Monday, January 18, 2021

किताबों की दुनिया - 223

बात सन 1991 की गर्मियों की है जब भोपाल में रात के तीन बजे मुशायरे के नाज़िम ज़नाब अनवर जलालपुरी साहब ने माइक पर कहा कि 'हज़रात, आइये ज़िन्दगी के जो फ़ीके तीखे रंग हैं उनकी रोमानी कैफ़ियत को ग़ज़ल में बड़ी ख़ूबसूरती से तर्जुमानी करने का हुनर जिस फ़नकार को आता है उसका नाम है 'क़ैफ़ भोपाली' मैं बड़े अदब से क़ैफ़ भोपाली साहब से गुज़ारिश कर रहा हूँ कि वो तशरीफ़ लायें और हमारे मुशायरे को नवाज़ें, आइये मोहतरम 'क़ैफ़ भोपाली' साहब, तब ये सुन कर सामयीन में हलचल सी मच गयी। पीछे बैठे,अधलेटे अलसाये से लोग चाक चौबंद हो कर आगे आ कर बैठने लगे । तालियाँ बजने लगीं।  क़ैफ़ साहब जो खादी का सफ़ेद कुरता पायजामा और सर पर सफ़ेद पगड़ी सी पहने बैठे थे को दो लोगों ने मिल कर उठाया। वो उठे और लगभग लड़खड़ाते हुए माइक पर पहुंचे । साफ़ लग रहा था कि वो बीमार हैं लेकिन माइक पकड़ कर जब उन्होंने झूम कर अपनी ग़ज़ल के ये अशआर सुनाये तो हँगामा बरपा हो गया। उन्हें शायरी पढ़ते देख लगा ही नहीं के ये बुज़ुर्ग जो शहर भोपाल की शान है, बीमार है और अपनी ज़िन्दगी का आख़री मुशायरा पढ़ रहा है।  
(संशय की स्तिथि में इस क्लिप को यू ट्यूब पर देख लें ) 

   .तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है 
तेरे आगे चाँद पुराना लगता है 

तिरछे-तिरछे तीर नज़र के चलते हैं 
सीधा-सीधा दिल पे निशाना लगता है 

आग का क्या है पल दो पल में लगती है 
बुझते-बुझते एक ज़माना लगता है  

पॉँव न बाँधा पंछी का पर बाँधा है 
आज का बच्चा कितना सयाना लगता है 

सुनने वाले घंटों सुनते रहते हैं 
मेरा फ़साना सब का फ़साना लगता है  

मज़े की बात ये हुई कि इस ग़ज़ल के साथ ही मीर तकी मीर और दाग़ जैसे उस्तादों के स्कूल वाली शायरी से दामन छुड़ा कर उर्दू शायरी को एक नया बांकपन नये आसमान नये परवाज़ देने वाले इस बेमिसाल शायर ने बिना रुके इसी रदीफ़ वाली अपनी दूसरी ग़ज़ल भी लगे हाथ सुना डाली। ये ग़ज़ल पहली ग़ज़ल से ज़रा भी कम दिलकश नहीं थी। रदीफ़ वही, काफ़िये अलग लेकिन सामईन पर असर, वही -जादुई , आप भी पढ़ें और लुत्फ़ लें : 

तेरा चेहरा सुबह का तारा लगता है 
सुबह का तारा कितना प्यारा लगता है 

तुमसे मिल कर इमली मीठी लगती है 
तुमसे बिछुड़ कर शहद भी खारा लगता है 

रात हमारे साथ तू जागा करता है 
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है 

ख़्वाजा मुहम्मद इब्राहिम साहब का ताल्लुक़ यूँ तो कश्मीर से था लेकिन वो भोपाल आ कर बस गए। शायरी से इनका तो दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं था लेकिन इनकी शरीके हयात 'शायरा ख़ानम' जो लख़नऊ की रहने वाली थीं 'आजस' तख़ल्लुस से शायरी करती थीं। बेग़म शायरा ख़ानम ने 20 फरवरी 1917 को अपने मायके लखनऊ में पैदा हुए बच्चे का नाम रखा 'ख़्वाजा मोहम्मद इदरीस' जिसे दुनिया 'कैफ़ भोपाली' के नाम से जानती है। कैफ़ साहब आम बच्चों की तरह खेलकूद में कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे। अपने में खोये रहना उनका शगल था। कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा घर पर ही अरबी फ़ारसी की पढाई की और सिर्फ़ सात साल की उम्र से शायरी करने लगे। वाल्दा ही उनकी उस्ताद थीं। कैफ़ साहब की शायरी में जो सूफ़ीयाना रंग है वो उनकी माँ की वजह से है। 

हिंदी में कैफ़ साहब की शायरी की किताब 'गुल से लिपटी तितली' कभी छपी थी जो अब कहीं आसानी से उपलब्ध नहीं है लेकिन हिंदी पाठकों के लिए भोपाल के शायर और रचनाकार जनाब 'अनवारे इस्लाम' साहब द्वारा सम्पादित किताब ' आज उनका ख़त आया ' जिसे 'पहले पहल प्रकाशन भोपाल ने सं 2017 में प्रकाशित किया था ,अमेज़न से मंगवाई जा सकती है। आज वही किताब हमारे सामने है।  
इस किताब की प्राप्ति की जानकारी के लिए और कैफ़ साहब की शायरी के इस लाजवाब संकलन के लिए मुबारकबाद देने को आप अनवारे इस्लाम साहब से उनके मोबाईल न 7000568495 पर सम्पर्क कर सकते हैं। 


