Monday, June 25, 2018

किताबों की दुनिया -183

समझौते पहने मिले रेशम का परिधान
बे-लिबास पाए गए सारी उम्र उसूल 

जबसे खिली पड़ौस में सोनजुही उद्दाम 
रातें नागफनी हुईं दिन हो गए बबूल 

हर क्यारी में है यहाँ क्षुद्र स्वार्थ की बेल 
मूल्य सर्वथा हो गए उपवन से निर्मूल 

इस तरह की किताबें जिनमें हिंदी शब्दों का अनूठा प्रयोग किया गया हो हमारी 'किताबों की दुनिया' श्रृंखला में बहुत कम शामिल हुई है। एक आध ग़ज़ल में या मिसरों में हिंदी शब्दों का प्रयोग तो फिर भी आया है लेकिन पूरी की पूरी किताब जो शुद्ध हिंदी में कही ग़ज़लों को सहेजे हुए हो मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी चर्चा में आयी हो। आप इसे हिंदी ग़ज़ल कहें ,हिंदी लिपि में प्रकाशित ग़ज़लों की किताब कहें या हिंदी लेखक की कलम से निकली ग़ज़लों दोहों कविताओं की किताब कहें ये आपकी मर्ज़ी। मुझे ये किताब भाषा और कथ्य के लिहाज़ से कुछ अलग हट के लगी इसलिए मैंने इसे आपके के लिए प्रस्तुत करने का फैसला किया। आप इसे इत्मीनान से पढ़ें और जिन्हें हिंदी के नाम पर नाक भौं चढाने की आदत है वो भी पढ़ने की कोशिश करें।

आरसी जब भी शरीफों को दिखाई है 
अक्षरों के वंशजों ने चोट खाई है 
आरसी= दर्पण 

संग्रहालय में रखो इस शख़्स को यारों 
आज भी कम्बख्त के स्वर में सचाई है 

एक मुद्दत से तिमिर की बंद मुठ्ठी में 
रौशनी की कंज कलिका की कलाई है 
कंज कलिका =कमल के फूल की कलि 

लेखनी होगी तुम्हारी दृष्टि में मित्रो 
हाथ में गंगाजली हमने उठाई है 

अब जिस लेखक ने लेखनी को गंगाजल की तरह हाथ में उठाया हो वो निश्चय ही साहसी होगा, स्पष्ट वादी होगा और सत्य का पक्षधर होगा। आगे बढ़ने से पहले जरा इस आरसी शब्द की बात करें।जिस किसी ने भारत के किसी भी स्कूल में हिंदी भाषा का अध्ययन किया है उसने 'हाथ कंगन को आरसी क्या ' वाला मुहावरा जरूर पढ़ा होगा। इसका अर्थ ये है कि हाथ में पहने कंगन को देखने के लिए दर्पण की क्या जरुरत है ?शायद ही कोई महिला हाथ में रची मेहँदी, उँगलियों में पहनी अंगूठी या फिर कलाई में पहने कंगन को देखने के लिए दर्पण का सहारा लेती है। तो उसी आरसी शब्द का विलक्षण प्रयोग यहाँ किया गया है। अगर आपने आरसी शब्द को कहीं और उपयोग में लेते पढ़ा सुना है तो आप वाकई महान हैं। कहने का मतलब ये है कि इस किताब में आपको ऐसे शब्द पढ़ने को मिलेंगे जो कभी प्रचलन में थे अब नहीं हैं।

दीमकों के नाम हैं बन्सीवटों की डालियाँ 
नागफनियों की कनीजें हैं यहाँ शेफालियाँ 
शेफालियाँ=चमेली के फूल 

छोड़कर सर के दुपट्टे को किसी दरगाह में 
आ गयी हैं बदचलन बाज़ार में कव्वालियां 

घोंप ली भूखे जमूरे ने छुरी ही पेट में 
भीड़ खुश हो कर बजाये जा रही हैं तालियां 

हमारे समाज की बुराइयों और विडंबनाओं को निर्ममता से उधेड़ने वाले आज के रचनाकार हैं 23 सितम्बर 1952 को नुनहाई, फर्रुखाबाद उत्तर प्रदेश में जन्में श्री " शिव ओम अम्बर" साहब जिनकी किताब "विष पीना विस्मय मत करना" की आज हम बात करेंगे। शिव ओम अम्बर साहब बहुमुखी प्रतिभा के धनि हैं। माँ सरस्वती का वरद हस्त उनके सर पर है। उन्होंने आत्मकथात्मक डायरियां लिखी हैं , कविताओं और दोहों के अलावा उनकी गद्य रचनाएँ हिंदी साहित्य में विशेष स्थान रखती हैं। ग़ज़ल उनके लिए सबसे पहले अन्याय के प्रति आक्रोश प्रकट करने का माध्यम रही और उसके बाद गृहस्त जीवन में प्रेम की प्रस्तावना बनी सामाजिक जीवन की मंगल कामना बनी और अब ये उनके आराध्य की उपासना का माध्यम है।


 वेशभूषा पहन पुजारी की 
 है खड़ी शख़्सियत शिकारी की 

 इन दिनों है घिरी बबूलों से 
 पाटली नायिका बिहारी की 

 भोर से साँझ तक नचाती है 
 भूख है डुगडुगी मदारी की 

 शिकारी की शख़्सियत वाले शेर में शिव साहब ने देखिये किस ख़ूबसूरती से हमारे समाज में फ़ैल रही विकृति और कुरीति के खिलाफ खरी-खरी बात की है..आज यही खरा-खरा कहने की प्रवृति ही उनकी पहचान बन गयी है। पिछले चार दशकों से वाचक कविता -ग़ज़ल के मंच पर उनकी सक्रिय सहभागिता इस बात का प्रमाण है। वो मंच से अपनी कविताओं और ग़ज़लों से ऐसा सम्मोहन पैदा करते हैं कि श्रोता वाह वाह करता नहीं थकता। उनका कुशल मंच सञ्चालन अधिकतर कार्यक्रमों की सफलता का राज़ है। ये लोकप्रियता उन्होंने यूँ ही अर्जित नहीं की इसके पीछे बरसों की साहित्य सेवा और परिश्रम है। वो न गलत कहना पसंद करते हैं और न ही सुनना। जो बात उन्हें अच्छी नहीं लगती उसे सार्वजानिक रूप में स्वीकार करने में उन्हें डर नहीं लगता। 

घाट पे घर नहीं बना लेना 
हाट में आ उधार मत करना 

 चंद लम्हें जुनूं को भी देना 
 हर क़दम पे विचार मत करना 

 लफ़्ज़ मत घोलना इबादत में 
 इश्क को इश्तहार मत करना 

 लेखन उन्होंने बारहवीं कक्षा पास करने के बाद याने 15 वर्ष की आयु से प्रारम्भ किया। वो एक पारिवारिक विवाह समारोह में अल्मोड़ा गए। शादी के तुरंत बाद नवदम्पति के साथ उन्हें एक स्थानीय मंदिर में जाने का मौका मिला। वो दिन मंगलवार का था और उस दिन मंदिर में बकरों की बलि देने का रिवाज़ था जिसे देख कर युवा शिव का मन खिन्न हो गया। वो देवता को बिना प्रणाम किये ही गुस्से में घर लौट आये। वहां से लौट कर उन्होंने पहली बार अपने आक्रोश को व्यक्त करने के लिए शब्दों का लिबास पहनाया और पहली कविता लिखी । उसी शाम घर में हुए रंगारंग कार्यक्रम में उन्हें भी कुछ सुनाने को कहा तो उन्होंने उसी रचना को पढ़ कर सुनाया जिसमें उन्होंने इस कर्मकांड के जायज़ होने पर सवाल किया था , उनके विचार की सबने प्रशंसा की और स्थानीय कवि ने अपने पास बुला कर पीठ थपथपा कर कहा की तुम कवि हो कवितायेँ लिखा करो। बस उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 

 सुविधा से परिणय मत करना 
 अपना क्रय-विक्रय मत करना 

 हँसकर सहना आघातों को 
 झुकना मत अनुनय मत करना 

 सुकरातों का भाग्य यही है
 विष पीना विस्मय मत करना 

 जैसा कि मैंने पहले लिखा है शिव ओम जी ने विविध विषयों पर सफलता पूर्वक कलम चलाई है। उनके लेखन का केनवास बहुत बड़ा है। आराधना अग्नि की (ग़ज़ल संग्रह) , शब्दों के माध्यम से अशब्द तक (गीत संग्रह),अंतर्ध्वनियाँ (लघु कवितायेँ), दोहा द्विशती, अक्षर मालिका आदि काव्य रचनाओं की किताबें बहुत चर्चित हुई हैं इसके अलावा उनकी गद्य रचनाएँ गवाक्ष दृष्टि , परिदृश्य ,आलोक अभ्यर्चन,सत्य कहूं लिखी कागद कोरे ,आस्वाद के आवर्त और साहित्य कोना -सात खंड आदि प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। वो बरसों से फर्रुखाबाद से प्रकाशित राष्ट्रीय सहारा अखबार में नियमित रूप से " साहित्य कोना " के अंतर्गत लेख लिखते आ रहे हैं। इसके अलावा कलकत्ता से प्रकाशित हिंदी पत्रिका "द वेक" में भी वो नियमित रूप से छपते रहे हैं . उनकी रचनाएँ इंटरनेट की सभी कविता के लिए प्रसिद्ध वेब साइट जैसे 'कविता कोष' , अनुभूती आदि पर उपलब्ब्ध हैं। 

