Monday, April 26, 2010

हर मौसम घूमने का मौसम है

(ये पोस्ट मेरे हम नाम भाई नीरज जाट जी की घुमक्कड़ी को समर्पित है)


कहीं पढ़ा था "घूमने का कोई मौसम नहीं होता, जब दिल करे तब घूमिये"...याने हर मौसम घूमने का मौसम है क्यूँ की हर मौसम का अपना आनंद है. मन में घूमने की ललक हो तो जेठ की धूप भी चांदनी सी लगती है. अक्सर लोग मौसम का इंतज़ार ही करते रह जाते हैं और घूमने का समय हाथ से निकल जाता है.

आप सोचेंगे क्या उल-जलूल बात की जा रही है, बाहर भयंकर गर्मी पड़ रही है और ये महाशय घूमने की बात कर रहे हैं. आपकी जानकारी के लिए बता दें के भाई हम बात ही नहीं करते घूमते भी हैं

अभी पिछले दिनों की ही बात है.अचानक बैठे ध्यान आया की हमारे घर के पास एक बहुत विशेष हिल स्टेशन है, जहाँ किसी भी प्रकार के वाहन के चलने पर प्रतिबन्ध है और जिसे हमने आजतक देखा भी नहीं है, तो क्यूँ ना वहां चला जाए? ...जी हाँ आप सही समझे हम "माथेरान" का जिक्र कर रहे हैं. साथ चलने के लिए बहुत से मित्रों से बात चीत की जिनमें से अधिकाँश मौसम, गर्मी, समय की कमी, बच्चों की पढाई और तबियत नासाज़ होने जैसे शाश्वत बहाने बना कर किनारा कर गए. एक मित्र जो निहायत शरीफ किस्म के हैं और हमारी किसी भी बात को नहीं टालते साथ चलने को तैयार हो गए.

नेरल स्टेशन से, जो हमारे घर से मात्र तीस की.मी. दूर है, एक छोटी सी खिलौना रेल गाडी माथेरान तक चलती है. अंग्रेजों के ज़माने से चली इस ट्रेन को कोई सौ साल हो चुके हैं. हमारे "माथेरान" जाने के कार्यक्रम के पीछे पहाड़ के अलावा इस ट्रेन की यात्रा का लोभ भी था. घर से सुबह छै बजे अपनी कार से चले और सात बजे तक नेरल स्टेशन पहुँच गए जहाँ से साढ़े सात की माथेरान जाने वाली पहली ट्रेन पकड़ ली, जिसका रिजर्वेशन पहले से ही करवा के रखा था. ड्राइवर को बोल दिया की भाई तुम दोपहर तक माथेरान में जहाँ तक कार जा सकती है वहां हमें लेने आ जाना. ट्रेन के कूपे में हम दो परिवार ही थे. कारण ये के छुट्टियाँ न होने की वजह से भीड़ अधिक नहीं थी और दूसरे मुंबई वाले ये सुबह की ट्रेन कम ही पकड़ते हैं क्यूँ की इसके लिए उन्हें अपना घर पांच बजे जो छोड़ना पड़ता है.

नेरल जंक्शन मुंबई से लगभग अस्सी की.मी. दूर है और यहाँ से पूना या दक्षिण की और जाने वाली गाड़ियाँ धडधडाती हुई गुज़रती रहती हैं. छोटी सी चार डिब्बों की टॉय ट्रेन जब नेरल स्टेशन से चली तो हम बिलकुल बच्चे बन गए...भूल गए के हमारे पोती(मिष्टी)-पोते(इक्षु) भी हैं...दरवाज़े के बाहर लटक लटक कर धीमी गति से चलती ट्रेन से फोटो खींचने लगे...शोर मचाने लगे... आज मैं इस पोस्ट के माध्यम से माथेरान यात्रा की उन्हीं फोटो से आपका परिचय करवा रहा हूँ...आप में से जो खोपोली के नाम से से मेरे यहाँ आने में कतराते रहे हैं वो कम से कम ये चित्र देख कर इस यात्रा का लुत्फ़ लेने जरूर आयेंगे.

सबसे पहले देखिये वो ट्रेन जो नेरल से आपको माथेरान तक ले जाएगी.



दो घंटों की यात्रा में ट्रेन कोई तीन सौ से अधिक बार बल खाती है.



मज़े की बात है इस छोटी सी यात्रा में दो स्टेशन भी हैं, पहला है जुम्मा पट्टी. जहाँ ऊपर से आने वाली ट्रेन को पास दिया जाता है. यहाँ आप चाय और नमकीन का लुत्फ़ उठा सकते हैं.


