Monday, February 17, 2014

किताबों की दुनिया - 91

"किताबों की दुनिया" श्रृंखला अब अपने शतक की और बढ़ रही है। मुझे लगता है कि जैसे अभी तो शुरुआत ही हुई है। न जाने कितने शायर और उनकी शायरी अभी जिक्र किये जाने योग्य है। मैं कितनी भी कोशिश करूँ पर फिर भी मेरी कोशिश समंदर से उसके सिर्फ एक कतरे को आप तक पहुँचाने से ज्यादा नहीं होगी।

इन दिनों मुनव्वर राना जी के संस्मरण की किताब "जो हम पे गुज़री सो -" का पहला भाग "बगैर नक़्शे का मकान " (उर्दू में इसी नाम से छपी किताब का हिंदी तर्जुमा )पढ़ रहा हूँ , जिसमें उन्होंने बहुत से उर्दू शायरों का जिक्र कुछ इस दिलचस्प अंदाज़ में किया है कि दिल करता है कहीं से उनकी किताबें मिले और मैं पढूं , हम हिंदी वालों ने उन शायरों का नाम या उनका लिखा (कम से कम मैंने ) अभी तक न सुना न पढ़ा था। अलबत्ता अगर आप गद्य में शायरी कैसे की जाती का हुनर देखना चाहते हैं तो वाणी प्रकाशन से प्रकाशित, राना साहब की इस किताब के दोनों भाग जरूर पढ़ें। कहने का मतलब ये कि ये श्रृंखला यदि सालों साल चले तब भी बहुत से बेहतरीन शायरों का जिक्र इसमें होने से रह जाएगा।

चलिए आज की चर्चा शुरू करते हैं और आपको मिलवाते हैं एक ऐसे शायर से जिसने ज़िन्दगी की दुश्वारियों से निपटने का तरीका ग़ज़लगोयी में तलाश किया।

अब कोई मज़लूम न हो हक़ बराबर का मिले
ख्वाब सरकारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
चल रहे भाषण महज़ औरत वहीँ की है वहीँ
सिर्फ मक्कारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
अमन भी हो प्रेम भी हो ज़िन्दगी खुशहाल हो
राग दरबारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
इश्क मिटटी का भुला कर हम शहर में आ गए
ज़िन्दगी प्यारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
 
ऐसे बहुत से खूबसूरत अशआर के शायर हैं 22 नवम्बर 1968 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद के 'कसरावां' गाँव में एक बेहद गरीब किसान के घर में जन्मे जनाब आनंद कुमार द्विवेदी और किताब है " फुर्सत में आज ".
 
 
बिन पते का ख़त लिखा है ज़िन्दगी ने शौक से
जो कहीं पहुंचा नहीं , मैं बस वही पैगाम हूँ
 
है तेरा एहसास जब तक ज़िन्दगी का गीत हूँ
बिन तेरे तन्हाइयों का अनसुना कोहराम हूँ
 
कुछ दिनों से प्रश्न ये आकर खड़ा है सामने
शख्शियत हूँ सोच हूँ या सिर्फ कोई नाम हूँ
 
दुश्मनों से क्या शिकायत दोस्तों से क्या गिला
दर्द का 'आनंद' हूँ मैं , प्यार का अंजाम हूँ

स्नातक शिक्षा प्राप्त आनंद साहब ने खेड़ा सेल्स कार्पोरेशन -नयी दिल्ली में सर्विस मैनेजर के पद पर कार्य करने से पूर्व जीविका के लिए पापड़ बेलते हुए पहले ओ आर जी - मार्ग नामक मार्किट सर्वे कंपनी में नौकरी की जब वहाँ मन नहीं लगा तो बैंक से लोन लेकर परचून की दुकान सफलता पूर्वक चलाई किन्तु एक सड़क दुर्घटना के हादसे ने उन्हें फाकाकशी की नौबत तक पहुंचा दिया।

