Monday, January 18, 2021

किताबों की दुनिया - 223

बात सन 1991 की गर्मियों की है जब भोपाल में रात के तीन बजे मुशायरे के नाज़िम ज़नाब अनवर जलालपुरी साहब ने माइक पर कहा कि 'हज़रात, आइये ज़िन्दगी के जो फ़ीके तीखे रंग हैं उनकी रोमानी कैफ़ियत को ग़ज़ल में बड़ी ख़ूबसूरती से तर्जुमानी करने का हुनर जिस फ़नकार को आता है उसका नाम है 'क़ैफ़ भोपाली' मैं बड़े अदब से क़ैफ़ भोपाली साहब से गुज़ारिश कर रहा हूँ कि वो तशरीफ़ लायें और हमारे मुशायरे को नवाज़ें, आइये मोहतरम 'क़ैफ़ भोपाली' साहब, तब ये सुन कर सामयीन में हलचल सी मच गयी। पीछे बैठे,अधलेटे अलसाये से लोग चाक चौबंद हो कर आगे आ कर बैठने लगे । तालियाँ बजने लगीं।  क़ैफ़ साहब जो खादी का सफ़ेद कुरता पायजामा और सर पर सफ़ेद पगड़ी सी पहने बैठे थे को दो लोगों ने मिल कर उठाया। वो उठे और लगभग लड़खड़ाते हुए माइक पर पहुंचे । साफ़ लग रहा था कि वो बीमार हैं लेकिन माइक पकड़ कर जब उन्होंने झूम कर अपनी ग़ज़ल के ये अशआर सुनाये तो हँगामा बरपा हो गया। उन्हें शायरी पढ़ते देख लगा ही नहीं के ये बुज़ुर्ग जो शहर भोपाल की शान है, बीमार है और अपनी ज़िन्दगी का आख़री मुशायरा पढ़ रहा है।  
(संशय की स्तिथि में इस क्लिप को यू ट्यूब पर देख लें ) 

   .तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है 
तेरे आगे चाँद पुराना लगता है 

तिरछे-तिरछे तीर नज़र के चलते हैं 
सीधा-सीधा दिल पे निशाना लगता है 

आग का क्या है पल दो पल में लगती है 
बुझते-बुझते एक ज़माना लगता है  

पॉँव न बाँधा पंछी का पर बाँधा है 
आज का बच्चा कितना सयाना लगता है 

सुनने वाले घंटों सुनते रहते हैं 
मेरा फ़साना सब का फ़साना लगता है  

मज़े की बात ये हुई कि इस ग़ज़ल के साथ ही मीर तकी मीर और दाग़ जैसे उस्तादों के स्कूल वाली शायरी से दामन छुड़ा कर उर्दू शायरी को एक नया बांकपन नये आसमान नये परवाज़ देने वाले इस बेमिसाल शायर ने बिना रुके इसी रदीफ़ वाली अपनी दूसरी ग़ज़ल भी लगे हाथ सुना डाली। ये ग़ज़ल पहली ग़ज़ल से ज़रा भी कम दिलकश नहीं थी। रदीफ़ वही, काफ़िये अलग लेकिन सामईन पर असर, वही -जादुई , आप भी पढ़ें और लुत्फ़ लें : 

तेरा चेहरा सुबह का तारा लगता है 
सुबह का तारा कितना प्यारा लगता है 

तुमसे मिल कर इमली मीठी लगती है 
तुमसे बिछुड़ कर शहद भी खारा लगता है 

रात हमारे साथ तू जागा करता है 
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है 

ख़्वाजा मुहम्मद इब्राहिम साहब का ताल्लुक़ यूँ तो कश्मीर से था लेकिन वो भोपाल आ कर बस गए। शायरी से इनका तो दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं था लेकिन इनकी शरीके हयात 'शायरा ख़ानम' जो लख़नऊ की रहने वाली थीं 'आजस' तख़ल्लुस से शायरी करती थीं। बेग़म शायरा ख़ानम ने 20 फरवरी 1917 को अपने मायके लखनऊ में पैदा हुए बच्चे का नाम रखा 'ख़्वाजा मोहम्मद इदरीस' जिसे दुनिया 'कैफ़ भोपाली' के नाम से जानती है। कैफ़ साहब आम बच्चों की तरह खेलकूद में कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे। अपने में खोये रहना उनका शगल था। कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा घर पर ही अरबी फ़ारसी की पढाई की और सिर्फ़ सात साल की उम्र से शायरी करने लगे। वाल्दा ही उनकी उस्ताद थीं। कैफ़ साहब की शायरी में जो सूफ़ीयाना रंग है वो उनकी माँ की वजह से है। 