 यहाँ से है शुरू सीमा नगर की 
 यहाँ से हमसफ़र तन्हाईयाँ हैं 

 हुईं किलकारियां जब से सयानी 
 बहुत सहमी हुई अँगनाइयाँ हैं 

 हमारी हर बिवाई एक साखी 
 बदन की झुर्रियां चौपाइयाँ हैं 

 चालीस वर्ष के लेखकीय जीवन में अपने इलाके की मशहूर हस्ती के रूप में विख्यात प्रयोगधर्मी रचनाकार डा. शिव ओम यूँ तो अनेको बार विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित होते रहे हैं लेकिन उनमें " उप्र हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान ","श्री भानुप्रताप शुक्ल स्मृति राष्ट्र धर्म सम्मान, पंडित दीनदयाल उपाध्याय पुरूस्कार , कौस्तुभ सम्मान -उत्तराखंड , गैंग-देव सम्मान -इटावा , हेडगवार प्रज्ञा सम्मान -कोलकाता उल्लेखनीय हैं। तड़क भड़क से दूर अत्यंत सादगी से जीवन यापन करने वाले मृदु भाषी लेकिन खुद्दार डा. शिव ओम जमीन से जुड़े साहित्यकार हैं।उनका कहना है कि "कवि को अपनी कविता से ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए। कवि हिमालय हो कविता गंगा। दोनों अपनी अपनी जगह पूज्य हैं। आपने स्त्रियों को स्वेटर बुनते देखा होगा , घर के कामकाज के बीच अवसर मिलते ही वो कुछ सलाइयां बन लेती हैं और धीरे धीरे स्वेटर तैयार हो जाता है। मेरी ग़ज़लें भी ऐसे ही बुनी जाती हैं। " 

 जुलाहे तक रसाई चाहता हूँ 
 समझना हर्फ़ ढाई चाहता हूँ 

 नहीं मंज़ूर है खैरात मुझको 
 पसीने की कमाई चाहता हूँ 

 सजे जिसपर महादेवी की राखी 
 निराला-सी कलाई चाहता हूँ 

 सभा में गूंजती हों तालियां जब 
 सभागृह से विदाई चाहता हूँ

 "विष पीना विस्मय मत करना" को पांचाल प्रकाशन फर्रुखाबाद ने कॉफ़ी टेबल साइज़ में बहुत ही आकर्षक आवरण के साथ प्रकाशित किया है। इस किताब की प्राप्ति के लिए या तो आप पांचाल प्रकाशन को 9452012631 पर संपर्क करें या श्री अम्बर को उनके घर के पते 4/10, नुनहाई ,फर्रुखाबाद -209625 पर पत्र लिखें। मेरी आपसे गुज़ारिश है कि इन अद्भुत ग़ज़लों से सजी किताब के लिए जो हिंदी ग़ज़ल के पुरोधा कवि दुष्यंत कुमार को समर्पित की गयी है श्री शिव ओम जी को उनके मोबाईल न 9415333059 पर संपर्क कर बधाई दें। मुझे ये किताब उनके होनहार शिष्य श्री चिरंजीव उत्कर्ष जो स्वयं भी उभरते हुए ग़ज़लकार हैं ,के माध्यम से प्राप्त हुई। मैं श्री उत्कर्ष जी का दिल से आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे एक विलक्षण प्रतिभा के व्यक्ति की रचनओं से रूबरू होने का मौका दिया। चलते चलते लीजिये प्रस्तुत हैं शिव जी की एक ग़ज़ल के ये लाजवाब छोटी बहर के शेर : 

 जीने की ख़्वाहिश है तो 
 मरने की तैयारी रख 

 सबके सुख में शामिल हो 
 दुःख में साझेदारी रख 

 दरबारों से रख दूरी 
 फुटपाथों से यारी रख 

 श्रीमद्भगवद गीता पढ़ 
 युद्ध निरंतर जारी रख

Monday, June 18, 2018

किताबों की दुनिया - 182

तेज़ आंधी में किसी जलते दिए की सूरत 
मेरे होंठों पे लरज़ता है तिरा नाम अभी 
 *** 
पहले कहाँ थे हम में उड़ानों के हौसले 
ये तो कफ़स में आ के हमें बाल-ओ-पर लगे
*** 
अश्क देखा है तिरि आँखों में 
तब कहीं डूबना आया है मुझे 
*** 
मुतमइन मेरे बदन से कोई ऐसा तो न था 
जैसे ये तीर हैं, आराम से निकले ही नहीं
*** 
गुज़रे वक्त को याद करें अब वक़्त कहाँ 
कुछ लम्हे तो एक ज़माना चाहते हैं 
*** 
मैंने देखा ही नहीं था तिरे दर से आगे 
मैंने सोचा ही नहीं था कि किधर जाऊंगा 
*** 
नज़र भी तनफ़्फ़ुस का देती है काम 
ज़रा देखिये तो किसी की तरफ
तनफ़्फ़ुस=साँस 

क्या जरुरी है कि जो हमेशा करते आएं हैं वही किया जाय ? क्यों नहीं कुछ बदलाव किया जाय क्यूंकि बदलाव ही जीवन है। मज़ा ही लीक तोड़ने में है ,शायद आपको पता न हो "नीरज गोस्वामी " नाम के एक मामूली शायर का शेर है कि ' लुत्फ़ है जब राह अपनी हो अलग ,लीक पर चलना कहाँ दुश्वार है". तो आज लीक पर पूरी तरह से न चलते हुए उसके आसपास चलते हैं ,शायद इससे कुछ अलग सा लुत्फ़ आ जाये और नीरज जी की बात सच साबित हो जाय। शुरुआत तो हमने कर ही दी है, फुटकर शेर पहले दे दिए हैं जो अमूमन आखिरी में आते हैं। ऊपर दिए शेर पढ़ कर आप को ये अंदाज़ा तो हो ही गया होगा कि शायर का नाम जो हो उनका काम जरूर ख़ास है और इसी ख़ासियत की वजह ने ही मुझे उनका काम आप तक पहुँचाने पर मज़बूर किया है।

जाने क्या बातें करती हैं दिन भर आपस में दीवारें  
दरवाज़े पर क़ुफ़्ल लगा कर, हम तो दफ्तर आ जाते हैं 
क़ुफ़्ल=ताला 

अपने दिल में गेंद छुपा कर उनमें शामिल हो जाता हूँ 
ढूंढते ढूंढते सारे बच्चे मेरे अंदर आ जाते हैं 

नाम किसी का रटते रटते एक गिरह सी पड़ जाती है 
जिन का कोई नाम नहीं, वो लोग ज़बाँ पर आ जाते हैं 

मैं तो अपने तजुर्बे से ही कह सकता हूँ कि पढ़ना बहुत अच्छी आदत है। पढ़ते रहने से आप बहुत अच्छे शायर भले न हो पाते हों लेकिन आपकी शायरी की समझ जरूर बेहतर हो जाती है। आप अच्छे-बुरे में थोड़ा बहुत फ़र्क करना सीख जाते हैं और जब कभी इत्तेफ़ाकन कोई अच्छी शायरी नज़रों से गुज़रती है तो आपके मन में फील-गुड फैक्टर आ ही जाता है। एक अच्छा शेर आपके पूरे दिन को महका सकता है। मेरी बात से आप इत्तेफ़ाक़ रखें ये बिलकुल जरूरी नहीं है। आप तो बस शायरी का लुत्फ़ लें, ये बातें तो यूँ ही होती रहेंगी।

इसे ये घर समझने लग गए हैं रफ़्ता रफ़्ता 
परिंदों से क़फ़स आज़ाद करवाना पड़ेगा 
क़फ़स=पिंजरा 

उदासी वज़्न रखती है जगह भी घेरती है 
हमें कमरे को ख़ाली छोड़ कर जाना पड़ेगा 

कहीं संदूक ही ताबूत बन जाय न इक दिन
हिफाज़त से रखी चीज़ों को फैलाना पड़ेगा

परिंदे से कफ़स आज़ाद करने वाली बात ने तो कसम से मेरा दिल तो लूट ही लिया, आप पर क्या असर किया ये अब मुझे तो कैसे मालूम पड़ेगा ? खैर!! कहने का सीधा सा मतलब ये कि आज जिस किताब का जिक्र हो रहा है उसे मैंने पिछले एक महीने में बहुत आराम से पढ़ा एक एक पेज पर ठिठक कर लुत्फ़ लेते हुए। ये किताब है ही ऐसी कि इसे सरसरी तौर पर नहीं पढ़ा जा सकता। पता ही नहीं चलता कि अचानक कोई ऐसा शेर आपके सामने आ जाता है जो रास्ता रोक के अपने पास बैठा लेता है -कभी एक दोस्त की तरह, कभी किसी अज़ीज़ की तरह तो कभी उसकी तरह जिसका जिक्र दिल में घंटियां बजाने लगता है।

