Monday, February 15, 2021

किताबों की दुनिया - 225

ये कोई सन 1960 के आसपास की बात होगी बीकानेर के राजकीय पाबू पाठशाला, जो आठवीं याने मिडल क्लास तक ही थी, में रोज की तरह असेम्बली की घंटी बज चुकी थी। एक मेज पर हारमोनियम और दूसरी पर तबला रखा था। स्कूल स्टाफ के सभी लोग, अध्यापक गण मेज के दोनों ओर कतार में खड़े थे। बच्चे भाग भाग कर अपनी अपनी क्लास की लाइन में खड़े हो रहे थे। रोज की ही तरह असेम्बली से पहले होनी वाली गहमगहमी मची हुई थी। तभी हैड मास्साब अपने कमरे से बाहर निकले और हारमोनियम वाली टेबल के पास खड़े हो कर एक नज़र सबको देखा। उनके देखने के अंदाज़ से सारी हलचल शांत हो गयी। आपस में चुहुल करते बच्चे,  खुसपुस करते स्टाफ मेंबर और अध्यापक चुपचाप सीधे खड़े हो गए। अभी सात बजने में तीन मिनट बाकी थे, रोज ठीक सात बजे प्रार्थना शुरू होती थी। हैड मास्साब ने तबले की टेबल के पास खड़े बच्चे से पूछा 'राम जी तूने तबला ठीक से मिला लिया न ?' जी साब, मैंने बजा कर देख लिया है ,बिलकुल सही कसा हुआ है 'रामजी ने फुर्ती से जवाब दिया। 'हूँ' हैड मास्साब बोले फिर हारमोनियम की और देखते हुए बोले आज ये कहाँ गया ?' किसी के पास जवाब नहीं था इसलिए कोई नहीं बोला। सात बजने से ठीक एक मिनट पहले एक दुबला पतला लड़का दौड़ता हुआ आया और सीधा हारमोनियम वाली टेबल के पास जा कर खड़ा हो गया। हैड मास्साब ने देखा कि वो पसीने से तर-बतर है और हाँफ रहा है।' अरे क्या हुआ बेटा ? तुम ऐसे पसीने में भीगे दौड़ते क्यों आ रहे हो ?' हैड मास्साब ने पूछा। 'साब मैं अब्बा के साथ आ रहा था लेकिन रास्ते में उनकी साईकिल पंचर हो गयी, मुझे देरी न हो जाय इसलिए भागता आ रहा हूँ' लड़के ने सर झुका के जवाब दिया। हैड मास्साब ने प्यार से लड़के के सर पर हाथ फेरते हुए कहा 'कोई बात नहीं बेटा थोड़ी साँस ले लो फिर शुरू करना। 'नहीं साब प्रार्थना में देरी नहीं होनी चाहिए' कह कर लड़के ने हारमोनियम पर उँगलियाँ फेरनी शुरू करदी। हारमोनियम पर थिरकती उँगलियों से सुरों की बारिश होने लगी जिसे सुन सभी की आँखें अपने आप बंद हो गयीं हाथ जुड़ गए और स्वर उस लड़के के स्वर से जुड़ गए ' हे शारदे माँ, हे शारदे माँ, अज्ञानता से हमें तार दे माँ'' प्रार्थना के बाद हैड मास्साब ने लड़के को गले लगाते हुए कहा 'जियो हनीफ़ बेटा ज़िन्दगी में हमेशा यूँ ही सुरीले बने रहना और वक़्त का ध्यान रखना -जुग जुग जियो'  
सब ये माने बैठे थे कि एक दिन 'हनीफ़' हारमोनियम का उस्ताद बनेगा और बीकानेर का नाम देश विदेश में ऊँचा करेगा लेकिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था। 'हनीफ़' ने बीकानेर का नाम जरूर रौशन किया लेकिन हारमोनियम उस्ताद बन कर नहीं बल्कि ग़ज़लों का उस्ताद बन कर एक ऐसा उस्ताद जिसने ग़ज़ल को अपने मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में कुछ यूँ परिभाषित किया :
 
बताऊं दोस्तों मैं आपको कि क्या है ग़ज़ल 
कमाले-फ़न को परखने का आइना है ग़ज़ल 

ये एक फ़न है इशारों में बात करने का 
इसीलिए तो हर-इक सिन्फ़ से सिवा है ग़ज़ल 
सिन्फ़ : विधा , सिवा : बढ़कर 

गुलाब, चम्पा, चमेली कि रात की रानी 
जो इन को छू के गुज़रती है वो हवा है ग़ज़ल   
*
दिलों के शहरों को फ़त्ह करने का जिस में फ़न है वही ग़ज़ल है 
जो नोके-ख़ामा पे झिलमिलाती हुई किरन है वही ग़ज़ल है 
नोके-ख़ामा : क़लम की नोक 

कहीं है जंगल की शाहज़ादी कहीं है शहरों की ज़ेबो-ज़ीनत 
कहीं पे झरनों की रागनी में जो नग़मा-ज़न है वही ग़ज़ल है 
ज़ेबो-ज़ीनत : ख़ूबसूरती, नग़मा-ज़न : गाती हुई  

वो ठंडी-ठंडी सी रौशनी से धुला-धुला सा चमन का मन्ज़र 
गुलाब चेहरे पे दहकी-दहकी सी जो अगन है वही ग़ज़ल है   

ग़ज़ल की तारीफ़ पूछते हैं 'शमीम' क्या मेरे दोस्त मुझसे 
मेरे सवालों से उसके माथे पे पे जो शिकन है वही ग़ज़ल है  

 'मोहम्मद हनीफ़' जिनका ज़िक्र ऊपर किया है 27 नवम्बर 1949 को राजस्थान के नागौर में जनाब 'अल्लाह बक़्श' साहब के यहाँ पैदा हुए। जनाब 'अल्लाह बक़्श' हालाँकि पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन दुनियादारी की समझ उन्हें खूब थी। ज़िन्दगी जो हमें सिखाती है उसे कोई स्कूल कॉलेज हमें नहीं सिखा पाता लिहाज़ा ज़िन्दगी की पाठशाला में 'अल्लाह बक़्श' साहब ने खूब सीखा और इसी के चलते वो बड़े बड़े आलिमों से बहस कर लिया करते थे। मुलाज़मत के सिलसिले में वो नागौर से बीकानेर आकर बस गये। बचपन से ही मोहम्मद हनीफ़ अपने बड़े भाई 'मुज़फ़्फ़र हुसैन सिद्दीक़ी' को हमेशा किताबें पढ़ते हुए देखते।यूँ तो मुज़फ़्फ़र हुसैन साहब की दीनयात अदबियात, समाजियात और सियासियत पर अच्छी पकड़ थी लेकिन उनका रुझान शायरी की तरफ़ ज्यादा था। ग़ालिब, मीर, मोमिन, दाग़, जोश, फ़ैज़ और इक़बाल के सैंकड़ों शेर उन्हें जबानी याद थे। उन्हीं को देख सुन कर मोहम्मद हनीफ़ भी शायरी के दीवाने हो गए और बड़े भाई की तरह जब वक़्त मिलता शायरी की किताबें पढ़ने लगे। छुप छुप कर शेर कहने की कोशिश भी करने लगे। छुप छुप कर इसलिए क्यूंकि उन्हें अपनी शायरी के मयार पर पूरा भरोसा नहीं था। एक दिन अचानक बड़े भाई साहब की नज़र उस कॉपी पर पड़ी जिसमें हनीफ़ साहब ने शेर लिख रखे थे। शेर पढ़ कर बड़े भाई साहब पता नहीं क्या सोच कर मन ही मन मुस्कुरा दिये लेकिन किसी से कुछ बोले नहीं।  
 .     
उनकी मुस्कराहट का राज़ कुछ दिनों बाद मोहल्ला भिश्तियान मदीना मस्जिद के ज़ेरे साया होने वाले जश्ने-ईदे-मौलादुन्नबी के तरही मुशायरे में खुला जिसमें उन्होंने हनीफ़ साहब को अचानक मंच से तरही मिसरे 'मोहम्मद दस्तगीरे दो जहाँ हैं' पर ग़ज़ल पढ़ने का न्योता दिया। 21 साल के  'हनीफ़' इस तरह अचानक बुलाये जाने पर घबरा गये क्यूंकि इस से पहले उन्होंने कभी किसी के सामने अपना कलाम नहीं सुनाया था। हनीफ़ साहब की घबराहट देख कर भाई साहब बोले 'हनीफ़ मियां घबराओ नहीं हम तुम्हारी कॉपी पढ़ के जान चुके हैं कि तुम शेर कहते हो और खूब कहते हो ,आओ तुम्हें आज सबको अपना क़लाम सुनाने का मौका देते हैं'. भाई साहब की हौसला अफ़ज़ाही से हनीफ़ साहब ने शेर सुनाये और दाद भी हासिल की। 

