Monday, January 31, 2011

मेरा दिल ये जैसे भुजंग हो

गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर चल रहे तरही मुशायरे में उस्ताद शायरों के साथ खाकसार को भी शिरकत का मौका मिला था. प्रस्तुत है उसी तरही में भेजी मेरी ग़ज़ल आप सब के लिए. जिन साहेबान ने इस ग़ज़ल को वहाँ पढ़ा था उनके लिए इस ग़ज़ल में थोड़े हलके फुल्के बदलाव किये हैं ताकि थोड़ी बहुत ताजगी का एहसास हो .



नया गीत हो, नया साज़ हो, नया जोश और उमंग हो
नए साल में नए गुल खिलें, नई हो महक नया रंग हो

है जो मस्त अपने ही हाल में, कोई फ़िक्र कल की न हो जिसे
उसे रास आती है जिंदगी, जो कबीर जैसा मलंग हो

वही रंजिशें वही दुश्मनी, मिला क्या हमें बता जीत से
तेरी हार में मेरी हार है, यही सोच लें तो न जंग हो

करें जो सभी वही हम करें, तो है बेसबब सी ये जिंदगी
है मजा अगर करें कुछ नया, जिसे देख ये जहाँ दंग हो

तुझे देख कर मुझे यूँ लगा कोई संदली सी है शाख तू
जो न रह सके तुझे छोड़ कर , मेरा दिल ये जैसे भुजंग हो

हो न लिजलिजा बिना रीढ़ का, है यही दुआ ऐ मेरे खुदा
दे वतन को ऐसा तू रहनुमा, जो दिलेर और दबंग हो

Monday, January 24, 2011

किताबों की दुनिया - 44

अक्सर ऐसा होता है के खजाने की तलाश में आप दर दर भटकतें हैं और तब कहीं जाकर खज़ाना आपके हाथ लगता है लेकिन कभी कभी खज़ाना आपको अचानक बैठे बिठाए ही मिल जाता है. अचानक मिले खजाने की ख़ुशी लफ़्ज़ों में बयां नहीं की जा सकती . हुआ यूँ की मेरी अनुभूति पर प्रकाशित गजलों को पढ़ कर श्री अनमोल जी ने मुझसे संपर्क किया, मेरे आग्रह पर अपनी किताब "दरिया डूब गया " भेजी जिसका जिक्र हम किताबों की दुनिया श्रृंखला में पहले कर चुके हैं, इस बार अचानक उन्हीं के एक मित्र, जो खुद भी शायर हैं, का मेरे पास मेल आया जिसमें उन्होंने मेरी गजलों को अच्छा बताते हुए अपनी लिखी किताब का जिक्र भी किया, किताब का जिक्र सुनते ही हमने उनसे किताब भेजने की फ़रियाद कर डाली. थोड़े दिनों बाद उनकी किताब मेरे हाथ में थी. किताब पढ़ कर जो आनंद मुझे मिला उसे आज मैं आप सबके साथ किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी के माध्यम से बांटना चाहता हूँ .

दर्द के रिश्ते, याद के बंधन, आँख के आंसू, उसका गम
पीड़ा ने मन को समझाया, सब पानी का रेला है

फूल की खुशबू, उसकी आँखें, शाम का मंज़र, जुल्फ़ घनी
चाँद, घटा, यादों का साया, सब पानी का रेला है

खिलता बचपन, प्यासा यौवन, अभिशापित सा वृद्धापन
किसने किसा साथ निभाया, सब पानी का रेला है

एक मुश्किल रदीफ़ को इतनी ख़ूबसूरती से निभाने वाले नौजवान शायर का नाम है " मनोज अबोध " जिनकी लिखी किताब "गुलमोहर की छाँव में" से ये अशआर लिए गए हैं

