Monday, September 28, 2020

किताबों की दुनिया -215

इस इंतज़ार में हूँ शाख़ से उतारे कोई 
तुम्हारे क़दमों में ले जा के डाल दे मुझको 
*
तूने मुझे छुआ था क्या जाने वो मोजिज़ा था क्या 
हिज़्र की साअतों में भी मुझको विसाल-सा रहा 
मोजिज़ा :चमत्कार , हिज़्र: जुदाई ,साअतों :घड़ियों ,विसाल : मिलन 
*
दुनिया के भेद क्या हैं क़ुरआन-वेद क्या हैं 
आगाही-ए-अदम में इन्सान मर गया है 
आगाही ए अदम :परलोक ज्ञान 
*
उस फूल को निहारूँ और देर तक निहारूँ 
शायद इसी बहाने मैं ताज़गी को पहुँचूँ 
*
पहले भी तन्हा थे लेकिन हम को इल्म न था 
तुझसे मिल कर हमने तन्हाई को पहचाना 
*
पहले मुझको भी दुनिया से नफ़रत रहती थी 
फिर मेरे जीवन तेरे इश्क़ का फूल खिला 
*
तेरा दुःख है जो मुझे भरता है 
अपने हर सुख में अधूरा हूँ मैं 
*
हमारे वास्ते होने की सूरत
वही है जो नहीं अब तक हुआ है 
*
बाहर रह रह कर ये जाना 
अपने अंदर जन्नत है 
*  
 हज़ारों मंज़िलें सर कर चुका हूँ मैं लेकिन 
ये ख़ुद से ख़ुद का सफ़र तो बहुत अजब सा है   

'जहांगीर गँज' मुझे उम्मीद है कि शायद आपने इस गाँव का नाम नहीं सुना है। इसमें आश्चर्य की कोई बात भी तो नहीं है, भारत जैसे विशाल देश में एक राज्य के लोग दूसरे राज्य के अधिकांश शहरों के नाम तक नहीं जानते, गाँव के नाम तो दूर की बात है।ये संभव भी नहीं है। चलिए हम बता देते हैं ये गाँव भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के 'अम्बेडकर नगर' डिस्ट्रिक्ट जो 1995 में फैज़ाबाद से विभक्त हो कर अस्तित्व में आया, के अंतर्गत आता है। अब अगर हम 'जहांगीर गँज' को केंद्र में रख कर 50 की.मी रेडियस का एक गोल घेरा खींचे तो आप पाएंगे कि उस परिधि में आयी भूमी पर विलक्षण प्रतिभा के लोग पैदा हुए हैं। उन सब के नाम तो यहाँ बताने संभव नहीं हैं  लेकिन उन में से कुछ के नाम उदाहरण के तौर पर लिये जा सकते हैं जैसे प्रगतिशील लेखक संग के आधार स्तम्भ, शायर, लेख़क पद्म श्री से सम्मानित ज़नाब 'कैफ़ी आज़मी' साहब,  सोशलिस्ट पार्टी के जनक श्री  'राम मनोहर लोहिया' जी ,संस्कृत भाषा से उर्दू में भगवत गीता का अनुवाद करने वाले अनूठे शायर 'अनवर जलालपुरी' साहब , मष्तिष्क चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में क्रन्तिकारी खोज के लिए पद्म श्री से सम्मानित डॉक्टर 'मेहदी हसन' साहब और असामाजिक तत्वों द्वारा चलती रेल से दिए गये धक्के के कारण पैर गंवाने के बावजूद अपने बुलंद हौसलों से एवरेस्ट विजय करनी वाली, पद्म श्री से सम्मानित ,दुनिया की पहली महिला, 'अरुणिमा सिन्हा' । आप सोच रहे तो जरूर होंगे कि मैं आपको जहांगीर गँज के बारे में क्यों बता रहा हूँ तो इसका जवाब ये है कि हमारे आज के युवा प्रतिभाशाली शायर 'महेंद्र कुमार सानी' यहीं जहांगीर गँज में 5 जून 1984 को पैदा हुए थे और इनका नाम भी कल को इन लोगों की फेहरिश्त में शामिल हो जाय तो हैरत नहीं होनी चाहिए । उनकी ग़ज़लों की पहली किताब 'मौज़ूद की निस्बत से' हमारे सामने है।   


