Monday, October 24, 2011

किताबों की दुनिया - 62


(आप सब को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं)

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मात्र साठ सत्तर शायरी की किताबें पढ़ लेने के बाद मुझे ये गलत फ़हमी हो चली थी कि मैंने उर्दू हिंदी के बेहतरीन समकालीन शायरों को पढ़ लिया है और अब अधिक कुछ पढने को बचा नहीं है. मुझे ही क्या हम सभी ऐसी गलत फ़हमी के शिकार होते हैं. किसी एक विषय पर सतही जानकारी इकठ्ठा कर अपने आपको प्रकांड पंडित समझने लगते हैं. हजारों वर्षों से इंसान न जाने कितने विषयों पर खोज करता आया है और ये खोज आज तक पूरी नहीं हुई है. हम दरअसल वो अंधे हैं जो हाथी के किसी एक हिस्से को पकड़ कर उसे ही हाथी समझने का भ्रम पाल लेते हैं.

खैर मेरी ये ग़लतफहमी बनी रहती अगर मैंने जनाब "अकील नोमानी" साहब की किताब "रहगुज़र" नहीं पढ़ी होती. सच कहूँ तो मैंने अकील साहब के बारे में अधिक नहीं सुना था, ये तो युवा शायर "गौतम राजरिश" जी ने एक बार कहीं फेस बुक पर उनके नाम का जिक्र किया तो मैंने उन्हें खोजने की प्रक्रिया शुरू की. खोज करने से नोमानी साहब तो मिले ही साथ में उनकी बेहतरीन शायरी की किताब भी मिल गयी.

शायर तो 'अकील' बस वही है
लफ़्ज़ों में जो दिल पिरो गया है

लफ़्ज़ों में दिल पिरोने वाले इस शायर के बारे में क्या कहूँ? जब से "रहगुज़र" पढनी शुरू की है इसमें से बाहर आने को दिल ही नहीं करता.डा. मंजूर हाश्मी साहब की उनके बारे में कही ये बात कि "अकील की शायरी एक दर्दमंद और पुरखुलूस दिल की आवाज़ है" इस किताब को पढने के बाद शतप्रतिशत सही लगती है.

मेरी ग़ज़ल में हैं सहरा भी और समंदर भी
ये ऐब है कि हुनर है मुझे ख़बर ही नहीं

सहरा और समंदर का एक साथ लुत्फ़ देने वाली इस किताब की चर्चा आज हम अपनी इस श्रृंखला में करेंगे और जानेंगे कि क्यूँ राहत इन्दौरी साहब को गुज़िश्ता तीस पैंतीस बरस में किसी नए शायर ने इतना मुतास्सिर नहीं किया, जितना अकील नोमानी ने.


आंसुओं पर ही मेरे इतनी इनायत क्यूँ है
तेरा दामन तो सितारों से भी भर जाएगा

तुम जो हुशियार हो, खुशबू से मुहब्बत रखना
फूल तो फूल है, छूते ही बिखर जाएगा

हर कोई भीड़ में गुम होने को बैचैन -सा है
उडती देखेगा जिधर धूल, उधर जाएगा

भीड़ में गुम होने से हमें सुरक्षा का एहसास होता है. लेकिन में भीड़ में गुम लोगों के चेहरे नहीं होते पहचान नहीं होती और जिन्हें अपनी पहचान करवानी होती है ऐसे बिरले साहसी लोग भीड़ में शामिल नहीं होते भीड़ से अलग रहते हैं, जो जोखिम भरा काम होता है. अकील साहब सबमें शामिल हैं मगर सबसे जुदा लगते हैं. सब में शामिल हो कर सबसे जुदा लगने का हुनर बिरलों में ही होता है, और बिरले ही ऐसे शेर कह सकते हैं:

ज़िन्दगी यूँ भी है, ज़िन्दगी यूँ भी है
या मरो एकदम या मरो उम्र भर

या ज़माने को तुम लूटना सीख लो
या ज़माने के हाथों लुटो उम्र भर

उनको रस्ता बताने से क्या फायदा
नींद में चलते रहते हैं जो उम्र भर

अकील साहब इतने बेहतरीन शेर कहने के बावजूद भी निहायत सादगी से अपने आपको उर्दू शायरी का तालिबे इल्म ही मानते हैं. उनका ये शेर देखें जिसमें उन्होंने किस ख़ूबसूरती इस बात का इज़हार किया है:

मंजिले-शेरो-सुख़न, सबके मुकद्दर में कहाँ
यूँ तो हमने भी बहुत काफ़िया-पैमाई की

उन्हें इस बात का जरा सा भी गुरूर नहीं है कि वो उर्दू के बेहतरीन शायर हैं जबकि मैंने देखा है अक्सर लोग मुशायरों में महज़ तालियाँ बजवाने के लिए निहायत सतही शेर कहते हैं लेकिन अकील साहब के संजीदा कलाम लोग पिछले तीस सालों से मुशायरों में बड़े अदब के साथ सुनते आ रहे हैं.

