Monday, May 7, 2018

किताबों की दुनिया -176

 हमें जब काटनी पड़ती हैं सारी रात आँखों में 
अँधेरे आसमाँ में इक सितारा ढूंढ लेते हैं 

बरामद होती है वो चीज आखिर कार कमरे में 
जब उसके वास्ते संसार सारा ढूंढ लेते हैं 

ख़सारे में हमें वो फ़ायदा बतलाने आये हैं 
किसी भी फ़ायदे में जो ख़सारा ढूंढ लेते हैं 
ख़सारा=नुक्सान 

ये कोई सन 2005-2006 की बात होगी जब मैंने पहली बार अपने एक मित्र से ब्लॉग का नाम सुना था। मेरी समझ में ही नहीं आया कि वो क्या कह रहा है। धीरे धीरे बात समझ में आने लगी तो देखा मेरी तरह बहुत से लोग ब्लॉग खोले बैठे हैं जो समझ नहीं पा रहे कि इस विधा का उपयोग किया कैसे जाय। कुछ लोग कवितायेँ लिख रहे थे कुछ लघुकथाएं कुछ व्यंग तो कुछ राजनीती से जुड़े लेख। इस भीड़ में हमारे जैसे कुछ लोग शायरी ,खास तौर पर ग़ज़ल सीखने में लगे हुए थे। ग़ज़ल सीखने वालों का एक बड़ा सा कुनबा बन गया था। इससे जुड़े लोग ग़ज़ल के उरूज़ से वाबस्ता होते और किसी एक तरही मिसरे पर ग़ज़ल कहते और टिप्पणियाँ करते। पुराने लोग नयों की हौसला अफ़ज़ाही करते। वो दिन बहुत अच्छे थे। उसी दौर के लोग अब फेसबुक पर छाये हुए हैं और वाहवाहियां बटोर रहे हैं। अब ब्लॉग की अपेक्षा फेसबुक पर बहुत त्वरित गति से टिप्पणियां आ जाती हैं और लोकप्रियता मिल जाती है। आज के शायर हमारे उसी ब्लॉग कुनबे के सदस्य थे जो अब ग़ज़ल की बारीकियां सीख कर एक पुख्ता ग़ज़लकार की श्रेणी में आ चुके हैं।

दीवार आहनी थी, सभी नाउमीद थे
धूप आई और उसमें भी रौज़न बना लिया 
आहनी :लोहे की ,रौज़न: झिर्री 

इक नींद में ज़रा सी इसे क्या पनाह दी 
इस ख़्वाब ने तो मुझमें नशेमन बना लिया 
नशेमन : घर 

अफ़्सुर्दगी पहन के निकलते हैं घर से लोग 
लोगों ने क्या उदासी को फैशन बना लिया 
अफ़्सुर्दगी=उदासी

एक बिलकुल ही अलहदा लबो लहज़े के 7 जनवरी 1977 में मुज़फ्फ़रपुर बिहार में जन्में इस युवा शायर का नाम है "सौरभ शेखर " जिनकी हाल ही में बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुई ग़ज़लों की किताब "एक रौज़न" की हम बात कर रहे हैं। सौरभ ने अंग्रेजी साहित्य में एम् ऐ किया है और वर्तमान में राज्यसभा सचिवालय में अपर निदेशक के पद पर कार्य करते हुए ग़ज़लें कह रहे हैं। ग़ज़लों की तरफ उनका झुकाव दुष्यंत कुमार साहब की प्रसिद्ध किताब "साये में धूप" पढ़ने के बाद हुआ। कॉलेज के वो रुमानियत से भरपूर दिन और ग़ज़ल का साथ याने सोने में सुहागा। बीस बरस की जोशो-खरोश से भरी उम्र में उनकी ग़ज़लें पत्र पत्रिकाओं में छपने लगीं और लोगों के दिलों को गुदगुदाने लगीं। अब जवानी कब किसी नियम कानून को मानती है सो जनाब के जो दिल में आता उसे ग़ज़ल की शक्ल में पिरो कर वो यार दोस्तों को सुनाते ,ब्लॉग पर डालते और वाहवाहियां बटोरते।


