Monday, August 24, 2020

किताबों की दुनिया -212

अगर मानूस है तुमसे परिन्दा 
तो फिर उड़ने को पर क्यूँ तौलता है 
[ मानूस : हिला हुआ ]

कहीं कुछ है,कहीं कुछ है,कहीं कुछ 
मिरा सामान सब बिखरा हुआ है 

अभी तो घर नहीं छोड़ा है मैंने 
ये किसका नाम तख़्ती पर लिखा है 
 
"सुनो बोरिया बिस्तर बांधना पड़ेगा, ये घर छोड़ कर अब ग्वालियर जाना है ।" रसोई से इस जुमले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी । उन्होंने गला खंखारते हुए फिर कहा,"गवर्मेंट कमला राजा गर्ल्स कॉलेज में प्रोफ़ेसर और सदर-शोबए उर्दू का ओहदा मिला है।" कोई जवाब नहीं । कभी-कभी ख़ामोशी वो सब कुछ कह देती है जो बोल कर नहीं कहा जा सकता । बल्कि उससे भी ज़्यादा । मुलाज़मत के सिलसिले में मुख़्तलिफ़ मक़ामात का सफ़र घर के बाशिंदों के लिए सबसे मुश्किल होता है ; गृहस्थी बसाना फिर उसे समेटना और फिर बसाना वो भी एक बार नहीं कई बार । अमरावती से जबलपुर फिर भोपाल और अब ग्वालियर । आप ही बताएं इस ख़बर को सुनकर भला कौन ख़ुश या दुखी होकर जवाब देगा ? इसीलिए जवाब नहीं आया । अफ़सोस ! ज़वाब न देने से समस्या ख़त्म नहीं होती , वहीं की वहीं रहती है । समस्या का समाधान बोलने या चुप रहने से नहीं होता उससे सामना करने से होता है । लिहाज़ा सामान बाँधकर कूच की तैयारी शुरू कर दी गयी ।             

हम तो बिखराते हुए चलते हैं साए अपने 
किसी दीवार से साया नहीं मांगा करते
*
हर एक काम सलीक़े से बांट रक्खा है 
ये लोग आग लगाएँँगे, ये हवा देंगे
*
कोशिशें है उसे मनाने की 
ये भी डर है कि बात मान न ले 
*
नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने 
अब समंदर की ज़िम्मेदारी है
*
वो ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता 
तो ये किया कि मुझे वक्त पर दवाएँँ न दींं
*
मैं तो चाहता ये हूँँ बहस ख़त्म हो जाए 
आओ तौल कर देखें, किस का बोझ भारी है
*
तू मुझे काँँटा समझता है तो मुझसे बच के चल 
राह का पत्थर समझता है तो फिर ठोकर लगा
*
जो मुझसे दूर बैठे हैं, सब गुल-फ़रोश हैं 
मुझसे खरीदना हो तो ख़ुशबू खरीदना
*
माहौल को ख़राब न मैंने किया कभी 
टूटा भी हूं तो अपने ही अंदर बिखर गया
*
उसमें चूल्हे तो कई जलते हैं 
एक घर होने से क्या होता है

भोपाल से ग्वालियर शायद ही कोई आना चाहे जब तक कि कोई मजबूरी ही न हो । भोपाल हरा-भरा है और झीलों से घिरा है और आपको ये बता दूँ कि रहने और जीवन-यापन के लिए ग्वालियर से सस्ता भी है - चौंक गए ? जी हाँ, मैं भी चौंक गया था जब गूगल ने ये जानकारी मुझे दी । ये जानकारी अब की है जबकि मैं बात कर रहा हूँ सन 1968 की । और मैं मान लेता हूँ कि तब भी भोपाल ग्वालियर से सस्ता ही होगा । ग्वालियर आना इस परिवार की मजबूरी थी लिहाज़ा आना पड़ा । ये लोग आये और रहने लगे । ऐसा होता है कि हम जहाँ कहीं रहने लगते हैं धीरे-धीरे वो घर,मोहल्ला,लोग और शहर हमें अच्छा लगने लगता है । इस परिवार को भी ग्वालियर अच्छा लगने लगा और इतना अच्छा लगने लगा कि पूरे परिवार ने ऊपर वाले से दुआ की कि वो अब उन्हें और कहीं विस्थापित न करे । ऊपर वाला हमेशा सब की बात नहीं मानता लेकिन कभी-कभी मान भी लेता है और उसका ये कभी कभी मान लेना ही इंसान को उससे जोड़े रखता है । ऊपर वाले ने परिवार की इस दुआ को क़बूल कर लिया । ग्वालियर में बसने के बाद ये परिवार विस्थापन के दर्द से मुक्त हुआ । 
भूमिका लम्बी ही नहीं हो रही बे-मक़सद भी होती जा रही है इसलिए इसे विराम देते हुए बताता हूँ कि हम जिस परिवार की बात कर रहे हैं उसके मुखिया याने हमारे आज के शायर हैं जनाब डॉ. 'अख़्तर नज़्मी' साहब जिनकी देवनागरी में छपी किताब 'सवा नेज़े पे सूरज' हमारे सामने है ।    
 