एक मौजूद की निस्बत से है ये सारा वजूद 
किसी अव्वल का नहीं कोई निशाँ सानी में 
*  
तन्हाई है फुर्सत है 
जीने में क्या लज़्ज़त है 
*
शेर कह कर दिल-ऐ-मुज़्तर को करार आया तो 
मसअला फिर वही दरपेश है हैरानी का 
दिल-ऐ-मुज़्तर:बेकरार दिल , दरपेश :सम्मुख 
*
मैं जागृति की अजब अजब मंज़िलों से गुज़रा 
कि रात जब तेरा ध्यान कर के मैं सो रहा था 
*
यूँ तो आवारगी मुझमें है बला की लेकिन 
इश्क़ तेरा मुझे बादल नहीं होने देता 
देखिये तो सब दुनिया मस्त-अलस्त लगती है 
जानिये तो हर इन्सां मुब्तिला है दहशत में 
मुब्तिला :खोया हुआ 
*
बिखर गया है मेरी रूह में वो ख़ार की मानिंद 
वो गुल बदन मुझे शायद गुलाब कर के रहेगा 
*
दूर करते हैं तुझे हम पहले 
फिर जो  हैरत से तुझे देखते हैं 
ये दुनिया है इसे पाना नहीं है  
इसे बस देखना है देखना है   
 *
है सारा खेल इन आँखों के घर में 
हक़ीक़त में जो बाहर दिख रहा है 

जहाँगीर गँज में अधिकतर उर्दू और हिंदी ही बोली जाती है और वहां की आबादी में मुसलमानों का प्रतिशत अधिक है। बचपन के आठ साल यहाँ बिताने के बाद याने 1992 में 'महेंद्र कुमार सानी' जी का परिवार 'पंचकुला' स्थानांतरित हो गया। पंचकुला हरियाणा का चंडीगढ़ के साथ बसा हुआ एक प्लांड शहर है। आपकी जानकारी के लिए बताता चलूँ की राष्ट्रिय पुरूस्कार से सम्मानित अभिनेता 'आयुष्मान खुराणा' यहीं के हैं. बात 1999 की है, महेंद्र तब 15 वर्ष के रहे होंगे, दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे, स्कूल के बाद घर लौट रहे थे कि रास्ते में पान की दुकान पर रखे टेपरिकार्डर में बज रही जगजीत सिंह की ग़ज़ल " शाम से आँख में नमी सी है आज फिर आप की कमी सी है " सुन कर उनके पाँव ठिठक गए।  ग़ज़ल जैसे ही ख़तम हुई उन्होंने पान वाले से उसे फिर से चलाने की गुज़ारिश की जब वो सीधे कहने से नहीं माना तो फिर हाथ पाँव जोड़ कर उसे मनाया और इस ग़ज़ल को चार पांच बार सुना। रास्ते भर उसे गुनगुनाते महेंद्र घर पहुंचे। जगजीत सिंह जादू उनके सर चढ़ कर बोलने लगा। घर लौटते वक्त पान की दुकान पर खड़े हो कर ग़ज़ल सुनना महेंद्र की दिनचर्या का हिस्सा बन गया। पान वाले को भी अब ये ग़ज़ल प्रेमी बच्चा पसंद आने लगा और वो महेंद्र के आते ही जगजीत की कोई न कोई कैसेट लगा देता। 