फ़ितरत हमारी शीशओ-सीमाब की सी है 
जब भी गिरे हैं टूट गये और बिखर गये   
शीशओ-सीमाब : शीशा और पारा 

बे-दाग़ अपने आप को कहते थे वो, मगर 
जब आइना दिखाया तो चेहरे उतर गये 

सुर्ख़ी शफ़क़ की, आतिशे-गुल और जिगर का खूं 
सब मिलके तेरी मांग में सिन्दूर भर गये 
सुर्ख़ी शफ़क़ : सुबह शाम की लालिमा , आतिशे-गुल : फूलों की लालिमा 

जिनके ज़मीर ज़िंदा हैं ज़िंदा हैं वो 'शमीम'
जिनके ज़मीर मर गये वो लोग मर गये 
*
दिखाई दे कि न दे एहतियात है लाज़िम 
कब आस्तीन में खन्ज़र दिखाई देता है 
*
उस दिन तू ख़ामोश रहा तब देखेंगे 
जिस दिन पानी तेरे सर से गुज़रेगा 

पीली चादर ओढ़ के बैठेगा मौसम 
क़ाफ़िला जब पत्तों का शजर से गुज़रेगा 
*
तुम्हारे दर्द को दिल में बसा लिया क्यूँकर 
मैं चाहता तो तुम्हें भूल भी तो सकता था 
*
अपने बच्चों को जो देखा तो समझ में आया 
घर पहुँचता है सरे-शाम परिंदा कैसे 

लाके चेहरे पे तबस्सुम की लकीरें ऐ दोस्त 
छोड़ दूँ मैं दिल-नाकाम को रोता कैसे 

उस मुशायरे के बाद बड़े भाई साहब को लगा कि 'हनीफ़' साहब की शायरी में अभी कच्चापन है और इस्लाह के लिए अब इन्हें किसी उस्ताद की ज़रूरत है। उस वक्त बीकानेर में बहुत से उस्ताद शायर थे लेकिन भाई साहब ने हनीफ़ साहब को उस वक्त के मशहूर शायर उस्ताद 'मस्तान बीकानेरी' साहब जिनका ये शेर हर ख़ास-ओ-आम की जुबान पर था "हज़ारों दैरो-हरम ने लिबास बदले मगर, शराब-ख़ाना अभी तक शराब-ख़ाना है " के पास शागिर्दी के लिए भेजा । बीकानेर में सबको पता था कि 'मस्तान साहब' का ज्यादा वक्त अपने दोस्त 'महबूब खान' की टेलरिंग की दुकान पर ही बीतता है लिहाज़ा उन्हें ढूंढने में कोई मुश्किल पेश नहीं आयी। हनीफ़ साहब अपने बड़े भाई साहब के हवाले से मस्तान साहब से मिले और उनका शागिर्द बनने की इच्छा ज़ाहिर की। मस्तान साहब ने उनसे कहा कि 'देखो बरखुरदार दरअसल मेरे पहले से ही बहुत से शागिर्द हैं तुमको मैं अपनी शागिर्दगी में ले तो लूँगा, लेकिन उसके लिए मेरी एक शर्त है'।' मुझे आपकी हर शर्त मंज़ूर है आप हुक्म करें'  हनीफ़ साहब तपाक से बोले। मस्तान साहब ने मुस्कुराते हुए कहा कि 'तुम मुझे अपना कलाम सुनाओ, अगर मुझे पसंद आया तो ही मैं तुम्हें शागिर्दगी में लूँगा वरना नहीं'। ' 'जी मुझे मंज़ूर है' कह कर हनीफ़ साहब उन्हें अपना कलाम सुनाने लगे। एक दो कलाम के बाद ही मस्तान साहब ने उन्हें गले लगाते हुए कहा 'तुम जैसा शागिर्द पा के मैं ही क्या कोई भी उस्ताद फ़ख्र महसूस करेगा, आज से तुम मेरे शागिर्द हुए और आज से तुम अपने नाम मोहम्मद हनीफ़ को छोड़ कर मेरे दिए नए, 'शमीम बीकानेरी' के, नाम से शायरी करोगे।  
   
आज हमारे सामने 'शमीम बीकानेरी' साहब की ग़ज़लों की एकमात्र किताब 'गुलाब रेत पर' है, जो 'सर्जना' प्रकाशन बीकानेर से प्रकाशित हुई है।  आप इस किताब को  sarjanabooks@gmail.com पर मेल से या वाग्देवी प्रकाशन को 0151 2242023 पर फोन करके मंगवा सकते हैं। मात्र 88 पेज में सिमटी ये किताब रिवायती शायरी के दीवानों के लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं। नए शायर भी इस किताब से शायरी में लफ्ज़ बरतने और रवानी का हुनर सीख सकते हैं।  


बादे-सर-सर चली उड़े पत्ते 
देखता रह गया शजर तन्हा 

सारी रौनक उसी के दम से थी 
वर्ना, मैं और इस क़दर तन्हा 
*
फेंका ये किसने संगे-मलामत मिरी तरफ़ 
इस शहर में तो मेरा शनासा कोई न था 
संगे-मलामत : बुराइयों का पत्थर , शनासा : परिचित 

बस्ती में सांस लेने को लेते थे सब मगर 
जिस का ज़मीर ज़िंदा हो ऐसा कोई न था   
*
शहर में हर सू सन्नाटा है 
सारा जंगल बोल रहा है   
*
बोली लगाये जाते थे ख़ुशफ़हमियों में लोग 
मैं बिक रहा था और ख़रीदार मुझ में था 
*
क्या कहा तेरे दिल पे और दस्तक 
कोई रहता है इस मकान में क्या 

जान है तो जहान है वर्ना 
जान  है और जहान में क्या 

क्यों बलाएं मुझे डराती हैं 
मैं नहीं हूँ तेरी अमान में क्या 
*
मैं तजर्बे की बिना पर तड़पने लगता हूँ 
किसी पे जब भी कोई एतिबार करता है 