उलझनेंं और बढ़ाते क्यूँ हो 
मुझको हर बात बताते क्यूँ हो 

मैं ग़लत लोगों में घिर जाता हूं 
तुम मुझे छोड़ के जाते क्यूँँ हो 

फिर मेरा दिन नहीं काटे कटता 
तुम ज़रा देर को आते क्यूँँ हो 

वादी-ए-गुल से गुज़रते जाओ 
हाथ फूलों को लगाते क्यूँँ हो

सबसे पहले बात करते हैं इस किताब के शीर्षक की.  'सवा नेज़े पे सूरज' का अर्थ क्या हुआ ? इस किताब में दिए विवरण के अनुसार ऐसा इस्लाम में विचार किया गया है की  'जब क़यामत का दिन आएगा तब सूरज सातवें आसमान पर आ जायेगा जो ठीक पृथ्वी के ऊपर है। सूरज का सातवें आसमान पर यानी ठीक पृथ्वी के ऊपर आना ' सवा नेज़े' पे आना है जिससे सूरज के प्रचंड ताप से धरती पर सब विनष्ट होने लगेगा और किसी को होश नहीं रहेगा और नेज़ा याने भाला है ।  हम इस बात की व्याख्या पर नहीं जाएंगे क्यूंकि ये इस पोस्ट का मक़सद नहीं है । अभी हम क़यामत की नहीं बल्कि क़यामत ढाते उन अश'आरों की बात करेंगे जो इस किताब में जगह-जगह बिखरे पड़े हैं ।  
   .
कुछ लोगों को इसका भी तजुर्बा नहीं अब तक 
जो सबका है वह शख़्स किसी का नहीं होता 

हैरत है कि ये बात भी समझानी पड़ेगी 
सूरज ही के छुपने से अँँधेरा नहीं होता 

मैं ज़हन में उसके हूँँ मेरे दिल में है वो भी 
इस तरह बिछड़ना तो बिछड़ना नहीं होता

इलाहबाद के जनाब मुमताज़ उद्दीन 'बेखुद' के यहाँ सन 1931 में 'सैयद अख़्तर जमील' का जन्म हुआ जो आगे चल कर 'अख़्तर नज़्मी ' के नाम से उर्दू ग़ज़ल के आसमां का रोशन सितारा बना । मुमताज़ साहब का परिवार और नाते-रिश्तेदारों को रोज़ी-रोटी की तलाश में इलाहबाद छोड़ना पड़ा और वो लोग जिसको जहाँ ठिकाना मिला बस गए । घर की माली हालत खस्ता थी लिहाज़ा बचपन में अख़्तर साहब के बहुत से अरमान पूरे नहीं हो सके । जवानी में भी किसी ने उनकी तरफ़ जितना देना चाहिए था उतना ध्यान नहीं दिया-। वो अगर ग़लत राहों पर चल पड़ते तो उन्हें कोई समझाने वाला भी नहीं था लेकिन ऊपर वाले की मेहरबानी से उनके क़दम कभी बहके नहीं और वो सीधे रास्ते पर चलते हुए तालीम हासिल करते रहे । इसी दौरान ज़िन्दगी की जद्दोजहद को वो अश'आरों में ढालने लगे और कभी-कभी ग़ज़लें भी कहने लगे । एक अच्छे उस्ताद की तलाश शुरू हुई लेकिन दूर-दराज़ में बसे शायरों तक उनकी पहुँच नहीं हो पायी और आसपास वालों ने उन्हें तवज्जो तक नहीं दी ।   .

