Monday, February 22, 2010

भलाई किये जा इबादत समझ कर


गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरा हुआ था जो बहुत चर्चित और लोकप्रिय रहा. उसी तरही में मैंने भी अपनी एक ग़ज़ल भेजी थी जिसे वहां पाठकों ने पढ़ कर अपना प्यार दिया. उसी ग़ज़ल को आज अपने ब्लॉग पाठकों के लिए फिर से पोस्ट कर रहा हूँ.


सितम जब ज़माने ने जी भर के ढाये
भरी सांस गहरी बहुत खिलखिलाये

कसीदे पढ़े जब तलक खुश रहे वो
खरी बात की तो बहुत तिलमिलाये

न समझे किसी को मुकाबिल जो अपने
वही देख शीशा बड़े सकपकाये

भलाई किये जा इबादत समझ कर
भले पीठ कोई नहीं थपथपाये

खिली चाँदनी या बरसती घटा में
तुझे सोच कर ये बदन थरथराये

बनेगा सफल देश का वो ही नेता
सुनें गालियाँ पर सदा मुसकुराये

बहाने बहाने बहाने बहाने
न आना था फिर भी हजारों बनाये

गया साल 'नीरज' तो था हादसों का
न जाने नया साल क्या गुल खिलाये

Monday, February 15, 2010

किताबों की दुनिया - 24

जैसे उजड़े हुए मंदिर में हवा का झोंका
ऐसे आ जाएँ कभी लौट के आने वाले

मुझसे क्या पूछते हो मैंने उन्हें कब देखा
पेड़ की आड़ में थे तीर चलाने वाले

ढूंढ कर लाओ कोई हो तो सुलाने वाला
सैंकड़ों लोग हैं दुनिया में जगाने वाले

दुनिया वालों ने फकत उसको हवा दी थी 'निजाम'
लोग तो घर ही के थे आग लगाने वाले




ऐसे जबरदस्त शेर कहने वाले हैं जोधपुर में जन्मे और आज उर्दू शायरी के आकाश पर चमकते हुए सितारे जनाब " शीन काफ निजाम" उर्फ़ "शिव कुमार निजाम". उनकी एक किताब "वाग्देवी प्रकाशन" बीकानेर ने प्रकाशित की है " सायों के साए में" शीर्षक से, आज इसी किताब का जिक्र करेंगे.



पहले ज़मीन बांटी थी फिर घर भी बट गया
इंसान अपने आप में कितना सिमट गया

अब क्या हुआ की खुद को मैं पहचानता नहीं
मुद्दत हुई कि रिश्ते का कोहरा भी छट गया

गाँवों को छोड़ कर तो चले आये शहर में
जाएँ किधर कि शहर से भी जी उचट गया

शीन काफ निजाम साहब को मध्य प्रदेश सरकार द्वारा दिए गए 'इकबाल सम्मान' के अलावा 'भाषा भारती सम्मान, उर्दू अकेडमी अवार्ड और बेगम अख्तर अवार्ड से भी नवाज़ा जा चूका है ,लेकिन इन सबसे बड़ा अवार्ड उन्हें उनके लाखों पाठकों और श्रोताओं ने अपना प्यार लुटा कर दिया है. निजाम साहब अपनी शायरी का जलवा अमेरिका यूरोप और खाड़ी के मुल्कों में भी दिखा चुके हैं.

जीत के ज़ज्बे ने क्या जाने कैसा रिश्ता जोड़ दिया
जानी दुश्मन भी मुझको अब मेरा अपना लगता है

इस बस्ती की बात न पूछो इस बस्ती का कातिल भी
सीधा-सादा, भोला-भाला,प्यारा प्यारा लगता है

दरवाज़े तक छोड़ने मुझको आज नहीं कोइ आया
बस, इतनी सी बात है लेकिन जाने कैसा लगता है

प्रसिद्द कवि अज्ञेय जी ने कहा है "मुझे कविता प्रायः याद नहीं रहती, लेकिन निजाम के कुछ शेर मुझे अकस्मात कंठस्थ हो गए और वो मेरी भाव संपत्ति का अंग बन गए." इस बात को उनकी इस किताब को पढ़ कर अच्छी तरह जाना जा सकता है.जो शेर बिना भारी भरकम शब्दों का सहारा लिए सीधे दिल में उतरते हों उन्हें याद करना मुश्किल नहीं होता. इंसान की मुश्किलों और खुशियों को सही लफ्ज़ देना ही शायरी है और निजाम साहब इसमें सिद्ध हस्त हैं.

