Friday, January 30, 2009

ये आदमी मरता क्यूँ नहीं है





कुछ लोग बहुत विलक्षण होते हैं. चुपचाप ऐसे काम कर जाते हैं जिसकी कल्पना आम इंसान कभी कर ही नहीं पाता, ऐसे ही एक विशेष दंपत्ति हैं संजय और सुधा भारद्वाज. लम्बी चौडी भूमिका के बिना आप को बता हूँ की एक दिन श्री विजय जी का एक मेल आया जिसमें उन्होंने लिखा की उनकी कविता और उस पर बने चित्र को एक पोस्टर प्रदर्शनी में चुन लिया गया है इसलिए मैं उसे देखने पूना आऊं. विजय जी से एक आध बार उनकी पोस्ट को लेकर मेल का आदान प्रदान हुआ था बस इतनी ही पहचान थी उनसे. प्रदर्शनी २३,२४ व् २५ जनवरी को पूना में थी इसलिए जाने की कोई विशेष समस्या नहीं थी. विजय जी ने २३ को पूना पहुँच कर फोन किया और आने का आग्रह किया. पता नहीं उनके बुलाने में ऐसी क्या बात थी की मैं अपने आप को रोक नहीं पाया और बेहत व्यस्त कार्यक्रम को बीच में छोड़ शाम पूना के लिए निकल गया.

रास्ता पूछते पूछते आख़िर मंजिल तक पहुँच ही गया और जैसे ही प्रदर्शनी हाल में घुसा,अवाक रह गया. बेहद मार्मिक रचनाओं और चित्रों का आतंकवाद के विरुद्ध ऐसा प्रदर्शन ना कभी देखा और सुना था . बिना भारी भरकम नारों के, शोर शराबे के एक एक चित्र अपनी कहानी स्वयं कह रहा था.

विजय जी को उनके ब्लॉग (http://poemsofvijay.blogspot.com)पर छपी तस्वीर से पहचान लिया, वे मुझसे मिल जितने प्रसन्न हुए उससे कई गुना मैं उनसे मिल कर हुआ क्यूँ की उन्ही की बदौलत मुझे इस प्रदर्शनी को देखने का सुअवसर मिला था. विजय जी निहायत ही संवेदनशील कवि हैं उनकी बातों और हाव भाव में एक छोटा बच्चा छिपा मिलता है जो अपने आसपास के माहौल से दुखी भी है और किसी अच्छी चीज को देख तालियाँ भी बजाता है. उनकी बड़ी बड़ी आंखों में बहुत से अधूरे हसीन ख्वाब हैं जिन्हें पूरा करने में वे अपनी पूरी ऊर्जा लगाते नहीं थकते. आज के युग में इतने विनम्र व्यक्ति का मिलना किसी अजूबे से कम नहीं.

विजय जी ने ही भारद्वाज दंपत्ति से मेरा परिचय करवाया जिनसे मिलना उस शाम की एक न भुलाये जा सकने वाली घटना थी. पहली ही मुलाकात में इतनी आत्मीयता इस दंपत्ति ने दिखाई की मैं भाव विभोर हो गया. मैंने इस अद्भुत आयोजन के लिए उन्हें दिल से बधाई दी. प्रदर्शनी श्री संजय और उनकी पत्नी सुधा भरद्वाज जी के अथक मेहनत का परिणाम थी. पोस्टर प्रदर्शनी का शीर्षक था "शब्द युद्ध- आतंक के विरुद्ध" .

हालाँकि विजय जी ने इस पोस्टर प्रदर्शनी के बारे में अपने ब्लॉग( http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/01/blog_26.html) पर बहुत खूबसूरती से लिखा है और मेरे लायक कुछ अधिक नहीं छोड़ा है फ़िर भी कोशिश करता हूँ की जो उनसे छूट गया है उसे पेश करूँ.
सबसे अधिक प्रभावित करने वाली जो बात थी वो ये की पोस्टर प्रदर्शनी को देखने आए युवाओं में जबरदस्त उत्साह था.वो प्रत्येक रचना और चित्र को ध्यान से देखते और प्रतिक्रिया करते.(युवाओं का ऐसे संवेदन शील विषय के प्रति रुझान देख कर बहुत अच्छा लगा.