हिंदी में कैफ़ साहब की शायरी की किताब 'गुल से लिपटी तितली' कभी छपी थी जो अब कहीं आसानी से उपलब्ध नहीं है लेकिन हिंदी पाठकों के लिए भोपाल के शायर और रचनाकार जनाब 'अनवारे इस्लाम' साहब द्वारा सम्पादित किताब ' आज उनका ख़त आया ' जिसे 'पहले पहल प्रकाशन भोपाल ने सं 2017 में प्रकाशित किया था ,अमेज़न से मंगवाई जा सकती है। आज वही किताब हमारे सामने है।  
इस किताब की प्राप्ति की जानकारी के लिए और कैफ़ साहब की शायरी के इस लाजवाब संकलन के लिए मुबारकबाद देने को आप अनवारे इस्लाम साहब से उनके मोबाईल न 7000568495 पर सम्पर्क कर सकते हैं। 


तेरी लटों में सो लेते थे बेघर आशिक़ बेघर लोग
बूढ़े बरगद आज तुझे भी काट गिराया लोगों ने 
*
उन्हें मैं छीन कर लाया हूँ कितने दावेदारों से 
शफ़क़ से, चांदनी रातों से, फूलों से , सितारों से 
शफ़क़ : सुबह, ऊषा 

कभी होता नहीं महसूस वो यूँ क़त्ल करते हैं 
निगाहों से, कनखियों से, अदाओं से, इशारों से 
*
एक कमी थी ताजमहल में 
मैंने तिरी तस्वीर लगा दी 

आपने झूठा वादा करके 
आज हमारी उम्र बढ़ा दी 
*
अज़्मते सुकरातो ईसा की क़सम 
दार के साये में हैं दाराइयाँ 
  अज़्मते सुकरातो ईसा-सुकरात और ईसा की महानता , दार-सूली , दाराइयाँ -बादशाही 

चारागर मरहम भरेगा तो कहाँ 
रूह तक हैं ज़ख्म की गहराइयाँ 
*
बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे 
दिलों के खेल में ख़ुद्दारियाँ नहीं चलतीं 

छलक-छलक पड़ी आँखों की गागरें अक्सर 
सम्भल-सम्भल के ये पनहारियाँ नहीं चलतीं 
*
मत देख के फिरता हूँ, तिरे हिज़्र में ज़िंदा 
ये पूछ के जीने में मज़ा है के नहीं है 
*
दरो दीवार पे शक्लें सी बनाने आई 
फिर से बारिश मेरी तन्हाई चुराने आई 

