Monday, March 28, 2011
क्या अजब, ये अश्क का दस्तूर है
Monday, March 21, 2011
किताबों की दुनिया - 48
करें जब पाँव खुद नर्तन, समझ लेना के होली है
हिलोरें ले रहा हो मन ,समझ लेना के होली है
अगर महसूस हो तुमको कभी, जब सांस लो "नीरज "
हवाओं में घुला चन्दन, समझ लेना के होली है
आज की पोस्ट होली पर नहीं है. किताबों की दुनिया पर है. बात शुरू करने से पहले चलिए आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ. अरे मुंह मत बिचकाइये, मानता हूँ के आप जीवन में पूछे जाने वाले प्रश्नों में पहले से ही उलझे हुए हैं उसपर अब किताबों की दुनिया जैसी पोस्ट में भी पूछा गया प्रश्न आपका मूड ख़राब कर सकता है, लेकिन इस प्रश्न का सम्बन्ध इस किताब के शायर से है तो आप पूछने दो न ,जवाब अगर आपको पता है तो क्या कहने और अगर नहीं पता तो हम अभी बता ही देंगे. प्रश्न है "आप भारत के उस एक मात्र शायर का नाम बताएं जिसकी पच्चीस, जी हाँ पच्चीस, ग़ज़लें देश के दो अलग अलग विश्व विद्यालयों के स्नातकोत्तर (हिंदी) पाठ्य क्रम में निर्धारित हुईं याने पढाई जाती हैं ? " देख रहा हूँ के बहुत कम लोग हैं जो इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए अपना हाथ खड़ा किये हैं बाकी अधिकांश मेरी तरह बगलें झाँक रहे हैं. बात को रबड़ की तरह लम्बा न खींचते हुए आपको बता दूं के आज किताबों की दुनिया श्रृंखला में हम शायर ज़हीर कुरैशी साहब की किताब " पेड़ तन कर भी नहीं टूटा " का जिक्र करेंगे.
आग में जल गया रस्सियों का बदन
फिर भी बल रस्सियों में बचा रह गया
वो जो पूरी तरह पारदर्शी लगा
कुछ तो उसके भी मन में छुपा रह गया
पंख मिलते ही पंछी उड़े पेड़ से
पेड़ अपनी जगह पर खड़ा रह गया
पिछले पैंतीस सालों के दौरान कही गयी ऐसी एक नहीं बल्कि अपनी सरल विचारवान और प्रयोग धर्मी लगभग आठ सौ ग़ज़लों से जहीर साहब देश के सर्वोपरि गज़लकार के रूप में आसानी से चिन्हित किये जा सकते हैं. हिंदी के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में उनकी ग़ज़लों का शामिल होना इसका पुख्ता प्रमाण है. ये ऐसा कारनामा है जो हिंदी ग़ज़लों के इतिहास में पहली बार हुआ है.
जो लोग थे जटिल वो गए हैं जटिल के पास
मिल ही गए सरल को हमेशा सरल अनेक
बिखरे तो मिल न पाएगी सत्ता की सुंदरी
सयुंक्त रह के करते रहे राज 'दल' अनेक
लाखों में कोई एक ही चमका है सूर्य सा
कहने को, कहने वाले मिलेंगे ग़ज़ल अनेक
"पेड़ तन कर भी नहीं टूटा " किताब जिसे अयन प्रकाशन , महरौली, दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है में ज़हीर कुरैशी साहब की चुनिन्दा एक सौ एक ग़ज़लें शामिल की गयी हैं. इस किताब से पहले ज़हीर साहब की ग़ज़लों की पांच किताबें "लेखनी के स्वप्न", "एक टुकड़ा धूप" ,"चांदनी का दुःख", "समंदर ब्याहने आया नहीं" और "भीड़ में सबसे अलग" प्रकाशित हो चुकी हैं.ज़हीर साहब की सभी ग़ज़लें उनकी सोच की नुमाइंदगी बहुत ख़ूबसूरती से करती हैं. एक बेहतरीन इंसान जो अपने आसपास हो रही घटनाओं से जुड़ा हुआ है लोगों की ख़ुशी और गम में अपने को शामिल करता है, ही एक बेहतरीन शायर हो सकता है. पैंतीस वर्षों के निरंतर सृजन काल के बावजूद ज़हीर साहब कहते हैं : मुझे लगता है कि अभी बहुत कुछ कहा जाना शेष है. मेरे अपने लिए, ग़ज़ल के फार्म में काव्य जीवन का सर्वश्रेष्ठ कहा जाना बाकी है अभी .