तेरी लटों में सो लेते थे बेघर आशिक़ बेघर लोग
बूढ़े बरगद आज तुझे भी काट गिराया लोगों ने 
*
उन्हें मैं छीन कर लाया हूँ कितने दावेदारों से 
शफ़क़ से, चांदनी रातों से, फूलों से , सितारों से 
शफ़क़ : सुबह, ऊषा 

कभी होता नहीं महसूस वो यूँ क़त्ल करते हैं 
निगाहों से, कनखियों से, अदाओं से, इशारों से 
*
एक कमी थी ताजमहल में 
मैंने तिरी तस्वीर लगा दी 

आपने झूठा वादा करके 
आज हमारी उम्र बढ़ा दी 
*
अज़्मते सुकरातो ईसा की क़सम 
दार के साये में हैं दाराइयाँ 
  अज़्मते सुकरातो ईसा-सुकरात और ईसा की महानता , दार-सूली , दाराइयाँ -बादशाही 

चारागर मरहम भरेगा तो कहाँ 
रूह तक हैं ज़ख्म की गहराइयाँ 
*
बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे 
दिलों के खेल में ख़ुद्दारियाँ नहीं चलतीं 

छलक-छलक पड़ी आँखों की गागरें अक्सर 
सम्भल-सम्भल के ये पनहारियाँ नहीं चलतीं 
*
मत देख के फिरता हूँ, तिरे हिज़्र में ज़िंदा 
ये पूछ के जीने में मज़ा है के नहीं है 
*
दरो दीवार पे शक्लें सी बनाने आई 
फिर से बारिश मेरी तन्हाई चुराने आई 

उलझे बाल बड़ी बड़ी ज़हीन आँखे और तीखे नाक नक्श वाले के कैफ साहब बहुत भावुक थे। शुरू शुरू की शायरी का रूमानी अंदाज़ और आशिक़ाना मिज़ाज़ उनकी शख्शियत का हिस्सा था। उनकी इश्क़िया शायरी बहुत व्यक्तिगत कही जा सकती है मगर उनकी जाति ज़िन्दगी में इस प्रकार का कोई प्रसंग नहीं मिलता। शायरी करते और यार दोस्तों में फक्कड़ घूमते कैफ़ जब बड़े हुए तो उनके आवारा मिजाज़ को देख कर घर वालों चिंता हुई। लिहाज़ा राह पर लाने की गरज़ से उनका निक़ाह इफ़्तिख़ार बानो से कर दिया गया ताकि घर चलाने की फ़िक्र में वो कोई काम धंधा करें। सीधी सादी घरेलू बानो न खुद शायरा थीं न उनकी शायरी में कोई दिलचस्पी थी अलबत्ता किफ़ायत से घर चलाना उन्हें आता था। कैफ़ साहब को उन्होंने शायरी के लिए पूरी छूट दे कर घर चलाने के साथ साथ चार बेटी और एक बेटे को पालने की ज़िम्मेदारी भी अपने सर ओढ़ ली। ऐसा नहीं है कि कैफ़ साहब को घर की आर्थिक स्तिथि का अंदाज़ा नहीं था लेकिन वो अपनी फक्कड़पन की आदत से मज़बूर थे। जब हालात बिगड़े और नौबत फ़ाक़ा मस्ती तक आ गयी तो उन्होंने रियासत पठारिया में 30 रु महीने की नौकरी कर ली। मगर उनकी आज़ाद तबियत नौकरी की बंदिशों को ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त न कर सकी.और उन्होंने नौकरी छोड़ उस वक्त देश में आज़ादी के लिए चल रही जंग में अपनी बग़ावती शायरी के ज़रिये नया जोश भरने का बीड़ा उठा लिया। उन दिनों भोपाल में अंग्रेज़ों के खिलाफ 'प्रजामंडल' संस्था का गठन किया गया था जिसके कैफ़ साहब जागरूक कार्यकर्ता बन गए और बहुत सी मशहूर इंक़लाबी नज़्में लिखीं। उनकी नज़्म 'दुनिया में वफ़ाओं का सिला है कि नहीं है , मेरा कोई हस्सास ख़ुदा है कि नहीं है'  बहुत मकबूल हुई। अंग्रेज़ों ने उनके बगावती तेवर देख कर उन्हें जेल में डाल दिया।      

मयकशों आगे बढ़ो तश्ना लबो आगे बढ़ो 
अपना हक़ माँगा नहीं जाता है छीना जाय है 

आप किस किस को भला सूली चढ़ाते जाएंगे 
अब तो सारा शहर ही मन्सूर बनता जाय है 
मन्सूर: एक संत जिसे सच बोलने के ज़ुर्म पर सूली चढ़ा दिया गया  
*
दाग़ दुनिया ने दिये, ज़ख्म ज़माने से मिले 
हमको तोहफ़े ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले 

हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे  
वो फ़लाने से, फ़लाने से, फ़लाने से मिले 
*
जिस्म पर बाकी ये सर है क्या करूँ 
दस्ते-क़ातिल बे हुनर है क्या करूँ 