न सोचा था वो कर गुज़रेगा ये भी 
मुझे अपना बना कर छोड़ देगा 

मेरे हाथों में जब पतवार होगी 
मेरे पीछे समंदर छोड़ देगा 

ख़रीदेगा उसे जिस पर नज़र है 
मुझे बोली लगाकर छोड़ देगा

उनके वालिद अफ़साने, तन्ज़िया और मज़ाहिया रेडियाई ख़ाके लिखते थे और शे'र भी कहते थे । आम-फ़हम ज़ुबान में तहदार मानवियत से आरास्ता लेकिन अपनी इल्मी बे वज़ाअति के बाइस अख़्तर साहब की उनसे मशवरा लेने की जुर्रत नहीं हुई । क्या ज़माना था जब बच्चे अपने बाप की इज़्ज़त करते थे और उनसे ख़ौफ़ खाते थे अब मामला थोड़ा उल्टा हो गया है । आप इस बात का बुरा न मानें  लेकिन अपवाद कहाँ नहीं होते । वालिद के स्टाइल की नक़ल करते हुए उन्होंने ग़ज़लें कहनी शुरू की और जब उनके वालिद को इस बात की ख़बर मिली तो उन्होंने सुनने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की । वालिद ग़ज़ल सुनते जरूर लेकिन उन्होंने दाद कभी खुलकर बुलन्द आवाज़ में नहीं दी और अगर दाद मिलती भी थी तो ग़ज़ल सुनकर कभी उनकी आँखों में आयी चमक से तो कभी लबों पर बिखरी हलकी-सी मुस्कराहट से तो कभी हाथ की हल्की-सी जुम्बिश से । ये बात सन 1952 की है याने जब अख़्तर साहब 21 साल के थे।      

सर्फ़ कर दिया मैंने ज़िन्दगी का हर लम्हा 
इसको याद करने में, उसको भूल जाने में
*
यही सच है कोई माने न माने 
सब अच्छा है तो कुछ अच्छा नहीं है
*
मैं अपनी घुटन अपने दिल में लिए 
हमेशा हवादार घर में रहा
*
सारे दरवाज़े एक जैसे हैं 
झुक के निकलो तो सर नहीं लगता
*
 शराब पी के तो मैं ख़ुद ख़रीद लूं सबको 
वो सोचता है पिलाकर ख़रीद लेगा मुझे
*
ये कहा तो बात की तह तक पहुंच सकते हैं लोग 
दूर से अच्छा नज़र आता है मेरा घर मुझे
*
मेरी ज़ुबाँँ ही फँस जाती है, मैं ही पकड़ा जाता हूँँ 
वो तो यार बदल देता है अपनी बात सफ़ाई से
*
जब चलो उसके रास्ते पे चलो 
क्या इसी को निबाह कहते हैं
*
क्या किया है निबाहने के सिवा 
जब से इस ज़िन्दगी से रिश्ता है
*
ये तरक़्क़ी पसंद शायरी के उरूज का दौर था । सभी का रुख़ उसी ओर हुआ करता था लेकिन अख़्तर साहब का रिश्ता न तरक़्क़ीपसंद शायरी से जुड़ सका न रिवायती शायरी से पूरी तरह टूट सका । धीरे-धीरे 1955 तक आते-आते उनका लहजा तब्दील होते होते पूरी तरह से जदीद शायरी पे टिक गया । इसके साथ ही उनकी मकबूलियत का दौर शुरू होता है जो चालीस से अधिक सालों तक लगातार चलता रहा । उनकी ग़ज़लों को बड़े ग़ज़ल गायकों जैसे 'जगदीश ठाकुर', 'जगजीत सिंह', 'अनूप जलोटा' और 'अहमद हुसैन -मोहम्मद हुसैन' बंधुओं ने अपने स्वर दिए और जन-जन तक पहुँचाया । 'अख़्तर' साहब मुशायरों के शायर कभी नहीं रहे,यही वजह है कि उनके मुशायरे पढ़ते हुए के वीडियो इंटरनेट पर कहीं नहीं मिलते। वीडियो तो छोड़िये उन पर किसी का हिंदी या अंग्रेजी में लिखा लेख भी नहीं मिलता। उर्दू का मुझे पता नहीं क्यूंकि मुझे उर्दू पढ़नी नहीं आती । उनकी शायरी का सफ़र 1 सितंबर 1997 को मात्र 65 साल की उम्र में ग्वालियर में रुक गया  वो अपने परिवार और चाहने वालों को रोता-बिलखता छोड़ गए । उनकी बेग़म 'निशात अख़्तर' लिखती हैं कि "उनका साथ छूटा कहाँ है । उनकी फ़िक्र, उनका क़लाम, उनके अश'आर और इन्हीं में वो ख़ुद हर जगह मौजूद हैं । उनकी दुनिया किताबों में थी और उस दुनिया में आज भी वो हर जगह नज़र आते हैं।"            
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 हंगामे में खोई हुई ख़ुशियाँ नहीं मिलतींं 
बारात में खोया हुआ ज़ेवर नहीं मिलता 