जुम्मा पट्टी के बाद असली चढाई शुरू होती है और ट्रेन का बल खाना भी बढ़ जाता है.



बीच बीच में सड़क भी हमारे साथ चलती है और कोई आठ दस बार पटरियों को क्रास भी करती है.



अभी साथ लाया नाश्ता ख़तम होता है के दूसरा स्टेशन आ जाता है , "वाटर पाइप" .



वाटर पाइप स्टेशन के बाद बाहर का दृश्य बदल जाता है...आप बहुत ऊंचे उठ जाते हैं....नीचे घाटी में मकानों से उठता धुआं और साथ चलती हरियाली आपका मन मोहने लगती है.



कुछ दृश्य तो सांस रोक कर देखने लायक मिलते हैं.



जैसे जैसे माथेरान पास आने लगता है बाहर की हरियाली बढती जाती है.


और फिर माथेरान से पहले का अंतिम स्टेशन "अमन लाज" आता है, अगर आप कार से या और किसी भी यांत्रिक वाहन से यात्रा कर रहे हैं तो आपको यहीं रोक दिया जायेगा. सिर्फ रेल ही यहाँ से आगे जाती है, वर्ना यहाँ से माथेरान जाने के लिए या तो आप अपने पाँव का सहारा लें या फिर घोड़े या पालकी का.



दो घंटे की दिलचस्प और यादगार यात्रा के बाद आ जाता है माथेरान स्टेशन .


पच्चीस रुपये का टैक्स भर कर फिर आप माथेरान में दाखिल होते हैं. यहाँ रुकने के लिए सैंकड़ों छोटे बड़े होटल हैं, खाने पीने के रेस्टुरेंट हैं और घूमने के लिए बीस से ऊपर जगह हैं. जैसा की मैंने पहले ही बताया यहाँ घूमने के लिए आपको कोई टैक्सी, बस या ऑटो नहीं मिलेगा. घोड़ों खच्चरों और पालकियों की भरमार मिलेगी. हमने बाहर निकल कर घोड़े किये. ज़िन्दगी में पहली बार जाना घुड सवारी का मज़ा क्या होता है. अपनी शादी में भी घोड़े पर ये सोच कर नहीं बैठे की क्या पता हमारे इस क्रांतिकारी कदम से प्रभावित हो कर , घोड़े पर बैठने जैसे पुराने रिवाज़ से लोग मुंह मोड़ लेंगे, ऐसा कुछ हुआ नहीं, लेकिन अब शादी के चौंतीस साल बाद घोड़े पर बैठने का औचित्य समझ में आया .

मैं आम इंसान की बात कर रहा हूँ, घुड सवारों की नहीं.शादी और घोड़े पर बैठने में एक समानता है. अगर आप पहली बार घोड़े पर बैठे हैं तो आपको बहुत आनंद आएगा रोमांच होगा और थोड़ी देर बाद जब घोडा अपने हिसाब से चलने लगेगा तो डर के मारे आपकी घिघ्घी बंध जाएगी आखिर उस पर से उतरने के बाद आपके जो अंग प्रत्यंगों में पीड़ा और जकड़न होगी वो कई दिन तक आपको न ढंग से बैठने देगी और न सोने. आप कहेंगे तौबा मेरी तौबा जो फिर से घोड़े पे बैठा तो.

शादी में भी ये ही कुछ होता है...शुरू शुरू में रोमांच आनंद और फिर बाद में वोही सब कुछ जो घोड़े पे बैठे रहने पर होता है...डर, दर्द और जकड़न. घोड़े पर से आपको उतरने की सुविधा है लेकिन शादी नाम के घोड़े से आपको आसानी से उतरने नहीं दिया जाता. आप हाय हाय करते बैठे रहते हैं.

हमने घोड़े वाले से बिनती की के हमें पूरा दिन नहीं घुमाये सिर्फ एक आध जगह पर ही ले जाये बस.

ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर घुड़सवारी का आनंद(?) उठाते हुए जब हम वहां की एकमात्र छोटी सी झील पर पहुंचे तो सारी थकान उतर गयी.




माथेरान देखने की यात्रा में बन्दर आपका साथ कभी नहीं छोड़ते...आपके साथ रहते हैं लेकिन तंग नहीं करते.




जब ऐसे दृश्य सामने हों तो जी करता है समय यहीं रुक जाए.