प्रदर्शित रचनाओं में कुछ स्थानीय कवि शायर थे और कुछ ख्याति प्राप्त नाम भी. मेरे लिए सम्भव नहीं है की मैं आपको प्रर्दशित हर रचना को पढ़वा पाऊं लेकिन कोशिश करूँगा की आप को प्रदर्शित रचनाओं की एक छोटी लेकिन ईमानदार झलक दिखा सकूँ.


प्रदर्शनी में गुलज़ार साहेब की एक नज़्म है जो सबकी आकर्षण का केन्द्र बनी हुई थी...कितने कम शब्दों में गुलज़ार साहेब क्या कुछ नहीं कह जाते ये देखिये इस नज़्म में :

कुछ बेवा आवाजें अक्सर
मस्जिद के पिछवाडे आकर
ईंटों की दीवारों से लगकर
पथराये कानो पे
अपने होंठ लगा कर
एक बूढे अल्लाह का मातम करती हैं
जो अपने आदम की सारी नस्लें
उनकी कोख में रख कर
खामोशी की कब्र में जाकर लेट गया है

मशहूर शायर निदा फाजली साहेब की एक ग़ज़ल भी यहाँ प्रदर्शित जिस के ऊपर के एक चित्र में ताज होटल की गुम्बद से निकलता धुआं दिखाई दे रहा है. निदा साहेब फरमाते हैं:



इंसान में हैवान यहाँ भी है वहां भी
अल्लाह निगेहबान यहाँ भी है वहां भी

खूंखार दरिंदों के फकत नाम अलग हैं
शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहां भी

हिंदू भी मजे में है मुसलमाँ भी मजे में
इन्सान परेशान यहाँ यहाँ भी है वहां भी

उठता है दिलो जां से धुआं दोनों तरफ़
ये मीरका दीवान यहाँ भी है वहां भी


श्री बाल स्वरुप राही और गोपाल दास नीरज जी की ग़ज़लों को एक साथ प्रदर्शित किया गया था जिसमें नीरज जी के ये दो शेर पढने वाला हमेशा के लिए अपने साथ ले जाता है:

प्यार की धरती अगर बन्दूक से बांटी गयी
एक मुर्दा शहर अपने दरमियाँ रह जायेगा

आग लेकर हाथ में पगले जलाता है किसे
जब न ये बस्ती रहेगी तू कहाँ रह जाएगा

श्री उदय प्रकाश, अरुण कमल, तेजेंद्र शर्मा, दिव्या माथुर, संजय भारद्वाज, सुधा भारद्वाज जैसे अनेक ख्याति प्राप्त रचनाकारों के बीच स्थानीय युवा रचनाकार श्री राजेंद्र श्रीवास्तव ( 09371456630 ) जो पूना में बैंक आफ महाराष्ट में उच्च अधिकारी हैं की रचना "हत्यारों के प्रति" बहुत प्रभावित कर गयी:



आयीए
हम मुश्किल चीजों पर कुछ बात करें
बड़ा मुश्किल है
किसी निर्दोष व्यक्ति को मार देना
उस व्यक्ति को मारना तो और कठिन है
जो अपनी बूढी माँ
या फ़िर अपने बच्चों के लिए
रिजक(धन) कमा कर ले जा रहा हो
थोड़ा और मुश्किल है
उस दुल्हिन की हत्या करना
जिसके अधरों पर लाली, हाथों पर मेहँदी
देह में ऋतुओं की गंध
और आंखों में रतजगे का खुमार अभी बाकी हो !
सोच से भी परे तकलीफदेह काम है
मार देना उस बच्ची को
जिसके चेहरे पर बचपन की मासूमियत
और चमकीली हँसी
अभी पूरी तरह आकार भी न ले सकी हो
ऐसे बड़े सारे मुश्किल काम हैं
पर इन तमाम चीजों से भी
कठिन बर्बर और जघन्य कार्य है
किसी व्यक्ति को संवेदना शून्य कर देना
प्रेम, कोमलता, भय, करुणा जैसी
समस्त भावनाओं को सोख कर
उसके मन को उजाड़ रेगिस्तान बना देना
उसकी धमनियों में बहते सभी रसों को
निचोड़कर उनमें ज़हर भर देना
घिन नहीं आती तरस आता है तुम्हारे हाल पर
तुम्हारी ऐसी दुर्गति किसने की दयनीय हत्यारों