राजकीय पाबू पाठशाला से आठवीं पास करने के बाद हनीफ़ साहब ने राजकीय सादुल उच्च माध्यमिक विद्यालय से दसवीं की परीक्षा पास की। तभी राजस्थान बिजली बोर्ड के दफ्तर में वैकेंसी निकली जिसमें उनका सलेक्शन हो गया। वो आगे पढ़ना चाहते थे लेकिन हाथ आयी सरकारी नौकरी को छोड़ना उन्हें ग़वारा नहीं हुआ, दूसरे, घर के हालात देखते हुए उन्हें नौकरी करना ज्यादा मुनासिब लगा। नौकरी से हर महीने मिलने वाली आय के चलते उनका जीवन  पटरी पर आ गया। 'मस्तान साहब' की रहनुमाई में उनकी शायरी को पंख लग गये। 'मस्तान' साहब शमीम साहब को दिलो जान से शायरी के पेचोख़म से रूबरू करवाने लगे। उस्ताद-शागिर्द की ये जोड़ी पूरे बीकानेर में मशहूर हो गयी। 'मस्तान' साहब का छोटा-बड़ा कोई काम शमीम साहब की शिरकत के बिना मुकम्मल नहीं होता।  वो अपने उस्ताद को साईकिल पर बिठाये कभी हस्पताल कभी बाजार, कभी किसी दफ़्तर कभी, किसी मुशायरे या नशिस्त में लाते ले जाते लोगों को नज़र आ जाया करते।  
बीकानेर में 13 दिसंबर 1980 को जश्ने-एज़ाज़े-मस्तान मनाया गया। इस मौके पर एक ऑल इण्डिया मुशायरा भी हुआ जिसमें मुल्क़ के नामवर शायर जैसे जनाब मख़्मूर सईदी, शीन काफ़ निज़ाम, खुदादाद खां मुनीस और हज़ारों सामईन की मौज़ूदगी में 'मस्तान, साहब ने शमीम साहब को शॉल ओढ़ा कर अपना जा-नशीन घोषित किया। शायद ये पहला मौका था जिसमें एक उस्ताद ने अपने शागिर्द को भरी महफ़िल में अपना जा-नशीन घोषित किया हो। 

आते-आते ही तो जीने का हुनर आएगा 
जाते-जाते ही तो मरने की झिझक जायेगी 
*
तब कहीं जा के मिला है उस के होने का पता  
ख़ुद को अपने आप से जब बे-ख़बर मैंने किया 

दोस्तों के दिल भी कब आलूदगी से पाक थे 
बस इसी बाइस दिल-दुश्मन को घर मैंने किया 
आलूदगी : प्रदूषण 

नींद उचटती देखी है जब से अमीरों की 'शमीम'  
ज़िन्दगी को बेनियाज़े-सीमो-ज़र मैंने किया   
बेनियाज़े-सीमो-ज़र : धन दौलत की परवाह न करने वाला 
*
हमारे हक़ में रही ज़िन्दगी से मौत अच्छी 
उमीद किस से थी और कौन क़द्रदां निकला 
*
शबनम का रक्स आरिज़े-गुल पर फबन के साथ 
देखा है आफ़ताब की पहली किरन के साथ 
आरिज़े-गुल : फूल का चेहरा (गाल)

रखते थे जो हवाओं से लड़ने का हौसला 
जलते रहे चराग़ वो ही बाँकपन के साथ 

मख़मल की सेज थी कि तरसती ही रह गयी 
हम सो गये ज़मीन पे अपनी थकन के साथ 
*
उदास पेड़ तुझे चहचहे भी होंगे नसीब 
वो शाम होते ही तुझ पर तयूर उतारेगा 
तयूर: परिंदे 

 शमीम साहब को मस्तान साहब की रहनुमाई में रहने का मौका सिर्फ़ 17 अक्टूबर 1983 तक ही मिला इसी दिन 'मस्तान' साहब इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह गए, लगभग 12 साल के इस वक़्फ़े में मस्तान साहब की इल्म की सुराई में जो कुछ था वो सब उन्होंने शमीम साहब के प्याले में उँडेल दिया। शमीम साहब ने न सिर्फ़ बीकानेर में बल्कि पूरे भारत में देश के नामी गरामी शायरों साथ मुशायरे पढ़े और वाह वाही हासिल की। 

मुशायरों और नशिस्तों के दौरान उन्होंने देखा कि ज्यादातर शायर अपना क़लाम पढ़ने तक मंच पर बैठे रहते हैं और पढ़ने के बाद धीरे से ख़िसक लेते हैं या जब कोई नया शायर अपना क़लाम पढ़ रहा होता है तो उसकी तरफ़ कोई तवज्जोह नहीं देते और आपसी बातचीत में उलझे रहते हैं। ये आदत बड़े नामचीन शायरों में ज्यादा पाई जाती है। शुरू में शमीम साहब को भी इस तरह का माहौल देखने को मिला और इस से वो दुखी भी हुए। बाद में जब जो उस्ताद शायर हो गए तब उन्होंने इस बात का ख़ास ध्यान रखा कि किसी नए शायर की हौसला अफ़ज़ाही से वो चूक न जाएँ। नए शायरों को ध्यान से सुनना अच्छे शेरों पर झूम कर दाद देना शमीम साहब की खासियत थी। वो मंच पर से कभी बीच में उठ कर नहीं गए। बाज दफ़ा उनकी तबियत खासी ख़राब होती तो भी लोगों के लाख कहने पर भी मंच नहीं छोड़ते थे। इस उसूल का उन्होंने हमेशा पालन किया। 

दोस्ती को मिरी ठोकर में उड़ाने वाला 
दुश्मनी को भी मिरी अब तो तरसता होगा 

किसी इंसान से मिलने को तरस जाओगे
वो ज़माना भी है नज़दीक जब ऐसा होगा 

रौशनी बढ़ती चली जाती है धीरे-धीरे 
कोई आँचल किसी चेहरे से सरकता होगा 
*
हर तरफ़ हैवानियत रक़्सां है अब तो शहर में 
क्या कहें, इंसान को देखे ज़माने हो गये 

तब मज़ा है जब कोई ताज़ा सितम ईजाद हो 
छोड़ इन हर्बों को ये हर्बे पुराने हो गये 
हर्बे : लड़ाई के हथियार 
*
ज़मीन तकती है हैरत से उनके चेहरों को 
जो आस्मां की तरफ़ सर उठा के देखते हैं 

कहा है 'मीर' ने ये इश्क़ भारी पत्थर है 
ये बात है तो ये पत्थर उठाके देखते हैं 

हमारे जुर्म पे जाती नहीं किसी की नज़र 
मज़े तो लोग हमारी सज़ा के देखते हैं 
*
किस मुंह से हम अपने घर की बात करें 
लोग नहीं महफूज़ इबादतगाहों में 
*
कैसी लज़्ज़त है तड़पने में उसे क्या मालूम   
दिल पे हावी जो कोई ग़म नहीं होने देता 