और सच में तब कितना भी बड़ा बोझ चाहे कन्धों पर हो या दिल में बोझ लगता ही नहीं...प्रकृति के नजदीक जाने पर ये करिश्मा आप भी देख सकते हैं.



हम तो उसी दिन वापस लौट आये लेकिन अगर आप माथेरान आना चाहते हैं तो कम से कम दो दिन वहां रुकें...देखें, घूमें, आनंद लें.एक जरूरी बात आपको इस छोटी टॉय ट्रेन का टिकट पहले से ही करवा लेना चाहिए क्यूँ की इसका टिकट बहुत आसानी से नहीं मिलता क्यूँ की भाई कम सीटें जो हैं. यूँ तो आप माथेरान कभी भी जा सकते हैं लेकिन जुलाई से सितम्बर तक के समय को छोड़ दें तो फिर कभी भी जाएँ वैसे इस मौसम का भी अपना आनंद है क्यूँ के इन दिनों भारी बरसात होती है लेकिन जुलाई से सितम्बर तक ये ट्रेन बंद रहती है. अक्तूबर में आप खूब हरियाली के अलावा इक्का दुक्का झरने भी देख सकते हैं. तो फिर कब आ रहे हैं इन दृश्यों का आनंद उठाने?

गाडी बुला रही है...सीटी बजा रही है...



{ये चित्र मेरे साधारण मोबाईल के दो मेगा पिक्सल वाले कैमरे से खींचे गए हैं...सोचिये यदि येही चित्र किसी डिजिटल कैमरे से खींचे गए होते तो कैसे लगते और जब आपकी आँख इन वास्तविक दृश्यों को त्रि-आयाम में देखेगी तो कैसा लगेगा? आप समझ रहे हैं न जो मैं कह रहा हूँ}


जो लोग किसी कारण वश चाह कर भी माथेरान यात्रा का लुत्फ़ नहीं उठा सकते उनके लिए विशेष तौर पर ये वीडिओ लगाया है , जिसे मैंने आप सब के लिए यू-टयूब से चुराया है वो भी बिना विडिओ मालिक की अनुमति लिए. इस उम्मीद के साथ के अगर मुझ पर कापी राईट उलंघन का आरोप लगाया जाता है जो आप मेरी मदद को आयेंगे. आयेंगे ना?

Monday, April 19, 2010

यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं



सब को अपना हाल सुनाना, ठीक नहीं
औरों के यूँ दर्द जगाना, ठीक नहीं

हम आँखों की भाषा भी पढ़ लेते हैं
हमको बच्चों सा फुसलाना, ठीक नहीं

ये चिंगारी दावानल बन सकती है
गर्म हवा में इसे उडाना, ठीक नहीं

बातों से जो मसले हल हो सकते हैं
उनके कारण बम बरसाना, ठीक नहीं

बच्चों को अपना बचपन तो जीने दो
यूँ बस्तों का बोझ बढ़ाना, ठीक नहीं

ज़िद पर अड़ने वालों को छोडो यारो
दीवारों से सर टकराना, ठीक नहीं

देने वाला घर बैठे भी देता है
दर दर हाथों को फैलाना, ठीक नहीं

सोते में ही ये मुफलिस मुस्काता है
'नीरज' इस को अभी जगाना, ठीक नहीं

(इस ग़ज़ल को,बिना छोटे भाई तिलक राज कपूर जी की मदद के, इस रूप में लाना मुमकिन नहीं था."धन्यवाद" शब्द उनके इस सहयोग के लिए बहुत छोटा है)

Monday, April 12, 2010

किताबों की दुनिया :27 / 2




अपनी पिछली पोस्ट में मैंने आपसे वादा किया था के मैं आपको अल्वी साहब की शीन काफ निजाम और नन्द किशोर जी द्वारा सम्पादित पुस्तक " उजाड़ दरख्तों पे आशियाने" में प्रकाशित लगभग चालीस नज्मों में से कुछ बानगी के तौर पर पढ्वाऊंगा...आप शायद भूल गए हों लेकिन मुझे अपना वादा याद रहा है. अल्वी साहब और उनकी इस किताब की जानकारी आप पिछली पोस्ट में ले ही चुके हैं इसलिए आपका वक्त बर्बाद किये बिना मैं उनकी सिर्फ पांच छोटी छोटी नज्में प्रस्तुत कर रहा हूँ...इसी से अंदाज़ा लगाईये की के बाकी की कैसी होंगी...और इस किताब को न खरीद कर आप साहित्य के कितने बड़े खजाने से वंचित हैं.


