Monday, January 29, 2018

किताबों की दुनिया -162

तुम समुन्दर हो न समझोगे मिरी मजबूरियां 
एक दरिया क्या करे पानी उतर जाने के बाद 

आएगी चेहरे पे रौनक़ खिल उठेगी ज़िन्दगी 
ग़म के आईने में थोड़ा सज-सँवर जाने के बाद 

मुन्तज़िर आँखों में भर जाती है किरनों की चमक 
सुब्ह बन जाती है हर शब् मेरे घर आने के बाद 

भारत के पूर्वी प्रदेश बिहार के पश्चिम भाग में गंगा नदी के तट पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है। नाम है बक्सर जो पटना से ये ही कोई 75 कि.मी. दूर होगा। इसी बक्सर में ऋषि विश्वामित्र का आश्रम था और यहीं राम- लक्ष्मण ने उनसे शिक्षण-प्रशिक्षण लिया। यहीं पत्थर में परिवर्तित अहिल्या का राम ने उद्धार किया था। इसी जगह का एक शायर है जो पत्थर की तरह के मृतप्राय शब्दों को अपनी विलक्षण कलम से छू कर प्राणवान कर देता है। अपने में मस्त इस अद्भुत शायर को बहुत कम लोग शायद जानते हों। उनसे मेरा परिचय भी इस किताब से हुआ है जिसकी बात हम आज करेंगे।

मिरे नसीब में लिक्खी नहीं है तन्हाई 
जो ढूढ़ना तो हज़ारों में ढूंढ़ना मुझको 

मैं दुश्मनों के बहुत ही क़रीब रहता हूँ 
समझ के सोच के यारों में ढूंढना मुझको 

फ़क़त गुलों की हिफ़ाज़त का काम ही है मिरा
चमन में जाना तो ख़ारों में ढूंढना मुझको 

सही कहा है इस शायर ने ,इन्हें ढूंढना आसान काम नहीं। जिस जगह आज के बहुत से शायर आसानी से मिल जाते हैं वहां ये हज़रत नहीं मिलते। आज के युग का ये शायर न किसी धड़े से जुड़ा है न फेसबुक या ट्वीटर से न कोई इसकी बहुत बड़ी फैन फॉलोइंग नज़र आती है और न किसी अखबार पत्रिका में चर्चा। लेकिन फिर भी बिहार का शायद ही कोई सच्चा साहित्य प्रेमी होगा जिसने इनका नाम न सुना हो और इनके अपने क्षेत्र में तो इनका नाम बहुत ही आदर से लिया जाता है. मेरा इशारा हमारे आज के शायर जनाब "कुमार नयन" से है जिनकी किताब 'दयारे-हयात में" की बात हम करेंगे।


इतने थे जब क़रीब तो फिर क्यों मिरे रफ़ीक़ 
तुमको तलाशने में ज़माना लगा मुझे 

हर सू यहाँ पे दर्द के ही फूल हैं खिले 
रुकने का इसलिए ये ठिकाना लगा मुझे 

मेरी सलामती की दुआ दुश्मनों ने की 
सचमुच ये उनका मुझको हराना लगा मुझे 

बढ़ी हुई दाढ़ी उलझे रूखे बाल कबीर सी सोच और फक्कड़ तबियत के मालिक 'कुमार नयन' आपको बक्सर की सड़कें पैदल नापते कभी भी दिखाई दे सकते हैं। 5 जनवरी 1955 को डुमरांव में कुमार नयन का जन्म हुआ। उनके पिता गोपाल जी केशरी थे। दादा जी सीताराम केशरी जिनको पूरा बिहार स्वतंत्रता सेनानी के नाम से जानता था। नयन जी ने दसवीं तक की पढ़ाई हाई स्कूल डुमरांव से की। 1969 में इंटर पास किया। डीके कालेज से बीए, फिर एलएलबी व अंतत: हिन्दी से एमए किया। इस बीच 1975 में ही वे डुमरांव से बक्सर आ गए। यहां शहर में उनकी ननिहाल थी। यहीं बस गए।

सबकुछ है तेरे पास मेरे पास कुछ नहीं 
अब तेरे-मेरे बीच कोई फ़ासला नहीं 

मैं जी रहा हूँ कम नहीं इतना मिरे लिए 
सर पर मिरे ख़ुदा क़सम कोई ख़ुदा नहीं

मुन्सिफ़ बने हो तुम मिरे तो सोच लो ज़रा 
इन्साफ़ मांगने चला हूँ फ़ैसला नहीं 

आज बक्सर शहर की दलित बस्ती खलासी मुहल्ला में इनका आशियाना है। जीवट इतने हैं कि तब से लेकर आजतक शहर की सड़कों पर पैदल चलते आ रहें हैं। खुद के पास साइकल भी नहीं। नतीजा अब शहर की सड़के भी इनको पहचानने लगी हैं। इस तरह का इंसान खुद्दार किस्म का होता है और ऐसे इंसान की सोच भी सबसे अलग होती है ,ये अपने लिए नहीं समाज के लिए काम करता है। एमए व एलएलबी करने के बाद भी उन्होंने कैरियर के रूप में साहित्यक व सामाजिक क्षेत्र को चुना। 1987 में भोज थियेटर लोक रंगमंच की स्थापना की। इसके माध्यम से उन्होंने भिखारी ठाकुर के नाटकों एवं अन्य लोक संस्कृतियों का मंचन कर अलग ही पहचान बना ली।

दूर तक मंज़िल न कोई मरहला इस राह में 
मील का पत्थर नहीं फिर भी सफ़र अच्छा लगा 

आपने भी फाड़ डाली अपनी सारी अर्ज़ियाँ 
आप भी खुद्दार हैं यह जान कर अच्छा लगा 

हैं वो ही दीवारो-दर आँगन वो ही बिस्तर वो ही 
शख़्स इक आया तो मुद्दत बाद घर अच्छा लगा 

पढाई के बाद 1981 में कोलकत्ता से प्रकाशित होने वाले रविवार के लिए लिखना प्रारंभ किया। इस बीच अंग्रेजी की पत्रिका ब्लिट्ज में लिखना प्रारंभ किया। 1986 में नवभारत टाइम्स से जुड़े, इस क्रम में टाइम्स आफ इंडिया के लिए भी लिखते रहे। यह सफर 1991 में थम गया। लंबे समय अंतराल के बाद वर्ष 2004 में झारखंड के प्रमुख दैनिक समाचारपत्र प्रभात खबर में सीनियर सब एडीटर के तौर पर काम करना प्रारंभ किया। यह सफर भी साल दो साल से अधिक नहीं चला। इसके बाद 08 से 09 के बीच युद्धरत आम आदमी विशेषांक में काम किया।

मिले कभी भी तो करता है बात फूलों की 
वो एक शख्स जो पत्थर के घर में रहता है

निकल न पाऊं कभी उसकी सोच से बाहर 
कोई ख़याल हो उसकी डगर में रहता है 

तुम्हीं कहो न कि मैं क्या करूँ तुम्हारे लिए 
मिरा तो दिल ये अगर और मगर में रहता है 

1991 में पत्रकारिता से साथ छूटा तो मुंबई चले गए। वहां दो भोजपुरी फिल्मों के लिए गीत लिखे। एक के लिए डायलाग व पूरी कहानी लिखी। 93 में हमेशा के लिए माया नगरी को छोड़ दिया। शहर में सामाजिकी जीवन से जुड़े। 94-95 में अंजोर के सेक्रेटरी बने। 1999 में त्यागपत्र दे दिया। जरुरतें परेशान करती रहीं। वकालत शुरु कर दी। हाई कोर्ट के वरीय अधिवक्ता व्यासमुनी सिंह की नजर उनपर पड़ी। वे उन्हें पटना ले गए। 2002 में उनका निधन हो गया। तब नयन जी ने वकालत भी छोड़ दी.
"नयन" जी की एक ग़ज़ल के ये शेर लगता है उन्होंने अपने पर ही कहे हैं :