अपनी मोतियों जैसी सुन्दर लिखाई ,फिर वो चाहे हिंदी ,उर्दू या अंग्रेजी लिपि हो ,बेहद विनम्र आचरण और मेहनत के कारण शमीम साहब बिजली बोर्ड के दफ़्तर में अपने से सीनियर और जूनियर लोगों के चहेते थे। 30 सितम्बर 2009 को बिजली बोर्ड के दफ़्तर से रिटायर होने पर उन्हें सबने भावपूर्ण विदाई दी। रिटायरमेंट के बाद उनकी मुशायरों में शिरक़त बढ़ गयी। अपने बेमिसाल तरन्नुम से जब वो सामईन को अपनी ग़ज़लें सुनाते तो वातावरण तालियों से गूंजने लगता। 
शमीम साहब के बेहद अज़ीज़ और क़रीब रहे बीकानेर के शायर ज़नाब 'ज़ाक़िर अदीब' साहब जो उनसे मशवरा-ऐ-सुख़न भी लेते थे, उनको याद करते हुए कहते हैं कि 'जहाँ तक शमीम साहब के अदबी सफ़र की बात है वो बहुत ही लो प्रोफ़ाइल शायर थे, उन्होंने हमेशा मुशायरे इस अंदाज़ में पढ़े जिसके लिए ग़ालिब का वो मिसरा हम इस्तेमाल कर सकते हैं कि  "न  सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह" । कहने मतलब ये कि वो ख़ुद को प्रोमोट करने से बचते थे। मेरा और शमीम साहब का मेलजोल का सिलसिला 1982 से शुरू हुआ जो उनके इंतकाल तक ज़िंदा रहा ,हाँ बीच के तीन चार साल हम दोनों के बीच बोलचाल किसी ग़लतफहमी के चलते बंद रही लेकिन इस दौरान न तो मैंने उनके और न शमीम साहब ने मेरे बारे में किसी से कुछ ग़लत कहा। यूँ समझें कि हमने बशीर बद्र साहब के इस मशहूर शेर 'दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त बन जाएँ तो शर्मिंदा न हों को अपनाया। ग़लतफहमी दूर हुई और हम दोनों फिर से बिना शर्मिंदा हुए गले मिल गए।    
       
शमीम साहब को राजस्थान उर्दू अकादमी की ओर से सन 2011-12 के लिए बिस्मल सईदी अवार्ड और 2012-13 के लिए शेरी तख़लीक़, नवाये-जां पर 11000 रु का इनआम , अंजुमन तरक़्क़िये उर्दू फतेहपुर शेखावाटी की ओर से 'जिगर मुरादाबादी' अवार्ड, 2010 और 2012 में बीकानेर की संस्थाओं द्वारा बहुत से अभिनन्दन पत्र और अवार्ड दिए गए। राजस्थान पत्रिका की ओर से उन्हें 2017 में कर्णधार विशिष्ट सम्मान प्रदान किया गया। 
सन 2014 से उन्हें अस्थमा की शिकायत रहने लगी जो लगातार बढ़ती गयी आखिर 18 फरवरी 2019 को बीकानेर की सर ज़मीं के इस अलबेले शायर ने इस दुनिया-ऐ-फ़ानी को अलविदा कह दिया।   
 
दिल की दुनिया रोशन करने की ख़ातिर 
 इक कोने में याद के जुगनू रक्खेंगे 
*
कई रंजो-ग़म कई पेचो-ख़म, रहे इश्क़ में थे क़दम-क़दम 
जो गुज़र गये वो गुज़र गये, जो ठहर गये वो ठहर गये 
*
ये जंग मसाइल का कोई हल तो नहीं है 
इस जंग को तुम आग लगा क्यों नहीं देते 

गो, ज़ख्मे-जिगर अब भी तारो-ताज़ा हैं लेकिन 
क्या बात है, पहले सा मज़ा क्यों नहीं देते  
*
दिल भी तेरा है जान भी तेरी 
सोचता हूँ कि फिर मेरा क्या है 

डूबने वाले से कोई पूछे 
नाख़ुदा क्या है और ख़ुदा क्या है 
*
हम से दग़ा करे वो दगाबाज़ है मगर 
अब उसको क्या कहें जो ख़ुद से दग़ा करे 
*
ऐसा लगता है कि चढ़ती हुई नद्दी जैसे 
झील बन के तेरी आँखों में उतर आई है 
*
ग़म तो अपने साथ अदम से आये थे 
अपने ही हमज़ाद से हम डर जायें क्या  
हमज़ाद; साया , जो साथ में पैदा हुआ हो 
*
आग से, पानी से, मिटटी से बने हैं पैकर 
ज़िन्दगी का मगर अहसास दिलाती है हवा 

एक चिन्गारी भी शोलों में बदल सकती है 
आग का साथ कुछ इस तरह निभाती है हवा  
*
जीने न दे हयात की गर्दिश अगर तुझे 
ये किसने कह दिया है कि मर जाना चाहिये   
 

( शमीम साहब के बारे में जरूरी जानकारियाँ देने के लिए मैं शमीम साहब के बेटे जनाब सईद अहमद सिद्दीक़ी , जनाब ज़ाकिर अदीब साहब और जनाब सुनील गज्जाणी जी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। ) 

Monday, February 1, 2021

किताबों की दुनिया - 224

मैं रोज़ इधर से गुज़रता हूँ कौन देखता है 
मैं जब इधर से न गुज़रूँगा कौन देखेगा 
*
मिरि तबाहियों का भी फ़साना क्या फ़साना है 
न बिजलियों का तज़्किरा न आशियाँ की बात है 
तज़्किरा : वर्णन 

निगाह में बसा-बसा निगाह से बचा-बचा   
रुका-रुका, खिंचा-खिंचा ये कौन मेरे साथ है 

चराग़ बुझ चुके, पतंगे जल चुके, सहर हुई 
मगर अभी मिरि जुदाईयों की रात, रात है 
*
 जुनूने-इश्क़ की रस्मे-अजीब क्या कहना 
मैं उनसे दूर वो मेरे क़रीब क्या कहना     
*
ये सोज़े-दुरुं, ये अश्क़े-रवाँ, ये काविशे-हस्ती क्या कहिए 
मरते हैं कि कुछ दिन जी लें हम, जीते हैं कि आख़िर मरना है 
सोज़े-दुरुं : आंतरिक वेदना , अश्क़े-रवाँ : बहते आँसू , काविशे-हस्ती : जीने की कोशिश
*
तिरी पलकों की जुम्बिश से जो टपका 
उसी इक पल के अफ़्साने ज़माने 

उन्हीं की ज़िन्दगी जो चल पड़े हैं 
तिरी मौज़ों से टकराने ज़माने 

बात यही कोई 1970 के आसपास की होगी, साहीवाल जो पाकिस्तान के पंजाब राज्य का एक कस्बा है उस कस्बे के 'स्टेडियम होटल' में पड़ी एक गोल सी मेज के इर्दगिर्द दस पन्द्रह लोग बैठे हैं। टेबल पर अभी अभी खाए बिस्कुटों की खाली प्लेटें, पानी के गिलास,चाय के कप और ऐश ट्रे में बुझे-अधबुझे सिगरेट के टुकड़े हैं जिनसे धुआँ उठ रहा है। जो लोग यहाँ आसपास के रहने वाले हैं उनके लिए ये रोज का दृश्य है। रोज शाम के पाँच बजते बजते इसी टेबल पर बरसों से महफ़िल जमनी शुरू हो जाती है जो सात बजे तक जमी रहती है। एक पचास साठ के बीच की उम्र का दुबला पतला शख्स पिछले पन्द्रह सोलह साल से रोज धीमी चाल से साईकिल चलाता यहाँ आता है जिसके आते ही महफिल में जान आ जाती है और उसके बाद सिगरेट, चाय-कॉफी, बिस्कुट और भी बहुत कुछ खाने पीने का सामान जमा हुए लोगों की फरमाइश के हिसाब से आता रहता है। इन लोगों में बातचीत हमेशा हल्की आवाज़ में होती है, कभी किसी ने इस मेज पर किसी को बहस करते या ऊँची आवाज में बात करते नहीं सुना जबकि सबको पता है कि यहाँ इस टेबल पर जो भी आता है उसका अदब से ख़ास रिश्ता या लगाव होता है और ऐसे लोग बिना शोर मचाये बातचीत नहीं करते। यहाँ बैठने वाले शायर भी हैं, अफ़साना निगार भी, नॉवलिस्ट भी हैं और पत्रकार भी। इस टेबल पर बैठने वाले हर शख्स की निगाहें उस तरफ होती हैं जिस तरफ वो साईकिल पर मध्यम रफ्तार से आने वाला बैठा होता है। ये ख़ास शख़्स बोलता बहुत कम है, सुनता ज्यादा है। 

