Monday, November 7, 2016

उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

इस दिवाली पर गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर हुए कामयाब तरही मुशायरे में खाकसार ने भी शिरकत की, तरही मिसरा था 'उजाले के दरीचे खुल रहे हैं'. आप सब के लिए यहाँ पेशे खिदमत है वो ही सीधी-सादी सी ग़ज़ल थोड़ी सी तब्दीली के साथ। सीधी-सादी ग़ज़ल माने ऐसी ग़ज़ल जिसे कहने में शायर को और पढ़ने में पाठक को दिमाग न लगाना पड़े. पढ़ लें पसंद करें न करें आपकी मर्ज़ी.


सभी दावे दियों के खोखले हैं 
अँधेरे जब तलक दिल में बसे हैं 

पुकारो तो सही तुम नाम लेकर 
 तुम्हारे घर के बाहर ही खड़े हैं

अहा ! कदमों की आहट आ रही है 
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं 

है आदत में हमारी झुक के मिलना 
 तभी तो आप से हम कुछ बड़े हैं

बहुत दिलकश है गुलशन ज़िन्दगी का 
कहीं कांटे कहीं पर मोगरे हैं 

जिन्हें मैं ढूढता फिरता हूँ बाहर 
वो दुश्मन तो मेरे भीतर छुपे हैं 

ग़मों के बंद कमरे खोलने को 
तुम्हारे पास 'नीरज' कहकहे हैं

Monday, September 5, 2016

किताबों की दुनिया -127

किताबें कई तरह की होती हैं , कुछ किताबें होती हैं जिनकी तरफ देखने का मन नहीं करता , कुछ को देख कर अनदेखा करने का मन करता है , कुछ को हाथ में लेकर देख कर रख देने का मन करता है, पढ़ कर भूल जाने का मन करता है तो कुछ हमेशा याद रहती हैं लेकिन कुछ किताबें ऐसी भी होती हैं ,जिन्हें देख कर एक पुराना फ़िल्मी गाना याद आ जाता है " देखते ही तुझे मेरे दिल ने कहा ज़िन्दगी भर तुझे देखता ही रहूँ। आज हम ऐसी ही किताब का जिक्र करेंगे जिसे देख-खोल कर मुंह से अपने आप ही ‘अहा’ निकल जाता है :

 मुझसे मेरा मन मत मांगो 
मन का भी इक मन होता है 

तुम आये मन यूँ महका ज्यूँ 
महका चन्दन-वन होता है 

सुंदरता होती है मन की 
तन तो पैराहन होता है 

शायर के मन की सुंदरता को खूबसूरत कलाम के ज़रिये बेहद दिलकश अंदाज़ में पेश करने वाली हमारी आज की किताब है "तीतरपंखी" जिसके शायर हैं जनाब 'मंगल नसीम' साहब !ये किताब हिंदी और उर्दू दोनों लिपियों में एक साथ प्रकाशित हुई है याने हिंदी में उर्दू शायरी पढ़ने वाले पाठकों के साथ साथ उर्दू पढ़ने वाले पाठक भी नसीम साहब की इस किताब में उनकी शायरी का लुत्फ़ उठा सकते हैं।


नहीं, हममें कोई अनबन नहीं है 
बस इतना है कि अब वो मन नहीं है 

मैं अपने आप को सुलझा रहा हूँ 
उन्हें लेकर कोई उलझन नहीं है 

मुझे वो गैर भी क्यों कह रहे हैं 
भला क्या ये भी अपनापन नहीं है 

मैं अपने दोस्तों के सदके लेकिन 
मेरा क़ातिल कोई दुश्मन नहीं है 

20 सितम्बर 1955 को खारी बावली पुरानी दिल्ली में जन्में ‘मंगल नसीम’ साहब आजकल शाहदरा दिल्ली के निवासी हैं, आपके पिता श्री रामेश्वर दत्त जी का दिल्ली में कथ्थे का बहुत बड़ा व्यापर था । एक व्यापारी के पुत्र का व्यापारी बनना जग जाहिर है लेकिन उसके ज़ेहन में शायरी का परवान चढ़ना किसी अजूबे से कम नहीं । अपने कॉलेज के दिनों से ही शायरी करने वाले मंगल नसीम साहब का 'तीतरपंखी " उनका दूसरा शेरी मजमुआ है जो सन 2010 में शाया हुआ, हैरत की बात ये है कि उनका पहला शेरी मजमुआ "पर नहीं अपने " सन 1992 में शाया हुआ था याने पहले और दूसरे शेरी मजमूओं के बीच 18 सालों का वक्फा है।

मुझको था ये ख्याल कि उसने बचा लिया 
और उसको ये मलाल कि ये कैसे बच गया 

उसको उदास देखके पहले ख़ुशी हुई 
पर फिर दिलो-दिमाग़ में कोहराम मच गया 

कोई तवील उम्र भी यूँ ही जिया 'नसीम' 
कोई ज़रा-सी उम्र में इतिहास रच गया 

नसीम साहब शायरों की उस फेहरिश्त में नहीं आते जिनके कलाम आये दिन रिसालों अखबारों में छपते हैं और जो हर दूसरे मुशायरे में नमूदार हो कर अपने अशहारों पर वाह वाही करने के लिए सामयीन के सामने गिड़गिड़ाते देखे जाते है, उनका शुमार उन शायरों की लिस्ट में बहुत ऊपर है जो कभी कभार लिखते हैं और जिनका लिखा पढ़ने सुनने वाले के दिल पर हमेशा के लिए अपनी जगह बना लेता है।

वो क़र्ज़ साँसों का देता है अपनी शर्तों पर 
पठान सूद पे जैसे उधार देता है 

हरेक क़ुर्ब में दूरी है, थोड़ी देर के बाद 
पिता भी गोद से बच्चा उतार देता है 

ये मत कहो वो भले का सिला नहीं देता 
सिला वो देता है, देता है, यार देता है 

और शायद यही वजह है की उनकी दो किताबों के बीच इतना लंबा अंतराल आया है. वो खुद इस बात को मानते हुए अपनी इस किताब की भूमिका में लिखते भी है कि "अपनी कमगोई और कमहौसलगी को देखते हुए एक और किताब के बारे में सोच तक न पाता था मैं ,सोचता था कम से कम मुझसे तो एक किताब नहीं ही हो सकती। इसी सोच के चलते पूरे 18 बरस बीत गए। इन 18 बरसों में ,गाहे ब गाहे शेर कहता और अहबाब को सुना खुश हो रहता " ये पाठकों की खुश किस्मती है कि उनके एक चाहने वाले ने उनके पहले मजमुए के बाद आये कलाम को सिलसिलेवार ढंग से एक डायरी में दर्ज कर लिया और उसी वजह से ये किताब मंज़रे आम पर आयी। 

तीतरपंखी बादल छाया, सबको आस बंधी 
लेकिन अबके तीतरपंखी भी दिल तोड़ गया 

उससे ही दूरी रक्खूँ , उसकी ही राह तकूँ 
कैसी उलझन से वो मेरा नाता जोड़ गया 

अपना अपना पागलपन है, पागल कौन नहीं 
बस इतना भर कहके वो पागल दम तोड़ गया 

कहते हैं कि तीतरपंखी बादल वो बादल होता है जिसके बरसने की संभावना प्रबल होती है अब ये बात सच है या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन इस,किताब के हर पन्ने पर तीतरपंखी बादलों के छाया चित्रों से बरसते अशआर पाठक को अंदर तक भिगो देते हैं ।
मंगल नसीम साहब ने अपने समकालीन शायरों के मुकाबले कम कहा है लेकिन जो भी जितना भी कहा है बहुत पुख्तगी से कहा है। शायरी में लफ्ज़ बरतने का सलीका उन्होंने अपने उस्ताद कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय में प्राणी विज्ञानं के विभागाध्यक्ष जनाब सत्य प्रकाश शर्मा 'तफ़्ता' साहब से सीखा तभी उनके शेर पढ़ने सुनने वालों के सीधे दिल में उतर जाते हैं।

हवा में जब कभी तेरी छुअन महसूस होती है 
भरे ज़ख्मों में भी बेहद दुखन महसूस होती है 

कभी तो बज़्म में भी होता है एहसासे-तन्हाई 
कभी तन्हाई भी इक अन्जुमन महसूस होती है 

मुनासिब फासला रखिये भले कैसा ही रिश्ता हो 
बहुत कुर्बत में भी अक्सर घुटन महसूस होती है 

मशहूर फनकार जनाब ‘महेंद्र प्रताप 'चाँद’ इस किताब में लिखते हैं कि "मंगल नसीम का एक खास वस्फ़ ये है कि वो हवाई बातें नहीं करते बल्कि जो अपनी ज़ात पर गुज़रता महसूस करते हैं या अपने गिर्दो-पेश में जिन वाकियातो-हादिसात का मुशाहिदा करते हैं उन्हें अपने अशआर में बेहद ख़ूबसूरती से ढाल कर पेश कर देते हैं। वो अपने अशआर में हिंदी के साथ-साथ उर्दू व् फ़ारसी के लफ़्ज़ों को इस ख़ूबसूरती और चाबुकदस्ती के साथ इस्तेमाल करते हैं कि ये हसीन इम्तिज़ाज हिंदी और उर्दू दोनों जुबानों के अहले-अदब में उनकी कद्र और मक़बूलियत का ज़ामिन बन चुका है

