Monday, June 27, 2011

मैं भूल जाऊं खुला आसमान, पिंजरे में

मैं जब चाहूंगी पिंजरा ले उडूँगी
परों को आज़माना आ गया है

तालियों की गड़गड़ाहटों के बीच जोश में सुनाया गया हिन्दुस्तान की मशहूर शायरा "लता हया" का ये शेर हमेशा मुशायरे में बैठी महिलाओं में उम्मीद की किरण जगाता आया है. कुछ वक्त के लिए ही सही महिलाओं को लगता है के उनके जीवन में भी स्वतंत्रता आएगी. बस कुछ वक्त के लिए ही क्यूँ के उसके बाद समाज ये शेर उनके ज़ेहन से निकाल देता है. भले ही आज देश के उच्च पदों पर महिलाएं बिराजमान हैं लेकिन आम महिला की स्तिथि आज भी वैसी की वैसी ही है जैसी सदियों पहले थी. शातिर पुरुष प्रधान समाज साल में सिर्फ एक दिन उनके नाम, याने महिला दिवस, मना कर उन्हें खुश कर देता है और बाकी के तीन सौ चौंसठ दिन अपने नाम रखता है.


श्री अखिलेश तिवारी जी

आज मैं, महिलाओं की वास्तविक स्थिति को दर्शाती श्री अखिलेश तिवारी जी की ग़ज़ल आपके सामने रख रहा हूँ. अखिलेश तिवारी जिनका जिक्र मैंने अपने जयपुर प्रवास के दौरान शिरकत की गयी काव्य संध्या वाली पोस्ट "सो चकनाचूर होता जा रहा हूँ" में किया था, भारतीय रिजर्व बैंक की जयपुर शाखा में कार्यरत हैं. अखिलेश जी जितने अच्छे इंसान हैं उतने ही बेहतरीन शायर हैं. अक्सर छोटी बहर में हैरत अंगेज़ शेर कहते हैं.उनकी शायरी की पहली किताब शीघ्र ही छप कर आने वाली है जिसका जिक्र हमारी किताबों की दुनिया श्रृंखला में भी किया जायेगा.

ग़ज़ल के शेर बहु आयामी होते हैं आप इन्हें किसी दूसरे परिपेक्ष्य में भी पढ़ कर आनंद उठा सकते हैं.



मुलाहिज़ा हो मेरी भी उड़ान, पिंजरे में
अता हुए हैं मुझे दो जहान, पिंजरे में

है सैरगाह भी और इसमें आबोदाना भी
रखा गया है मेरा कितना ध्यान पिंजरे में

यहीं हलाक़ हुआ है परिंदा ख्वाइश का
तभी तो हैं ये लहू के निशान, पिंजरे में

फ़लक पे जब भी परिंदों की सफ़ नज़र आई
हुई हैं कितनी ही यादें जवान, पिंजरे में

तरह तरह के सबक़ इसलिए रटाये गए
मैं भूल जाऊं खुला आसमान, पिंजरे में


(इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए अखिलेश जी को उनके मोबाइल न.09460434278 पर बधाई देना न भूलें.)

Monday, June 20, 2011

किताबों की दुनिया - 54

वो तो टुल्लू की मदद से अपनी छत धोते रहे
और हमारी प्यास को पानी के लाले पड़ गए

जब हमारे क़हक़हों की गूंज सुनते होंगे ग़म
सोचते होंगे कि हम भी किसके पाले पड़ गए

हम इसे इत्तिफ़ाक ही कहेंगे, एक हसीन इत्तिफ़ाक क्यूंकि हमारी आज किताबों की दुनिया श्रृंखला के शायर का नाम वही है जो पिछली बार वाले शायर का था.जी हाँ सही पहचाना श्री "ओम प्रकाश" जी. लेकिन इनके सिर्फ नाम ही एक है वर्ना दोनों में अन्तर है और अंतर न सिर्फ उनके तख्खलुस में है बल्कि उनकी शायरी में भी है.


जो असर टी.वी. का बच्चों पर हुआ, होना ही था
कार्बाइड वक़्त से पहले पका देता है फल

पेड़ के किरदार पर जिस वक़्त आता है शबाब
कोई तोड़े या न तोड़े ख़ुद गिरा देता है फल

ज़िन्दगी की रोजमर्रा वाली साधारण बातों को अपनी शायरी में असाधारण ढंग से ढालने वाले इस बाकमाल शायर ओम प्रकाश 'नदीम'की किताब "दिया खामोश है" का आज हम जिक्र करेंगे. हिंदी और उर्दू लिपि में एक साथ छपी लगभग नब्बे ग़ज़लों को समेटे उनका ये ग़ज़ल संग्रह जिसे 'मशअल-ऐ-राह (फोरम) मिर्देगान,बिजनौर द्वारा प्रकाशित किया गया है, सचमुच में अद्भुत है.