आज लेकिन मामला कुछ अलग है। इस टेबल पर एक शख़्स सर झुकाए खड़ा है और साईकिल पर आने वाले शख़्स की निगाहें उस पर आग बरसा रहीं हैं । धीमी लेकिन रोबदार आवाज में उस से सवाल किया गया है 'तुमने हमारे सामने ये गुस्ताख़ी की कैसे बरखुरदार ?' ये बात सुनकर तुरंत एक काली शेरवानी पहने शख़्स ने कहा 'माफ़ करें हुज़ूर आज नासिर को मैं ही पहली बार आपकी बज़्म में लाया हूँ , ये गुस्ताख़ी इससे नहीं ,मुझसे हुई है , मुझे इसे बताना चाहिए था कि इस टेबल पर बैठने के कुछ उसूल हैं '। तब सर झुकाए शख़्स ने बेहद मुलायम लफ़्जों में हाथ जोड़ते हुए पूछा 'मुझसे आखिर ऐसी क्या गुस्ताख़ी हो गई उस्ताद ?' अपनी गर्दन काली शेरवानी पहने हुए की तरफ़ करते हुए साईकल पर आने वाले शख़्स ने कहा 'लो अब तुम ही इसे बताओ अनवर'। अनवर ने गला साफ़ किया फिर बोले 'मियॉँ इस टेबल पर पिछले सोलह सत्ररह सालों से जनाब की मौजूदगी में जो भी खाने पीने का सामान मंगवाया जाता है उसके बिल का हमेशा जनाब ही भुगतान करते आये हैं ये ही इस टेबल का उसूल है लेकिन आज तुमने अनजाने में बिल भुगतान की पेशकश करते हुए जेब से रुपये निकाल कर वेटर को दे दिए, ये ज़नाब की शान में गुस्ताख़ी है जिसे ये कभी बरदाश्त नहीं कर सकते। आज तुम पहली बार आए हो इसलिए ये रूपये उठाओ और याद रखो कि आईंदा आप ऐसी हरकत दुबारा न करें।' इस वाक़ये के थोड़ी बाद महफ़िल बर्ख़ास्त हो गयी। साईकिल सवार ने सब को ख़ुदा हाफ़िज़ कहा अपनी साईकिल उठाई और धीमी रफ़्तार से उसे चलाते हुए अगले मोड़ से ओझल हो गया।

बिल भुगतान की पेशकश करने वाले शख़्स ने पास खड़े अपने दोस्त अनवर से कहा 'कमाल के इंसान हैं 'मजीद अमजद' साहब, जितना उनके बारे में सुना था उससे बढ़ कर।'

इक लहर उठी और डूब गए होटों के कँवल आँखों के दीये 
इक गूँजती आँधी वक़्त की बाज़ी जीत गई, रुत बीत गई 

तुम आ गए मेरी बाहों में कौनैन की पेंगें झूल गई 
तुम भूल गए, जीने की जगत से रीत गई, रुत बीत गई 
कौनैन : दो दुनियाएं -भौतिक-आध्यात्मिक 

इक ध्यान के पाँओं डोल गए, इक सोच ने बढ़ कर थाम लिया 
इक आस हँसी, इक याद सुनाकर गीत गई, रुत बीत गई 

ये लाला-ओ-गुल क्या पूछते हो सब लुत्फ़े-नज़र का किस्सा है 
रुत बीत गई जब दिल से किसी की पीत गई, रुत बीत गई 
*
ख़याले-यार तिरे सिलसिले नशे की रुतें 
जमाले-यार तिरी झलकियाँ गुलाब के फूल जमाले यार : प्रेमिका की ख़ूबसूरती

सुलगते जाते हैं चुपचाप हँसते जाते हैं    
मिसाले-चेहरा-ए-पैग़मबरां गुलाब के फूल 

कटी है उम्र बहारों के सोग में 'अमजद'
मेरी लहद पे खिलें जावेदां गुलाब के फूल 
लहद : क़ब्र, जावेदां : हमेशा के लिए        
*
किसको बतायें अब जो ये उलझन आन पड़ी है 
जब तक तुमको भूल न पायें, याद न आयें 
*
प्यार की मीठी नज़र से तूने जब देखा मुझे 
तल्खियाँ सब ज़िन्दगी की लुत्फ़े-सामां हो गईं   

छा गईं दुश्वारियों पर मेरी सहल-अंगारियाँ 
मुश्किलों का इक ख़याल आया कि आसां हो गईं 
सहल-अंगारियाँ =बेफ़िक्री 

'मजीद अमजद' एक ऐसे शायर है जिससे हिंदी के पाठक तो छोड़ें, उर्दू वाले भी अधिक परिचित नहीं हैं। परिचित नहीं हैं से मेरा मतलब ये है कि उतने परिचित नहीं हैं जितने होने चाहियें। क्यों नहीं है इसका उत्तर हमें शमीम हनफ़ी जैसे बड़े आलोचक द्वारा उनके बारे में लिखी इन पंक्तियों से मिलता है " कभी कभी कुछ फ़नकार एक इंडस्ट्री बन जाते हैं अपने आप में और फिर सब कुछ उन्हीं के इर्दगिर्द घूमता है और दूसरे जो उनसे किसी लिहाज़ से कम नहीं बल्कि बाज़ औक़ात तो उनमें से कुछ का क़द निकलता हुआ होगा, उनकी अनदेखी हो जाती है। फैज़ और मन्टो जैसे रचनाकारों को इंडस्ट्री बन जाने की मिसाल हमारे सामने है जबकि मजीद अमजद जैसे बड़े और अहम शायर पसे-पुश्त डाल दिए गए। ज़दीद नज़्म निगारी के बानियों में एक अहम नाम मजीद अमजद का है। क्या ज़बान, क्या ख़्याल, क्या उस्लूब ( स्टाइल ),क्या तर्ज़े-अहसास हर सतह पर मजीद अमजद ने अपना इनफिराद (मौलिकता ) क़ायम किया है। बहुत फ़िक्र-अंगेज़ है उनकी शायरी जिसकी तह में कहीं एक गहरी उदासी की कारफ़रमाई रहती है।  

मजीद अमजद यूँ तो अपनी नज़्मों की वज़ह से जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने ग़ज़लेँ भी कहीं जो अपनी मिसाल आप हैं। उनकी ग़ज़लों की तादाद नज़्मों के मुकाबले बहुत कम है लेकिन जितनी हैं जो हैं कमाल हैं।     
  