'ठीक हो जाओगे' कहते हुए मुंह फेर लिया 
हाय क्या खूब वो बीमार का मन रखते हैं 

पैर थकने का तो मुमकिन है मुदावा लेकिन 
लोग पैरों में नहीं मन में थकन रखते हैं 

हम तो हालात के पथराव को सह लेंगे 'नसीम' 
बात उनकी है जो शीशे का बदन रखते हैं 

प्रसिद्ध ई पत्रिका 'रचनाकार' में मंगल नसीम साहब पर प्रकाशित एक लेख में विजेंद्र शर्मा साहब ने लिखा है कि “नई नस्ल के बहुत से शाइर मंगल नसीम साहब के शागिर्द है। इनके शागिर्द बताते हैं कि ऐसा उस्ताद नसीब वालों को ही मिलता है। अगर इनके शागिर्द रात के 2 बजे भी कभी इन्हें फोन करके अपना मिसरा सुनाते हैं तो नसीम साहब बड़ी ख़ुशी से उस वक़्त भी इस्लाह करते हैं। किसी उस्ताद का ऐसा किरदार देख कर मुझे कहीं सुनी हुई एक बात याद आ गई कि "दुनिया में ख़ुदा ने बाप और गुरु को ही ये सिफ्त अता की है कि उन्हें अपने बेटे और शिष्य से कभी इर्ष्या नहीं होती ये दोनों चाहते हैं कि मेरा बेटा / शिष्य मुझसे भी आगे जाए और अपना नाम रौशन करे। मंगल नसीम साहब की कही ग़ज़ल में एक भी मिसरा ऐसा नज़र नहीं आता जिसमें शाइरी के साथ-साथ उस्तादी ना झलकती हो ,इस बात की तस्दीक के लिए इनकी एक ग़ज़ल का मतला और दो शे'र मुलाहिज़ा फ़रमाएँ :---

यूँ ज़ख़्म उसने हाल में जलते हुए दिये 
रखने पड़े मिसाल में जलते हुए दिये  

पूजा के थाल जैसा वो चेहरा लगा मुझे 
दो नैन जैसे थाल में जलते हुए दिये  

मेहंदी रची हथेलियाँ लहरों ने चूम लीं 
छोड़े जब उसने ताल में जलते हुए दिये

इस ग़ज़ल में "जलते हुए दिये" रदीफ़ को निभाना अपने आप में अदभुत है। जैसा मैंने पहले भी ज़िक्र किया कि मंगल नसीम साहब शे'र कहने में जल्दबाजी नहीं करते और जब तक वे ख़ुद मिसरों की शे'र में तब्दीली पे मुतमईन नहीं हो जाते तब तक उस शे'र को काग़ज़ पे हाज़िरी भी नहीं लगाने देते।"

 नसीम साहब के खुद के प्रकाशन संस्थान 'अमृत प्रकाशन' से प्रकाशित इस निहायत दिलकश किताब की प्राप्ति के लिए आप या तो अमृत प्रकाशन से 011 -223254568 पर संपर्क करें या फिर सीधे नसीम साहब को इस खूबसूरत किताब के लिए उनके मोबाईल न 9968060733 पर बधाई देते हुए किताब प्राप्ति का रास्ता पूछ लें। आपके लिए अगली किताब की तलाश पर निकलने से पहले नसीम साहब की माँ पर कही एक ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वा कर विदा लेते हैं :

क्या सीरत थी क्या सूरत थी 
माँ ममता की मूरत थी 

पाँव छुए और काम हुए 
अम्मा एक महूरत थी 

बस्ती भर के दुःख-सुख में 
माँ इक अहम् ज़रुरत थी

Monday, June 27, 2016

हर कोई मुड़ के देखता है मुझे

"किताबों की दुनिया" श्रृंखला फिलहाल कुछ समय के लिए रुकी हुई है जब तक कोई नयी किताब हाथ में आये तब तक आप ख़ाकसार की बहुत ही सीधी, सरल मामूली सी, अर्से बाद हुई इस ग़ज़ल से काम चलाएं, क्या पता पसंद आ जाए , आ जाए तो नवाज़ दें न आये तो दुआ करें कि अगली बार निराश न करूँ :



 बाद मुद्दत के वो मिला है मुझे 
डर जुदाई का फिर लगा है मुझे 

आ गया हूँ मैं दस्तरस में तेरी 
अपने अंजाम का पता है मुझे 
दस्तरस = हाथों की पहुँच में 

क्या करूँ ये कभी नहीं कहता 
जो करूँ उसपे टोकता है मुझे 

तुझसे मिलके मैं जब से आया हूँ 
हर कोई मुड़ के देखता है मुझे 

अब तलक कुछ वरक़ ही पलटे हैं 
तुझको जी भर के बांचना हैं मुझे 

ठोकरें जब कभी मैं खाता हूँ 
कौन है वो जो थामता है मुझे 

सोचता हूँ ये सोच कर मैं उसे 
वो भी ऐसे ही सोचता है मुझे 

मैं तुझे किस तरह बयान करूँ 
ये करिश्मा तो सीखना है मुझे 

नींद में चल रहा था मैं ‘नीरज’ 
तूने आकर जगा दिया है मुझे


(कुछ लोग ग़ज़ल के साथ लगायी फोटो पर आपत्ति कर सकते हैं लेकिन ज़िन्दगी सिर्फ़ संजीदगी से नहीं चलती उसमें हंसना मुस्कुराना भी जरूरी होता है , ये ग़ज़ल उसी ज़िन्दगी का अक्स है )

Monday, June 6, 2016

किताबों की दुनिया -126

आज 'किताबों की दुनिया' श्रृंखला का आगाज़ हिंदुस्तानी ज़बान के लाजवाब शायर स्वर्गीय जनाब 'निदा फ़ाज़ली' साहब की ग़ज़ल के बाबत कही इस बात से करते हैं कि " ग़ज़ल में दर अस्ल 'जो है' का चित्रण नहीं होता , यह हमेशा 'जो है ' में 'जो नहीं है' उसकी तस्वीरगरी करती है। ग़ज़ल शब्दों के माध्यम से उस विस्मय की रचना करने का नाम है , जो उम्र के साथ हम खोते रहते हैं और जिसके बगैर जीवन 'रात -दिन' का हिसाब किताब बन कर रह जाता है। "

दिन, थका-मांदा इक और सोता रहा 
रात , बिस्तर पे करवट बदलती रही 

ज़हन की पटरियों पर तेरी याद की 
रेल, हर शाम रुक-रुक के चलती रही 

आग में तप के सोना निखरता रहा 
ज़िन्दगी ठोकरों में सम्भलती रही 

हमारे आज के शायर और उनकी शायरी के बारे में निदा साहब इस किताब की, जिसका जिक्र हम करने जा रहे हैं ,भूमिका में आगे लिखते हैं कि वो ग़ज़ल के मिज़ाज़ और इस मिज़ाज़ के तक़ाज़ों से वाक़िफ़ हैं , वो कहीं भी ऊंची आवाज़ में बात नहीं करते ...वो जब भी जैसी बात करते हैं , उसे सरगोशियों में अदा करते हैं....इस सरगोशी के अंदाज़ ने इन ग़ज़लों में वो फ़नकारी उभारी है, जिससे ग़ज़ल बड़ी हद तक दूर होती जा रही है :

ज़रा करीब से चंचल हवा गुज़र जाये 
अजब ख़ुशी में शजर खिलखिलाने लगते हैं 

मिज़ाज़ अपना कुछ ऐसा बना लिया हमने 
किसी ने कुछ भी कहा, मुस्कुराने लगते हैं 

किसी भी चीज की तारीफ इतनी करता हूँ
कि लोग मुझको ही झूठा बताने लगते हैं 

रहस्य को जरूरत से ज्यादा न खींचते हुए आपको बता दूँ कि हमारे आज के शायर हैं 10 अक्टूबर 1969 को अकबरपुर फैज़ाबाद में जन्में जनाब 'अतुल अजनबी' साहब जिनकी किताब ' शजर मिज़ाज़ ' का जिक्र हम कर रहे हैं।

बलाएँ राह की रोकेंगी क्या भला उसको 
जो अपनी आँख में मंज़िल बसाए रहता है 

किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का 
जो धूप-छाँव से रिश्ते बनाये रहता है 

ग़ज़ल मिज़ाज़ से भटके न, इसलिए ही 'अतुल' 
किताबे-मीर को दिल से लगाये रहता है 

आप बस अतुल की किताब के कुछ ही वर्क पलटिये आपको महसूस होगा कि वो ग़ज़ल की फितरत उसके मिज़ाज़ और अदाओं से वाकिफ़ हैं और क्यों न हों ? जो शख़्स हिन्दुस्तान के बेहतरीन शायर जनाब वसीम बरेलवी साहब से इस्लाह लेता हो उसकी शायरी में ये सारी की सारी खूबियां नज़र आना लाज़मी है।

जुगनू ही क़ैद होते हैं हर बार दोस्तों 
सूरज पे आज तक कभी पहरा नहीं लगा 

उस शख़्स ने दिया है मेरा साथ वक्त पर 
जो शख़्स आज तक मुझे अपना नहीं लगा 

बच्चों की फीस, माँ की दवा, कितनी उलझने 
कोई भी शख़्स शहर में तनहा नहीं लगा 

जीवाजी यूनिवर्सिटी से एम. ऐ ( हिंदी ) करने के बाद अतुल जी ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से एल एल बी की डिग्री हासिल की। वो अब भारतीय जीवन बीमा निगम की ग्वालियर शाखा में कम्प्यूटर प्रोग्रामर के पद पर कार्यरत हैं। शायरी के लिहाज़ से ग्वालियर की गौरव शाली परम्परा रही है जो 'शाह मुबारक आबरू' (1700 -1750) जिनका ये शेर तब चल रही शायरी का बेहतरीन नमूना है :

तुम्हारे लोग कहते हैं क़मर है 
कहाँ है, किस तरह की है, किधर है 

से होती हुई 'मुज़्तर खैराबादी' ( जान निसार अख्तर साहब के वालिद  ) , 'नारायण प्रसाद 'मेहर' और इसी तरह के लाजवाब शायरों का लम्बा सफर तय करते हुए 'अतुल' जैसे होनहार फनकारों तक पहुंची है।

