Monday, April 26, 2021

किताबों की दुनिया - 230

साँप बनकर डस रही हैं सब तमन्नाएँ यहाँ 
कारवाँ आकर कहाँ ठहरा दिल-ए-बेताब का 
*
कुछ दूर हम भी साथ चले थे कि यूँ हुआ 
कुछ मसअलों पे उनसे तबीयत नहीं मिली 
*
वो और लोग थे जो माँग ले गए सब कुछ 
यहाँ तो शर्म थी दस्त-ए-तलब उठा न मेरा 

किसे कुबूल करें और किस को ठुकराएँ 
इन्हीं सवालों में उलझा है ताना-बना मेरा
*
माना की कड़ी धूप में शाये भी मिले हैं 
इस राह में हर मोड़ पर धोखा भी हुआ है 
*
दरिया के किनारों की तरह साथ चले हम 
मैं आज तलक मैं ही रहा तू भी रहा तू 
*
'हर नहीं, हाँ से बड़ी है' यह हक़ीक़त समझें 
हाँ बहुत सीख चुके अब तो कोई ना सीखें 
*
रंग कुम्हला दिया, बालों में पिरो दी चाँदी 
तूल खींचेगी अभी और कहानी कितना 

ये तलातुम ये अना आबला पाई, ये जुनूँ 
हम भी देखेंगे कि है जोश-ए-जवानी कितना 

डूबकर साँसो में रग रग में समा कर देखो 
मसअला दिल का सुलझता है जबानी कितना

इससे पहले कि हम आज के शायर और उनकी शायरी के बारे में बात करें आइये पढ़ते हैं उनका एक लेख जो ये बताता है कि उनकी क़लम से नस्र भी उसी खूबसूरती से उतरती है जितनी कि उनकी शायरी :

"दूर ऊंचे टीलों पर खजूरों के जो झुंड नजर आ रहे हैं उसके पीछे कच्चे-पक्के मकानों की एक बस्ती है - धूल भरे टेढ़े मेढ़े रास्ते हैं, मस्जिदे हैं, इमामबाड़े हैं, टूटे-फूटे मकबरे हैं, फैले हुए तालाब में जब सुर्ख़ सूरज की आखिरी किरनों का अक्स काँपने लगता है, पीले-पीले सरसों के खेत लहलहा उठते हैं, आम के बौरों की भीनी-भीनी खुशबू फैल जाती है, बाँसों के साये में दम लेने को ठहरी हुई हवाएँ मुझे पहचान कर लिपट जाती हैं, घरों से उठता हुआ धुआँ हमारी बस्ती को अपनी लपेट में ले लेता है और फिर अँधेरा फैलते ही यादों के जंगल में मैं अपने आप को ढूँढता हुआ इन्हीं खजूरों के झुंड तले टूटी-फूटी एक क़ब्र पर बैठ जाता हूँ ,ममता की पुरवाई मुझे छू लेती है धुँधलकों से कुछ शरारतें उभरती हैं, कुछ कहकहे बिखरते हैं... फिर एक चीख...और फिर भयानक सुकूत याने ख़ामोशी... घना जंगल...और तारीकी...जैसे एक नन्हा सा चंचल बच्चा इस जंगल की तारीख की में कहीं गुम हो गया हो मैं यादों के इस जंगल में इस चंचल हंसमुख बच्चे को ढूंढता हूँ।

तेरे ख्य़ाल से ही चिरागाँ था शहर में 
सब कुछ बुझा बुझा था तेरी याद जब न थी
*
एक मुसलसल जुस्तजू के बाद मंजिल के करीब 
एक मुर्दा साँप था, माल व खज़ाना कुछ न था 
*
ताशों का खेल सुहाना बचपन का 
छूमंतर सी भरी जवानी लगती है 

शाम हुई तो काले साए उमड़ पड़े 
सुबह को तो हर चीज़ सुहानी लगती है 

टूटे जैसे कोई खिलौना मिट्टी का 
पत्थर जैसी सख़्त जवानी लगती है
*
मुश्तहर कर दे किताब ए ज़िंदगी के बाब सारे 
राज़ ए दिल के कुछ मगर सफ़हे ज़रा महफ़ूज कर ले मुश्तहर: प्रचार 

कौन जाने, खुश्क हो जाएँ कहाँ खुशियों के धारे 
कुछ हँसी बच्चों की, बूढ़ों की दुआ महफ़ूज कर ले 
*
लुट गया शाम ही को जब सब कुछ 
जागकर सारी रात क्या करते 
*
सफर है शर्त तो कुछ ज़ाद ए राह भी होगा 
किसी की तल्ख़ सी यादें ज़रूर लेता जा
ज़ाद ए राह : सफ़र ख़र्च
*
न जाने तुमने क्या समझा है हमको 
जमाने ने मगर समझा अलग है 