उलझे बाल बड़ी बड़ी ज़हीन आँखे और तीखे नाक नक्श वाले के कैफ साहब बहुत भावुक थे। शुरू शुरू की शायरी का रूमानी अंदाज़ और आशिक़ाना मिज़ाज़ उनकी शख्शियत का हिस्सा था। उनकी इश्क़िया शायरी बहुत व्यक्तिगत कही जा सकती है मगर उनकी जाति ज़िन्दगी में इस प्रकार का कोई प्रसंग नहीं मिलता। शायरी करते और यार दोस्तों में फक्कड़ घूमते कैफ़ जब बड़े हुए तो उनके आवारा मिजाज़ को देख कर घर वालों चिंता हुई। लिहाज़ा राह पर लाने की गरज़ से उनका निक़ाह इफ़्तिख़ार बानो से कर दिया गया ताकि घर चलाने की फ़िक्र में वो कोई काम धंधा करें। सीधी सादी घरेलू बानो न खुद शायरा थीं न उनकी शायरी में कोई दिलचस्पी थी अलबत्ता किफ़ायत से घर चलाना उन्हें आता था। कैफ़ साहब को उन्होंने शायरी के लिए पूरी छूट दे कर घर चलाने के साथ साथ चार बेटी और एक बेटे को पालने की ज़िम्मेदारी भी अपने सर ओढ़ ली। ऐसा नहीं है कि कैफ़ साहब को घर की आर्थिक स्तिथि का अंदाज़ा नहीं था लेकिन वो अपनी फक्कड़पन की आदत से मज़बूर थे। जब हालात बिगड़े और नौबत फ़ाक़ा मस्ती तक आ गयी तो उन्होंने रियासत पठारिया में 30 रु महीने की नौकरी कर ली। मगर उनकी आज़ाद तबियत नौकरी की बंदिशों को ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त न कर सकी.और उन्होंने नौकरी छोड़ उस वक्त देश में आज़ादी के लिए चल रही जंग में अपनी बग़ावती शायरी के ज़रिये नया जोश भरने का बीड़ा उठा लिया। उन दिनों भोपाल में अंग्रेज़ों के खिलाफ 'प्रजामंडल' संस्था का गठन किया गया था जिसके कैफ़ साहब जागरूक कार्यकर्ता बन गए और बहुत सी मशहूर इंक़लाबी नज़्में लिखीं। उनकी नज़्म 'दुनिया में वफ़ाओं का सिला है कि नहीं है , मेरा कोई हस्सास ख़ुदा है कि नहीं है'  बहुत मकबूल हुई। अंग्रेज़ों ने उनके बगावती तेवर देख कर उन्हें जेल में डाल दिया।      

मयकशों आगे बढ़ो तश्ना लबो आगे बढ़ो 
अपना हक़ माँगा नहीं जाता है छीना जाय है 

आप किस किस को भला सूली चढ़ाते जाएंगे 
अब तो सारा शहर ही मन्सूर बनता जाय है 
मन्सूर: एक संत जिसे सच बोलने के ज़ुर्म पर सूली चढ़ा दिया गया  
*
दाग़ दुनिया ने दिये, ज़ख्म ज़माने से मिले 
हमको तोहफ़े ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले 

हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे  
वो फ़लाने से, फ़लाने से, फ़लाने से मिले 
*
जिस्म पर बाकी ये सर है क्या करूँ 
दस्ते-क़ातिल बे हुनर है क्या करूँ 

चाहता हूँ फूँक दूँ इस शहर को 
शहर में उनका भी घर है क्या करूँ 

कैफ़ मैं हूँ एक नूरानी किताब 
पढ़ने वाला कम नज़र है क्या करूँ 
*
आ तेरे मालो-ज़र को मैं तक्दीस बख्स दूँ 
आ अपना मालो-ज़र मिरी ठोकर में डाल दे 
मालो-ज़र : धन दौलत , तक्दीस : पवित्रता 
 
मैंने पनाह दी तुझे बारिश की रात में 
तू जाते जाते आग मेरे घर में डाल दे 
*
चलते हैं बच के शैख़-ओ-बरहमन के साये से 
अपना यही अमल है बुरे आदमी के साथ 