ये नींद का आलम है के शब-भर नहीं आती 
आराम का ये हाल है दिन भर नहीं मिलता 

पानी की तरफ़ पानी का रुख़ होता है 'नज़्मी'
सूखी हुई नदियों को समंदर नहीं मिलता

अख़्तर साहब की किताबों में  'शब -रेज़े' (उर्दू में सन 1982 में) , 'ख़्वाबों का हिसाब' (उर्दू में सन 1986 में) , 'सवा नेज़े पे सूरज' (उर्दू में सन 1996 में और देवनागरी में सं 2006 में) तथा मीर सय्यद अली 'ग़मगीन' पर शोध-ग्रंथ 2008 में मंज़र-ए-आम आया । हिंदी में इस किताब को 'मेधा बुक्स' नवीन शाहदरा, दिल्ली ने प्रकाशित किया है लेकिन अब उनके पास ये किताब उपलब्ध है या नहीं ये कहना मुश्किल है । अख़्तर साहब ने सिर्फ ग़ज़लें ही नहीं क़ता, नज़्म, रुबाई और दोहों जैसी विधा पर भी सफलतापूर्वक क़लम चलाई है ।   
 
आख़िर में प्रस्तुत हैं नज़्मी साहब की इस किताब से चुने हुए चंद अश'आर :-        

चश्मदीद एक भी गवाह नहीं
जुर्म छुप जाएगा गुनाह नहीं
*
आग तो लग गई इस घर में बचा ही क्या है 
बच गया मैं तो वो कह देगा जला ही क्या है
*
इतनी सूरज से दोस्ती न करो 
छोड़ जाएगा ये अँँधेरे में
*
इतना अच्छा न कहो उसको के फँस जाए ज़ुबाँ 
जब बुराई नज़र आए तो बुरा कह न सको
*
हमेशा घर ही में रहने से दम-सा घुटता है 
तुम्हारी बात भी सच है मगर किधर जाएँँ
*
 इसीलिए तो बनाया है घर किताबों में 
 के बार-बार तुम्हारी नज़र से गुजरूँगा
*
लगता नहीं है पढ़ने में, लगने लगेगा दिल 
ऐसा करो रहीम के दोहे पढ़ा करो
*
नहीं है कोई मुरव्वत नहीं है पानी में 
जो हाथ-पाँँव न मारेगा डूब जाएगा
*
आँँख सूरज की बंद होते ही 
चाँँद ने आसमाँँ खरीद लिया
*
मुश्किल था खेल दिन के उजाले में खेलना 
सूरज छुपा तो आई नज़र रौशनी मुझे
*

34 comments:

Ashish Anchinhar said...

पानी की तरफ़ पानी का रुख़ होता है 'नज़्मी'
सूखी हुई नदियों को समंदर नहीं मिलता

इसी का नाम अनुभव है जो हर गजलकार के पास नहीं होता है

नरेश शांडिल्य said...

यह किताब मैं भी पुस्तक मेले से लाया था नीरज जी। बहुत ही उम्दा अश'आर हैं नज़्मी साहब के। नज़्मी साहब का यह शे'र तो मुझे बेहद पसंद है -

पानी की तरफ़ पानी का रुख़ होता है नज़्मी
सूखी हुई नदियों को समंदर नहीं मिलता

आपने बहुत ही रोचक शैली में बहुत ही सार्थक समीक्षा की है। हार्दिक बधाई नीरज जी 🍁🍂💝👍

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर समीक्षा और जानकारी भी।

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया भाई

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद नरेश जी

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद भाई

kamalbhai said...

वो ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता
तो ये किया कि मुझे वक्त पर दवाएँँ न दींं
इस शेर पर फ़िदा हो कर इनके कलाम ढूंढे थे, एमजीआर कम हो मील। आपके तबसरे में सारे चुनिंदा मोती मौज़ूद हैं। शुक्रिया 💐💐

नीरज गोस्वामी said...