उनकी शायरी की खूबी है सहज और कोमल भाव से अपनी बात कहना. वो अपनी बात चीख कर नहीं कहते धीमे लहजे में कहते हैं. वो जानते हैं के सच कभी चिल्लाकर नहीं बोला जाता धीमे स्वर में ही वो अधिक प्रभावशाली होता है. शायरी में अक्सर लोग जटिलता से कही बात पसंद करते हैं लेकिन मनोज जी अपनी बात को सरलता से कहने के पक्षधर हैं. दोनों ही तरह से कही गयी बात का अपना आनंद है लेकिन जटिलता अगर पाठक तक पहुंचकर खुल नहीं पाती तो अर्थ हीन है और सरलता अगर पाठक तक पहुंच कर निष्प्रभावी हो जाती है तो व्यर्थ है. मनोज जी के अशआर सरलता से कहे जाने के बावजूद प्रभावशाली हैं:

ज़ख्मों पर मरहम रखना तो, एक बहाना था जैसे
चारागर की शक्ल में मुझको, खंज़र खंज़र लोग मिले

जानें क्यूँ फिर उस विधवा की फ़ाइल आगे बढ़ न सकी
यूँ तो काम कराने वाले, दफ्तर दफ्तर लोग मिले

शिक्षा , मज़हब, कल्चर का कुछ ज्ञान न था उनको, लेकिन
दूर बियाबानों में मुझको, बेहतर बेहतर लोग मिले

पिता स्व.श्री चंडी प्रसाद एवं माता श्रीमती सोमवती देव के पुत्र मनोज जी का जन्म 30 अप्रेल 1962 को झालू जिला बिजनौर उत्तर प्रदेश में हुआ. मनोज जी ने बी.एस.सी, एम्. ऐ(इकोनोमिक्स)., स्नातकोतर पत्रिकारिता, आर्युवेद रत्न, स्टडी इन होम्यो एंड बैच फ्लावर रेमेडीज जैसे विविध विषयों में शिक्षा ग्रहण की. स्कूल शिक्षा के समय से ही लेखन का ऐसा शौक लगा जो आजतक छूटा नहीं है बल्कि दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है. उनकी एक और पुस्तक प्रकाशन के दौर से गुज़र रही है जो जल्द ही उनके पाठकों में हाथ में होगी. छोटी बहर में जरा उनकी कलम का चमत्कार देखिये:

गीत जब ब्रह्मचारी हुए
दर्द के पाँव भारी हुए

मन किसे देखना है यहाँ
रूप के सब पुजारी हुए

नेह के बैंक से आज फिर
याद के चैक जारी हुए

छंद सी नायिका क्या मिली
सूर से वो बिहारी हुए

इस किताब की भूमिका में मनोज लिखते हैं "पिताजी के साथ शहरी माहौल से दूर ग्रामीण आँचल में मेरी किशोरावस्था बीती, जहाँ नदी थी, चाँद था, तितलियाँ थीं, फूल थे, पूरी मस्ती में इठलाती प्रकृति थी और मैं -बेहद भावुक किशोर जिसके मन में हर मौलिक सौन्दर्य के प्रति बला की आसक्ति थी." ये सौन्दर्य उनकी गजलों में स्पष्ट दिखाई देता है:-

किसने आज नदी के तट पर यौवन पुष्प बिखेरे हैं
सारा जंगल महक उठा है, संदल-संदल चौतरफा

बौराए मौसम के जुगनू दहक रहे हैं पलकों पर
अमराई में छनक उठी है, पायल पायल चौतरफा

नफ़रत बोने वालो सोचो, कैसी फ़सलें काटोगे
झुलस गए हैं माँ-बहनों के, आँचल आँचल चौतरफा

