Monday, June 20, 2011

किताबों की दुनिया - 54

वो तो टुल्लू की मदद से अपनी छत धोते रहे
और हमारी प्यास को पानी के लाले पड़ गए

जब हमारे क़हक़हों की गूंज सुनते होंगे ग़म
सोचते होंगे कि हम भी किसके पाले पड़ गए

हम इसे इत्तिफ़ाक ही कहेंगे, एक हसीन इत्तिफ़ाक क्यूंकि हमारी आज किताबों की दुनिया श्रृंखला के शायर का नाम वही है जो पिछली बार वाले शायर का था.जी हाँ सही पहचाना श्री "ओम प्रकाश" जी. लेकिन इनके सिर्फ नाम ही एक है वर्ना दोनों में अन्तर है और अंतर न सिर्फ उनके तख्खलुस में है बल्कि उनकी शायरी में भी है.


जो असर टी.वी. का बच्चों पर हुआ, होना ही था
कार्बाइड वक़्त से पहले पका देता है फल

पेड़ के किरदार पर जिस वक़्त आता है शबाब
कोई तोड़े या न तोड़े ख़ुद गिरा देता है फल

ज़िन्दगी की रोजमर्रा वाली साधारण बातों को अपनी शायरी में असाधारण ढंग से ढालने वाले इस बाकमाल शायर ओम प्रकाश 'नदीम'की किताब "दिया खामोश है" का आज हम जिक्र करेंगे. हिंदी और उर्दू लिपि में एक साथ छपी लगभग नब्बे ग़ज़लों को समेटे उनका ये ग़ज़ल संग्रह जिसे 'मशअल-ऐ-राह (फोरम) मिर्देगान,बिजनौर द्वारा प्रकाशित किया गया है, सचमुच में अद्भुत है.


मर्तबा हो, इल्म हो या तजरुबा हो कुछ तो हो
कुछ न हो तो बात करने की कला हो कुछ तो हो

इस तरह बेसूद रिश्तों से भला क्या फायदा
या तो कुछ कुर्बत बढे या फासला हो कुछ तो हो
कुर्बत:नजदीकी

और कितना वक्त मुल्ज़िम की तरह काटें 'नदीम'
या तो बाइज्ज़त बरी हों या सज़ा हो कुछ तो हो

ओम जी की सबसे बड़ी खूबी है नए नए काफियों का चयन. ऐसे काफिये वो अपने ग़ज़लों में पिरोते हैं जो अन्यंत्र आसानी से दिखाई नहीं देते.इन काफियों को वो जिस अंदाज़ से निभाते हैं वो भी विलक्षण है. इस से साफ़ ज़ाहिर होता है के वो प्रयोग धर्मी है और बंधी बंधाई लीक पर चलने में विश्वाश नहीं करते. वो खुद भी अपने लिए नयी राहें तलाशते हैं और अपने पाठकों को भी नयी राहें तलाशने को प्रेरित करते हैं. इस प्रयोग धर्मिता की वजह से उनकी शायरी हमेशा ताज़े हवा के झोंके जैसा अहसास करवाती है.

आँधियों में भी न चूके जुल्म से लम्बे दरख़्त
जब गिरे तो दूसरों को ले मरे लम्बे दरख़्त

डूबने वाले का बन जाता है तिनका आसरा
देखते रहते हैं साहिल पर खड़े लम्बे दरख़्त

धूप उन मासूम सब्जों की ये खाते हैं 'नदीम'
जिन में पल बढ़कर हुए इतने बड़े लम्बे दरख़्त

फतहपुर,उत्तरप्रदेश में 26नवम्बर1956 को ओम जी का जन्म हुआ. इन दिनों आप रूडकी में रहते हैं.उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह "सामना सूरज से है" अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है. इस किताब की भूमिका में ओम जी ने कहा है " मेरे विचार से ग़ज़ल, साहित्यिक अभिव्यक्ति की श्रेष्ठतम विधा है. लेकिन मैं न तो अपनी ये राय किसी पर थोपना चाहता हूँ और न ही किसी और की राय को अपनी इस राय पर हावी होने देना चाहता हूँ क्यूंकि अपनी अपनी मंजिल अपना अपना रास्ता है." उनकी शायरी पढ़ते हुए हमें उनकी राय से इत्तेफ़ाक होने लगता है.