चाहता हूँ फूँक दूँ इस शहर को 
शहर में उनका भी घर है क्या करूँ 

कैफ़ मैं हूँ एक नूरानी किताब 
पढ़ने वाला कम नज़र है क्या करूँ 
*
आ तेरे मालो-ज़र को मैं तक्दीस बख्स दूँ 
आ अपना मालो-ज़र मिरी ठोकर में डाल दे 
मालो-ज़र : धन दौलत , तक्दीस : पवित्रता 
 
मैंने पनाह दी तुझे बारिश की रात में 
तू जाते जाते आग मेरे घर में डाल दे 
*
चलते हैं बच के शैख़-ओ-बरहमन के साये से 
अपना यही अमल है बुरे आदमी के साथ 

देश आज़ाद हो गया और कैफ़ साहब को भी जेल से रिहाई मिल गयी। आज़ादी के बाद देश में उपजे हालात कैफ़ साहब को बेचैन करने लगे। उन्हें अपनी धरती के बँटने का बहुत दुःख था।  उनका स्वास्थ बिगड़ने लगा। ये उनकी ज़िन्दगी का सबसे बुरा दौर था। उनका ये हाल देख उनके दोस्त अख्तर अमानउल्ला खान उन्हें मुंबई ले आये जहाँ उनकी मुलाक़ात क़माल अमरोही से हुई. क़माल साहब खुद बेहतरीन शायर थे लिहाज़ा उन्हें कैफ़ साहब की शायरी बहुत पसंद आयी. क़माल साहब ने अपनी फिल्म 'दायरा' का एक भक्ति गीत कैफ़ साहब से लिखवाया 'देवता तुम हो मेरा सहारा " जो बहुत मक़बूल हुआ। ये बात 1953 की है। कमाल उन दिनों मीना कुमारी जी को लेकर एक यादगार भव्य फिल्म बनाना चाहते थे। उस फिल्म का मुहूर्त हुआ सन 1956 में, जिसका नाम था 'पाक़ीज़ा' और जो 16 साल बाद रीलीज़ हुई। इस फिल्म के दो गाने कैफ़ साहब ने लिखे थे ' चलो दिलदार चलो ' और ' आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे '  मज़े की बात है कि दोनों ही गाने सुपर हिट हुए। 'पाक़ीज़ा' के गाने 'चलो दिलदार चलो' के पीछे की कहानी बताता चलता हूँ हालाँकि उसका कैफ़ साहब से कोई लेना देना नहीं है लेकिन चूँकि ये गाना कैफ़ साहब ने लिखा इसलिए बता रहा हूँ। 
'पाक़ीज़ा' बनते बनते मीना कुमारी जी को सिरोसिस ऑफ लिवर की बीमारी ने जकड़ लिया था और वो शूटिंग पर भी कभी नहीं आ पाती थीं। 'चलो दिलदार चलो' गीत मीना जी पर फिल्माए जाने वाले मुज़रे के सीन के लिए लता मंगेशकर जी की आवाज़ में रिकार्ड हुआ था। किसी कारण वश बाद में उसे राजकुमार और मीना जी पर फिल्माने का विचार किया गया और गाना फिर से लता जी के साथ रफ़ी साहब को लेकर युगल स्वर में रिकार्ड किया गया। ये रफ़ी साहब का अकेला सुपर हिट गाना है जिसमें उन्होंने सिर्फ़ गाने के मुखड़े की एक लाइन गाई है और एक आलाप लिया है, बस। मीना जी चूंकि बीमार थीं इसलिए राजकुमार के साथ उनके बॉडी डबल के रूप में पद्मा खन्ना को लिया गया जिसमें उनका चेहरा दिखाई नहीं देता। लगभग साढ़े तीन मिनट के इस अद्भुत गाने में राजकुमार और मीना कुमारी के बॉडी डबल की उपस्तिथि सिर्फ दस या बारह सेकेण्ड की है , कैमरा सारे गाने में सिर्फ झील, नाव, बादल, आकाश और चाँद पर ही घूमता रहता और आपको पता भी नहीं चलता।ये गीतकार, संगीतकार, कैमरामैन और निर्देशक के कमाल का गाना है। फ़िल्मी दुनिया में उन्होंने बहुत से गाने नहीं लिखे।फ़िल्म रज़िया सुलतान और शंकर हुसैन के गाने ही उन्होंने लिखे।  शंकर हुसैन फिल्म एक ऐसी फिल्म थी जो सिर्फ़ अपने गानों के कारण याद रही। उसी फिल्म का एक गाना जिसके बोल फिल्म में थोड़े बदले हुए हैं यूँ है

इंतिज़ार की शब में चिलमनें सरकती हैं 
चौंकते हैं दरवाज़े, सीढ़ियां धड़कती हैं 

आज उनका ख़त आया, चाँद से लिफ़ाफ़े में 
रात के अँधेरे में चूड़ियाँ चमकती हैं  

बार बार आती हैं उस गली की आवाज़ें 
पाँव डगमगाते हैं पिंडलियाँ लचकती हैं 

चांदनी के बिस्तर पर रात जब चमकती है 
बिन किसी के खनकाये चूड़ियाँ खनकती हैं  

(आप यूँ करें कि इस लेख को यहीं छोड़ शंकर हुसैन के इस गाने को गूगल की मदद से सामने लाएं और फिर ईयर फोन लगा कर आँखें बंद कर इसे सुनें। कसम से ये गाना आपको किसी और ही दुनिया में ले जाएगा ) 