इस घुप सन्नाटे में बैठा हुआ मैं इस अरसे की तमाम छोटे-बड़े हादसों का हिसाब जोड़ता हूं और आखिर में पाता हूं सिर्फ एक बेनाम ख़लिश एक बेनाम दर्द, जो हर बार बचा रह गया है, मेरी हड्डियों तक धँसा हुआ, कभी-कभी लगता है मैं एक भीड़ की तरह अपने झुण्ड से बाहर धकेल दिया गया हूं या फिर एक बेनाम अजनबी ग़ार में एक बूढ़े जानवर की तरह रह रहा हूँ ।इस ग़ार में रेंगता हुआ मैं वहां पहुँच जाता हूँ जहाँ रात है मेहँदी का पेड़ है और एक मुन्जमिद लम्हा-वो मुन्जमिद लम्हा बरसों की लंबाई फलाँग कर मेरे पास क्यों नहीं आ जाता-मुझे अपना घर याद आने दो, मुझे वो धुआँ याद आने दो जो हमारे जिस्मों, हमारी बस्ती को घेरे हुए है-मुझे याद आने दो इन लंबे बरसों के दरमियान क्या हुआ इस काले वक्त को क्या हुआ जो पानी की तरह मेरे चारों तरफ बहता रहता है और मैं एक चट्टान की तरह बे हरकत किसी जगह खड़ा, किसी अनजाने मंजिल को अपनी पथरीली आंखों से देखता रहता हूँ ।"

अपने बारे में इतनी खूबसूरत ज़बान में लिखने वाले हमारे आज के शायर हैं जनाब 'शाहिद माहुली' साहब जिनकी शायरी की हिंदी में एकमात्र छपी किताब 'शहर खामोश है' हमारे सामने है ।आज हम इसी किताब से लिए कुछ चुनिंदा अशआर आपके सामने पेश करेंगे और साथ ही साथ शाहिद साहब के बारे में जितना हमें मालूम हो सका है आपको बताएंगे।


ज़ख़्म भर जाएगा रह जाएगी ता उम्र चुभन 
ये जो काँटा है किसी तरह निकल जाएगा 
*
ये दर्द वो है कि जिसका नहीं है कोई इलाज 
ये किस उम्मीद पर हम चारागर को देखते हैं 

हमारी खुद नज़री खो गई कहाँ 'शाहिद'
क़दम क़दम पे हर इक राहबर को देखते हैं
*
यह बुझी शाम, ये उदास सी रात 
तू जो आ जाए जगमगा जाए 
*
स्याह रात की तनहाइयाँ गवारा हैं 
जो हो सके तो सहर दे सुनहरे ख़्वाब न दे 
*
बिस्तर था एक जिस्म थे दो ख़्वाइशें हज़ार 
दोनों के दरमियान था खंज़र खुला हुआ 

उलझा ही जा रहा हूँ मैं गलियों के जाल में 
कब से है इंतजार में इक घर खुला हुआ
*
तेरी यादों ने बहुत शमें जलाई लेकिन 
न गया सर से मेरे रात का साया न गया 

मैं वो नगमा था जो होठों के तले टूट गया 
मैं इक आँसू था जो आँखों से छुपाया न गया
*
 बंद कमरे में बला ए जाँ है अहसास ए सुकूत 
और बाहर हर तरफ आवाज़ का पत्थर लगे 

जैसे-जैसे टूटता जाए निगाहों का भरम
शख़्सियत अपनी भी अपने आप को कमतर लगे

'माहुल' उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले का एक छोटा सा गाँव है जो बीसवीं सदी के उर्दू के बहुत बड़े स्कॉलर एहतशाम हुसैन साहब की वजह से प्रकाश में आया । इसी गाँव में 1 मार्च 1943 को शाहिद हुसैन साहब का जन्म हुआ। माहुल के सरकारी स्कूल में आपने इब्तिदाई तालीम हासिल की। आगे पढ़ने के लिए आप गोरखपुर चले गये और वहीं की यूनिवर्सिटी से बैचलर ऑफ आर्टस की डिग्री हासिल की। कॉलेज में पढ़ने के दौरान ही शाहिद साहब की दिलचस्पी ग़ज़लों में बढ़ी और वो उर्दू शायरों की परम्परा को निभाते हुए अपने नाम के बाद गाँव का नाम जोड़ते हुए ' माहुली' तखल्लुस से ग़ज़लें कहने लगे।

बी.ए. करने के बाद उर्दू ज़बान से बेपनाह मुहब्बत के चलते उर्दू साहित्य में एम.ए. करने आगरा यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। ये वो दौर था जब उनके समकालीन शायर बशीर बद्र निदाफ़ाजली, अहमद फ़राज, वसीम बरेलवी, राहत इंदौरी, जावेद अख़्तर, इफ्तिखार आरिफ़ जैसों की लोकप्रियता परवान चढ़ रही थी इनके लिए फ़ैज साहब, फ़िराक़, कैफ़ी आज़मी मजरूह और साहिर जैसे शायरों की मौजूदगी में उनके साथ मुशायरे का मंच शेयर करना फ़क्र की बात हुआ करती थी। शाहिद साहब एम.ए. की पढाई और शायरी शिद्दत से करने लगे थे।

शानदार नंबरों से उर्दू में एम.ए. करने के बाद शाहिद साहब दिल्ली आ गये और काँग्रेस पार्टी ज्वाइन कर ली। काँग्रेस पार्टी का पूरा इतिहास उर्दू में सबसे पहले शाहिद साहब ने ही लिखा जो बहुत चर्चित हुआ। उनकी लेखन क्षमता और ज्ञान से उस वक्त काँग्रेस कार्य समिति के सदस्य जनाब फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ,जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी नियुक्त हुए, बहुत प्रभावित हुए। उनकी तमन्ना थी कि शाहिद साहब ग़ालिब इंस्टीट्यूट में काम करें जो उनके जीते जी तो संभव नहीं हो पाई अलबत्ता उनके अचानक हार्टअटैक से गुजर जाने के लगभग तीन साल बाद पूरी हुई।