"हिंदी साहित्य निकेतन" बिजनौर द्वारा प्रकाशित इस किताब में मनोज जी की 68 ग़ज़लें हैं जो उन्होंने सन 2000 से पहले लिखी थीं लेकिन जो आज भी उतनी ही ताज़ा हैं. दरअसल शायरी कोई अखबार नहीं के बासी हो जाए. असली शायरी वो ही है जिसपर समय का असर न हो जिसे आप जब पढ़े ताज़ी लगे. इंसान की फितरत उसके दुःख, सुख और मुश्किलें बयाँ करती शायरी कभी पुरानी नहीं पड़ सकती ये ही कारण है के मिर्ज़ा ग़ालिब आज भी उतने ही चाव से पढ़े और सुने जाते हैं जितने उस समय पढ़े या सुने जाते थे .मुझे यकीन है के मनोज जी जो इन दिनों "मंथन फीचर्स" ( राष्ट्रिय स्तर पर प्रकाशित साप्ताहिक समाचार फीचर सेवा) के मुख्य संपादक हैं , इसके साथ साथ वो "शोध दिशा" ( समकालीन सृजन त्रैमासिकी) के संयुक्त संपादक और "शांति" ( आध्यात्मिक उत्थान की अंतरराष्ट्रिय द्वैमासिक पत्रिका) के संपादक कार्य में अति व्यस्त होने के बावजूद भी अपने मोबाइल फोन न.9457013570, 9319317089 पर आप जैसे सुधि पाठकों से प्राप्त बधाई स्वीकारने में देरी नहीं लगायेंगे. तो सोचते क्या हैं उठाइए अपना मोबाईल और मिलाइए मनोज जी को, यदि आप अधिक संकोची हैं तो उन्हें बधाई आप उनके इ-मेल manojabodh@gmail.com पर भी दे सकते हैं. चलते चलते आईये उनकी एक प्यारी सी ग़ज़ल के चंद अशआर भी पढ़ते चलें...

हादसों के दरमियाँ रहता हूँ मैं
फिर भी खुश हूँ, आज तक जिंदा हूँ मैं

भीड़ है चारों तरफ मेरे मगर
आके देखो किस कदर तनहा हूँ मैं

जिस्म पर मेरे कई हैं आवरण
कोई बतलाये मुझे कैसा हूँ मैं

पास आओ छू के तो देखो मुझे
गुलमोहर की छाँव में जलता हूँ मैं

उम्मीद है मनोज जी की इस किताब के अशआर आपको पसंद आये होंगे...आप इन्हें फिर से पढ़ें तब तक हम निकलते हैं आपके लिए एक और किताब की तलाश में...

Monday, January 17, 2011

लोग रह जाते हैं उसको देख कर हैरान से



चाहते हैं लौ लगाना आप गर भगवान से
प्‍यार करना सीखिये पहले हर इक इंसान से

खार के बदले में यारो खार देना सीख लो
गुल दिया करते हैं जो, वो लोग हैं नादान से

जब तलक उनको जरूरत थी मुझे अपना कहा
और उसके बाद फिर वो हो गए अनजान से

आजकल हैं लोग ऐसे क्यूँ जरा बतलाइये
सांस तो लेते हैं पर लगते हैं बस बेजान से,

एक दिन तन्हा वही पछताएंगे तुम देखना
तौलते रिश्‍तों को हैं जो फायदे नुकसान से


आप बेहतर है कि मेरे काम ही आएं नहीं
गर दबाना चाहते हैं बाद में एहसान से

बढ़ के कोई पांव छूता है बुजुर्गों के अगर
लोग रह जाते हैं उसको देख कर हैरान से

ढूंढते ही हल रहे हम उन सवालों का सदा
जो हमें लगते रहे हरदम बड़े आसान से

खेलने के गुर सिखाना तब तलक आसान है
जब तलक हो दूर ‘नीरज’ खेल के मैदान से

Monday, January 10, 2011

किताबों की दुनिया - 43

मुश्किलों की धूप भी जिनको रास आ गयी
रंग रूप उनके कुछ और भी निखर गए

प्यार कि न डोर थी कैसे बांधती भला
रिश्ते मोतियों से थे टूट कर बिखर गए

बात बहुत पुरानी है...ये ही कोई पांच छै साल पहले की, लेकिन लगता है जैसे अभी कल की हो. मेरा शायरी करने का शौक अभी “घुटरुन चलत रेणु तनु मंडित...” वाली स्तिथि में ही था. नेट पर शायरी के बारे में जहां से जो जानकारी मिलती सहेजता रहता. इसी दौरान हैदराबाद की शायरा मोना हैदराबादी से परिचय हुआ. मोना जी जब अपनी बेटी से मिलने पुणे आयीं तब मैंने उन्हें खोपोली आने का आग्रह किया जिसे उन्होंने मान भी लिया. उन्होंने बताया के ठाने में उनकी एक मित्र रहतीं हैं जो अच्छी शायरा हैं उन्हें भी क्यूँ न बुला लिया जाए. मोना जी ने उन्हें फोन किया और उन्होंने तुरंत हमारा न्योता स्वीकार कर लिया.

