Monday, October 26, 2020

किताबों की दुनिया : 217

जाने क्या अंजाम होगा अब मिरी तक़दीर का
ख़ुदकुशी के वक़्त टूटा सिलसिला ज़ंजीर का
सिलसिला :कड़ी

उसने दिल की धड़कनें मुझको सुनाने के लिए
डाला है तावीज़ गर्दन में मिरी तस्वीर का

भैंस की आँखों पे पट्टी बांध कर तहबंद से
राँझा पहने फिर रहा है आज लहंगा हीर का

कल्पना कीजिये कि भैंस की आँखों पर राँझे का तहबंद है और उसके पीछे राँझा हीर का लहंगा पहने ठुमकता चल रहा है। इस दिलकश मंज़र को देख कर आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? आप हैरान होंगे या मुस्कुरायेंगे या ठहाका लगा कर हँसेंगे। मेरे ख्याल से आप हैरान तो बाद में होंगे पहले अगर आप बिंदास नहीं हैं तो मुस्कुरायेंगे वरना ठहाका लगाएंगे। ये मुस्कुराने और ठहाके लगाने का गुण ही आपको जानवरों से अलग करता है क्यूंकि सिर्फ जानवर ही न मुस्कुराते हैं न ठहाके लगाते हैं। तो आज किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में हम आपको पहली बार मुस्कुराने और ठहाके लगाने की दावत देते हैं। पता नहीं क्यों हमारे समाज में हँसने और ठहाके लगाने को बेहूदगी समझा जाता है। शायद इसीलिए आप लोगों को सड़कों या महफ़िलों में खुल कर ठहाके लगाते नहीं देख पाते ।ख़ास तौर पर तथाकथित सभ्रांत लोगों को। तमीज़दार लोग सिर्फ़ मुस्कुराते हैं वो भी हौले से। इस से तनाव बढ़ता है। इस तनाव भरे युग में अपना मानसिक संतुलन बनाये रखने के लिए खुल कर हंसना सबसे कारगर इलाज है। मेरी बात शायद आपको नागवार गुज़रे इसलिए चलिए उन फ़िल्मी गानों का ज़िक्र करते हैं जो हँसने की पैरवी करते हैं ।आज के दौर के युवा ने शायद मुकेश के गाने न सुने हों लेकिन हमारे दौर में उनका फ़िल्म 'किनारे किनारे' का ये गाना हमें बहुत बड़ा सबक देता था 'जब ग़मे इश्क़ सताता है तो हँस लेता हूँ , हादिसा याद ये आता है तो हँस लेता हूँ ' उन्हीं का गाया फ़िल्म 'आशिक़ी' का एक और गीत है 'तुम आज मेरे संग हँस लो तुम आज मेरे संग गा लो और हँसते गाते इस जीवन की उलझी राह सँवारो '। ये दोनों गाने सिखाते हैं कि विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है -हँसो। 

जो किसी बहाने घर में कभी सालियाँ भी आतीं
भला फिर ये क्यों झमेला मुझे नागवार होता
*
फिर भला इसमें लुत्फ़ ही क्या है
इश्क़ जब गालियों भरा न हुआ
*
हुआ था दर्द से भारी तो ग़म क्या सर के कटने का
न सर कटता मिरा तो ज़िन्दगी भर सर फिर होता
*
मुर्ग़ बिरयानी सभी कुछ है पसंद
पेट में हो गैस तो फिर खाएँ क्या
*
पार्टी को तोड़िये, फिर जोड़िये, फिर तोड़िये 
रंग ले ही आएगी मौक़ा-परस्ती एक दिन 
 *
बदल कर ज़रा भेस हम हीजड़ों का
नवाबों के रंगी हरम देखते हैं
हरम:अन्तःपुर ,ज़नानख़ाना  
*
दफ़्तर में आ ही जाता हूँ कुछ वक़्त काटने
वैसे किसी के बाप का नौकर नहीं हूँ मैं
*
जब से बढ़ा है शहर में मौतों का सिलसिला
हमराह अपने रखता हूँ इक नौहागर को मैं
नौहागर :रोने पीटने वाला
*
वो सियाह ज़ुल्फ़ें जो बन कर नाग डसती थीं हमें
वक़्त की फटकार खा कर अब सिवय्यां हो गईं
*
गंजे हुए हैं हम मियां जूते ही खा के इश्क़ में
जिसको हो अपना सर अज़ीज़ उसकी गली में जाए क्यों