दरअसल फ़िल्मी दुनिया कैफ़ साहब जैसे फ़क़ीराना मिजाज़ इंसान के लिए थी ही नहीं लिहाज़ा वो उसे छोड़छाड़ कर भोपाल आ गए।  'कैफ़ साहब का मन मुशायरों में, नशिस्तों में लगता था। वो थे भी मुशायरों के शायर। उनकी मौजूदगी मुशायरे की क़ामयाबी की गारंटी मानी जाती थी। वो एक शहर के मुशायरे से दूसरे शहर के मुशायरे तक बस चलते ही रहते। लगातार घूमना उन्हें पसंद था। निदा फ़ाज़ली अपनी किताब 'चेहरे' में लिखते हैं कि "मैं अमरावती के निकट बदनेरा स्टेशन पर मुंबई की गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था। गाड़ी लेट थी। मैं समय गुज़ारने के लिए स्टेशन से बाहर आया। एक जानी-पहचानी मुतरन्निम आवाज़ ख़ामोशी में गूंज रही थी। यह आवाज़ मुझे कुलियों, फ़क़ीरों और तांगे वालों के उस जमघट की तरफ़ ले गयी जो सर्दी में एक अलाव जलाये बैठे थे और उनके बीच में 'कैफ़ भोपाली' झूम-झूम कर उन्हें ग़ज़लें सुना रहे थे और अपनी बोतल से उनकी आवभगत भी फरमा रहे थे। श्रोता हर शेर पर शोर मचा रहे थे।  
कैफ़ को दुनिया से बहुत ऐशो आराम की ख़्वाहिश नहीं थी, लेकिन शराब उनके शौक में पहले पायदान पर थी प्रत्येक शहर के रास्ते मकान और छोटे-बड़े शहरी उन्हें अपनी बस्ती का समझते थे। वे मुशायरों के लोकप्रिय शायर थे। जहां जाते थे, पारिश्रमिक का अंतिम पैसा ख़र्च होने तक वे वहीं घूमते-फिरते दिखाई देते थे। एक मुशायरे से दूसरे मुशायरे के बीच का समय वे इसी तरह गुज़ारते थे। उनकी अपनी कमाई शराब एवं शहर के ज़रूरतमंदों के लिए होती थी। अन्य ख़र्चों की पूरी ज़िम्मेदारी उसी मेज़बान की होती थी, जो मुशायरे का संयोजक होने के साथ उनका प्रशंसक भी होता था। विशिष्ट तरन्नुम में शेर सुनाते थे। शेर सुनाते समय, आवाज़ के साथ पूरे जिस्म को प्रस्तुति में शामिल करते थे। जिस मुशायरे में आते थे, बार-बार सुने जाते थे। हर मुशायरे में उनकी पहचान खादी का वह सफेद कुर्ता-पायजामा होता था जो विशेष तौर से उसी मुशयारे के लिए किसी स्थानीय खादी भंडार से ख़रीदा जाता था।"

हाय लोगों की करम फ़र्माइयाँ 
तोहमतें, बदनामियाँ, रुस्वाइयाँ 

ज़िन्दगी शायद इसी का नाम है 
दूरियाँ, मज़बूरियाँ, तन्हाईयाँ 

क्या ज़माने में यूँ ही कटती है रात 
करवटें, बेताबियाँ, अंगड़ाईयाँ 

क्या यही होती है शाम-इन्तिज़ार 
आहटें, घबराहटें, परछाईयाँ     

 कैफ़ साहब ने ग़ज़लों अलावा आकाशवाणी के लिए बहुत से नाटक, नौटंकी और गीत लिखे।  वो अपनी ज़्यादातर शायरी कोड शब्दों या बिंदुओं में लिखते थे और वक़्त मिलने पर उसे उर्दू लिपि में बदल लेते थे। कैफ़ साहब को कभी सम्मान पाने या अवार्ड लेने की तमन्ना नहीं रही । अक्सर वो अपने सम्मान में होने वाले जलसों में जाने से भी कतराते थे। उन्हें 1989 में मध्यप्रदेश फिल्म जर्नलिस्ट की तरफ़ से 'फ़िल्म रत्न' , भारतीय भाषा साहित्य सम्मलेन में 'भारत भूषण ' सम्मान , आलमी उर्दू कांफ्रेंस में ' रियाज़ ख़ैराबादी अवार्ड' और उर्दू अकेडमी से 'मिराज मीर खां अवार्ड' आदि अनेक अवार्ड्स से सम्मानित किया गया। टैगोर की गीतांजली  अनुवाद बीच  छोड़ उन्होंने कुरान शरीफ़ का सरल आम उर्दू ज़बान में काव्य अनुवाद करने का फ़ैसला लिया। क़ुरान पाक के इस काव्य अनुवाद का कुछ भाग 'मफ़हूमूल कुरान'  शीर्षक से दुबई में छपा और बहुत पसंद किया गया। इस काम को भी वो कैंसर जैसी बीमारी के शिकंजे में आने की वजह से पूरा नहीं कर सके और 24 जुलाई 1991 के दिन इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़्सत हो गये।  