पेड़ों को छोड़ कर जो उड़े उनका जिक्र क्या
पाले हुए भी गैर की छत पर उतर गए

यादों की रुत के आते ही सब हो गए हरे
हम तो समझ रहे थे सभी ज़ख्म भर गए

शायर कुमार पाशी का कहना है " निजाम के शेर पढ़ते हुए बार बार एहसास होता है कि उनके सामने उदास मंज़र फैले हुए हैं ,जिन की झलकियाँ वे लफ़्ज़ों में पेश करते हैं."

आज हर सम्त भागते हैं लोग
गोया चौराहा हो गए हैं लोग

अपनी पहचान भीड़ में खो कर
खुद को कमरों में ढूंढते हैं लोग

ले के बारूद का बदन यारों
आग लेने निकल पड़े हैं लोग

हर तरफ इक धुआँ सा उठता है
आज कितने बुझे बुझे हैं लोग

वाग्देवी प्रकाशन बीकानेर वालों की ये विशेषता है कि वो अपने पाठकों को उच्च साहित्य की पुस्तकें अविश्वश्नीय मूल्य पर उपलब्ध करवा देते हैं.क्या आप भरोसा करेंगे की निजाम साहब की ये अनमोल पुस्तक जिसमें उनकी लगभग सौ ग़ज़लें, दोहे और लाजवाब नज्में संगृहीत है का मूल्य मात्र पैंतीस रुपये ही है? मुझे तो सच यकीन नहीं हुआ था लेकिन ये सत्य है.आप ये पुस्तक उनसे उनके मेल vagdevibooks@gmail.com पर अपना पता भेज कर मंगवा सकते हैं या फिर उनसे 0151-2242023 फोन नंबर पर संपर्क कर इसके बारे में जानकारी ले सकते हैं.

शीन काफ निजाम साहब को मैंने जयपुर की महफ़िलों में अक्सर सुना है और उनकी गहरी आवाज़ और अदायगी का कायल हूँ. आपने उनके शेर तो बहुत सुने होंगे लेकिन वो निदा फाजली साहब की तरह कमाल के दोहे भी कहते हैं तो चलिए अब पढ़ते और सुनते हैं उनकी लाजवाब शायरी और दोहे उन्हीं की जुबानी:

ये कैसा इनआम है ,ये कैसी सौगात
दिन देखे जुग हो गए, जब जागूं तब रात
****
पतझड़ की रुत आ गयी, चलो आपने देश
चेहरा पीला पड़ गया, धोले हो गए केश
****
करे जुगाली रात दिन, शब्दों की नादान
है पोथी का पारखी, अक्षर से अनजान
****
चौपालें चौपट हुईं सहन में सोया सोग
अल्लाह जाने क्या हुए, आल्हा गाते लोग
****
गोबर से घर लीप कर गोरी हुई उदास
दुहरायेगा कौन कल आँगन का इतिहास



आप वाग्देवी प्रकाशन वालों वालों को लिखें या बात करें तब तक चलते हैं एक और किताब खोजने आपके लिए. मेरा मकसद सिर्फ और सिर्फ अच्छी सच्ची शायरी की किताबों की जानकारी आपतक पहुँचाना भर है...मील के पत्थर हैं भाई हम तो सिर्फ ये बताते हैं मंजिल किधर और कितनी दूर है....चलना तो आपको ही है

Monday, February 8, 2010

गुलाबों से मुहब्बत है जिसे



मजे की बात है जिनका, हमेशा ध्यान रखते हैं
वोही अपने निशाने पर, हमारी जान रखते हैं

मुहब्बत, फूल, खुशियाँ,पोटली भर के दुआओं की
सदा हम साथ में अपने, यही सामान रखते हैं

