Friday, December 26, 2008

किताबों की दुनिया -2

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है
जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तै करने में वक्त तो लगता है
जगजीत सिंह जी की रेशमी आवाज में बरसों पहले जब ये ग़ज़ल सुनी तो आनंद आ गया इतने खूब सूरत अशआर लगे इस ग़ज़ल के की केसेट को बार बार रिवाईंड कर सुनता रहा. अब भी जब कभी मौका लगता है ये ग़ज़ल सुनता हूँ . तब कहाँ मालूम था की इस ग़ज़ल के शायर जनाब 'हस्ती मल जी हस्ती' से एक दिन मुलाकात हो जायेगी नवी मुंबई में अनिता जी के घर 'बतरस' संस्था की और से गोष्ठी थी जिसमें मैं भी था और हस्ती जी भी. उनसे आग्रह कर ये ग़ज़ल सुनी. इसके बाद एक बार उनके घर पर भी एक गोष्ठी में जाने का सुअवसर मिला. हस्ती जी से मिलना एक अनुभव है , एक ऐसा अनुभव जो आप कभी नहीं भुला सकते. सौम्य प्रकृति के हस्ती जी राजस्थान से हैं और मुंबई में उनका स्वर्ण आभूषनो का अपना व्यवसाय है. तभी उनके शेर शब्दों के मोतियों से जड़े होते हैं. हर ग़ज़ल एक हीरों का तराशा हुआ हार लगती है.



जयपुर में आयोजित पुस्तक मेले में उनकी पुस्तक "कुछ और तरह से भी " पर नजर पढ़ी और तुंरत खरीद लाया. पुस्तक क्या है भावनाओं का खजाना है. एक एक शेर और ग़ज़ल अनमोल है. आज हम उसी पुस्तक की चर्चा करेंगे.
ग़ज़ल प्रेमियों को समर्पित इस किताब में अस्सी ग़ज़लें हैं और उनमें से आप के लिए कुछ शेरों का चुनाव करना एक बहुत बड़ी चुनौती है.

अपनी पहली ही ग़ज़ल से वो पाठक को अपनी शैली से चमत्कृत कर देते हैं...

ज़माने के लिए जो हैं बड़ी नायाब और महंगी
हमारे दिल से सब की सब है वो उतरी हुई चीजें

दिखाती हैं हमें मजबूरियां ऐसे भी दिन अक्सर
उठानी पड़ती हैं फ़िर से हमें फेंकी हुई चीजें

किसी महफिल में जब इंसानियत का नाम आया है
हमें याद गयीं बाज़ार में बिकती हुई चीजें

शब्दों के नगीने से सजी उनकी एक और ग़ज़ल के कुछ शेर देखें:

छू हो जाती है धज सारी या कुछ बाकी रहता है
डिगरी,पदवी,ओहदों से तू अपना नाम हटा कर देख

जंतर-मंतर, जादू- टोने, झाड़-फूंक, डोरे-ताबीज
छोड़ अधूरे आधे नुस्खे ग़म को गीत बना कर देख

उलझन और गिरह तो 'हस्ती' हर धागे की किस्मत है
आज नहीं तो कल उलझेगी जीवन डोर बचा कर देख

खुद्दारी उनके जीवन की शैली है जो उनके हर शेर में झलकती है अब जरा उनके ये तेवर देखें:

दिन काट लिया करते हैं सहरा की तपिश में
लेकिन कभी हम भीख में सावन नहीं लेते

सजने की गरज जिनको है ख़ुद के मिलें वो
ज़हमत कहीं जाने की ये दरपन नहीं लेते

मेहनत की कमाई पे जो करते हैं गुज़ारा
मोती भी लगे हों तो भी उतरन नहीं लेते

हुनर का येही जोहर आप उनकी छोटी बहर की ग़ज़लों में भी देख सकते हैं मसलन :

