Monday, January 25, 2010

फूल पर तितलियां



दर्द दिल में मगर लब पे मुस्कान है
हौसलों की हमारे ये पहचान है

लाख कोशिश करो आके जाती नहीं
याद इक बिन बुलाई सी महमान है

खिलखिलाता है जो आज के दौर में
इक अजूबे से क्या कम वो इंसान है

ज़र ज़मीं सल्तनत से ही होता नहीं
जो दे भूखे को रोटी, वो सुलतान है

मीर, तुलसी, ज़फ़र, जोश, मीरा, कबीर
दिल ही ग़ालिब है और दिल ही रसखान है

पांच करता है जो, दो में दो जोड़ कर
आजकल सिर्फ उसका ही गुणगान है

ढूंढ़ता फिर रहा फूल पर तितलियां
शहर में वो नया है या नादान है

गर न समझा तो 'नीरज' बहुत है कठिन
जान लो ज़िन्दगी को तो आसान है


(लिखने वाले वो ही हम और संवारने वाले वो ही गुरुदेव पंकज सुबीर जी)

Monday, January 18, 2010

किताबों की दुनिया - 22

दोस्तों पिछली बार किताबों की दुनिया में आपकी मुलाकात नासिर काज़मी साहब की किताब से करवाई थी, उस किताब की खुमारी उतारने नहीं बल्कि बढाने के लिए मैं आपके सामने ला रहा हूँ एक ऐसी किताब जिसके अशआर पढ़ कर आपका नशा दुगना हो जायेगा...क्यूंकि "नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें...."

कभी कभी तो वो इतनी रसाई* देता है
कि सोचता है तो मुझको सुनाई देता है
रसाई* = पहुँच, प्रवेश

अजीब बात है वो एक सी खताओं पर
किसी को कैद किसी को रिहाई देता है

अगर वो नाम तुम्हारा नहीं तो किसका है?
हवा के शोर में अक्सर सुनाई देता है

आज हम आपको, ऐसे कालजयी शेर कहने वाले, बदायूं में जन्में और अलीगढ में पले बढे अजीम शायर जनाब "मंज़ूर हाशमी", जिनका इन्तेकाल फरवरी २००८ में हुआ, की मर्मस्पर्शी ग़ज़लों का हिंदी में पहला संकलन, "फूलों की कश्तियों" के बारे में बताएँगे. इस किताब को भी "डायमंड बुक्स" वालों ने ही पिछली किताब की भांति छापा है और मूल्य भी सिर्फ ७५ रुपये ही रखा है. इस किताब में "मंज़ूर हाशमी " साहब की बेजोड़ ग़ज़लों को संकलित किया है "सुरेश कुमार" जी ने.



कुछ इस अंदाज़ से होती है नवाजिश भी कभी
फूल भी आये, तो पत्थर की तरह लगता है

जब हवाओं में, कोई जलता दिया देखता हूँ
वो मिरे उठे हुए सर की तरह लगता है

तेज़ होता है, तो सीने में उतर जाता है
लफ्ज़ का वार भी, खंज़र की तरह लगता है

मंजूर साहब मुशायरों में अपनी ग़ज़लें धीरे धीरे तरही में सुनाते और सुनने वाले उनके दिलकश अंदाज़ पर तालियाँ पीटते थकते नहीं थे.निहायत सादा इंसान अपने अशआर की गहराईयों से सबको डुबो देता था.
मंजूर साहब को सुनने का सिर्फ एक मौका ही इस खाकसार को मिला वो सादा पैंट बुशर्ट में, आँखों पर लगे बड़े से फ्रेम के चश्में को साफ़ कर मुस्कुराते हुए माईक पर आये बैठे और अपने मिसरों से फिजा में मिसरी सी घोलने लगे...मुझे याद है उन्होंने इस शेर से अपनी शायरी का आगाज़ किया था :-

तिरे खतूत* की खुशबू, तो अब भी जिंदा है
पढूं तो अब भी महकती हैं उँगलियाँ मेरी
खतूत*= चिठ्ठियाँ

तालियों के बीच उन्होंने अपनी जिस ग़ज़ल का मतला और चंद शेर सुनाये वो इतेफ़ाक से इस किताब में भी है:

उसका तो हर अंदाज़, निराला-सा लगे है
कातिल है मिरा, और मसीहा-सा लगे है

वो जिससे कोई ख़ास तअर्रुफ़ भी नहीं है
जब भी नज़र आ जाये है अपना सा लगे है

हम उनके बिना जैसे मुकम्मल ही नहीं हैं
जो काम भी करते हैं अधूरा सा लगे है

मैं उसकी हर इक बात को किस तरह न मानूं
वो झूट भी बोले है तो सच्चा सा लगे है

मंजूर साहब अपने और अपनी शायरी के प्रचार प्रसार से दूर रहे और ता उम्र शायरी को जीते रहे. अपनी बेहतरीन शायरी के दम पर वे उर्दू जगत में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. उन्होंने दुबई, दोहा ,क़तर, पाकिस्तान, अमेरिका आदि देशों की यात्रा की और अपने चाहने वालों को खुश कर दिया. वे किसी जोड़ तोड़ या खेमे बंदी में शामिल नहीं हुए. प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति उनकी ग़ज़लों का मूल स्वर है.

बहुत दिनों से तो वो याद भी नहीं आया
तो फिर ये नींद में किसको पुकारा करते हैं

नहा के पंख सुखाती है धूप में तितली
तो रंग अपनी नज़र खुद उतारा करते हैं

फ़िराक* बिछड़ी हुई खुशबुओं का सह न सकें
तो फूल अपना बदन पारा-पारा** करते हैं
फ़िराक*= वियोग
पारा-पारा**= टुकड़े टुकड़े

आज की सामाजिक और राजनितिक विसंगतियों पर भी उनकी शायरी कमाल ढाती है. बड़ी सादा जबान में वो अपने अशआर से दिल चीर कर रख देते हैं:

उन्हीं पत्तों पे मिटटी मल रही है
हवा जिनकी बदौलत चल रही है

अजब शै है ये शम-ऐ-ज़िन्दगी भी
कि बुझने के लिए ही जल रही है

यही तो बस्तियों में फैलती है
अभी जो आग दिल में जल रही है

अफ़सोस की बात ये है की इस अजीम शायर की सिर्फ एक ये ही किताब हिंदी में उपलब्ध है, लगभग एक सौ साठ पृष्ठों की इस किताब में मंजूर साहब की एक सौ चौंतीस ग़ज़लें संकलित हैं. अब इन एक सौ चौतीस ग़ज़लों के लगभग नौ सौ शेरों में से कुल जमा पन्द्रह बीस छांटना कितना मुश्किल काम है ये आप किये बिना नहीं जान पाएंगे. आप से गुज़ारिश है की इस किताब को खरीदिये जो शायद और कहीं नहीं तो आपके निकट तम रेलवे स्टेशन की बुक स्टाल पर जरूर मिल जाएगी और फिर इस काम को अंजाम देने की कोशिश करें. वैसे जैसा मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया था आप इसे सीधे डायमंड बुक्स वालों को लिख कर भी मंगवा सकते हैं, उनका पता है :ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज़-२, नई दिल्ली, फोन:011-51611861 और ईमेल:sales@diamondpublication.com है.

और अब जैसा की मैं पहले भी करता आया हूँ अब भी करता हूँ, नयी किताब ढूँढने से पहले चलते चलते इस किताब के चंद अशआर और पढवा देता हूँ...लेकिन मेरी गुज़ारिश है की आप किताबें खरीदने की आदत जरूर डालें क्यूँ की किताबों के दोस्त उम्र के साथ बूढ़े नहीं होते.

जाने किस किस को मददगार बना देता है
वो तो तिनके को भी पतवार बना देता है

लफ्ज़ उन होंटों पे फूलों की तरह खिलते हैं
बात करता है तो गुलज़ार बना देता है

जंग हो जाये हवाओं से तो हर एक शजर
नर्म शाखों को भी तलवार बना देता है

Monday, January 11, 2010

आप गिनाते क्यूँ हो




तुम नहीं साथ तो फिर याद भी आते क्यूँ हो
इस कमी का मुझे एहसास दिलाते क्यूँ हो

डर जमाने का नहीं दिल में तुम्हारे तो फिर
रेत पर लिखके मेरा नाम मिटाते क्यूँ हो

दिल में चाहत है तो काँटों पे चला आयेगा
अपनी पलकों को गलीचे सा बिछाते क्यूँ हो

हमपे उपकार बहुत से हैं तुम्हारे,माना
उँगलियों पर उसे हर बार गिनाते क्यूँ हो

जाने कब इनकी ज़ुरूरत कहीं पड़ जाए तुम्‍हें
यूं ही अश्‍कों को बिना बात बहाते क्यूँ हो