खोपोली स्टेशन पर रात आठ बजे ट्रेन से एक उम्र दराज़, सफ़ेद लेकिन करीने से कटे हुए बालों वाली और बेहद सलीके से उतरती महिला को देखते ही मैं समझ गया था के ये ही मोना जी की मित्रमरयम ग़ज़ाला ” हैं.

“मरयम आपा”जी हाँ मैं उन्हें इसी नाम से पुकारता हूँ , विलक्षण प्रतिभा की धनी महिला हैं. शायरी की उनकी अब तक आठ दस किताबें शाया हो चुकी हैं. आज हम उनकी किताब “वजूद का सहरा ” की चर्चा करेंगे.


सफर में खुशनुमा यादों का कोई कारवां रखना
बुजुर्गों की दुआ का धूप में इक सायबां रखना

भले सर पर सफेदी है, इरादों को जवां रखना
कलम में जो सियाही है “ग़ज़ाला” वो रवां रखना

भुलाने का तरीक़ा ये नहीं है अपने साथी को
जला देना खतों को और फिर दिल में धुआं रखना

मरयम आपा बहुत मजबूत इरादों वाली हैं इसलिए कैंसर जैसे घातक रोग से लड़ते हुए आप उन्हें मुंबई में हो रही लगभग सभी नशिस्तों में जोश के साथ शिरकत करते हुए देख सकते हैं. ठाने से बस या लोकल ट्रेन की यात्रा में तकलीफ पा कर भी मुस्कुराते हुए वो बुलाये जाने पर कहीं भी हो रही शायरी की महफ़िल में पहुँच जाती हैं और अपनी मौजूदगी से चार चाँद लगा देती हैं.

( मुंबई की एक नशिस्त में अपना कलाम पढ़ती हुई मरयम आपा )

चले चलो कि बस्तियों में नफरतों का है चलन
गली गली में मुफलिसी मकां मकां घुटन घुटन

उदास उदास शाम में धुआं धुआं चराग़ है
हमें तेरे ख्याल में मिली फक़त चुभन चुभन

दिलों में देश प्रेम की वो भावना नहीं रही
भले ही चीखते हों सब मेरा वतन वतन

कटे न जब तलक कपट न मैल मन का ही धुले
अज़ान भी फरेब है, फरेब है भजन भजन

आपा गुजराती हैं ,लेकिन हिंदी उर्दू मराठी और फ़ारसी भाषा का भी उन्हें ज्ञान है. मैंने नए साल पर जब उन्हें फोन किया तो बोलीं “अरे नीरज मैं बरोडा में आल इण्डिया लेखिका सम्मेलन में आई हुई हूँ, यहाँ लोगों ने मेरा गुजराती में कहा कलाम भी बहुत पसंद किया है “. उनकी बातों में छोटे बच्चे सा उल्ल्हास था. उम्र के सत्तर वें पड़ाव में भी उनमें अपने नाम के अनुरूप हिरनी सी कुलांचे मारने कि क्षमता दिखाई देती है.

कालेज कि पढाई से डिग्री तो मिली लेकिन
डिग्री के जो लायक हो वो काम नहीं मिलता

झूठे हैं सबक सारे मकतब में जो सीखे थे
हक राह पे चलने का ईनाम नहीं मिलता

हीरों से भी बढ़कर है मिटटी से भी सस्ता है
दिल बेचने जाओ तो फिर दाम नहीं मिलता

जब तक न “गज़ाला” तुम खुद को ही बदल डालो
अल्लाह नहीं मिलता और राम नहीं मिलता

मरयम आपा ने अग्रेज़ी और मनोविज्ञान विषयों में एम्.ऐ. किया है इसके अलावा एम्.एड, शिक्षण, डी.पी.एड साहित्य रत्न कि डिग्रियां भी उनके पास हैं. बरसों वो मुंबई के ख्याति प्राप्त कालेज में अंग्रेजी और मनोविज्ञान पढाती रहीं हैं. गज़ल गोई उनका पसंदीदा शगल है वो अक्सर मुझे हँसते हुए कहती हैं “जब तक मैं गज़ल कहती रहूंगी तब तक मुझे कुछ नहीं होने वाला.” ये बात सही भी है गज़ल के प्रति उनका जूनून ही उन्हें जिंदा और खुश मिजाज़ रखे हुए है.