मर्तबा हो, इल्म हो या तजरुबा हो कुछ तो हो
कुछ न हो तो बात करने की कला हो कुछ तो हो

इस तरह बेसूद रिश्तों से भला क्या फायदा
या तो कुछ कुर्बत बढे या फासला हो कुछ तो हो
कुर्बत:नजदीकी

और कितना वक्त मुल्ज़िम की तरह काटें 'नदीम'
या तो बाइज्ज़त बरी हों या सज़ा हो कुछ तो हो

ओम जी की सबसे बड़ी खूबी है नए नए काफियों का चयन. ऐसे काफिये वो अपने ग़ज़लों में पिरोते हैं जो अन्यंत्र आसानी से दिखाई नहीं देते.इन काफियों को वो जिस अंदाज़ से निभाते हैं वो भी विलक्षण है. इस से साफ़ ज़ाहिर होता है के वो प्रयोग धर्मी है और बंधी बंधाई लीक पर चलने में विश्वाश नहीं करते. वो खुद भी अपने लिए नयी राहें तलाशते हैं और अपने पाठकों को भी नयी राहें तलाशने को प्रेरित करते हैं. इस प्रयोग धर्मिता की वजह से उनकी शायरी हमेशा ताज़े हवा के झोंके जैसा अहसास करवाती है.

आँधियों में भी न चूके जुल्म से लम्बे दरख़्त
जब गिरे तो दूसरों को ले मरे लम्बे दरख़्त

डूबने वाले का बन जाता है तिनका आसरा
देखते रहते हैं साहिल पर खड़े लम्बे दरख़्त

धूप उन मासूम सब्जों की ये खाते हैं 'नदीम'
जिन में पल बढ़कर हुए इतने बड़े लम्बे दरख़्त

फतहपुर,उत्तरप्रदेश में 26नवम्बर1956 को ओम जी का जन्म हुआ. इन दिनों आप रूडकी में रहते हैं.उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह "सामना सूरज से है" अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है. इस किताब की भूमिका में ओम जी ने कहा है " मेरे विचार से ग़ज़ल, साहित्यिक अभिव्यक्ति की श्रेष्ठतम विधा है. लेकिन मैं न तो अपनी ये राय किसी पर थोपना चाहता हूँ और न ही किसी और की राय को अपनी इस राय पर हावी होने देना चाहता हूँ क्यूंकि अपनी अपनी मंजिल अपना अपना रास्ता है." उनकी शायरी पढ़ते हुए हमें उनकी राय से इत्तेफ़ाक होने लगता है.

सर जोड़ के बैठो कोई तदबीर निकालो
हर बात पे ये मत कहो शमशीर निकालो

देखूं जरा कैसा था मैं बेलौस था जब तक
बचपन की मेरे कोई सी तस्वीर निकालो

दुनिया मुझे हैवान समझने लगी अब तो
गर्दन से मेरी धर्म की ज़ंजीर निकालो

नदीम साहब की शायरी का खमीर सांप्रदायिक सौहार्द, दर्द मंदी, मनोविज्ञान,सर्वधर्म समभाव,भावुकता, संवेदना और दार्शनिकता जैसे तत्वों से तैयार हुआ है. उनकी शायरी में जहाँ जुल्म और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध लड़ने के लिए मशवरे मिलते हैं वहीँ बदले हुए हालात से जन्म लेने वाली मंज़र निगारियाँ जहाँ तहां दिखाई देती है.

किसी चराग का आंधी के सामने जलना
इसी को कहते हैं हक़ बात के लिए लड़ना

जो ठेकेदार हैं मज़हब के उनसे क्या कहना
हवा से आग बुझाने की बात क्या करना

बिछे हुए हैं बबूलों की छाँव में कांटे
कि इनकी छाँव से बेहतर है धूप में चलना

अगर न बन सको इंसां खुदा ही बन जाओ
कि मेरे देश में आसान है खुदा बनना

चूँकि इस किताब को बिजनौर की एक फोरम ने प्रकाशित किया है इसलिए इसका सहज ढंग से बाज़ार में मिलना टेढ़ी खीर है. इसे प्राप्त करने के लिए आपको ओम जी से निम्न में से किसी एक माध्यम से संपर्क करना पड़ेगा. आप किस माध्यम को प्राथमिकता देते हैं ये निर्णय मैं आप पर छोड़ता हूँ. उनका इ मेल एड्रेस है : omprakashnadeem@gmail.com तथा मोबाईल और फोन नंबर :+91-9368169593 / 9456460659.
आखरी में प्रस्तुत हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर जो उनके अपने बारे में हैं. वो जैसे हैं उन्हें वैसे ही अपनाना होगा लेकिन एक बात मैं बता दूं अगर आपने एक बार उनसे बात कर ली तो फिर आपका दिल बार बार उनसे बात करने को चाहेगा क्यूँ के आज के युग में इतने अच्छे और सच्चे इन्सान किस्मत से ही मिला करते हैं:

हर किसी की हाँ में हाँ करता नहीं हूँ
इसलिए मैं आदमी अच्छा नहीं हूँ

लोग मुझसे इसलिए कटने लगे हैं
तयशुदा रस्‍तों पे मैं चलता नहीं हूँ

मेरे भड़काने से कोई क्यूँ लडेगा
मैं किसी के धर्म का फ़तवा नहीं हूँ

मुझमें उतरो प्यार के मोती चुरा लो
मैं समंदर हूँ मगर गहरा नहीं हूँ

ओम जी आपको अपने में उतरने का आव्हान कर रहे हैं तो फिर देर किस बात की सोच क्या रहे हैं फोन उठाइए और ओम जी को उनके लाजवाब कलाम पर दाद दीजिये, तब तक हम निकलते हैं एक और शायर की तलाश में.

Monday, June 13, 2011

कैद में मजबूर तोता बोलता है

देर अबेर से हो ये अलग बात है लेकिन बदलाव ही जीवन है. इसीलिए अपने ब्लॉग का रंग -रूप बदलने का विचार आया. आज जिस रूप में आप इस ब्लॉग को देख रहे हैं इसके पीछे "पी.सी.लैब" सीहोर के होनहार युवा छात्र "सोनू" की अथक मेहनत है. गुरुदेव पंकज सुबीर जी के सानिध्य में उनके गुण निखर कर सामने आये हैं. एक छात्र में सीखने की ललक और बड़ों के प्रति आदर का जो भाव होना चाहिए वो उनमें कूट कूट कर भरा है. इश्वर उन्हें हमेशा खुश रहे.

बदले रंग रूप वाले अपने इस ब्लॉग का श्रीगणेश गुरुदेव पंकज जी
के दिशा निर्देश में कही एक नयी ग़ज़ल के साथ कर रहा हूँ.





जब शुरू में रफ्ता रफ्ता बोलता है
मुंह से बच्चे के फ़रिश्ता बोलता है

जो भी सिखला दे उसे मालिक, वही सब
कैद में मजबूर तोता बोलता है

सैर को जब आप जाते हैं चमन में
तब सुना है पत्ता पत्ता बोलता है

हूं भले मैं पुरख़तर पर पुरसुकूं हूं
बात ये नेकी का रस्ता बोलता है
पुरख़तर : खतरों भरा

आंकड़ों से लाख हमको बरगलाएं
पर हकीकत हाल खस्ता बोलता है

भूल मत जाना कभी माज़ी की भूलें
वक्त ये सबका गुजिश्ता बोलता है
माज़ी: भूत काल , गुज़िश्ता : गुज़रा हुआ

आइना बन कर दिखाएँ आप ‘नीरज’
सच जो होकर भी शिकश्ता, बोलता है
शिकश्ता : टूटा हुआ


Monday, June 6, 2011

ख़ुशी में दूसरों की झूम कर जो गीत गाते हैं

आज अपनी एक पुरानी ग़ज़ल को झाड पौंछ कर फिर से आपके लिये पेश कर रहा हूँ. आप में से अधिकांश ने शायद इसे न पढ़ा हो अगर पढ़ा भी है तो भी इसमें नए पन का छौंक लगा हुआ पाएंगे.





कहाँ मरजी से अपनी ही कहानी हम बनाते हैं
पहाड़ी से गिरे पत्थर सरीखे, लुढ़के जाते हैं

मिटेंगे फासले सारे अगर दो साथ मेरा तुम
बढ़ाओ तुम कदम इक, और हम भी इक बढाते हैं

बहुत गाये हैं हमने गीत जिनके वास्ते यारों
खफ़ा होते हैं, जब हम खुद की खातिर गुनगुनाते हैं

कहाँ बसते है ऐसे लोग ये हम को बताना तुम
ख़ुशी में दूसरों की झूम कर जो गीत गाते हैं

जिसे कहते हो तुम जन्नत हमें हासिल वो होती है
किसी रोते हुए बच्चे को जब हम गुदगुदाते हैं

कवायद मत करो यारों किसी को भी बदलने की
सुखी रहने को आओ, खुद में ही बदलाव लाते हैं

करीबी दोस्त 'नीरज' देखते हैं घाव जब मेरे
मिला मरहम नमक में प्यार से, सारे लगाते हैं