मैं न कहता था कि थोड़ी सी हवस बाक़ी रखो 
देख लो अब किस तरह आसूदगी चुभने लगी 
आसूदगी : तृप्ति 

तीरगी का दश्त नापा रौशनी के वास्ते 
रौशनी फैली तो मुझको रौशनी चुभने लगी 
दश्त :जंगल 

सख़्त इक लम्हे की रौ में आ के तौबा कर लिया
हल्क़ में मेरे मगर अब तिश्नगी चुभने लगी 

इस से पहले कि तारीफ़ और वाह वाही के बेशुमार जुमले सौरभ का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंचाते और वो भटकते, एक दिन किसी 'नीरज गोस्वामी' नाम के शख़्स ने उनके ब्लॉग पर उन्हें ग़ज़ल कहने से पहले उसके व्याकरण को अच्छे से सीखने की सलाह दे डाली। अक्सर युवा किसी बुजुर्ग की सलाह को भी हर फ़िक्र की तरह धुएं में उड़ा देने में विश्वास रखते हैं लेकिन सौरभ ने नीरज जी की बात को पता नहीं क्यों गंभीरता से लिया ( इस बात से नीरज जी अभी तक हैरान हैं क्यूंकि इससे पहले उनकी किसी बात को कभी किसी और ने गंभीरता से नहीं लिया था ) और संजीदगी से उरूज़ सीखने लगे। इसके नतीज़े जल्द ही सामने आने लगे। उनकी ग़ज़लों में निखार आने लगा और सोच में पुख़्तगी झलकने लगी. उनकी, ग़ज़ल से मुहब्बत अब दीवानगी की हद तक जा पहुंची।

ख़ता ज़रा भी नहीं रास्तों के काँटों की 
गुनाहगार मिरे पाँव का ही छाला है 

ये सर्द रात, ये ख़लवत,अलाव माजी का 
बदन पे गुज़रे दिनों का मिरे दुशाला है 
ख़लवत =एकांत

ज़माने भर की जुटा लेगा बदगुमानी वो 
उसे सचाई से क्या और मिलने वाला है 

उस्ताद ग़ज़लकार जनाब 'ज्ञानप्रकाश विवेक' इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि " सौरभ शेखर की ग़ज़लों में एक नई ज़मीन दिखाई देती है। एक ऐसा भावबोध जो जटिल होते संबंधों, मुश्किल होते जीवन और कुटिल होते तंत्र को बड़ी सूक्ष्मता से व्यक्त करने में सफल होता है। यहाँ नए समय का संज्ञान है और बदलते समय की गूँज। यथार्थ बेशक कर्कश हुआ है लेकिन इन ग़ज़लों में खुरदरे और कर्कश यथार्थ को बड़ी निपुणता से व्यक्त किया गया है। यहाँ वेदना भी अपने गाढ़े रूप में मौजूद है। लहजा बेतकल्लुफ अभिव्यक्ति में व्यंजना का पुट लेकिन शेर में थरथराती बैचनी। ये जो शेरगोई का अंदाज़ है यही सौरभ शेखर का मुहावरा है। वो नए प्रयोग करते हैं और सफल होते हैं

जिस से भी मिल रहा हूँ उसी को करार है 
चैनो-सुकूँ के शह्र में उजलत का क्या हुआ 
उजलत=जल्दबाज़ी  