रोंगटे खड़े कर देने वाली इस रचना को जिसने पढ़ा वाह वा कर उठा और इसी वाह वा में शब्द-युद्ध का ये आयोजन अपने मकसद में कामयाब भी हुआ. आतंकवाद को एक दिन विदा होना ही होगा ये निश्चित है लेकिन इस की विदाई से पूर्व कितनो का खून बहेगा कह पाना मुश्किल है. संजय भारद्वाज जी


की इस विलक्षण रचना "ये आदमी मरता क्यूँ नहीं है"
से मैं अपनी इस पोस्ट का समापन करता हूँ.


हार कबूल करता क्यूँ नहीं है
ये आदमी मरता क्यूँ नहीं है
कई बार धमाकों से उड़ाया जाता है
गोलियों से परखच्चों में बदल दिया जाता है
ट्रेनों की छतों से खींच कर
नीचे पटक दिया जाता है
अमीर जादों की "डरंकन ड्राइविंग"
के जश्न में कुचल दिया जाता है.......
कभी दंगों की आग में
जला कर ख़ाक कर दिया जाता है
कहीं बाढ़ रहत के नाम पर
ठोकर दर ठोकर कत्ल कर दिया जाता है
कभी थाने में उल्टा लटकाकर
दम निकलने तक बेदम पीटा जाता है
कभी बराबरी जुर्रत में
घोडे के पीछे बाँध कर खींचा जाता है
सारी ताकतें चुक गयीं
मारते मारते ख़ुद थक गयीं
न अमरता ढोता कोई आत्मा है
न अश्वथामा न परमात्मा है
फ़िर भी जाने इसमें क्या भरा है
हजारों साल से सामने खड़ा है
मर मर के जी जाता है
सूखी जमीन से अंकुर सा फूट आता है
ख़त्म हो जाने से डरता क्यूँ नहीं है
ये आदमी मरता क्यूँ नहीं है

ये प्रदर्शनी मेरे ख्याल से हर भारतवासी को एक बार जरूर देखनी चाहिए, इसलिए इसे हर गावं शहर के स्कूलों कालेजों या सार्वजनिक स्थलों पर लगाना चाहिए. आप अपने शहर गावं स्कूल या कालेज में जहाँ चाहे इसके प्रदर्शन की व्यवस्था श्री संजय भारद्वाज जी से सीधे उनके मोबाईल 09890122603 पर बात कर के कर सकते हैं या उनके ई मेल sanjaybhardwaj@hotmail.com पर संपर्क कर सकते हैं लेकिन दोनों ही हालात में आप उनके इस अभूतपूर्व काम की मुक्त कंठ से प्रशंशा जरूर करें.