मानों घर भर भूल बैठा था ठहाकों का हुनर
खिलखिलाने की वजह बच्चे की किलकारी बनी
आप जैसी ही तरक्की मैं भी कर लेता, मगर
मेरे रस्ते की रूकावट मेरी खुद्दारी बनी
वो नज़र अंदाज़ कर देती है औलादों का जुर्म
बाँध कर पट्टी निगाहों पर जो गांधारी बनी
इस किताब में दिए एक इंटरव्यू में ज़हीर साहब अपने बारे में कहते हैं " एक संवेदनशील कवि के सामने तरह तरह की भीड़ होती है - लाभ की, लोभ की, कामना की, रिश्तों की, आलोचना की, प्रतिरोध की. इन तमाम स्तिथियों से लाभ, भीड़ में संतृप्त होकर ही प्राप्त किये जा सकते हैं. चूंकि मैं भीड़ में रहते हुए भी भीड़ को तटस्थ भाव से देखने की कोशिश करता रहा हूँ , इसलिए मेरे हिस्से में तो हानियाँ ही हानियाँ आती रही हैं."
ख़ुशी मुख पर प्रवासी दिख रही है
हंसी में भी उदासी दिख रही है
हमारे घर में घुस आई कहाँ से
कुटिलता तो सियासी दिख रही है
उसे खाते हैं खुश हो कर करोंड़ों
जो रोटी तुमको बासी दिख रही है
इसी किताब के अंत में हिंदी ग़ज़ल के प्रबल समर्थक ज़हीर साहब कहते हैं: "हिंदी ग़ज़ल आज की याने विचार युग की ग़ज़ल है. वो कोठों पर गई जाने वाली संगीत उन्मुख ग़ज़ल नहीं बल्कि खेतों, दफ्तरों, कारखानों में काम करते रफ-टफ लोगों की भावनाओं की निर्मल अभिव्यक्ति है. इसलिए रदीफ़, काफिया, अरूज़ का पालन करते हुए भी हिंदी ग़ज़ल अपने बर्ताव, अपनी भाव भंगिमा के आधार पर उर्दू ग़ज़ल से एकदम भिन्न नज़र आती है."
हिम पिघलते ही अभिमान का
सूर्य निकला समाधान का
आदमी में ही मौजूद है
मत पता पूछ शैतान का
काले पैसे को करना है श्वेत
अब यही सोच है 'दान' का
स्वागतम शब्द से भी अधिक
मूल्य होता है मुस्कान का
अगर आप दिल्ली शहर के बाशिंदे नहीं हैं तो इस किताब की प्राप्ति का सबसे आसान तरीका है कि आप "अयन प्रकाशन" के श्री भोपल सूद से उनके मोबाईल नंबर 09818988613 पर बात करें और उनसे इस किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछ लें. मृदु भाषी भोपल साहब से बात करके आपको किताब प्राप्ति का रास्ता तो मिल ही जाएगा साथ ही आनंद भी प्राप्त होगा, यकीन न हो तो आजमा के देखें. किताब पढने के बाद आप और कुछ करें न करें लेकिन ग्वालिअर निवासी ज़हीर साहब को उनके मोबाइल 09425790565 पर बात करके इस किताब के लिए बधाई जरूर दें.