ठहरे हुए पानी में रवानी कोई शय तू 
मौजूद से आगे भी है यानी कोई शय तू 

जो एक है उस एक में हर हाल है तू ही 
अव्वल में अगर है कहीं सानी कोई शय तू 

जो रूप है वो रंग से खाली तो नहीं है 
इन ज़र्द से पत्तों में है धानी कोई शय तू 

सरसब्ज़ है ता-हद्दे-नज़र रेत की खेती 
मौजूद के सहराओं में पानी कोई शय तू 

दसवीं से बाहरवीं कक्षा तक याने दो साल तक ये सिलसिला चलता रहा. ग़ज़लें सुन सुन कर महेंद्र को उर्दू ज़बान से मोहब्बत हो गयी और उसे बहुत से उर्दू के लफ्ज़ भी याद हो गए। बाहरवीं के बाद छुट्टियों में महेंद्र अपने गाँव घूमने गए क्यूंकि अभी कॉलेज जाने में देरी थी। गाँव में महेंद्र के ग़ज़ल प्रेम को देख कर उनके बहुत से मुस्लिम दोस्त बन गए। महेंद्र की याददाश्त भी खूब थी वो बात बात पर बेहतरीन शेर सुना देते थे। उनके इस हुनर के चलते उस छोटे से जहाँगीर गँज में उनकी एक पहचान बन गयी। लोग उन्हें अपने घर बुलाते, बाजार के रास्तों ,चौराहों पर खुली चाय की दुकानों पर उसे चाय पिलाते और शायरी सुनते। ऐसी ही एक महफ़िल में महेंद्र की मुलाक़ात इलाहबाद यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम.ऐ. कर रहे आफ़ताब अहमद से हो गयी जो छुट्टियों में अपने घर आये हुए थे । उम्र में अच्छा ख़ासा फर्क होने के बावजूद दोनों की उर्दू ज़बान से मोहब्बत की वजह से दोस्ती हो गयी। दो तीन दिन में एक बार होने वाली ये मुलाक़ात अब दिन में दो तीन बार होने लगी। आफ़ताब से मिलने के बाद जैसे महेंद्र के ज़ेहन में रौशनी फ़ैल गयी। ग़ज़ल कहने के नए आयाम उनके सामने खुलने लगे। बात धीरे धीरे जगजीत सिंह की ग़ज़लें सुनने से आगे बढ़ कर अब खुद शेर कहने, रदीफ़, काफ़िये को निभाने तक जा पहुंची। .   

मिरे वजूद में तेरा वजूद ऐसे है 
दरख़्त-ए-ज़र्द में जैसे हरा चमकता है 
दरख्त-ऐ-ज़र्द :सूखा पेड़ 

ये रौशनी में कोई और रौशनी कैसी 
कि मुझ में कौन ये मेरे सिवा चमकता है 

मैं एक बार तो हैरान हो गया 'सानी'
ये मेरा अक्स है या आइना चमकता है

 आफ़ताब अहमद ने फ़िराक़ गोरखपुरी, कृष्ण बिहारी नूर, कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर', पंडित बृज नारायण चकबस्त आदि के साथ साथ ऐसे और कई मशहूर शायरों के नाम महेंद्र को बताये जो मुस्लिम नहीं लेकिन उर्दू के बेमिसाल शायर थे । उन्होंने महेंद्र को समझाया कि उर्दू ज़बान हमारी अपनी ज़बान है और इस पर जितना हक़ मेरा है उतना ही तुम्हारा भी है बशर्ते तुम इसे ढंग से सीखो। इस बात ने महेंद्र को रोमांचित कर दिया और उसने फैसला किया कि वो पंचकुला पहुँचते ही उर्दू लिखना पढ़ना सीखेगा। पंचकुला के जिस कॉलेज में महेंद्र ने दाखिला लिया उसके पास ही हरियाणा उर्दू अकेडमी थी वहां कम्यूटर के साथ उर्दू का कोर्स सीखना जरुरी था। महेंद्र ने कोर्स में दाखिला ले लिया और अगले दो तीन महीनों में ही अच्छे से उर्दू लिखना पढ़ना सीख गया। महेंद्र ने अकेडमी की लाइब्रेरी में रखी उर्दू शायरी की किताबें एक एक करके पढ़ने का सिलसिला शुरू कर दिया। इन किताबों को पढ़ने के साथ ही महेंद्र ने अपनी शायरी का आगाज़ कर तो दिया लेकिन उसे महसूस हुआ कि शायरी ख़ास तौर पर ग़ज़ल कहना महज़ काफिया पैमाइ का नाम नहीं है। अब महेंद्र को तलाश थी एक ऐसे शख्स की जिसकी ऊँगली पकड़ कर वो ग़ज़ल की टेढ़ी मेड़ी पगडंडियों पर आसानी से चलना सीख सकें।    
एक जंगल सा उगा है मेरे तन के चारों ओर 
और अपने मन के अंदर ज़र्द-सा रहता हूँ मैं 

एक नुक़्ते से उभरती है ये सारी क़ायनात  
एक नुक़्ते पर सिमटता फैलता रहता हूँ मैं 

रौशनी के लफ्ज़ में तहलील हो जाने से क़ब्ल 
इक ख़ला पड़ता है जिस में घूमता रहता हूँ मैं 
तहलील : घुल जाना