सर जोड़ के बैठो कोई तदबीर निकालो
हर बात पे ये मत कहो शमशीर निकालो

देखूं जरा कैसा था मैं बेलौस था जब तक
बचपन की मेरे कोई सी तस्वीर निकालो

दुनिया मुझे हैवान समझने लगी अब तो
गर्दन से मेरी धर्म की ज़ंजीर निकालो

नदीम साहब की शायरी का खमीर सांप्रदायिक सौहार्द, दर्द मंदी, मनोविज्ञान,सर्वधर्म समभाव,भावुकता, संवेदना और दार्शनिकता जैसे तत्वों से तैयार हुआ है. उनकी शायरी में जहाँ जुल्म और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध लड़ने के लिए मशवरे मिलते हैं वहीँ बदले हुए हालात से जन्म लेने वाली मंज़र निगारियाँ जहाँ तहां दिखाई देती है.

किसी चराग का आंधी के सामने जलना
इसी को कहते हैं हक़ बात के लिए लड़ना

जो ठेकेदार हैं मज़हब के उनसे क्या कहना
हवा से आग बुझाने की बात क्या करना

बिछे हुए हैं बबूलों की छाँव में कांटे
कि इनकी छाँव से बेहतर है धूप में चलना

अगर न बन सको इंसां खुदा ही बन जाओ
कि मेरे देश में आसान है खुदा बनना

चूँकि इस किताब को बिजनौर की एक फोरम ने प्रकाशित किया है इसलिए इसका सहज ढंग से बाज़ार में मिलना टेढ़ी खीर है. इसे प्राप्त करने के लिए आपको ओम जी से निम्न में से किसी एक माध्यम से संपर्क करना पड़ेगा. आप किस माध्यम को प्राथमिकता देते हैं ये निर्णय मैं आप पर छोड़ता हूँ. उनका इ मेल एड्रेस है : omprakashnadeem@gmail.com तथा मोबाईल और फोन नंबर :+91-9368169593 / 9456460659.
आखरी में प्रस्तुत हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर जो उनके अपने बारे में हैं. वो जैसे हैं उन्हें वैसे ही अपनाना होगा लेकिन एक बात मैं बता दूं अगर आपने एक बार उनसे बात कर ली तो फिर आपका दिल बार बार उनसे बात करने को चाहेगा क्यूँ के आज के युग में इतने अच्छे और सच्चे इन्सान किस्मत से ही मिला करते हैं:

हर किसी की हाँ में हाँ करता नहीं हूँ
इसलिए मैं आदमी अच्छा नहीं हूँ

लोग मुझसे इसलिए कटने लगे हैं
तयशुदा रस्‍तों पे मैं चलता नहीं हूँ

मेरे भड़काने से कोई क्यूँ लडेगा
मैं किसी के धर्म का फ़तवा नहीं हूँ

मुझमें उतरो प्यार के मोती चुरा लो
मैं समंदर हूँ मगर गहरा नहीं हूँ

ओम जी आपको अपने में उतरने का आव्हान कर रहे हैं तो फिर देर किस बात की सोच क्या रहे हैं फोन उठाइए और ओम जी को उनके लाजवाब कलाम पर दाद दीजिये, तब तक हम निकलते हैं एक और शायर की तलाश में.

30 comments:

रश्मि प्रभा... said...

पेड़ के किरदार पर जिस वक़्त आता है शबाब
कोई तोड़े या न तोड़े ख़ुद गिरा देता है फल
kitaabon ki duniya me chuninde log , chunindi panktiyaan aur aapki kalam !

vandana gupta said...

हमेशा की तरह एक और हीरा तलाश लिया आपने …………हार्दिक धन्यवाद्।

सौरभ शेखर said...

Neeraj jee namaskar,
Om prakash ki shayri sachmuch gajab ki hai.पेड़ के किरदार पर जिस वक़्त आता है शबाब
कोई तोड़े या न तोड़े ख़ुद गिरा देता है फल.Is sher ne to math kar rakh diya.Inse rubaru karane ke liye aako dhanyavad.

हरियाणा-एक्सप्रेस said...