अजीब शख़्स है वो जो तबाह-हाल रहा 
तमाम उम्र मगर फिर भी बा-कमाल रहा 

मिला न वक़्त कभी ख़ुद से मिलने का ही मुझे 
कि सामने तो मिरे आपका सवाल रहा 

मुझे मुआफ़ करो ऐ मिरे अज़ीज़ ग़मों 
मैं सोचने में कोई शे'र बेख़याल रहा 

हालात ऐसे बने की नयन कलम से जुदा नहीं हो सके। रास्ते कई बदले पर कलम खींच कर अपने पास ले आती रही। यह बात अब उनको भी समझ में आने लगी। जीवन के सफर में जो लिखा था। उसे सहेजने लगे। 1993 में पहला कविता संग्रह पांव कटे बिम्ब प्रकाशित हुआ था। उसने रफ्तार पकड़ी। अब तक कुल पांच पुस्तकें आई हैं। जिनमें आग बरसाते हैं शजर (गजल संग्रह), दयारे हयात (गजल संग्रह), एहसास आदि प्रमुख हैं। उनकी अगली रचना "सोंचती हैं औरतें", प्रकाशित होने वाली है।
वर्ष 2017 फरवरी को पटना में आयोजित पुस्तक मेले में उनकी गजल की पुस्तक "दयारे हयात" सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक रही।

बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं 
वतन में अपने ही अब हम नहीं क्या

ख़ुशी से आज भी क्यों जी रहा हूँ 
मुझे ग़म होने का कुछ ग़म नहीं क्या 

लहू क्यों खौलता रहता है हर दम 
सुकूँ का अब कोई मौसम नहीं क्या 

कुमार नयन साहब को ढेरों सम्मान और पुरूस्कार मिले हैं जिनमें बिहार भोजपुरी अकादमी सम्मान , कथा हंस पुरूस्कार, निराला सम्मान ,और ग़ालिब सम्मान उल्लेखनीय हैं।पिछले साल याने 2017 में , पटना में 30 मार्च को राजभाषा की ओर से शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी की उपस्थिति में शीर्ष कवि केदारनाथ सिंह ने उन्हें राष्ट्रकवि दिनकर पुरस्कार प्रदान किया. साथ ही कुमार नयन को पुरस्कार की राशि एक लाख रुपए भी प्रदान की गयी। कुमार नयन साहब की शायरी में कई रंग हैं जिन्हें इस पोस्ट में समाया नहीं जा सकता , मैंने सिर्फ उनकी चंद ग़ज़लों के अशआर ही आप तक पहुंचाए हैं ,

मिरे घर में कहानी है अभी तक
मिरे बच्चों की नानी है अभी तक 

घड़ा मिटटी का पत्तों की चटाई
बुजुर्गों की निशानी है अभी तक 

कोई गिरधर यहाँ हो या नहीं हो 
मगर मीरा दीवानी है अभी तक 

वहां उम्मीद कैसे छोड़ दूँ मैं 
जहाँ आँखों में पानी है अभी तक

राधाकृष्ण प्रकाशन 7 /31 अंसारी मार्ग ,दरियागंज नै दिल्ली से प्रकाशित इस किताब में नयन जी की लगभग 111 ग़ज़लें संग्रहित हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप राधाकृष्ण प्रकाशन की वेब साईट www.radhakrishnaprkashan.com पर जा कर इस किताब का आर्डर कर सकते या फिर आप कुमार नयन साहब को इस पते पर ई-मेल kumarnayan.bxr@gmail.com करें या फिर उन्हें 9430271604 पर फोन कर के बधाई देते हुए पुस्तक प्राप्ति का रास्ता पूछें।
आखिर में चलते चलते आईये नयन जी की एक और ग़ज़ल के शेर आपको पढ़वाता हूँ :

मिरा दुश्मन लगा मुझसे भी बेहतर 
मैं उसके दिल के जब अंदर गया तो 

मिरे बच्चों से होंगी मेरी बातें 
किसी दिन वक़्त पर मैं घर गया तो

मैं ख़ाली ट्यूब हूँ पहिये का लेकिन
हवा बनकर तू मुझमें भर गया तो 

मन कर रहा है कि एक और ग़ज़ल के शेर आप तक पहुंचा दूँ ,मुझे बहुत अच्छे लगे उम्मीद है आप भी इन्हें पढ़ कर वाह करेंगे , देखिये न छोटी बहर में नयन जी ने क्या हुनर दिखाया है :

वहां पाखण्ड चल नहीं सकता 
जहाँ कोई कबीर ज़िंदा है 

इक पियादा हो जब तलक ज़िंदा 
तो समझना वज़ीर ज़िंदा है 

तेरी दुनिया में मर गयी होगी 
मेरी दुनिया में हीर ज़िंदा है

Monday, January 22, 2018

किताबों की दुनिया -161

माफ़ कर दो जो ख़ता मुझसे हुई है अब तक 
क्या ज़रूरी है उसे हर्फ़े बयानी कह दूँ 

ये ख़ता मुझसे हुई उसको जो चाहा मैंने 
जो ख़ता उसने करी वो मेहरबानी कह दूँ 

ये सबब है मेरे जीने का तो बरसों 'सागर' 
आज उन यादों को कैसे मैं पुरानी कह दूँ 

शायद आपको पता होगा कि आज़ादी से पहले उर्दू सरकारी जुबां हुआ करती थी ,सारे सरकारी फ़रमान उर्दू में आया करते थे ,अदालत की जुबां तो बरसों तक उर्दू रही। सिनेमा के गाने और संवाद ख़ालिस उर्दू में लिखे जाते थे हर मजहब के लोग उर्दू बोलते समझते थे। देश के अधिकतर अख़बार और रिसाले या तो उर्दू में छपते थे या अंग्रेजी में ,लेकिन जब से किसी साज़िश के तहत इस शीरीं ज़बान को एक खास मजहब के साथ जोड़ दिया गया तब से इस ज़बान को ज़बरदस्त नुक़सान हुआ और ये हाशिये पर चली गयी । अब फिर से इसे पटरी पर लाने के लिए सेमिनार आयोजित किये जा रहे हैं जश्न मनाये जा रहे हैं ,मुझे नहीं पता कि इस से उर्दू को फायदा हो रहा है या संयोजकों को।

इक उम्र गुज़ारी थी बस हमने अज़ाबों में 
मैं पढता रहा जीवन को यूँ ही किताबों में 

जीने का सलीका तो अहबाब सीखा देंगे 
इज़हार मुहब्बत का मिलता है गुलाबों में 

चुप चाप करो ख़िदमत तहरीर अदब 'सागर' 
कुछ मोल नहीं दुनिया के झूठे ख़िताबों में 

उर्दू ऐसी ज़बान है जिसे सीखने से ज़िन्दगी में तहज़ीब और सलीक़ा अपने आप आ जाता है। जिस दिन हम इस ज़बान को किसी धर्म विशेष की न मानते हुए अपनाएंगे उस दिन से इसकी वापसी बिना किसी सेमिनार या जश्न मनाने से हो जाएगी। हमारे आज के शायर जनाब " सागर सियालकोटी उर्फ़ हिन्दराज भगत " साहब को उर्दू से उतनी ही मुहब्बत है जितनी शायद कभी मजनूँ को लैला से रही होगी। सागर साहब की शायरी पढ़ते वक्त ये बात साफ़ हो जाती है कि उर्दू ज़बान के इस्तेमाल से किसी भी मज़हब का इंसान बेहतरीन शायरी कर सकता है। आज हम उनकी निहायत ही खूबसूरत किताब "एहतिज़ाज़-ए-ग़ज़ल" की बात करेंगे जिसकी पंच लाइन है "सुराही जाम को झुक कर ही मिलती है : ग़ज़ल कोई भी हो 'सागर' मज़ा देगी। तो आईये मज़े की शुरुआत करते हैं : 


ग़लत को ठीक कहना तो कभी अच्छा नहीं होता 
सही शिकवा शिकायत हो ये निस्बत में ज़रूरी है 

ये तिनके का सहारा डूबने वाले को काफ़ी है 
किसी को हौसला देना मुसीबत में जरूरी है 

मिरा किरदार ही 'सागर' निशानी है बुजुर्गों की 
अदब से पेश आयें हम अदावत में ज़रूरी है 