उस्ताद की तलाश महेंद्र को पंचकुला के नामवर अदीब जनाब 'टी एन राज' साहब के दर पर ले आयी।  राज साहब उर्दू के आला तन्ज़ो मिज़ाह के शायर हैं और उनका शेरी मजमुआ  'ग़ालिब और दुर्गत' उर्दू मज़ाहिया शायरी में मक़बूल हुआ। राज साहब के यहाँ उर्दू का हर बेहतरीन रिसाला आता था और हर विषय पर छपी उर्दू की श्रेष्ठ किताबें आती थीं। हरियाणा उर्दू अकेडमी की लाइब्रेरी ने जहाँ महेंद्र को रिवायती शायरी की ढेरों किताबें पढ़ने का मौका दिया वहीँ राज साहब के यहाँ उनका परिचय उर्दू की आज की शायरी से हुआ। राज साहब ने महेंद्र के अध्ययन विस्तार दिया लेकिन उनकी शायरी को सही पटरी पर डाला जनाब 'एस एल धवन' साहब ने। उसके बाद महेंद्र की लगन और लगातार पढ़ते  रहने की आदत ने उन्हें शायरी के एक ख़ास मुक़ाम पर पहुंचा दिया। 

 मैं सोचता हूँ मग़र क्या मुझे नहीं मालूम 
मैं देखता हूँ मग़र ध्यान किसके ध्यान में है 

जहाँ मैं हूँ वहीँ उसको भी होना चाहिए ,फिर 
मुझे वो क्यों नहीं मिलता ,वो किस जहान में है 

उसी का तर्जुमा भर मेरी शायरी 'सानी'
वो एक लफ्ज़ जो मुब्हम-सा मेरे कान में है 
मुब्हम: अस्पष्ट 

इस किताब की भूमिका में जयपुर के मशहूर शायर जनाब 'आदिल रज़ा मंसूरी' साहब, जो महेंद्र की शायरी के इस सफर में शरीक रहे हैं, लिखते हैं कि " मौजूद के मानी जहाँ 'हाज़िर' के हैं वहीँ एक मानी 'ज़िंदा' या 'जीवित' के भी हैं। 'ज़िंदा मतलब 'ज़िन्दगी' यानी ये शाइरी ज़िन्दगी से इंसान की निस्बत की शाइरी है. जिसके सामने रोज़े-ए-अज़ल से कुछ सवाल हैं। 'वो कौन है ?क्यों है ?किसलिए है ? ख़ुदा क्या है ? है भी या नहीं ?ये दुनिया क्या है ? रूह क्या है ? सानी का ज़हन भी ऐसे सवालों के घेरे में है मग़र उनके यहाँ सिर्फ सवाल नहीं हैं उनके पास जवाब भी है जो उनके अपने हासिल-कर्दा हैं और उनकी शायरी इन जवाबों के इज़हार की शाइरी है।  उनकी शाइरी में ज़ाहिर में भी एक फ़िक्री पर्दा है जहाँ उनके हमअस्र सब कुछ कह देना चाहते हैं वहीँ 'सानी' कहे में कुछ अनकहा छोड़ देते हैं बल्कि ये काम वो कारी याने पाठक के सुपुर्द कर देते हैं " 
महेंद्र सानी अपनी बात कहते हुए लिखते हैं कि 'शाइरी क्या है ? इसी उधेड़बुन में एक अरसा सर्फ़ हो चुका है और ऐसा लगता है मेरी बाक़ी उम्र भी ऐसे ही गुज़रने वाली है "      