एक सच्ची पुकार काफ़ी है
हर घड़ी क्या खुदा खुदा करना

जब भी चाहत जगे समंदर की
एक नदी की तरह बहा करना

आप ही अपने काम आयेंगे
सीखिए ख़ुद से मशवरा करना

उनकी येही अदा एक और ग़ज़ल में भी देखें:

थान अंगूठी से निकले
इतनी कात मोहब्बत को

दुःख घेरे तो खेला कर
अक्कड़ -बक्कड़ -बम्बे बो

पहन पहन कर 'हस्ती' जी
रिश्तों को मैला करो

मैंने जो कुछ पढाया आपको वो तो उस आनंद का शतांश है जो इसे पूरी पढने के बाद प्राप्त होता है , मजे की बात है की आप इस पुस्तक को जितनी बार पढेंगे आप को हर बार नए आनंद की अनुभूति होगी. मेरा दावा है की ये पुस्तक ग़ज़ल प्रेमियों को कभी निराश नहीं करेगी. अब आप ही बताईये आज के हालात पर ऐसे शेर आप को कहाँ और पढ़ने को मिलेंगे?

ऐसा नहीं की साथ नहीं देते लोग-बाग़
आवाज दे के देखो फ़सादात के लिए

पड़ता है असहले का जखीरा भी कम कभी
इक फूल ही बहुत है कभी मात के लिए

बाहर हो कोई चाहे शिवाले में हो कोई
हर शख्स है कतार में खैरात के लिए

और आख़िर में हस्ती जी का इक शेर जिसेसे पता चलता है की वो इतने मकबूल शायर क्यूँ है,आप फरमाते हैं :

शायरी है सरमाया खुशनसीब लोगों का
बांस की हर इक टहनी बांसुरी नहीं होती

इस अद्भुत शेर के साथ हमारा "कुछ और तरह से भी" किताब का ये सफर यहीं समाप्त होता है. पैंसठ रुपये मूल्य की ये किताब भी वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है जिसका पता ठिकाना आप किताबों की दुनिया भाग १ में देख सकते हैं.

अब हम लेखनी को देते हैं विश्राम, जय सिया राम....फ़िर मिलेंगे..जल्द ही इक और किताब के साथ.सायोनारा...सायोनारा...

41 comments:

डॉ .अनुराग said...

वाकई आपने एक ओर उम्दा किताब से मिलवाया ओर एक ओर उम्दा शायर से .....बांसुरी वाला शेर.......बहुत खूब है

रविकांत पाण्डेय said...

नीरज जी,
आपका आलेख पढ़ने के बाद तो इस पुस्तक को को पढ़ने की तीव्र इच्छा दबाना मुश्किल हो रहा है। इतनी अच्छी शायरी और उतनी ही अच्छी प्रस्तुति-इसे कहते हैं सोने पे सुहागा।

नीरज मुसाफ़िर said...

बढ़िया है जी, इंतज़ार करेंगे. धन्यवाद.

!!अक्षय-मन!! said...

आपने तरहां से प्रस्तुत किया है "हस्ती" जी की अनमोल गज़लों को मन झूम उठा बहुत ही अच्छा लगा.... आप भी बहुत अच्छा लिखते हैं सर जीऔर आपकी पसंद भी बहुत ऊची हैं ......

kuch likha hai aapki chatrchaya main....

अक्षय-मन

ताऊ रामपुरिया said...

शायरी है सरमाया खुशनसीब लोगों का
बांस की हर इक टहनी बांसुरी नहीं होती

परिचय के लिये धन्यवाद ! आज हम भी बाजार जा रहे हैं ! इस किताब के प्रकाशक का नाम बता दिया , यह आपकी बडी मेहरवानी ! आज ही लेकर आते हैं !

रामराम !

Vinay said...

बहुत बढ़िया, भई, अगर बाज़ार में मिली तो ज़रूर ख़रीदेंगे

---
चाँद, बादल, और शाम
http://prajapativinay.blogspot.com/

गुलाबी कोंपलें
http://www.vinayprajapati.co.cc

राज भाटिय़ा said...