देश आज़ाद हो गया और कैफ़ साहब को भी जेल से रिहाई मिल गयी। आज़ादी के बाद देश में उपजे हालात कैफ़ साहब को बेचैन करने लगे। उन्हें अपनी धरती के बँटने का बहुत दुःख था।  उनका स्वास्थ बिगड़ने लगा। ये उनकी ज़िन्दगी का सबसे बुरा दौर था। उनका ये हाल देख उनके दोस्त अख्तर अमानउल्ला खान उन्हें मुंबई ले आये जहाँ उनकी मुलाक़ात क़माल अमरोही से हुई. क़माल साहब खुद बेहतरीन शायर थे लिहाज़ा उन्हें कैफ़ साहब की शायरी बहुत पसंद आयी. क़माल साहब ने अपनी फिल्म 'दायरा' का एक भक्ति गीत कैफ़ साहब से लिखवाया 'देवता तुम हो मेरा सहारा " जो बहुत मक़बूल हुआ। ये बात 1953 की है। कमाल उन दिनों मीना कुमारी जी को लेकर एक यादगार भव्य फिल्म बनाना चाहते थे। उस फिल्म का मुहूर्त हुआ सन 1956 में, जिसका नाम था 'पाक़ीज़ा' और जो 16 साल बाद रीलीज़ हुई। इस फिल्म के दो गाने कैफ़ साहब ने लिखे थे ' चलो दिलदार चलो ' और ' आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे '  मज़े की बात है कि दोनों ही गाने सुपर हिट हुए। 'पाक़ीज़ा' के गाने 'चलो दिलदार चलो' के पीछे की कहानी बताता चलता हूँ हालाँकि उसका कैफ़ साहब से कोई लेना देना नहीं है लेकिन चूँकि ये गाना कैफ़ साहब ने लिखा इसलिए बता रहा हूँ। 
'पाक़ीज़ा' बनते बनते मीना कुमारी जी को सिरोसिस ऑफ लिवर की बीमारी ने जकड़ लिया था और वो शूटिंग पर भी कभी नहीं आ पाती थीं। 'चलो दिलदार चलो' गीत मीना जी पर फिल्माए जाने वाले मुज़रे के सीन के लिए लता मंगेशकर जी की आवाज़ में रिकार्ड हुआ था। किसी कारण वश बाद में उसे राजकुमार और मीना जी पर फिल्माने का विचार किया गया और गाना फिर से लता जी के साथ रफ़ी साहब को लेकर युगल स्वर में रिकार्ड किया गया। ये रफ़ी साहब का अकेला सुपर हिट गाना है जिसमें उन्होंने सिर्फ़ गाने के मुखड़े की एक लाइन गाई है और एक आलाप लिया है, बस। मीना जी चूंकि बीमार थीं इसलिए राजकुमार के साथ उनके बॉडी डबल के रूप में पद्मा खन्ना को लिया गया जिसमें उनका चेहरा दिखाई नहीं देता। लगभग साढ़े तीन मिनट के इस अद्भुत गाने में राजकुमार और मीना कुमारी के बॉडी डबल की उपस्तिथि सिर्फ दस या बारह सेकेण्ड की है , कैमरा सारे गाने में सिर्फ झील, नाव, बादल, आकाश और चाँद पर ही घूमता रहता और आपको पता भी नहीं चलता।ये गीतकार, संगीतकार, कैमरामैन और निर्देशक के कमाल का गाना है। फ़िल्मी दुनिया में उन्होंने बहुत से गाने नहीं लिखे।फ़िल्म रज़िया सुलतान और शंकर हुसैन के गाने ही उन्होंने लिखे।  शंकर हुसैन फिल्म एक ऐसी फिल्म थी जो सिर्फ़ अपने गानों के कारण याद रही। उसी फिल्म का एक गाना जिसके बोल फिल्म में थोड़े बदले हुए हैं यूँ है

इंतिज़ार की शब में चिलमनें सरकती हैं 
चौंकते हैं दरवाज़े, सीढ़ियां धड़कती हैं 

आज उनका ख़त आया, चाँद से लिफ़ाफ़े में 
रात के अँधेरे में चूड़ियाँ चमकती हैं  

बार बार आती हैं उस गली की आवाज़ें 
पाँव डगमगाते हैं पिंडलियाँ लचकती हैं 

चांदनी के बिस्तर पर रात जब चमकती है 
बिन किसी के खनकाये चूड़ियाँ खनकती हैं  

(आप यूँ करें कि इस लेख को यहीं छोड़ शंकर हुसैन के इस गाने को गूगल की मदद से सामने लाएं और फिर ईयर फोन लगा कर आँखें बंद कर इसे सुनें। कसम से ये गाना आपको किसी और ही दुनिया में ले जाएगा ) 