किसी से लड़के भी तस्कीन पाई 
किसी को टूट कर चाहा बहुत है 
तस्कीन दिलासा 
*
घर से चला था तोड़ने इस खुशनुमा कँवल  
उलझा हुआ मैं कब से मगर काइयों में हूँ 
*
साफ आती है बिखरते हुए लम्हों की सदा 
अब न आएगा कोई बज़्म उठाई जाए 
*
नाव कागज की गई डूब, घरौंदे बिखरे 
खेल सब खत्म हुआ ख़ाक उड़ाई जाए 
*
तिलिस्म टूट गया धुंध छँट गई 'शाहिद'
कहीं पर ठहर के सोचें कि हमने क्या पाया 
*
वो जिस पे फूटी न मुद्दत से कोई शाख़ नई 
वो खुश्क पेड़ हरी बेल से सँवरता रहा
*
किसी की याद में अपनापन भी भूल गया हूँ 
कौन मेरे बिस्तर पर आकर लेट गया है 
*
भटकता फिरता है मुद्दत से कारवाने ए हयात 
मिले कहीं कोई मंजिल कहीं क़याम तो हो 
क़याम :ठहराव 
*
वह अब के गिर गई दीवार जिस पर नाम मेरा 
लिखा था तुमने कभी अपने नाम के आगे 
*
हुआ है सामना जब भी बिगाड़ दी सूरत 
ख़फा-ख़फा सा है कुछ जैसे आईना मुझसे

शाहिद साहब ने 1976 में गा़लिब इंस्टीट्यूट में काम करना शुरू किया। उनके संपादन में निकलने वाली अदबी पत्रिका 'मयार' में भारत और पाकिस्तान के नामवर शोअरा के क़लाम छपते थे और वो अपने जमाने की बेहतरीन उर्दू पत्रिकाओं में से एक थी। उन्होंने 'क़ैफ़ी आज़मी', 'अख़्तर उल इमान', 'फ़ैज़ अहमद फ़ैज़', 'जोश मलीहाबादी', 'मोमिन', 'दाग़' और ग़ालिब जैसे महान शायरों पर विशेष अंक भी निकाले जो बहुत पसंद किए गये। 'क़ैफ़ी आज़मी' साहब की शख़्शियत और शायरी पर सबसे पहले लिखने वाले शाहिद माहुली साहब ही थे।  

लगभग चालीस सालों तक माहुली साहब गालिब इंस्टीट्यूट से जुड़े रहे जिसमें से आखरी के 15 वर्ष उन्होंने डायरेक्टर की हैसियत से काम किया। अपने कार्यकाल में उन्होंने इंस्टीट्यूट में बेहतरीन किताबों का प्रकाशन, विभिन्न विषयों पर सेमिनार और अंतर्राष्ट्रीय मुशायरों का आयोजन किया। जब कभी भी गा़लिब इंस्टीट्यूट का इतिहास लिखा जाएगा उसमें शाहिद माहुली साहब का जिक़्र सबसे पहले किया जाएगा। 

माहुली साहब का पहला शेरी मजमूआ 'पसमंजर' 1977 में शाऐ हुआ, दूसरा मजमुआ ' सुनहरी उदासियां' है और तीसरा मजमुआ 'कहीं कुछ नहीं होता' है। देवनागरी में छपने वाला उनका एक मात्र शेरी मजमुआ ' शहर खामोश है' वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है जो अमेजन पर भी उपलब्ध है। इस किताब में शाहिद माहुली साहब की 70 लाजवाब ग़ज़लें और 36 नज़्में शामिल हैं।ये किताब हर शायरी प्रेमी के पास जरूर होनी चाहिए। अमेजन पर उनकी दीगर किताबें जैसे 'क़ैफ़ी आज़मी अक्स और जहतें', 'अख़्तरुल इमान अक्स और जहतें', 'फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अक्स' और जहतें भी उपलब्ध हैं।

दुनिया में जहाँ कहीं उर्दू पढ़ी या समझी जाती है वहाँ शाहिद साहब मुशायरे पढ़ने गये हैं। नेशनल अमीर ख़ुसरो सोसायटी के सेक्रेटरी और अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू, दिल्ली ,के जनरल सेक्रेटरी रह चुके शाहिद साहब ने निमोनिया की गंभीर बीमारी से लड़ते हुए नोएडा के 'फोर्टिस हस्पताल' में 28 सितंबर 2019 को आखरी साँस ली। उनके जाने से उर्दू साहित्य जगत में जो खालीपन आया है उसका भरना संभव नहीं है।

आखिर में पढ़िये शाहिद माहुली साहब के कुछ और चुनिंदा शेर ।

कितने सपने डूब गए हैं इन कजरारी आंखों में
कितनी कसमें टूट चुकी है उस काफ़िर अंगड़ाई से
*
मिल जाएगी कहीं न कहीं आगही की भीख
फिरती है दरबदर लिए कश्कोल ज़िंदगी
आगही: ज्ञान 
*
टूट चुके हैं भले बुरे के सब पैमाने 
किसको सच्चा समझें किस पर दोष लगाएँ
*
क्या मानें किस को झुठलाएँ, क्या चाहें क्या त्याग करें 
नित दिन एक नया युग आए पल पल बदले नीत यहां 