महक उठेगा बदन उसका फूल-सा इक दिन 
जो तेज़ धूप में अपना बदन जलाएगा 

विषैले साँपों से डरता है खुद सपेरा भी 
बगैर ज़हर के जो हैं उन्हें नचाएगा 

मैं इस उमीद पे उससे ख़फ़ा नहीं होता 
कभी तो हक़ में मेरे फैसला सुनाएगा 

अतुल जी की शायरी की बात किताब के फ्लैप पर लिखे वसीम साहब के इस व्यक्तव्य को बिना आप तक पहुंचाए पूरी नहीं होगी " अतुल ज़हीन है, तल्वा हैं और ग़ज़ल को समर्पित हैं लिहाज़ा हर वक्त कोशों रहते हैं कि मज़ामीन के नए नए गोशों में शेरी रंग भरे और कागज़ पर उतार दें। अतुल की गैर मामूली लगन, बे पायां शौक और जूनून की हद तक कुछ कह गुजरने की ख़लिश उन्हें काबिले तवज्जा और लाइके जिक्र बनाए बगैर नहीं रहती जिसे उनके मुस्कुराते भविष्य का इशारिया समझा जाना चाहिए।" 

तेरी ख़ुशी की हवा मात खा न जाय कहीं 
लिबास ग़म का मुझे तार-तार करना पड़ा 

वो अहतियात बरतने का इतना आदी था 
ज़रा सा काम उसे बार-बार करना पड़ा 

लचकती शाख पे जब बर्फ की चट्टान दिखी 
तेरे वजूद का तब ऐतबार करना पड़ा

कमाल उसमें था चश्मा निकालने का अगर 
मुझे भी अपना बदन रेगजार करना पड़ा 
चश्मा : पानी का सोता , रेगजार : मरुस्थल 

यूँ तो हम सब जानते हैं कि अधिकतर पुरस्कारों और सम्मानों का सम्बन्ध शायर और उसकी शायरी की गुणवत्ता से कम और प्रकाशक अथवा शायर के रसूख़ से ज्यादा होता है लेकिन जब पुरूस्कार या सम्मान से किसी अतुल जैसे अच्छे शायर या उसके कलाम को नवाज़ा जाता है तो उसकी एहमियत समझ में आती है। अतुल कादम्बिनी महोत्सव , इ टीवी उर्दू और ग्वालियर जेसीज द्वारा पुरुस्कृत किये गए हैं।

कभी-कभार मेरा फोन जब नहीं बजता 
मैं सोचता हूँ तेरी उलझनों के बारे में 

हवा से, धूप से मुश्किल है जानना सब कुछ 
नदी बताएगी सच, पर्बतों के बारे में 

किसान फस्ल के नखरे उठा तो लेता है 
बहुत है फ़िक्र मगर मौसमों के बारे में 

"शजर मिज़ाज़" अतुल जी का पहला ग़ज़ल संग्रह है जिसे सन 2009 में दिल्ली के शिल्पायन प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इस संग्रह में अतुल जी की बेहतरीन 86 ग़ज़लों के अलावा लगभग 50 फुटकर शेर भी दर्ज़ हैं। किताब का दिलकश आवरण तैयार किया है उमेश शर्मा जी ने। यूँ तो आप इस किताब की प्राप्ति के लिए शिल्पायन प्रकाशन से 011 -22821174 पर सम्पर्क कर सकते हैं लेकिन सबसे बेहतर तो ये रहेगा कि आप अतुल जी को उनके मोबाइल न. 09425339940 पर संपर्क कर उन्हें इस बेहतरीन शायरी के लिए बधाई देंऔर किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछ लें।

सफर हो शाह का या काफ़िला फ़कीरों का 
शजर मिज़ाज़ समझते हैं राहगीरों का 
शजर : पेड़ , मिज़ाज़ :स्वभाव 

पियादे शाह से बे रोक-टोक मिलते हैं 
ज़माना जाने ही वाला है अब वज़ीरों का 

बिछुड़ के तुझसे मैं ज़िंदा रहूं, ये नामुमकिन 
बिना कमान के क्या ऐतबार तीरों का 

अतुल जी के बहुत से ऐसे शेर हैं जिन्हें बकायदा आम गुफ्तगू में कोट किया जा सकता है क्यों की वो हमारी रोजमर्रा की समस्याओं, खुशियों या तकलीफों का खूबसूरती से इज़हार करते हैं , मुझे उनका एक शेर बेहद पसंद है जो इस किताब का हिस्सा नहीं है उसी को पढ़वा कर आपसे रुख्सत होता हूँ और तलाशता हूँ आपके लिए एक नयी किताब :-

जब ग़ज़ल मीर की पढता है पड़ौसी मेरा 
इक नमी सी मेरी दीवार में आ जाती है

Monday, May 23, 2016

किताबों की दुनिया -125

सैंकड़ों घर फूंक कर जिसने सजाई महफिलें 
उस शमां का क्या करूँ ,उस रौशनी का क्या करूँ 

बेचकर मुस्कान अपनी दर्द के बाजार में 
खुद दुखी हो कर मिली जो उस ख़ुशी का क्या करूँ 

है ज़माने की हवा शैतान , पानी दोगला 
देवता लाऊँ कहाँ से ,आदमी का क्या करूँ 

प्यार के इज़हार में बजती तो मैं भी नाचता 
जो कमानों पर चढ़ी, उस बांसुरी का क्या करूँ 

हमारे आज किताबों की दुनिया श्रृंखला के शायर सिर्फ शायर ही नहीं थे शायरी से पहले उन्होंने अपने हिंदी गीतों , बाल कविताओं ,यात्रा वृतांतों और व्यंग लेखों से बहुत प्रसिद्धि हासिल कर ली थी। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के इंसान ओम प्रकाश चतुर्वेदी 'पराग', साहब की कही ग़ज़लों की अंतिम पुस्तक "कमान पर चढ़ी बांसुरी "का जिक्र हम करने जा रहे हैं।



मुसाफिर हूँ तो मैं सेहरा का, लेकिन 
चमन का रास्ता भी जानता हूँ 

ये दुनिया सिर्फ खारों से ख़फ़ा है 
मैं फूलों की खता भी जानता हूँ 

कफ़स में झूठ के भी खुश नहीं हूँ 
सचाई की सज़ा भी जानता हूँ 

ग़ज़ल कहता हूँ रचता गीत भी मैं 
कहन का क़ायदा भी जानता हूँ 

"कहन का कायदा भी जानता हूँ " इस किताब के पन्ने पलटते हुए उनकी इस बात की पुष्टि हो जाती है कि वो कहन का कायदा सिर्फ जानते ही नहीं थे बखूबी जानते थे तभी तो "कमान पर चढ़ी बांसुरी " से पूर्व उनके चार ग़ज़ल संग्रह "नदी में आग लगी है ", "फूल के अधर पर पत्थर", "अमावस चांदनी मैं " और "आदमी हूँ मैं मुक़म्मल " प्रकाशित हो कर धूम मचा चुके थे। मजे की बात ये है कि पराग साहब आयु की अधिकता और अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण अपने इस पांचवे ग़ज़ल संग्रह के प्रकाशन के पक्ष में नहीं थे, ये तो भला हो उनके मित्र कवि एवं साहित्यकार श्री देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' जी का जिनके अथक प्रयास से ये पुस्तक और इसमें संग्रह की हुई उनकी 62 अनूठी ग़ज़लें पाठकों तक पहुंची।

मैं न मंदिरों का मुरीद हूँ, न ही मस्जिदों का हूँ आशना 
मैं तो अंतहीन उड़ान हूँ , मुझे बंदिशों में न क़ैद कर 

कभी काफ़िलों में रहा नहीं, किसी कारवां में चला नहीं
मुझे रास आई न रौनकें, मुझे महफ़िलों में न क़ैद कर 

मैं वो आग हूँ जो जली नहीं , मैं वो बर्फ हूँ जो गली नहीं 
मैं तो रेत पर हूँ लिखा गया , मुझे कागज़ों में न क़ैद कर 

किसी शर्त पर न जिया कभी, मैं न ज़िन्दगी का गुलाम हूँ 
मेरी मौत होगी नज़ीर -सी , मुझे हादसों में न क़ैद कर 

अपनी ग़ज़लों के बारे में पराग साहब ने इस किताब की भूमिका में कहा है कि "मैं ग़ज़ल में अपने ह्रदय की संवेदनाओं और अनुभूतियों को अधिक सहज और प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त कर पाता हूँ " तभी हमें इन शेरों को पढ़ कर उनके फक्कड़, खुद्दार और अलमस्त व्यक्तित्व की स्पष्ट झांकी नज़र आ जाती है। शायर अपनी सोच से पाठक के मन में द्वन्द पैदा करता है उसे सोचने को मज़बूर करता है और उसे एक अच्छा इंसान बनने में सहायता करता है। ऐसा शायर भले ही इस दुनिया से रुखसत हो जाए लेकिन उसकी शायरी हमेशा ज़िंदा रहती है। पाठक उनकी रचनाएँ इंटरनेट की प्रसिद्ध साइट 'रेख़्ता' , 'कविता कोष' और अनुभूति इत्यादि पर पढ़ सकते हैं।