ये मेज़ ये किताब, ये दीवार और मैं 
खिड़की में ज़र्द फूलों का अंबार और मैं 

इक उम्र अपनी अपनी जगह पर खड़े रहे 
इक दूसरे के ख़ौफ़ से, दीवार और मैं 

ख़ुश्बू है इक फ़ज़ाओं में फैली हुई,जिसे
पहचानते हैं सिर्फ सग-ए-यार, और मैं 
सग-ए-यार=महबूब का कुत्ता 

एक बात बताऊँ, ज्यादा तो नहीं लेकिन मैंने करीब 300 ग़ज़लों की किताबें तो अब तक पढ़ ही डाली होंगी पर कहीं किसी किताब में मैंने महबूब के कुत्ते का ज़िक्र इस तरह से किया हुआ नहीं पढ़ा और तो और 'सग-ए -यार' लफ्ज़ भी मेरी नज़रों से नहीं गुज़रा , हो सकता है इसकी वजह मेरा उर्दू में हाथ तंग होना हो। अब आप पूछेंगे कि ऐसा अनूठा शायर है कौन और किस किताब का जिक्र किया जा रहा है ? तो जवाब है कि शायर हैं ज़नाब "ज़ुल्फ़िकार आ'दिल" और किताब है "मौसम इतना सर्द नहीं था ". एक और बात भी बताये देता हूँ कि इस किताब को पढ़ने से पहले मैंने न तो जनाब "ज़ुल्फ़िकार आ'दिल " का नाम सुना था और न ही उनका लिखा कहीं पढ़ा था। इसका अगर कारण पूछेंगे तो मासूम सा चेहरा बना कर जवाब दूंगा कि इनका लिखा हिंदी में शायद आसानी से कहीं पढ़ने को उपलब्ब्ध नहीं है। ये बात सरासर गलत भी हो सकती है लेकिन मेरे लिए सही है।


इक तस्वीर मुकम्मल कर के उन आंखों से डरता हूँ 
फस्लें पक जाने पर जैसे दहशत इक चिंगारी की 

हम इन्साफ नहीं कर पाए, दुनिया से भी, दिल से भी 
तेरी जानिब मुड़ कर देखा ,या'नी जानिबदारी की 
जानिबदारी=पक्षपात 

अपने आप को गाली दे कर घूर रहा हूँ ताले को 
अल्मारी में भूल गया हूँ, फिर चाबी अल्मारी की 

कोई ज़माना था जब ग़ज़लों की कोई नयी किताब साल भर में नज़र आया करती थी तब लोग ग़ज़लें पढ़ते और सुनते ज्यादा थे अब आलम ये है कि ग़ज़ल की किताबें थोक में छप रही हैं, लोग पढ़ते सुनते कम हैं और लिखते ज्यादा हैं। ये जो सोशल मिडिया पे तुरंत लाइक और वाहवाही का दौर चला हुआ है उसकी बदौलत सामइन से ज्यादा शायर हो गए हैं मारकाट मची हुई है और इस से सबसे ज्यादा नुक़सान शायरी को ही हो रहा है. वो ही घिसे पिटे भाव वो ही हज़ारों बार बरते लफ्ज़ और उपमाएं अब तो उबकाई पैदा करने लगे हैं , ऐसे में किसी जुल्फ़िक़ार आ'दिल की शायरी बाज़ार में मिलने वाले रंग बिरंगे पानियों (कोल्ड ड्रिंक ) के बीच मख्खन की डली पड़ी हुई लस्सी की तरह है।

अश्क इस दश्त में, इस आँख की वीरानी में 
इक मोहब्बत को बचाने के लिए आता है 

यूँ तिरा ख़्वाब हटा देता है सारे पर्दे 
जिस तरह कोई जगाने के लिए आता है 

एक किर्दार की उम्मीद में बैठे हैं ये लोग 
जो कहानी में हँसाने के लिए आता है 

इस बेजोड़ शायर की पहली ग़ज़ल मैंने लफ़्ज़ पत्रिका के एक तरही मुशायरे में पढ़ी थी। ग़ज़ल ग़ज़ब थी और शायर अनजान। तब किसने सोचा था कि कभी इनकी किताब पे लिखने का मौका मिलेगा। ज़ुल्फ़िकार आ'दिल साहब के बारे में जानने की मेरी सभी तरकीबें नाकामयाब रहीं ,गूगल महाशय खामोश ही रहे यार दोस्तों ने अजीब सी शक्ल बना के कहा कौन ज़ुल्फ़िकार ? पाकिस्तान में अपना कोई परिचित है नहीं जिसके यहाँ गुहार लगाते। कहाँ कहाँ किसे किसे नहीं कहा लेकिन नतीज़ा -ठन-ठन गोपाल। ले दे के जितनी जानकारी मुझे इस किताब से हासिल हुई वो ही साझा कर रहा हूँ।पहली बात तो ये कि जनाब 15 फ़रवरी 1972 को पंजाब के शहर शुजाआ'बाद (मुल्तान) में पैदा हुए। ये बताने की जरुरत तो नहीं है न कि मुल्तान पकिस्तान में है। पेशे से हुज़ूर मेकैनिकल इंजिनियर हैं तभी तो इनकी शायरी में इतना परफेक्शन है , सब कुछ एक दम सही अनुपात में ,नपा-तुला। मेरे कहने पे शक हो तो आप उसी तरह ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें जो मैंने लफ़्ज़ में पढ़ी थी :

अपने आग़ाज़ की तलाश में हूँ 
अपने अन्जाम का पता है मुझे 

बैठे-बैठे इसी ग़ुबार के साथ 
अब तो उड़ना भी आ गया है मुझे 

रात जो ख़्वाब देखता हूँ मैं 
सुब्ह वो ख़्वाब देखता है मुझे 

कोई इतने क़रीब से गुज़रा 
दूर तक देखना पड़ा है मुझे 

मुझे ये मानने में कतई गुरेज़ नहीं है कि ज़ुल्फ़िकार साहब की शायरी मीर-ओ-ग़ालिब या फिर फ़िराक़-ओ-जोश जैसी नहीं है और हो भी क्यों ? जब ओरिजिनल मौजूद हैं तो डुप्लीकेट की जरूरत क्यों हो ? उनकी शायरी ज़ुल्फ़िकार जैसी है और ये कोई छोटी मोटी बात नहीं। उर्दू शायरी के इस अथाह सागर में अपनी पहचान बनाना बहुत बड़ी बात है। अनुसरण वो करते हैं जिनके पास अपना खुद का कुछ नहीं होता। मज़ा तब है जब भीड़ आपके पीछे चले, आप किसी के पीछे भीड़ का हिस्सा बन के चलें इसमें क्या मज़ा है ? मैं पाकिस्तान के मशहूर शायर जनाब "ज़फ़र इक़बाल" साहब की इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ कि "शे'र तो वो होता है जिसे पढ़ कर दूसरों के साथ भी शेयर करने को जी चाहे। उम्दा शेर तो हमेशा रहने वाले दान की तरह होता है। शेर का दूसरों से मुख़्तलिफ़ होना ही इसकी अस्ल खूबी है "

तुम मुझे कुछ भी समझ सकते हो 
कुछ नहीं हूँ तो ग़नीमत समझो 

ये जो दरिया की ख़मोशी है इसे 
डूब जाने की इज़ाज़त समझो 

मैं न होते हुए हो सकता हूँ 
तुम अगर मेरी ज़रूरत समझो 

ज़ुल्फ़िकार सिर्फ शायर होते तो बात अलग थी लेकिन ये पूरा पैकेज हैं याने ये पूछिए कि क्या नहीं हैं। इंजिनियर हैं ये तो मैं बता ही चुका हूँ ,बिलकुल अलग किस्म के शायर हैं ये आपको अब तक अंदाज़ा हो ही गया होगा इसके अलावा हज़रत ने स्टेज के लिए न सिर्फ ड्रामे लिखे बल्कि उनका निर्देशन और उनमें अभिनय भी किया है। टी.वी ड्रामे भी लिखे और उनके लिए गीत भी। कहानियां तो खैर ढेरों लिखी ही हैं एक उपन्यास भी मुकम्मल करने में लगे हुए हैं। इन सब से जब फुर्सत मिलती है तो मुशायरों बाकायदा हाज़री बजाते हैं , मुशायरा चाहे पाकिस्तान में हो हिंदुस्तान में या किसी भी और मुल्क में।