मन के भेद को किसने समझा शब्दों ने कब साथ दिया 
अपना दुख किसको समझाएँ कौन है अपना मीत यहां
*
तुम्हारे शहर से जब भी कभी गुजरता हूँ 
हर एक सिम्त से आते हैं याद के पत्थर 
*
सेफ़ों में बंद हो गए आसूदगी के ख़्वाब
दफ़्तर की फाइलों में ख़यालात हैं असीर
आसूदगी: खुशहाली,  असीर:  कैदी
*
अजीब मोड़ पर आकर ठहर गई है हयात 
कोई ख़्याल न ख़्वाइश न ख़्वाब है यारो
*
मज़ा न मौत की ख्वाहिश में और न जीने में
ये कैसी आग सुलगती है मेरे सीने में 

किसी ने रोक के रस्ते में ख़ैरियत पूछी 
किसी का भीग गया है बदन पसीने में 

सितारे टाँक लिए कहकहों के होठों पर 
अजब नशा सा हुआ आँसुओं के पीने में
*
जिसकी हर बात चुभो देती है सौ सौ नश्तर
 दिल भी कमबख्त उसे हद से सिवा चाहता है



Monday, April 12, 2021

किताबों की दुनिया - 229

ज़िन्दगी तेरे पास क्या है बता 
मौत के पास तो बहाने हैं 
*
जिस्म मुजरिम है और रूह गवाह 
ज़िंदगी इक बयान है प्यारे 
*
ग़म, ख़ुशी, आह, दर्द और आंसू 
सबकी अपनी ज़बान है प्यारे 

तुझको समझूं, लिखूं, पढ़ूं, सोचूं?
तू मेरा इम्तिहान है प्यारे 
*
क्या है मक़सद, कहां निशाना है
तीर जाने, कमान क्या जाने 
*
किस इरादे से कौन पढ़ता है 
ये भला इक किताब क्या जाने 

घर की बरबादियों के बारे में
घर में रक्खी शराब क्या जाने 

कितने फूलों की हो गई तौहीन 
ये महकता गुलाब क्या जाने 
*
मुस्कुराने से रोकिए न मुझे
आंसुओं का दबाव भारी है

उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिले की तहसील कांठ के गांव कूरी रवाना में 10 जनवरी 1961 को जन्मे बच्चे को अपने पिता श्री रामगोपाल जी के प्लांट पर जाना बहुत प्रिय था। बचपन से ही  उसके पिता उसे बड़े चाव से अपने साथ प्लांट ले जाते थेे। बाद में थोड़ा बड़ा होने पर वो ख़ुद ही किसी न किसी के साथ कोई न कोई बहाना बनाकर वहाँ चला जाता। प्लांट में पड़े गन्ने के चट्टे यानी ढेर और उसे क्रश करती विशालकाय क्रशर मशीन उस बच्चे के आकर्षण का विशेष केंद्र थी। वहीं पास ही में लगी लकड़ी काटने वाली आरा मशीनों, धान मशीनों का शोर और ट्यूबवेल से निकलते पानी कि कल-कल उसे बहुत भाती थी। प्लांट के सभी 40-50 मज़दूर जब उसे देखकर मुस्कुराते हुए नमस्कार करते तो वो बहुत ख़ुश होता।

नवीं कक्षा की परीक्षा में सर्वप्रथम आने की ख़ुशी में उसके मित्र कबसे उससे दावत की फ़रमाइश कर रहे थे, लेकिन वो टालता जा रहा था। जब 'मतलबपुर' के 'कृषक उपकारक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय' के दसवीं कक्षा में आए इस बच्चे को क्लास का मॉनिटर घोषित कर दिया, तब उसके मित्रों ने उस पर दावत करने का दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया । बच्चे ने एक दिन हाँ कर दी और अपने पिता से, जो उसकी कोई बात नहीं टालते थे, दावत के बारे में चर्चा करने का विचार लिए प्लांट की ओर क़दम बढ़ाए। संपन्न घर-परिवार के इस बच्चे के साथ उसके कुछ मित्र भी थे। सभी चहकते हुए प्लांट की ओर बढ़ रहे थे कि अचानक एक साथी ने लगभग चिल्लाते हुए कहा 'देखो उस तरफ़ कितना धुआँ उठ रहा है।' बच्चे ने देखा कि धुआँ उसी ओर से उठ रहा था जिस और उसके पिता का प्लांट था। वो घबराकर उस ओर दौड़ने लगा। सारे बच्चे उसके पीछे दौड़ने लगे। प्लांट में क्रशर मशीन के पास रखे हज़ारों टन गन्ने के ढेर में आग लगी हुई थी। मज़दूर उसे बुझाने का भरसक  प्रयास कर रहे थे। चारों तरफ़ अफरा-तफरी का माहौल था। उसके पिता दूर ये सब देखकर सर पर हाथ धरे उदास एक कोने में बैठे हुए थे। ये सब देखकर बच्चे की आँख से टपाटप आँसू गिरने लगे।