18 जनवरी 1951 को लुधियाना में जन्मे सागर साहब की उर्दू ज़बान और शायरी से दिलचस्पी उनके पिता जनाब करतार चंद जी की वज़ह से हुई। घर के अदबी माहौल से ये दिलचस्पी जूनून में तब्दील होती चली गयी और उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों से शेर कहना शुरू कर दिया। कॉलेज की मेगज़ीन में उनके कलाम गाहे बगाहे छपते रहे।साथ पढ़ने वाले दोस्तों और उस्ताद लोगों ने उनके कलाम को खूब पसंद किया। कालेज के बाद उन्होंने इंडियन ओवरसीज़ बैंक में नौकरी की और वहीँ से मैनेजर के पद से 2011 में रिटायरमेंट लिया। नौकरी के दौरान उन्हें जब भी थोड़ी बहुत फुर्सत मिलती वो लिखने पढ़ने बैठ जाते। ऊपर वाले की मेहरबानी से उन्हें जीवन साथी के रूप में निर्मल जी मिल गयीं जिन्होंने न सिर्फ उनके इस शौक की सराहा बल्कि हर कदम पर हौसला अफजाही भी की।

कभी लैला से पूछा था मुहब्बत चीज़ है कैसी 
कहा उसने ख़ुदा की ये इबादत ही इबादत है 

कहीं दंगे कहीं रिश्वत कहीं जिन्सी मसाइल हैं 
हकूमत में सभी अंधे सियासत ही सियासत है 

तुम्हारे पास जज़्बा है हकूमत को बदलने का 
सही इन्सान को चुन लो करामत ही करामत है 

सागर साहब ने शायरी की तालीम मरहूम जनाब याकूब मसीही सलाम लुधियानवी से हासिल की और सं 2000 से आप जनाब नामी नादरी साहब की सरपरस्ती में शेर कह रहे हैं। नादरी साहब की रहनुमाई में उनके दो ग़ज़ल संग्रह "एहसास" सं 2004 में और "आवाज़ें" सं 2013 में शाया हो कर मकबूलियत हासिल कर चुके हैं। " एहतिज़ाज़-ए-ग़ज़ल" याने ग़ज़ल की ख़ूबसूरती ,उनका तीसरा ग़ज़ल संग्रह है जो 2017 के शुरुआत में शाया हुआ है।सागर साहब ने अपने तीनों ग़ज़ल संग्रह "साहिर लुध्यानवी" साहब के इस शेर से मुत्तासिर हो कर लिखे हैं " दुनियां ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक़्ल में : जो कुछ मुझे दिया वही लौटा रहा हूँ मैं "

परिंदे को हवा पत्ता शजर भी जानता है 
जो राही थक के बैठा है सफ़र भी जानता है 

बशर साहिल पे जो भी घर बनाता है यकीनन 
वो तूफानों से लड़ने का हुनर भी जानता है

मुहब्बत में कहाँ अन्जाम की परवाह किसी को
मरीज़े इश्क़ तेशे का असर भी जानता है 

सागर साहब के शेर सच्चे हैं क्यूंकि वो ज़िन्दगी की तल्ख़ सच्चाइयों से गुज़र कर कहे गए हैं। उन्होंने ज़िन्दगी में जो देखा सुना और भोगा है वो ही अशआर में पिरो दिया है इसलिए उनके शेर पढ़ने वाले को आपबीती-जगबीती का अहसास भी करवाते हैं।हो सकता है आपको उनके शेर खुरदरे सपाट और तल्ख़ लगें क्यूंकि सच्चाई बिना मुलम्मे के होती है। नींव के पत्थरों की तरह जिनमें नक्काशी नहीं होती पर ईमारत को मजबूती से थामने की शक्ति होती है। हर तरफ रियाकारी ,क़तल-ओ-ग़ारत ,बढ़ती बेरोज़गारी और इन्सानियत की कमी के बीच मुलायम घुमावदार और मीठी बातें करना एक ईंमानदार शायर के लिए मुमकिन नहीं.

खिलौना सब का दिल बहला नहीं सकता मगर फिर भी 
वो बूढ़ा है खिलौने के लिए फिर भी मचलता है 

जिसे मालूम है सब कुछ वही ख़ामोश है लेकिन 
जिसे कुछ भी नहीं आता वही ज्यादा उछलता है

किसी के इश्क़ में 'सागर' क़दम ये सोच कर रखना 
ये वो जंगल यहाँ से कोई वापस कब निकलता है 

मैं 'सागर' साहब की इस बात से पूरी तरह इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ कि "बड़े से बड़ा शायर भी फ़िक्री तौर पर कुछ भी नया नहीं कह सकता क्यूंकि खुदा की इस क़ायनात में तमाम ख्याल पहले से मौजूद हैं " लेकिन फिर भी 'सागर' साहब ने अपनी तरह से कुछ नया कहने की कोशिश जरूर की है। बेहतरीन तरन्नुम के मालिक 'सागर' साहब मुशायरों में शिरकत नहीं करते ,मेरे ये पूछने पर कि "क्यों ?" उन्होंने बेबाक अंदाज़ में जवाब दिया "क्यूंकि नीरज जी कोई हमें बुलाता नहीं और हम बिन बुलाये कहीं जाते नहीं " उन्हें कोई इसलिए नहीं बुलाता कि वो किसी धड़े से नहीं जुड़े हुए हैं और उन्हें अपनी ख़ुद्दारी बहुत प्यारी है।
आज के इस दौर में जहाँ शायरी के नाम पर कुछ लोग बाजार सजा कर बैठे हैं, कुछ लोग मठाधीश बने बैठे हैं और कुछ लोग एक गुट बना लेते हैं वहीँ सागर साहब जैसे लोग भी हैं जो एकला चालो रे की तर्ज़ पर शायरी सिर्फ शायरी की खातिर कर रहे हैं। अदब की ख़ामोशी से ख़िदमत करने वाले सागर साहब जैसे इंसान बड़ी मुश्किल से मिलते हैं , मेरे दिल में उन लोगों के लिए बहुत आदर है जिनकी सोच कबीर दास जी की उस सोच से मेल खाती जिसे उन्होंने अपने एक दोहे में यूँ व्यक्त किया है :" .कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर"
मज़ाहिब कब सिखाते हैं किसी से बैर तकरारी 
अगर फ़िरक़ा परस्ती है तो फिर लड़ना जरूरी है 

अदब का काम लोगों को तो बस बेदार करना है 
जो कर पायें न तहरीरें तो फिर जलना जरूरी है 

अदीबों में सियासत बढ़ गई एजाज़ पाने की 
यही हालत रही 'सागर' तो फिर बचना जरूरी है 

सागर साहब की इस किताब को ' साहित्य कलश पब्लिकेशन' पटियाला ने प्रकाशित किया है, इसकी प्राप्ति के लिए आप उन्हें 9872888174 पर संपर्क कर सकते हैं या फिर sahitykalash@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। जैसा मैं हमेशा कहता आया हूँ बड़ा अच्छा हो अगर आप सागर साहब को इस किताब के लिए मुबारकबाद देते हुए उन्हें 9876865957 पर कॉल करें। यकीन मानिये उनकी आवाज़ में उनकी ग़ज़ल सुनना एक ऐसा अनुभव है जिस से आप बार बार गुज़रना चाहेंगे। अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले पेश हैं सागर साहब की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर :

आपका ख़त संभाल कर रख्खा 
और शिकवा निकाल कर रख्खा 

कब कहा था के वो पराया है 
सांप उसने जो पाल कर रख्खा 

फाश पर्दा कहीं ना हो 'सागर' 
जाल रिश्तों पे डाल कर रख्खा

Monday, January 15, 2018

किताबों की दुनिया -160

(ये मेरे ब्लॉग की चारसौ वीं (400th) पोस्ट है)

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अपना हर अंदाज़ आँखों को तरोताज़ा लगा
कितने दिन के बाद मुझको आईना अच्छा लगा

सारा आराईश का सामां मेज़ पर सोता रहा
और चेहरा जगमगाता जागता, हँसता लगा
आराईश :सजावट

मलगजे कपड़ों पे उस दिन किस ग़ज़ब की आब थी
सारे दिन का काम उस दिन किस क़दर हल्का लगा