दरअसल फ़िल्मी दुनिया कैफ़ साहब जैसे फ़क़ीराना मिजाज़ इंसान के लिए थी ही नहीं लिहाज़ा वो उसे छोड़छाड़ कर भोपाल आ गए।  'कैफ़ साहब का मन मुशायरों में, नशिस्तों में लगता था। वो थे भी मुशायरों के शायर। उनकी मौजूदगी मुशायरे की क़ामयाबी की गारंटी मानी जाती थी। वो एक शहर के मुशायरे से दूसरे शहर के मुशायरे तक बस चलते ही रहते। लगातार घूमना उन्हें पसंद था। निदा फ़ाज़ली अपनी किताब 'चेहरे' में लिखते हैं कि "मैं अमरावती के निकट बदनेरा स्टेशन पर मुंबई की गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था। गाड़ी लेट थी। मैं समय गुज़ारने के लिए स्टेशन से बाहर आया। एक जानी-पहचानी मुतरन्निम आवाज़ ख़ामोशी में गूंज रही थी। यह आवाज़ मुझे कुलियों, फ़क़ीरों और तांगे वालों के उस जमघट की तरफ़ ले गयी जो सर्दी में एक अलाव जलाये बैठे थे और उनके बीच में 'कैफ़ भोपाली' झूम-झूम कर उन्हें ग़ज़लें सुना रहे थे और अपनी बोतल से उनकी आवभगत भी फरमा रहे थे। श्रोता हर शेर पर शोर मचा रहे थे।  
कैफ़ को दुनिया से बहुत ऐशो आराम की ख़्वाहिश नहीं थी, लेकिन शराब उनके शौक में पहले पायदान पर थी प्रत्येक शहर के रास्ते मकान और छोटे-बड़े शहरी उन्हें अपनी बस्ती का समझते थे। वे मुशायरों के लोकप्रिय शायर थे। जहां जाते थे, पारिश्रमिक का अंतिम पैसा ख़र्च होने तक वे वहीं घूमते-फिरते दिखाई देते थे। एक मुशायरे से दूसरे मुशायरे के बीच का समय वे इसी तरह गुज़ारते थे। उनकी अपनी कमाई शराब एवं शहर के ज़रूरतमंदों के लिए होती थी। अन्य ख़र्चों की पूरी ज़िम्मेदारी उसी मेज़बान की होती थी, जो मुशायरे का संयोजक होने के साथ उनका प्रशंसक भी होता था। विशिष्ट तरन्नुम में शेर सुनाते थे। शेर सुनाते समय, आवाज़ के साथ पूरे जिस्म को प्रस्तुति में शामिल करते थे। जिस मुशायरे में आते थे, बार-बार सुने जाते थे। हर मुशायरे में उनकी पहचान खादी का वह सफेद कुर्ता-पायजामा होता था जो विशेष तौर से उसी मुशयारे के लिए किसी स्थानीय खादी भंडार से ख़रीदा जाता था।"

हाय लोगों की करम फ़र्माइयाँ 
तोहमतें, बदनामियाँ, रुस्वाइयाँ 

ज़िन्दगी शायद इसी का नाम है 
दूरियाँ, मज़बूरियाँ, तन्हाईयाँ 

क्या ज़माने में यूँ ही कटती है रात 
करवटें, बेताबियाँ, अंगड़ाईयाँ 

क्या यही होती है शाम-इन्तिज़ार 
आहटें, घबराहटें, परछाईयाँ     

 कैफ़ साहब ने ग़ज़लों अलावा आकाशवाणी के लिए बहुत से नाटक, नौटंकी और गीत लिखे।  वो अपनी ज़्यादातर शायरी कोड शब्दों या बिंदुओं में लिखते थे और वक़्त मिलने पर उसे उर्दू लिपि में बदल लेते थे। कैफ़ साहब को कभी सम्मान पाने या अवार्ड लेने की तमन्ना नहीं रही । अक्सर वो अपने सम्मान में होने वाले जलसों में जाने से भी कतराते थे। उन्हें 1989 में मध्यप्रदेश फिल्म जर्नलिस्ट की तरफ़ से 'फ़िल्म रत्न' , भारतीय भाषा साहित्य सम्मलेन में 'भारत भूषण ' सम्मान , आलमी उर्दू कांफ्रेंस में ' रियाज़ ख़ैराबादी अवार्ड' और उर्दू अकेडमी से 'मिराज मीर खां अवार्ड' आदि अनेक अवार्ड्स से सम्मानित किया गया। टैगोर की गीतांजली  अनुवाद बीच  छोड़ उन्होंने कुरान शरीफ़ का सरल आम उर्दू ज़बान में काव्य अनुवाद करने का फ़ैसला लिया। क़ुरान पाक के इस काव्य अनुवाद का कुछ भाग 'मफ़हूमूल कुरान'  शीर्षक से दुबई में छपा और बहुत पसंद किया गया। इस काम को भी वो कैंसर जैसी बीमारी के शिकंजे में आने की वजह से पूरा नहीं कर सके और 24 जुलाई 1991 के दिन इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़्सत हो गये।  