पंजाब का एक प्रमुख शहर है पटियाला जो अपने 'पैग' के अलावा दीवान 'जर्मनी दास' की किताब 'महाराजा' और 'महारानी' में चर्चित महाराजा भूपेंद्र सिंह के किस्सों के अलावा मौसिकी के उस घराने के लिए प्रसिद्ध है जिससे जनाब बड़े ग़ुलाम अली खां साहब भी मुतअल्लिक़ थे। उसी शहर में एक मिठाई की दूकान थी, जिसकी मिठाइयों की मिठास से ज़्यादा मीठी उसके मालिकों की ज़ुबान हुआ करती थी। दुकान के मालिकों से ख़ालिस उर्दू, हिंदी और पंजाबी में कभी शे'र तो कभी उनकी पैरोडी तो कभी चटपटे जुमले सुनता हुआ ग्राहक एक की जगह तीन मिठाइयां ले लेता और फिर भी वहीँ जमा रहता। दुकान के मालिक श्री मातू राम जी के बेटे 'राज़' को दुकान जा कर अपने पिता, भाई और मामा की लच्छेदार बातें सुननी बड़ी अच्छी लगतीं। घर में माँ भी, कभी कभी ऐसे जुमले जड़ देती कि राज़ हँसते हँसते लोटपोट हो जाता। शायरी में राज़ की दिलचस्पी बढ़ने लगी। इस ख़ुशनुमा माहौल में राज़ कब शायरी करने लगा उसे पता ही नहीं चला और तो और कब मिर्ज़ा ग़ालिब उसके ज़ेहन पर सवार हो गए इसकी भी ख़बर नहीं लगी। ग़ालिब का जादू उनके सर चढ़ कर बोलने लगा।  
   
रात का सन्नाटा हो और राज़दां कोई न हो
बीवियां तनहा ही घूमें और मियां कोई न हो
*
थान पर खच्चर के मैंने ऊँट बांधा था जो कल
रंग उस पर वो चढ़ा कि हिनहिनाता जाए है
थान : खूँटा
*
मुहल्ले वालों का सर फोड़ना है बात अलग
फटेगी शर्ट तो समझोगे तुम रफ़ू क्या है
*
अच्छे ख़ासे को भी लंगड़ा कह दिया
ज़ाइके बदनाम हैं यूँ आम के
*
मेरे अल्लाह मेरी पारसाई पर करम करना
 मुसल्सल तेज़ बारिश में वो लिपटा जाए है मुझ से
*
सांडों की लड़ाई में परेशान सभी थे
कुत्ता मिरे पीछे था तो भैंसा मिरे आगे
*
सोहबत का जानवर की हुआ उन पे ये असर
पाली है जब से लोमड़ी चालाक हो गए
*
हम हो चुके है घुटनों से लाचार क्या करें
यानी उचक के हुस्न का दीदार क्या करें
*आहे होंगे
मरते थे जो हसीन वो मुँह फेर कर चले
इस चौखटे पे झुर्रियों की मार देख कर
*
इश्क़ के ख़ुतूत ने दिखलाया रंगे-ख़ास
महबूब जितने थे उन्हें ले भागे डाकिए
ख़ुतूत :चिठ्ठियां
*
योग,आसन और प्राणायाम ही के ज़ोर पर 
भक्तनों को ले के स्वामी एक दिन उड़ जाएंगे 
साधुओं का होगा संगम अब के जो भी घाट पर 
है ख़बर वो ऐश-ओ-इश्रत टैंट में ही पाएंगे