मैं तो अपने आपको उस दिन बहुत अच्छी लगी
वो जो थक कर देर से आया उसे कैसा लगा

आदाब !! मैं ही इन अशआर की शायरा हूँ और आज मैं अपनी बात आपसे खुद करने वाली हूँ, चूँकि मुझे हिंदी लिखनी नहीं आती इसलिए टाइपिंग के लिए नीरज की मदद ले रही हूँ। नीरज ने बहुत से मशहूर और अनजान शायरों का तआर्रुफ़ आपसे करवाया है अब इस सिलसिले को आगे बढ़ाने के इरादे से जब उन्होंने मेरी किताब  उठाई तो मैंने कहा आप ज़हमत मत कीजिये और मुझे खुद अपनी बात ख़ुद कहने दीजिये क्यूंकि आप अतिरेक से काम लेंगे और ये बात मुझे गवारा नहीं होगी। मुझे नहीं पता कि जो मैं कह रही हूँ नीरज वही सब लिख रहे हैं क्योंकि मुझे हिंदी पढ़नी भी नहीं आती लेकिन मुझे नीरज की ईमानदारी पर पूरा भरोसा है,आगे अल्लाह जाने।

हर ख़ार इनायत था हर संग सिला था
उस राह में हर ज़ख़्म हमें राहनुमा था
राहनुमा : पथ प्रदर्शक

उन आँखों से क्यों सुबह का सूरज है गुरेज़ाँ
जिन आँखों ने रातों में सितारों को चुना था
गुरेज़ाँ =बचना 

क्यों घिर के अब आये हैं ये बादल ये घटायें 
हमने तो तुझे देर हुई याद किया था 

आप सोचते होंगे कि मैं हूँ कौन ,बताती हूँ, बताने के लिए ही तो आपसे गुफ़्तगू कर रही हूँ लेकिन पहले मैं खुद तो ये तय करूँ कि मैं हिंदुस्तानी हूँ या पाकिस्तानी क्यूंकि मैं पैदा तो 14 मई 1937 में दख्खन हैदराबाद में हुई जो हिंदुस्तान में है और जब पैदाइश के 10 साल बाद देश का बंटवारा हुआ तो मेरा परिवार कराँची चला गया जो पाकिस्तान में है। तो यूँ समझें कि मैं पैदाइशी हिंदुस्तानी हूँ लेकिन निवासी पाकिस्तान की हूँ। मुझ पर भले ही पाकिस्तानी नागरिक होने का ठप्पा लगा है लेकिन मैं हक़ीक़त में इस खूबसूरत दुनिया की निवासी हूँ। इस दुनिया के हर इक कोने में रहने वाले लोग मेरे अपने हैं ,उनके दुःख दर्द तकलीफ़ें परेशानियां खुशियाँ सब मेरी हैं। मैं सोचती हूँ शायर का कोई वतन नहीं होता ,पूरी दुनिया उसकी होती है। मैंने दुनिया में होने वाली हर अच्छी बुरी घटनाओं पर अपनी कलम चलाई है.

जुदाईयां तो ये माना बड़ी क़यादत हैं
रफ़ाक़तों में भी दुःख किस क़दर हैं क्या कहिये
रफ़ाक़त: दोस्ती

हिकायते-ग़मे-दुनिया तवील थी कह दी
हिकायते-ग़मे-दिल मुख़्तसर है क्या कहिये
हिकायते-ग़मे- दुनिया :सांसारिक दुखों की कहानी, तवील : लम्बी , हिकायते-ग़मे-दिल : दिल के दुखों की कहानी

मजाले-दीद नहीं हसरते-नज़ारा ही सही
ये सिलसिला भी बहुत मोतबर है क्या कहिये
मजाले-दीद : देखने का साहस , हसरते-नज़ारा : देखने की इच्छा , मोतबर : विश्वसनीय

मेरा नाम "ज़ोहरा निगाह" है , शायद आपमें से बहुतों ने मेरा नाम नहीं सुना होगा मैं वैसे भी अब बहुत पुरानी हो चुकी हूँ आज के दौर में जहाँ लोग कल की बात भूल जाते हैं वहां मुझ जैसी नाचीज़ को याद रखना मुमकिन भी नहीं है। मेरे पिता सिविल सर्वेंट थे और उनका साहित्य, खास तौर से काव्य से गहरा लगाव था। हमारा परिवार प्रगतिशील विचारधारा वाला बुद्धि जीवियों का परिवार है। मेरी बड़ी बहन सुरैय्या बाजी बहुत प्रसिद्ध लेखिका थीं उनके लिखे नाटक बहुत चर्चित हुए ,मेरा बड़ा भाई अनवर मसूद पाकिस्तानी टीवी का एक जाना पहचाना नाम है ,उसे शायद आप लोगों ने जरूर देखा सुना होगा। मेरा छोटा भाई अहमद मसूद सरकारी महकमे में बहुत ऊँचे ओहदे पर रहा। मेरी शादी माजिद अली से हुई जो सिविल सर्वेंट थे और जिनकी रूचि सूफी काव्य में है। ये तो हुई मेरे परिवार की बात, अब बात करती हूँ पहले अपनी शायरी की और साथ साथ अपनी पहली किताब " शाम का पहला तारा " की जिस पर नीरज लिखने वाले थे लेकिन मेरे कहने पर जो अब सिर्फ टाइपिंग का काम कर रहे हैं :


ये क्या सितम है कोई रंगो-बू न पहचाने 
बहार में भी रहे बंद तेरे मैख़ाने 

तिरि निगाह की जुम्बिश में अब भी शामिल हैं 
मिरि हयात के कुछ मुख़्तसर से अफ़साने 

जो सुन सको तो ये दास्ताँ तुम्हारी है 
हज़ार बार जताया मगर नहीं माने 

शायरी मैंने 10-11साल की उम्र से ही शुरू कर दी थी। मेरी माँ ने, जिन्होंने मेरे वालिद के 1949 में दुनिया ऐ फ़ानी से रुखसत होने के बाद हम चारों भाई बहनों की बड़ी हिम्मत से परवरिश की और किसी बात की कमी नहीं महसूस होने दी थी , मेरी बहुत हौसला अफ़ज़ाही की। सबसे पहले मैंने अपने स्कूल की प्रिंसिपल के लन्दन तबादले पर नज़्म कही थी जिसे सुन कर मेरी एक टीचर ने मेरा नाम शहर में होने वाले ख़्वातीनो के मुशायरे में भेज दिया। लगभग 12-13 बरस की उम्र में मैंने अपना पहला मुशायरा पढ़ा। उस वक्त लड़कियों के ग़ज़ल लिखने को अच्छी बात नहीं माना जाता था क्यूंकि तब ग़ज़लें अधिकतर तवायफ़ें कहा करती थीं। मुझसे पहले मुझसे 13 साल बड़ी "अदा ज़ाफ़री" ही ग़ज़लें कहा करती थीं। खैर !! एक बार हुआ यूँ कि 1953 - 54 में जब मैं महज़ 16 -17 बरस की थी , हिंदुस्तान में होने वाले वाले डी सी एम् के मुशायरे में शिरकत करने के लिए मुझे दिल्ली से बुलावा आया। मैं डरते डरते गयी। मुशायरा के.एन.काटजू साहब की सदारत में हुआ जिसमें जिगर मुरादाबादी , फ़िराक़ गोरखपुरी, सरदार ज़ाफ़री , मज़रूह सुल्तानपुरी और कैफ़ी आज़मी जैसे कद्दावर शायरों ने शिरकत की थी. काटजू साहब को मेरी शायरी बहुत पसंद आयी और उन्होंने इसका जिक्र अगले दिन पंडित जवाहर लाल जी से किया। पंडित नेहरू ने मुझे सुनने की इच्छा ज़ाहिर की। अगले दिन रात दस बजे सब कामों से फ़ारिग हो कर पंडित नेहरू काटजू साहब के यहाँ तशरीफ़ लाये और मुझे एक घंटे तक बैठ कर सुना। किसी शायरा के लिए इस से बढ़ कर ख़ुशी की बात और क्या हो सकती है? आज के दौर में ये बात एक सपना लगती है .बताइये आज किस वज़ीर-ऐ-आज़म के पास इस काम के लिए इतनी फ़ुरसत है ?