कुछ बताते हुए, कुछ छुपाते हुए 
मैं हंसा, मा'ज़रत, रो दिया मा'ज़रत 
मा'ज़रत=क्षमा 

जो हुआ, जाने कैसे हुआ, क्या खबर
जो किया, वो नहीं हो सका, मा'ज़रत 

हमसे गिर्या मुकम्मल नहीं हो सका 
हमने दीवार पर लिख दिया मा'ज़रत 
गिर्या =विलाप 

मैं कि खुद को बचाने की कोशिश में था 
एक दिन मैंने खुद से कहा, मा'ज़रत 

भला हो रेख़्ता फाउंडेशन का जिसने रेख़्ता बुक्स की स्थापना की है। रेख़्ता बुक्स का उद्देश्य बुनियादी तौर पर उर्दू शायरी और उसके प्रेमियों के दरमियान किताब का पुल बनाने का प्रकाशन-प्रोजेक्ट है। इसी प्रोजेक्ट का हिस्सा है 'रेख़्ता हर्फ़-ए-ताज़ा सीरीज' जिसके अंतर्गत इस किताब का प्रकाशन हुआ है। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप रखता बुक्स को उनके पते "बी-37, सेक्टर-1, नोएडा -201301 पर पत्र लिखें या contact@rekhta.org पर मेल करें। ये किताब अमेज़न से भी ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये किताब पढ़ने लायक है इसमें कोई शक नहीं। पढ़िए और आनंद लीजिये। चलते चलते एक ग़ज़ल के ये शेर भी पढ़िए :

सोचा ये था वक़्त मिला तो टूटी चीज़ें जोड़ेंगे 
अब कोने में ढेर लगा है, बाकी कमरा खाली है 

बैठे-बैठे फेंक दिया है आतिश-दान में क्या क्या कुछ 
मौसम इतना सर्द नहीं था जितनी आग जला ली है 

अपनी मर्ज़ी से सब चीज़ें घूमती फिरती रहती हैं 
बे तरतीबी ने इस घर में इतनी जगह बना ली है 

ऊपर सब कुछ जल जायेगा कौन मदद को आएगा
जिस मंज़िल पर आग लगी है सब से नीचे वाली है 

यूँ तो मैं चला ही गया था लेकिन लौट के सिर्फ ये बताने आया हूँ कि अगर आप ये सोच रहे हैं कि जैसा मैंने शुरू में लिखा था कि इस बार थोड़ा लीक से हटते हैं तो हटा क्यों नहीं ?या कहाँ हटा ? सब कुछ वैसा ही तो है जैसा पुरानी पोस्ट्स में होता था इसमें नया है क्या ? तो जवाब दूंगा कि कुछ भी नया नहीं है जी ये तो आपको नए की खोज में पूरी पोस्ट पढ़वा ले जाने का एक घिसा-घिसाया, पिटा-पिटाया नुस्खा था जिसे मैं ही नहीं, सभी जब मौका मिले दोहराते रहते हैं। मैंने कहा और आपने मान लिया - हाय कितने भोले हैं आप !! ज़माना ख़राब है जी यूँ आँख बंद कर के लोगों पर भरोसा करना छोड़िये। बोनस के तौर पर ये शेर पेशे खिदमत हैं :

जितना उड़ा दिया गया 
उतना गुबार था नहीं 

पानी में अक्स है मिरा 
पानी मगर मिरा नहीं 

सोचा कि रात ढल गयी 
सोचा मगर कहा नहीं 

कश्ती तो बन गयी मगर 
कश्ती से कुछ बना नहीं

इस किताब में ढेरों शेर हैं जिसे आप तक पहुंचा कर मुझे ख़ुशी मिलती ,लेकिन ये संभव नहीं है। संभव ये है की आप इस किताब को मंगवाएं और फिर धीरे धीरे आराम से पढ़ें और ज़ुल्फ़िकार आ'दिल को दिल से दुआ दें।आदत से बाज़ न आते हुए कुछ फुटकर शेर और पढ़वाता चलता हूँ :

डर मिरे दिल से नहीं निकला तो अब क्या कीजिये 
जितना मर सकता था मैं, उस से ज़ियादा मर गया
*** 
खर्च कर देता हूँ सब मौजूद अपने हाथ से 
और नामौजूद की धुन में लगा रहता हूँ मैं 
*** 
दरिया, दलदल,परबत, जंगल अंदर तक आ पहुंचे थे 
इस बस्ती के रहने वाले तन्हाई से ख़त्म हुए 
*** 
दीवारों को दरवाज़े को आँगन को 
घर आने की आदत ज़िंदा रखती है
*** 
क्या देखा और क्या न देखा याद नहीं कुछ याद नहीं
नैनो के कहने में आ कर हम ने नीर बहाये नी 
 *** 
 जाने किस वक़्त नींद आयी हमें 
 जाने किस वक़्त हम तुम्हारे हुए 
 *** 
पलकें झपक झपक के उड़ाते हैं नींद को 
सोए हुओं का क़र्ज़ अदा कर रहे हैं हम

Monday, June 11, 2018

किताबों की दुनिया - 181

क्यों दिखी नहीं तुझे खूबियां कभी खुद से भी ये सवाल कर 
तूने खूब नाम कमा लिया, मेरी खामियों को उछाल कर 

मुझे चुप्पियों से न मार यूँ कोई बददुआ ही तू दे भले 
तेरी गालियां भी अज़ीज़ हैं मैं इन्हें रखूंगा संभाल कर 

यूँ समा जा मेरे वजूद में कोई फासला न हो दरम्यां 
मेरी मैं न हो तेरी मैं न हो ,इन्हें रख दे दिल से निकाल कर 

कामयाब शायरी क्या है ? वो जिसे पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया जाता है या वो जिसे सुनाकर मुशायरों में वाहवाही लूटी जाती है या वो जो सिर्फ नशिस्तों में सराही जाती जाती या वो जो आम-जन द्वारा आपसी बातचीत में मुहावरों की तरह दोहराई जाती है या वो जो समूह द्वारा नारों की तरह इस्तेमाल की जाती है ? नहीं नहीं आप मेरी तरफ उतर की अपेक्षा से नहीं देखें क्यूंकि मैं कुछ भी कहूंगा उसको खारिज़ करने में आप पूरा दम लगा देंगे - चलो आप न भी लगाएं वो तो लगा ही देंगे जो इसे पढ़ कर मुस्कुरा रहे हैं।। इसका जवाब कोई भी हो उस से फर्क नहीं पड़ता क्यूंकि हमारे आज के शायर ऐसे हैं जिनकी शायरी और रचनाएँ ऊपर दिए सभी विकल्पों पे सटीक बैठती है। ये शायर किसान हैं, वामपंथी विचारधारा के पक्षधर है और किसी राजनितिक पार्टी से भी जुड़े रह चुके हैं.आज हम चर्चा इस अनूठे शायर और इनकी लिखी किताब पर करेंगे जो अभी मेरे सामने खुली हुई है :-

 फ़ासला करना है तय मुझको कलम से तेग तक 
बीच इसके बन के तू दीवार अब मुझसे न मिल 

ज़ख्म तूने ही दिए हैं जानता है हर कोई 
ले के तू हमदर्दियों के हार अब मुझसे न मिल 

ज़िंदगी त्योंहार बनकर भी कभी आ मिल के देख 
हादसा बन-बन के तू हर बार अब मुझसे न मिल 

हमारे आज के शायर से मिलने के लिए हमें काशीपुर चलना पड़ेगा, काशीपुर, जो उत्तराखंड के जिले उधमसिंह नगर की तहसील है, एक समय गहरा घना जंगल हुआ करता था। वहां का बेहद उमस वाला गर्म मौसम, महीनो चलने वाली बारिश, दलदल और जंगली जानवरों की बहुतायत और आने जाने के सुगम रास्तों के अभाव में इंसान के रहने लायक नहीं था। 1948 में सरकार ने इसकी सुध ली और इसका विकास किया गया। आपको बताता चलूँ कि विश्व प्रसिद्ध जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क यहाँ से मात्र 25 की.मी की दूरी पर ही है। काशीपुर में अवैध खनन माफियाओं का एक इलाका है सुल्तानपुर पट्टी, जहां चौराहे से दाहिनी ओर एक ऊबड़-खाबड़-सा रास्ता मड़ैया बक्शी गांव की ओर जाता है. यह गांव उस शायर/ कवि का स्थाई पता है, जिसका नाम चलिए मिटटी खोदते हुए इस किसान से पूछते हैं। माथे से पसीना पोंछता हुआ ये किसान हमें बताता है कि इस गाँव क्या इस पूरे जिले में अगर कोई अपनी कविता या शायरी के नाम से पहचाना जाता है तो वो एक मात्र इंसान है " बल्ली सिंह चीमा " जिनकी लिखी ग़ज़लों की किताब "हादसा क्या चीज है" की बात हम करेंगे। 