किसी महफिल में जब इंसानियत का नाम आया है
हमें याद आ गयीं बाज़ार में बिकती हुई चीजें
बहुत सुंदर, इतने सुंदर शेर बस वाह वाह ही कह सकते ही तारीफ़ के बोल भी कम लगते है.इन सुंदर शेरो के सामने.
धन्यवाद

कंचन सिंह चौहान said...

ऐसे ही हमें परिचित कराते रहिये किताबों की दुनिया से.....! हमसे फक़ीरों के लिये सब से बड़ी खैरात है ये..!

रंजू भाटिया said...

आप यह बहुत अच्छा काम कर रहे हैं नीरज जी नई किताबो का बहुत अच्छे से परिचय दे कर ..शुक्रिया आपका

vipinkizindagi said...

बहुत सुंदर भाव

vijay kumar sappatti said...

wah wah neeraj ji , pahle gazal suni thi aur aaj uske lekakh aur unki dusri nazm ke baaren me jaankar bahut khushi hui..

aapko bahut badhai ..


sir ,ji meri kuch nayi kavitayen aapki raah dekh rahi hai ..
kahan the itne din aap,,.

vijay

सुशील छौक्कर said...

इस गजल को तो हम भी बहुत रीवाईंड कर कर सुनते किसी वक्त। इतनी अच्छी किताब की जानकारी देने के लिए शुक्रिया।

दिखाती हैं हमें मजबूरियां ऐसे भी दिन अक्सर
उठानी पड़ती हैं फ़िर से हमें फेंकी हुई चीजें

मेहनत की कमाई पे जो करते हैं गुज़ारा
मोती भी लगे हों तो भी उतरन नहीं लेते

दुःख घेरे तो खेला कर
अक्कड़ -बक्कड़ -बम्बे बो

वाह वाह वाह ।

Smart Indian said...

नीरज जी, यह किताबों का सफर शुरू करके आपने बहुत ही अच्छा काम किया है. एक=एक कर के इसी तरह नायाब हीरे अपने पाठकों तक पहुंचाते रहिये! धन्यवाद!

Shiv said...

अद्भुत!

बहुत महान शायर और उनकी किताब से परिचय करवाया भइया. कल ही खरीदते हैं. धन्यवाद देकर आपकी इस पोस्ट को छोटा कैसे करें?

सुनीता शानू said...

शुक्रिया नीरज जी, हम आपके शुक्रगुजार हैं की आपने एक ऎसी हस्ती की ग़ज़ल से रूबरू करवाया जिनके हम कायल हैं...इन्हे पढ़ना बहुत अच्छा लगता है.

महेंद्र मिश्र.... said...

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है.
bahut sundar prastuti . rachana ham sab ko bantane ke liye abhaar.

"अर्श" said...

नीरज जी इतनी बड़ी हस्ती से मिले आप तो भाग्यशाली ठहरे साहब . पुस्तक को पढने की काफी इक्षा हो रही है कैसे प्राप्त हो ये बताते जाईये साहब...

आभार
अर्श

वीनस केसरी said...

नीरज जी आपने जो सारी जानकारी दी उस पर मंसूर जी का एक शेर कहता हूँ
मुलाहिज़ा फरमाइए

कितने लहजों ने उठाई है गजल पर तलवार
मीरो-ग़ालिब का यहाँ फ़िर भी हुनर है महफूज़

आपका वीनस केसरी

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

'हस्ती मल जी हस्ती' जी से परिचय भी बेहद खुशनुमा रहा नीरज भाई -
ये शृँखला बेहतरीन है
जारी रखियेगा बहुत शुक्रिया जी :)
- लावण्या

रश्मि प्रभा... said...

khud mile aur madhyam bankar hame milaya,itne sundar gazalon se rubru karwaya,shukriyaa

गौतम राजऋषि said...