Tuesday, January 27, 2009

लेकिन पीटो ढोल मियां


पहले मन में तोल मियां
फ़िर दिल की तू बोल मियां

जो रब दे मंजूर हमें
हम तो हैं कशकोल* मियां
*कशकोल= भिक्षा पात्र, फकीरों का कटोरा

चाहे कुछ मत काम करो
लेकिन पीटो ढोल मियां

किन रिश्तों की बात करें
सबमें दिखती पोल मियां

बातें रहतीं याद सदा
उनमें मिशरी घोल मियां

जो भी आता हाथ नहीं
लगता है अनमोल मियां

"नीरज" सच्चे मीत बिना
जीवन डाँवाडोल मियां


( आप को याद होगा किसी ज़माने में गुरु शिष्य किसी काम से खुश हो कर उसे प्रोहत्साहन के रूप में एक आध टॉफी,मीठी खाने वाली गोली या फ़िर पीठ पर धोल जमा दिया करते थे.....कुछ ऐसा ही इस ग़ज़ल को इस्लाह के भेजने के बाद गुरुदेव पंकज जी ने मेरे लिए किया और खुश हो कर ईनाम स्वरुप चार शेर भेज दिए...आप भी पढिये )

भागो कब तक भागोगे,
दुनिया है ये गोल मियां

मीत अगर ग्राहक हो तो,
बिक जाओ बिन मोल मियां

हिम्‍मत वालों ने बदला
दुनिया का भूगोल मियां

कोई आया है बाहर
दिल की खिड़की खोल मियां

Monday, January 19, 2009

किताबों की दुनिया - 4

आजकल जयपुर जाने पर जो एक जरूरी काम होता है वो है वहां के क्रास वर्ल्ड की सैर. अमूनन यहाँ अग्रेजी किताबों का बाहुल्य होता है लेकिन जयपुर में कुछ हिन्दी की किताबें रखने का प्रचलन भी शुरू हो गया है. इसी के चलते यहाँ जाना शुरू किया. अब ये मत समझियेगा की मैं अंग्रेज़ी में कुछ पढता नहीं लेकिन अगर हिन्दी से तुलना करें तो बहुत कम. जो भाषा मैं बोलता सुनता हूँ उसे पढने में भला शर्म कैसी. अब सौभाग्य से अंग्रेज़ी में ग़ज़लों की किताबें भी तो नहीं मिलती.



वहीं मुझे अपने प्रिय युवा शायर "आलोक श्रीवास्तव" की पुस्तक "आमीन" दिखाई दी. आलोक को मैंने अंतरजाल में यहाँ वहां पढ़ा था और ये पाया था की वे अत्यन्त प्रतिभाशाली हैं. वो अपनी बात बहुत अलग ढंग से कहते हैं और खूब कहते हैं।
"आमीन" में वरिष्ठ लेखक कमलेश्वर जी और हर दिल अजीज शायर गुलज़ार साहेब के आलोक और उनकी शायरी के बारे में विचार दिए हुए हैं. अब आप ही बताईये जो मात्र पैंतीस छतीस साल की उम्र में ऐसे दोहे लिखे :
आंखों में लग जायें तो, नाहक निकले खून
बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून

गुलमोहर-सी ज़िन्दगी, धड़कन जैसे फाँस
दो तोले का जिस्म है, सो-सो तन की साँस

तो उसकी कौन तारीफ नहीं करेगा. "आमीन" एक बहुत आकर्षक आवरण में लिपटी आलोक की विभिन्न रचनाओं की ऐसी किताब है जिसके लफ्ज़ पढने वालों की आंखों से सीधे दिल में उतर जाते हैं.
कमलेश्वर लिखते हैं : आलोक की भाषा में हिन्दी के कुछ लिखित शब्द पिघल कर अपने आप आम फ़हम बन गए हैं और बेहद घरेलु शब्द 'तुरपाई' हमारी मसक गयी संवेदना की सिलाई कर देता है

घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा

सारे रिश्ते-जेठ -दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी सी पुरवाई अम्मा

बाबूजी गुजरे,आपस में सब चीजें तक्सीम हुईं, तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा

ग़ज़ल का ये नया ही नहीं, अनोखा अनुभव है. वैसे भी शेरो -शायरी में घरेलू छवियाँ बहुत कम मिलती हैं, हिन्दी कविता में से 'माँ' 'बाबूजी' वगैरह के अक्स बिल्कुल गायब ही हो गए हैं.
लीजिये, आलोक की ग़ज़लों में 'बाबूजी' से भी मिल लीजिये :-