कौन आएगा यहाँ कोई न आया होगा 
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा 

दिल नादाँ न धड़क ऐ दिले नादाँ न धड़क 
कोई ख़त ले के पड़ौसी के घर आया होगा 

इस गुलिस्ताँ की यही रीत है ऐ शाख़े-गुल 
तूने जिस फूल को पाला वो पराया होगा 

गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो 
आँधियों ! तुमने दरख्तोंको गिराया होगा   
   
कैफ़ साहब के नवासे जनाब क़मर साक़िब की रहनुमाई में भोपाल के अदब नवाज़ लोगों ने उनकी जन्म शदाब्दी के अवसर पर भोपाल में 11 फरवरी 2017 को एक शानदार अंतर्राष्ट्रीय मुशायरे का आयोजन किया और साल भर तक उनकी याद में विभिन्न अदबी कार्यक्रम करते रहने का बीड़ा उठाया। इस मुशायरे में कैफ़ साहब की बेटी शायरा डा. परवीन कैफ़ ने भी हिस्सा लिया। परवीन जी ने कैफ़ साहब की शायरी पर डॉक्टरेट की है।  
17 सितम्बर 2017 को भोपाल में मध्यप्रदेश उर्दू अकेडमी द्वारा 'याद-ए-कैफ़' मनाया गया जिसमें कैफ़ साहब पर तीन सत्रों में अलग अलग कार्यक्रम हुए। इसके अलावा हाल ही में भोपाल के शाहजहां बाद में एक लाइब्रेरी भी उनके नाम से खोली गयी। 
कैफ़ साहब की यादें आज भी उन शहरों कस्बों और गावों के लोगों में बसी हुई है जहाँ जहाँ उन्होंने अपनी शायरी सुनाई। 
आख़री में उनके कुछ और शे'र आपको पढ़वा कर विदा लेता हूँ।      
 

घटा छाई हुई है, तू ख़फ़ा है, रिन्द प्यासे हैं 
ये क़त्ले आम, क़त्ले आम, क़त्ले आम है साकी 

मिरी क़िस्मत की मुझको कब मिलेगी मैं ये क्यों सोचूँ 
ते तेरा काम, तेरा काम, तेरा काम है साकी 
*
सवाल ये था के अब इसके बाद क्या होगा 
दिये ने रख ली सरे-आम, आफ़्ताब की बात 
*
महफ़िल में देखते हैं कुछ इस ज़ाविये से वो 
हर शख़्स कह रहा है के मैं ख़ुशनसीब हूँ  
*
मत किसी से कीजिये यारी बहुत 
आज की दुनिया है व्यापारी बहुत 

वो हमारे हैं न हम उनके लिये 
दोनों जानिब है अदाकारी बहुत 
*
जब कहा है रोटी को चाँद सा हंसी मैंने 
क़हक़हे लगाये हैं मसखरे अदीबों ने 
*
ये दौर वो है के संजीदा हो गये दोनों 
न अब जवान है राँझा न हीर है कमसिन 
*
समझाते हैं नासेह मुझे इश्क़ के नुक्ते 
पूछो के मियाँ तुमने कभी इश्क़ किया भी 
*
बरगद की छाँव में भी तो सोते हैं लोग-बाग 
हम ढूँढ़ते फिरें तिरी ज़ुल्फ़ों के साए क्यों 
*
ज़िन्दगी बाप की मानिंद सज़ा देती है 
रहम दिल माँ की तरह मौत बचाने आई 
*
दुनिया को चंद लोग समझते हैं पायदार 
ये कितनी पायदार है ठोकर लगा के देख  

38 comments:

Unknown said...