हस्ती मल जी के तो हम सब दीवाने हैं...सौभाग्य से इस किताब की मिल्कीयत अपने पास भी है

शुक्रिया आपका मगर इस शानदार प्रस्तुति के लिये

दिगम्बर नासवा said...

नीरज जी
एक खूबसूरत ग़ज़लों का गुलदस्ता लगती है हस्ती मल जी की किताब. एक अच्छी पुस्तक से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद. आप ने भी इसे बहूत रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है.

साधुवाद

seema gupta said...

शायरी है सरमाया खुशनसीब लोगों का
बांस की हर इक टहनी बांसुरी नहीं होती
किताबों की दुनिया से ऐसे अनमोल नगीनों से परिचित करने का आपका ये अंदाज भी अनोखा लगा , कितना कुछ है जिसे हम जानते ही नही ...."
Regards

Ratan said...

इन शब्दों ने मुझे सोचने पर मजबूर किया.
१.
"आप ही अपने काम आयेंगे
सीखिए ख़ुद से मशवरा करना"

२.
"उलझन और गिरह तो 'हस्ती' हर धागे की किस्मत है
आज नहीं तो कल उलझेगी जीवन डोर बचा कर देख..."

और फ़िर इन शब्दों के माध्यम से "हस्ती" जी ने मेरे चहरे पर अनायास हीं हँसी ला दी.

"दुःख घेरे तो खेला कर
अक्कड़ -बक्कड़ -बम्बे बो"

आपका बहुत बहुत धन्यवाद, क्यूँ की हमें इस पुस्तक को पढ़े बिना ही इसका रसपान करने को मिला.

-रतन

mehek said...

bahut achhi kitaab har sher bahut achha laga.

हरकीरत ' हीर' said...

नीरज जी, हस्‍ती मल जी को कनीज का सलाम फरमाइयेगा...! ''कुछ और तरह से भी'' ये गजलों
का संग्रह हस्‍ती मल जी ने मुझे भी भिजवाया था फोन पर हुई बातचीत में उन्‍होंने बताया था कि उनकी
इक गजल 'प्‍यार का पहला...'
जगजीत सिंह जी ने गायी है आप सौभाग्‍यशाली हैं जो इतने खुशगवार परिवेश में शाम गुजारी...
वे एक त्रैमासिक पत्रिका भी निकालते हैं 'युगीन काव्‍या' नाम से शायद...

अनुपम अग्रवाल said...

aapne ek achhee hastee ko
adbhut abhivyakt kiyaa .
badhaai.

श्रद्धा जैन said...

mere liye to jaise yaha aaj amrut sa luta ho aur pyaas bhi bad gayi ho
kitaaben jo sabse badi kamzori kahe le aur jo yaha milti bhi nahi hai, main isiliye antrajaal par uplabdh samagri ki mohtaaj hoon.
jiske karan kayi achhe shayar kavi ke naam tak nahi jaanti milna to khair shayad sawapn ke jaisa hai
bharat jane par kise padun kya padun sawal hamesha hi raha
usmain aapka is tarah se kitabon se milana vardaan hai mere liye
main aapki bahut shukrguzaar hoon

Alpana Verma said...

-बाहर हो कोई चाहे शिवाले में हो कोई
हर शख्स है कतार में खैरात के लिए
-शायरी है सरमाया खुशनसीब लोगों का
बांस की हर इक टहनी बांसुरी नहीं होती

bahut hi umda sher padhwaye aap ne..aur shayar 'हस्ती मल जी हस्ती' sahab aur unki rachnaon se parichay bhi karwaya..
dhnywaad.

"अर्श" said...

नीरज जी मेरी बातों को अन्यथा ना लें .,आप तो श्रेष्ठ है और गुनी भी एक बारगी फ़िर से मेरे ब्लॉग के टिपण्णी पे आए और जनाब निदा फाजली साहब के ग़ज़ल के काफिये पे गौर करे...