कौन आएगा यहाँ कोई न आया होगा 
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा 

दिल नादाँ न धड़क ऐ दिले नादाँ न धड़क 
कोई ख़त ले के पड़ौसी के घर आया होगा 

इस गुलिस्ताँ की यही रीत है ऐ शाख़े-गुल 
तूने जिस फूल को पाला वो पराया होगा 

गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो 
आँधियों ! तुमने दरख्तोंको गिराया होगा   
   
कैफ़ साहब के नवासे जनाब क़मर साक़िब की रहनुमाई में भोपाल के अदब नवाज़ लोगों ने उनकी जन्म शदाब्दी के अवसर पर भोपाल में 11 फरवरी 2017 को एक शानदार अंतर्राष्ट्रीय मुशायरे का आयोजन किया और साल भर तक उनकी याद में विभिन्न अदबी कार्यक्रम करते रहने का बीड़ा उठाया। इस मुशायरे में कैफ़ साहब की बेटी शायरा डा. परवीन कैफ़ ने भी हिस्सा लिया। परवीन जी ने कैफ़ साहब की शायरी पर डॉक्टरेट की है।  
17 सितम्बर 2017 को भोपाल में मध्यप्रदेश उर्दू अकेडमी द्वारा 'याद-ए-कैफ़' मनाया गया जिसमें कैफ़ साहब पर तीन सत्रों में अलग अलग कार्यक्रम हुए। इसके अलावा हाल ही में भोपाल के शाहजहां बाद में एक लाइब्रेरी भी उनके नाम से खोली गयी। 
कैफ़ साहब की यादें आज भी उन शहरों कस्बों और गावों के लोगों में बसी हुई है जहाँ जहाँ उन्होंने अपनी शायरी सुनाई। 
आख़री में उनके कुछ और शे'र आपको पढ़वा कर विदा लेता हूँ।      
 

घटा छाई हुई है, तू ख़फ़ा है, रिन्द प्यासे हैं 
ये क़त्ले आम, क़त्ले आम, क़त्ले आम है साकी 

मिरी क़िस्मत की मुझको कब मिलेगी मैं ये क्यों सोचूँ 
ते तेरा काम, तेरा काम, तेरा काम है साकी 
*
सवाल ये था के अब इसके बाद क्या होगा 
दिये ने रख ली सरे-आम, आफ़्ताब की बात 
*
महफ़िल में देखते हैं कुछ इस ज़ाविये से वो 
हर शख़्स कह रहा है के मैं ख़ुशनसीब हूँ  
*
मत किसी से कीजिये यारी बहुत 
आज की दुनिया है व्यापारी बहुत 

वो हमारे हैं न हम उनके लिये 
दोनों जानिब है अदाकारी बहुत 
*
जब कहा है रोटी को चाँद सा हंसी मैंने 
क़हक़हे लगाये हैं मसखरे अदीबों ने 
*
ये दौर वो है के संजीदा हो गये दोनों 
न अब जवान है राँझा न हीर है कमसिन 
*
समझाते हैं नासेह मुझे इश्क़ के नुक्ते 
पूछो के मियाँ तुमने कभी इश्क़ किया भी 
*
बरगद की छाँव में भी तो सोते हैं लोग-बाग 
हम ढूँढ़ते फिरें तिरी ज़ुल्फ़ों के साए क्यों 
*
ज़िन्दगी बाप की मानिंद सज़ा देती है 
रहम दिल माँ की तरह मौत बचाने आई 
*
दुनिया को चंद लोग समझते हैं पायदार 
ये कितनी पायदार है ठोकर लगा के देख  

Monday, January 4, 2021

किताबों की दुनिया - 222

जो अपनी ज़मीनों की हिफ़ाज़त नहीं करते 
इज़्ज़त के फ़लक उनसे मुहब्बत नहीं करते 
*
जाने किसलिए हस्सास इतना दिल हुआ मेरा 
तबस्सुम में मुझे आवाज़ आती है कराहों की 
हस्सास :संवेदनशील 
*
ख़त हमारे रख लिए और हमसे नज़रें फेर लीं 
एक काग़ज़ से भी कम क़ीमत हमारे दिल की है 
*
ये और बात है मंसूब हूँ मैं उससे मगर 
ये सच है उसपे मेरा इख़्तियार कुछ भी नहीं 
*
ऐ ज़िन्दगी बस उसमें दो बातें मिलीं मुझको 
इक तजरुबा मीठा है ,इक याद कसैली है 
*
वुसअतें उमीदों की क़ैद करके क्या होगा 
ख्वाब के परिंदों के घोंसले तो घर में हैं 
वुसअतें :ऊँचाइयाँ 
*
ये सारे तमगा-ओ-सौग़ात अपने पास रखें 
कटे सरों को अता करके ताज क्या होगा 
*
किसी के हाथ में होती है डोर किस्मत की 
पतंग बनना किसी का नसीब होता है 
*
जब तक रही तलाश तो लुत्फ़े-सफ़र रहा 
मंज़िल पे जब पहुँच गए मंज़िल नहीं रही 
*
फिर बहारों का पलट आना तो नामुमकिन है 
छू के सूखे हुए पेड़ों को तू संदल कर दे   

