Monday, November 18, 2013

आप भी तो अब पुराने हो गये




दूर होंठों से तराने हो गये 
हम भी आखिर को सयाने हो गये 

यूं ही रस्ते में नज़र उनसे मिली 
और हम यूं ही दिवाने हो गये 

दिल हमारा हो गया उनका पता 
हम भले ही बेठिकाने हो गये 

खा गई हमको भी दीमक उम्र की 
आप भी तो अब पुराने हो गये 

फिर से भड़की आग मज़हब की कहीं 
फिर हवाले आशियाने हो गये 

खिलखिला के हंस पड़े वो बेसबब 
बेसबब मौसम सुहाने हो गये 

आइये मिलकर चरागां फिर करें 
आंधियां गुजरे, ज़माने हो गये 

लौटकर वो आ गये हैं शहर में 
आशिकों के दिन सुहाने हो गये 

देखकर "नीरज" को वो मुस्का दिये 
बात इतनी थी, फसाने हो गये

Monday, November 4, 2013

किताबों कि दुनिया - 88


सभी पाठकों को दीपावली कि हार्दिक शुभकामनाएं

रिवायती ग़ज़लों की किसी किताब का जिक्र किये एक लम्बा अरसा बीत गया है . आप गौर करें तो पाएंगे कि पिछले कुछ सालों में ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में क्रांति सी आ गयी है .आज कि ग़ज़लें आम इंसान के सुख दुःख परेशानियों और जद्दोजेहद कि नुमाइंदगी करने लगीं हैं .ऐसे में रिवायती ग़ज़लें अपनी पहचान खोती जा रही हैं क्यूँ कि वो अब आम इंसान से नहीं जुड़ पातीं,  लेकिन साहब रिवायती ग़ज़लें पढ़ने का अपना लुत्फ़ है

सबसे तू रस्मो-राह करता जा
ग़ैर से भी निबाह करता जा

मैं दुआ ही दिया करूँगा तुझे
तू मुझे , गो , तबाह करता जा

मना करता है कौन जाने को
       दिल पै भी इक निगाह करता जा       

मैंने सोचा पाठक दिवाली के मूड में होंगे और उस मूड को रिवायती ग़ज़लें ही देर तक बखूबी कायम रख सकती हैं लिहाज़ा इस खास मौके पर आज किताबों कि दुनिया में जनाब माधो प्रसाद सक्सेना 'आज़ाद' लखनवी साहब की संकलित ग़ज़लों की  बेमिसाल किताब 'सहराई फूल " आपकी खिदमत में लेकर हाज़िर हुआ हूँ .


न जानो उसको आशिक़ जिस को मिट जाना नहीं आता
नहीं वह शमआ जिसके पास परवाना नहीं आता

इसे ज़िद है न जाएगा तुम्हारे आस्ताने में
तुम्हीं समझाओ दिल को, मुझको समझाना नहीं आता
आस्ताने : ठिकाना

जला कर शमअ तुर्बत पर,कहा ये नाज़ से उसने
अरे उठ मरने वाले तुझको जल जाना नहीं आता
तुर्बत : क़ब्र

भला वह हुस्न ही क्या हुस्न जिस पर दिल न माइल हो
नहीं वह दिल कि जिस दिल को उलझ जाना नहीं आता

'आज़ाद' लखनवी साहब का जन्म सन 1890 में लखनऊ में हुआ . अपने सत्तर वर्ष के जीवन काल में उन्होंने लगभग पांच सौ ग़ज़लें और नज़में कहीं जो उनके जीते जी पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित नहीं हो पायीं . सन 1961 में उनके इंतेकाल के लगभग साठ वर्षों बाद उनके नाती श्री अनिल चौधरी और अलवर के श्री राधे मोहन राय जी के सम्मिलित प्रयासों से उनमें से कुछ ग़ज़लें इस पुस्तक में प्रकाशित की गयीं हैं .   

ख़ुदा जाने मेरे दिल को हुआ क्या
बताओ तो सही तुमने कहा क्या

तेरी फ़ुर्क़त में जो दम तोड़ता हो
दुआ उसके लिए कैसी दवा क्या
फ़ुर्क़त :वियोग

मसल डाला जो चुटकी से मेरा दिल
तुम्हीं बोलो कि तुमको मिल गया क्या   

आज़ाद साहब अपनी रचनाओं को बहुत खूबसूरती से एक रजिस्टर में दर्ज़ किया करते थे और उम्मीद करते थे की किसी दिन उनका ये रजिस्टर एक किताब कि शक्ल में मंज़रे आम पर आएगा , लेकिन उनका सपना उनके सामने साकार नहीं हो पाया। आज़ाद साहब कि शायरी पढ़ते हुए आप किसी और ही दुनिया की सैर पर निकल जाते हैं . उनकी शायरी में विरह प्रेम पीड़ा और एक तरफ़ा मुहब्बत और उसके तमाम पहलुओं का जिक्र मिलता है। इश्के-हक़ीक़ी में सरोबार उनकी चंद ग़ज़लें तो लाजवाब हैं।