अद्भुत ।परिचय देने का आपका अंदाज बहुत विशिष्ट है।

Ramesh Kanwal said...

आज उनका ख़त आया, चाँद से लिफ़ाफ़े में
रात के अँधेरे में चूड़ियाँ चमकती हैं

बार बार आती हैं उस गली की आवाज़ें
पाँव डगमगाते हैं पिंडलियाँ लचकती हैं

चांदनी के बिस्तर पर रात जब चमकती है
बिन किसी के खनकाये चूड़ियाँ खनकती हैं
बहुत बुलंद पाए के शायर से मिलवाया आप ने
शुक्रिया

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद आपका हनुमानजी

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया रमेश जी...

कर्नल तिलक राज (सेवा निवृत्त चीफ़ पी एम जी) said...

बहुत-बहुत बधाई हो । आपने बहुत ही बढ़िया ढंग से क़ैफ भोपाली जी के जीवन और उनकी अनमोल शाइरी से रूबरू करवाया है ।आपके क़लम का कमाल देखा और आनन्द से सराबोर हो गया ।आपका तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।

Manoj Mittal said...

कैफ़ भोपाली उन शायरों में थे जिन्हें लोग पसंद ही नहीं करते थे बल्कि प्यार करते थे। उनके माइक पर आते ही लोग हंसने लगते उनके चेहरे खिल जाते और कलाम पर दाद ओ तहसीन की बारिश होती थी।
आपने उनकी शायरी की किताब पर लिखकर एक निहायत उम्दा काम किया है। हमेशा की तरह दिलचस्प बयान के साथ कैफ़ भोपाली साहब के अशआर इस मज़मून को जिला दे रहे हैं। मुबारकबाद भी और शुक्रिया भी।

Rashmi sharma said...

Waaaaaaaaaaah waah waaaaaaaaaaah waaaaaaaaaaah zindabad

Unknown said...

जिंदगी बाप को मानींद सजा देती है,
रहम दिल माँ की तरह मौत बचाने आई।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सुन्दर समीक्षा।
जानकारी के लिए धन्यवाद।

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया तिलक साहब

नीरज गोस्वामी said...

जी शुक्रिया मनोज भाई

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया रश्मि जी

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद शास्त्री जी

नीरज गोस्वामी said...

कैफ भोपाली के कुछ नया शेरों से परिचय कराने के लिए आपका जितना धन्यवाद दूं कम पड़ेगा। मैं शुरुआत के दिनों में जब नहीं जानता था कि ग़ज़ल में रदीफ़ होता है काफिया होता है तो जगजीत सिंह के गाए हुए गजलों को कविता कोश पर खंगालते हुए इनसे परिचय हुआ था। आज के तीन चार साल पहले, उसी समय से इनका बहुत बड़ा वाला फैन रहा हूं। आपने इनके कुछ ऐसे शेरों से परिचय कराया जो फेसबुक पर दूसरे नाम से टहलते रहे हैं।

कुछ बहुत नया शेरों से परिचय कराया आपने और इनके जीवन दर्शन करा कर मुझे धन्य कर दिया।

इस पूरे लेख को मैं तीन से चार बार पढ़ने के बाद कह सकता हूं कि अब तक लिखे गए गजलकारों पर आपके लेख अथवा समीक्षा में यह सबसे बेहतरीन समीक्षा है।

ना अब कैफ भोपाली जैसे शायर हैं ना वैसी शायरी। आज के तड़क-भड़क में चांद भी बिल्डिंग के पीछे छुप गया है

त्रिपाठी
गोरखपुर

नीरज गोस्वामी said...