सौ सदमे खा के ख़ैर मुहब्बत तो बच गई
तलवार भांजती हुई नफ़रत का क्या हुआ 

वो आदमी तो हो गया मशहूर इश्क में 
रुसवाइयों की आग में औरत का क्या हुआ 

हम तो हक़ीर थे हमें मिटटी निगल गई 
पर यार बादशाह सलामत का क्या हुआ 

सौरभ ने सन 2009 में औपचारिक तौर पर ग़ज़ल कहना शुरू किया अपने ब्लॉग से, धीरे धीर उनकी ग़ज़लें सन 2012 से लफ्ज़ के पोर्टल पर होने वाले तरही मुशायरों में भी दिखाई देने लगीं। उस पोर्टल पर ग़ज़ल का पोस्ट होना उसके मयार का सर्टिफिकेट हुआ करता था। सौरभ की ग़ज़लें वहां उर्दू के कामयाब शायरों की नज़रों में आयीं और वाहवाही बटोरने लगीं। बेहतरीन शायर और ग़ज़ल के पारखी जनाब मयंक अवस्थी साहब ने उनकी ग़ज़लों के बारे में कहा कि "नावल्टी सौरभ की ग़ज़लों की पहचान है। सामाजिक चैतन्य,शिल्पगत ख़ूबसूरती और ज़बान की कहन सौरभ की ग़ज़लों की विशेषता है। सौरभ ने कम समय में ही ग़ज़ल के दुश्वार मरहले सर कर लिए हैं। ये सौरभ की उपलब्धि है। दुष्यंत कुमार ने अपनी पुस्तक ” साये में धूप” में लिखा है कि हिन्दी और उर्दू जब आम आदमी के पास जाती हैं तो वो अपना सिंहासन छोड़ कर हिदुस्तानी बन जाती हैं ,सौरभ की ग़ज़लों की भाषा खालिस हिंदुस्तानी है।"

सच झूठ की कहानी मुकम्मल न जानिये
कुछ आखरी ग़लत है न कुछ आखरी सही

रहबर ने बार-बार ही भटका दिया मुझे
साबित हुई हमेशा मिरी गुमरही सही

इक आपके अलावा ग़लत है हरेक शख्स
अच्छा ये आप समझे हैं, अच्छा यही सही

उर्दू ग़ज़ल को हिंदी पाठकों तक ले जाने में लफ्ज़ पत्रिका और उसके संपादक बेहतरीन शायर जनाब 'तुफैल चतुर्वेदी " साहब का योगदान अविस्मरणीय रहा है. तुफैल साहब के शागिर्दों की संख्या बहुत बड़ी है और उन में कुछ एक नौजवान शायर तो आज उर्दू अदब में अपनी कलम का लोहा मनवा रहे हैं। तुफैल साहब ने ही सन 2016 में सौरभ की ग़ज़लों को लगातार चार साल पढ़ते रहने के बाद उन्हें लिखा कि " सौरभ आपका लहजा सबसे अलग सबसे जुदा जा रहा है। आपके बिम्ब अनोखे और आपके अपने हैं। आपका लहजा ग़ज़ल का भी है और उससे अलग भी है।आप के लिये बानी की पंक्ति कुछ तब्दील करके सादिक़ आती है-बोलता इक लफ़्ज़ मंज़र में मगर सबसे हटा सा. ये आपकी ज़बरदस्त कामयाबी है कि जहां मैं ग़ज़ल के 36 बरस पांव दबाने के बाद आ पाया हूं, वहां आप कुछ बरस के सफ़र में ही पहुँच गये। अब वक़्त आ गया है कि आपको किताब ले आनी चाहिये। " मैं समझता हूँ कि एक उस्ताद शायर द्वारा सरे आम ये कहना कि जिस मुकाम पर वो 36 सालों की मेहनत के बाद पहुंचे हैं वहां एक युवा शायर चंद सालों में ही पहुँच गया है ,बहुत बड़ी बात है। ये उस्ताद शायर का बड़प्पन तो है ही एक युवा शायर के लिए सबसे बड़ा ईनाम भी है।