ये दुनिया है, यहां ऐसी भी धोखे ख़ूब होते हैं 
कि जैसे कोई चिड़िया आइने से चोंच टकराए 
*
जो सच्चाई है वो तारीफ़ की मुहताज क्यों होगी
कि असली फूल पर कोई कहाँ ख़ुशबू लगाता है
*
मैं जैसे वाचनालय में रखा अख़बार हूँ कोई 
जो पढ़ता है, वो बेतरतीब अक्सर छोड़ जाता है
*
हँसी को अब शरण मिल पाय अधरों पर नहीं संभव 
तुम्हारे ग़म का शासन है हृदय की राजधानी में
*
अक़ीदत है, मुहब्बत है, सियासत है कि मजबूरी
न जाने कौन सा रिश्ता है दरिया और समंदर में
पराए हों कि अपने हों मगर सब ख़ैरियत से हों 
दुआ करते हैं हम हर रोज़ जब अख़बार लेते हैं
मैं सबका हूं, सभी मेरे हैं, सबका अंश है मुझमें
हवा का, आग का, आकाश का, धरती का, पानी का
*
मुहब्बत की झुलसती धूप और कांटों भरे रस्ते 
तुम्हारी याद नंगे पाँव गर आई तो क्या होगा 
*
मदारी और बंदर के विषय में भी ज़रा सोचो 
किसे मिलता है पैसा और मेहनत कौन करता है 
*
बड़े हुशियार हैं तालाब जो ख़ामोश रहते हैं 
मगर नादान हैं नदियाँ जो गिरती हैं समंदर में

आग तो जैसे-तैसे बुझ गई, लेकिन उसके बाद जला हुआ गन्ना इस लायक़ नहीं था कि उसे क्रश करके चीनी बनाई जा सके। लिहाज़ा उस गन्ने से घटिया दर्जे का गुड़ बनाया जा सका। इससे बहुत भारी नुक़सान हुआ। बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। कहते हैं मुसीबत कभी अकेले नहीं आती, गन्ने के ढेर में लगी आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि कुछ दिनों बाद ही इंजन की फ़ाउंडेशन में दरार आ गई, जिसकी वजह से मशीन एक महीने तक बंद रही । मज़दूर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, पूरे महीने एक पाई की आमदनी नहीं हुई, लेकिन उन्हें पूरे महीने की पगार देनी ज़रूरी थी।
 
मज़दूरों की पगार और किसानों से उधार लिये गन्ने का मूल्य चुकाने के लिए तुरंत मशीनों को बेचने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था। लोगों ने भी दुनिया का दस्तूर निभाते हुए इस मौक़े का फ़ायदा उठाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी और रामगोपाल जी वर्मा के परिवार पर आई इस विपदा का भरपूर लाभ उठाया। मशीनों को लोहे के दाम पर बेचने पर मजबूर कर दिया। प्लांट की ज़मीन भी सस्ते में बिक गई, लेकिन फिर भी चुकाने को पर्याप्त धन इकठ्ठा नहीं हो पाया। आख़िरी विकल्प के रूप में वर्मा जी ने घर गिरवी रख दिया, और तो और पूरे परिवार की लाडली भैंस 'भुई' और घर की शान बंदूक भी बेच देनी पड़ी।

पलक झपकते ही एक हँसता-खेलता संपन्न परिवार फ़ाक़े करने को मजबूर हो गया। सुबह के खाने का किसी तरह इंतज़ाम होता, तो शाम की चिंता सताने लगती और कभी तो पूरे परिवार को भूखे पेट ही सोना पड़ता। जहाँ रोज़ पेट भरने की समस्या मुँह बाये खड़ी हो, वहाँ बच्चे की आगामी शिक्षा के बारे में सोचने की फ़िक्र किसे होती? बच्चे ने दसवीं की परीक्षा तो किसी तरह पास कर ली, लेकिन आगे क्या हो, यह प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ। इंटर की पढ़ाई के लिए तो बच्चे को मुरादाबाद जाना पड़ता, जो वर्तमान परिस्थितियों में असंभव था।

सिकुड़ जाते हैं मेरे पाँव खुद ही 
मैं जब रिश्तों की चादर तानता हूं 
*
नींदों की जुस्तजू में लगे हैं तमाम ख्वाब 
सज-धज के आ गया है कोई उनके ध्यान में 
*
चार आंसुओं का रोक न पाईं बहाव वो 
जिन आँखों ने हैं बाँधे समंदर कभी-कभी 
*
कागज के फूल तुमने निगाहों से क्या छुए 
लिपटी हुई है एक महक फूलदान से 

ऐ दिल कहीं यकीन की उँगली न छूट जाय 
बोझल हुए हैं पाँव सफ़र की थकान से
*
कुर्बत भी चाहता है मगर फासले के साथ 
कैसी अजीब शर्त तेरी दोस्ती की है 
*
थोथे संबंधों के नाम 
कोलन, कौमा, पूर्ण विराम

जाने क्या मजबूरी है 
खु़द से ही हर पल संग्राम
*
 मेरी बस्ती के चिराग़ों को बुझाने वाले 
थे सभी लोग वो सूरज के घराने वाले 