खेत सूखे हैं, चमन खुश्क है, प्यासे सेहरा 
और तालाब में बरसात , खुदा खैर करे 

जिसने कंधे पे मेरे चढ़ के छुआ है सूरज 
आज दिखला रहा औकात, खुदा खैर करे 

मुझसे जितना भी बना मैंने संवारी दुनिया 
अब तो बेकाबू है हालात, खुदा खैर करे 

4 मई 1933 को जगम्मनपुर जनपद जालौन उतर प्रदेश में जन्मे ओमप्रकाश जी ने एम ऐ (हिंदी) और विशारद करने के बाद उत्तेर प्रदेश के मनोरंजन कर विभाग में कार्य किया और फिर वहीँ से उपायुक्त के पद से सेवा निवृत हुए। उसके बाद का जीवन उन्होंने लेखन ,पत्रकारिता और सामाजिक सेवा को समर्पित कर दिया। उनके गीत संग्रह 'धरती का क़र्ज़ ', देहरी दीप', 'अनकहा ही रह गया', 'याद आता है जगम्मनपुर' , बाल कविता संग्रह ' बड़ा दादा , छोटा दादा' ,'मनपाखी', व्यंग संग्रह 'बलिहारी' ,'छोडो भी महाराज' और यात्रा वृतांत ' दर्रों का देश लद्दाख' बहुत चर्चित हुए। 11 जनवरी 2016 को ग़ाज़ियाबाद में फेफड़ों की लम्बी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया।

मैं अपनी ग़ज़लें लेकर महफ़िल में क्यों जाता 
मेरे गीतों को तो चौपालों ने गाया है 

माँ का आँचल हो कि शजर की शाखों का साया 
ठिठुरन और तपन दोनों ने शीश झुकाया है 

अब न कभी कहना वह तो डूबे सूरज सा है 
काली रातों में भी उसने चाँद उगाया है 

पत्रकारिता और संपादन के क्षेत्र में भी 'पराग' जी का बहुमूल्य योगदान रहा है। ' गीताभ' के 10 संस्करणों के अलावा उन्होंने विदुरा, नीराजन ,निर्धन-विभा , भोर जगी कलियाँ , नूपुर आदि का संपादन किया और बरेली से प्रकाशित 'हास्य -कलश ' वार्षिकी का चार वर्षों तक संयुक्त प्रकाशन किया। जीवन भर उन्होंने कलम का साथ नहीं छोड़ा और विपरीत परिस्थितिओं में भी लिखते रहे। प्रसिद्ध कवि 'बाल स्वरुप राही ' जी ने उनकी शायरी के बारे में लिखा है कि "उनकी शायरी में हुस्न परस्ती भी है , इश्क की मस्ती भी है , नाकामियों की पस्ती भी है , चौंका देने वाली खुद परस्ती भी है , घर-बार से बाजार में बदलती हुई बस्ती भी है "

उनको दिल्ली का प्रतिष्ठित सम्मान परम्परा साहित्य अवार्ड से भी अलंकृत किया गया था .

न चाँदनी ,न कभी धूप का मजा पाया 
रहे हैं आप तो बहुमंजिले मकानों में 

बता रहे हैं जिसे आप टाट का टप्पर 
शुमार है वो बुरे वक़्त के ठिकानों में 

सुकून ढूंढ रहे हैं जो मैकदे में आप 
मिलेगा आपको पलकों के शामियानों में '

कमान पर चढ़ी बांसुरी' को अयन प्रकाशन , महरौली ने सन 2014 में प्रकाशित किया है। किताब की प्राप्ति के लिए आप अयन प्रकाशन के श्री भूपी सूद  साहब से उनके मोबाइल नंबर 9818988613 पर संपर्क कर सकते हैं। किताब का आवरण छोटी बहर की ग़ज़लों के उस्ताद शायर और कमाल के चित्रकार जनाब विज्ञानं व्रत साहब ने तैयार किया है जो देखते ही बनता है। अफ़सोस की बात है कि अपनी ग़ज़लों के लिए दाद के हक़दार 'पराग' साहब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी ग़ज़लों को पढ़ कर दिल से निकली वाह उनतक जरूर पहुंचेगी।

'पराग' साहब की एक ग़ज़ल के इन शेरों को आप तक पहुंचा कर हम निकलते हैं एक और किताब की तलाश में 

घिर रहे हर सिम्त जालों से उजाले 
चाँद से मावस बड़ी है, देखिये तो 

होंठ हँसते हैं, थिरकते पाँव, लेकिन 
आँख में बदली अड़ी है, देखिये तो 

बैठने वाले ही नाकाबिल हैं ,या फिर 
कुर्सियों में गड़बड़ी है , देखिये तो 

तुम जुबाँ खोलो कि जब कोई न बोले 
शर्त ये कितनी कड़ी है, देखिये तो 


Monday, May 9, 2016

किताबों की दुनिया -124

चलिए "किताबों की दुनिया" श्रृंखला की आज की कड़ी शुरू करने से पहले आपको कुछ फुटकर शेर पढ़वाते हैं जो इस पोस्ट के मिज़ाज़ को बनाए रखने में सहायक होंगें। आपने अगर पहले से ही ये शेर पढ़े हैं तो आपको इस बाकमाल शायर के बारे में बहुत कुछ बताने की जरुरत नहीं पड़ेगी और नहीं पढे तो हम तो हैं ही बताने को

छतरी लगा के घर से निकलने लगे हैं हम 
अब कितने एहतियात से चलने लगे हैं हम 

हो जाते हैं उदास कि जब दो-पहर के बाद 
सूरज पुकारता है कि ढलने लगे हैं हम 
 **** 

न आँख में कोई आंसू न हाथ में कोई फूल 
किसी को ऐसे सफर पर रवाना करते हैं ? 
**** 

हमें अंजाम भी मालूम है लेकिन न जाने क्यों 
चरागों को हवाओं से बचाना चाहते हैं हम 
**** 

जरा सी धूप चढ़ेगी तो सर उठाएगी 
सहर हुई है अभी आँख मल रही है हवा 
**** 

शरारतों का वही सिलसिला है चारों तरफ 
कहाँ चराग जलाएं हवा है चारों तरफ 

आपको बता देता हूँ कि ये लाजवाब शेर उस्ताद शायर जनाब " वाली आसी " साहब के हैं जिनकी किताबों की दुकान "मकतब-ऐ-दीनो अदब " जहाँ व्यापार कम और अदब की खिदमत ज्यादा की जाती थी ,पर लखनऊ के तमाम छोटे-बड़े शायरों और तालिब-ऐ- इल्म का जमावड़ा हुआ करता था। उर्दू शायरी के दीवाने उनसे गुफ्तगू करने और शायरी के नए अंदाज़ सीखने , इस्लाह लेने के लिए जमा होते थे। उनके बहुत से मुस्लिम और गैर मुस्लिम शागिर्द हुए जिन्होंने उनसे बहुत कुछ सीखा और शायरी में आला मुकाम हासिल करने के साथ साथ उनका और अपना नाम भी रौशन किया। उन्हीं के एक गैर मुस्लिम शागिर्द जिनके उस्ताद भाई "मुनव्वर राणा" हैं की किताब हम आज आपके लिए लाये हैं।

चाहतों के ख्वाब की ताबीर थी बिलकुल अलग 
और जीना पड़ रही है ज़िन्दगी बिलकुल अलग 

और कुछ महरूमियाँ भी ज़िन्दगी के साथ हैं 
हर कमी से है मगर तेरी कमी बिलकुल अलग 
महरुमियाँ = कमियाँ 

आईने में मुस्कुराता मेरा ही चेहरा मगर 
आईने से झाँकती बेचेहरगी बिलकुल अलग 

जनाब " भारत भूषण पंत " साहब की ग़ज़लों की किताब " बेचेहरगी " ,जिसका जिक्र हम करने जा रहे हैं ,का एक एक शेर इस बात की गवाही देता है कि एक शागिर्द के लिए आला दर्ज़े के उस्ताद की एहमियत क्या होती है और अच्छा शेर कहना किस कदर सलीके का काम है। उनकी हर ग़ज़ल गहरी सोच का परिणाम है। एक ऐसी शायरी जिसमें ज़िन्दगी अपने सभी रंगों के साथ नज़र आती है। यूँ कहना ज्यादा मुनासिब होगा कि अगर आपको ज़िन्दगी के रंग शायरी के संग देखने हों तो भारत भूषण पंत साहब को पढ़ें ।


दिल का बोझ यूँ हल्का तो हो जाता है 
लेकिन रोने से अश्कों की भी अरजानी होती है 
अरजानी = नुक्सान , बेकार जाना 

रंज उठाने की तो आदत पड़ ही जाती है 
मुश्किल तब होती है जब आसानी होती है 

हम भी ऐसे हो जायेंगे किसने सोचा था 
अपनी सूरत देख के अब हैरानी होती है 

फ्रेंच कट दाढ़ी भारत भूषण जी के चेहरे पर फबती तो है लेकिन अमिताभ बच्चन की तरह उनकी पहचान नहीं बनती क्यों कि उनकी असली पहचान तो उनकी शायरी के हवाले से है। बेहद संजीदा किस्म के शायर पंत साहब अपने बारे में ज्यादा नहीं बोलते लेकिन उनकी शायरी सुनने वालों के सर चढ़ कर बोलती है। आज के मंचीय शायरों को जो मुशायरों में सामईन से अपने हर शेर पर दाद की भीख मांगते हैं पंत साहब से ये बात सीखनी चाहिए की अगर शेर में दम होगा तो दाद-खुद-ब खुद सुनने वालों के मुंह से निकलेगी।

वक्त से पहले सूरज भी कब निकला है 
खुद को सारी रात जला कर क्या होगा 

तब तक तो ये बस्ती ही जल जाएगी 
अपने घर की आग बुझा कर क्या होगा 

इन कपड़ों में यादों जैसी सीलन है 
इन कपड़ों को धूप दिखा कर क्या होगा 

यूँ तो कभी ये ज़ख्म नहीं भर पाएंगे 
दीवारों से सर टकरा कर क्या होगा 

3 जून 1958 को जन्मे भारत भूषण जी का स्थायी निवास लखनऊ ही रहा है यहीं से इन्होने शिक्षा प्राप्त की और यहीं के एक कोऑपरटिव बैंक में काम किया। व्यक्तिगत कारणों से सन 2011 वी आर एस लेने के बाद अब वो पूर्ण रूप से लेखन को समर्पित हैं। अपने आसपास और भीतर की दुनिया को देखने समझने का उनका अपना तरीका है, वो जो महसूस करते हैं उसी को बहुत ईमानदारी के साथ अपनी शायरी में ढाल देते हैं। पंत साहब की शायरी में मन की बेचैनी तो है लेकिन साथ ही तेज धूप में किसी घने बरगद के तले मिलने वाले सुकून का एहसास भी है।