 मंदिर में या मस्जिद में या रहता है गुरूद्वारे में 
मेरा बच्चा पूछ रहा था, आज ख़ुदा के बारे में 

प्यार के बंधन में बंधने में लग जाती हैं सदियां भी 
लेकिन दंगे हो जाते हैं, आँख के एक इशारे में 

तुम तो नेता नहीं हो 'बल्ली' फिर क्यों ये दो-मूँहापन 
कुछ तो सोचो, क्या सोचेंगे लोग तुम्हारे बारे में 

बल्ली सिंह जी काशीपुर के मड़ैया बक्शी गांव के नहीं हैं ये तो असल में अमृतसर जिले के चभाल तहसील के गाँव चीमा खुर्द के हैं जो कि पाकिस्तान बॉर्डर के बिलकुल पास है। इनका जन्म वहीँ 2 सितम्बर 1952 को हुआ। पिता मुरादाबाद-काशीपुर के रास्ते पर अपना ट्रक चलाते थे। बल्ली मात्र चार साल के ही थे कि इनकी माताजी का देहावसान हो गया। पिता ने तब पैतृक गाँव छोड़ा और ट्रक बेच कर 'मड़ैया बक्शी' में कोसी नदी के पास उपजाऊ जमीन खरीदी और खेती करने लगे। प्रारम्भिक शिक्षा काशीपुर में पूरी करने के बाद बल्ली जी को उनके चाचा आगे की पढाई के लिए चीमा खुर्द गाँव ले गए जहाँ उन्होंने पास ही तरन तारण जिले के 'बाबा बुड्ढा सिंह' कॉलेज में उनका दाखिला प्री यूनिवर्सिटी में करवा दिया। बल्ली जी ने कहीं बताया है कि जब वो पांचवीं क्लास में पढ़ते थे तब से किताबें पढ़ने का शौक उन्हें एक मज़दूर से पड़ा जो खाली वक्त में इब्ने सफ़ी के जासूसी उपन्यास पढ़ा करता था। बल्ली भी वही उपन्यास पढ़ने लगे, फिर तो उन्हें जैसे किताबें पढ़ने का नशा सा ही हो गया। 

मेरे दुश्मनों ने कहा मुझे कभी इस तरह से भी सोच तू 
ये भला-बुरा जो हुआ तेरा तेरी किस्मतों में लिखा न हो

तुझे चाहता हूँ मैं इस क़दर मेरे दिल में है इक आरज़ू 
करूँ काम वो मैं तेरे लिए किसी और ने जो किया न हो 

मुझे टोकता है जो रात-दिन बुरी बात से बुरे काम से  
मैं ये सोचता हूँ कभी कभी मेरे दिल कहीं ये ख़ुदा न हो 

कॉलेज में उनका संपर्क पंजाबी के शीर्ष कथाकार जनाब जोगिन्दर सिंह कैरों से हुआ जो वहां पढ़ाते थे और उन्हीं की वजह से चीमा साहब का झुकाव साहित्य की और हो गया। किस्मत की बात देखिये कि कुछ दिनों बाद उसी कॉलेज में पंजाबी साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ कवि श्री सुरजीत सिंह पातर साहब भी पढ़ाने आ गए जो अपने समकालीन कवि पाश की चर्चा किया किया करते थे। पाश उन दिनों जेल में थे। चीमा जी ने पाश को पढ़ा और बहुत प्रभावित हुए। कॉलेज के इस साहित्यिक इसी माहौल ने उन्हें कवितायेँ लिखने को प्रेरित किया। वो अपनी रचनाएँ पातर साहब को पढ़वाते और बदले में शाबाशी पाते। पातर साहब ने ही सबसे पहले उनकी कविता एक द्वैमासिक पत्रिका "चर्चा " में छपवा दी , उसके बाद फिर बल्ली जी ने पीछे मुड़ के नहीं देखा .

 मुझको दुआ वो दे गए कुछ इस अदा के साथ 
 उनका  हो उठना बैठना जैसे खुदा के साथ 

सारा जहान आज दो खेमों में बंट गया 
कोई दिए के साथ है कोई हवा के साथ 

बल्ली अधूरे मन से ही करता रहा वफ़ा 
वो बेवफ़ाई कर गया पूरी वफ़ा के साथ 

यह सब उन दिनो की बात है, जब पंजाब में नौजवान भारत सभा गठित हो रही थी। बल्ली जी भी उसके सक्रिय सदस्य बन गये । गुरुशरण सिंह के नाटकों में पंजाबी भाषा में इंकलाबी गीत गाने लगे पंजाब स्टूडेंट यूनियन के भी सक्रिय नेता हो गये । पंजाबी में जनगीत लिखने लगे । तब तक उनकी पंजाबी में ही कविताएं सीखने-लिखने की प्रक्रिया चलती रही। इसी बीच देश में इमरजेंसी लग गई। एक्टिविस्ट होने के नाते उनके नाम से भी वारंट आ गया। उनके साथियों ने उन्हें कहा कि "तुम्हारा नैनीताल घर है तो वहां चले जाओ, वरना गिरफ्तार हो जाओगे।" ये 1976 की बात है। उसी साल कोसी नदी में भयंकर बाढ़ आयी जिसमें उनकी ज़मीन बह गयी. घर घोर आर्थिक संकट में डूब गया। उनका वापस अमृतसर कॉलेज जा कर पढाई करने और वहीँ अध्यापक के रूप में पढ़ाने का सपना भी उसी के साथ चूर चूर हो गया। जो इंसान विपरीत परिस्थितियों के सामने घुटने टेक दे उसका नाम 'बल्ली सिंह चीमा ' नहीं होता। उन्होंने हाथों में हल उठा लिया, लेकिन गीत जिंदा रहे. यहीं उन्होंने खेतों में धान के साथ-साथ कविताओं के बीज बोए और आज उस फसल की हरियाली हर ओर छाई है. सुदूर ऊंचे पहाड़ों, खेतों और गांव-गांव में लोग भले चीमा का नाम न जानें, लेकिन उनके गीत गुनगुनाते हैं.  

सर उठेगा तो आप देखेंगे 
रेंगना ज़िन्दगी नहीं होती 

गर लकीरों को पीटता मैं भी
मुझमें ये ताज़गी नहीं होती

क़त्ल होते नहीं तेरी खातिर 
तू अगर चाँद-सी नहीं होती 

उनकी ओज पूर्ण कविता " ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के" ने उन्हें लोकप्रियता की सबसे ऊंची पायदान पर बिठा दिया।आज भी देश भर के कॉलेजों, विश्वविद्यालयों व फैक्टरियों में उनके गीत गाए जाते हैं, पोस्टर बनाकर चिपकाए जाते हैं. अगर गीतों का जीवंत होना, गाया जाना कवि की लोकप्रियता का पैमाना हो तो वे हमारे दौर के सबसे लोकप्रिय हिंदी कवियों में हैं. उनकी परंपरा कबीर, फैज, साहिर और दुष्यंत कुमार से जुड़ती है. वे एक साथ बगावत और प्रेम जैसी कोमल भावनाओं के कवि हैं.उनकी ग़ज़लें जुलूसों और सभाओं में कुछ इस तरह गायी गईं कि गीत और ग़ज़ल का फ़र्क ही मिट गया।बल्ली सिंह ने झोपड़ों से उठ रही आवाज को अपनी ग़ज़ल से एकाकार कर दिया।

छाया की तो बात ही छोडो आग उगलते पेड़ 
हमने दिल्ली में देखें हैं कैसे-कैसे पेड़ 

मक्खन जैसी शक़्ल है इनकी चम्मच जैसे पत्ते 
उगते हैं कुर्सी के नीचे इस जाति के पेड़ 

पीले-पीले मुरझाये-से पेड़ थे जंगल में 
उनके गमलों में देखा तो हरे-भरे थे पेड़ 

उनके प्रशंसकों की सूची में बाबा नागार्जुन और ज्ञानरंजन के नाम सर्वोपरि हैं। ज्ञानरंजन जी ने उनकी ग़ज़लों को अपनी पत्रिका 'पहल' में विशेष रूप से प्रकाशित किया था। बाबा नागार्जुन से उनके घरेलू सम्बन्ध स्थापित हो गए थे। प्रसिद्ध कवि श्री वीरेन डंगवाल जी से भी उन्हें विशेष स्नेह मिला और उन्होंने भी अपनी पत्रिका "अमर उजाला " में बल्ली जी की ग़ज़लें प्रमुखता से प्रकाशित कीं। "इण्डिया टुडे' पत्रिका के जुलाई 2012 के एक अंक में बल्ली सिंह चीमा जी पर एक पूरा लेख प्रकाशित हुआ था जिसके कुछ अंश हमने अपनी इस पोस्ट में भी इस्तेमाल किये हैं।