ये राज़ ही हमारे आज के शायर हैं जिनका पूरा नाम श्री 'त्रिलोकी नाथ काम्बोज' है लेकिन अदबी हलकों में इन्हें "टी.एन. राज़" के नाम से जाना जाता है। इनकी किताब "ग़ालिब और दुर्गत" हमारे सामने है जिसमें राज़ साहब ने, जैसा कि आपने अब तक पढ़ कर समझ ही लिया होगा, ग़ालिब साहब की मशहूर ग़ज़लों की वो दुर्गत की है कि ग़ालिब उसे पढ़ कर बजाय नाराज़ होने के क़ब्र के अँधेरे में मारे ख़ुशी के भंगड़ा कर रहे होंगे। कारण ये कि जो काम राज़ साहब ने किया है वो बच्चों का खेल नहीं है । तन्ज़-ओ-मिज़ाह याने हास्य व्यंग की शायरी करना, वो भी ग़ालिब की ज़मीन पर, बहुत ही मुश्किल काम है लेकिन साहब राज़ साहब ने इस काम को अंजाम दिया है और क्या खूब दिया है। किताब पढ़ते पढ़ते दिल बाग़ बाग़ हो जाता है। अगर ये काम आसान होता तो अब तक बहुत से शायर इसे कर चुके होते। ऐसा नहीं है कि बाक़ी शायरों ने कोशिश नहीं की ,खूब की लेकिन साहब ग़ालिब की ज़मीन इतनी सख्त है कि बहुत से खेती करने वालों के तो इस कोशिश में हल ही टूट गए और जो थोड़े बहुत हल चला पाए उनके ख्यालों के बीज उसमें पनपे ही नहीं । ग़ालिब छोड़िये वैसे भी तन्ज़-ओ-मिज़ाह पर आसानी से कलम नहीं चलती तभी तो शायरी के इतिहास में संजीदा शायरों के नाम की तो एक कभी न खत्म होने वाली लम्बी सी लिस्ट बन जायेगी लेकिन ढंग के तन्ज़-ओ-मिज़ाह के शायर शायद उँगलियों पर गिनने लायक भी न हों। एक नज़ीर अकबराबादी जरूर जेहन में आते हैं जबकि इस विधा में नस्र में लिखने वालों की तादाद जरूर कुछ बड़ी है। सच्ची बात तो  ये है कि किसी को हँसाना मुश्किल है और रुलाना बहुत आसान इसलिए लोग आसान काम को ज्यादा तरज़ीह देते हैं और रुलाने के नए नए तरीके इज़ाद करते रहते हैं। 
 

गाड़ी रूकती नज़र नहीं आती 
छींक वक़्ते सफ़र नहीं आती 

जूता बाटा का अब चले कैसे 
पहले सी वो रबर नहीं आती 

आँख में जब से उतरा मोतिया 
कोई सूरत नज़र नहीं आती 

ज़हमते-गैस होगी सुब्ह-रफअ 
नींद क्यों रात भर नहीं आती 
ज़हमते गैस -गैस की तकलीफ़ , सुब्ह-रफअ : सुबह दूर 

बीवी जाती है जब भी मायके को 
कोई भी साली घर नहीं आती 
    
जनाब त्रिलोकी नाथ उर्फ़ टी.एन. साहब का जन्म 19 सितम्बर 1934 में पटियाला में हुआ। 'राज़' तख़ल्लुस ज़ाहिर सी बात है बाद में जुड़ा। परिवार का ताल्लुक क्यूंकि मिठाई से था, जिसमें पढाई से ज़्यादा तजुर्बा काम आता है, लिहाज़ा अपनी पढाई लिखाई पर परिवार में से किसी ने कोई ख़ास तवज्जोः नहीं दी। 'राज़' साहब ठहरे इस परिवार के बिगड़े शहज़ादे इसलिए जनाब ने वो काम नहीं किया जो ख़ानदानी था बल्कि इसके उलट पढाई लिखाई की। पढाई-लिखाई क्या की यूँ समझिये कि 'उनके ख़्याल आये तो आते चले गए' की तर्ज़ पर वो पढ़ते चले गए। उर्दू और हिंदी में एम्.ए. की डिग्रियाँ पा कर जब उनका जी नहीं भरा तो हज़रत एल एल बी की ओर मुड़ गए और उसकी भी डिग्री हासिल कर ली वो भी 'ऑनर्स' के साथ। ये तो हुई पढाई की बात अब ज़रा शौक़ देखें ज़नाब के, शायरी तो, जैसा आपको पता लग चुका है, ख़ैर था ही साथ में ज्योतिष में भी जोर आज़माइश करते हुए महारत हासिल कर ली और शतरंज सीख कर अच्छे अच्छे उस्तादों को पानी पिलाने लगे। रोज़ी रोटी के लिए वक़ालत करने की ठानी लेकिन अदालत में मी लार्ड मी लार्ड बोलने से कोफ़्त होने लगी तो मास्टरी, अफ़सरी, प्रोफ़ेसरी और फिर सरकार में नौकरी दर नौकरी करते हुए खूब पापड़ बेले। लेक्चरारी में बंधे कुछ दिन कुरुक्षेत्र में भी रहे और जब वहां मन नहीं लगा तो पंचकुला आ गए और हुकूमत हरियाणा के महकमा-ऐ-क़ानून से वाबस्ता हो गए फिर वहीँ से आखिर में सितम्बर 1993 में बतौर डिप्टी सेकेट्री रिटायर हुए। 