नहीं नहीं हमें अब तेरी जुस्तजू भी नहीं 
तुझे भी भूल गए हम तिरि ख़ुशी के लिए 

कहाँ के इश्को-मुहब्बत किधर के हिज्रो विसाल 
अभी तो लोग तरसते हैं ज़िन्दगी के लिए 

जहाने-नौ का तसव्वुर, हयाते नौ का ख्याल 
बड़े फ़रेब दिए तुमने बंदगी के लिए 

मैं खुशकिस्मत हूँ कि मुझे जिगर साहब और फैज़ अहमद फैज़ साहब जैसे शायरों की कुर्बत हासिल हुई। जिगर साहब जब कभी भी पाकिस्तान आ कर मुझसे मिलते तो 10 रु बतौर ईनाम अता किया करते। वो तरन्नुम के बादशाह थे और कहा करते थे कि तरन्नुम कभी लफ़्ज़ों पर हावी नहीं होना चाहिए। फैज़ साहब कहते थे कि लफ्ज़ का इस्तेमाल शायरी की सबसे अहम् बात होती है। लफ्ज़ तो वो ही होते हैं जिसे हम एक दूसरे से बात करने में बरतते हैं शायर उन्ही लफ़्ज़ों को आगे पीछे कर अपनी शायरी में इस तरह मोती सा पिरो देता है कि वो जगमगाने लगते हैं और उनके अलग ही मआनी निकल आते हैं। जिसने ये हुनर सीख लिया वही कामयाब शायर होता है।

खूब है साहिबे महफ़िल की अदा
कोई बोला तो बुरा मान गए 

उस जगह अक्ल ने धोके खाये 
जिस जगह दिल तेरे फ़रमान गए 

तेरी एक एक अदा पहचानी 
अपनी एक-एक ख़ता मान गए 

कोई धड़कन है न आंसू न उमंग 
वक़्त के साथ ये तूफ़ान गए 

अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि आप सं 1950 से लिख रही हैं और अभी तक आपके कुल जमा 3 मजमुए पहला "शाम का पहला तारा " दूसरा "वर्क" और तीसरा "फ़िराक़" ही शाया हुए हैं, ऐसा क्यों ? तो मैं कहती हूँ कि ये ही बहुत हैं। शायरी क्या है ?कुछ तो नेचर की तरफ़ से आपको गिफ़्ट है कि आप अल्फ़ाज़ की तुकबंदी कर लेते हैं ,उसमें वज़्न पैदा कर लेते हैं और उसके बाद आप उसको जोड़ लेते हैं। आप समझते हैं कि आपने कुछ लिखा है जिसमें तरन्नुम है एक मीटर है अगर ये काम आपको आता है तो फिर ये काम आपके लिए बहुत आसान है आप जब चाहें जितना चाहें लिख सकते हैं लेकिन सवाल ये है कि सबसे बड़ा नक्काद मैं समझती हूँ कि शायर खुद होता है इसलिए कि वो अपने शेर को खुद जांचता है परखता है कि ये शेर उसने अच्छा कहा है उसके दिल को लगा है या उसने कोई भर्ती के लफ्ज़ उसमें डाल दिए हैं इस तरह से उसकी कतर ब्योंत जो होती है न वो बहुत ज्यादा करनी पड़ती है और जो ऐसा करता है वोही बड़ा शायर बन पाता है। जिगर साहब, फ़िराक़ साहब, फ़ैज़ साहब को यही सब करते मैंने देखा है. ये सब अपने अशआर के साथ मेहनत करते थे। ज्यादा लिखना जरूरी नहीं होता ज्यादा पढ़ना जरूरी होता है मैं भी पढ़ती हूँ खूब पढ़ती हूँ और चाहती हूँ कि लिखने से पहले आप दूसरों को पढ़ने की आदत डालें।

वक़्त की फ़ज़ाओं पर कौन हो सका हाकिम 
कितने चाँद चमके थे कितने चाँद गहनाये 

इशरते-मोहब्बत के ज़ख़्म रह गए बाक़ी 
तल्ख़ि-ऐ-ज़माना को कोई कैसे समझाये 
इशरते-मोहब्बत =प्रेम का सुख 

मंज़िलो ! कहाँ हो तुम आओ अब क़दम चूमो 
आज हम ज़माने को साथ अपने ले आये 

आप ज़िन्दगी में कोई पेशा इख़्तियार कर लें चित्रकार बनें, संगीतकार बनें, डाक्टर, इंजिनियर, वक़ील या सरकारी मुलाज़िम बनें अगर आप थोड़ा बहुत अपने क्लासिक के साथ दिलचस्पी रखते हैं तो वो आपको तहज़ीब के संवारने में मदद देती है। फैज़ साहब कहते थे कि अच्छे अदब की एक निशानी ये भी है कि उसमें अपने पिछले ज़माने की इको जिसे सदाए बाज़गश्त कहते हैं आनी चाहिए। मैं फुर्सत के लम्हों में पुराना क्लासिकल साहित्य पढ़ती हूँ ,और ऐसा करना मुझे अच्छा लगता है।

बैठे बैठे कैसा दिल घबरा जाता है 
जाने वालों का जाना याद आ जाता है 

दफ्तर मन्सब दोनों ज़हन को खा लेते हैं 
घर वालों की किस्मत में तन रह जाता है
मन्सब =ओहदा 

अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है 
कोई आ जाए तो वक्त गुजर जाता है 

हज़ारों बातें हैं जो आपसे करने को दिल कर रहा है लेकिन नीरज की लगातार टाइप करती उँगलियाँ थक कर मुझे चुप रहने का इशारा कर रही हैं। आपको ये बता दूँ कि ये किताब जिसमें मेरी लगभग 40 ग़ज़लें और उतनी ही नज़्में हैं को राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली ने सन 2010 में शाया किया था, इसे आप अमेजन से आन लाइन मंगवा सकते हैं । मेरे पास तो इसकी कोई प्रति भी नहीं है।
मुझे अनेक देशों में शायरी पढ़ने का मौका मिला है लेकिन मेरा मन हमेशा हिंदुस्तान आ कर अपनी शायरी सुनाने को करता है।यूँ तो मुझे पाकिस्तान के प्रेजिडेंट के हाथों "प्राइड ऑफ परफॉरमेंस " अवार्ड मिल चुका लेकिन मेरा सबसे बड़ा अवार्ड मेरी शायरी के चाहने वाले प्रसंशकों की बेपनाह मोहब्बत है। अब मैं चलती हूँ और नीरज से गुज़ारिश करती हूँ कि मेरी एक ग़ज़ल के चंद शेर आप तक पहुंचा कर आराम करें। इंशाअल्लाह फिर मिलेंगे -ख़ुदा हाफिज !!

ये उदासी ये फैलते साए 
हम तुझे याद करके पछताए 

मिल गया सुकूँ निगाहों को 
की तमन्ना तो अश्क भर आये 

हम जो पहुंचे तो रहगुज़र ही न थी 
तुम जो आये तो मंज़िलें लाये 

 ( दोस्तों ज़ोहरा निग़ाह साहिबा तो चली गयीं लेकिन मेरी इल्तिज़ा है कि अगर वक्त मिले तो उनकी 3 नज़्में एक जिसमें कोख़ ही में मार दी गयी लड़की की पुकार है " मैं बच गयी माँ ", दूसरी में बांग्ला देश में फौजियों द्वारा किये गए रेप का जिक्र है " भेजो नबी जी बरकतें " और तीसरी जिसमें युद्ध के बाद बर्बाद हुए अफगानिस्तान के बच्चे का जिक्र है " कागज़ के जहाज " यू ट्यूब पर सुनें और देखें कि कैसे बेहद साधारण लफ्ज़ ऐसी इमेजरी पेश करते हैं कि आँखें भर आती हैं। ज़ोहरा जी ने तो इस किताब में छपी ग़ज़लों में से कुछ के शेर आप तक पहुंचाए , मैं आपको उनके कुछ फुटकर शेर पढ़वा कर विदा लेता हूँ और निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में :