कोई बतलाय यह मुझको कि परवाने पै क्या गुज़री
बड़ा अरमान था मरने का मर जाने पै क्या गुज़री

शराबे-हुस्न वो आँखों से तो अपनी पिलाते हैं
कोई पूछे कि साग़र और पैमाने पै क्या गुज़री

चमन में चार तिनकों से नशेमन को बनाया था
फ़लक से बिजलियों के फिर चमक जाने पै क्या गुज़री

अगर आप खालिस उर्दू में रचित शायरी पसंद करते हैं और उर्दू लिपि पढ़ नहीं पाते तो ये ये किताब आपके लिए किसी वरदान से कम नहीं। उनकी हर ग़ज़ल में उर्दू के खूबसूरत लफ़्ज़ों कि भरमार है जो हिंदी पाठकों के लिए समझना थोड़ी मुश्किल जरूर लेकिन उनके आसान मानी भी साथ दिए होने की वजह से पढ़ी और समझी जा सकती है. वैसे भी ये उस ज़माने कि शायरी है जब इंसान सीधे सरल ईमानदार और दूसरों कि मदद को हमेशा तत्पर रहा करते थे। आज़ाद साहब रेलवे में स्टेशन मास्टर थे और अपनी सेवा काल के दौरान बनारस मिर्ज़ापुर फ़ैज़ाबाद आदि स्थानो पर तैनात रहे . वो जहाँ रहे दूसरों कि मदद करते रहे और अपने घर में नियमित रूप से शायरी कि महफिले सजाते रहे।

सख्त-जानी से मेरी तंग आ गया जल्लाद भी
कुंद हो कर रह गया है खंजरे-फ़ौलाद भी 

यह कोई शिकवा नहीं है पूछना है इस क़दर
तुम नहीं आये तो क्यूँ आई तुम्हारी याद भी

शौक़ से ज़ुल्मों -सितम करते रहो आज़ाद पर
लेकिन इतना चाहिए सुनते रहो फ़रियाद भी

इस किताब में श्री राधे मोहन राय साहब का ग़ज़ल और आज़ाद साहब के व्यक्तित्व पर लिखा लेख दिलचस्प और पढ़ने लायक है .ग़ज़ल क्या है कैसे कही जाती है और क्यूँ इतनी लोकप्रिय है जैसे विषयों पर उन्होंने से विस्तार से चर्चा की है। आज़ाद साहब के कलाम के लिए वो लिखते हैं " आज़ाद लखनवी कि ग़ज़ल उपमा-रूपक कि दृष्टि से ही नहीं, विषय वास्तु और शैली कि दृष्टि से भी पूरी तरह रवायती ग़ज़ल कही जा सकती है, उनका कलाम निहायत पाकीज़ा है।

न छुरी है न तो खंज़र है न तलवार है इश्क
आप ही ज़ख्म है और आप ही वार है इश्क

हर जगह एक नये भेस में आता है नज़र
है अजब ढंग,कहीं गुल है कहीं ख़ार है इश्क

इश्क ही इश्क है बस दोनों जहाँ में रौशन
इश्क क्या चीज़ है इक मतलाए -अनवार है इश्क
मतलाए-अनवार: प्रकाश पुंज 

अयन प्रकाशन, महरौली, दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह में किमाम के पान और तम्बाकू,हुक्के और पतंग बाज़ी के शौकीन जनाब आज़ाद साहब कि चुनिंदा अस्सी ग़ज़लें और ग्यारह नज़में शामिल हैं। किताब प्राप्ति के लिए आप जैसा कि मैं हर बताता हूँ आप अयन प्रकाशन के श्री भूपल सूद साहब जो ग़ज़ब के इंसान हैं से उनके मोबाइल न. 9818988613 पर संपर्क करें. 

चलते चलते लीजिये पढ़िए आज़ाद साहब की एक ग़ज़ल के कुछ और शेर

हमें क़त्ल करके वो पछता रहे हैं
हम उनकी नदामत से शरमा रहे हैं
नदामत::पश्चाताप

तेरी याद में और तसव्वुर में तेरे
बहरहाल दिल अपना बहला रहे हैं

क़फ़स में भी है हमको यादे नशेमन
परेशान तिनके नज़र आ रहे हैं
कफस: कैद , यादे नशेमन : घौंसले की याद