मुर्ग़ चोरी का रोज़ खाता हूँ 
मैं नहीं जानता सज़ा क्या है 

मैं चला हूँ विदेशी दौरे पर 
ये न पूछो कि मुद्दआ क्या है 

रह के सुहबत में उनकी चलेगा पता 
घोड़ा क्या चीज़ है गधा क्या है 

बीवी उम्मीद से है पचपन में 
या इलाही ये माजरा क्या है

ग़ालिब के अलावा राज़ साहब ने ज़ौक़ ,फ़ानी ,जोश ,शक़ील ,जिग़र , फ़िराक ,क़तील शिफ़ाई साहिर जैसे अज़ीम शायरों की ग़ज़लों की भी इसी तरह दुर्गत करने में कोई कसर छोड़ी। इस किताब में आप ग़ालिब के अलावा इन सब शायरों की ग़ज़लों पर की गयी पैरोडी का भी मज़ा उठा सकेंगे। राज़ साहब अपनी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "चचा ग़ालिब के शेर 'मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों के पेशे नज़र उदासी, बेचैनी, तनाव और परेशानी हर इंसान को ज़िन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर घेरे हुए है। इन के बीच हँसी ख़ुशी के मौक़े जुटा लेने वाला इंसान ही ख़ुश किस्मत है। क्यूंकि मिज़ाह का लुत्फ़ लेते रहने वाले इंसान के लिए दुनिया के ग़मों को बर्दाश्त करने के लिए एक नयी ताक़त और हिम्मत पैदा हो जाती है। नामवर मिज़ाह निगार जनाब 'मुज्तबा हुसैन' अपनी किताब 'तकल्लुफ़ बरतरफ़' में एक जगह लिखते हैं ' मैं हँसी को मुक़द्दस फ़रीज़ा (पावन कर्तव्य ) मानता हूँ और क़हक़हा लगाने को ज़िन्दगी का सबसे बड़ा एडवेंचर -- ज़िन्दगी के बेपनाह ग़मों में घिरे रहने के बावजूद इंसान का क़हक़हा लगाना ऐसा ही है जैसे विशाल समंदर में भटके हुए किसी जहाज़ को अचानक कोई टापू मिल जाए।    
सुनता वो कम है हसीं उसको सुनाए न बने
भैंस के सामने ज्यूँ बीन बजाए न बने