तू समझता है अगर क़ौम का रहबर उनको 
या तू अँधा या तेरी सोच पे जाले होंगें 

अपने हर दोष को औरों से छुपाने के लिए 
उसने औरों में कई दोष निकाले होंगे 

इन अंधेरों ने किया और अँधेरा "बल्ली" 
तुम तो कहते थे बहुत जल्द उजाले होंगे 

"हादसा क्या चीज़ है" सं 2012 ,बल्ली जी का चौथा ग़ज़ल संग्रह है ,इसके पूर्व उनके तीन ग़ज़ल संग्रह "ख़ामोशी के खिलाफ" सं 1980 में ,ज़मीन से उठती आवाज़" सं 1990 में और "तय करो किस और हो" सं 1998 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुके हैं। उनकी कविताओं की किताबों की लिस्ट भी छोटी नहीं है "हिलाओ पूँछ तो करता है प्यार अमरीका","मैं अमरीका का पिठ्ठू और तू अमरीकी लाला है" "ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के" ऐसा भी हो सकता है" आदि प्रमुख हैं। "हादसा क्या चीज़ है "ग़ज़ल संग्रह पर उन्हें सं. 2014 में राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा "आचार्य निरंजन नाथ सम्मान" से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा उन्हें अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरूस्कार(मध्यप्रदेश ) , देवभूमि रत्न सम्मान (उत्तराखंड), कुमाऊं गौरव सम्मान (उत्तराखंड), कविता कोश सम्मान (जयपुर ) तथा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के कर कमलों से केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा दिया जाने वाला "गंगाशरण सिंह" पुरूस्कार मिल चुका है

हरेक साल नया साल आये है जब भी 
पुराने ग़म को नया ग़म विदाई देता है 

वो जब कभी भी ये कहता है मैं तो छोटा हूँ 
बड़े बडों से भी ऊंचा दिखाई देता है 

किसी तरह की हो, कुर्सी पे बैठकर 'बल्ली' 
हरेक शख़्स को ऊँचा सुनाई देता है 

इस छोटी सी पेपर बैक किताब को जयपुर के बोधि प्रकाशन ने 'बोधि जन संस्करण" श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित किया है. जन संस्करण श्रृंखला बोधि का अनूठा प्रयास है इसकी जितनी भी तारीफ की जाय कम होगी। ये आम पाठक को किताबों से जोड़ने का अनुकरणीय प्रयास है. इस श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित होने वाले किताबों का मूल्य अविश्विसनीय रूप से कम होता है।इस किताब का मूल्य मात्र 40 रु ही रखा गया है। किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन के श्री माया मृग जी को इस अभिनव कार्य के लिए बधाई देते हुए 0141-2503989 पर फोन करें या उनके मोबाईल न. 9829018087 पर संपर्क करें। आप चीमा जी को जो आम आदमी पार्टी के विधायक पद से इस्तीफा दे कर अब आज़ाद हैं उनके मोबाईल न 09568881555 पर या balli.cheema@rediffmail.com पर संपर्क कर बधाई दे सकते हैं।
उनकी ग़ज़लें भले ही रवायती ग़ज़ल पसंद करने वालों को पसंद न आएं ,हो सकता है वो कहीं कहीं ग़ज़ल के व्याकरण पे भी खरी न उतरें लेकिन ग़ज़ल की लोकप्रियता का प्रमाण अगर स्मृति में उसका बैठ जाना है तो बल्ली जी की गज़लें इस बात पर खरी उतरती हैं।वो खुद एक ग़ज़ल में कहते हैं कि :

ये फ़ायलात ये फ़ेलुन न तुझसे संभलेगा 
संभाल खेत, ये कहती है शायरी मुझसे 

अगली किताब की खोज पे निकलने से पहले आईये पढ़वाता हूँ आपको उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर :

किस तरह समझाऊं तुमको हादसा क्या चीज़ है 
मेरे उजड़े घर से पूछो ज़लज़ला क्या चीज़ है 

झोंपड़ी तो जानती है घर किसे कहते हैं लोग 
या परिंदों को पता है घोंसला क्या चीज़ है 

पीपलों की छाँव में ठंडी हवाओं से मिलो 
कूलरों को क्या पता बहती हवा क्या चीज़ है 

लोग ज़िंदा जल गए जिनकी लगाई आग में 
वो बताते हैं हमें अच्छा-बुरा क्या चीज़ है

Monday, June 4, 2018

किताबों की दुनिया - 180

फिर इस दुनिया से उम्मीद-ए-वफ़ा है 
तुझे ऐ ज़िन्दगी क्या हो गया है 

बड़ी ज़ालिम निहायत बे-वफ़ा है 
यह दुनिया फिर भी कितनी खुशनुमा है 

हर इक अपने ही ग़म में मुब्तिला है 
किसी के दर्द से कौन आशना है 

बात 1969 की है ,20 मई का एक गर्म दिन ,दिल्ली में यमुना के किनारे लोगों की भीड़ लगी थी क्यूंकि एक लाश बहती हुई किनारे आ लगी थी। तब यमुना में पानी हुआ करता था ,कचरा नहीं , वो भी गर्मियों के दिनों में। लोग डुबकियां लगा लगा कर नहाया करते थे. किनारे खड़े लोग अधिकतर वही होंगे जो गर्मी से निज़ात पाने को नहाने आये होंगे और किनारे पर लाश देख कर शोर मचा दिया होगा। हम भारतीय पैदाइशी तमाशबीन हैं कोई हादसा हो या उत्सव कहीं झगड़ा हो या प्यार, फ़ौरन सब काम छोड़छाड़ कर उसे देखने खड़े हो जाते हैं. किसी ने पुलिस को खबर कर दी क्यूंकि उस वक्त मोबाईल तो होता नहीं था इसलिए शायद कहीं फोन करने की सुविधा तलाश की होगी या किसी और प्रकार से बताया होगा । अच्छे लोग हुआ करते थे उन दिनों क्यूंकि उनके पास ये सब करने की फुर्सत हुआ करती थी। अब किसी के पास फुर्सत कहाँ ?अब तो हम सड़क पर किसी को तड़पता देख बगल से गुज़र जाने का हुनर सीख गए हैं ,कौन रुके ? कौन पुलिस को बताये ? कौन झंझट में पड़े ? छोडो जी, चलो -देर हो रही है। ऐसा नहीं है कि अच्छे लोग अब नहीं हैं -हैं -जरूर हैं लेकिन पहले वो बहुतायत में थे अब वो लुप्तप्राय: प्राणियों की श्रेणी में आ गए हैं।

तू ऐ निगाह-ए-नाज़ कहाँ ले गयी मुझे 
मेरी नज़र भी अब नहीं पहचानती मुझे 

इस दिल-शकस्तगी में भी यह मेरा बांकपन 
हैरत से देखती है मेरी ज़िन्दगी मुझे 
दिल-शकस्तगी=घायल मन 

कुछ ऐसा खो गया हूँ तेरी जलवा-गाह में 
महसूस हो रही है खुद अपनी कमी मुझे 

खैर साहब पुलिस आयी-शायद कुछ देर से, क्यूंकि जैसा कि हमने उस दौर की फिल्मों में देखा है पुलिस वाले सीटियां बजाते तब आते थे जब हीरो विलेन की धुलाई कर चुका होता था. पुलिस वाले जैसा वो आमतौर पर करते हैं लाश को थाने ले गए। पोस्ट मार्टम करवाया, जिस्म पर कोई घाव नहीं मिला और दिल, ज़हन पर पड़े घाव पोस्टमार्टम में नज़र आते नहीं इसलिए इसे सीधासादा आत्महत्या का मामला समझ कर फ़ाइल बंद कर दी। पोस्टमार्टम से ये जरूर पता चला कि लाश के पेट में शराब भरी थी और शायद इसीलिए लिवर सिरोसिस की बीमारी से पीड़ित था। ये भी नज़र में आया कि लाश को कभी फालिज का दौरा भी पड़ा था। बस। हक़ीक़त ये है कि ये आत्महत्या का नहीं सौ फीसदी हत्या का मामला था और हत्या का ज़िम्मेदार कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि व्यक्तियों का वो समूह था जिसे हम आम तौर पर समाज के नाम से जानते हैं। समाज पर चाहे वो कहीं का कोई भी हो कभी हत्या का इल्ज़ाम नहीं लगता। कौन लगाएगा इल्ज़ाम ? लगाने वाले भी तो उसी का हिस्सा होते हैं।

काँटों से मैंने प्यार किया है कभी कभी 
फूलों को शर्मसार किया है कभी कभी 

अल्लाह रे बे-खुदी कि तेरे पास बैठ कर 
तेरा ही इंतज़ार किया है कभी कभी 

इतना तो असर है कि मेरे इज़्तिराब ने 
उनको भी बेकरार किया है कभी कभी 
इज़्तिराब=बेचैनी 