मखमली डिबिया में टुकड़ा कांच का बिक जाएगा
चीथड़ों में एक हीरा है मगर देखेगा कौन

आओ मछली कि तरह मुझको तडपता देख लो
तीर तुमने ही चलाया है असर देखेगा कौन

साथ हँसने के लिए आ जायेंगे साथी सभी
भीगती तन्हाइयों में चश्मे तर देखेगा कौन

“वजूद का सेहरा “ किताब में मरयम आपा कि कुछ बेहतरीन ग़ज़लें संग्रहीत हैं, जिसका प्रत्येक शेर उनके निरंतर रियाज़ का प्रतिफल प्रतीत होता है. उनके अशआर में मानवीय संवेदनाएं और यथार्थ नज़र आता है . वो इंसानी हताशाओं और आशाओं की शायरा हैं. उनकी इस किताब को मासूम प्रकाशन १०३-बी, गोपाल अपार्टमेंट आनंद कोलीवाड़ा मुम्ब्रा जिला ठाने ने प्रकाशित किया है.

कामयाबी जब मिली तो खुद पे इतराए बहुत
अपनी नाकामी में देखा दोष क्यूँ तकदीर का

दूध डिब्बे का है और तालीम है कान्वेंट की
कैसे पाओगे असर बेटी में माँ के शीर का

अपने सुधि पाठकों से मेरा आग्रह है के अगर उन्हें इस किताब को हासिल करने में कोई परेशानी आ रही हो तो वो बे झिझक मरयम आपा से उनके मोबाइल न. 9819927369 पर बात कर पहले उन्हें इस लाजवाब शायरी की दाद दें और फिर इस किताब की प्राप्ति के लिए गुजारिश करें, मुझे उम्मीद ही नहीं बल्कि विश्वाश है के आप निराश नहीं होंगे. जैसी उनकी सोच है वैसी ही वो खुद भी हैं, उनकी कथनी करनी में मुझे कभी फर्क नज़र नहीं आया, उनकी ये खासियत ही उनकी मकबूलियत का कारण है.

जो अच्छा है कभी तारीफ़ वो खुद की नहीं करता
बुरे ही लोग खुद को हर घडी अच्छा दिखाते हैं

बड़े जो हैं वो छोटों का भी कद कर देते हैं ऊंचा
जो छोटे हैं सदा दूजों को वो बौना दिखाते हैं


(खोपोली में हुई काव्य संध्या में अपना कलाम सुनाती हुईं मरयम आपा)

Monday, January 3, 2011

रात में चाँद है

आप सब को नव वर्ष की शुभ कामनाएं


दोस्‍त सब जान से भी प्‍यारे हैं
जब तलक दूर वो हमारे हैं

जो भी चाहूं वहीँ से मिलता है
मॉं के हाथों में वो पिटारे हैं

मुस्‍कुराते हैं हम तो पी के इन्‍हें
आप कहते हैं अश्क खारे हैं

जीत का मोल पूछिए उनसे
बाजियां जो हमेशा हारे हैं

बाजुओं पर यकीन है जिनको
दूर उनसे कहां किनारे हैं

उसकी नज़रों के वार क्‍या कहिये
तीर तरकश के सब उतारे हैं


जिनमें शामिल नहीं हो तुम हमदम
वो नज़ारे भी क्‍या नज़ारे हैं


जिंदगी नाम उन पलों का है
तेरे सिमरन में जो गुजारे हैं

दिन अकेले ही काट लो ‘नीरज’
रात में चाँद है सितारे हैं