ऐनीबुक प्रकाशन ने हाल ही में मजीद अमजद साहब की कुलियाते-ग़ज़ल और चुनिंदा नज़्में 'बहारों का सोग' नाम से प्रकाशित की है। इस किताब के लिप्यंतरण और सम्पादन की जिम्मेदारी पं. अर्श सुल्तानपुरी उठाई है। गम्भीर शायरी का लुत्फ़ लेने वाले हिंदी पाठक इसे पढ़ कर जरूर आंनदित होंगे। आप इस किताब को अमेज़न से ऑन लाइन या फिर जनाब 'पराग अग्रवाल' को 9971698930 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।   
 
इस पोस्ट में इसी किताब से उनकी ग़ज़लों के शेर बानगी के लिए आपके सामने हैं।    

 
शम'अ के दामन में शोला, शम'अ के क़दमों में राख़ 
और हो जाता है हर मंज़िल पे परवाने का नाम 
*
ज़िन्दगी की राहतें मिलती नहीं मिलती नहीं 
ज़िन्दगी का ज़हर पी कर जुस्तजू में घूमिये 
*
झोंकों में रस घोले दिल  
पवन चले और डोले दिल 

जीवन की रुत के सौ रूप 
नग्मे, फूल, झकोले, दिल 

यादों की जब पेंग चढ़े 
बोल अलबेले बोले दिल 

किसकी धुन है बावरे मन 
तेरा कौन है भोले दिल 
*
निज़ामे-कुहना के साये में आफ़ियत से न बैठ 
निज़ामे-कुहना तो गिरती हुई इमारत है 
निज़ामे-कुहना : जान से मारने के प्रबंधक , आफ़ियत :ख़ैरियत 

दिलों की झोंपड़ियों में भी रौशनी उतरे 
जो यूँ नहीं तो ये सब सैले-नूर अकारत है 
सैले-नूर :रौशनीकी किरण ,अकारत :बेकार 
*
दिन कट रहे हैं कश्मकशे-रोज़गार में 
दम घुट रहा है साया-ए-अब्रे-बहार में 
साया-ए-अब्रे-बहार :बहार के बादल का साया 

आती है अपने जिस्म के जलने की बू मुझे 
लुटते हैं निकहतों के सुबू जब बहार में 
निक़हतों के सुबू =खुशबू की सुराही 

गुज़रा उधर से जब कोई झोंका तो चौंक कर 
दिल ने कहा ये आ गए हम किस दयार में    

चलिए अमजद साहब के बारे में थोड़ा जानें। लगभग एक सौ सात पहले याने 29 जून 1914 को झंग शहर, जो अब पाकिस्तान में है, के मियाँ मुहम्मद अली के यहाँ मजीद साहब का जन्म हुआ। अभी वो छोटे ही थे कि उनके वालिद ने दूसरी शादी कर ली। उनकी माँ को ये बरदाश्त नहीं हुआ और वो नन्हें मजीद को गोद में उठाये अपने मायके आ गयीं। आप उस बच्चे की किस्मत का अंदाज़ा लगाएँ जिसको बाप के होते हुए यतीम की ज़िन्दगी बितानी पड़ी और उस बीवी का जो शौहर की मौज़ूदगी में बेवाओं की तरह रही। उनके नाना मियाँ नूर मोहम्मद, जो अरबी फ़ारसी के विद्वान थे, ने बचपन से ही मजीद साहब को दोनों ज़ुबानों से रूबरू करवाया। अमजद साहब ने मेट्रिक तक की पढाई इस्लामिया कॉलेज झंग से और गवर्मेंट कॉलेज लाहौर से सं 1934 में ग्रेजुएशन किया। लाहौर में जब कहीं नौकरी नहीं मिली तो आखिर झंग के एक अर्ध सरकारी अख़बार 'उरूज़' में बतौर एडिटर काम करने लगे। 

मजीद साहब का बचपन चूँकि एक आम बच्चे से अलग था लिहाज़ा उन्होंने अपने ज़ज़्बात का इज़हार करने को शायरी का दामन थामा। उनके साथ के बच्चे जब उनसे कोई जाती सवाल पूछते तो वो झल्ला जाते। उनके दुःख दर्द कोई समझता नहीं था इसलिए वो किसी से शेयर भी नहीं करते थे। उन्होंने अपनी एक दुनिया बना ली जिसमें वो तन्हा रहना पसंद करते। सातवीं क्लास से वो अपने दिल में जो महसूस करते उसे एक डायरी में नज़्म की शक्ल में दर्ज़ कर लेते।उनकी शायरी में बचपन के हालात का गहरा असर है क्यूंकि उनका खेलकूद नाज़ो-नख़रे उठवाने का वक़्त बरबाद हो गया इसलिए उनकी शायरी में दुखभरा अहसास मिलता है। उनकी शादी भी छोटी उम्र में कर दी गयी थी जो बदक़िस्मती से क़ामयाब नहीं हो सकी. 

पढ़ने का उन्हें बचपन से ही शौक था, 'उरूज़' अख़बार में  नौकरी के दौरान उन्होंने विदेशी साहित्य खूब पढ़ा जिसमें कीट्स,शैली,ऑस्कर वाइल्ड, विक्टर ह्यूगो और कामू जैसे लेखक विशेष हैं। दस साल 'उरूज़' में गुज़ारने के बाद उन्होंने असिस्टेंट फ़ूड कंट्रोलर के पद  पर, ता-उम्र सरकारी नौकरी की।
                   
जो तुम हो बर्क़े-नशेमन तो मैं नशेमने बर्क़ 
उलझ पड़े हैं हमारे नसीब क्या कहना 
बर्क़े-नशेमन :घोंसले पर गिरने वाली बिजली,  नशेमने बर्क़: वो घोंसला जिस पर बिजली गिरे 

लरज़ गई तेरी लौ मेरे डगमगाने से 
चराग़े-गोशा-ए-कू-ए-हबीब क्या कहना   
चराग़े-गोशा-ए-कू-ए-हबीब: प्रेमिका की गली के ताक़ में जलने वाला चराग़  
*
मेरे नसीबे-शौक़ में लिक्खा था ये मक़ाम 
हर-सू तिरे ख़्याल की दुनिया है, तू नहीं 
*
बोझल पर्दे, बंद झरोखा ,हर साया रंगीं धोका 
मैं इक मस्त हवा का झौंका, द्वारे-द्वारे झाँक चुका 
*
सहरा-ए-ज़िन्दगी में जिधर भी क़दम उठे 
रस्ते में एक आरज़ूओं का चमन पड़े 

इस जलती धूप में ये घने साया-दार पेड़ 
मैं अपनी ज़िन्दगी इन्हें दे दूँ जो बन पड़े 
*
साँझ-समय इस कुँज में ज़िन्दगियों की ओट 
बज गई क्या-क्या बाँसुरी रो गए क्या-क्या लोग 

गठरी काल रैन की सोंटी से लटकाए  
अपनी धुन में ध्यान-नगर को गए क्या-क्या लोग 

मीठे-मीठे बोल में दोहे का हिन्डोल 
सुन-सुन उसको बाँवरे हो गए क्या- क्या लोग 
*
रूहों में जलती आग ख़यालों में खिलते फूल 
सारी सदाक़तें किसी काफ़िर निगाह की    
सदाक़तें: सच्चाई 