आज के अहद में जीने पे तअज्जुब होगा 
दिन जो याद आए कभी बीते ज़माने वाले

निराशा के इस घोर अँधेरे में अचानक आशा की किरण बनकर बच्चे के पिता का एक परिचित युवक जो मुरादाबाद के 'के.जी.के.होम्योपैथिक कॉलेज' का विद्यार्थी था, गाँव आया। युवक ने बच्चे के पिता को आश्वासन दिया कि वो अपनी जान पहचान की वजह से बच्चे का दाख़िला मुरादाबाद के आयुर्वेदिक विद्यालय में निःशुल्क करवा देगा और हॉस्टल में कमरा भी दिलवा देगा। पिता को जैसे मुँह मांगी मुराद मिल गयी। बच्चे का दिल भी ख़ुशी से बल्लियों उछलने लगा। मुरादाबाद जाने की कल्पना से ही ख़ुश हो कर बच्चे की रातों की नींद ही उड़ गयी।
 
आख़िर जल्द ही उस बच्चे की ज़िन्दगी में अपना घर-गाँव छोड़कर मुरादाबाद जाने वाला महत्वपूर्ण मोड़ आया। मुरादाबाद में, अपने साथ लाए चंद कपड़ों, एक स्टोव और थोड़े से राशन के सामान के साथ, बच्चे ने घर गाँव के साथ-साथ अपने बचपन को भी अलविदा कह दिया। पढ़ाई के साथ-साथ वो विपरीत परिस्थितियों में ख़ुद को ढालते हुए जीवन को बेहतर बनाने के लिए संघर्ष करने लगा। उसने छोटे बच्चों की ट्यूशन लेनी शुरू की, जिससे उसकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी होने लगीं।

उसे याद नहीं ज़िंदगी की मुश्किलों से दो-दो हाथ करते हुए अपने मन के भावों को व्यक्त करने के लिए कब उसने क़लम थामी। मुरादाबाद में उस्ताद ग़ज़लकारों की कमी नहीं। उनकी संगत में आने से इस बच्चे में, जिसका नाम कृष्ण कुमार वर्मा है, ग़ज़ल सीखने की ललक पैदा हुई। इसके चलते पहले उर्दू भाषा सीखी और फिर उरुज़ का ज्ञान प्राप्त किया। ग़ज़ल कहते-कहते कृष्ण को अहसास हुआ कि ग़ज़ल महज़ उर्दू और उरूज़ जान लेने से नहीं कही जा सकती। इस विधा को सीखने के लिए एक उस्ताद का होना ज़रूरी है। उस्ताद की खोज शुरू हुई।

मुस्कुराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार 
इसका मतलब मेरे सुख-दुख से लगाता क्यों है 
*
हमने माना कि तरक़्क़ी तो हुई है लेकिन 
तीरगी आज भी क़ायम है चराग़ों के तले 
*
कूड़े के अंबार से पन्नी चुनते अधनंगे बच्चे 
पेट से हटकर भी कुछ सोचें वक्त कहां मिल पाता है 

ठंडा चूल्हा, ख़ाली बर्तन, भूखे बच्चे, नंगे जिस्म 
सच की राह पे चलना आख़िर नामुमकिन हो जाता है
*
चिंता, उलझन, दुख-सुख, नफ़रत, प्यार, वफ़ा, आंसू, मुस्कान
एक ज़रा-सी जान के देखो कितने हिस्सेदार हुए
*
रह गई अपने-पराए की कहां पहचान अब 
कितना सूना हो गया रिश्तों का पनघट इन दिनों 
*
बेतहाशा तंज़ करता है दिये पर आज तक 
एक टुकड़ा तीरगी का पाँव से लिपटा हुआ 
*
फ़ाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं 
हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल 

कतरने अख़बार की पढ़कर चले जाते हैं लोग 
शायरी करने लगे मंचों पर हॉकर आजकल
*
रोशनी के वास्ते धागे को जलते देखकर 
ली नसीहत मोम ने, उसको पिघलना आ गया 

इस खोज का अंत जनवरी 1989 को मुरादाबाद में हर गणतंत्र दिवस पर होने वाले मुशायरे से हुआ। दोस्तों की सलाह पर मुशायरे के दौरान कृष्णकुमार लखनऊ से पधारे उस्ताद शायर 'कृष्णबिहारी नूर' साहब की बग़ल में जा बैठे और उनसे उनके घर का पता पूछा। दो दिन बाद उन्होंने 'नूर' साहब को पत्र लिखा, जिसमें उनसे उनकी ग़ज़लों की किताब के बारे में जानकारी माँगी। नूर साहब ने जवाब में लिखा कि उनकी दो किताबें मंज़रे-आम पर आई हैं- 'दुख-सुख' और 'तपस्या', इनमें से सिर्फ़ 'तपस्या' ही, जो उर्दू लिपि में है, बाज़ार में उपलब्ध है। जवाब में कृष्णकुमार जी ने 'नूर' साहब को लिखा कि वो उर्दू ज़बान से वाक़िफ़ हैं और साथ ही अपनी दो ग़ज़लें भी 'नूर' साहब को भेज दीं। ग़ज़लें नूर साहब को पसंद आईं और उनमें से एक ग़ज़ल मुंबई से छपने वाली पत्रिका ' बज़्मे फ़िक्रो फ़न' में छपने भी भेज दी। जब कृष्णकुमार जी ने नूर साहब से उनका शागिर्द बनने की इच्छा ज़ाहिर की, तो उन्होंने कहा कि इसके लिए आप लखनऊ आएं।