बहुत अच्छा लगा जनाब अख़्तर 'नज़्मी' की शख़्सियत और शाइरी के बारे में आप का ब्लॉग पढ़ कर। मेरा ख़याल है कि इन के बारे में पहले भी किसी रिसाले में कोई मक़ाला मैं पढ़ चुका हूँ हालांकि अर्सा-ए-दराज़ हो जाने से याद नहीं आ रहा कि किस का लिखा हुआ था और कब पढ़ा।
जदीद शाइरी में अच्छे अश्आर क़ाबिल शु'अरा ही कह पाते हैं और 'नज़्मी' साहब में यह ख़ूबी नज़र आती है। किताब देवनागरी में शाया हुई है तो नाशिर का नाम-पता भी दीजिएगा ताकि मँगवाई जा सके।
बहुत अच्छा लिखा है आप ने। ईश्वर आप का स्वास्थ्य अच्छा रखे और आप को दीर्घायु बनाये ताकि उर्दू की देवनागरी में छ्प रही किताबों को जो एक अच्छा पाठक वर्ग दिलवाने का बेहतरीन काम आप कर रहे हैं वह ख़ुसूसी ख़िदमते-अदब ज़ारी रहे।.

अनिल अनवर
अदबनवाज़ एवं शायर
जोधपुर

नीरज गोस्वामी said...

जब चलो उसके रास्ते पे चलो
क्या इसी को निबाह कहते हैं
----'
वाह, सोच और शब्दों की उम्दा दस्तकारी

नवीन नाग
बैंगलोर

नीरज गोस्वामी said...

डॉक्टर Akhtar Nazmi साहिब बहुत ही उम्दा और ख़ूबसूरत कहने वालों शायरों में से थे

उनके बहुत से शे'र पढ़ने को मिल जाते हैं

बहुत बहुत शुक्रिया
जनाब नीरज गोस्वामी साहिब

आप इतनी बड़ी और अच्छी जनकारी देते रहते हो

🌹🌹🌹🌹🌹🌹

विजय वाजिद
लुधियाना

mgtapish said...

क्या किया है निबाहने के सिवा
जब से इस ज़िन्दगी से रिश्ता है

आँँख सूरज की बंद होते ही
चाँँद ने आसमाँँ खरीद लिया
ख़ूबसूरत अशआर समोए दिल फरेब अंदाज़ ए बयां वाह वाह नीरज जी बहुत ख़ूब
मोनी गोपाल 'तपिश'

नीरज गोस्वामी said...

शायर और उसकी शायरी को प्रस्तुत करने का आपका अंदाज निराला है।आप कम शब्दों में शायर के जीवनवृत्त को सलीके से,बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते हैं,जैसे कोई सुंदर फूलों को गूंथ कर कोई पुष्पहार बना दे ।
आप उनके प्रमुख अशआर को पेश कर पाठक में एक गहन उत्सुकता जगा देते हैं।
प्रकाश पंडित ने जो उर्दू साहित्य की सेवा की,आप उस सिलसिले को बहुत शानदार तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं।
।मुझे उर्दू शायरी का चस्का प्रकाश पंडित जी द्वारा संपादित उर्दू के शायर या उनकी शायरी पढ़कर ही लगा।
आपकी साहित्यिक विलक्षणता को प्रणाम करता हूँ।

हनुमान सहाय
जयपुर

तिलक राज कपूर said...

मुझको हर बात बताते क्यूँ हो

मैं ग़लत लोगों में घिर जाता हूं
तुम मुझे छोड़ के जाते क्यूँँ हो

फिर मेरा दिन नहीं काटे कटता
तुम ज़रा देर को आते क्यूँँ हो

वादी-ए-गुल से गुज़रते जाओ
हाथ फूलों को लगाते क्यूँँ हो

बहुत ही सरलता और खूबसूरती से बात कैसे कही जाती है इसका उदाहरण है जनाब का हर शेर।

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया तिलक जी

Dinesh Thakur said...