किताबों की दुनिया 223
सबसे पहले नीरज गोस्वामी जी और अनवारे इसलाम जी को दिली मुबारकबाद के आप लोगों ने क़ैफ भोपाली जी को आम अवाम तक पहुंचाने की हिम्मत कि"आज उनका ख़त आया "के हवाले से नीरज जी आप जैसे लोगों से अदब ज़िंदा और ताविंदा है नीरज जी जिस काम को भी करते हैं तो उसे यकीनन तारिख़ी दस्तावेज़ में तब्दील कर देते ये क़ुव्वतें ख़ुदा हर किसी की झोली में नहीं डालता है वो बहुत मख़्सूस लोग होते हैं क़ैफ भोपाली साहिब के बारे में इतनी तवीली मालूमात पेश करना और क़ारी तक पहुंचाना कोई आसान काम नहीं ऐसे ही ये"उनवान आनंद लेना है तो फुरसत में पढ़ें"नहीं बना इस के पीछे सालों की लगन और मेहनत है मैं आपकी काविशों को सलाम करता हूं परमात्मा आप को अच्छी सेहत और उम्र दराज़ी का सिला दे दुआ गो ख़ाकसार

सागर सियालकोटी
लुधियाना

नीरज गोस्वामी said...

कैफ साहब का क्या कहना दिल में बसर करने वाले मोहतरम शायर 🙏🙏

प्रमोद कुमार
दिल्ली

नीरज गोस्वामी said...

लाजवाब बेमिसाल शायर भी और आपका आँकलन भी नीरज जी

ब्रजेंद्र गोस्वामी
बीकानेर

Ajay Agyat said...

बेहतरीन शायरी से रू ब रू कराने के लिए धन्यवाद

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति.

Gyanu manikpuri said...

बेहद खूबसूरत प्रस्तुति के लिये बधाई सर। सादर प्रणाम

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद ग्यानू जी

Mumukshh Ki Rachanain said...

बेहतरीन समीक्षा प्रस्तुत करने हेतु एक बार फिर से आपका हार्दिक आभार... कैफ साहब के तांमम पहलुओं से अवगत कराने का शुक्रिया

कभी होता नहीं महसूस, वो यूँ क़त्ल करते हैं
निगाहों से,कनखियों से,अदाओं से, इशारों से

तिलक राज कपूर said...

कैफ़ भोपाली साहब के बारे में जितना आपने यहाँ बताया, इतना तो भोपाल के बहुत से शायरों को भी पता नहीं होगा। कहाँ कहाँ से लाते हैं आप इतना विवरण। पढ़ते-पढ़ते हर दृश्य जीवंत हो रहा था।
वाहः।

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया गुप्ता जी

नीरज गोस्वामी said...

तिलक साहब ये आपकी सोहबत का नतीजा है 🌹❤️🌹

haidabadi said...

Bahut achha laga

mgtapish said...

तेरा चेहरा कितना सुहाना... हमने कैफ़ साहब से गाज़ियाबाद के एक मुशायरे में सुनी थी यादें ताज़ा हो गई
उनका व्यक्तित्व हाव भाव लोगों से अलग ही थे आँखों में सुरमा पगड़ी के नाम पर एक सफ़ेद कपड़ा गोल कर के सर पर रखा हुआ सफ़ेद कपड़ों में अलग ही दिखते थे
लेख के लिए बहुत बहुत बधाई
moni gopal 'tapish'

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

अज़ीम शायर कैफ़ भोपाली साहिब के बहुत से अशआर तो सुने थे उनका नाम भी सुना था लेकिन उनकी अज़ीम शख़्सियत से जिस अंदाज़ में तआरुफ़ आपने करवाया है बेमिसाल है।

शायर की कहानी सुनाने का आपका जादुई अंदाज़ आख़िरी लफ़्ज़ तक बाँधे रखता है। पढ़वाने की यह शैली ऐसी है मानो आपके रूबरू हो कर आपको सुन रहे हों।

आप यूँ ही सुनाते रहें
🙏🌹

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya chaand bhai

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया मोनी भाईसाहब.. स्नेह बनाए रखें

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया द्विज भाई

सुनील गज्जाणी said...

बेहद खूबसूरत कलाम.. कैफ़ साब को नमन !

DEEPAK BANKE said...

नमस्कार सर जी. बहुत अच्छा.

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद सुनील भाई

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया दीपक जी

arun prakash said...

आनन्द आ गया कैफ़ी आज़मी के शेरो को पढ़ कर
साधुवाद आपको