नूर साहब से मिलने के लगभग एक साल बाद दिसंबर 1989 में कृष्णकुमार लखनऊ गये, जो अब 'नाज़' तख़ल्लुस से ग़ज़लें कहने लगे थे। नूर साहब के घर पहुंचकर साथ लाया मिठाई का डिब्बा उनके हाथ में देकर उन्होंने नूर साहब के चरण स्पर्श किये। नूर साहब ने आशीर्वाद दिया और डिब्बे में से मिठाई का पहला टुकड़ा कृष्णकुमार जी को खिलाकर उन्हें अपना शागिर्द बनाना मंज़ूर किया।

जलो तो यूँ कि हर इक सिम्त रोशनी हो जाए 
बुझो तो यूँ कि न बाक़ी रहे निशानी भी 
*
बदला अपने अहसाँ का उम्रभर नहीं चाहा 
सीपियों ने बचपन से मोतियों को पाला है
*
नाख़ुदा, नाव, पतवार, साहिल हमें 
एक तुम क्या मिले, सब सहारे मिले
*
 तू वो शक और और विश्वास का प्रश्न है 
सब जिसे जोड़ते और घटाते रहे 
*
तेरे नामों से तो सब है वाक़िफ़ मगर
ये बता तुझको पहचानता कौन है

दिसंबर 1989 के उस दिन से लेकर नूर साहब की ज़िंदगी के आख़िरी दिन यानी 30 मई 2003 तक कृष्णकुमार 'नाज़' साहब पर नूर साहब का वरदहस्त रहा। इन 13 सालों में नूर साहब ने 'नाज़' साहब को ग़ज़ल के विभिन्न पहलुओं, छंद के प्रकार और भाषा की बारीकियों से अवगत कराया। उन्होंने कहा कि बरख़ुरदार तुम मुशायरों में  जाओ, वहाँ शायरों को ध्यान से सुनो और ग़ौर करो कि शायर को उसके किस कलाम पर ज़्यादा दाद मिलती है और क्यों? शेर में रवानी का क्या असर होता है। 'नाज़' साहब ने नूर साहब की हर बात का अक्षरश: पालन किया। वो अपना लिखा नूर साहब को दिखाते और वो जिस शेर या ग़ज़ल को ख़ारिज़ करने को कहते, उसकी वजह जानकर तुरंत हटा देते। नूर साहब की रहनुमाई में ही नाज़ साहब की पहली किताब मंज़रे-आम पर आई। 
सन् 2012 में नाज़ साहब ने 'हिंदी ग़ज़ल के संदर्भ में कृष्णबिहारी नूर का विशेष अध्ययन' विषय पर शोधकर पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। नाज़ साहब का ये शोधग्रंथ नूर साहब पर किया गया सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

आज कृष्णकुमार 'नाज़' साहब की ग़ज़लों की एक अनूठी किताब 'नई हवाएँ' की जानकारी और उसके चुनिंदा अशआर आप तक पहुंचा रहे हैं। बाज़ार में उपलब्ध ग़ज़लों की सैकड़ों किताबों में से ये किताब इसलिए अनूठी है कि इसमें उर्दू ग़ज़ल की 18 अत्यधिक प्रचलित बहरों पर कही 120 ग़ज़लों का संकलन किया गया है। हर बहर के अरकान और उस बहर में कही ग़ज़लें एक साथ संकलित हैं। ग़ज़ल सीखने वालों के लिए इससे बेहतर किताब शायद ही कोई हो। इस किताब को 'किताबगंज प्रकाशन' गंगापुर सिटी राजस्थान ने प्रकाशित किया है।

ये किताब अमेजन पर नहीं है इसलिए जो इसे खरीदना चाहें  वो किताबगंज के प्रकाशक श्री प्रमोद सागर से 8750660105 पर संपर्क करें। आप नाज़ साहब से 9927376877 अथवा 9808315744 पर मोबाइल से संपर्क कर उन्हें इन शानदार ग़ज़लों के लिए बधाई दे सकते हैं। यक़ीन मानिए, उनसे बात कर आप उनकी सहृदयता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। उनसे kknaaz1@gmail.com पर भी संपर्क किया जा  सकता है।


आदमी की भूख मकड़ी की तरह है दोस्तो 
और जीवन उसके जाले की तरह उलझा हुआ 
*
जिसकी ख़ातिर आदमी कर लेता है ख़ुद को फ़ना
कितना मुश्किल है बचा पाना उसी पहचान को 
*
ज़हन से उलझा हुआ है मुद्दतों से ये सवाल 
आदमी सामान है या आदमी बाज़ार है 

इस तरक़्क़ी पर बहुत इतरा रहे हैं आज हम 
जूतियां सर पर रखी हैं पाँव में दस्तार है 
*
मैंने दुश्मन को भी ख़ुश होकर लगाया है गले 
दुश्मनी अपनी जगह, इंसानियत अपनी जगह 

मैं परिंदे की तरह मजबूर भी हूँ, क़ैद भी 
हां मेरी ज़हनी उड़ानों की सिफ़त अपनी जगह
*
थी कभी अनमोल, लेकिन अब तेरे जाने के बाद 
ज़िंदगी फ़ुटपाथ पर बिखरा हुआ सामान है 
*
सर झुकाने ही नहीं देता मुझे मेरा ग़ुरूर 
इक बुराई ने दबा लीं मेरी सब अच्छाइयाँ