 भूले अगर तुझे तो कहाँ जाएँ क्या करें 
हर रहगुजर में तेरे गुजरने का हुस्न है 
*** 
उसने आहिस्ता से ज़ोहरा कह दिया, दिल खिल उठा 
आज से इस नाम की खुशबू में बस जायेंगे हम 
*** 
कड़े सफर में मुझको छोड़ देने वाला हमसफ़र 
बिछड़ते वक़्त अपने साथ सारी धूप ले गया
*** 
कब तक जां को ख़ाक करोगे कितने अश्क़ बहाओगे 
इतने महँगे दामों आख़िर कितना क़र्ज़ चुकाओगे
*** 
तुमने बात कह डाली कोई भी न पहचाना
हमने बात सोची थी बन गए हैं अफ़साने
*** 
यही मत समझना तुम्हीं ज़िन्दगी हो 
 बहुत दिन अकेले भी हमने गुज़ारे 
*** 
कौन जाने तिरा अंदाज़े-नज़र क्या हो जाए 
दिल धड़कता है तो दुनिया को ख़बर होती है )

Monday, January 8, 2018

किताबों की दुनिया -159

कल रात गुदगुदा गई यादों की उँगलियाँ
दिल पे मेरे वो भरती रही नर्म चुटकियाँ

झोंका हवा का आयेगा कर जायेगा उदास
इस डर से खोलते नहीं यादों की खिड़कियाँ

मैं सोचता हूँ तुझको ही सोचा करूँ मगर
इक शै पे कैसे ठहरें ख्यालों की तितलियाँ

जिगर साहब ने फ़रमाया था के शेर इतना आसान कहो कि सुनने वाला कहे के ये तो मैं भी कह सकता हूँ लेकिन जब कहने वाला कहने बैठे तो कह न पाये। ये बात हमारे आज के शायर डा. प्रेम भंडारी जी , जिनकी ग़ज़लों की किताब "खुशबू-रंग,सदा के संग" की हम बात करेंगे, पर पूरी तरह सच साबित होती है। प्रेम जी कोई एलोपैथी या होम्योपैथी के डाक्टर नहीं हैं, उन्होंने ये पदवी संगीत में पी.एच.डी करके प्राप्त की है.


 तुम समंदर ही सही मैं भी तो इक दरिया हूँ 
मेरी बाहों में किसी रोज़ सिमट कर देखो 

तुम अगर मेरी तरह मुझको परखना चाहो 
मेरे साये की तरह मुझसे लिपट कर देखो 

कौन है कैसा यहाँ जान सकोगे तुम भी 
जिस जगह तुम हो वहां से कभी हट कर देखो 

उदयपुर, राजस्थान में 23 सितम्बर 1949 को श्री दलपत सिंह भंडारी के पुत्र के रूप में श्री प्रेम भंडारी जी का जन्म हुआ। बचपन से ही उनका रुझान संगीत की और था। उनके इस शौक को हवा दी उनकी माता श्रीमती दरियाव बाई कंवर जी ने। उन्होंने ही प्रेम जी को सब्र के सबक के साथ सबका शुक्रिया अदा करना और किसी से शिकायत नहीं करना भी सिखाया। प्रेम जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कंवरपाड़ा हायर सेकेंडरी स्कूल से पूरी की। संगीत से अगाध प्रेम होने की वजह से उन्होंने 1976 में संगीत से एम.ए किया और ग़ज़ल गायकी विषय पर 1991 में पी.एच.डी। "हिंदुस्तानी संगीत में ग़ज़ल गायकी " विषय पर प्रकाशित किया गया उनका शोध ग्रंथ देश विदेश के सभी संगीत एवं ग़ज़ल के उस्तादों द्वारा खूब सराहा गया। आज भी इसे इस विषय के सन्दर्भ ग्रंथ के रूप में ख्याति प्राप्त है।

ठीक से जाना, जल्दी आना, याद भी करना, भूल न जाना 
रुख़्सत करते वक़्त वो भीगी आँख से क्या-क्या कहती है 

आओ इक दूजे से होकर दूर ज़रा हम भी देखें 
रूहों को नज़दीक, सुना है जिस्म की दूरी करती है 

सोच-विचार तज़र्बा तो हर चीज़ में नुक्स निकलेगा 
बच्चे बन कर देखो हर शै कितनी अच्छी लगती है 

लगभग 15-16 की उम्र से ही प्रेम जी ने अपनी ग़ज़ल गायकी को सार्वजानिक मंचो से पेश करना शुरू कर दिया था। दूसरों की ग़ज़लों को गाते गाते वो अपने ख्यालों को भी सुर में ढालने लगे, इस कोशिश को लोगों ने बहुत सराहा। लोगों से मिले प्रोत्साहन के बाद से प्रेम जी ने शायरी को गंभीरता से लेना शुरू किया। सबसे पहले उन्होंने जनाब खुर्शीद नवाब साहब से उर्दू सीखनी शुरू की। खुर्शीद साहब ने शुरू के शेरों को सुनकर उनकी हौसला अफ़ज़ाई भी की। जैसे जैसे प्रेम जी का लेखन आगे बढ़ा उनको उस्ताद शायरों की रहनुमाई भी हासिल होने लगी जिनमें जनाब कैफ़ भोपाली और जनाब जमील कुरैशी का नाम प्रमुख है।

इश्क ने आँख से अश्कों की रवानी लेली 
जो समंदर थे कभी दश्त के मंज़र निकले 

था निगाहों का वो धोका के ख़ता मेरी थी 
फूल समझे थे जिन्हें बरता तो पत्थर निकले 

ख़ौफ़ ये था कि कहीं ज़िन्दगी पहचान न ले 
आख़री वक़्त में जो मुंह को छुपा कर निकले 

ग़ज़ल गायकी में डॉक्टरेट करने के दौरान ही प्रेमजी की ग़ज़लों का पहला मजमुआ सन 1990 में "झील किनारे तनहा चाँद " मन्ज़रे आम पर आ गया। ग़ज़ल के इस मजमूए ने धूम मचा दी और उन्हें बेहतरीन गायक के साथ साथ लाजवाब शायर भी कहा जाने लगा। इस मजमूए को डा.जमील जलिबी, बलराज कोमल, शहाब सरमदी , डा. गोपी चंद नारंग ,वाली आसी, कैसर-उल-जाफ़री ,डा.मुख़्तार शमीम और नौशाद अली जैसे अदीबों ने जी भर के सराहा। इस सराहना से प्रेम जी के ग़ज़ल लेखन का सिलसिला जोर पकड़ गया नतीजतन सन 2003 में उनकी ग़ज़लों का दूसरा मजमुआ मन्ज़रे आम पर आ गया , आज हम उसी मजमुए की ही तो बात कर रहे हैं।

इक उम्र अपने आप में, मैं देवता रहा 
मेरा ग़रूर टूटा तो इंसान हो गया

ऐसा समा गया है वो मेरे वजूद में 
यूँ लग रहा है उसकी मैं पहचान हो गया 

जिस्मों की आग के परे इक आग और है 
तुझसे मिला तो सोच के हैरान हो गया

प्रेम साहब ने ग़ज़ल गायकी और लेखन के साथ साथ सुखाड़िया विश्वविद्यालय में बरसों अध्यापन के बाद वहां के संगीत विभाग के अध्यक्ष के पद पर कार्य किया है 2009 में सेवा निवृत होने के बावजूद उनमें सीखने और सिखाने का ज़ज़्बा ज्यूँ का त्यूं है। उनके बहुत से शिष्यों ने गायकी के क्षेत्र में बहुत मकबूलियत हासिल की है। संगीत में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें मेवाड़ फिल्म अकेडमी द्वारा "किंग ऑफ़ ग़ज़ल " के ख़िताब से सन 1984 में नवाज़ गया था इसके अलावा 1994 में राजस्थान उर्दू अकेडमी द्वारा , 2001 में मीरा संगीत सुधाकर सम्मान ,2002 में 'संगीत राज " सम्मान, 2002 में ही तैमूर सोसाइटी द्वारा ग़ालिब अवार्ड और 2004 में कलकत्ता में 'सुर नंदन अवार्ड " से सम्मानित किया जा चुका का है।