मानता हूँ गलती होती है मगर अभी मैं भी सिखाने के क्रम में हूँ जिसका कोई गुरु नही है हलाकि मैं गुरु पंकज सुबीर जी को पढ़ता हूँ जिन्हें एक्लाब्या की तरह गुरु मना है ... चूँकि आप श्रेष्ठ है इसलिए आपको एक बार फ़िर से आमंत्रित करता हूँ ताकि कुछ आप गुनी जानो से सिख पाऊं ..... आन्यथा ना ले..........
आपका अनुज

अर्श

Anonymous said...

aapne jo sher chun kar daale hain unhe padhkar vaakai poori kitaab padhne ka man karta hai.. kabhi kabhi do panktiyaan aise sawaal kar jati hain jinka kisi kachari mein uttar nahi hota.."saakib sharab pine de maszid me baithkar, ya wo jagah bata ki jahaa par khuda na ho.."

Mumukshh Ki Rachanain said...

भाई नीरज जी,

निम्न पंक्तियाँ पढ़ कर
प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है
जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तै करने में वक्त तो लगता है

कुछ अधूरापन सा लगा, शायद इसमे इस बात का ज़िक्र नही कि
टिपियाने में भी वक्त तो लगता है

चन्द्र मोहन गुप्त

ललितमोहन त्रिवेदी said...

मनमोहक शायरी और किताबों की दुनिया ....गागर में ही सागर के दर्शन करा दिए नीरज जी !नववर्ष की शुभ कामनाएं !

KESHVENDRA IAS said...

नीरज जी, अपने ब्लॉग पर मैंने एक "शेर अपना एक पराया" करके एक शुरुआत की थी. उसमे हस्ती मल साहेब के इस सुप्रसिद्ध शेर पर भी मैंने दो शेर लिखे थे. पेशे ख़िदमत हैं-

"प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है

जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तै करने में वक्त तो लगता है "

-----हस्ती मल जी हस्ती---

झूठ को पंख मिले है वो तो उड़ता फिरे फ़र-फ़र
सच को चलकर आने में वक़्त तो लगता है.

अपनी जमीन से उखर कर आया हूँ नयी जगह
फिर से जड़ें ज़माने में वक़्त तो लगता है.
----केशवेन्द्र----

Anita kumar said...

सेप्टेंबर के अंत में हस्ती जी को सुनने का मौका एक बार फ़िर मिला था जब मैं ने अपने कॉलेज में कवि सम्मेलन करवाया था। छात्र उन्हें छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
इस किताब से रु ब रु करवाने के लिए आभार

Gautam kumar sagar said...

शायरी है सरमाया खुशनसीब लोगों का
बांस की हर इक टहनी बांसुरी नहीं होती ?????????????????????

जहाँ तक मैं जानता हूँ. बाँस एक घास वनस्पति हैं. इसकी कोई टहनी नही होती .

avenindra said...

वाह मजा आ गया बड़े भाई

avenindra said...

वाह बड़े भाई मजा आ गया

avenindra said...

वाह मजा आ गया बड़े भाई

avenindra said...

वाह मजा आ गया बड़े भाई

Ramesh Kanwal said...

अपनी जमीन से उखर कर आया हूँ नयी जगह
फिर से जड़ें ज़माने में वक़्त तो लगता है.
----केशवेन्द्र----

केशवेन्द्र जी का यह शे'र नामौज़ुं है

वक़्त तो लगता है आज भी सुनने में दिलकश और दिल के करीब लगता है |

पड़ता है असहले का जखीरा भी कम कभी
इक फूल ही बहुत है कभी मात के लिए

बाहर हो कोई चाहे शिवाले में हो कोई
हर शख्स है कतार में खैरात के लिए

मुझे तो ये दोनों शे'र बहुत ही जीवंत लगे

आपका ये पोस्ट 2022 में पढ़ा
कोशिश करता हूँ धीरे धीरे सब पढ़ लूं |

प्रणाम
रमेश कँवल