अब तो उस सूने माथे पर कोरे पन की चादर है
अम्माजी की सारी सजधज, सब जेवर थे बाबूजी

भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग, अनूठा, अनभूझा सा एक तेवर थे बाबूजी

कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी

आलोक ने अमीर खुसरो के अंदाज़ में भी एक ग़ज़ल कही है, पढिये उस ग़ज़ल के चंद अशहार:-

दिलों की बातें दिलों के अन्दर, जरा सी जिद से दबी हुई हैं
वो सुनना चाहें जुबाँ से सब कुछ, मैं करना चाहूँ नजर से बतियाँ

मैं कैसे मानूँ बरसते नैनों कि तुमने देखा है पी को आते
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखी कलियाँ


"आमीन" के हर पन्ने पर ग़ज़ल का ये सौन्दर्य बिखरा पढ़ा है...आप कहीं से भी इसे पढ़ें, बिना वाह वा किए नहीं रह सकते. आलोक अपने हर अश्हार से हमें चमकृत करते हैं. भाषा का ऐसा प्रयोग बहुत कम देखने को मिलता है जैसा आलोक जी ने किया है, अब बानगी के तौर पर देहरी शब्द आपने ग़ज़लों में नहीं पढ़ा होगा लेकिन उसे किस खूबसूरती से इस्तेमाल किया है पढिये :

हम उसे आंखों की देहरी नहीं चढ़ने देते
नींद आती न अगर ख्वाब तुम्हारे लेकर

एक दिन उसने मुझे पाक नज़र से चूमा
उम्र भर चलना पढ़ा मुझको सहारे लेकर

आप उनकी शायरी में जीवन दर्शन भी बखूबी पाएंगे...कहीं कहीं तो उन्होंने दार्शनिकता का बेमिसाल नमूना पेश किया है

नवाजना है तो फ़िर इस तरह नवाज़ मुझे
कि मेरे बाद मेरा जिक्र बार बार चले

ये जिस्म क्या है कोई पैरहन उधार का है
यहीं संभाल के पहना, यहीं उतार चले

आज के दौर कि त्रासदी भी उनकी ग़ज़लों में दिखाई देती है...उनके लाजवाब रंग में रंगी एक ग़ज़ल के दो शेर पढिये:

नींद कि मासूम परियां चौंकती हैं
एक बूढा ख्वाब ऐसे खांसता है

चाँद से नजदीकियां बढ़ने लगी हैं
आदमी में फासला था, फासला है

ख्यालात और लफ्जों कि जादूगरी का नायाब नमूना पेश करते हुए उनके ये दो शेर पढ़ कर आप क्या कहेंगे...वाह वा..ही ना?

गनीमत है नगर वालों, लुटेरों से लुटे हो तुम
हमें तो गाँव में अक्सर दरोगा लूट जाता है

गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे
कभी मैं रूठ जाता हूँ ,कभी वो रूठ जाता है

इस छोटी सी किताब में कुल 91 पृष्ठ हैं लेकिन लगता है जैसे ज़ज्बात का कोई खजाना छुपा हुआ है इनमें. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य है 150 रु, इसके बारे में जानकारी आप राजकमल कि वेब साईट www.rajkamalprakashan.com , info@rajkamalprakashan.com पर पत्र व्यवहार द्वारा भी प्राप्त कर सकते हैं. इस पुस्तक की उपस्तिथि किसी भी काव्य प्रेमी द्वारा किए गए पुस्तक संकलन में चार चाँद ही लगायेगी.
चलते चलते एक शेर उनकी ग़ज़ल का जो मुझे बहुत पसंद है...आप भी पढिये और इसे खरीदने का निश्चय पक्का कीजिये

जाने क्यूँ मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते
पलकों से ही लौट गई है सपनो की बारातें सच

तो मित्रो अब आप इस किताब को खोजने के अभियान में जुटें तब तक मैं लेता हूँ विश्राम और उम्मीद करता हूँ आप से मिलने की एक और किताब के साथ थोड़े समय बाद...ऑफ विडर जेन ( जर्मन भाषा में इसका अर्थ हैं...फ़िर मिलते हैं)