यही तन्हाइयाँ हैं जो मुझे तुझसे मिलाती हैं 
इन्हीं खामोशियों से तेरा चर्चा रोज़ होता है 

ये इक एहसास है ऐसा किसी से कह नहीं सकता 
तेरी मौजूदगी का घर में धोका रोज़ होता है 

ये मंज़र देख कर हैरान रह जाती हैं मौजें भी 
यहाँ साहिल पे इक टूटा घरौंदा रोज़ होता है 

मैं इक किरदार की सूरत कई परतों में जीता हूँ 
मेरी बेचेहरगी का एक चेहरा रोज़ होता है 

उर्दू और हिंदी दोनों लिपि में एक साथ छपी "बेचेहरगी" पंत साहब की तीसरी ग़ज़लों की किताब है जो सन 2010 में प्रकाशित हुई थी , इसमें उनकी 70 लाजवाब ग़ज़लें संगृहीत हैं. इससे पूर्व उन्ही पहली किताब "तन्हाइयाँ कहती हैं " सुमन प्रकाशन आलमबाग से सन 2005 में और "यूँ ही चुपचाप गुज़र जा " सन 1995 में प्रकाशित हो कर मकबूल हो चुकी है। उनकी आज़ाद नज़्मों की किताब सन 1988 में "कोशिश" शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। उनके उस्ताद भाई मुनव्वर लिखते हैं कि " भारत भूषण ने अपनी शायरी को हमेशा सिसकियों की छत्रछाया में रखा है, किसी भी लफ्ज़ को चीख नहीं बनने दिया। अपनी हर ग़ज़ल में वो अपने दुखों से खेलते दिखाई देते हैं " 

हर घडी तेरा तसव्वुर, हर नफ़स तेरा ख्याल 
इस तरह तो और भी तेरी कमी बढ़ जायेगी 
तसव्वुर : कल्पना , नफ़स : सांस 

उसने सूरज के मुकाबिल रख दिए अपने चिराग 
वो ये समझा इस तरह कुछ रौशनी बढ़ जायेगी 

तू हमेशा मांगता रहता है क्यूँ ग़म से निजात 
ग़म नहीं होंगे तो क्या तेरी ख़ुशी बढ़ जायेगी ? 

क्या पता था रात भर यूँ जागना पड़ जायेगा 
इक दिया बुझते ही इतनी तीरगी बढ़ जायेगी 
तीरगी : अँधेरा 

शमीम आरज़ू साहब ने लखनऊ सोसाइटी की साईट पर लिखा है कि" भारत भूषण पंत की शाइरी अहसास की शाइरी है. वह मुशायरे नहीं लूटती लेकिन किसी शिकस्तादिल शख्स की ग़मगुसारी और चारासाज़ी बखूबी करती है. ये वो सिफत है जो हर किसी के हिस्से में नहीं आती है. क्योंकि इसका अहतराम करने के लिए खुलूस और हिस्सियत के जिन नाज़ुक दिल जज्बात की ज़रूरत होती है वो अक्सर मुशायरों की तालियों से खौफ खाते हैं. पंत साहब को अदबी खेमों का हिस्सा बनना भी नहीं आता. लेकिन गेसू-ए-गज़ल को संवारना उन्हे खूब आता है"

कुछ तो घरवालों ने हमको कर दिया माज़ूर सा 
और कुछ हम फितरतन उक्ता गए घरबार से 
माज़ूर -मज़बूर 

तेरे सपनों की वो दुनिया क्या हुई, उसको भी देख
हो चुकी हैं नम बहुत ,आँखें उठा अखबार से 

सबसे अच्छा तो यही 'ग़ालिब' तेरा जामे-सिफाल
टूट भी जाये तो फिर ले आईये बाजार से 
जामे-सिफाल -मिटटी का प्याला 

इस किताब का जिक्र लखनऊ के शायर मेरे अज़ीज़ अखिलेश तिवारी जी के बिना पूरा नहीं होगा क्यूंकि उन्हीं की बदौलत ये किताब मुझे इस शर्त पर पढ़ने को मिली कि मैं इसे पढ़ते ही उन्हें वापस लौटा दूंगा। अखिलेश का ये उपकार मैं कैसे चुकाऊं ये मेरे लिए अब शोध का विषय बन गया है। जिनके पास अखिलेश जैसे मददगार नहीं हैं उनको इस किताब प्राप्ति के लिए यूनिवर्सल बुक सेलर्स , हज़रतगंज , गौमती नगर लखनऊ को लिखना पड़ेगा या फिर भारत भूषण जी को उनके मोबाईल न 9415784911 पर संपर्क करना पड़ेगा। यकीन मानें आपके द्वारा इस अनमोल किताब की प्राप्ति के लिए किया गया कोई भी प्रयास व्यर्थ नहीं जायेगा।

भरे घर में अकेला मैं नहीं था 
दरो -दीवार थे, तन्हाइयाँ थीं 

लड़कपन के मसायल भी अजब थे 
पतंगे थीं, उलझती डोरियाँ थीं 
मसायल =विषय 

बहुत उकता गया था दिल हमारा 
कई दिन से मुसलसल छुट्टियाँ थीं 

हमारी दास्ताँ में क्या नहीं था 
हवा थी, बारिशें थीं, बिजलियाँ थीं 

शायरी करने वालों और सीखने वालों के लिए इस किताब में बहुत कुछ है जैसे शेर में लफ्ज़ किस तरह कितने और कहाँ बरतने चाहिए। सीधी सरल बोलचाल की भाषा में अपनी बात शायराना ढंग से रखने का फन ये किताब वर्क दर वर्क सिखाती है। आखिर में फिर से मुनव्वर राणा साहब की इस बात को आपतक पहुंचा कर आपसे से विदा लेते हैं " एक नौजवान जिसकी मादरी ज़बान हिंदी हो जिसने उर्दू मेहनत करके सीखी हो जो एक छोटे से बैंक में एक छोटी सी पतवार के सहारे अपनी ज़िन्दगी की कश्ती को मसायल और उलझनों के दरया में सलीके से चला रहा हो , मुशायरों से कोई दिलचस्पी न रखता हो , अपने आपको अकेलेपन की ज़ंज़ीर में जकड़े हुए हो, जो चेहरे पर हमेशा एक बोझिल सी मुस्कराहट चिपकाये हुए शहर की सड़कों पर किसी फ़साद में जली हुई किताब के वरक की तरह टूटता बिखरता और उड़ता चला जा रहा हो यकीनन वो कोई ऐसा मुसव्विर (चित्रकार) होगा जो कलम से कागज पर शायरी नहीं मुसव्वरी कर रहा होगा, आइए हम ऐसे शायर का सूफी मंश इंसान का इस्तेकबाल करें। यही इस शायर का ईनाम भी होगा और मेहनताना भी "

मुसव्विर अपने फन से खुद भी अक्सर ऊब जाते हैं 
अधूरे ही बना कर कितने मंज़र छोड़ देते हैं 

बहुत से ज़ख्म हैं ऐसे जो देखे भी नहीं जाते 
जहाँ घबरा के चारागर भी नश्तर छोड़ देते हैं 

कभी जब जमने लगती हैं हमारी सोच की झीलें 
तो हम ठहरे हुए पानी में पत्थर छोड़ देते हैं 

पोस्ट कुछ लम्बी जरूर हो गयी है लेकिन जब शायर बेहतरीन हो तो ऐसी बातें नज़र अंदाज़ कर देनी चाहिए। अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले एक आखरी शेर और पढ़ते चलें :

 सच कहूं तो मौजों से डर मुझे भी लगता है 
 क्या करूँ किनारों पर नाव चल नहीं सकती

Monday, April 25, 2016

किताबों की दुनिया -123

अगर इंसान सूरज चाँद आदि पर से नज़र हटा कर गैलेक्सी के बाकी तारों की और नहीं देखता तो कैसे पता चलता कि कुछ तारे चाँद सूरज से कई गुना बड़े और विशाल हैं और जिनके सामने हमारे सूरज चाँद भी बौने लगते हैं इसी तरह अगर हम किताबों की दुनिया श्रृंखला में अगर ग़ालिब मीर मज़ाज़ इकबाल आदि की ही चर्चा करते रहते तो न जाने कितने ही अंजान शायरों और उनकी पुख्ता बेमिसाल शायरी से हमारा परिचय न हो पाता। हमें कैसे पता लगता की कोई शायर है जो कहता है कि :-

मोहब्बत में मेरे ज़ज़्बात को ऐसे रसाई दे 
सरापा इश्क कहलाऊं ज़माने को दिखाई दे 
ये जादू है धड़कना दिल का, शेरों में सुनाई दे 
ग़ज़ल सर चढ़ के बोले सारे आलम को दिखाई दे 

दिल के धड़कने के जादू को अपने शेरों में ढालने वाले उस शायर का परिचय आज हम अपनी इस श्रृंखला में करवा रहे हैं जिसकी ग़ज़लें वाकई सर चढ़ के बोलती हैं। ये पुरकशिश व्यक्तित्व और बा-विक़ार सोच वाला शायर निहायत ही शर्मीला इंसान है जो शोहरत के तामझाम से कोसों दूर अपने हाल में मस्त अपनी रचना शीलता में डूबा हुआ है ,उसका कहना है कि :