क़रीब 13-14 साल पहले एक दोस्त ने जनाब अख़्तर नज़्मी साहब की यह किताब दी थी। तब हैरानी हुई थी कि इतने आलातरीन शाइर तक हमारी रसाई में इतनी देर कैसे हुई। नज़्मी साहब की ग़ज़लों की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि इनमें 'मिजाज़ी' और 'हक़ीक़ी' रंग एक साथ घुले हुए हैं। 'सवा नेज़े पे सूरज' उनकी रचनाशीलता का सोपान है। उनकी ग़ज़लों में रिश्तों के समीकरण, महानगरों की माया और समकालीन समाज की दशा को रेशा-रेशा महसूस किया जा सकता है। आपने तफ़सील से उनकी किताब पर बहुत ख़ूब लिखा है नीरज जी। आपकी तहरीर में ज़िंदादिली और संजीदगी एक ही घाट पर पानी पीते हैं। इस हुनर की जितनी तारीफ़ की जाए, कम होगी। मालिक आपके इस हुनर को रहती दुनिया तक बरक़रार रखे। शुक्रिया, बधाई, शुभ कामनाएँ।

Unknown said...

वो ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता
तो ये किया कि मुझे वक्त पर दवाएँँ न दींं

न सोचा था वो कर गुज़रेगा ये भी
मुझे अपना बना कर छोड़ देगा

जब चलो उसके रास्ते पे चलो
क्या इसी को निबाह कहते हैं

उफ्फ !
ये अशआर आप ही के चयनितों में से समेटे हमने. हमारा कुछ नहीं, नीरज भाई. ज़िंदग़ी की चुहचुहाती उमस में विच्छिन्न हुई मनोदशाओं की आह हैं ये अशआर.
अख़्तर साहब की मज़बूरन ही सही मय परिवार लगातार हुए स्थानांतरों को आपने जिस शिद्दत से उकेरा है, वह हमारी-आपकी ज़ाती अनुभूतियों का परावर्तन ही तो है.
पैरों पर पेट की लगाम सिर चढ़ कर खिंचती है.

आजकी समीक्षा, जानता हूँ, क्यों भावुक कर गयी. मगर क्या कहना..

पानी की तरफ़ पानी का रुख़ होता है 'नज़्मी'
सूखी हुई नदियों को समंदर नहीं मिलता

शुभ-शुभ
सौरभ

Unknown said...

स्थानांतरणों*

टाइपो को सुधार कर पढ़ने का निवेदन है.

सौरभ

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया दिनेश भाई

नीरज गोस्वामी said...

कई बार टिप्पणीयां मुख्य पोस्ट पर भारी पड़ती हैं... आपने आज वही करिश्मा किया है...धन्यवाद भाई...लेखन सफल हुआ

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया बड़े भाई

Onkar said...

बेहतरीन प्रस्तुति

Unknown said...

आपकीी जय-जय ..
🙏

Amit Thapa said...

अब तो शायद एक आदत सी बन गयी है हर सोमवार को नीरज जी के ब्लॉग को देखना की आज हमारे हाथ कौन सा  रत्न लगने वाला है।"सुनो बोरिया बिस्तर बांधना पड़ेगा, ये घर छोड़ कर अब ग्वालियर जाना है ।"ये पढ़ते ही मुझे अपनी और अपने जैसे ना जाने कितनों का दर्द याद आ गया की हम सब भी रोजी रोटी के लिये अपने जन्मस्थान से भटकते हुए बस २ रोटी के लिये अपने कर्मस्थान को ख़ोजते फ़िर रहें हैं। ऐसे ही दुष्यंत जी का शेर याद आ गया 

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये


दुष्यंत जी को पसंद करने का मेरा कारण सिर्फ इतना हैं की उन्होंने अपनी ग़जलों में वो ही सब लिखा जो उन्होंने अपने आसपास देखा, समझा और उसे ही अपने शब्दों में गढ़ा और ये ही काम डॉ. 'अख़्तर नज़्मी' ने किया है जो उनके अश’आर पढ़ते हुए पता लगता है, जिनका तआ'रुफ़ नीरज जी ने किताबों की दुनिया में कराया है। 

हर एक काम सलीक़े से बांट रक्खा है 
ये लोग आग लगाएँँगे, ये हवा देंगे


राजनैतिक लोगों को शायद नज़्मी साहब ने बहुत अच्छे से जाना होगा और ऐसे मंज़र तो मैंने अपनी छोटी सी उम्र में ना जाने कितने देख लिये थे। 
ऐसे ही बशीर बद्र जी एक शेर याद आ गया 

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में 
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में