सच का ज़हर लबों से उगलना पड़ा मुझे
फिर यूँ हुआ सलीब पर चढ़ना पड़ा मुझे 

शंकर बना के लोग मुझे पूजते रहे 
मजबूरियों में ज़हर निगलना पड़ा मुझे 

मैं वो चराग़ हूँ के अँधेरे ज़हान में 
शब् की कहूँ क्या दिनमें भी जलना पड़ा मुझे

यूँ तो ग़ज़ल गायकी के लिए भारत और पाकिस्तान में एक से बढ़ कर एक नामवर गायक हुए हैं जिनमें मेहदी हसन ,गुलाम अली ,जगजीत सिंह आदि बहुत प्रसिद्ध हैं लेकिन प्रेम जी इन सब से अलग हैं क्यूंकि वो सिर्फ ग़ज़ल गायक ही नहीं हैं बल्कि एक मकबूल शायर भी हैं उन्होंने दूसरों की शायरी के साथ साथ अपनी शायरी को भी सुरों में ढाला है। वो सार्वजिनक मंचो पर कभी एक गायक तो कभी एक शायर की हैसियत से शिरकत करते हैं। भारत के अलावा विदेशों में भी उनकी शायरी और गायन के प्रशंसकों की कमी नहीं है।

दिल से दिल की बात हुई तो होंठों से क्या कहना है 
काग़ज़ पर होठों को रख दें फिर खत में क्या लिखना है 

पतझड़ के आते ही सारे साथी उनसे रूठ गए 
अगली रुत तक अब पेड़ों को तनहा तनहा रहना है 

कभी कभी बरतन टकराएं घर में अच्छा लगता है 
मुझको इससे ज्यादा तुझसे और नहीं कुछ कहना है 

एक ज़माना था जब कितने ज़ेवर पहने रहती थी 
मोती जैसा इक आंसू ही अब आँखों का गहना है 

मृदु भाषी ,मिलनसार आत्म प्रशंसा से दूर और हमेशा दूसरों की सहायताकरने को तत्पर प्रेम जी की शायरी पढ़ते हुए अब आपको भी जिगर साहब की उस बात से इत्तेफ़ाक़ हो गया होगा जिसका जिक्र मैंने शुरू में किया था। उनकी किताब का हर शेर निहायत सादगी से कहा गया है इसीलिए सीधा दिल पे असर करता है और ये ही उनकी मकबूलियत का कारण भी है। प्रेम जी के संगीत निर्देशन में उनकी ग़ज़ल को जगजीत सिंह साहब ने गाया है और ये बात किसी भी लिहाज़ से छोटी नहीं है। उनकी शायरी की जुबान ख़ालिस हिंदुस्तानी जुबान है इसलिए हिंदी और उर्दू जानने वालों को समान रूप से पसंद आती है। ग़ज़ल और ग़ज़ल गायन प्रेम जी की ज़िन्दगी का अहम् हिस्सा है।

काँटों की तासीर लिए क्यों 
फूलों जैसे लोग मिले थे

 प्यास बुझाना खेल नहीं था 
यूँ तो दरिया पाँव तले थे

शाम हुई तो सूरज सोचे 
सारा दिन बेकार जले थे 

इस किताब की सभी 115 ग़ज़लें हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में प्रकाशित की गयी हैं। ऐसा नहीं है कि एक पृष्ठ पर हिंदी में ग़ज़ल छपी हो और उसके सामने वाले पृष्ठ पर उर्दू में बल्कि सभी हिंदी की ग़ज़लें एक साथ और उर्दू की भी एक साथ छपी हैं जैसे किसी ने उर्दू और हिंदी में छपी अलग अलग किताबों को एक जिल्द में बांध दिया हो। इस किताब को पश्चिमी क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र उदयपुर एवं तामीर सोसाइटी उदयपुर द्वारा प्रकाशित किया गया हैहालाँकि उर्दू में पढ़ने वाले इसका इ-बुक संस्करण रेख़्ता की साइट पर ऑन लाइन पढ़ सकते हैं। ग़ज़लें और फुटकर शेर भी रेख़्ता की साइट पर उपलब्ध हैं.

 साँस मेरी जब अंदर से बाहर की जानिब आती है 
 और तो क्या कुछ उम्र का हिस्सा साथ में लेकर जाती है

जैसा भी हो अपना घर तो अपना घर ही होता है 
औरों के बिस्तर पे यूँ भी नींद कहाँ आ पाती है 

बचपन झरना ,नदी जवानी, सागर जैसी उम्र पकी 
एक समय के बाद ये सच है गहराई आ जाती है 

इस किताब की प्राप्ति जो रास्ता मुझे मालूम है वो एक ही है कि आप प्रेम भंडारी जी को उनकी खूबसूरत ग़ज़लों के लिए बधाई देते हुए उनके मोबाईल न 9414158358 पर बात करें और किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। मुझे तो ये किताब भाई विकास गुप्ता जी के माध्यम से मिली जो इंटरनेट पर उर्दू की सबसे बड़ी साइट "रेख़्ता" के आफिस में काम करते हैं और उर्दू शायरी से बेहद मोहब्बत करते हैं।
आपसे विदा लेने से पहले पढ़िए प्रेम जी की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर :

क्या हासिल है शम्मा जला कर 
परवाने को राख बना कर 

मैं तो सब कुछ भूल चूका हूँ 
तू भूले तो बात बराबर 

दीवारों की तन्हाई को
दूर करूँ तस्वीर लगा कर

Monday, January 1, 2018

किताबों की दुनिया -158

इबादतों के तरफ़दार बच के चलते हैं 
किसी फ़क़ीर की राहों में गुल बिछा कर देख 

ये आदमी है ,रिवाजों में घुल के रहता है 
न हो यकीं तो समंदर से बूँद उठा कर देख 

तनाव सर पे चढ़ा हो तो बचपने में उतर 
खुद अपने हाथों से पानी को छपछपा कर देख 

आज किताबों की दुनिया श्रृंखला में जिस किताब का जिक्र हम करने जा रहे हैं वो अब तक इस श्रृंखला में आयी सभी किताबों से अलग है। ये एक अनूठी किताब है। ग़ज़ल जैसा कि आप सभी जानते ही हैं अनेक भाषाओँ में लिखी जा रही है और उन्हीं भाषाओँ में किताबें प्रकाशित भी हो रही हैं जैसे उर्दू ,हिंदी ,पंजाबी ,गुजराती , सिंधी आदि का तो सब को पता ही है लेकिन ब्रज भाषा में ग़ज़ल की कोई किताब प्रकाशित हुई है -ये बात मेरी जानकारी में नहीं, हो सकता है कि मेरी जानकारी अधूरी हो लेकिन साहब ऐसी किताब, जिसके एक पृष्ठ पर ग़ज़ल ब्रज भाषा में है और सामने वाले पृष्ठ पर वो ही ग़ज़ल हिंदी में ,मैंने तो न कभी सुनी, देखी या पढ़ी। ये प्रयोग उर्दू के साथ हिंदी में तो बहुत हुआ है लेकिन ब्रजभाषा के साथ हिंदी में - बिलकुल नहीं।

अगर तू बस दास्तान में है अगर नहीं कोई रूप तेरा 
तो फिर फ़लक से ज़मीं तलक ये धनक हमें क्या दिखा रही है 

सभी दिलो-जां से जिस को चाहें उसे भला आरज़ू है किसकी 
ये किस से मिलने की जुस्तजू में हवा बगूले बना रही है 

चलो कि इतनी तो है ग़नीमत कि सब ने इस बात को तो माना 
कोई कला तो है इस ख़ला में जो हर बला से बचा रही है 

हर भाषा की अपनी मिठास होती है और ये ग़लत होगा अगर आप ब्रज भाषा की मिठास की बांग्ला ,उर्दू या मैथिलि के साथ तुलना करें। भले ही इसे खड़ी बोली का नाम दिया गया है लेकिन इस भाषा के काव्य को सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, बिहारी जैसे कवियों ने मालामाल किया है। इस भाषा के काव्य में कृष्ण की बांसुरी सुनाई देती है। ब्रज बहुत समृद्ध भाषा है लेकिन इस भाषा में अब तक किसी ने लगातार ग़ज़ल कहने का जोख़िम नहीं उठाया। हमारे आज के शायर न केवल ब्रज में ग़ज़लें कहते हैं बल्कि ताल ठोक कर महफ़िलों में सुनाते हैं और वाह वाही लूट लाते हैं।