दुनिया के ग़लत काम का अड्डा बना रहा
हम चौकसी में बैठे रहे जिस मकान के
 
जो अनसुने हुए हैं उसूलों के नाम पर
मेरे लिए वो स्वर थे सुबह की अज़ान के
 
'आनंद' मज़हबों में सुकूँ मत तलाश कर
झगडे अभी भी चल रहे गीत कुरान के
 
आनंद जी की ग़ज़लें उर्दू या हिंदी में नहीं बल्कि आम हिन्दुस्तानी ज़बान में गुफ्तगू करती हैं और सीधी दिल में उतर जाती हैं. अपनी ज़िन्दगी के खट्टे मीठे अनुभवों को उन्होंने में अपनी शायरी में ढाला है। आनंद जी ने ग़ज़ल गोई की अपनी एक अलग शैली विकसित की है , रवायती और मान्य प्रतीकों को भी उन्होंने अलग अंदाज़ से अपनी ग़ज़लों में पिरोया है . उनका ये अंदाज़ बेहद दिलचस्प और दिलकश है।

इसमें क्या दिल टूटने की बात है
ज़ख्म ही तो प्यार की सौगात है
 
दो घडी था साथ फिर चलता बना
चाँद की भी दोस्तों सी जात है
 
कौन कहता है कि राहें बंद हैं
हर कदम पर इक नयी शुरुआत है
 
मत चलो छाते लगा कर दोस्तो
ज़िन्दगी 'आनंद' की बरसात है
     
किताब की भूमिका में शायर 'सईद अय्यूब ' लिखते हैं कि " आनंद की ग़ज़लों में जो मिठास है , जो नफासत है , जो नज़ाकत है, जो पुरअसर ज़ज़बात हैं,जो ज़िन्दगी के तजुर्बे हैं, जो अपने दौर कि जद्दोजेहद है, जो ज़बान कि शाइस्तगी है ,जो साफगोई है , जो गुफ्तगू का दिलकश सलीका है वो तो उनका ये संग्रह पढ़ कर ही महसूस किया जा सकता है।

थक गया हूँ ज़िन्दगी को शहर सा जीते हुए
गाँव को फिर से मेरी पहचान होने दीजिये
 
रात को हर रहनुमा की असलियत दिख जायेगी
शहर की सड़कें जरा सुनसान होने दीजिये
 
बैठकर दिल्ली में किस्मत मुल्क की जो लिख रहे
पहले उनको कम-अज़-कम इंसान होने दीजिये
 
आनंद जी ने अपनी ग़ज़लों में रदीफ़ काफिये के बहुत दिलचस्प प्रयोग किये हैं जो पाठक को गुदगुदाते भी हैं और सोचने पर मज़बूर भी करते हैं। उन्होंने आज के माहौल पर व्यंग बाण भी चलाये हैं और कहीं वो व्यथित भी हुए हैं । आज की व्यवस्था के प्रति उनका विरोध और गुस्सा भी उनकी ग़ज़लों में झलकता है। एक जागरूक शायर और देश का सच्चा नागरिक होने का पूरा प्रमाण उनके कलाम में दिखाई देता है।

पापा को कोई रंज न हो, बस ये सोच कर
अपनी हयात ग़म में डुबोती हैं लड़किया
 
उनमें ... किसी मशीन में, इतना ही फर्क है
सूने में बड़े जोर से रोती हैं लड़कियां
 
फूलों का हार हो, कभी बाहों का हार हो
धागे की जगह खुद को पिरोती हैं लड़किया

बोधि प्रकाशन , जयपुर (0141 -2503989 , 098290 18087 ) द्वारा पेपर बैक में प्रकाशित इस किताब में आनन्द जी की 98 ग़ज़लें संग्रहित हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन के श्री माया मृग जी से संपर्क करें या सीधे आनंद कुमार द्विवेदी जी से उनके मोबाइल 09910410436 पर संपर्क कर उन्हें इस बेहतरीन शायरी के लिए मुबारकबाद दें और अपनी प्रति भेजने का आग्रह करें।

सख्त असमंजस में हूँ बच्चों को क्या तालीम दूं
साथ लेकर कुछ चला था,काम आया और कुछ
 
इसको भोलापन कहूं या, उसकी होशियारी कहूं
मैंने पूछा और कुछ, उसने बताया और कुछ
 
सब्र का फल हर समय मीठा ही हो, मुमकिन नहीं
मुझको वादे कुछ मिले थे, मैंने पाया और कुछ

आप से गुज़ारिश है कि आप इस किताब को जरूर पढ़े और इस नौजवान शायर की हौसला अफजाही करें , उसे और अच्छा कहने को प्रेरित करें। हम निकलते हैं आपके लिए एक और किताब की तलाश में. अपना ख्याल रखियेगा क्यूँ कि आप हैं तभी तो ये किताबों की दुनिया है.