ज़िन्दगी फूस का इक ढेर है इसमें आकर
आग ये इश्‍क की सरकार लगाते क्यूँ हो

मुझको मालूम है तुम दोस्त नहीं, दुश्मन हो
अपने खंजर को भला मुझसे छिपाते क्यूँ हो

प्यार मरता नहीं "नीरज" है पता तुमको भी
फिर भी मीरा को सदा ज़हर पिलाते क्यूँ हो


( गुरुदेव पंकज सुबीर जी की भट्टी में तप कर कुंदन बनी ग़ज़ल )
(गुरुदेव प्राण साहब ने भी अपने आशीर्वाद से इसे संवारा है)

Monday, January 4, 2010

किताबों की दुनिया - 21

नये साल में सोचा किसी ऐसी किताब की चर्चा की जाये जिस की ग़ज़लें किताब के पन्नो से निकल कर लोगों के दिलों में बस गयीं हैं. बहुत कम शायर हुए हैं जिनकी ग़ज़लों को किसी ने गाया है. ग़ालिब, साहिर. मजरूह, जावेद अख्तर और गुलज़ार जैसे शायर बहुत कम हुए हैं...इनके कलाम लोगों के दिलों में घर किये हुए हैं. वजह सिर्फ ये नहीं है की ये बेहतरीन शायर थे वजह ये भी है की इन्हें जन मानस तक पहुँचाने का काम बहुत से ग़ज़ल गायकों ने किया है. लोग पढ़ें भले ही न लेकिन ग़ज़लों को सुनते जरूर हैं. आज जिस शायर का जिक्र कर रहा हूँ उसकी ग़ज़लें इंसानी सरहदों को अंगूठा दिखाती हुई हर ग़ज़ल प्रेमी की अज़ीज़ बन गयीं. पाकिस्तान में जन्में और ग़ुलाम अली साहब की आवाज़ से दिलों पर राज करने वाले उस अजीम शायर का नाम है " नासिर काज़मी ".पहचाना ? जी हाँ वो ही "नासिर काज़मी" जिनकी बेहद खूबसूरत ग़ज़लों से हम सब वाकिफ हैं. शायद ही कोई ऐसा ग़ज़ल प्रेमी होगा जिसने उनकी लिखी ये ग़ज़लें ना सुनी हों:-

अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ

औ पिछली रुत के साथी
अब के बरस मैं तनहा हूँ

तेरी गली में सारा दिन
दुःख के कंकर चुनता हूँ

तू जीवन की भरी गली
मैं जंगल का रास्ता हूँ

याद आया? सुनी है ना आपने ये ग़ज़ल, ऐसी एक नहीं अनेक ग़ज़लें हैं जिन्हें ग़ुलाम अली साहब ने अमर कर दिया है या यूँ कहूँ जिनको गा कर ग़ुलाम अली साहब अमर हो गये :-

दिल में इक लहर सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी

भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी

वक्त अच्छा भी आएगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी

अफ़सोस अच्छे वक्त की इंतज़ार में 'नासिर' साहब सिर्फ सैंतालीसवें बरस में दुनिया से कूच कर गये. उनका दीवान उनकी मौत के कुछ महीनो बाद प्रकाशित हुआ और उसने उर्दू जगत में ऐसी धूम मचाई जिसकी मिसाल नहीं मिलती. उनके सिर्फ तीन ग़ज़ल संग्रह ही प्रकाशित हुए हैं और उन्हीं तीनो ग़ज़ल संग्रह की चुनिन्दा ग़ज़लों को 'सुरेश कुमार' जी ने संकलित किया है "मैं कहाँ चला गया" किताब में ,जिसका जिक्र आज हम करेंगे.


मैं कोशिश करूँगा की आपको इस किताब में से नासिर साहब के वो शेर नज़र करूँ जिन्हें गाया नहीं गया या कम सुना गया है. ग़ज़ल के घनघोर प्रेमी अलबत्ता इन अशआरों से पहले रूबरू हो चुके होंगे. 'नासिर' साहब की शायरी की सबसे बड़ी खूबी है उसका सादा पन. आम बोल चाल की भाषा में वो ऐसे शेर कह जाते हैं की मुंह हैरत से खुला का खुला रह जाता है:

आज देखा है तुझको देर के बाद
आज का दिन गुज़र न जाए कहीं

न मिला कर उदास लोगों से
हुस्न तेरा बिखर न जाए कहीं

आरज़ू है कि तू यहाँ आये
और फिर उम्र भर न जाए कहीं

अब उनका कमाल देखिये छोटी बहर की इस ग़ज़ल में और तालियाँ बजाइए उनकी याद में

कड़वे ख़्वाब ग़रीबों के
मीठी नींद अमीरों की

रात गये तेरी यादें
जैसे बारिश तीरों की

मुझसे बातें करती है
ख़ामोशी तस्वीरों की

जो लोग उर्दू हिंदी को लेकर बवाल मचाये रहते हैं उनकी शान में पेश कर रहा हूँ 'नासिर' साहब के ये अशआर ताकि वो समझें की ग़ज़ल में ज़बान ही सब कुछ नहीं बात कहने का सलीका सबसे अहम् है. इन अशआरों को पढ़कर शायद ही कोई अंदाज़ा लगा सके की ये एक उर्दू ग़ज़ल के बादशाह ने लिखे है या हिंदी ग़ज़ल सम्राट ने :

फिर सावन रुत की पवन चली, तुम याद आये
फिर पत्तों की पाज़ेब बजी, तुम याद आये

फिर कूँजें बोलीं घास के हरे समंदर में
रुत आई पीले फूलों की, तुम याद आये

फिर कागा बोला घर के सूने आँगन में
फिर अमृत रस की बूँद पड़ी, तुम याद आये

दिन भर तो मैं दुनिया के धंधों में खोया रहा
जब दीवारों से धूप ढली, तुम याद आये

भला हो डायमंड पाकेट बुक्स का , जिनका फोन न. 011-51611861 है और ई-मेल एड्रेस sales@diamondpublication.com .इन्होने इस अनमोल खजाने को हम तक पहुँचाने के लिए हमसे मात्र 75 रु. की ही दरख्वास्त की है. ये मुफ्त में हीरे मिलने जैसी बात हो गयी. इस संग्रह में 'नासिर' साहब की लगभग वो सभी ग़ज़लें हैं जिन्होंने ग़ुलाम अली साहब का सितारा बुलंदियों पर पहुंचा दिया, उनमें प्रमुख हैं :"दिल धड़कने का सबब याद आया, वो तेरी याद थी अब याद आया","किसे देखें कहाँ देखा न जाये, वो देखा है जहाँ देखा न जाये", "दिल में और तो क्या रख्खा है, तेरा दर्द छुपा रख्खा है", "ग़म है या ख़ुशी है तू, मेरी ज़िन्दगी है तू", " दुःख की लहर ने छेड़ा होगा, याद ने कंकर फैंका होगा", "गये दिनों का सुराग लेकर, किधर से आया किधर गया वो", आदि आदि और हाँ एक ग़ज़ल जो मेरी बहुत पसंदीदा है और जिसे आबिदा परवीन साहिबा ने कुछ इस अंदाज़ से गाया है की उफ्फ्फ्फ़ क्या कहूँ, अगर आपने नहीं सुनी तो कहीं से भी जुगाड़ कर इसे जरूर सुनें...वर्ना मुझे ही कुछ करना पड़ेगा आपके लिए...वो ग़ज़ल है" शहर सुनसान है किधर जाएँ, ख़ाक हो कर कहीं बिखर जाएँ".

हमेशा की तरह मैं फिर परेशान हूँ...समझ में नहीं आता कौनसा शेर आपके लिए चुनुं और कौनसा छोड़ दूं...लेकिन मजबूरी है सारी की सारी किताब तो यहाँ नहीं छापी जा सकती क्यूँ की प्यास जगाना मेरा काम है बुझाना नहीं, इसे बुझाने के लिए जतन आपको ही करने होंगे. आखरी में चलते चलते मैं आपको 'नासिर' साहब की चंद मुक्तलिफ़ ग़ज़लों के एक आध शेर पढवाता चलता हूँ...

तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमइन न था
गुजरी है मुझ पे ये भी क़यामत कभी-कभी
***
जब तक हम मसरूफ़ रहे, ये दुनिया थी सुनसान
दिन ढलते ही ध्यान में आये कैसे कैसे लोग
***
बहुत ही सादा है तू और ज़माना अय्यार
खुदा करे कि तुझे शहर की हवा न लगे
***
मुझे ये डर है तेरी आरज़ू न मिट जाए
बहुत दिनों से तबियत मेरी उदास नहीं

अभी बस इतना ही. दुआ करें की "किताबों की दुनिया" का ये सफ़र आप सब की मोहब्बत से यूँ ही मुसलसल चलता रहे और मुझे आपके लिए अच्छी अच्छी किताबें खरीदने को उकसाता रहे. आमीन.