नाक में दम जो करे उसका पसीना मेरे
बात गर्मी में बिना लक्स नहाए न बने

सब्ज़ी जो सस्ती मिली हमने ज़्यादा ले ली
अब उठाए न उठे और गिराए न बने

मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के महान और कालजयी शायर हैं। प्रत्येक गायक इनकी ग़ज़लों को अपना स्वर प्रदान करने में फ़क्र महसूस करता है। सहगल, सुरैय्या, बेग़म अख्तर, रफ़ी ,तलत महमूद   जगजीत सिंह और ग़ुलाम अली जैसे गायकों ने इनकी ग़ज़लों को गा कर अत्यंत लोकप्रिय बना दिया है।'ग़ालिब-जीवन,शायरी ,ख़त और सफ़र-ए-कलकत्ता' नामक पुस्तक हिंदी में ग़ालिब ग़ज़लों की सरल व्याख्या और उनके जीवन सम्बन्धी बहुत ही दिलचस्प जानकारियों सहित एक लाजवाब कारनामा है जिसका अगला संस्करण एक नयी आब-ओ-ताब के साथ प्रकाशनाधीन है। बहुत पहले इस पुस्तक को सम्पादित करते हुए राज़ साहब ने निश्चय किया था कि क्यों न इस अज़ीम शायर को उन्हीं की ज़मीनों में अंकुरित हास्य-व्यंग रुपी श्रद्धा सुमन अर्पित किये जाएं। तो लीजिये फलस्वरूप फ़िलहाल आप क़हक़हों से भरपूर ' ग़ालिब और दुर्गत' का थोड़ा आनंद लें जिसकी खुशवंत सिंह, डॉ. गोपीचंद नारंग , बशीर बद्र, निदा फ़ाज़ली, प्रो जगन्नाथ आज़ाद , सागर ख़य्यामी ,इब्राहिम अश्क़ जैसे साहित्यकारों ने भूरी भूरी प्रशंसा की। ये किताब 'साक्षी पेपरबैक्स'  एस -16 ,नवीन शाहदरा ,दिल्ली 110032 से प्रकाशित हुई है। आप ये पुस्तक सीधे प्रकाशक से 09810461412 पर संपर्क कर या फिर अमेज़न से ऑन लाइन भी मँगवा सकते हैं।

तिरे बन्दे का ऐ मालिक कभी तो पेच-ओ-ख़म निकले 
कभी इसकी भी दुम निकले कभी इसका भरम निकले   

डिनर ढाबे पे जिन साहब को कल मैंने खिलाया था 
वही हज़रत मिरी महबूब के चौथे ख़सम निकले 

ये सब बरसाती मेंढक हैं ये लीडर दुम हैं कुत्ते की 
हज़ारों बार पिट कर भी न कम्बख्तों के ख़म निकले 
ख़म : टेढ़ा पन 

पुलिस ने रात भर पीछा किया था चोर का लेकिन 
निशां जब सुब्ह को देखे तो भैंसों के क़दम निकले 

नज़ाक़त को ग़ज़ल की हम ने ढाला है ज़राफ़त में 
न ग़ालिब ने कसर छोड़ी न हम ही 'राज़' कम निकले 
ज़राफ़त: हास्य             

राज़ साहब के मित्र डॉ नाशिर नक़वी साहब लिखते हैं कि ' 86 साल की उम्र में भी ये शख़्स किसी तौर पर अपने आप को बूढ़ा क़ुबूल करने को तैयार नहीं क्यूंकि इनका ख़्याल है कि आदमी दिल से बूढ़ा नहीं होना चाहिए। बूढ़ा वो होता है जो हँसने हँसाने से परहेज़ करता है। बस यही वो अदा है जो टी एन राज़ को जवां और हरदिल अज़ीज़ बनाए हुए है। आप उनसे 9646532292 या 9988097276 पर बात कर खुद इस बात का यकीन कर सकते हैं। नक़वी साहब आगे लिखते हैं कि ' राज़ की मिज़ाहिया शायरी में एक बड़ी ख़ूबी ये है कि वो हँसने हँसाने के साथ समाज को दरपेश मौजूदा मसअलों और बुराइयों से वाकिफ़ कराने में कामयाब हैं। राज़ खुद को निशाना बना कर किसी ऐब को उजागर करके अपने दाएं बाएं फैली कुरीतियों के छीटें बिखेरते हैं जो बड़े दिल गुर्दे की बात है। इनका हर शेर एक अदबी और मेयारी लतीफ़े का सा असर छोड़ता है। जिस आदमी में ,जिस समाज में हँसने हँसाने की सलाहियत नहीं होती वो समाज टी बी ज़दा होता है , जहाँ हर इंसान के सीने में घुटन और तनाव की खांसी सुनाई देती है। इस माहौल में अगर कोई शख़्स अपने मज़ाहिया अंदाज़ एहसास और इज़्हार से मुस्कुराने, हँसने और क़हक़हा लगाने की प्रेरणा देता है तो उसे फ़रिश्ता ही कहा जायेगा। राज़ साहब इस माने में फ़रिश्ता हैं क्यूंकि वो कहीं हल्के और कहीं तीखे तन्ज़ के साथ हँसने और हँसाने का अनोखा और अछूता गुर जानते हैं। 