ख़ुशी गम से अलग रहकर मुकम्मल हो नहीं सकती
मुसलसल हंसने वालों को भी आखिर रोना पड़ता है

अभी तक नींद से पूरी तरह रिश्ता नहीं टूटा
अभी आँखों को कुछ ख्वाबों की खातिर सोना पड़ता है

मैं जिन लोगों से ख़ुद को मुखतलिफ़ महसूस करता हूँ
मुझे अक्सर उन्हीं लोगों में शामिल होना पड़ता है

अकील साहब के बारे में उस्ताद शायर "सर्वत ज़माल" साहब की टिप्पणी काबिले गौर है वो कहते हैं "अकील नोमानी ऐसा एक शायर है जो सिर्फ दिखने में पत्थर नज़र आता है लेकिन करीब आओ तो उसकी मोम जैसी नरमी और शहद जैसी मिठास का अंदाज़ा होता है, मुझे ख़ुशी है कि मैं उनके करीब बहुत करीब हूँ." अकील साहब के ये शेर सर्वत साहब की बात की ताकीद करते हैं:

कैसी रस्में, कैसी शर्तें
चाहत तो चाहत होती है

वस्ल के लम्हों ने समझाया
दुनिया भी जन्नत होती है

उन आँखों को याद करो तो
दर्द में कुछ बरकत होती है

हुनर को पनपने के लिए कभी सुविधाओं या किसी बड़े शहर की जरूरत नहीं होती. अकील साहब ने अपनी शायरी का सफ़र बरेली के एक छोटे से कस्बे "मीरगंज " शुरू किया और पिछले सत्ताईस सालों से वो वहीँ रह कर उर्दू अदब की सेवा कर रहे हैं. एक साधारण से काश्तकार लेकिन अदब के असाधारण प्रेमी पिता के बेटे अकील साहब को शेरो शायरी का फ़न घुट्टी में नसीब हुआ. मात्र बीस साल की उम्र में अपने उस्ताद ज़लील नोमानी की रहनुमाई में वो शेर कहने लगे और पत्र-पत्रिकाओं में छपने भी लगे. सन 1978 से शुरू हुआ ये सिलसिला आज तक बदस्तूर ज़ारी है.

मैं ही तो नहीं सर्द मुलाक़ात का मुजरिम
पहले की तरह तू भी तो हंस कर नहीं मिलता

जिस दिन से सब आईने खुले छोड़ दिए हैं
उस दिन से किसी हाथ में पत्थर नहीं मिलता

मिल जाऊं तो दुनिया मुझे खोने नहीं देती
खो जाऊं तो ख़ुद को भी मैं अक्सर नहीं मिलता

"रहगुज़र" किताब हम जैसे अलीबाबाओं के लिए जो अच्छी शायरी की खोज में दर बदर ख़ाक छानते रहते हैं किसी ख़जाने से कम नहीं.एक ऐसा खज़ाना जो कभी खाली नहीं होता. इस किताब को गुंजन प्रकाशन , सी-130 , हिमगिरी कालोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद ने प्रकाशित किया है. इसकी प्राप्ति की सूचना के लिए आप 0591-2454422 पर फोन करें अथवा मोबाईल नंबर 099273-76877 पर संपर्क करें. सबसे श्रेष्ठ बात तो ये रहेगी कि आप नोमानी साहब को इस किताब के लिए उन्हें उनके मोबाइल 094121-43718 अथवा 093593-42600 पर बधाई दें और साथ ही इसे प्राप्त करने का सरल रास्ता भी पूछ लें .


ख़ुद को सूरज का तरफ़दार बनाने के लिए
लोग निकले हैं चराग़ों को बुझाने के लिए

सब हैं संगीनी-ऐ-हालात से वाकिफ लेकिन
कोई तैयार नहीं सामने आने के लिए

कितने लोगों को यहाँ चीखना पड़ता है 'अकील'
एक कमज़ोर की आवाज़ को दबाने के लिए

"रहगुज़र" का खुमार तो आसानी से उतरने से रहा...दिल करता है इस किताब पर अविराम लिखता चला जाऊं...लेकिन पोस्ट की अपनी मजबूरी है, इस किताब में से कुछ अशआर मैंने बतौर नमूना आपके सामने पेश किये हैं, इस खजाने में इन मोतियों के अलावा जो हीरे जवाहरात हैं उन्हें खोजने के लिए आपको स्वयं कोशिश करनी होगी. जल्द ही मिलते हैं एक और शायरी की किताब के साथ. चलते चलते आखिर में पढ़िए उनकी छोटी बहर की एक ग़ज़ल के चंद शेर...