Tuesday, January 13, 2009

सिर्फ इक मुस्‍कान से




जी रहे उनकी बदौलत ही सभी हम शान से
जो वतन के वास्ते यारों गए हैं जान से

जीतने के गुर सिखाते हैं वही इस दौर में
दूर तक जिनका नहीं रिश्‍ता रहा मैदान से

उसने देखा था पलट कर के हमें जिस मोड़ पर
आज तक भी हम खड़े हैं बस वहीं हैरान से

आग में नफरत की जलने से भला क्या फ़ायदा
शौक जलने का अगर है तो जलो लोबान से

शानौ शौकत माल दौलत चाह में शामिल नहीं
चाह है इतनी कटे ये जिंदगी सम्‍मान से

हार निश्चित है अगर तुमने समर्पण कर दिया
हौसलों की तेग लेकर लड़ पड़ो तूफान से

तीर से तलवार से बंदूक से ना तोप से
दुश्‍मनी तो खत्‍म होगी सिर्फ इक मुस्‍कान से

जिंदगी की रेस में तुम दौड़ते बेशक रहो
पर चले मत दूर जाना खुद की ही पहचान से

लोग वो 'नीरज' हमेशा ही पसंद आये हमें
भीड़ में जो अक्‍लमंदों की,मिले नादान से



( वो खुशनसीब हैं जिन्हें गुरु की डांट मिलती है...क्यूँ की डांटता वो ही है जो अपना समझता है... ये ग़ज़ल उसी का नतीजा है. शुक्रिया गुरुवर पंकज जी )

Tuesday, January 6, 2009

किताबों की दुनिया-3

कहने वाले दो मिसरों में सारा किस्सा कहते हैं
नाच नहीं जिनको आता वो आँगन टेढ़ा कहते हैं

जिस किताब की शुरुआत ऐसे शेर से हो उसे बिना ख़रीदे रह पाना मुश्किल था. इसीलिए मैंने जनाब विजय वाते साहेब की की लिखी ग़ज़लों की किताब "ग़ज़ल" खरीद ली और यूँ समझिये इसके साथ ही अपनी अकलमंदी का सबूत दे दिया.





किताब के बारे में मेरे कुछ लिखने से पहले जो जनाब बशीर बद्र साहेब ने उसके बारे में लिखा है वो पढ़ें. बशीर साहेब लिखते हैं की" विजय वाते ग़ज़ल के नए लेकिन अच्छे शायर हैं. उनकी नज़र आज की ज़िन्दगी के बहुत से पहलुओं पर है. वो अपनी ग़ज़ल में सच्ची ज़िन्दगी जीते हैं, इसलिए उनकी ग़ज़ल में मोहब्बत की यादों के चिराग रोशन हैं, प्यार के ख्वाब हैं, ज़िन्दगी की धूप है, शहरों और सड़कों की दौड़- भाग है, गाँव की कच्ची पक्की पगडंडियाँ हैं. इनके अधिकतर पात्र ज़िन्दगी को जीने वाले पात्र हैं. मैं उनकी ग़ज़लों को लेकर ,उनके शेरों के झरोखे से ऐसे कितने ही मंज़र देख सकता हूँ जहाँ कस्बों का अपनापन है, बड़े बड़े शहरों की प्यारी प्यारी बेरहम बेगानगी है, और ये सब कुछ अपना है. सिर्फ़ खूबसूरत ख्वाब ही अपने नहीं हैं,जुल्म करती सच्चईयाँ भी अपनी हैं. "

किताब की पहली ग़ज़ल से ही पढने वाला वाते साहेब की कलम का दीवाना हो जाता है. पहली ग़ज़ल के तीन शेर मुलाहिज़ा फरमाएं और फ़िर बताएं की कैसा लगा पढ़ कर:

एक पल में जी लिए पूरे बरस पच्चीस हम
आज बिटिया जब दिखी साडी तेरी पहनी हुई


अब छुअन में वो तपन वो आग बेचैनी नहीं
तू न घर हो, तो लगे, घर वापसी यूँ ही हुई

घर के मानी और क्या बस ये ही दो आँखें तो हैं
द्वार पर अटकी हुई बस राह को तकती हुई

वाते साहेब ग़ज़ल की सारी खूबियों के साथ आज की ज़िन्दगी को पेश करने में देखिये कैसे कामयाब हुए हैं:

जो मिला, जब जब मिला, दुनिया के ग़म लेकर मिला
आज मन है, आपसे घर-बार की बातें करें

अब बड़े घर में बुजुर्गों के, नहीं तीमारदार
आओ, मिलके उनसे कुछ उपचार की बातें करें

छत के गुण गाते हैं हम,जो दे रही हैं आसरा
छत टिकी कांधे पे जिस दीवार की बातें करें

छोटी बहर में वाते साहेब का कमाल देखें, उन्होंने उस विषय पर कलम चलाई है जिस पर अमूमन शायर नहीं लिख पाए हैं, याद कीजिये क्या कभी आपने दादी अम्मा पर कोई ग़ज़ल पढ़ी है? कमसे कम मैंने तो इस से पहले कभी नहीं पढ़ी थी और वो भी इस कदर दिलकश अंदाज़ में:

भोले भाले सवाल करती है
दादी अम्मा कमाल करती है

भूरे कुत्ते का, श्यामा गैया का
हम सभी का ख्याल करती है

हम जो मुन्ने को डांट देते हैं
आँख रो रो के लाल करती है

देह अपनी नहीं संभलती है
सारे जग का संभाल करती है

इसी अंदाज़ को उन्होंने अपनी अगली ग़ज़ल में भी बरक़रार रखा है लेकिन इस बार बिल्कुल अलग हट के बात कही है:

फ़िर से मिलने की बात मत करना
पीर झिलती नहीं जुदाई की

एक तक़रीर सिर्फ़ काफी है
क्या जरूरत दियासलाई की

तितलियाँ चढ़ गयीं हैं रिक्शों पर
पहली तारीख है जुलाई की

अब देखते हैं की उनका शायरी और ग़ज़ल के बारे में क्या नज़रिया है, पहले के दो शेर शायरी के बारे में और फ़िर दो अलग अलग ग़ज़लों से उनके शेर ग़ज़ल के बारे में मुलाहिज़ा फरमाएं:

पीर जब बेहिसाब होती है
शायरी लाजवाब होती है

शायरी तो करम है मालिक का
शायरी ख़ुद खिताब होती है

ग़ज़ल क्या होती है इस पर आप के बहुत से शायरों के हजारों शेर मिल जायेंगे यहाँ तक की हास्य कवि काका हाथरसी जी भी ग़ज़ल क्या होती है पर लिख चुके हैं अब वाते साहेब क्या फरमाते हैं ये पढिये:

हिन्दी-उर्दू में कहो या किसी भाषा में कहो
बात का दिल पे असर हो तो ग़ज़ल होती है

ग़ज़लें अख़बार की ख़बरों की तरह लगती हैं
हाँ तेरा ज़िक्र अगर हो तो ग़ज़ल होती है

इसी बात को एक दूसरी ग़ज़ल में आप यूँ कहते हैं:

उड़ती रहती हैं घटायें तो बहुत सी छत पर
मेघ जो आँख में ठहरे तो ग़ज़ल होती है

आती-जाती तो है ये रेल सभी जगहों से
जब तेरे गाँव से गुज़रे तो ग़ज़ल होती है

छोटी सी ग़ज़ल की ये किताब ऐसी ही बेमिसाल शायरी से भरी पढ़ी है. इसे वाणी प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है और इसका मूल्य मात्र चालीस रुपये रखा है.शायरी के दीवाने क्या इतनी सी रकम भी खर्च नहीं कर सकते? यदि कर सकते हैं तो फ़िर आप को रोक कौन रहा है जल्द ही वाणी प्रकाशन को लिखिए जिसका पता मेरी किताबों की दुनिया -१ पोस्ट पर मिल जाएगा और किताब मंगवा लीजिये...अब जब आपने पुस्तक मंगवाने का फ़ैसला कर ही लिया है तो ईनाम के तौर पर दो शेर और पढ़ते चलिए:

जैसे जैसे हम बड़े होते गए
झूठ कहने में खरे होते गए

जंगलों में बागबाँ कोई नहीं
इसलिए पौधे हरे होते गए

मिलते हैं एक नयी किताब के साथ कुछ समय बाद तब तक के लिए बाय बाय टाटा...

Friday, January 2, 2009

बांसुरी की तान से

सब से पहले तो इस ब्लॉग पर पधारे सभी पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाएं.

बड़ी दुविधा में था की नए साल की पहली पोस्ट क्या हो? मेरी कोई ग़ज़ल या फ़िर किसी पुस्तक की चर्चा. मित्रो कुछ ऐसा हुआ की इस दुविधा से मेरे गुरुदेव ने साफ़ निकाल लिया...हुआ यूँ की मैंने अपनी एक ग़ज़ल गुरुदेव पंकज सुबीर जी के पास दिसम्बर के अंत में इस्लाह के लिए भेजी थी. बढती सर्दी की वजह से वे बीमार पड़ गए और ग़ज़ल अब मिली. मेरी ग़ज़ल मिली सो मिली साथ में उन्होंने उसी बहर में अपने कुछ ऐसे नायब शेर भेज दिए जिन्हें पढ़ कर मैं अपनी ग़ज़ल भूल गया और तुंरत ये विचार कौंधा की क्यूँ ना इसे ही नव वर्ष की पहली पोस्ट बना कर पेश करूँ.


( गुरुदेव पंकज सुबीर जी मेरी ग़ज़ल ठीक करने के बाद आई निश्चिंत मुद्रा में )

मैं शिष्टाचार की सीमाओं का उलंघन करते हुए बिना उनसे पूछे उनके ये शेर नए वर्ष की पहली पोस्ट के रूप में आप सब के सामने रख रहा हूँ. मेरे विचार से गुरु वो होता है जो आपके द्वारा दिए गए काँटों को, खूबसूरत फूलों में परिवर्तित कर, फ़िर से आप को लौटाने का गुर जानता है. आदरणीय पंकज जी ने न सिर्फ़ मेरे काँटों जैसे शेरों को फूलों में परिवर्तित किया बल्कि अपनी और से एक गुलदस्ता भी भेंट में भेज दिया...जो आप के सामने है. मेरी ग़ज़ल फ़िर कभी...
(इस ग़ज़ल में मतला और मकता नहीं है सिर्फ़ शेर ही हैं....)

बांसुरी की तान से




क्या तुम्हें शब्दों में हम बतलायें, हमको क्या मिला
ग्रंथ साहब, बाइबल, गीता से और कुरआन से

चाहता और पूजता जिनको रहा मैं उम्र भर
आज मेरे पास से गुजरे वही अन्जान से

दोस्ती हरगिज करिये ऐसे लोगों से कभी
आंख से सुनते हैं जो और देखते हैं कान से

कल तलक खूंखार डाकू और हत्यारा था जो
देखिये बैठा है वो संसद में कितनी शान से

धर्म से करते हो जैसे, ज़ात से, परिवार से
वैसे थोड़ा प्यार करिये अपने हिन्दुस्तान से

कृष् को तो व्यर्थ ही बदनाम सबने कर दिया
राधिका का प्रेम तो था बांसुरी की तान से

पूछिये मत चांद सूरज छुप गये जाकर कहां
डर गये हैं जुगनुओं के तुगलकी फरमान से

दिल का टुकड़ा दे रहा है शुक्र उसका कीजिये
दान कोई भी बड़ा होता कन्यादान से