टैक्सी ठीक वहीँ आ कर रुकी जहाँ का पता उसे बुक करते वक्त लिखवाया गया था। ड्राइवर ने  सामने ही शहर की मशहूर आयुर्वेदिक क्लिनिक 'मीना नर्सिंग होम' देख कर इत्मीनान की साँस ली ।यहीं टैक्सी बुलवाई गयी थी। इस नर्सिंग होम को टैक्सी ड्राइवर अच्छे से पहचानता है। तीन साल पहले ही तो उसने अपनी बीवी का इलाज़ यहाँ से करवाया था और अब वो इस इलाज़ के कारण ही एक अच्छी ख़ासी सेहतमंद ज़िन्दगी गुज़ार रही है। ड्राइवर ने सोचा ज़रूर किसी मरीज़ ने ही टैक्सी बुक करवाई होगी। उसने हार्न बजाने की सोची और तभी क्लिनिक का दरवाज़ा खोल कर आहिस्ता से जो ख़ातून बाहर निकलीं उसे ड्राइवर ने फ़ौरन पहचान लिया। अरे, यही तो वो डॉक्टर हैं जिन्होंने उसकी बीवी का इलाज़ किया था और उसे दवा देते वक़्त मुस्कुरा कर कहा था कि ' बेफ़िक्र रहो बेटी तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगी, बस दवा वक्त से लेती रहना और इलाज़ पूरा करवाना '। 
धीमे क़दमों से चलती जब वो ख़ातून टैक्सी के पास पहुँची तब ड्राइवर ने ग़ौर किया कि उनके हाथ में एक छोटा सा सिलेंडर है जिस पर लिखा है 'ऑक्सीजन' और जिसमें से निकली एक ट्यूब खातून की नाक में जा रही है। ड्राइवर को माज़रा समझ नहीं आया उसने लपक के टैक्सी का दरवाज़ा खोला ,खातून उसे देख हलके से मुस्कुराई और फिर टैक्सी में बैठ गयीं . बैठने के बाद खातून ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ एक काग़ज़ का टुकड़ा ड्राइवर को पकड़ाते हुए हौले से कहा 'मुझे यहाँ ले चलो' । 
ड्राइवर ने काग़ज़ पे लिखे को पढ़ा और अदब से कहा 'जी मोहतरमा जरूर, बस आधा घंटा लगेगा यहाँ पहुँचने में ,आप आराम से बैठें।' पूरे सफर के दौरान ड्राइवर को ये अहसास होता रहा कि मोहतरमा आराम से नहीं बैठ पा रही है। तेज साँस लेने की आवाज़ लगातार उसके कानों से टकराती रही थी। बैक व्यू मिरर में ड्राइवर ने ये भी देखा कि तकलीफ़ के बावज़ूद मोहतरमा के चेहरे पर शिकन नहीं है और होंठों पर हलकी सी मुस्कुराहट है। ' ऊपर वाले का निज़ाम भी कमाल है जो सबकी तकलीफ़ों को दूर करता है उसे ही इतनी तकलीफ़ दे रहा है। वो फ़रिश्तों का भी इम्तिहान लेता है शायद ' ड्राइवर ने सोचा।            

मरहम लगाने आया था ज़ख़्मों पे वो मेरे 
ज़ुल्मों-सितम का साथ में लश्कर लिये हुए 
*
चेहरा किसी का जिस्म किसी का लगा लिया 
आसाँ नहीं रही कोई पहचान इन दिनों 
*
न जाने क्यों मुझे हर शख़्स टूटा-टूटा लगता है 
जो खुद किरचों में बिखरा है , मैं उस दरपन से क्या माँगूँ 
*
भड़क उठी है बनकर आग ये रिश्तों की ठंडक भी 
कि हम अब बर्फ़ में रहकर जलन महसूस करते हैं 
*
मुझको इंकार ज़रूरत से नहीं है लेकिन 
नाम उल्फ़त का न लो जिस्म से रग़बत करके  
रग़बत:चाह ,दिलचस्पी 
*
वो ख़ुशी में अपनी खुश है मैं भी अपने ग़म में खुश 
दिन हैं उसके पास मेरे पास हैं रातें बहुत 
*
मौसम हो कि बे-मौसम जब चाहें बरस जाएँ 
जब हमको ज़रूरत हो बरसात नहीं मिलती 
*
अब मुहब्बत में कशिश है तो फ़क्त इतनी है 
लोग रिश्तों को निभाते हैं ज़रूरत की तरह 
*
दर्द की सुरंगों में है बला की तारीकी 
क्यों अँधेरे रास्तों पर रौशनी नहीं जाती 
*
अब्र कुछ देर बरस के जो चला जाता है 
देर तक पेड़ की शाख़ों को रुलाती है हवा 