उम्मीद

एक पुराने हुजरे* के
अधखुले किवाड़ों से
झांकती है एक लड़की .
हुजरे* = कोठरी

इलाजे - ग़म
मिरी जाँ घर में बैठे ग़म न खाओ
उठो दरिया किनारे घूम आओ
बरहना-पा* ज़रा साहिल पे दौड़ो
ज़रा कूदो, ज़रा पानी में उछलो
उफ़क में डूबती कश्ती को देखो
ज़मीं क्यूँ गोल है, कुछ देर सोचो
किनारा चूमती मौजों से खेलो
कहाँ से आयीं हैं, चुपके से पूछो
दमकती सीपियों से जेब भर लो
चमकती रेत को हाथों में ले लो
कभी पानी किनारे पर उछालो
अगर खुश हो गए, घर लौट आओ
वगरना खामुशी में डूब जाओ !!
बरहना-पा* = नंगे पाँव

हादसा
लम्बी सड़क पर

दौड़ती हुई धुप
अचानक
एक पेड़ से टकराई
और टुकड़े-टुकड़े हो गयी

कौन

कभी दिल के अंधे कूएँ में
पड़ा चीखता है
कभी दौड़ते खून में
तैरता डूबता है
कभी हड्डियों की
सुरंगों में बत्ती जला के
यूँ ही घूमता है
कभी कान में आ के
चुपके से कहता है
तू अब भी जी रहा है
बड़ा बे हया है
मेरे जिस्म में कौन है ये
जो मुझसे खफा है


खुदा

घर की बेकार चीजों में रक्खी हुई
एक बेकार सी
लालटेन है !
कभी ऐसा होता है
बिजली चली जाय तो
ढूंढ कर उसको लाते हैं
बड़े ही चैन से जलाते हैं
और बिजली आते ही
बेकार चीजों में फैंक आते हैं !!

Monday, April 5, 2010

किताबों की दुनिया: 27

अगर तुझको फुर्सत नहीं तो ना आ मगर एक अच्छा नबी भेज दे
क़यामत के दिन खो ना जाएँ कहीं ये अच्छी घडी है, अभी भेज दे.

जिस शायर ने जब ये शेर कहा उसके सत्रह साल बाद अचानक इस शेर को अल्लाह के खिलाफ लिखा माना गया और उस शायर के खिलाफ फ़तवा जारी करते हुए उसे काफ़िर घोषित कर दिया. मैं जिस शायर का जिक्र कर रहा हूँ वो हैं अपनी आधुनिक सोच के ज़रिये उर्दू शायरी और साहित्य को बुलंदियों पर पहुँचाने वाले हर दिल अज़ीज़ शायर जनाब "मुहम्मद अल्वी" साहब और आज हम जिस किताब का जिक्र करने जा रहे हैं उसे बहुत मेहनत से सम्पादित किया है जनाब शीन काफ निजाम और नन्द किशोर आचार्य साहब ने जिसमें अल्वी साहब की बेहतरीन ग़ज़लें और नज्में शामिल की गयी हैं और जिसका शीर्षक है " उजाड़ दरख्तों पे आशियाने"


हुई रात मैं अपने अन्दर गिरा
मिरी आँख से फिर समंदर गिरा

गिराना ही है तो मिरी बात सुन
मैं मस्जिद गिराऊँ तू मंदिर गिरा

अल्वी साहब का जन्म १० अप्रैल १९२७ को अहमदाबाद में हुआ था. उन्होंने ने भले ही बहुत ऊंची तालीम हासिल नहीं की लेकिन शेर और नज़्म कहने का हुनर खूब सीखा. उस वक्त जब उर्दू ग़ज़ल हुस्नो इश्क शराब शबाब के तंग दायरे में छटपटा रही थी अल्वी साहब ने उसे नयी रौशनी दिखाई और खुली हवा में सांस लेने दी ...

उदास है दिन हंसा के देखें
ज़रा उसे गुदगुदा के देखें

नया ही मंज़र दिखाई देगा
अगर ये मंज़र हटा के देखें

हमें भी आता है मुस्कुराना
मगर किसे मुस्कुरा के देखें

अल्वी साहब की शायरी की खासियत है उसकी सादा बयानी लेकिन ऊपर से जो बात बहुत सीधी और सरल नज़र आती है गहरे में उतरें तो वो उतनी सादा और सरल होती नहीं. जीवन की गूढतम बातों को वो बहुत आसानी से कह जाते हैं. उन्होंने अपनी अधिकाँश ग़ज़लें छोटी बहर में कहीं हैं और ये हुनर बहुत मुश्किल से आता है:

कुछ तो इस दिल को सजा दी जाये
उसकी तस्वीर हटा दी जाये

ढूँढने में भी मज़ा आता है
कोई शै रख के भुला दी जाये

गुजरात उर्दू अकादमी, साहित्य अकादमी और ग़ालिब पुरूस्कार से सम्मानित अल्वी साहब अपनी शायरी में नए प्रतीकों, भाषा और लहजे के इस्तेमाल के कारण अपने सम कालीन शायरों में सबसे जुदा नज़र आते हैं. वो उर्दू शायरी की शास्त्रीय परंपरा में बंध कर नहीं कहते, उन्हें लीक पर चलना गवारा नहीं और वो अपनी राह खुद बना कर चलते हैं जों ऊबड़ खाबड़ होते हुए भी दिलचस्प है.

भाई मिरे घर साथ न ले
जंगल में डर साथ न ले

यादें पत्थर होती हैं
मूरख पत्थर साथ न ले

एक अकेला भाग निकल
सारा लश्कर साथ न ले

भला हो वाग्देवी प्रकाशन बीकानेर का जिन्होंने मात्र तीस रुपये कीमत की ये बेजोड़ किताब हम जैसे पाठकों के लिए बाज़ार में उतारी है.लगभग एक सौ बीस पन्नो में फैली अल्वी साहब की नब्बे ग़ज़लें और चालीस नज्में बार बार पढने लायक हैं

हर वक्त खिलते फूल की जानिब तका न कर
मुरझा के पत्तियों को बिखरते हुए भी देख

देखा न होगा तूने मगर इंतज़ार में
चलते हुए समय को ठहरते हुए भी देख

तारीफ़ सुन के दोस्त से 'अल्वी' तो खुश न हो
उस को तिरी बुराइयाँ करते हुए भी देख

श्री 'नन्द किशोर आचार्य' कहते हैं की मुहम्मद अल्वी की कहाँ ने उर्दू शायरी -ग़ज़ल और नज़्म दोनों को एक नया लहजा दिया है. यह नयी उर्दू कविता की एक प्रमाणिक आवाज़ है जिस की अनसुनी करना अपने को काव्यानुभव के एक विशिष्ट आस्वाद से वंचित रखना होगा.

अरे ये दिल और इतना खाली
कोई मुसीबत ही पाल रखिये

जहाँ कि बस तिलिस्म सा है
न टूट जाए ख्याल रखिये

तुड़ा मुड़ा है मगर खुदा है
इसे तो साहिब सँभाल रखिये

अब कोई एक आध अशआर हो तो गिनाऊँ, इस किताब में कोई पांचसौ के करीब शेर हैं...और हर शेर वाह वाह करने योग्य है...लेकिन सवाल ये है की इस खजाने में से कौनसा मोती छोड़े और किसे चुनें...इस लिए पन्ने पलटते वक्त जो ग़ज़ल सामने आई उसी में से एक आध शेर आपके लिए चुन लिए. आप ऐसा क्यूँ नहीं करते के वाग्देवी प्रकाशन वालों को मेल डाल कर इस किताब को मंगवा लेते और फिर आराम से इसे पढ़ते आनंद लेते?ये पोस्ट यहाँ ख़तम नहीं हुई है क्यूँ की इस किताब की चालीस नज्मों का जिक्र तो मैंने अभी तक किया ही नहीं है...वो नज्में छोटी छोटी हैं और ऐसी जैसी आपने शायद ही कहीं पढ़ीं हों...आप इंतज़ार कीजिये क्यूँ की इंतज़ार का फल भले ही मीठा न हो लेकिन लाजवाब यादगार नज्मों वाला होगा ये पक्का है...

मिलते हैं जल्द ही इस किताब की दूसरी कड़ी लेकर अगर आप ज्यादा उतावले हैं तो लिखिए मेल वाग्देवी प्रकाशन को इस पते पर: vagdevibooks@gmail.com या फिर एक फोन घुमाइए इस नंबर पर:0151-2242023 बस और फिर ये खज़ाना होगा आपका .

चलते चलते एक ग़ज़ल चंद शेर आपको और सुनाने को जी कर रहा है ताकि आपकी प्यास इस किताब को खरीदने के लिए जगे :

रोज़ अच्छे नहीं लगते आंसू
खास मौकों पे मज़ा देते हैं

हाय वो लोग जो देखे भी नहीं
याद आयें तो रुला देते हैं

आग अपने ही लगा सकते हैं
ग़ैर तो सिर्फ हवा देते हैं