जांनशीं से दुश्मन तक सारे रिश्तों-नातों को, फेंक दें समंदर में 
लहर लहर बेदारी की हसीं रिदा ओढ़ें, आओ फिर ग़ज़ल कह लें 
रिदा : रज़ाई 

वो कि एक चेहरा है या किताब या दरिया या कोई समंदर है 
नीमबाज़ आँखों में उसकी झाँक कर देखें, आओ फिर ग़ज़ल कह लें 

दर्दनाक चेहरों पर मुस्कुराहटें ओढ़ें, खुद को जा-ब-जा बेचें 
हम 'तपिश' तुम्हें गुज़रा वक़्त मान कर सोचें, आओ फिर ग़ज़ल कह लें

मक्ते में आये तखल्लुस से आप को शायर के नाम का अंदाज़ा तो हो ही गया होगा जिन्हें नहीं हुआ उन्हें बता दूँ कि हमारे आज के शायर हैं 31 मार्च 1949 को जन्में ग़ाज़ियाबाद निवासी जनाब "मौनी गोपाल 'तपिश' " साहब जिनकी किताब "फैसले हवाओं के " का जिक्र हम करने जा रहे हैं, जिसमें उनकी लगभग 50 ग़ज़लें, बहुत से फुटकर शेर ,कुछ नज़्में ,गीत और मुक्त छन्द भी हैं। ज़ाहिर सी बात है यहाँ तो उनकी सिर्फ ग़ज़लों की चर्चा ही होगी : 


ज़रा सी रौशनी महदूद कर दो 
अंधेरों को दिया खलता बहुत है 
महदूद =हद के भीतर 

गिले मुझसे हैं उसको बात दीगर 
मुझे उसने कहीं चाहा बहुत है 

वो मेरा दोस्त है ये सच है लेकिन 
वो तारीफें मेरी करता बहुत है 

ये चोटें ऊपरी दिखती हैं यूँ तो 
वो अंदर तक कहीं टूटा बहुत है 

अपने फेडोरा हैट और फ्रेंच कट दाढ़ी की वजह से दूर से ही पहचान लिए जाने वाले चुंबकीय व्यक्तित्व के स्वामी मौनी साहब की ग़ज़लों का मूल रंग इश्क है। ये ऐसा रंग है जो सभी को अपनी और आकर्षित करता है। उनकी ग़ज़लों के शेर हमारे दिल में सहज ही उतर जाते हैं। वो मोहब्बत से भरे इंसान हैं ,उनका कहना है कि अगर मैं चुप रहा तो मेरी मोहब्बत मेरी निगाहों से ज़ाहिर हो जाएगी , मैं अपनी मोहब्बत के मोतियों को ग़ज़लों में पिरो देता हूँ क्यूंकि ज़िन्दगी में मुहब्बत की जितनी जरुरत है उतनी ही ग़ज़लों को भी मोहब्बत की चाहत है।

इश्क मोहब्बत के अफ़साने, राँझा ,मजनू या फ़रहाद 
सब गुल, बूंटे खुशबू वाले लेकिन हैं तलवार के नाम 

साहिल साहिल, मौजें मौजें, तूफाँ तूफाँ सब हमवार 
दरिया-दरिया, कश्ती-कश्ती, सब ठहरे पतवार के नाम 

हंसना-गाना, रोना-धोना, महके, दहके सब एहसास 
मैं तो सब कुछ करना चाहूँ , एक उसी बस प्यार के नाम 

नग्मों की ये रंगा-रंगी, तानें, तोड़े और आलाप 
उसकी थिरकन, उसके ठुमके पायल की झंकार के नाम 

मौनी जी की ग़ज़लें ज़िन्दगी के खट्टे-मीठे-कड़वे अनुभवों को बहुत ख़ूबसूरती से बयाँ करती हैं। श्री कुंअर बैचैन ने इस किताब की भूमिका में लिखा है की " मौनी जी का तखल्लुस 'तपिश' उनकी ग़ज़लों में झलकता है। शायरी के लफ़्ज़ों में अगर तपिश न हो तो उसे मरी हुई ही समझो। ये तपिश प्रेम की तपिश है, अध्यात्म की तपिश है, संसार के दुःख-दर्द की तपिश है, आहों की तपिश है, कराहों की तपिश है, बहते हुए गर्म आंसुओं की तपिश है और दुःख के काँटों की चुभन से दुखते हुए ज़ख्मों के जलन की तपिश है। "

तुम्हें ज़िद है अकेले ही चलोगे, सोच कर देखो 
ये कुछ आसां नहीं तन्हाइयाँ बरबाद कर देंगीं 

हमारा क्या कि हम कर जायेंगे दुनिया से कल पर्दा 
तुम्हें इस दर्द की पुरवाइयाँ बरबाद कर देंगी 

पुराने ज़ख्म ऐसे खोल कर रखने से क्या हासिल 
ये अपने पर सितम-आराईयां बरबाद कर देंगी 
सितम-आराईयां=अन्याय पसंदगी 

ग़ज़ल सच्ची कहो, अच्छी कहो, जो दिल को छू जाए 
'तपिश' ये काफ़िया पैमाइयाँ बरबाद कर देंगी 

ईश्वर में विशवास रखने वाले लेकिन उसके नाम से होने वाले आडम्बरों और लूट से आहत मौनी जी ने अपना जीवन ग़ाज़ियाबाद में ही गुज़ारा है। यहीं पले -बड़े-पढ़े और यहीं की इंद्रप्रस्थ पॉवर जनरेशन कम्पनी लिमिटड में 38 वर्ष काम करने के बाद रिटायर हो कर अब परिवार के साथ आनंद का जीवन बिता रहे हैं!"मौसम उदास पथरीले (2003 " ,"जो तुमसे कहा (2007) के बाद "फैसले हवाओं के" उनका तीसरा ग़ज़ल संग्रह है जिसका लोकार्पण 2015 मई माह के अंत में स्थानीय रोटरी भवन के हाल में अदबी संगम द्वारा आयोजित किया गया था, कार्यक्रम की अध्यक्षता उर्दू अकेडमी दिल्ली के जनाब डा. खालिद महमूद साहब ने की थी।

मैं बताऊँ तुम्हें जो जानो तुम 
फुरसतें कितनी जानलेवा हैं 

एक लमहा किसी से मिलने का 
मुद्दतें कितनी जानलेवा हैं 

उससे मिलना ,बिछड़ना फिर मिलना 
आदतें कितनी जानलेवा हैं 

सिर्फ इक अक्स सोचते रहना 
चाहतें कितनी जानलेवा हैं 

'जानलेवा हैं' वाले रदीफ़ की ये ग़ज़ल वाकई जानलेवा है. ऐसे अनूठे रदीफ़ और काफिये मौनी साहब ने अपनी इस किताब की ग़ज़लों में सजाएँ हैं कि दिल पढ़ते हुए अश-अश कर उठता है। 'सरवर हसन सरवर' जी ने किताब के फ्लैप पर लिखा है कि " मौनी साहब की शायरी में उनके जज़्बों की पाकीज़गी साफ़-साफ़ नज़र आती है। इंसानी रिश्तों में बिखराव और मआशरे में पाई जाने वाली ना-आसूदगी (असंतोष) व महरूमी पर मलाल के साथ मुस्तकबिल के रोशन और खुशहाल होने की उम्मीद जनाब 'मौनी गोपाल तपिश' साहब के कलाम को हर खासो-आम के दिलों तक पहुंचाती है।

यूँ तो उम्रें बीत जाती हैं किसी की याद में 
एक पल का वास्ता था एक पल गुज़रा नहीं 

सिर्फ तन्क़ीदें न कर, मुझमें कभी जी कर भी देख 
तू कभी शायद कहे, ऐसा ही कर वैसा नहीं 
तन्क़ीदें =आलोचना 

ज़िन्दगी कैसे कटेगी तुझसे बिछुड़ा मैं अगर 
एक ख़दशा हर घडी था, जिससे मैं उबरा नहीं 
ख़दशा = संदेह 

इस बेजोड़ किताब की प्राप्ति के लिए आप "अनुभव प्रकाशन -गाज़ियाबाद " से 09811279368 पर संपर्क कर सकते हैं लेकिन जैसा मैं हमेशा कहता आया हूँ कि बेहतर तो यही रहेगा आप मौनी जी से उनके मोबाईल न 7503070900 पर बात कर उन्हें बधाई दें और इस किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछ लें और जो लोग फ़ोन करने कतराते हैं वो उन्हें mgtapish@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।
मेरा अब इस पोस्ट से अलविदा कहने का वक्त आ गया है लेकिन मलाल ये रह गया है कि मैं मौनी जी के कुछ और बेहतरीन शेर ,उनकी नज़्में , गीत और मुक्त छन्द चूँकि आपको नहीं पढ़वा पा रहा इसलिए गुज़ारिश करता हूँ कि जल्द से जल्द आप इस किताब को मंगवाएं और पढ़ें। मुझे यकीन है कि इसे पढ़ते वक्त आपके दिल से मौनी जी और मेरे लिए दुआएं ही निकलेंगी।
चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़ते चलें :

ग़म हुए, फिर ग़म हुए, फिर ग़म हुए 
आँख के कोने कभी पुरनम हुए ? 

ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी की बात क्या 
जब भी वो हमसे कभी बरहम हुए 
बरहम = नाराज़ 

इश्क ठहरा फिर चला फिर रुक गया 
फिर वही शिकवे-गिले पैहम हुए 
पैहम = साथ 

तेरी आँखें, तेरे आरिज़, तेरे लब 
ज़िन्दगी में मोजजे हर दम हुए 
 आरिज़ = गाल , मोजजे = चमत्कार

Monday, April 11, 2016

किताबों की दुनिया -122

बहुत पहले की बात है 'दीपक भारतदीप' की लिखी सिंधु -केसरी पत्रिका में एक कविता पढ़ी थी , आज किताबों की दुनिया की इस श्रृंखला में उसी कविता की शुरुआत की इन पंक्तियों से अपनी बात शुरू करते हैं , पूरी कविता तो वैसे भी अब याद नहीं :-

सादगी से कही बात 
किसी को समझ नहीं आती है 
इसलिए कुछ लोग
श्रृंगार रस की चाशनी में डुबो कर सुनाते हैं 
अलंकारों में सजाते हैं 
तो कुछ वीभत्स के विष से डराते हैं 

आज हम उसी सादी सरल और सीधी जबान के उस्ताद शायर और उनकी लाजवाब किताब की चर्चा करेंगे, जो अपने अशआरों को न अलंकारों से सजाता है और ना ही वीभत्स रस से डराता है,जिनके लिए मयंक अवस्थी जी के शेर का मिसरा-ए-ऊला " सादगी पहचान जिसकी ख़ामुशी आवाज़ है " एक दम सटीक बैठता है। धीरज धरिये उनका नाम भी बतातें हैं लेकिन पहले जरा उनके ये शेर देखें :

नहीं चल पाउँगा मैं साथ उसके 
ये दुनिया बेसबब ज़िद पर अड़ी है 

हवा ने फाड़ दी तस्वीर लेकिन 
अभी इक कील सीने में गड़ी है 

मियां इस शहर में किस को है फुर्सत 
हमारी लाश खुद जाकर गड़ी है 

निकल आया अँधेरे में कहाँ मैं 
मिरी परछाईं बिस्तर पर पड़ी है 

शायर का नाम बताने से पहले शुक्रिया करना चाहूंगा एक बेहतरीन शायर छोटे भाई समान "अखिलेश तिवारी " जी का जिनके सौजन्य से इस बाकमाल शायर की शायरी से रूबरू का मौका मिला। हमारे आज के शायर हैं 1954 शाहजहाँपुर उ.प्र. में जन्में जनाब "सरदार आसिफ खां "जिनकी किताब "पत्थर में कोई है" की चर्चा हम करेंगे। 


अगर चेहरा बदलने का हुनर तुमको नहीं आता 
तो फिर पहचान की परची यहाँ जारी नहीं होती 

समंदर से तो मज़बूरी है उसकी, रोज़ मिलना है 
बहुत चालाक है लेकिन नदी, खारी नहीं होती 

हवा की शर्त हम क्यों मानते क्यों इस तरह दबते 
हमें गर सांस लेने की ये बीमारी नहीं होती 

सरदार आसिफ उस शायर का नाम है जिसे चाहे अब तक वो शोहरत न मिली हो जिसके वो हकदार हैं लेकिन उनकी शायरी आम शायरी से बिलकुल अलग है। बकौल जनाब इफ़्तेख़ार अमाम साहब "आसिफ न पुरानी शायरी करता है न जदीद बल्कि इसका तो अपना एक अलग रास्ता है जिसे सोच-शायरी का नाम दिया जा सकता है।" अपनी शायरी के प्रति उदासीन इस शख्श ने न जाने क्यों अपनी कुछ ग़ज़लें फाड़ दीं जला दीं या खो दीं अगर उन्हें आज जांच परख कर छापा जाता तो हिंदी /उर्दू अदब में बड़ा इज़ाफ़ा हो सकता था।

घर पे हमारे नाम की तख्ती नहीं लगी 
शोहरत की शक्ल ही हमें अच्छी नहीं लगी 

ऊँगली को एक खार ने ऐसा दिया है ज़ख्म 
आँगन में फिर गुलाब की टहनी नहीं लगी 

बच्चे सभी उदास हैं क्या खोलें मुठ्ठियाँ 
शायद किसी के हाथ वो तितली नहीं लगी 

क्या कह रहे हैं आप उसे छू के आये हैं ? 
ज़िन्दा हैं कैसे आपको बिजली नहीं लगी 

बी. एस.सी , एम. ऐ. ,बी.एड करने के बाद आसिफ साहब शाहजहाँपुर में कई वर्षों तक शिक्षक रहे और फिर पी. सी.एस. के इम्तिहान पास कर जिला अधिकारी पद पर टिहरी गढ़वाल में नियुक्त हुए। बाद में इसी पद पर देहरादून ,ग़ाज़ियाबाद , इटावा ,बदायूं , बिजनौर और मुरादाबाद जनपद में कार्यरत रहे। 1983 में प्रोन्नत होकर सहारनपुर मंडल के उपनिदेशक (पंचायती राज) पद पर नियुक्त हुए और वर्तमान में उपनिदेशक (पंचायती राज) मुरादाबाद के पद के साथ साथ उपनिदेशक (समाज कल्याण) मुरादाबाद मण्डल का कार्य भार भी संभाल रहे हैं।

हो हल्ला कर रहा था बहुत अपनी प्यास का 
देखा जो मेरा हाल तो सहरा हुआ ख़मोश 

क्या फिर खंडर में रात किसी ने किया क़याम 
है इक चिराग ताक में रखा हुआ ख़मोश 

पहचानने लगेगी उसे जल्द ही वह भीड़ 
इक शख्श है जो कोने में बैठा हुआ ख़मोश 

इस कोने में बैठे ख़मोश शख्श को भीड़ ने पहचाना और खूब पहचाना क्योंकि ये शख्श बामक़सद शायरी करता है , किसी को सामने रख कर, मुशायरे या कवि सम्मेलन की तालियां और वाह वाह को ध्यान में रखते हुए शायरी नहीं करता। वो बहुत इमानदारी से फरमाते हैं कि " मैं बहुत पढ़ा लिखा आदमी भी नहीं हूँ कि जो चाहे जब चाहूँ लिख लूँ। मैं खालिस इल्हाम हूँ , मैंने भाषाई कुंठाओं को तोड़ कर ग़ज़ल रुपी एक अहम विद्या को नि :तांत व्यक्तिगत तौर पर समझने परखने का प्रयास किया है "

हैं मयकदे में आप, मुझे क्यों हो ऐतराज़ 
दुःख यह हुआ कि आप का बेटा भी साथ है 

बेवा हुई तो आना पड़ा उसको माँ के घर 
ग़ुरबत है , वो है ,छोटा सा बच्चा भी साथ है 

हालां कि उसके कब्र में लटके हुए हैं पाँव 
लेकिन नए मकान का नक्शा भी साथ है 

"पत्थर में कोई है" से पहले आसिफ साहब का देवनागरी में पहला ग़ज़ल संग्रह 'दरिया-दरिया रेत " के बाद उर्दू में "चाँद काकुल और मैं " एवं 'डूबते जज़ीरे" ग़ज़ल संग्रह मंज़र-ऐ-आम पर आ कर मकबूल हो चुके हैं। जितना उन्होंने लिखा है उसका छोटा सा अंश ही उनकी इन चार किताबों पाया है। इसके अलावा उनकी दो संग्रह देवनागरी और उर्दू में अभी शाया होने को हैं। किडनी की बीमारी से लड़ते हुए उन्होंने अपनी शायरी पर उस परेशानी की आंच नहीं आने दी और लगातार लिखते रहे हैं।

किसी का पाँव जल सकता है भाई 
दिया क्यों रख दिया है रौशनी में 

यही तो जब्र मुझ पर हो रहा है 
किसी को देखना होगा किसी में 

परी वरना तिरी ऊँगली पे नाचे 
कमी कुछ है तिरी जादूगरी में 

अज़ानें शोर कितना कर रही हैं 
ख़लल पड़ने लगा है बंदगी में 

हिंदी उर्दू के बीच पुल का काम करती उनकी ग़ज़लें आम इंसान की उसी की ज़बान में कही गयी ग़ज़लें हैं। आसिफ साहब कम छपते हैं मगर हिंदी उर्दू के लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लें आती रहती हैं। हिंदी के 'संवेद' और उर्दू के 'शबखून जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनकी कई कई ग़ज़लें एक साथ छपी हैं। इसके अलावा इंतेसाब , अलअंसार, तहरीके अदब, बज़्में सुखन, सुख़नवर आदि पत्रिकाओं में लगातार इनकी ग़ज़लें छपती हैं। पाठकों का एक बड़ा वर्ग उनकी नयी ग़ज़लों के के इंतज़ार में पलक पांवड़े बिछाए रहता है। 'शायर' में इनकी शायरी के ऊपर मुकम्मल गोशा छपा है।

जो माथे पर तुम्हारे बल पड़ा है 
तो क्या क़द में कोई तुमसे बड़ा है 

मैं अब सूरज को सर पर रख चुका हूँ 
मिरा साया कहीं मुर्दा पड़ा है 

अगर आँखों में रहना सीख जाये 
तो क़तरा भी समंदर से बड़ा है

'पत्थर में कोई है' ग़ज़ल संग्रह सन 2013 में "राही प्रकाशन" शाहजहाँपुर से प्रकाशित हुआ है जिसे आप 'काकुल हाउस बिजलीपुरा शाहजहाँपुर , सेठी बुक स्टाल , बिजनौर या इमरान बुक डिपो ,419 मटिया महल , जामा मस्जिद ,दिल्ली कर मंगवा सकते हैं। इसके अतिरिक्त और कोई जानकारी देने में मैं सक्षम नहीं हूँ। आईये अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले पढ़ते आसिफ साहब की एक ग़ज़ल के ये बेजोड़ शेर :

तेरा तिलिस्म अब भी है दीवारो-दर में कैद 
लगता है जैसे अब भी मिरे घर में कोई है

यादों के फूल हैं कि दरीचे की चांदनी 
कहती है गहरी नींद कि बिस्तर में कोई है 

हालाँकि उसने गौर से देखा नहीं मुझे 
शक उसको हो गया है कि पत्थर में कोई है

Monday, March 28, 2016

किताबों की दुनिया -121

दहलीज़ मेरे घर की अंधेरों से अट न जाय 
पागल हवा चराग़ से आकर लिपट न जाय 

हमसाये चाहते हैं मिरे घर को फूंकना 
और ये भी चाहते हैं घर उनके लपट न जाय

पा ही गया मैं इश्क़ के मकतब में दाखिला 
दुनिया संभल, कि तुझसे मिरा जी उचट न जाय 

एक दुबले पतले सांवले से लड़के ने, जो दूर से देखने पर किसी स्कूल का विद्यार्थी लगता है, जब ये शेर मुझे सुनाये तो हैरत से मुँह खुला ही रह गया " दुनिया संभल। कि तुझसे मिरा जी उचट न जाय " मिसरा दसों बार दोहराया और अहा हा हा कहते हुए उस से पूछा कि ये शेर किसके हैं बरखुरदार ? जवाब में लड़के ने अपना चश्मा ठीक करते हुए शरमा कर सर झुकाया और बोला " मेरे ही हैं नीरज जी " सच कहता हूँ एक बार तो उसकी बात पे बिलकुल यकीन नहीं हुआ और जब हुआ तो उसे गले लगते हुए मैंने भरे गले से कहा - जियो ! 