लगभग आधे घंटे बाद टैक्सी अपने मुकाम पर जा पहुंची। एक घर के बाहर बीस पच्चीस लोग खड़े टैक्सी का इंतज़ार ही कर रहे थे। टैक्सी के रुकते ही एक जनाब ने तपाक से दरवाज़ा खोलते हुए कहा 'तशरीफ़ लाइए मीना नक़वी साहिबा, इस हाल में भी आप ने हम लोगों के बीच आ कर जो हमारा मान बढ़ाया है उसके लिए शुक्रिया बहुत छोटा लफ्ज़ है।' 'किस हाल में ? ' हँसते हुए मीना जी ने कहा 'अरे आपका मतलब इस सिलेंडर से है ? अनवर कैफ़ी साहब अब तो ये मेरा पक्का साथी है मैं जहाँ जाती हूँ मेरे साथ ही चला आता है अब न मैं इसे छोड़ती हूँ और न ये मुझे। आप मुझे बुलाएँ और मैं न आऊं ये मुमकिन नहीं।'  मीना जी की ये बात सुन कर वहां खड़े सब लोग उनकी शायरी और अदब के प्रति दीवानगी को देख क़ायल हुए बिना नहीं रह सके। मीना जी ने टैक्सी ड्राइवर से कहा 'तुम यहीं मेरा इंतज़ार करना मैं थोड़ी देर में आती हूँ' और मेज़बान अनवर कैफ़ी साहब के साथ अंदर चली गयीं । अनवर साहब ने जब उनकी तबीयत का हाल पूछा तो मुस्कुराते हुए बोलीं ' तबियत का हाल मत पूछा करें ,आप तो जानते ही हैं मुझे कैंसर है अब ये बीमारी मुझे जिस हाल में रखेगी रहूंगी, बरसों हो गए इसका साथ निभाते ,जब तक हिम्मत है निभाती रहूंगी। चलिए छोड़िये ये सब बातें आप तो नशिस्त शुरू करें।' नशिस्त शुरू हुई ,आधा घंटा बैठने के बाद मीना जी की तबियत बिगड़ने लगी तो वो अनवर साहब से बोलीं 'आप मुझसे पहले पढ़वा लें मैं और नहीं रुक सकती। उसके बाद बड़े मन से वो दस पंद्रह मिनट तक अपने चंद चुनिंदा अशआर सुनाती रहीं और लोग सुन कर झूमते रहे। 

इस वाक़ये के कुछ महीनों बाद वो मुरादाबाद से अपने बेटे 'नायाब ज़ैदी' के साथ नोएडा चली गयीं और वहीं 15 नवम्बर 2020 के दिन, सिर्फ 65 साल की उम्र में वो इस दुनिया को अलविदा कह गयीं ।  

किताबों की दुनिया में आज हम मीना नक़वी साहिबा की हिंदी में छपी किताब 'किरचियाँ दर्द की' आपके लिए लाये हैं। जिसे 'एवाने अदब पब्लिशर्ज तुर्कमान गेट दिल्ली' ने प्रकाशित किया है।


मुझे फ़ुर्सत नहीं यादों से जिस की 
वो मुझको चाहता है फुर्सतों में 
*
जन्म देने वाली का नाम कुछ नहीं होता 
शाख़ जानी जाती है फूल के हवालों से 
*
जिस पे रिश्तों के निभाने की हो ज़िम्मेदारी 
उसके हिस्से में फ़क्त मात हुआ करती है 
*
यूँ रास्तों से इन दिनों दिलचस्पियॉँ बढ़ीं 
क़दमों की ख़ाक हो गई मंज़िल मिरे लिए 
*
उस घड़ी शजर के सब पत्ते गुनगुनाते हैं 
जब कोई नई चिड़िया शाख़ पे उतरती है 
*
इसीलिए तो ये चाँद तारे मद्धम हैं 
हमारी पलकों पे जुगनू सजा गया है कोई 
*
ये तो अच्छा हुआ कलियों का गला घोंट दिया 
वरना खुशबू भी हवाओं में बिखर सकती थी 
*
जब बर्फ़ की चादर ओढ़ चुके, मेरे ख़्वाबों के ताजमहल 
रातों की सियाही बोने लगी आँखों में जलन अंगारों सी 
*
क़ाफ़िले ग़म के गुज़रते ही रहे 
ज़िन्दगी इक राहगुज़र सी हो गई 
*
उसकी चाहत उसकी क़ुरबत उसकी बातें उसकी याद 
कितने उनवाँ मिल गए हैं इक कहानी के लिए 

'नगीना' उत्तर प्रदेश के 'बिजनौर' के अंतर्गत आने वाला एक छोटा सा क़स्बा है। इस क़स्बे के सैयद इल्तज़ा हुसैन ज़ैदी साहब के यहाँ एक बेटे और बेटी के बाद 20 मई 1955 को तीसरी संतान जो हुई वो लड़की थी, उस का नाम रखा गया 'मुनीर ज़ोहरा' जो बाद में 'मीना नक़वी' के नाम से मशहूर हुईं। 'नगीना' में तब मुस्लिम लड़कियों के लिए पढ़ने का कोई स्कूल नहीं था लेकिन मीना जी के वालिद बेहद सुलझे हुए और तालीम के जबरदस्त हामी इंसान थे ,लिहाज़ा उन्होंने मीना जी को 'दयानन्द वैदिक कन्या अन्तर कॉलेज' में दाख़िला दिला दिया। इसी कॉलेज से मीना जी ने पहली क्लास से इंटर तक की पढाई बहुत अच्छे नंबरों से पास हो कर पूरी की। शुरू से ही स्कूल में होने वाले  जलसों में मीना जी हमेशा अपनी ही लिखी कोई कहानी या कविता सुनाया करती थीं। लिखने पढ़ने का शौक़ मीना जी को बचपन से पड़ गया था। ज़ैदी साहब अदब नवाज़ थे इसलिए घर की आलमारियाँ किताबों से भरी हुई थीं। ये किताबें मीना जी को अपनी और बुलातीं और वो इनकी तरफ़ खिंची चली आतीं । सबसे ख़ास बात ये थी कि घर के अदबी माहौल का असर सब बच्चों पर पड़ा। मीना जी उनकी बड़ी आपा और उनके बाद हुई पांच छोटी बहनें और सभी भाई हमेशा अपनी पसंद की किताबों को लिए घर भर में इधर उधर बैठ कर पढ़ते रहते। 