जब भी ग़मे-ज़माना से आँखें हुई दो-चार 
मुँह फेर कर तबस्सुमे-दिल पर निगाह की 

नौकरी के सिलसिले में उनका ट्रांसफ़र 1945 में लाहौर से 'साहीवाल' हो गया। 'साहीवाल' में तन्हा रह कर गुज़ारा 29 साल का वक़्त उनकी 60 साला ज़िन्दगी का सबसे बेहतरीन वक़्त था। वो हमेशा इस कोशिश में रहते कि कहीं उनका ट्रांसफर बड़े शहर में न हो जाय। ज़िंदादिल, बेहद संवेदनशील- कहीं कोई हरा दरख़्त कट जाय ,कोई बच्चा उदास हो जाय ,चींटी किसी के पाँव से कुचली जाय या कोई परिंदा ज़ख़्मी हो जाय तो बहुत दुखी हो जाने वाले, सबके काम आने वाले, छोटे बड़े की इज़्ज़त करने वाले, कोई मिल गया तो साईकिल से उतर कर उसके साथ चलने वाले मजीद अमजद को 'साहीवाल' में सब पहचानते थे। 

'साहीवाल' जिसका पुराना नाम मोंटगुमरी था के पास ही विश्व प्रसिद्ध ईस्वी से लगभग 2500 वर्ष पूर्व की सभ्यता के अवशेष 'हड़प्पा' में मिले थे। इन अवशेषों के अध्यन के लिए जर्मनी से एक लड़की 'शालात' सरकारी मेहमान की हैसियत से 1957 में 'साहीवाल' आयी और मजीद अमजद साहब के घर पर रुकी। क्यों रुकी इसका मुझे पता नहीं लेकिन रुकी ये जरूर पता है। हो सकता है कि साहीवाल में ढंग का होटल न हो और मजीद साहब के पास क्यूंकि दो कमरों का मकान था और वो अकेले रहते थे तो सरकार द्वारा उसे अपने घर पर रखने का उन्हें आदेश मिला हो. खैर वो रही और रोज शाम को मजीद साहब के साथ गप्पें मारती हुई कैनाल कॉलोनी से स्टेडियम होटल तक की लम्बी सैर करती। साहीवाल जैसे छोटे क़स्बे में एक स्थानीय बन्दे के साथ गोरी लड़की का हँस हँस कर बतियाते हुए सैर करना सबके लिए दिलचस्पी का विषय था। 'शालात' मजीद साहब के ज्ञान से बहुत प्रभावित थी और शायद मजीद साहब भी उसे मन ही मन पसंद करने लगे थे। जब 'शालात' की घर वापसी का वक्त आया तो मजीद साहब ने  सोचा की उसे अपने दिल की बात बता दूँ याने इज़हारे मोहब्बत कर दूँ, लिहाज़ा वो उसे छोड़ने स्टेशन गए और साथ फूलों का गुलदस्ता भी ले गए। शर्मीले मजीद अमजद ने गुलदस्ता अपनी साइकिल पे ये सोच कर छोड़ा कि वो इसे गाड़ी चलने पर 'शालात' को पकड़ाएंगे। स्टेशन पर बतियाने में वक़्त का पता ही नहीं चला और गाड़ी स्टेशन से रेंगने लगी तो वो भी 'शालात' के साथ ही बातें करते करते ट्रेन पर चढ़ गए और क्वेटा,जो लगभग दो सौ किलोमीटर दूर था, जहाँ 'शालात' को उतरना था, तक चले गए, ये भूल कर कि साहीवाल स्टेशन पर वो जो अपनी साइकिल खड़ी कर आये हैं उस पर फूलों का गुलदस्ता रखा है। सफ़र ख़तम हो गया लेकिन दिल की बात ज़बाँ पर न आ पायी। ऐसा कई बार होता है कि ज़िन्दगी की ट्रेन का स्टेशन आ जाता है, दिल की कई बातें दिल ही में रह जाती हैं और मोहब्बत के फूल गुलदस्ते में लगे -लगे  मुरझा जाते हैं।
 
उस मोड़ पर अभी जिसे देखा है कौन था 
संभली हुई निगाह थी सादा लिबास था 

यादों के धुंधले देश खिली चाँदनी में रात 
तेरा सुकूत किसकी सदा का लिबास था 
सुकूत : मौन      

ऐसे भी लोग हैं जिन्हें परखा तो उनकी रूह 
बे-पैरहन थी जिस्म सरापा लिबास था 
*
मेरी मानिंद ख़ुद-निगर तन्हा 
ये सुराही में फूल नरगिस का 
ख़ुद-निगर : स्वार्थी, ख़ुद में लिप्त    

हाय वो ज़िन्दगी-फ़रेब आँखें 
तूने क्या सोचा मैंने क्या समझा     

घुंघुरुओं की झनक-मनक में बसी 
तेरी आहट ! मैं किस ख़्याल में था 

है जो ये सर पे ज्ञान की गठरी 
खोल कर भी इसे कभी देखा 
*
फिर लौट कर न आया ,ज़माने गुज़र गए 
वो लम्हा जिसमें एक ज़माना गुज़ारा था 
*
वो एक टीस जिसे तेरा नाम याद रहा 
कभी कभी तो मिरे दिल का साथ छोड़ गई 
*
झुकें जो सोचती पलकें तो मेरी दुनिया को 
डुबो गई वो नदी जो अभी बही भी न थी 

'शालात' के जाने के बाद अमजद साहब बहुत दिन उदास रहे और फिर उन्होंने 'म्यूनिख' उन्वान से एक नज़्म कही जो उर्दू शायरी में एक अहम स्थान रखती है। साहीवाल में मजीद साहब के यहाँ बाहर से अक्सर शायर आ कर ठहरा करते थे उन्हीं में एक थे भारत से आये शायर 'साहिर लुधियानवी'। एक शाम मजीद साहब ने साहिर को अपनी ताज़ा लिखी नज़्म सुनाई जिसकी शुरुआत की सतरें थीं ' ये दुनिया ये तख़्तों ये ताज़ों की दुनिया , ये रस्मों में लिथड़े रवाज़ों की दुनिया' साहिर ने नज़्म सुन कर मजीद साहब के हाथ पकड़ते हुए कहा इस नज़्म की कुछ सतरें आप मुझे इस्तेमाल करने दें ,मजीद साहब ख़ुशी ख़ुशी मान गए। साहिर ने अपने हिसाब से इस नज़्म को कहा जो बेहतरीन है लेकिन उसकी कुछ सतरें मजीद साहब की हैं ,इस नज़्म को फिल्म 'प्यासा' में मोहम्मद रफ़ी साहब ने गा कर अमर कर दिया। इसी तरह मन्टो साहब के इसरार पर मजीद साहब ने उन पर भी एक नज़्म कही है जो बहुत सराही गयी खास तौर पर ये लाइनें  'कौन है जो बल खाते ज़मीरों के पुर-पेच धुंधलकों में /रूहों के इफ्रीत-कदों ( राक्षसों के घर ) के ज़हर-अन्दोज़ (ज़हरीले)महलकों (छोटी जगह)  में /ले आया है यूँ बिन पूछे अपने आप /ऐनक के बर्फीले शीशों से छनती नज़रों की चाप /कौन है ये गुस्ताख़ /ताख़ तड़ाक। 

शायरी के माध्यम से खुद को दुनिया से जोड़ने वाले, दाद वसूलने और किसी को खुश करने की ख़्वाइश से कोसों दूर हो कर शायरी करने वाले मजीद साहब को जीते जी वो पहचान नहीं मिली जिसके वो हक़दार थे। उनकी सिर्फ एक किताब 'शबे-रफ़्ता' ही उनके सामने 1958 में शाया हुई थी। 