कुछ दिनों तक तो अकेलापन बहुत अखरा मगर 
धीरे-धीरे लुत्फ़ देने लग गई तनहाइयाँ
*
ये सुख भी क्षणिक हैं, ये दुख भी हैं वक़्ती 
ये किसके हुए हैं, न तेरे, न मेरे

समाजशास्त्र, उर्दू और हिंदी विषयों में एम.ए.करने के बाद नाज़ साहब ने बी.एड. की परीक्षा पास की और फिर पी-एच.डी. की डिग्री भी हासिल की। मृदुभाषी नाज़ साहब विलक्षण प्रतिभा के धनी और जुझारू व्यक्तित्व के स्वामी हैं। माँ सरस्वती की उन पर विशेष कृपा रही है। उन्होंने न सिर्फ़ ग़ज़ल लेखन में महारत हासिल की, बल्कि गीत, दोहा, कविता, नाटक तथा निबंध लेखन में भी कौशल दिखाया है। उनकी ये आठ किताबें इस समय बाजार में उपलब्ध हैं- ' इक्कीसवीं सदी के लिए' (ग़ज़ल-संग्रह), 'गुनगुनी धूप' (ग़ज़ल-संग्रह), 'मन की सतह पर' (गीत-संग्रह), 'जीवन के परिदृश्य' (नाटक-संग्रह), 'हिंदी ग़ज़ल और कृष्णबिहारी नूर', 'नई हवाएँ' (ग़ज़ल-संग्रह) और ग़ज़ल के विद्यार्थियों को उरूज़ आसानी से समझने के लिए बेहतरीन किताब 'व्याकरण ग़ज़ल का'।

नाज़ साहब के जीवन की कहानी हमें संघर्ष कर अपने सपनों को साकार करने की प्रेरणा देती है। उन्होंने जीवन में कभी हार नहीं मानी, विपरीत परिस्थितियों के समक्ष घुटने नहीं टेके। 'अमर उजाला' अखबार में उन्होंने सन 1989 'प्रूफ़ रीडर' के पद से नौकरी का आरम्भ किया और तीन वर्ष बाद ही उनका तबादला संपादकीय विभाग में हो गया। सन 1995 में उन्हें 'गन्ना विकास विभाग, मुरादाबाद में उर्दू अनुवादक के पद की सरकारी नौकरी मिल गई, लेकिन 'अमर उजाला' वालों ने उनसे वहीं काम करते रहने की गुज़ारिश की, लिहाज़ा वो दोनों संस्थाओं में तीन सालों तक साथ-साथ नौकरी करते रहे। दोनों जगह काम के बोझ के चलते उन्हें स्पोंडिलाइटिस व मोतियाबिंद भी हो गया, लेकिन मुरादाबाद में अपना ख़ुद का एक घर होने की चाहत ने इन तकलीफ़ों को उन पर हावी नहीं होने दिया। आख़िर अगस्त 1998 में उन्होंने 'अमर उजाला' छोड़ दिया। 31 जनवरी 2021 को वो गन्ना विकास विभाग में लेखाकार पद से सेवानिवृत्त हुए।

अब अपना पूरा समय वो अपने द्वारा स्थापित 'गुंजन प्रकाशन' और लेखन-पठन को देते हैं।

इस संघर्ष में उनके बचपन ने सीधा प्रौढ़ावस्था में कब क़दम रख दिया, ये पता ही नहीं चला। नाज़ साहब पर केन्द्रित 'निर्झरिणी' पत्रिका के अंक-12 में वो अपने बारे में लिखते हैं कि 'युवावस्था तक अभावों ने अपने बाहुपाश में जकड़े रखा।लेकिन ईश्वर हमेशा मेरी उंगली थामे रहा, उसने मुझे कभी निराश नहीं किया। तमाम दिक़्क़तों के बावजूद कभी मेरा कोई काम नहीं रुका। मैंने कभी दौलतमंद दोस्त नहीं बनाए, यह मेरा हीनताबोध भी हो सकता है। ज़िंदगी के सफ़र में मुझे बहुत अच्छे-अच्छे लोग मिले। आज जब अतीत के झरोखों में झांकता हूं, तो मेरी आंखें भीग जाती हैं। लेकिन, तभी मेरा आत्मबल मेरा कंधा थपथपाकर मेरा हौसला बढ़ाता है और कहता है- शाबाश, तुम्हारी मेहनत रंग लाई; और चलो, और चलो, चलते रहो, परिश्रम ही तुम्हारी पूजा है।

आइये अंत में उनके इन चंद चुनिंदा शेरों के साथ अपनी बात समाप्त करते हैं :

 चांद को पाने की कोशिश करते-करते 
जुगनू क़िस्मत का हिस्सा हो जाता है 

मैं ठहरा सदियों से प्यासा रेगिस्तान 
तू तो नदी है, तुझको क्या हो जाता है 
*
हाथ सेंकती हैं ख़्वाहिशें 
ज़िंदगी है या अलाव है
*
ज़िंदगी ये बता नाम क्या दूं तुझे 
आशना, अजनबी, राहज़न, राहबर
*
जहां शरीर से लेकर ज़मीर तक बिक जाय 
नई हवाओं ने छोड़ा वहां पे ले जाकर