मीठे बोलों को सदाचार समझ लेते हैं 
लोग टीलों को भी कुहसार समझ लेते हैं 

कोई उस पार से आता है तसव्वुर ले कर 
हम यहाँ खुद को कलाकार समझ लेते हैं 

एक दूजे को बहुत घाव दिए हैं हमने 
आओ अब साथ में उपचार समझ लेते हैं 

मुंबई जैसी नगरी में ब्रजभाषा की मिठास में ग़ज़लें कहने वाले हमारे आज के शायर हैं जनाब "नवीन सी चतुर्वेदी " जिनकी ब्रज-हिंदी ग़ज़लों की किताब "पुखराज हबा में उड़ रए ऐं " की बात हम करेंगे। जैसा कि मैंने पहले कहा ये अपनी तरह का अनोखा ग़ज़ल संग्रह है और इसके पीछे नवीन जी की ब्रजभाषा की ग़ज़ल को सम्मान दिलाने की दृढ़ इच्छा शक्ति प्रकट होती है। 'नवीन' जी इस संग्रह में संकलित ग़ज़लों के माध्यम से ये सिद्ध कर देते हैं कि उनका ब्रज , हिंदी और उर्दू भाषा पर समान अधिकार है। ब्रज भाषा की ग़ज़लों को हिंदी उर्दू में ढालने का जो कौशल उन्होंने दर्शाया है वो हैरान कर देने वाला है।



रूह ने ज़िस्म की आँखों से तलाशा जो कुछ 
सिर्फ़ आँखों में रहा दिल में समाया ही नहीं 

लड़खड़ाहट पे हमारी कोई तनक़ीद न कर 
बोझ को ढोया भी है सिर्फ उठाया ही नहीं 

एक बरसात में ढह जाने थे बालू के पहाड़ 
बादलों तुमने मगर ज़ोर लगाया ही नहीं 

27 अक्टूबर 1968 को मथुरा के माथुर चतुर्वेदी परिवार में जन्में जुझारू प्रकृति के 'नवीन' ने प्रारम्भिक शिक्षा मथुरा में पूरी की और वाणिज्य विषय में स्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद बड़ौदा में नौकरी करने लगे, साल भर बाद ही नौकरी से उनका मन उचट गया और वो 1988 में मुंबई आ गए। मुंबई नगरी में उन्होंने अपना सेक्युरिटी-सेफ्टी- एक्विपमेंट व्यवसाय आरम्भ किया जो अब उनकी कड़ी महनत और ईश्वर की कृपा से फल फूल रहा है और जिसे उनके दो होनहार पुत्र बहुत कुशलता से संभाल रहे हैं। ज़िन्दगी संवारने की कवायद के बीच उन्होंने अपने साहित्य प्रेम को कभी नज़र अंदाज़ नहीं किया और उनकी लेखनी सतत चलती रही।

ये न गाओ कि हो चुका क्या है 
ये बताओ कि हो रहा क्या है 

इस ज़माने को कौन समझाये 
अब का तब से मुक़ाबला क्या है

हम फ़क़ीर इतना सोचते ही नहीं 
बन्दगी का मुआवज़ा क्या है 

झुक के बोला कलम से इरेजर 
यार तुझको मुगालता क्या है

'नवीन' जी का रचना संसार बहुत बड़ा है वो ग़ज़लों के साथ साथ साहित्य की अनेक विधाओं पर भी अपनी लेखनी कुशलता से चलाते हैं। मुंबई में होने वाली नशिस्तों और मुशयरों में उनकी उपस्तिथि चार चाँद लगा देती है। अपनी मनभावन मुस्कान से किसी को भी अपना बना लेने का हुनर उन्हें खूब आता है। मुंबई में जहाँ हर इंसान सिर्फ और सिर्फ अपने आप तक ही सिमित रहता है 'नवीन' जैसा बिंदास बेलौस फक्कड़ और सबको गले लगाने वाला इंसान इक अजूबा है। उन्होंने ब्रज की मिटटी की खुशबू को कभी अपने से अलहदा नहीं किया। उनके चुंबकीय व्यक्तित्व का सारा श्रेय उनके गुरु आदरणीय यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम' और माँ-पिता से मिले संस्कारों को जाता है।

पीर-पराई और उपचार करें अपना 
संत-जनों के रोग अलहदा होते हैं 

रोज नहीं पैदा होती मीरा-शबरी 
जोगनियों के जोग अलहदा होते हैं 

सीधे मुंह में भी गिर सकते हैं अंगूर
पर ऐसे संजोग अलहदा होते हैं 

इस किताब में नवीन जी की ब्रजभाषा की 52 ग़ज़लें संग्रहित हैं ,जाहिर सी बात है की वो ही ग़ज़लें हिंदी में भी कही गयी हैं। ब्रजभाषा और हिंदी दोनों के पाठक इन ग़ज़लों का भरपूर आनंद उठा सकते हैं। ब्रजभाषा की ग़ज़लों में भी कहीं कहीं नवीन जी ने देशज शब्दों का विलक्षण प्रयोग किया है जो शहर से दूर गाँव देहात के कस्बों में बोली जाती है। मजे की बात ये है कि किसी किसी ग़ज़ल में अंग्रेजी के शब्द भी बहुत ख़ूबसूरती से पिरोये गए हैं जो पढ़ने का आनंद दुगना कर देते हैं।ग़ज़ल लेखन की बारीकियों को उन्होंने जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब से सीखा और उसे अपेक्षित दिशा दी उनके मित्र और पथ प्रदर्शक मयंक अवस्थी साहब ने। उनकी एक बहुत मजेदार रदीफ़ वाली ग़ज़ल के ये शेर देखें ,जिनका असली आनंद तो ब्रजभाषा में ही उठाया जा सकता है और इस आनंद के लिए तो आपको ये किताब ही पढ़नी पड़ेगी क्यूंकि इस श्रृंखला के पाठक हिंदी बोलने समझने वाले अधिक हैं इसलिए मैंने सिर्फ हिंदी में अनुवादित ग़ज़लों का ही चयन किया है :

बीस बार बोला था तुझसे दाना-पानी कम न पड़े 
अब क्या करता है हैया हैया भैंस पसर गयी दगरे में 

ऐसी वैसी चीज समझ मत ये तो है सरकार की सास 
जैसे ही देखे नक़द रुपैय्या भैंस पसर गयी दगरे में 

या फिर 

खेतों में बरसात का पानी भर भी गया तो क्या चिंता 
थोड़ा पानी यहाँ बहाओ थोड़ा उलीचो परली तरफ़ 

कितनी पुश्तें गिनोगे भाई ये है बहुत पुराना रिवाज़ 
अपना आँगन साफ़ करो और धूल उड़ाओ परली तरफ़ 

'नवीन' जी की रचनाएँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपती रहती हैं इसके अलावा आकाशवाणी दूरदर्शन से भी उनका कलाम प्रसारित हो चुका है. अंतरजाल की लगभग समस्त साहित्यिक साइट पर उनका कलाम मौजूद है। फेसबुक पर वो निरंतर अपनी ताज़ा रचनाऐं पोस्ट करते हैं जिन्हें भरपूर वाहवाही मिलती है. इस किताब की एक बहुत बड़ी खूबी भी आपको अब बता ही दूँ। ग़ज़ल के छात्रों के लिए ये किताब एक वरदान समझें क्यूंकि इसमें नवीन जी ने ग़ज़ल लेखन के बारे में संक्षेप में जिस सरलता से जानकारी दी है वो अन्यत्र मिलनी दुर्लभ है। उसे पढ़कर ग़ज़ल सीखने वालों को बहुत सी उपयोगी जानकारी मिल जाएगी।
अंजुमन प्रकाशन इलाहबाद से प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति के लिए आप वीनस केसरी जी से उनके मोबाइल न 9453004398 पर संपर्क करें और साथ ही नवीन जी को उनके मोबाइल न 9967024593 पर बात कर बधाई दें ,यकीन मानिये नवीन जी से बात कर यदि आपका मन गदगद न हो जाये तो मुझे बताएं।
आपसे विदा लेने से पहले नवीन जी की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ

बाकी सब सच्चे हो गये 
मतलब हम झूठे हो गये 

सब को अलहदा रहना था 
देख लो घर महँगे हो गये 

कहाँ रहे तुम इतने साल 
आईने शीशे हो गये