यही सच्ची वजह है, मेरे तन मन के महकने की
जलाये दिल में तेरी याद का, लोबान रखते हैं

पथिक पाते वही मंजिल, भले हों खार राहों में
जो तीखे दर्द में लब पर, मधुर मुस्कान रखते हैं

मिलेगी ही नही थोड़ी जगह, दिल में कभी उनके
तिजोरी है भरी जिनकी, जो झूटी शान रखते हैं

उसी की बात होती है, उसी को पूजती दुनिया
जो भारी भीड़ में अपनी, अलग पहचान रखते हैं

गुलाबों से मुहब्बत है जिसे, उसको ख़बर कर दो
चुभा करते वो कांटे भी, बहुत अरमान रखते हैं

बहारों के ही हम आशिक नहीं, ये जान लो 'नीरज'
खिजाओं के लिये दिल में, बहुत सम्मान रखते हैं

( गुरुदेव प्राण शर्मा जी की रहनुमाई में मुकम्मल हुई ग़ज़ल )

Monday, February 1, 2010

किताबों की दुनिया - 23

कोई सत्तर के दशक के आरम्भ की बात होगी. मैं तब कालेज में पढता था. जयपुर की बड़ी चौपड़ पर स्थित मानक चौंक स्कूल के भव्य प्रागण में मुशायरा चल रहा था जिसे कुंवर महेंद्र सिंह बेदी संचालित कर रहे थे. उस समय स्टेज पर बशीर बद्र, शमीम जयपुरी, शमशी मीनाई, शकील बदायुनी, मजरूह सुलतान पुरी,कतील शफाई जैसी हस्तियाँ मंच पर बिराजमान थीं. मध्य रात्रि के बाद बेदी साहब ने एक दुबले पतले इंसान को आवाज़ लगाई जिसने अपने सधे गले से तरन्नुम में एक के बाद एक लाजवाब ग़ज़लें सुनाईं और मुशायरा लूट लिया. आज उर्दू शायरी के दीवानों के लिए उनका नाम अजनबी नहीं बल्कि अज़ीज़ है. उस शायर का नाम है जनाब " वसीम बरेलवी" . आज उनके बिना उर्दू मुशायरा मुकम्मल नहीं माना जाता.

लीजिये मेरी और से प्रस्तुत है इस विश्व विख्यात शायर की देवनागरी लिपि में छपी पहली किताब "मेरा क्या" के बारे में अदना सी जानकारी.



खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है, जो हवाओं के पर कतरता है

शराफतों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो, तो कौन डरता है.

वसीम साहब ने अपनी शायरी में उर्दू के भारी भरकम लफ़्ज़ों का बहुत अधिक प्रयोग नहीं किया बल्कि मौजूदा समय की समस्याओं पर बड़े सहज और सरल ढंग से लिखा है.ये ही कारण है की उनके शेर लोग आम बात चीत में अक्सर कोट करते हुए सुनते रहते हैं.

उसूलों पर जहाँ आंच आये, टकराना जरूरी है
जो जिंदा हो, तो फिर जिंदा नज़र आना जरूरी है

थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीका मंद शाख़ों का लचक जाना जरूरी है

मेरे होटों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इसके बाद भी दुनिया में कुछ पाना जरूरी है

वसीम साहब बड़े ही अलग से अंदाज़ में गहरी बात कह जाते हैं. इनकी लिखी ग़ज़लों को बहुत से ग़ज़ल गायक अपना स्वर दे चुके हैं. वो कहते हैं की "लफ्ज़ और एहसास के बीच का फासिला तय करने की कोशिश का नाम ही शायरी है, मगर ये बेनाम फासिला तय करने में कभी कभी उम्रें बीत जाती हैं और बात नहीं बनती." उन्होंने बिलकुल सही कहा है और इस बात की पुष्टि के तौर पर मैं आपको उनके दो शेर पढवाता हूँ:

अच्छा है, जो मिला वो कहीं छूटता गया
मुड़ मुड़ के ज़िन्दगी की तरफ देखता गया

मैं , खाली जेब, सब की निगाहों में आ गया
सड़कों पे भीख मांगने वालों का क्या गया

इसी किताब की भूमिका में वसीम साहब आगे कहते हैं "शायरी मदद न करती, तो ज़िन्दगी के दुःख जान लेवा साबित हो सकते थे. वह तो ये कहिये कि अभिव्यक्ति के इस माध्यम ने मानसिक संतुलन बरकरार रखने में मदद की और झुलसा देने वाली धूप में एक बेज़बान पेड़ की तरह सर उठाकर खड़े रहने का अवसर दिया."