इस क़दर ख़ामुशी है कमरे में 
एक आवाज़-सी है कमरे में 

कोई गोशा नहीं मिरी खातिर 
क्या मिरी ज़िन्दगी है कमरे में 

कोई रस्ता नहीं रिहाई का 
वो अजब गुमरही है कमरे में 

एक बाहर की ज़िन्दगी है मिरी 
और इक ज़िन्दगी है कमरे में 

महेंद्र जी, जो आजकल एक स्टार्टअप 'योर कोट' में मैनेजर के ओहदे पर कार्यरत हैं, का मानना है कि शाइरी के लिए कही गई ये बात ग़लत है कि इसे हर कोई नहीं कर सकता। वो बाकायदा शाइरी सिखाते भी हैं ग़ज़ल पर वर्क शाप भी करते हैं । वो ख़ुद एक ऐसे परिवार से हैं जिसका शाइरी से कभी कोई नाता नहीं रहा। उनका मानना है कि हर वो इंसान जिसका ज़हन सवाल करता है शाइरी कर सकता है आप महेंद्र जी से 8699434749 / 7009383017 पर  सम्पर्क करें उन्हें इस किताब के लिए मुबारक़ बाद दें और इस किताब को अमेज़न या रेख़्ता बुक्स से ऑर्डर करें। इस किताब पर बहुत से विद्वान शायरों और आलोचकों ने अपने विचार रखें हैं जिन्हें आप महेंद्र कुमार सानी जी के फेसबुक अकाउंट पर पढ़ सकते हैं। मैंने आपको महेंद्र जी के बारे में जितना मुझे पता था बताया, उनकी शाइरी के बारे में. आप उन्हें पढ़ कर, अपनी राय स्वयं बनायें , चलते चलते आईये  आपको उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर भी पढ़वा देता हूँ :  

जिस्म इक सहरा है सहरा के दरून 
एक दरिया चस्म-ऐ-तर दरवेश है 
दरून : अंदर , चश्म-ऐ-तर : भीगी आँख 

ख़ल्क़ ख़ाली सीपियाँ हैं दहर में 
दहर में कोई गुहर दरवेश है 
ख़ल्क़ :प्रजा ,दहर:संसार , गुहर : मोती 

जाने किस फ़ुर्सत में फिरता है वो शख़्स 
इस तरह तो दर-ब-दर दरवेश है   

Monday, September 14, 2020

किताबों की दुनिया - 214


आप कहते थे के रोने से न बदलेंगे नसीब 
उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया 
*
अगर खुद को भूले तो, कुछ भी न भूले 
के चाहत में उनकी , ख़ुदा को भुला दें
*
हम नींद की आगोश से क्यूँ चौंक उठे हैं 
ख़्वाबों में कहीं तुमने पुकारा तो नहीं है 
*
कितनी भी कोशिशों से सजा लो इसे मगर 
जन्नत न ये ज़मीन बनेगी पिए बगैर 
*
जब हक़ीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है 
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यों है 
*
आसमान तक जो न पहुँची आज तक 
इक मुफ़लिस की सदा है ज़िन्दगी 
*
ख़ुश्क पत्तों का मुक़द्दर लेकर 
आग के शहर में रहता हूँ जनाब 
*
मुझको फ़रियाद की आदत नहीं इस दुनिया में 
सर झुकाता हूँ मैं तुम संग उठाओ यारो 
*
बारहा मर चुके हैं इश्क़ में हम 
मौत का इंतज़ार कौन करे 
    
डॉ. कामरा की डिस्पेंसरी के बाहर लम्बी लाइन लगी हुई थी, हमेशा ही लगती है ,पंजाब के 'फ़िरोज़पुर' शहर के पास गाँव 'रेतवाला' में और कोई ढंग का डाक्टर है भी तो नहीं। तब हर डॉक्टर को, वो चाहे जैसा हो, भगवान स्वरुप माना जाता था। डॉक्टर कामरा तो खैर थे ही भगवान स्वरुप, लिहाज़ा सारे गाँव वाले उनकी बड़ी इज़्ज़त करते थे। ये सन 1940 के आसपास की बात है तब लोग हर पढ़े लिखे की इज़्ज़त किया करते थे। डॉक्टर साहब के पास बैठा उनका छै साल का बेटा, जो घर से बाहर निकलने के चाव में अपने पिता के साथ डिस्पेंसरी आ तो गया लेकिन यहाँ कुछ करने को तो था नहीं इसलिए, लगातार कोई न कोई शरारत किये जा रहा था। डॉक्टर साहब ने तंग आ कर अपने एक मुलाज़िम को आवाज़ दे कर कहा कि वो बेटे को साथ लेजा कर गाँव घुमा लाये . बेटा खुश. घूमते हुए सामने हरे भरे खेत को देख कर वहाँ हल चलाते किसान से उसने पूछा ऐ खेत किदा ऐ (ये खेत किसका है )? किसान ने हँसते हुए कहा 'तवाडा बाश्शाओ (आपका है ) फिर उसने दूर बड़े से पेड़ की ओर ऊँगली कर के पूछा 'ओ किदा ऐ (वो किसका है )? किसान ने मुस्कुराते हुए कहा 'तवाडा बाश्शाओ'. बेटा मुलाज़िम की ऊँगली पकड़े जिस चीज की तरफ इशारा करते हुए जिस किसी से पूछता 'ऐ किदा ऐ ?' तो सब उसे एक ही जवाब देते ' तवाडा बाश्शाओ' . बेटा बहुत खुश हो घर लौटा। उसे लगा जैसे उसके पिता इस गाँव के महाराजा हों और वो उनका शहज़ादा 'सुदर्शन' । 
किसी रंजिश को हवा दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी 
मुझको एहसास दिला दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी 