उन ख्यालों का क्या करें आखिर
जो सुपुर्दे - कलम नहीं होते

बारिशों ही से काम चलता है
खेत शबनम से नम नहीं होते

उसका ग़म भी अजीब होता है
जिसको औरों के ग़म नहीं होते

Monday, October 10, 2011

पत्तों सा झड़ जाना क्या



( ये ग़ज़ल आपा "मरयम गज़ाला" जी को समर्पित है जो अब हमारे बीच नहीं हैं )


समझेगा दीवाना क्या
बस्ती क्या वीराना क्या

ज़ब्त करो तो बात बने
हर पल ही छलकाना क्या

हार गए तो हार गए
इस में यूँ झल्लाना क्या

दुश्मन को पहचानोगे ?
अपनों को पहचाना क्या

दुःख से सुख में लज्ज़त है
बिन दुःख के सुख पाना क्या ?

इसका खाली हव्वा है
दुनिया से घबराना क्या

फूलों की तरहा झरिये
पत्तों सा झड़ जाना क्या

किसने कितने घाव दिये
छोडो भी, गिनवाना क्या

'नीरज' सुलझाना सीखो
मुद्दों को उलझाना क्या





(तुकबंदी को ग़ज़ल में परिवर्तित करने का श्रेय गुरुदेव पंकज सुबीर जी को जाता है)

Monday, October 3, 2011

किताबों की दुनिया - 61

ग़र तुझसे मुझे इतनी मोहब्बत नहीं होती
यूँ रंज उठाने में भी लज्ज़त नहीं होती

ये दिल है कि जो टूट गया, टूट गया बस
शीशे की किसी तौर मरम्मत नहीं होती

फिर कौन तुझे मानता यकता-ऐ-ज़माना
अशआर में तेरे जो ये जिद्दत नहीं होती
यकता-ऐ-ज़माना=संसार में अद्वितीय, जिद्दत =अनोखापन

"अशआर में तेरे जो ये जिद्दत नहीं होती"… वाह...देखिये कितनी सही और गहरी बात की है. दुनिया में जो सब कर रहे हैं उसी को किये जाने में भला क्या लुत्फ़ है ? अपनी पहचान बनाने के लिए आपको कुछ अलग करना ही पड़ता है, अगर नहीं करेंगे तो आप भीड़ में गुम हो जायेंगे. हमारे आज के शायर जनाब " डा. महताब हैदर नक़वी" जिनकी किताब "हर तस्वीर अधूरी " का हम जिक्र करने जा रहे हैं, भीड़ में होते हुए भी भीड़ से अलग हैं.


अब तक तो हम-से-लोग किसी काम के न थे
अब काम मिल गया है मेरे रब किया है इश्क़

पहले तो थीं हर एक से शिकवे-शिकायतें
अब क्यूँ रहेगा कोई गिला जब किया है इश्क़

वाइज़ को एतराज़ अगर है तो होने दो
पहले नहीं किया था मगर अब किया है इश्क़

अलीगढ निवासी जनाब डा. महताब हैदर नक़वी साहब की शायरी पर उनके उस्ताद जनाब शहरयार साहब का असर साफ़ दिखाई देता है. शहरयार साहब के साथ और अब उनके रिटायरमेंट के बाद भी वो अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में बतौर लेक्चरार काम कर रहे हैं . नक़वी साहब अपनी शायरी का सारा श्रेय शहरयार साहब को ही देते हैं.

समन्दरों के किनारों की रेत पर अब लोग
बनायें और कोई चीज़ भी घरों के सिवा

परिंदे पूछ रहे हैं हवाओं से अब के
उड़ान के लिए क्या चाहिए परों के सिवा

हमारी नस्ल ने ऐसे में आँख खोली है
जहाँ पे कुछ नहीं बेरंग मंज़रों के सिवा

नक़वी साहब पिछले तीन दशकों से शेर कह रहे हैं. इनकी दो किताबें 'शब् आहंग' और 'मावरा-ऐ-सुखन' प्रकाशित हो चुकी हैं. डायमंड पाकेट बुक्स के हम, हिंदी में शायरी पढने के शौकीन, एहसानमंद हैं जिन्होंने उनकी ग़ज़लों का हिंदी में ये पहला संकलन प्रकाशित किया है. संपादन का काम सरेश कुमार जी ने किया है. इस किताब में नक़वी साहब की एक सौ चालीस से ऊपर ग़ज़लें संकलित हैं जो पाठकों का मन मोह लेती हैं.