उस दौर के पाँच बड़े शायरों  फ़ैज़ (1911 ), नासिर काज़मी (1925) ,मुनीर नियाज़ी (1928 )नून मीम राशिद (1910 ) और जोश (1898 ) के साथ में मजीद साहब का नाम शुमार होता है। मजीद साहब के पास ख़्यालों की बहुत बड़ी रेंज थी उनके शायरी के केनवास पर इतने रंग है जो और किसी शायर के यहाँ नज़र नहीं आते।        

बिखरती लहरों के साथ दिनों के तिनके भी थे 
जो दिल में बहते हुए रुक गए ,नहीं गुज़रे 
*
ध्यान में रोज़ छमछमाता है 
क़हक़हों से लदा हुआ ताँगा 

दो तरफ़ बँगले रेशमी नींदें 
और सड़क पर फ़क़ीर इक नाँगा 
*
तू कि अपने साथ है अपने बदन के वास्ते 
कोई तेरे साथ तन्हा है तिरे दिल के लिए 
*
दुनिया के ठुकराए हुए लोगों का काम 
पहरों बैठे बातें करना दुनिया की 
*
क़ालीनों पर बैठ के अज़्मत वाले सोग में जब रोए 
दीमक लगे ज़मीर इस इज़्ज़ते-ग़म पर क्या इतराए थे 
अज़्मत: प्रभावशाली 
*
तुझे तो इल्म है क्यों मैंने इस तरह चाहा 
जो तूने यूँ नहीं चाहा तो क्या, जो तू चाहे  

सलाम उनपे तहे-तेग़ भी जिन्होंने कहा 
जो तेरा हुक्म जो तेरी रज़ा जो तू चाहे  
तहे-तेग़ : तलवार के नीचे 

रिटायरमेंट के बाद मजीद साहब की माली हालत और सेहत बिगड़ती गयी।सरकार के ख़िलाफ़ जब तक लिखने की वजह से उनकी पेंशन और वजीफ़ा रोक दिया गया लेकिन फिर भी उनका स्टेडियम होटल जाने और अपनी टेबल के बिल अदा करने की आदत में कभी रूकावट नहीं आयी। एक बार जब महफ़िल बर्खास्त हुई तो आदतन मजीद साहब ने बिल अदायगी के लिए जब जेब में हाथ डाला तो पाया कि वो खाली है तब मुस्कुराते हुए वेटर से बोले 'आज का बिल उधार रहा मियां इसे कल अदा करूँगा ' ।होटल का मालिक 'जोगी' जो अमजद साहब का जिगरी दोस्त था, उनकी माली हालत से वाक़िफ़ था लेकिन कुछ मदद नहीं कर पा रहा था क्योँ कि उसे डर था कि मदद की पेशकश से कहीं उनकी खुद्दारी को ठेस न पहूंचे।आज दूर से ये नज़ारा देख उससे रहा नहीं गया वो टेबल पर आया और आराधना फिल्म के गाने 'बागों में बहार है' की तर्ज़ पर अमजद साहब से पूछा 'मजीद भाई ये होटल किसका है ?' मजीद साहब ने जवाब दिया 'आपका' जोगी ने फ़ौरन पूछा 'आप दोस्त किसके है ?' मजीद साहब ने मुस्कुराते हुए कहा 'आपका', 'जोगी साहब ने बिना वक़्त गँवाए फिर पूछा 'इस टेबल पर आया सामान किसका था?' मजीद साहब ने कहा 'आपका' जोगी हँसते हुए बोला कि 'जब होटल मेरा है, आप मेरे हैं, टेबल पर रखा सामान मेरा है तो इसके बिल अदा करने का हक़ किसका हुआ ?अमजद साहब बिना सोचे बोले 'आपका'। ये ही जोगी सुनना चाहता था वो मुस्कुराते हुए वहाँ जमा सब लोगों से बोला 'सुना आप सबने माजिद भाई ने क्या कहा, आज से इस टेबल पर इनकी मौजूदगी में जो आएगा उसका बिल खाक़सार ही अदा करेगा। मन ही मन में अमजद साहब समझ गए कि जोगी ने उनकी इज़्ज़त को बड़ी ख़ूबसूरती से बचाया है। उस दिन के बाद से जोगी ने कभी मजीद साहब को बिल अदा नहीं करने दिया। हाय कहाँ गए ऐसे लोग और ऐसे दोस्त !!  

धीरे धीरे आँख से नज़र आना बंद हो गया। 11 मई 1974 की दोपहर को खाना खाने के बाद उन्होंने अपने खिदमतगार 'अली मोहम्मद' जो शुरू से उन्हीं के पास रहता था लेकिन काम कहीं और करता था को बाजार से कुछ लाने को भेजा। जब वो वापस लौटा तो उसने देखा कि मजीद साहब बेसुध अपनी खाट पर पड़े हैं। डॉक्टर बुलवाया गया जिसने आते ही उन्हें मृत घोषित कर दिया। 

साहीवाल के डिप्टी कमिश्नर जावेद क़ुरेशी जो मजीद साहब के प्रशंसक थे को जैसे ही खबर मिली उन्होंने उनके घर में पड़े वो सारे कागज़ात जिन पर मजीद साहब ने कुछ लिख रखा था यूनाइटेड बैंक के लॉकर में रखवा दिए। उनके क़लाम के चोरी हो जाने का अंदेशा जो था। 
जावेद साहब ने अपनी देखरेख में आनन फानन में फ़ूड विभाग का एक छोटा ट्रक जिसमें खाने का तेल गाँव गाँव सप्लाई होता था को धो पौंछ कर तैयार करवाया उनकी देह को फूलों से सजाया और उन्हें झंग दफ़नाने के लिए भेज दिया। जनाज़े में उनका अपना कोई नहीं था सिवा उन चंद दोस्तों के जो उनके साथ स्टेडियम होटल की टेबल के इर्दगिर्द बैठा करते थे। 
उनकी वफ़ात के बाद लॉकर से कागज़ निकाल कर पढ़े गए और उनके लिखे को 'शबे -रफ़्ता के बाद' शीर्षक से छपवाया गया। 
आज उन पर सैंकड़ो किताबें और हज़ारों आर्टिकल छप चुके हैं लेकिन उन्हें देखने वाले मजीद साहब नहीं हैं। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर झंग में जो एक पब्लिक पार्क भी बनवाया गया था वो अब देख रेख के अभाव में कूड़े के ढेर में बदल चुका है। यू ट्यूब पर आप उस पार्क की हालत देख, शर्मिंदा हो सकते हैं। भारत हो या पाकिस्तान, अदीबों के साथ हम ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं ? शायद किसी के पास जवाब हो लेकिन मेरे पास नहीं है। 
अंत में उनके चंद अशआर और :

चैत आया, चेतावनी भेजी, 'अपना वचन निभा'
पतझड़ आई,  पत्र लिखे, 'आ जीवन बीत चला'

खुशियों का मुख चूम के देखा, दुनिया मान भरी 
दुःख वो सजन कठोर कि जिसको रूह करे सजदा 

शीशे की दीवार ज़माना, आमने सामने हम 
नज़रों से नज़रों का बँधन, जिस्म से जिस्म जुदा
*
तिरे ख़्याल के पहलू से उठ के जब देखा 
महक रहा था ज़माने में कू-ब-कू तिरा ग़म 
*
मुझे ख़बर भी न थी और इत्तिफ़ाक़ से, कल 
मैं इस तरफ से जो गुज़रा वो इन्तिज़ार में थे