मैं पंचकुला के होनहार शायर जनाब 'महेंद्र कुमार सानी जी का बेहद शुक्रगुज़ार हूँ जिनके कारण मुझे इस बाक़माल शायर का पता चला। चलिए देखते हैं कि राज़ साहब ने जिगर मुरादाबादी साहब की एक ग़ज़ल की क्या खूब दुर्गत की है :
       
यूँ ज़िन्दगी तबाह किए जा रहा हूँ मैं 
पीरी में भी विवाह किए जा रहा हूँ मैं 
पीरी : बुढ़ापा 

बस का तो इस बुढ़ापे में कुछ भी नहीं रहा 
क्या क्या न फिर भी चाह किए जा रहा हूँ मैं 

उन गुलरुख़ों पे जो हुए खण्डर मेरी तरह 
हसरत भरी निगाह किए जा रहा हूँ मैं 
गुलरुख़ों : फूल से चेहरे वाले 

बीवी की डाँट है कभी अफ़सर की झाड़ है 
दोनों से ही निबाह किए जा रहा हूँ मैं 

और अब आख़िर में फ़िराक़ साहब की एक ग़ज़ल की भी दुर्गत देख लें। सच तो ये है कि मैं सभी की दुर्गत तो एक पोस्ट में पढ़वा नहीं सकता सिर्फ़ आपसे गुज़ारिश ही कर सकता हूँ कि ऐसी अनमोल किताब का आपके पास होना ज़रूरी है क्यूंकि कुछ पता थोड़े ही होता है कि ज़िन्दगी में न जाने कब आपको हँसने की ज़रुरत पड़ जाय, इसलिए अग्रिम इंतज़ाम करके रखें।

किसी के इश्क़ में मरना जो जी में ठान लेते हैं
वो अपनी क़ब्र का जुग़राफ़िया पहचान लेते हैं
जुग़राफ़िया :भूगोल 

नज़र के वास्ते सुर्मा ,ज़बीं के वास्ते बिंदी
वो क्या क्या क़त्ल का मेरे लिए सामान लेते हैं

इधर बीवी जो दे ताने उधर मच्छर सताते हों
तो सर से पाओं तक हम पूरी चादर तान लेते हैं

रिटायर हो के जब से 'राज़' हम बैठे हैं घर अपने
नहीं चलती हमारी, बीवी के फ़रमान लेते हैं

35 comments:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 26 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

अच्छी समीक्षा।
पर्याप्त जानकारी मिली।

मोहन पुरी said...

यह किताब शायद अलग ही मकाम हासिल करेगी । गुदगुदाते अशआर नायाब हैं ।

Onkar said...

बहुत बढ़िया

सधु चन्द्र said...

वाह!
बहुत बढ़िया

Unknown said...

"पूर्ण विश्राम की अवस्था" को अगर आप मिल गये हैं, तब फिर "पूर्ण विश्राम की अवस्था" को काम मिल गया है |
👌🙏

डॉ. जेन्नी शबनम said...

ऐसी दुर्गति वाली शायरी पढ़ने की उत्कंठा जाग उठी। राज साहब को इस विलक्षण कार्य के लिए बधाई।

M S mahawar said...

waaah waaah ��

Unknown said...

पढ़कर आनंद आ गया । हास्य जीवन का बहुत आवश्यक और अभिन्न अंग है । "ग़ालिब की दुर्गति" के तो क्या कहने साहेब,हा हा हा हा, हा हा हा हा,और फिर हा हा हा हा हा हा हा हा ।
वस्तुतः हास-परिहास शिष्ट और व्यंजनापूर्ण होने पर ही अपनी चरमावस्था में होता है ।
नीरज गोस्वामी जी का हार्दिक आभार,इतने मज़ेदार लेख पढ़ने का अवसर देने के लिए ।

Ramesh Kanwal said...

मुर्ग़ चोरी का रोज़ खाता हूँ
मैं नहीं जानता सज़ा क्या है

मैं चला हूँ विदेशी दौरे पर
ये न पूछो कि मुद्दआ क्या है

रह के सुहबत में उनकी चलेगा पता
घोड़ा क्या चीज़ है गधा क्या है

बीवी उम्मीद से है पचपन में
या इलाही ये माजरा क्या है

अच्छा लगा। रंग भी बदला हुआ आपका है
कितने पाठक आपके मित्र हैं जिन्होंने अपने हंसी का इनकम बढ़ा लिया । बताइए तो सही।
जी एस टी लगाना है

चोवा राम "बादल" said...