हे कोलंबस श्री,
ये खोज नमनीय है....पठनीय भी और अनुकरणीय भी.....नदीम साहब की कलम और आपकी प्रस्तुति को naman करता हूँ....
साधुवाद

दिगम्बर नासवा said...

वाह ... कोई कोलंबस कहता है कोई वास्कोडिगामा भी कहेगा .. पर ये सच है की आप वो मोती निकाल के लाते हो जिसकी चमक दूर दूर तक दिखाई देती है ... अब उनके साथ इसमें आपका भी कमाल जो जुड जाता है ... नदीं साहब के हस शेर पर वाह वाह ही निकल रहा है ...

सदा said...

किसी चराग का आंधी के सामने जलना
इसी को कहते हैं हक़ बात के लिए लड़ना

ओम जी को पढ़ना इन पंक्तियों में और आपकी कलम से उनका व्‍यक्तित्‍व सामने लाना बहुत ही सराहनीय कार्य है आपका ..आभार के साथ शुभकामनाएं ।

pran sharma said...

OM JI KE KAEE SHER DIL MEIN UTARTE
HAIN . UNHEN BADHAEE AUR SHUBH
KAMNA .

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

अभी अभी ओम प्रकाश 'नदीम' जी से फ़ोन पर बात हुई| वाक़ई बहुत आनंद आया उन से बात कर के| उम्र में मुझसे बड़े होने के बावजूद बड़े ही स्नेह के साथ बातें कीं उन्होंने|

ग़ज़ल की नयी सड़क के मज़बूत इरादे वाले राही, श्री ओम प्रकाश 'नदीम' जी की शायरी भी उन के बचपन वाले शे'र की तरह ही 'बेलौस', मस्त मौला और स्ट्रेट फ़ॉरवर्ड लगती है|

नीरज भाई, घर बैठे दुनिया जहान की सैर करा रहे हो - आनंदम - परमानंदम| आप के ब्लॉग को तो अब मिनी लाइब्रेरी कहना चाहिए|

अरुण चन्द्र रॉय said...

हर किसी की हाँ में हाँ करता नहीं हूँ
इसलिए मैं आदमी अच्छा नहीं हूँ

लोग मुझसे इसलिए कटने लगे हैं
तयशुदा रस्‍तों पे मैं चलता नहीं हूँ

मेरे भड़काने से कोई क्यूँ लडेगा
मैं किसी के धर्म का फ़तवा नहीं हूँ.....

नीरज जी खामोश दिए से जो रौशनी मिली है वो चमकते शहरो में कहाँ है...

प्रवीण पाण्डेय said...

गज़ल की यात्रा रुचिकर लग रही है।

डॉ टी एस दराल said...

जो असर टी.वी. का बच्चों पर हुआ, होना ही था
कार्बाइड वक़्त से पहले पका देता है फल

सही कहा आपने । साधारण बातों में बड़ी बातें कही हैं ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ।

इस्मत ज़ैदी said...

neeraj ji ,kahan kahan se jawahrat nikal late hain ap
किसी चराग का आंधी के सामने जलना
इसी को कहते हैं हक़ बात के लिए लड़ना
bahut umda!!!!!!!!!

Bharat Bhushan said...

कई बातें कहीं हैं आपने और हर बात का अंदाज़ खूबसूरत.

Anonymous said...

सर जोड़ के बैठो कोई तदबीर निकालो
हर बात पे ये मत कहो शमशीर निकालो

दुनिया मुझे हैवान समझने लगी अब तो
गर्दन से मेरी धर्म की ज़ंजीर निकालो

हर किसी की हाँ में हाँ करता नहीं हूँ
इसलिए मैं आदमी अच्छा नहीं हूँ

लोग मुझसे इसलिए कटने लगे हैं
तयशुदा रस्‍तों पे मैं चलता नहीं हूँ

मेरे भड़काने से कोई क्यूँ लडेगा
मैं किसी के धर्म का फ़तवा नहीं हूँ

नीरज जी शुक्रिया आपका 'नदीम' साहब से परिचय करवाने का......ये सारे शेर मुझे बहुत पसंद आये......शानदार |

आकर्षण गिरि said...

ek khoobsurat rachna se ru-ba-ru karaane ke liye bahut bahu dhanywad.....