उसके तुरंत बाद ही बदली है ज़िन्दगी
जीवन में चंद फैसले इतने अहम् रहे
अनुयायियों ने धर्म की सूरत बिगाड़ दी
हिंसा में सबसे आगे अहिंसक धरम रहे
वो अपने बल पे दौड़ को जीते नहीं कभी
जो लोग, जोड़ तोड़ में सबसे प्रथम रहे
आशा है आपको ज़हीर कुरैशी साहब के कलाम की बानगी पसंद आई होगी. ज़हीर साहब के लेखन को पूरी तरह से देखने जानने समझने के लिए हमें उनका समग्र कहा पढना पड़ेगा तब तक इस पोस्ट में दिए शेर पढ़ कर आप उनके हुनर का अंदाज़ा तो आसानी से लगा ही पाए होंगे. अब हम ऐसे ही एक और विलक्षण शायर की किताब ढूँढने निकलते हैं तब तक आप उनके ये शेर और पढ़ लें :
मंदिर या मस्जिदों की तरफ मन नहीं किया
तर्कों ने आस्था का समर्थन नहीं किया
जो दोस्त भी बनाये, रखे उनसे फासले
यारों को अपनी आँख का अंजन नहीं किया
अपने लिए भी जीने के अवसर किये तलाश
परिवार के ही नाम ये जीवन नहीं किया
Monday, March 14, 2011
होली में यही धूमें लगतीं हैं बहुत भलियाँ
है सब में मची होली अब तुम भी ये चर्चा लो
रखवाओ अबीरे ऐ जां ! और मय को भी मंगवा लो
हम हाथ में लोटा लें तुम हाथ में लुटिया लो
हम तुम को भिगो डालें तुम हमको भिगो डालो
होली में यही धूमें लगतीं हैं बहुत भलियाँ
है तर्ज़ जो होली की उस तर्ज़ हंसो -बोलो
ये छेड़ ही इशरत की अब तुम भी वही छेड़ो
हम डालें गुलाल ऐ जां ! तुम रंग इधर छिडको
हम बोले 'अहाहाहो ' तुम बोलो 'उहोहोहो'
होली में यही धूमें लगतीं हैं बहुत भलियाँ
इस दम तो मियां हम तुम इस ऐश की ठहरावें
फिर रंग से हाथों में पिचकारियाँ चमकावें
कपड़ों को भिगो देवें और ढंग कई लावें
भीगे हुए कपड़ों से आपस में लिपट जावें
होली में यही धूमें लगतीं हैं बहुत भलियाँ
तुम रंग इधर लाओ और हम भी उधर आवें
कर ऐश की तैय्यारी धुन होली की बर लावें
और रंग के छीटों की आपस में जो ठहरावें
जब खेल चुके होली फिर सीनों से लग जावें
होली में यही धूमें लगतीं हैं बहुत भलियाँ
Monday, March 7, 2011
किताबों की दुनिया - 47
घर से गए जो एक बार आज के बच्चे
वापिस वो ज़िन्दगी में दुबारा न घर गए
समझा के थक गए तो स्वयं मौन हो गए
कहने लगे बच्चे कि पापा सुधर गए
फुर्सत नहीं मरने की बहुत काम है बाकी
फुर्सत मिली तो ऐसी कि फुर्सत में मर गए
बोलचाल की भाषा में वज़नदार शेर कहना सजीवन साहब की खूबी है. सादा सादा लफ़्ज़ों से सजी संवरी ग़ज़लों में ज़िन्दगी के रंग भर देने की कलाकारी सजीवन मयंक को खूब आती है. आज की ग़ज़लों को विषयों का टोटा नहीं है इसीलिए मयंक जैसे पारखी शायर बंधी बंधाई लीक पर न चलते हुए नए नए विषय अपने अशआरों में पिरोते हैं.