जब आप अपने आस पास की चीज़ो को, लोगों और समाज को और उसमे घटित होने वाली  घटनाओं को बहुत गौर से देखते है और समझते हैं तो ही ऐसे शेर कहे जाते है  

वो ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता
तो ये किया कि मुझे वक्त पर दवाएँँ न दींं
दिल का दर्द बाहर आ गया कैसे लोग अपने होकर भी अपने नहीं है

उसमें चूल्हे तो कई जलते हैं
एक घर होने से क्या होता है
आह्ह, सयुंक्त परिवार के टूटने का दर्द   

कम शब्दों में बड़ी बात कहते हुए ये अश’आर एक से बढ़ कर

एक उलझनेंं और बढ़ाते क्यूँ हो
मुझको हर बात बताते क्यूँ हो

मैं ग़लत लोगों में घिर जाता हूं
तुम मुझे छोड़ के जाते क्यूँँ हो

फिर मेरा दिन नहीं काटे कटता
तुम ज़रा देर को आते क्यूँँ हो

वादी-ए-गुल से गुज़रते जाओ
हाथ फूलों को लगाते क्यूँँ हो


क्या बेहतरीन शेर है कैसे हमे समझा जाता हैं की सिर्फ मीठा बोलने वाला इंसान किसी का नहीं होता 
कुछ लोगों को इसका भी तजुर्बा नहीं अब तक 
जो सबका है वह शख़्स किसी का नहीं होता 

कर्म पथ पे आगे बढ़ने की प्रेरणा देता ये शेर एक पुरानी कहावत याद दिला देता है की बिना मरे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती है 
पानी की तरफ़ पानी का रुख़ होता है 'नज़्मी'
सूखी हुई नदियों को समंदर नहीं मिलता

अब नीरज जी के ब्लॉग को पढ़ते हुए दिक्कत ये है की तारीफ़ किस की जाये, नीरज जी के लेखन की या जिस शायर को वो खोज कर लाये  हैं उसके अश’आर की 
अब संतुलन बनाते हुए एक बार फ़िर नीरज जी का तहेदिल शुक्रिया और जन्नतनशीं नज़्मी साहब के लिए दुआ करते हुए इस टिप्पणी  का अंत करता हूँ 

मन की वीणा said...

वाह अद्भुत जानकारी! अख़्तर नज़्मी साहब और उनकेलेखन पर शानदार फीचर्स।

Himkar Shyam said...

जितनी बेहतरीन शाइरी है उतनी ही बढिया समीक्षा।
बहुत शुक्रिया किताब की जानकारी देने के लिए।

Swarajya karun said...

बेहतरीन समीक्षा ।

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

आँख सूरज की बंद होते ही
चांद ने आसमां ख़रीद लिया

जब चलो उसके रास्ते पे चलो
क्या इसी को निबाह कहते हैं

ऐसे ही कितने ही और भी बहुत से अशआर हमेशा के लिए साथ राह जाएँगे । डॉ अख़्तर नज़्मी साहब की यह किताब तो ढूँढ कर पढ़नी पड़ेगी। किताब तो बेशक बहुत नायाब है यह लेकिन आपका प्रस्तुतिकरण भी बेहतरीन है इतने प्यार से सलीके से किताब को प्रस्तुत करने का यह जादुई नुस्ख़ा जो आपके पास है मन मोह लेता है।

नीरज भाई साहिब आपके द्वारा की गई लगभग सभी किताबों की समीक्षाएं एक से बढ़ कर एक हैं। आपको हार्दिक बधाई

'ख़याल' said...

अख़्तर नज़्मी साहब के कलाम से तआरुफ़ कराने का बहुत शुक्रिया, नीरज जी।

नीरज गोस्वामी said...

अमित आपका जवाब नहीं... आपकी टिप्पणी बेमिसाल है...

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद हिमकर भाई

नीरज गोस्वामी said...

शूक्रिया

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया द्विज भाई

Rashmi sharma said...

Aap Ka shukriya Karne ke liye shabad nahiN
Aaj Ka din shayad aisi hi shayri SE guzrne ke liye Tay tha Jo aap ne mukammal Kar Diya

Faaiz Nazmi said...

Bahut achchhaa likha hai aapne Neeraj Bhai. Jitni tareef kee jaye kam hai. Nazmi Sahab ka beta hone ke naate main mahsoos kar sakta hoon aapki tahreer ko. Bahut Shukriya.
Faaiz Nazmi, Bhopal
faaiznazmi@gmail.com
9425678105