मेरे रुकने से मेरी साँसे भी रुक जाएँगी 
फ़ासले और बढ़ा दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी 

ज़हर पीने की तो आदत थी ज़माने वालों 
अब कोई और दवा दो के मैं ज़िंदा हूँ अभी 

प्राथमिक शिक्षा गाँव में पूरी करने के बाद जब आगे की पढाई के सिलसिले में 'सुदर्शन' गाँव छोड़ कर फ़िरोज़पुर शहर आया तो उसके साथ दो हादसे हुए। पहला हादसा तब हुआ जब उसे ये बात समझ में आयी कि यहाँ पर उसकी कोई विशेष औकात नहीं है, वो कोई शहज़ादा-वहज़ादा नहीं है बल्कि वो भी यहाँ के बाकी बच्चों जैसा ही है। इस सच्चाई ने जैसे उसे अर्श से फर्श पर पटक दिया। दूसरा और बड़ा हादसा तब हुआ जब जवानी की देहलीज़ पर पाँव रखने के साथ ही उसे किसी से इश्क़ हो गया। उस दौर में किसी से इश्क़ होना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी क्यूंकि इश्क़ करना आसान नहीं था। लड़कियां कड़े पहरों में रहतीं, किसी से मिलने जुलने या सन्देश लेने देने की आज जैसी सुविधा नहीं थी। अब इश्क़ हो तो गया लेकिन कामयाब नहीं हो पाया। ये आज की तरह 'तू नहीं और सही और नहीं और सही' जैसा समय नहीं था कि इससे क़ामयाब नहीं हुआ तो उससे कर लेते हैं। उस वक़्त,जिससे इश्क़ होता था तो गहरा होता था उसके सिवा किसी और से होने की कल्पना भी कोई नहीं करता था। लड़की के बाप ने उसकी शादी कहीं और कर दी और ये हज़रत उसकी शादी का कार्ड 'दीवाने ग़ालिब' किताब में छुपाये टूटा दिल लिए आगे पढ़ने के लिए जालंधर आ गए। 

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं 
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं 

ज़िन्दगी को भी सिला कहते हैं कहने वाले 
जीने वाले तो गुनाहों की सज़ा कहते हैं 

फ़ासले उम्र के कुछ और बढ़ा देती है 
जाने क्यों लोग उसे फिर भी दवा कहते हैं 
  
पिता चाहते थे कि बेटा उनकी तरह कामयाब डॉक्टर बने लेकिन सुदर्शन पर महबूबा की जुदाई का ग़म इस क़दर हावी हुआ कि वो बाल और दाढ़ी बढ़ा कर, फटे पुराने कपड़े पहन कर एक फ़क़ीर के सांचे में ढल गए और खुद को शराब में डुबो कर 'सुदर्शन फ़ाकिर' के नाम से शायरी करने लगे। उन्होंने जालंधर में एक कमरा किराये पर लिया जो पहली मंज़िल पर था और जिसके नीचे एक ढाबा था। इस कमरे का बड़ा ही दिलकश वर्णन 'रविंद्र कालिया' जी ने अपनी किताब 'ग़ालिब छुटी शराब' में  किया है। कमरे में सिर्फ़ एक दरी हुआ करती थी जिसमें सिगरेट से जलने के कारण खूब सारे छेद थे ,कमरे के फर्श पर शराब की बोतलें और सिगरेट के टुकड़े बिखरे रहते जो महीने में एक आध बार होने वाली सफाई के दौरान ही साफ़ किये जाते। ये कमरा जालंधर में शायरों, लेखकों और संगीतकारों का अड्डा बन गया था । स्टेशन के पास होने के कारण जो शायर लेखक जालंधर आता सीधा सुदर्शन के यहाँ रहने आ जाता। उन्हीं मौके- बेमौके आने वालों में से एक थे मशहूर ग़ज़ल गायक जनाब 'जगजीत सिंह' .उस वक़्त 'सुदर्शन फ़ाकिर' शायरी में और 'जगजीत सिंह' ग़ज़ल गायकी में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष रत थे। जगजीत सिंह जी ने एक दिन सुदर्शन से वायदा किया कि अगर कभी वो क़ामयाब हुए तो वो सुदर्शन की नज़्में ,गीत और ग़ज़लें जरूर गाएंगे। जगजीत जी ने अपना वायदा निभाया और सं 1982 में अपना एक अल्बम ' द लेटेस्ट' रिलीज़ किया जिसमें शामिल सभी रचनाएँ 'सुदर्शन फ़ाकिर' साहब की थीं।                