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे

घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है
पहले यह तय हो कि इस घर को बचाएं कैसे

लाख तलवारें बढीं आती हों गर्दन की तरफ
सर झुकाना नहीं आता, तो झुकाएं कैसे

"परंपरा बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, ४१२, कोणार्क, अपार्टमेन्ट. २२, पटपड़गंज रोड, आई.पी. एक्टेंशन दिल्ली " द्वारा प्रकाशित मात्र सौ रुपये मूल्य की ये किताब वसीम साहब की एक सौ चालीस ग़ज़लों को समेटे हुए है. इसके अलावा उनके ढेरों फुटकर शेर भी हैं. इन ग़ज़लों को पढ़ते हुए लगता है पूरी की पूरी किताब आपको पढवा दूं क्यूँ की हर ग़ज़ल बल्कि उनका लिखा हर शेर क़यामत ढाता है और दिल पर बहुत गहरा असर डालता है:

तुम्हारा प्यार तो साँसों में सांस लेता है
जो होता नश्शा, तो इक दिन उतर नहीं जाता

'वसीम' उसकी तड़प है, तो उसके पास चलो
कभी कुआँ किसी प्यासे के घर नहीं जाता

रघुपति सहाय फ़िराक गोरखपुरी साहब के महबूब शायर हैं वसीम साहब, वो उनसे और उनके कलाम दोनों से मोहब्बत करते हैं.उनका कहना है "वसीम की शायरी में ज्ञान और विवेक की तहों का जायजा है".उनके चाहने वाले दुनिया भर में हैं और वो जहाँ जाते हैं लोग उन्हें सर आँखों पर बिठाते हैं. ये मुकाम बहुत कम शायरों को नसीब हुआ है.

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा

मैं उसका हो नहीं सकता, बता न देना उसे
लकीरें हाथ की अपनी वह सब जला लेगा

हज़ार तोड़ के आ जाऊं उससे रिश्ता 'वसीम'
मैं जानता हूँ वह जब चाहेगा, बुला लेगा

मुझे यकीन है की उर्दू शायरी के प्रेमी होने के नाते आप ये किताब जरूर अपनी किताबों की अलमारी में रखना चाहेंगे. ये ऐसी किताब है जिसको न खरीदने के बारे में सोचना भी पाप है. अब आखिर में चलते चलते आईये पढ़ते हैं वसीम साहब के कुछ फुटकर शेर जिन्हें आप बरसों नहीं भूल पाएंगे.

वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से
मैं ऐतबार न करता, तो और क्या करता
***
उसी को जीने का हक़ है, जो इस ज़माने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए
***
बिछड़ के मुझसे तुम अपनी कशिश न खो देना
उदास रहने से चेहरा ख़राब होता है
***
ये सोचकर कोई अहदे वफ़ा करो हमसे
हम एक वादे पे उम्रें गुज़ार देते हैं
***
मुझे पढता कोई तो कैसे पढता
मेरे चेहरे पे तुम लिक्खे हुए थे
***
वो मेरी पीठ में खंज़र जरूर उतारेगा
मगर निगाह मिलेगी, तो कैसे मारेगा
***
ग़रीब लहरों पे पहरे बिठाये जाते हैं
समन्दरों की तलाशी कोई नहीं लेता

इस तरह के सैंकड़ों शेर भरे पड़े हैं इस किताब में, आप खरीद कर तो देखिये. दिल्ली के बाशिंदे तो इस बार शायरी की ऐसी कई किताबें पुस्तक मेले से खरीद सकते हैं. मेरा काम बताने का है और आपका....??? आप सोचिये.