दोस्तों पिछली बार किताबों की दुनिया में आपकी मुलाकात
नासिर काज़मी साहब की किताब से करवाई थी, उस किताब की खुमारी उतारने नहीं बल्कि बढाने के लिए मैं आपके सामने ला रहा हूँ एक ऐसी किताब जिसके अशआर पढ़ कर आपका नशा दुगना हो जायेगा...क्यूंकि
"नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें...." कभी कभी तो वो इतनी रसाई* देता है
कि सोचता है तो मुझको सुनाई देता है
रसाई* = पहुँच, प्रवेश
अजीब बात है वो एक सी खताओं पर
किसी को कैद किसी को रिहाई देता है
अगर वो नाम तुम्हारा नहीं तो किसका है?
हवा के शोर में अक्सर सुनाई देता है
आज हम आपको, ऐसे कालजयी शेर कहने वाले, बदायूं में जन्में और अलीगढ में पले बढे अजीम शायर जनाब
"मंज़ूर हाशमी", जिनका इन्तेकाल फरवरी २००८ में हुआ, की मर्मस्पर्शी ग़ज़लों का हिंदी में पहला संकलन,
"फूलों की कश्तियों" के बारे में बताएँगे. इस किताब को भी
"डायमंड बुक्स" वालों ने ही पिछली किताब की भांति छापा है और मूल्य भी सिर्फ ७५ रुपये ही रखा है. इस किताब में
"मंज़ूर हाशमी " साहब की बेजोड़ ग़ज़लों को संकलित किया है
"सुरेश कुमार" जी ने.
कुछ इस अंदाज़ से होती है नवाजिश भी कभी
फूल भी आये, तो पत्थर की तरह लगता है
जब हवाओं में, कोई जलता दिया देखता हूँ
वो मिरे उठे हुए सर की तरह लगता है
तेज़ होता है, तो सीने में उतर जाता है
लफ्ज़ का वार भी, खंज़र की तरह लगता है
मंजूर साहब मुशायरों में अपनी ग़ज़लें धीरे धीरे तरही में सुनाते और सुनने वाले उनके दिलकश अंदाज़ पर तालियाँ पीटते थकते नहीं थे.निहायत सादा इंसान अपने अशआर की गहराईयों से सबको डुबो देता था.
मंजूर साहब को सुनने का सिर्फ एक मौका ही इस खाकसार को मिला वो सादा पैंट बुशर्ट में, आँखों पर लगे बड़े से फ्रेम के चश्में को साफ़ कर मुस्कुराते हुए माईक पर आये बैठे और अपने मिसरों से फिजा में मिसरी सी घोलने लगे...मुझे याद है उन्होंने इस शेर से अपनी शायरी का आगाज़ किया था :-
तिरे खतूत* की खुशबू, तो अब भी जिंदा है
पढूं तो अब भी महकती हैं उँगलियाँ मेरी
खतूत*= चिठ्ठियाँ
तालियों के बीच उन्होंने अपनी जिस ग़ज़ल का मतला और चंद शेर सुनाये वो इतेफ़ाक से इस किताब में भी है:
उसका तो हर अंदाज़, निराला-सा लगे है
कातिल है मिरा, और मसीहा-सा लगे है
वो जिससे कोई ख़ास तअर्रुफ़ भी नहीं है
जब भी नज़र आ जाये है अपना सा लगे है
हम उनके बिना जैसे मुकम्मल ही नहीं हैं
जो काम भी करते हैं अधूरा सा लगे है
मैं उसकी हर इक बात को किस तरह न मानूं
वो झूट भी बोले है तो सच्चा सा लगे है
मंजूर साहब अपने और अपनी शायरी के प्रचार प्रसार से दूर रहे और ता उम्र शायरी को जीते रहे. अपनी बेहतरीन शायरी के दम पर वे उर्दू जगत में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. उन्होंने दुबई, दोहा ,क़तर, पाकिस्तान, अमेरिका आदि देशों की यात्रा की और अपने चाहने वालों को खुश कर दिया. वे किसी जोड़ तोड़ या खेमे बंदी में शामिल नहीं हुए. प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति उनकी ग़ज़लों का मूल स्वर है.
बहुत दिनों से तो वो याद भी नहीं आया
तो फिर ये नींद में किसको पुकारा करते हैं
नहा के पंख सुखाती है धूप में तितली
तो रंग अपनी नज़र खुद उतारा करते हैं
फ़िराक* बिछड़ी हुई खुशबुओं का सह न सकें
तो फूल अपना बदन पारा-पारा** करते हैं
फ़िराक*= वियोग
पारा-पारा**= टुकड़े टुकड़े
आज की सामाजिक और राजनितिक विसंगतियों पर भी उनकी शायरी कमाल ढाती है. बड़ी सादा जबान में वो अपने अशआर से दिल चीर कर रख देते हैं:
उन्हीं पत्तों पे मिटटी मल रही है
हवा जिनकी बदौलत चल रही है
अजब शै है ये शम-ऐ-ज़िन्दगी भी
कि बुझने के लिए ही जल रही है
यही तो बस्तियों में फैलती है
अभी जो आग दिल में जल रही है
अफ़सोस की बात ये है की इस अजीम शायर की सिर्फ एक ये ही किताब हिंदी में उपलब्ध है, लगभग एक सौ साठ पृष्ठों की इस किताब में
मंजूर साहब की एक सौ चौंतीस ग़ज़लें संकलित हैं. अब इन एक सौ चौतीस ग़ज़लों के लगभग नौ सौ शेरों में से कुल जमा पन्द्रह बीस छांटना कितना मुश्किल काम है ये आप किये बिना नहीं जान पाएंगे. आप से गुज़ारिश है की इस किताब को खरीदिये जो शायद और कहीं नहीं तो आपके निकट तम रेलवे स्टेशन की बुक स्टाल पर जरूर मिल जाएगी और फिर इस काम को अंजाम देने की कोशिश करें. वैसे जैसा मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया था आप इसे सीधे डायमंड बुक्स वालों को लिख कर भी मंगवा सकते हैं, उनका पता है :ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज़-२, नई दिल्ली, फोन:011-51611861 और ईमेल:sales@diamondpublication.com है.
और अब जैसा की मैं पहले भी करता आया हूँ अब भी करता हूँ, नयी किताब
ढूँढने से पहले चलते चलते इस किताब के चंद अशआर और पढवा देता हूँ...लेकिन मेरी गुज़ारिश है की आप किताबें खरीदने की आदत जरूर डालें क्यूँ की
किताबों के दोस्त उम्र के साथ बूढ़े नहीं होते.
जाने किस किस को मददगार बना देता है
वो तो तिनके को भी पतवार बना देता है
लफ्ज़ उन होंटों पे फूलों की तरह खिलते हैं
बात करता है तो गुलज़ार बना देता है
जंग हो जाये हवाओं से तो हर एक शजर
नर्म शाखों को भी तलवार बना देता है