ग़म बढे आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह 
तुम छुपा लो मुझे ऐ दोस्त गुनाहों की तरह 
*
हम सा अनाड़ी कोई खिलाड़ी ढूंढ न पाओगे दुनिया में 
खुद को खुद शह दे बैठे और बाज़ी अपनी मात हुई है 
*
लबों से लब जो मिल गए लबों से लब ही सिल गए 
सवाल गुम जवाब गुम बड़ी हसीन रात थी
*
हर शाम ये सवाल मुहब्बत से क्या मिला 
हर शाम ये जवाब के हर शाम रो पड़े 
*
 नाख़ुदा को ख़ुदा कहा है तो फिर 
डूब जाओ ख़ुदा ख़ुदा न करो 
*
कोई मुसाफिर होगा जिसने दस्तक दी होगी 
वरना इस घर में कब कोई अपना आता है 
*
आज की रात बहुत ज़ुल्म हुआ है हम पर 
आज की रात हमें आप भी कम याद आये 
*
 दिल की हर आग बुझाने को तेरी याद आई 
कभी कतरा, कभी शबनम, कभी दरिया बन कर    
*
मेरे मरने से रंज क्यों हो उन्हें 
ज़िन्दगी थी रही रही न रही   

सुदर्शन की नौकरी जालंधर रेडियो में लग गयी। एक बार मशहूर ग़ज़ल गायिका 'बेग़म अख़्तर' जालंधर के आईजी पुलिस 'आश्विन कुमार' के निमंत्रण पर लखनऊ से जालंधर आयीं। रेडियो पर उन्होंने अश्विनी कुमार की कुछ ग़ज़लें गायीं फिर उन्हें एक ग़ज़ल सुदर्शन फ़ाकिर की भी पकड़ा दी। उन्होंने ये सोच कर कि इस छोटी सी उम्र वाले शायर की ग़ज़ल में क्या दम होगा उसे बेमन से पकड़ लिया। उन्होंने स्टूडियो में धुन बनाई और उसे गाया। जब गाना शुरू किया तो उसके शब्दों से इतनी प्रभावित हुईं अलग अलग नोट्स पर उन तीन अंतरों को बार-बार गाती रहीं। जिन आईजी साहब की ग़ज़लें गाने वो आयी थीं उनसे ज्यादा समय उन्होंने सुदर्शन फ़ाकिर की एक ग़ज़ल को ही दे दिया। मुंबई जा कर इस ग़ज़ल को रिकार्ड करवाने का वादा करके जाते हुए बोलीं 'सुदर्शन तुम्हारी इस ग़ज़ल ने मेरा जालंधर आना सार्थक कर दिया'। ये ग़ज़ल बाद में बेग़म अख्तर की गयी सबसे मशहूर ग़ज़लों में शुमार हुई और इसे अपार लोकप्रियता मिली। उस ग़ज़ल के चंद अशआर यूँ थे :

कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया 
और कुछ तल्ख़ी-ऐ-हालात ने दिल तोड़ दिया 

हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब 
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया 