कौन था ये शख्स जो सिर्फ 42 साल की कम उम्र में यमुना में कूद कर अपनी ज़िन्दगी से किनारा कर गया ? और क्यों ? इसका जवाब पाने के लिए हमें फ्लैश बैक तकनीक का सहारा लेना पड़ेगा। तो चलते हैं जालंधर से लगभग 37 किलोमीटर दूर रेत के टीबों को पार कर एक कच्चे रस्ते पर जो हमें 'नकोदर' नाम के छोटे से कस्बे के अधबने मकान में ले जायेगा। इस मकान में "नोहरा राम" अपने परिवार के साथ रहते हैं। इस कच्चे अधूरे से मकान की हालत देख कर से हमें नोहरा राम जी की माली हालत समझने में ज्यादा दिमाग नहीं लगाना पड़ता। कस्बे में नोहरा राम जी 'दर्द' नकोदरी के नाम से जाने जाते हैं। ये इसी कस्बे से निकलने वाले एक अखबार में मुलाज़िम हैं जो वहां के राजा महाराजाओं की तारीफ़ में लिखे कसीदे छापने के लिए मशहूर है। वैसे यहाँ ये बताना भी मुनासिब होगा कि ऐसा नेक काम आज के दौर में भी बहुत से अखबार रिसाले वाले बेशर्मी से करते हैं। 'दर्द' साहब अपना थोड़ा दर्द तो शायरी के माध्यम से और बहुतेरा दर्द शराब के माध्यम से दूर करते थे। आज 11 दिसंबर 1927 की दोपहरी में शराब नोशी करते हुए किसी को कह रहे हैं कि जाओ मेरे उस्ताद-ए-मोहतरम हज़रत जोश मलसियानी साहब को खबर कर दो की ईश्वर की कृपा से मेरे घर बेटा हुआ है।

चल तो पड़े हो राह को हमवार देख कर 
लेकिन ये राह-ए-शौक़ है , सरकार देख कर 
हमवार=समतल 

जैसे मेरी निगाह ने देखा न हो कभी 
महसूस ये हुआ तुझे हर बार देख कर 

ऐ अज़मत-ऐ-बशर मैं तेरा राज़दार हूँ 
पहचान ले मुझे मेरे अश'आर देख कर 
अज़मत-ऐ-बशर=मानव की महानता 

कहते हैं बच्चे की पहली पाठशाला घर होती है, सही कहते हैं। इस बच्चे ने जिसका नाम नरेश रखा गया था पांचवी क्लास तक आते आते ग़ज़ल कहना शुरू कर दिया था - ये बात सुनने में अजीब लगती हो लेकिन सच है। वो अपने शेर अपने पिता को दिखाने लगे। पिता ने उनका नामकरण "शाद नकोदरी" रख दिया। पिता के कहने पर वो अपना कलाम पत्राचार के माध्यम से रावलपिंडी में में बसे जनाब त्रिलोक चंद 'महरूम' साहब को दिखाने लगे. महरूम साहब उनकी शायरी के मयार को देखते हुए पहले तो उन्हें कोई बड़ा उस्ताद शायर ही समझते रहे और इस्लाह करते रहे बाद में उन्होंने शाद साहब को अपना कलाम जनाब जोश मलसियानी साहब को दिखाने की गुज़ारिश की। इस तरह पिता पुत्र दोनों गुरु भाई भी हो गए।

ज़िस्म साकित, रूह मुज़तर, आँख हैराँ, दिल उदास 
ज़िन्दगी का मज़हका है, ये हमारी ज़िन्दगी 
साकित=गतिहीन , रूह मुज़तर=बैचैन आत्मा ,मज़हका=मज़ाक 

ले के शबनम का मुकद्दर आये थे दुनिया में हम 
गुलशन-ऐ-हस्ती में रो-रो कर गुज़ारी ज़िन्दगी 

ज़िन्दगी को मौत कह देना उसे मुश्किल नहीं 
गौर से देखे अगर कोई हमारी ज़िन्दगी 

जोश साहब की रहनुमाई में शाद की शायरी परवान चढ़ने लगी और उन्होंने अब अपनी शायरी नरेश कुमार 'शाद' के नाम से करनी शुरू कर दी। आज हम उनकी चुनिंदा ग़ज़लों से सजी किताब "शाद की शायरी " की बात करेंगे जिसे जनाब 'अमर' देहलवी ने संकलित किया है और स्टार पब्लिकेशन (प्रा) लि ने सं 1984 में प्रकाशित किया था। इस किताब में शाद साहब की लगभग 70 ग़ज़लें उर्दू और हिंदी लिपि में मुद्रित हैं। मैं यकीन से नहीं कह सकता कि अब ये किताब वहां से उपलब्ब्ध हो सकेगी या नहीं। शाद का लिखा हिंदी में शायद डायमंड बुक्स वालों ने शाद और अख्तर शिरानी की शायरी के नाम से प्रकाशित किया था। जो उर्दू पढ़ना जानते हैं उनके लिए तो शाद की ढेरों किताबें बाजार में हैं लेकिन हिंदी वालों के लिए बहुत ज्यादा कुछ नहीं है । चलिए लौटते हैं वापस इसी किताब पर जो मुझे जयपुर शहर के अज़ीम शायर और उर्दू साहित्य पर अधिकार रखने वाले मेरे मित्र जनाब मनोज मित्तल 'कैफ़' साहब की बदौलत मिली :


होंठों की मुस्कान में ढलके
ग़म आया है भेस बदल के

देख के तुझको सोई आशा
जाग उठी है आँखें मल के

तेरे प्यार भरे नयनों में
आंसू हैं या शेर ग़ज़ल के 

मन में तेरे प्रेम की यादें 
आग में छीटें अमृत जल के 

लाहौर से मेट्रिक में फर्स्ट डिवीजन पाने के बाद घर लौटने पर , घर की बदहाली और पिता की शराब खोरी ने शाद को बेहद परेशान कर दिया और वो कर नौकरी की तलाश में रावलपिंडी और जालंधर जा कर धक्के खाते रहे लेकिन लिखते रहे। सरकारी नौकरी लगी तो सही लेकिन उसमें मन नहीं लगा लिहाज़ा उसे छोड़ छाड़ कर लाहौर लौट आये और वहां की एक मासिक पत्रिका 'शालीमार' का संपादन करने लगे। वहां रोज़ाना शाया होने वाली अख़बारों प्रताप और अजीत में होने वाले तरही मुशायरों में अपनी ग़ज़लें भेज वाह वाही लूटने लगे। सब कुछ थोड़ा ठीकठाक सा चल रहा था कि मुल्क का बंटवारा हो गया। उसके बाद जो हुआ वो शाद के लिए अकल्पनीय था। धर्म के नाम पर हिंसा के ऐसे तांडव की भला किसने कल्पना की होगी ? शाद का विश्वास पंडित मौलवियों पर से उठ गया। मन में गहरे घाव लिए वो एक अजनबी की तरह पाकिस्तान से हिंदुस्तान के शहर कानपुर अपने दोस्त हफ़ीज़ होशियारपुरी के पास आ गए। ये मुल्क अब वैसा नहीं था जैसा वो छोड़ कर गए थे। दोनों मित्रों ने मिल कर एक पत्रिका 'चन्दन' निकाली जो जल्द ही बंद हो गयी और शाद पर फिर से फ़ाकाकशी की नौबत आ गयी।

मेरे ग़म को भी दिलावेज़ बना देता है 
तेरी आँखों से मेरे ग़म का नुमायाँ होना 

क्यों न प्यार आये उसे अपनी परेशानी पर 
सीख ले जो तेरी ज़ुल्फ़ों से परेशां होना 

ये तो मुमकिन है किसी रोज खुदा बन जाए 
गैर मुमकिन है मगर शेख का इंसां होना 

खैर इसी मुश्किल दौर में उनकी मोहब्बत भी परवान चढ़ी तो कई नए दोस्त भी बने नए तजुर्बात भी हुए और तो और उनकी शादी भी हो गयी। शादी के बाद जीवन जीने की जद्दोज़ेहद बढ़ गयी। शराबी बाप, बूढी बीमार माँ और पत्नी। बाप की मयनोशी की आदत ने घर जैसे तबाह सा कर डाला। तभी उनकी मुलाकात उर्दू के नामवर शायर 'मज़ाज़' से हुई और उसके बाद उनका जो शराब से याराना हुआ वो उनकी मौत के बाद ही छूटा।

हम अपने दर्द की तौहीन कर गए होते 
अगर शराब न होती तो मर गए होते 

कहाँ निशात-ए-ग़म-ए-जाविदां हमें मिलती 
तेरी नज़र से जो बचकर गुज़र गए होते 
निशात-ए-ग़म-ए-जाविदां=अमिट ग़म की ख़ुशी 

हमारा राज़-ए-मोहब्बत तो खैर छुप जाता 
तेरी नज़र के फ़साने किधर गए होते 

हमें निगाह-ए-तमसखुर से देखने वालो 
ये हादसात जो तुम पर गुज़र गए होते ? 
निगाह-ए-तमसखुर=उपेक्षित नज़र 