निर्मला कपिला said...

हर किसी की हाँ में हाँ करता नहीं हूँ
इसलिए मैं आदमी अच्छा नहीं हूँ

लोग मुझसे इसलिए कटने लगे हैं
तयशुदा रस्‍तों पे मैं चलता नहीं हूँ
वाह । हमेशा की तरह बढिया शायर और उनकी पुस्तक का परिचय दिया। नदीम जी को बहुत बहुत बधाई।

शारदा अरोरा said...

हर बार की तरह बढ़िया ...
आँधियों में भी न चूके जुल्म से लम्बे दरख़्त
जब गिरे तो दूसरों को ले मरे लम्बे दरख़्त
वाह वाह ,
ओमप्रकाश जी की शायरी ने हंसाया भी बहुत ...

Kunwar Kusumesh said...

बढ़िया अशआर.रचनाकार को बधाई.आपको पढ़वाने के लिए धन्यवाद,नीरज जी.

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

दुनिया मुझे हैवान समझने लगी अब तो
गर्दन से मेरी धर्म की ज़ंजीर निकालो...
तंज़-ओ-मज़ाह के साथ इतने मानीखेज़ शेर कहने वाले शायर को मुबारकबाद...
और नीरज जी, इनसे रूबरू कराने के लिए आपका भी शुक्रिया.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल २३-६ -२०११ को यहाँ भी है

आज की नयी पुरानी हल चल - चिट्ठाकारों के लिए गीता सार

Patali-The-Village said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति|

योगेन्द्र मौदगिल said...

behtreen prastuti ............. sadhuwaad...

BrijmohanShrivastava said...

बहुत पाठक हैं जो पुस्तकें नहीं खरीद सकते उनके लिये और विशेष कर अच्छी गजलों का चयन कर आप पाठकों को उपलब्ध करा देते है सराहनीय है

Pawan Kumar said...

नीरज जी
नदीम साहब की शायरी और व्यक्तित्व को उजागर करती इस पोस्ट का आभार.......
बहुत शानदार शायरी है नदीम साहब की
"सर जोड़ के बैठो कोई तदबीर निकालो
हर बात पे ये मत कहो शमशीर निकालो"
जैसे शेर कहने वाले इस नामचीन शायर को हमारा सलाम

राजेश उत्‍साही said...

एक और नायाब खोज।

Asha Joglekar said...

कुछ अलग किस्म का शायर ढूँढ कर लायें हैं इस बार ।
इस तरह बेसूद रिश्तों से भला क्या फायदा
या तो कुछ कुर्बत बढे या फासला हो कुछ तो हो ।


और
जो ठेकेदार हैं मज़हब के उनसे क्या कहना
हवा से आग बुझाने की बात क्या करना


बेहतरीन बेहतरीन बेहतरीन । हमेशा की तरह ।

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

इस तरह बेसूद रिश्तों से भला क्या फायदा
या तो कुछ कुर्बत बढे या फासला हो कुछ तो हो

जो ठेकेदार हैं मज़हब के उनसे क्या कहना
हवा से आग बुझाने की बात क्या करना

मुझे ये अंदाजे-बयाँ बहुत अच्छा लगा के नदीम जी जिंदगी से बात करते हैं, ज़माने से बात करते हैं और ख़ुद से भी बात करते हैं। उनकी इस गुफ़्तगू में वुसअत, गहराई और फ़िक्र शामिल है। हमारी दुआ है के वे इसी तरह तख़लीक़ के हमसफ़र बने रहें और ग़ज़ल का रास्ता रोशन करते रहें। -देवमणि पांडेय (मुम्बई)

शिवम् मिश्रा said...

आपका बहुत बहुत आभार !

Urmi said...

आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत ख़ूबसूरत रचना! बेहद पसंद आया ! बेहतरीन प्रस्तुती!

Dr. Chandra Kumar Jain said...

दिये की खामोशी को भी
मुक़म्मल अल्फाजों से एक अलहदा तासीर
बख्श दी आपने...शुक्रिया नीरज जी...और शायर की
पेशकश के लिए मुबारकबाद.
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आपका
डॉ.चन्द्रकुमार जैन