दिल तो रोता रहे और आँख से आंसू न बहे
इश्क़ की ऐसी रवायात ने दिल तोड़ दिया 

आप को प्यार है मुझ से के नहीं है मुझ से
ऐसे बेकार से सवालात ने दिल तोड़ दिया   
        
मुंबई जा कर बेग़म अख़्तर ' साहिबा ने अपना कौल निभाया और इस ग़ज़ल को रिकार्ड करवाते वक्त सुदर्शन को फोन करके मुंबई बुला लिया। ये 1969 की बात है। मुंबई में सुदर्शन जी की मुलाक़ात उस समय के बड़े संगीतकार 'मदन मोहन' जी हुई। मदन जी ने उनकी कुछ ग़ज़लों की धुनें भी बनाईं लेकिन वो ग़ज़लें रिकार्ड हों उस से पहले ही मदन मोहन जी इस दुनिया ऐ फ़ानी से रुख्सत हो गए। इस बीच बेग़म अख़्तर ने 'ख़य्याम' साहब के संगीत निर्देशन में उनकी ग़ज़ल 'इश्क़ में ग़ैरत ऐ जज़्बात ने रोने न दिया 'को गा कर उन्हें मक़बूल कर दिया। शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि उन्हें  सं 1979 में उत्तम कुमार -शर्मीला टैगोर अभिनीत फिल्म 'दूरियाँ' के गीत 'ज़िन्दगी मेरे घर आना' के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया था । इस गीत को जयदेव जी ने संगीत बद्ध किया और भूपेंद्र तथा अनुराधा पौड़वाल जी ने गाया था। सुदर्शन पहले ऐसे फ़िल्मी गीतकार हैं जिसने अपने पहले ही गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड जीता।      

ज़िन्दगी में जब तुम्हारे ग़म नहीं थे 
इतने तनहा थे कि हम भी हम नहीं थे 

वक़्त पर जो लोग काम आये हैं अक्सर 
अजनबी थे वो मेरे हमदम नहीं थे 

हमने ख़्वाबों में ख़ुदा बनकर भी देखा 
आप थे बाहों में दो आलम नहीं थे 

 सामने दीवार थी ख़ुद्दारियों की 
वरना रस्ते प्यार के परखम नहीं थे 
  
सुदर्शन फ़ाकिर बेहद एकांतप्रिय, स्वभाव से बहुत संकुचित और बहुत कम लोगों से खुलकर बात करने वाले थे. उनके दोस्तों की तादाद भी ज्यादा नहीं थी. जगजीत सिंह के अलावा बॉलीवुड के सितारे फिरोज खान, राजेश खन्ना और डैनी डेन्जोंगपा जरूर उनके गहरे दोस्त थे. यही कारण है की उनके नाम से अधिक उनकी रचनाएँ चर्चित हुईं। जगजीत सिंह की सुरीली आवाज़ में उनका लिखा भजन 'हे राम आज भी भारतीय घरों में बड़ी श्रद्धा से सुना जाता है। एन सी सी का राष्ट्रिय गीत 'हम सब भारतीय हैं' भी उन्हीं का लिखा हुआ है।  'ये कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी' सुदर्शन फ़ाकिर साहिब की नज़्म वो नज़्म थी जिसे जगजीत सिंह साहब ने लगभग अपने सभी लाइव शो में गाया। अच्छे शायर होने के बावजूद सुदर्शन कभी मुशायरों के मंच पर नहीं गए इसलिए आम जनता से उनकी दूरी बनी रही। हैरत की बात है कि इतने लोकप्रिय शायर की कोई किताब मंज़र ऐ आम पर नहीं आयी। वो अपनी किताब छपवाने का ख़्वाब अभी देखने ही लगे थे कि गले के कैंसर के कारण 18 फरवरी 2008 में उनकी मृत्यु हो गयी। ये भी शायद पहली बार ही हुआ है कि एक शायर की मृत्यु के 12 साल बाद उसकी पहली किताब 'कागज़ की कश्ती 'मन्ज़रे आम पर आयी है। इस किताब में सुदर्शन फ़ाकिर की चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा उनके मशहूर गीत और नज़्में भी शामिल हैं। इस किताब को राजपाल एन्ड संस् ने प्रकाशित किया है और ये किताब अमेजन से ऑन लाइन भी मंगवाई जा सकती है.    


अब आखिर में वो ग़ज़ल जिसमें सुदर्शन फ़ाकिर की ज़िन्दगी सिमट आयी है :-   

हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले 
अजनबी जैसे अजनबी से मिले 

हर वफ़ा एक जुर्म हो गोया 
दोस्त कुछ ऐसी बेरुख़ी से मिले 

फूल ही फूल हमने मांगे थे 
दाग़ ही दाग़ ज़िन्दगी से मिले 

जिस तरह आप हमसे मिलते हैं 
आदमी यूँ न आदमी से मिले