शाद ने खूब लिखा। वो एक बार जो ग़ज़ल लिखना शुरू करते तो तो उसे मतले से मक़्ते तक पूरा कर के ही उठते।अगर नस्र की बात करें तो उनकी ढेरों किताबें उर्दू में उपलब्ध है जैसे :सुर्ख हाशिये, राख तले, सिर्क़ा और तावारुद, डार्लिंग, जान पहचान, मुताला-ए-ग़ालिब और उसकी शायरी ,पांच मक़बूल शायर और उनकी शायरी ,पांच मक़बूल तंज़ व मिज़ाह निगार. बाल साहित्य: शाम नगर में सिनेमा आया ,चीनी बुलबुल और समुन्द्री शहज़ादी. मुशायरों में भी उनकी भागेदारी होने लगी लेकिन इस सब से घर चलना मुमकिन नहीं हो पा रहा था. जिस पर भरोसा किया उसी ने धोका दिया। जिस से मदद की गुहार की उसी ने दुत्कार दिया।

जब बेखुदी से होश का याराना हो गया 
दैरो-ओ-हरम का नाम भी मयखाना हो गया 
दैरो-ओ-हरम=मंदिर-मस्जिद 

इन गुलरुखों को जब से हुआ शौक़-ऐ-मयकशी 
जो फूल था चमन में वो पैमाना हो गया 
गुलरुखों=फूल से चेहरे वालों 

ये रौनकें कहाँ मेरे दिल को नसीब थीं 
आबाद तेरे ग़म से ये काशाना हो गया 
काशाना=झोंपड़ी 

 दिल्ली में रहते हुए उनकी मुलाकात जनाब महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' साहब से हुई जिन्होंने उन्हें सरकारी प्रकाशन विभाग में नौकरी पर लगा दिया। सरकारी नौकरी बिना चापलूसी के चलनी मुश्किल लगने लगी। तनख्वाह भी कुछ ऐसी नहीं थी कि गुज़र बसर सही ढंग से हो पाता। सारी दुनिया में उन्हें सिर्फ शराब ही एक मात्र सहारा लगती। धीरे धीरे यूँ हुआ कि शराब उन्हें पीने लगी और वो एक दिन फालिज के ऐसे शिकार हुए कि सात दिनों तक बेहोश रहे। बीमारी और उसके इलाज़ के खर्चे ने उनकी कमर तोड़ दी ,लिहाज़ा वो दूसरे ऐसे शायरों के लिए लिखने लगे जिनमें खुद लिखने की कुव्वत नहीं थी लेकिन उनके पास पैसा था। एक जनाब ने तो उन्हें अपने लिए 60 ग़ज़लें लिखने की एवज़ में 60 रु देने का वादा किया तो उन्होंने पूरी रात जग कर 60 ग़ज़लें लिख डालीं ,क्यों की 60 रु से उनके घर का खर्चा किसी तरह एक महीने चल जाता। उन हज़रात ने वो ग़ज़लें तो ले लीं लेकिन बाद में पैसा देने के नाम पर मुकर गए। अजनबी तो अजनबी उनके दोस्तों ने भी उनके हुनर को खरीदा। अपनी अना बेचने के बाद भी उनके हाथ खाली ही रहे।

दुश्मनों ने तो दुश्मनी की है 
दोस्तों ने भी क्या कमी की है 

जिसने पैदा किये हंसी उसने 
क्या दिलावेज़ शायरी की है 
दिलावेज़= मनभावन 

आपसे यूँ तो और भी होंगे 
आपकी बात आप ही की है 

लोग लोगों का खून पीते हैं 
हमने तो सिर्फ़ मयकशी की है 

मुश्किलें जितनी बढ़ती गयीं उनके लेखन की रफ़्तार भी उसी के साथ बढ़ती रही ग़ज़लों के अलावा उनके लिखे कत'आत उर्दू शायरी में बहुत ऊंचा मुकाम रखते हैं। शाद मुशायरों के भी शायर रहे ,शराब के नशे में धुत्त उन्हें लोग उठा कर लाते वो कलाम पढ़ते और फिर लोग उन्हें उठा कर ले जाते। उन्हें शायद ही कभी किसी ने होश में देखा होगा। जिस तरह किसी ने भी एल्युमीनियम धातु को नहीं देखा है जिसे हम एल्युमीनियम कहते हैं दरअसल वो एल्युमीनियम पर चढ़ी एल्युमीनियम ऑक्साइड की परत होती है उसी तरह शाद साहब को भी किसी ने पूरा नहीं देखा उन पर कभी दुःख की तो कभी शराब की परत चढ़ी मिलती।

यही सीखा है मैंने ज़िन्दगी से
कि नादानी है बेहतर आगही से
आगही=ज्ञान

बता दो आबिदान-ऐ-बे-अमल को
खुदा उकता चुका है बंदगी से 
आबिदान-ऐ-बे-अमल =दिखावे की इबादत करने वाले 

खुदा से क्या मुहब्बत कर सकेगा 
जिसे नफरत है उसके आदमी से 

शाद जिनकी पहली किताब 'दस्तक़' तब मंज़र-ए-आम पर आयी जब वो सिर्फ 22 साल के थे।'दस्तक' ने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पे जा बिठाया। उसके बाद तो उनके 'बुतकदा','फरियाद' , 'ललकार', 'आहटें', 'क़ाशें', 'आयाते जुनूं', 'फुवार', 'संगम', 'मेरा मुन्तखिब कलाम', 'मेरा कलाम नौ ब नौ' और 'विजदान' मजमूओं ने उन्हें उर्दू लेखकों की पहली कतार में जा बिठाया। जिसकी शायरी की तारीफ जोश मलीहाबादी , फ़िराक़ गोरखपुरी और साहिर लुधियानवी जैसे शायरों ने खुले दिल से की उसी शायर की शायरी की चमक को शराब और उनके हलके शेरों पर मुशायरों में बजने वाली तालियों ने धीरे धीरे धुंधला कर दिया,अगर ऐसा न होता तो वो आज उर्दू के अमर शायरों की जमात में खड़े नज़र आते।

दिल-ए-पुर आरज़ू नाकाम हो कर 
ज्यादा खूबसूरत हो गया है 
दिल-ए-पुर आरज़ू =अभिलाषाओं से भरा मन 

करम ऐसे किये हैं दोस्तों ने 
कि हर दुश्मन पे प्यार आने लगा है 

जब आये तो उजाला हो गया था 
गए तो फिर वही घर की फ़ज़ा है 

आखिर वही हुआ जिसका डर था , शराब जीत गयी और नरेश कुमार शाद हार गए। शराब छोड़ देने की तमाम कोशिशें भी नाकाम हो गयीं। सिरोसिस ऑफ लिवर की बीमारी ने रही सही कसर पूरी कर दी। मुकम्मल इलाज़ के लिए पैसे नहीं होने से बीमारी बढ़ती गयी और एक दिन इस बीमारी से लड़ने की बजाये वो ज़िन्दगी की जंग हारने के इरादे से यमुना के पुल से कूद गए। सिर्फ वो अपने उपनाम में ही शाद (प्रसन्न ) रहे वैसे सारी उम्र नाशाद (उदास ) रहे। उनकी मौत के बाद तो उनकी याद में बहुत से कार्यक्रम देश में ही नहीं विदेश में भी होते हैं। हम लोग हैं ही ऐसे ज़िंदा लोगों को दुत्कारते हैं और मुर्दा लोगों के गले में हार डालते हैं। खैर शायद ये सब ही उनकी किस्मत में लिखा था सोच कर इस किस्से को यहीं विराम देते हैं और नयी किताब की तलाश के लिए निकलने से पहले पढ़वाते हैं उनके कुछ फुटकर शेर :

हक़ उसी को है मुस्कुराने का 
जिसके दिल में है ग़म ज़माने का 
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चौंक उठे हादसात दुनिया के
मेरे होंठों पे जब हंसी आयी 
हादसात=दुर्घटनाएं 
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सीने में दिल नहीं कोई नासूर है 
मगर मैं फिर भी जी रहा हूँ ये मेरा कमाल है 
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इन ज़ाहिदों का ज़ोहद तकाज़ा है उम्र का
वरना ये हम से कम तो नहीं थे शबाब में 
 ज़ाहिदों=भक्तों , ज़ोहद= भक्ति 
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तुम तो मिल जाओगे कहीं न कहीं 
हम मेरी जान ! फिर कहाँ होंगे
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जैसे मेरी निगाह ने देखा न हो कभी
महसूस ये हुआ तुझे हर बार देख कर
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शेख साहब का बस नहीं चलता 
वरना परवर दिगार हो जाएँ 
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पीता हूँ इस ग़रज़ से कि जीना है चार दिन
मरने के इंतज़ार ने पीना सिखा दिया 
*** 
हमने समां लिया है तुझे सांस सांस में 
ये और बात है कि तुझे आगही नहीं
आगही =ज्ञान