जिस कुएं में आज डूबे जा रहे हैं हम
वो हमारे ही पसीने से बना है
ठोकरों से सरक सकता है हिमालय
जो अपाहिज हैं ये उनकी कल्पना है
खोल दो पिंजरा मगर उड़ न सकेगा
कई वर्षों से ये पंछी अनमना है
इस किताब की भूमिका में श्री मोहन वर्मा जी ने बहुत सच्ची बात मयंक जी के लिए कही है " मयंक शायरी में अरूज़, बहर, शेर मिसरा काफिया रदीफ़, मतला-ओ-मकता और खास तौर से शेर के वज्न को ख्याल रखते हुए शायरी करते हैं. शायरी में वज्न, फूल में खुशबू और जिस्म में जान की तरह होता है और इस लिहाज़ से ये शर्तिया कहा जा सकता है कि सजीवन मयंक की शायरी जानकार की शायरी है." तल्ख़ सच्ची बातों को व्यंग का जामा पहनना आसान नहीं होता, खास तौर पर शायरी में.इसीलिए देखा गया है के अक्सर शायरी में तंज़ बहुत कम देखने को मिलता है. सजीवन मयंक ने लेकिन इस विधा पर भी शेर कहे हैं और क्या खूब कहे हैं:-
गीता रामायण की बातें किसे भली अब लगती हैं
अब तो हर जुबान से सुन लो चलती क्या खंडाला है
सोच समझकर बात करो अब राहों में भिखमंगों से
वरना तुम को समझा देगा वो भी इज्ज़त वाला है
नर्मदा के किनारे बसे होशंगाबाद, मध्य प्रदेश, निवासी सजीवन जी ने एम्.एस.सी.(रसायन शास्त्र ) और हिंदी विशारद करने के बाद शिक्षण कार्य किया और आचार्य के पद से सेवा निवृत हुए. सजीवन जी पिछले पचास वर्षों से निरंतर लिख रहे हैं और उनकी अब तक चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. ग़ज़ल लेखन के लिए उन्हें सन 2006 में शिव संकल्प साहित्य परिषद् द्वारा ग़ज़ल गौरव सम्मान भी मिल चुका है. आपकी रचनाएँ भारत की लगभग सभी महत्व पूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं. पाठक सजीवन जी से प्रेम करते हैं क्यूँ की उनकी ग़ज़लों में हम सब की दास्ताँ जो छुपी होती है:
अपनों से कुछ भी कह पाना मुश्किल होता है
कोई बिगड़ी बात बनाना मुश्किल होता है
नहीं चाहता अपने दुःख को अपनों में बांटू
पर चेहरे का भाव छुपाना मुश्किल होता है
कैसे कह दूं आज मेरे घर कोई नहीं आया
तेरी खुशबू को झुठलाना मुश्किल होता है
"दिन अभी ढला नहीं" को मयंक प्रकाशन नरसिंह गली होशंगाबाद ने प्रकाशित किया है. इस किताब में मयंक जी की लगभग नब्बे ग़ज़लें संगृहीत हैं और सभी ग़ज़लें दिल को छूती हैं. आप सजीवन से उनके मोबाईल 9425043627 पर संपर्क करके अथवा उन्हें sajeevanmayank@rediffmail.com पर मेल से निवेदन करके ये अद्भुत किताब मंगवा सकते हैं.
बदली न जा सके कोई आदत नहीं होती
कमज़ोर दीवारों पर कोई छत नहीं होती
दौलत के पीछे भागते न ज़िन्दगी गुज़ार
दिल के सुकून से बड़ी दौलत नहीं होती
सब जानते हैं फिर भी कोई मानता नहीं
दो गज ज़मीन से अधिक जरूरत नहीं होती
मुझे लगता है के हमको ऐसे साहित्य आराधक की प्रशंशा में कंजूसी नहीं करनी चाहिए जो नाम और दाम के पीछे न भागते हुए सच्चे मन से साहित्य को समृद्ध कर रहा है. इसलिए आपसे उम्मीद करता हूँ के आप कमसे कम सजीवन को फोन पर इस किताब और और इसमें छपी ग़ज़लों के लिए बधाई तो देगें ही, किताब मंगवाएं न मंगवाएं ये आपकी मर्ज़ी है. चलते चलते इसी किताब की एक ग़ज़ल के चंद शेर और पढवाए देता हूँ और निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में:
यहाँ ज़िन्दगी है सरकस सी केवल खेल तमाशा है
सच पूछो तो सभी हवा में लटक रहे हैं बाबूजी
सर पर लटक रहीं तलवारें केवल कच्चे धागों से
कितनी बेफिक्री से हम सब मटक रहे हैं बाबूजी
जीने का अधिकार हमें है मरने पर है पाबन्दी
इसीलिए बहुतेरे मुर्दे भटक रहे हैं बाबूजी