से हिन्दी-उर्दू-अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में एहतराम इस्लाम की रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं

देता रहता है तू सफाई क्या 
तेरे दिल में है कुछ बुराई क्या 

आपने पर क़तर दिए मेरे 
अब मेरी कैद क्या, रिहाई क्या 

पाँव पड़ते नहीं हैं धरती पर 
हो गयी आपसे रसाई क्या 

तू जो रहज़न दिखाई देता है 
मिल गयी तुझको रहनुमाई क्या 

ज्ञान प्रकाश विवेक जी ने राष्ट्रीय सहारा के 22 मार्च 1994 अंक में पत्रिका में लिखा था कि " हिंदी के पहले दस महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों में एहतराम इस्लाम का नाम शुमार होता है।  उनकी ग़ज़लें अपने हिन्दीपन से पहचानी जाती हैं। एहतराम की ग़ज़लों का चेहरा खुरदुरा है।  आप इन ग़ज़लों को पढ़ सकते हैं , बैचेन हो सकते हैं लेकिन गा नहीं सकते क्यूंकि ये ग़ज़लें 'ड्राइंग रूम का सुख' नहीं कर्फ्यूग्रस्त शहर की बैचेनी का मंज़र है। 

पीर की आकाश-गंगा पार करती है ग़ज़ल 
कल्पनाओं के क्षितिज पर तब उभरती है ग़ज़ल 

आप इतना तिलमिला उठते हैं आखिर किसलिए 
आपकी तस्वीर ही तो पेश करती है ग़ज़ल 

हाथ में मेंहदी रचाती है न काजल आँख में 
मांग में अफसां नहीं अब धूल भरती है ग़ज़ल  

एहतराम इस्लाम को उर्दू वाले अपना शायर और हिन्दी वाले अपना कवि मानते हैं। क्रांतिकारी विचारों वाले कवि एहतराम इस्लाम एजी आफिस यूनियन में कई बार साहित्य मंत्री भी रह चुके हैं ।

हिंदी ग़ज़ल के नाम पर नाक भों सिकोड़ने वाले लोगों को बता दूँ कि उनकी खालिस उर्दू ग़ज़लों का संग्रह ' हाज़िर है एहतराम' भी अंजुमन प्रकाशन द्वारा मंज़रे आम पर लाया जा चुका है। 

वार तो भरपूर था ढीला न था 
हाँ मगर खंज़र ही नोकीला न था 

ज़हर के आदी पे होता क्या असर     
लोग समझे साँप ज़हरीला न था 

चूस डाला ग़म की जोंकों ने लहू 
वर्ना मेरा भी बदन पीला न था 

ठोकरें लगती रहीं हर गाम पर 
रास्ता कहने को पथरीला न था    

आकर्षक आवरण साथ पेपर बैक में छपी इस किताब में एहतराम साहब की 91 ग़ज़लें संग्रहित हैं। इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए आप एहतराम साहब को उनके मोबाईल न 9839814279 पर बात कर मुबारक बाद दे सकते हैं और किताब प्राप्ति के लिए अंजुमन प्रकाशन से 9235407119 /9453004398 पर सम्पर्क कर सकते हैं। 

अंत में मैं अपने मित्र प्रमोद कुमार जी को मुझे इस किताब तक पहुँचाने के लिए तहे दिल से धन्यवाद देते हुए , एहतराम साहब की एक ग़ज़ल के शेरों को पेश करता हूँ और अगली किताब की तलाश में निकलता हूँ 

मूर्ती सोने की निरर्थक वस्तु है, उसके लिए 
मोम की गुड़िया अगर बच्चे को प्यारी है तो है 

हैं तो हैं दुनिया से बे-परवा परिंदे शाख पर 
घात में उनकी कहीं कोई शिकारी है तो है 

आप छल बल के धनी हैं , जितियेगा आप ही 
आपसे बेहतर मेरी उम्मीदवारी है तो है 

'एहतराम' अपने ग़ज़ल लेखन को कहता है कला 
आप कहते हैं उसे जादू निगारी है, तो है  

Monday, June 1, 2015

छुपाये हुए हैं वही लोग खंज़र

बहुत अरसे बाद एक साधारण सी ग़ज़ल हुई है



नहीं है अरे ये बग़ावत नहीं है 
 हमें सर झुकाने की आदत नहीं है 

 छुपाये हुए हैं वही लोग खंज़र
 जो कहते किसी से अदावत नहीं है 

 करूँ क्या परों का अगर इनसे मुझको 
 फ़लक़ नापने की इज़ाज़त नहीं है 

 उठा कर गिराना गिरा कर मिटाना 
 हमारे यहाँ की रिवायत नहीं है 

 मिला कर निगाहें ,झुकाते जो गर्दन 
 वही कह रहे हैं मुहब्बत नहीं है 

 बहुत करली पहले ज़माने से हमने 
 हमें अब किसी से शिकायत नहीं है 

 करोगे घटाओं का क्या यार 'नीरज' 
अगर भीग जाने की चाहत नहीं है