पाक़ लोगों की सुहबतें तौबा 
कुफ़्र ही कुफ़्र सूझता है मुझे 

मुझको आँखें बचा के रखनी हैं
कितना कुछ और देखना है मुझे 

घर में फुर्सत का आज इक लम्हा 
इत्तिफ़ाक़न गिरा मिला है मुझे 

युवा सौरभ की इस पहली किताब को पढ़ते वक्त अंदाज़ा हो जाता है कि इनका भविष्य बहुत उज्जवल है. इस किताब में सौरभ की 88 ग़ज़लें संगृहीत हैं जो बार-बार पढ़ने लायक हैं. अधिकतर छोटी बहर की ग़ज़लों की मारक क्षमता का तो कहना ही क्या। ग़ज़ल में भाषा का सौंदर्य आपको बांध लेता है। उन्होंने हिंदी-उर्दू के अलावा अंग्रेजी के रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाले शब्दों को बहुत ख़ूबसूरती से अपनी ग़ज़लों में पिरोया है। यूँ अंग्रेजी शब्द आजकल की ग़ज़लों में खूब प्रचलन में हैं लेकिन सौरभ ने जिस तरह उन्हें बरता है उसे पढ़ कर लगता है कि जैसे इस लफ्ज़ के सिवाय अगर और किसी भाषा का लफ्ज़ आता तो वो मिसरे का सौंदर्य धूमिल कर देता।

बीच भंवर वालों की क्या हालत होगी 
ख़ौफ़ज़दा जब छिछले पानी में हूँ मैं 

ज़द में हूँ मैं दिल की सी.सी.टी.वी.की 
चौबीसों घंटे निगरानी में हूँ मैं  

महसूस हुआ कल इक नॉविल पढ़ कर 
ये मेरा क़िरदार, कहानी में हूँ मैं 

तुफैल साहब के अलावा एक और शख़्स का नाम लिए बिना बात पूरी नहीं होगी जिसने सौरभ को शायर सौरभ बनने में पूरी मदद की, वो हैं मशहूर शायर जनाब 'सर्वत जमाल' साहब। सर्वत मेरे मित्र हैं इसलिए नहीं कह रहा बल्कि वो हकीकत में जितने बेहतरीन शायर हैं उस से कहीं ज्यादा अच्छे इंसान हैं. उन्होंने सौरभ की हर उस कदम पर मदद की जहाँ जहाँ उसे अपने सफर का रास्ता उबड़-खाबड़ और दुश्वार लगा। चढाई पर चढ़ने वाले इंसान की लाठी बनना सर्वत जमाल की फितरत में है। उस्ताद लोग सिर्फ रस्ते में आयी रुकावटों को दूर करने में आपकी मदद करते हैं लेकिन अपनी मंज़िल का रास्ता खुद को ही तलाशना पड़ता है। सौरभ ने जो रास्ता तलाशा वो उसका अपना है जिस पर पहले किसी के चलने के निशान नहीं मिलते ,तभी तो उन्हें जो मंज़र दिखाई देते हैं वो बहुत अलग और दिलकश हैं।

उदासी के रुतों के फूल हैं हम 
ग़मों में देखना जलवा हमारा 

बहुत बारीक़ हैं उनके इशारे 
बढ़ाना तो ज़रा चश्मा हमारा 

खराबी कोई तो हम में है जिस से 
कहीं भी जी नहीं लगता हमारा 

इस किताब की सभी ग़ज़लें बेहद खूबसूरत हैं। मेरे देखे शायरी के प्रेमियों के पास ये किताब जरूर होनी चाहिए। आपसे गुज़ारिश है कि इन बेहतरीन ग़ज़लों के लिए सौरभ शेखर, जो फिलहाल इंद्रापुरम गाज़ियाबाद के निवासी हैं , को उनके मोबाईल न 9873866653 पर फोन करके बधाई दें और किताब प्राप्ति के लिए 'बोधि प्रकाशन जयपुर के जनाब 'माया मृग ' जी से 9829018087 पर संपर्क करें। सौरभ की ग़ज़लें आप 'रेख़्ता' की साइट पर भी पढ़ सकते हैं। ये किताब अमेज़न पर भी उपलब्ध है.सौरभ पर जितना लिखा जा सकता है उसका मात्र 20 -25 प्रतिशत ही आप तक पहुंचा पाया हूँ। पोस्ट की सीमा को नज़र-अंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता इसलिए उनके कुछ फुटकर शेर आपको पढ़वाता चलता हूँ:

लक़ीरें फ़क़त खेंचता जा वरक़ पर 
कोई शक्ल तैयार हो कर रहेगी
*** 
कुछ इच्छा भी तो हो मिलने-जुलने की 
वर्ना ऐसा थोड़ी है कि फुर्सत नईं 
*** 
वैसे पैसा ही सब कुछ है दुनिया में 
लेकिन पैसे पर भी थूका जा सकता है
*** 
वो बार-बार पूछ रहा था वही सवाल 
मजबूर हो के झूठ मुझे बोलना पड़ा
*** 
बच्चे ने सजाई है कोई और ही दुनिया 
खींचा है जहां बाघ वहीँ रक्खा हिरन भी
*** 
फ़िक्र मुझे अपने बच्चों के सर की होती थी 
जर्जर घर था सच्चाई का आखिर छोड़ दिया
*** 
मैं हकलाता नहीं हूँ बोलने में 
मैं नर्वस था तिरी मौजूदगी से 
*** 
यही एक मौका मिरे पास है 
गिराना है ग़म को इसी वार में
*** 
गौर से देखिये पाज़ेब की खुशफ़हमी में
आप जंज़ीर की झंकार संभाले हुए हैं

8 comments:

Unknown said...

सुंदर
फ़ुर्सत में डिटेल

Kuldeep said...

बहुत गज़ब शायरी से रुबरु कराया ही अपने । धन्यवाद आपका

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-05-2017) को "घर दिलों में बनाओ" " (चर्चा अंक-2964) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

सौरभ का वह शेर किताब में नहीं है क्या?

कोई बच्ची हँसेगी नींद में क्यूँ
परी शायद परी से है मुख़ातिब

Parul Singh said...

बहुत उम्दा समीक्षा। रोचक। सौरभ जी के यहाँ दिये गये सभी शेर लाजवाब है,तय है कि ये किताब शायरी के चाहने वालों के लिए कहन और रवानी का सुंदर सफर होगी। हर बार जिन शायरों से आप बात कर सकते हैं उनका एक छोटा सा इंटरव्यू या उनका नजरिया या कोई रोचक किस्सा शायरी से जुड़ा हुआ भी शामिल कर सके तो कैसा रहेगा? और ये सम्भव न हो तो समीक्षक साहब ही शायरी से सुना अपना कोई रोचक किस्सा हर पोस्ट में शामिल करें। उँगली पकड़ कर ऐसे ही पोहँचा पकड़ते है पाठक सर। उम्मीद है आप निराश नही करेंगे।

नीरज गोस्वामी said...

Msg from Sh. Darvesh Bharti ji :-

एक रौज़न का तआरुफ़ पढ़कर लुत्फ़ आ गया। वाक़ई सौरभ जी का कलाम क़ाबिले-तारीफ़ है।
वो बार बार पूछ रहा था वही सवाल
मजबूर हो के झूठ मुझे बोलना पड़ा

इक नींद में ज़रा-सी इसे क्या पनाह दी
इस ख़्वाब ने तो मुझमें निशेमन बना लिया

तीरगी का दश्त नापा रौशनी के वास्ते
रौशनी फैली तो मुझको रौशनी चुभने लगी

वाह..वाह! पढ़ते ही मुझे अपना एक शे'र याद आ गया...
मेरी औक़ात से बढ़कर मुझे देना न कुछ मालिक
ज़रूरत से ज़ियादा रौशनी बेनूर करती है

आप दोनों को दिली मुबारकबाद। -दरवेश भारती

mgtapish said...

Waaaaaah waaaaaah kya kahne bahut umda waaaaaah

गीता पंडित said...

वाह, बहुत खूबसूरत समीक्षा और बहुत बेहतरीन शायरी सौरभ जी की ....आप दोनों को बधाई