वाह वाह शानदार आलेख।

तिलक राज कपूर said...

ग़ालिब साहब का फ़ोन आया था कि वो भौचक्के रह गये हैं इस अंदाज पर। शुक्रिया अदा किया है आपका और राज साहब का इस नए रंग के लिये।
वाहः, वाहः आउट वाहः।

तिलक राज कपूर said...

आउट को और पढ़ें।

नीरज गोस्वामी said...

जी धन्यवाद

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद

नीरज गोस्वामी said...

बहुत शुक्रिया आपका...नाम भी नीचे लिख देते तो मजा आता

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया भाई

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद आपका

नीरज गोस्वामी said...

बहुत खूब आपने हमें ही लपेट दिया वाह

नीरज गोस्वामी said...

बहुत शुक्रिया आपका

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद जी

नीरज गोस्वामी said...

आनंद में ही जीवन है...आपको आया तो समझें हमें भी आ गया...आनंद

नीरज गोस्वामी said...

पाठकों की कभी गिनती नहीं की लेकिन ढेरों हैं आप जम के लगाएं जी एस टी

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद जी

नीरज गोस्वामी said...

मुझे पता था वो आपको फोन करेंगे... डायरेक्ट हमें करने से कतराते हैं ..दुबारा फोन आए तो कहिएगा कि मस्त रहें

नीरज गोस्वामी said...

और ही पढ़ा था...वैसे इत्ती लेते क्यों हैं कि हर बार आउट हो जाते हैं...हैं 😂🤣

Amit Thapa said...

पता नहीं नीरज जी कहाँ से और दुनियाँ के किस कोने से किताबें खोज ले आते हैं, मैंने टी. एन. राज साहब की
"ग़ालिब संगीत के सांचे में ढली ग़ज़लें" पढ़ी थी, उन टी. एन. राज साहब और यहाँ वाले टी. एन. राज साहब में तो जमीन आसमान का अंतर् हैं

कहाँ उस क़िताब में धीर गंभीरता के साथ ग़ालिब की ग़ज़लों की व्याख्या करते हुए और कहाँ उनके साथ साथ बाकी शायरों की ग़ज़लों को लपेटते हुए अपनी हसोड़ ग़ज़लें कहते हुए

पहला शेर पढ़ने के बाद तो लगा की कोई गंभीर शायरी पढ़ने को मिलने वाली हैं पर नीरज जी ने तो अपने मैसेज में मुस्कुराने की बात कही थी पर भैंस वाला शेर पढ़ते ही जो हँसी आनी शुरू हुई वो रुकी ही नहीं फ़िर

शायरी और ग़ज़लों के इस रूप का तो पहली बार पता लगा है और इस से परिचित कराने के लिए आपका एक बार हृदय से धन्यवाद


वैसे आप इनके पिता जी का नाम एक बार दिखवा ले की सही है या नहीं क्योंकि किताब में श्री मातू राम जी लिखा हुआ हैं और साथ में उनका जन्मदिन भी क्योंकि उनकी जन्म तारीख भी १० सितंबर १९३४ दी गयी हैं

धन्यवाद

mgtapish said...

मेरे अल्लाह मेरी पारसाई पर करम करना
मुसल्सल तेज़ बारिश में वो लिपटा जाए है मुझ से
वाह नीरज जी वाह
मोनी गोपाल 'तपिश'

अशोक रावत said...

🙏🙏🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🍀🌹

नीरज गोस्वामी said...

अमित बाबू आपकी पारखी नज़र को सलाम...सही पकड़े हैं...इनके पिता का नाम श्री मातू राम ही है...मुझसे गलती हुई जिसे सुधार रहा हूँ। आप जैसा पाठक हो तो लिखने का आनंद बढ़ जाता है...जय हो।

नीरज गोस्वामी said...

बहुत शुक्रिया भाई साहब

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद अशोक जी...स्नेह बना रहे

Himkar Shyam said...

वाह, आनन्द आ गया पढ़ कर। दिलचस्प,अलहदा, गुदगुदाते अशआर। हार्दिक धन्यवाद।

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद हिमकर भाई

shaileshjain9621@gmail.com said...

Waah