मेहरबाँ आज मुझ पर हुआ कौन है
तू नहीं है तो फिर ये बता कौन है

सब हिकायत-ऐ-माज़ी भुला दी गयी
तेरे ग़म को मगर भूलता कौन है
'हिकायत-ऐ-माज़ी= अतीत की कथाएं

वो भी खामोश है, मैं भी खामोश हूँ
दरमियाँ आज फिर आ गया कौन है

समकालीन उर्दू शायरी के आठवें दशक में उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज करवाने में जावेद अख्तर ,निदा फ़ाज़ली, जुबैर रिज़वी, अमीन अशरफ, शीन काफ़ निजाम, तरन्नुम रियाज़, आलम खुर्शीद आदि के साथ जनाब महताब हैदर नक़वी साहब का नाम भी लिया जाता है. उनकी शायरी में हमारे आज की समस्याएं परेशानियाँ सुख दुःख झलकते हैं, इसलिए उनकी शायरी हमें अपनी सी लगती है. वो आज के बिगड़ते हालत को देख चिंतित भी हैं तो कहीं उसी में उन्हें उम्मीद की किरण भी नज़र आती है.

अपनी वहशत का कुछ अंदाज़ा लगाया जाए
फिर किसी शहर को वीराना बनाया जाए

पहले उस शोख़ को गुमराह किया करते हैं
फिर ये कहते हैं उसे राह पे लाया जाए

अक्ल कहती है कि शानों पे ये सर भारी है
दिल की ये ज़िद है कि यही बोझ उठाया जाए

सुरेश कुमार ने किताब की भूमिका में लिखा है " ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए जिन ख्वाबों की जरूरत होती है, उन्हें देखने के लिए नक़वी साहब एक वातावरण तैयार करने में लगे हैं.महज़ ख़्वाब देखना उनकी फितरत में नहीं है, व्यवहारिक धरातल पर वो उन्हें हकीक़त में भी बदलना चाहते हैं. उनकी ये कोशिश उनके अशआर में साफ़ दिखाई देती है.”

दूर तक राह में अब कोई नहीं, कोई नहीं
कब तलक बिछड़े हुए लोगों का रस्ता देखूं

आँख बाहर किसी मंज़र पे ठहरती ही नहीं
घर में जाऊं तो वही हाल पुराना देखूं

रात तो उसके तसव्वुर में गुज़र जाती है
कोई सूरत हो कि मैं दिन भी गुज़रता देखूं

जनाब नक़वी साहब के बारे में जानकारी इकठ्ठा करने में मुझे बहुत मशक्कत करनी पड़ी. नैट पर सिर्फ उन लोगों के बारे में लिखा मिलता है जो चाहे नक़वी साहब जैसे दानिश्वर नहीं है लेकिन उनसे अधिक प्रचलित हैं. आज के युग में अपने आपको बाज़ार में बेचने का हुनर आना चाहिए. आपने देखा होगा अक्सर मुशायरों में आप को शायरी सुनने को नहीं मिलती जो शायरी कहते हैं उन्हें मुशायरों में बुलाया नहीं जाता. भीड़ शायरी को मनोरंजन का सामान मानती है, उसकी गहराई में नहीं उतरना चाहती. चाहे हमें नक़वी साहब के बारे में नैट पर बहुत अधिक पता नहीं चला लेकिन इस किताब को पढ़ कर उनके विचारों को भली भांति जाना है और ये बात उन्हें जानने से अधिक महत्वपूर्ण है.

आईने भी अब देख के हैराँ नहीं होते
ये लोग किसी तौर परेशां नहीं होते

पलकों के लिए धूप के टुकड़ों की दुआ हो
साए कभी ख़्वाबों के निगेहबां नहीं होते
निगेहबां =देखरेख करने वाले

होते हैं कई काम मोहब्बत में भी ऐसे
मुश्किल जो नहीं हैं, मगर आसाँ नहीं होते

उम्मीद करता हूँ के आपको नक़वी साहब की शायरी पसंद आई होगी. शायर की हौसला अफजाही के लिए गुज़ारिश है के आप उन्हें इस बेहतरीन शायरी के लिए उनके मोबाइल 09456667284 पर फोन कर मुबारकबाद जरूर दें .ये मोबाईल नंबर मुझे नैट से बहुत मुश्किल से मिला है, मेरी इस मेहनत का सिला सिर्फ उन्हें फोन पर दाद दे कर ही दिया जा सकता है. अगली किताब की तलाश में चलने से पहले लीजिये पेश करता हूँ नक़वी साहब की एक ग़ज़ल के तीन और शेर :

हमें तुझ से मोहब्बत है, हमें दुनिया से यारी है
ये दुनिया भी हमारी है, वो दुनिया भी हमारी है

जहाँ के खेल में सब एक जैसे हम को लगते हैं
ये बाज़ी किसने जीती है, ये बाज़ी किसने हारी है

खुली आँखों से देखो तो, ये दुनिया खूबसूरत है
हंसी तू है , जवान हम हैं , कहाँ की सोगवारी है