तुम्हें जिस पर हंसी आई मुसलसल 
वो जुमला तो अखरना चाहिए था 

वहां पर ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी थी 
उसी कूचे में मरना चाहिए था 

किसी की मुस्कराहट छीन बैठे 
सलीक़े से मुकरना चाहिए था 

समझ आया है ये बीनाई खो कर 
उजालों से भी डरना चाहिए था 

आज 'किताबों की दुनिया' में हम चर्चा कर रहे हैं नौजवान शायर जनाब ' इरशाद ख़ान 'सिकंदर' साहब की किताब 'आंसुओं का तर्जुमा' की जो 2016 के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले के दौरान मंज़र-ए-आम पर आयी और आते ही छा गयी। लोकप्रियता की नयी मिसाल कायम करने वाली इस किताब के पीछे इरशाद की हर हाल में ज़िंदा रहने और होने की जिद के साथ-साथ ज़िन्दगी के सच्चे खरे तज़ुर्बे छुपे हुए हैं।


फिर उसके बाद सोच कि बाकी बचेगा क्या 
तू सिर्फ कृष्ण भक्ति से रसखान काट दे 

महफ़िल की शक्ल आपने देखी है उस घडी 
दानां की बात जब कोई नादान काट दे 

कमतर न आंकिए कभी निर्धन के अज्म को 
अपनी पे आये पानी तो चट्टान काट दे 

गंगा जमुनी तहजीब की नुमाइंदगी करती इरशाद की ग़ज़लें सीधे पढ़ने सुनने वालों के दिल में उत्तर जाती है। ये तय करना मुश्किल है कि इरशाद उर्दू के शायर हैं या हिंदी के। 8 अगस्त 1983 को जन्मे इरशाद ने शायरी की राह अपने आप चुनी बकौल इरशाद शायरी ऐसी विधा थी जिससे उनके पूरे खानदान में किसी का भी दूर दूर तक कोई नाता नहीं रहा था। पूरे कट्टर धार्मिक परिवेश में पले -बढे इरशाद के पीछे शायरी की बला कब और कैसे पड़ गयी ये उन्हें खुद भी नहीं मालूम। अब उनके नक़्शे कदम पर उनकी छोटी बहन परवीन खान बहुत सधे हुए क़दमों से चल रही है। 

हौसला भले न दो उड़ान का 
तज़करा तो छोड़ दो थकान का 

ईंट उगती देख अपने खेत में 
रो पड़ा है आज दिल किसान का 

मुझमें कोई हीरे हैं जड़े हुए 
सब कमाल है तेरे बखान का 

मैं चराग से जला चराग हूँ 
रौशनी है पेशा खानदान का 

 'लफ्ज़' पत्रिका के संपादक संचालक जनाब 'तुफैल चतुर्वेदी' साहब ने उर्दू के बेहतरीन युवा शायरों की पूरी खेप तैयार करने में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है और आज भी कर रहे हैं। उनके मार्गदर्शन और उस्तादी में जनाब 'विकास राज' और ' स्वप्निल तिवारी' जैसे बहुत से शायरों ने अपने हुनर को संवारा और धार दी। इन दो शायरों की तरह इरशाद भी खुद फ़ारिगुल-इस्लाह ही नहीं हुए बल्कि बहुत अच्छे शेर कहने वाले कई शायरों की रहनुमाई भी कर रहे हैं। 

कल तेरी तस्वीर मुकम्मल की मैंने 
फ़ौरन उस पर तितली आकर बैठ गयी 

रोने की तरकीब हमारे आई काम 
ग़म की मिटटी पानी पाकर बैठ गयी 

वो भी लड़ते लड़ते जग से हार गया 
चाहत भी घर बार लुटा कर बैठ गयी 

तुफैल साहब के अलावा इरशाद की शायरी को सजने संवारने में उर्दू के बहुत बड़े शायर जनाब फ़रहत एहसास और डॉ अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। इरशाद भाई ने इस किताब में अपनी बात कहते हुए लिखा भी है कि "तक़दीर जब-जब मुझे मेरी हार गिनवाती है मैं अपनी जीत के तीन नाम, याने 'तुफैल साहब , फरहत एहसास और जनाब अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब , गिनवाकर तक़दीर की बोलती बंद कर देता हूँ। 

जिस्म दरिया का थरथराया है 
हमने पानी से सर उठाया है 

अब मैं ज़ख्मों को फूल कहता हूँ 
फ़न ये मुश्किल से हाथ आया है 

जिन दिनों आपसे तवक़्क़ो थी 
आपने भी मज़ाक़ उड़ाया है 

हाले -दिल उसको क्या सुनाएँ हम 
सब उसी का किया-कराया है 

प्रसिद्ध शायर 'ज्ञान प्रकाश विवेक' जी ने लिखा है कि 'सिकंदर की ग़ज़लों में सादगी की गूँज हमें निरंतर महसूस होती है , उनकी ग़ज़लों में बड़बोलेपन का कोई स्थान नहीं है। विनम्रता इन ग़ज़लों को ऐसे संस्कार में रचती है कि दो मिसरे कोई शोर नहीं मचाते। शायरी का अगर दूसरा नाम तहज़ीब है तो उसे यहाँ महसूस किया जा सकता है। 

तेरी फ़ुर्क़त का अमृत पिया 
और उदासी अमर हो गयी 
फुरकत -जुदाई 

यूँ हुआ फिर करिश्मा हुआ 
मिटटी ही कूज़ागर हो गयी

मुझको मिटटी में बोया गया 
मेरी मिटटी शजर हो गयी 

इरशाद की शायरी की ये तो अभी शुरुआत ही है हमें उम्मीद है कि आने वाले वक्त में वो और भी बेहतरीन शायर बन के मकबूल होगा, जिसकी शायरी में इश्क के अलावा दुनिया के रंजों ग़म खुशियां मजबूरियां घुटन टूटन बेबसी के रंग भी नुमायां होंगे। उर्दू शायरी को इस नौजवान शायर से बड़ी उम्मीदें जगी हैं. और क्यों न जगें ? जिस शायर की पहली ही किताब चर्चा में आ जाय उस से भविष्य में और अच्छे की उम्मीद बंध ही जाती है। अब इरशाद का मुकाबला खुद इरशाद से होगा उसे अब अपनी हर कहन को अपने पहले कहे से बेहतर कहना होगा ये काम जितना आसान दिखता है उतना है नहीं लेकिन हमें यकीन है कि इरशाद के बुलंद हौसले उसे सिकंदर महान बना कर ही छोड़ेंगे। 

मैं भी कुछ दूर तलक जाके ठहर जाता हूँ 
तू भी हँसते हुए बच्चे को रुला देती है 

ज़ख्म जब तुमने दिए हों तो भले लगते हैं 
चोट जब दिल पे लगी हो तो मज़ा देती है 

दिन तो पलकों पे कई ख्वाब सज़ा देता है 
रात आँखों को समंदर का पता देती है 

इस किताब के प्रकाशन के लिए एनीबुक डॉट कॉम की जितनी तारीफ की जाय कम है। बड़े प्रकाशक जहाँ नए और कम प्रचलित लेखकों कवियों या शायरों को छापने से बचते हैं वहीँ एनीबुक ने न केवल इरशाद खान 'सिकंदर' की किताब को छापा बल्कि बहुत खूबसूरत अंदाज़ में छापा। इसके पीछे 'पराग अग्रवाल' जी - जो इसके करता धर्ता हैं, का शायरी प्रेम झलकता है। किताब की प्राप्ति के लिए आप एनीबुक को उनके हाउस न। 1062 , ग्राउंड फ्लोर , सेक्टर 21 , गुड़गांव पर लिखे या contactanybook@gmail.com पर मेल करें। सबसे आसान है की आप इरशाद भाई को उनके मोबाईल 9818354784 पर बधाई देते हुए किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें या फिर पराग अग्रवाल जी से उनके मोबाईल फोन 9971698930 पर बात कर किताब मंगवा लें। चाहे जो करें लेकिन इस होनहार शायर की किताब आपकी निजी लाइब्रेरी में होनी ही चाहिए। अगली किताब की तलाश से पहले आपको पढ़वाते हैं इरशाद की एक ग़ज़ल के ये शेर 

क्या किसी का लम्स फिर इंसा बनाएगा मुझे 
उसके जाते ही समूचा जिस्म पत्थर हो गया 

कारवां के लोग सारे गुमरही में खो गए
मैं अकेली जान लेकर तनहा लश्कर हो गया 

क्या करूँ ग़म भी छुपाना ठीक से आता नहीं 
 दास्ताँ छेड़ी किसी ने मैं उजागर हो गया