अदब नवाज़ डा. शेख नगीनवी अपने एक लेख में मीना जी के घर के अदबी माहौल के असर को यूँ बयाँ करते हैं " विश्व साहित्य में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जहाँ सात सगी बहनों में पांच बहनें साहित्य सर्जन कर रही हों और उन्होंने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनायी हो। मीना नक़वी की चार दूसरी बहनें 'शमीम ज़ेहरा' 'डाक्टर नुसरत मेहदी' 'अलीना इतरात रिज़वी' और 'नुसहत अब्बास' किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं और इन सभी पाँचों बहनों की शायरी को विश्व स्तर पर एक पहचान मिली हुई है।" इन में से 'डाक्टर नुसरत मेहदी' साहिबा के बारे में आप किताबों की दुनिया श्रृंखला में पढ़ ही चुके हैं। 

ये सभी बहनें अपनी दादी जान जो 'अंदलीब' तख़ल्लुस से शायरी करती थीं के नक़्शे क़दम पर चली हैं। 

बाद में बेशक समन्दर पर उठायें ऐतराज़ 
पहले दरिया ख़ुद में पैदा इतनी गहराई करें 
*
ज़रा सी सम्त बदल ली जो अपनी मर्ज़ी से 
तो नाव आ गई तूफ़ान के निशाने पर 
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तेरे सितम से लरज़ तो गया बदन लेकिन 
ये और बात है आँखों में डर नहीं आया 
*
मेरी उड़ान इस लिए भी हो गई थी मोतबर 
क़दम तले ज़मीन थी नज़र में आसमान था 
*
शीशा-ऐ-दिल से नहीं आहो फुगाँ से निकलीं 
 किरचियाँ दर्द की निकलीं तो कहाँ से निकलीं 
आहो फुगाँ :रुदन 
*
चलो हवाओं से थोड़ी सी गुफ़्तगू कर लें 
हमें चिरागों पे इस बार एतबार है कम 
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दरअसल वो नींदें हैं आगोश में अश्कों की 
पलकों की मुंडेरों से हर शब जो फिसलती हैं 
 *
बूढ़े माँ-बाप से बेज़ार वो घर लगता है 
उम्र लंबी हो तो ऐ ज़िन्दगी डर लगता है 
*
दरवाज़े पे नाम अपना हम लिख ही नहीं सकते 
ताउम्र रहे हैं हम गैरों के मकानों में 
*
इस नए दौर में चाहत का है मंज़र ऐसा 
जैसे सहरा में उड़े रेत बगूलों की तरह 

मीना जी ने इंटर करने बाद मेडिकल की डिग्री हरिद्वार से आयुर्वेद में ली। भाषा से उनका लगाव इतना ज्यादा था कि उन्होंने अंग्रेजी ,संस्कृत और हिंदी में प्राइवेटली पढाई कर एम.ए की डिग्रियाँ हासिल कीं। इन तीनों भाषाओँ में एम.ए करने वाले और फिर उसके बाद उर्दू में शायरी करने वाले लोग आपको विरले ही मिलेंगे।   

यूँ तो मीना जी ने अपनी शायरी का आगाज़ 'नगीना' से ही कर दिया था लेकिन उसे परवाज़ मिली जब उनकी शादी मुरादाबाद जिले के 'अगवानपुर' गाँव के निवासी जनाब हमीद आग़ा साहब से हुई। 'अगवानपुर' मुरादाबाद से महज़ 13 की.मी. की दूरी पर है। मुरादाबाद की फ़िज़ा ही शायराना है। जिगर मुरादाबादी साहब का ये शहर देश के अव्वल दर्ज़े के शायरों की खान है। मुरादाबाद की हवा और आग़ा साहब के साथ ने उन्हें लिखने का हौसला और हिम्मत दी। उनकी बेतरतीब शायरी को तरतीब वार लिखने की सलाह दी। इससे पहले वो, जब कोई ख़्याल ज़हन में आता उसे उस वक्त जो कुछ भी हाथ में होता उसे तुरंत उसी पर लिख कर छोड़ देती फिर वो चाहे हाथ में पकड़ा कोई रिसाला हो अखबार हो यहाँ तक कि मरीजों के नुस्खों की पर्चियां ही क्यों न हों। उन्होंने अपनी शायरी को अव्वल मुकाम तक पहुँचाने के लिए नामचीन शायर जनाब 'होश नोमानी रामपुरी' और जनाब 'अनवर कैफ़ी मुरादाबादी' को अपना उस्ताद तस्लीम किया। इन दो उस्तादों की रहनुमाई में मीना जी ने वो मुक़ाम हासिल किया जिसका तसव्वुर हर शायर करता है। 

मैंने पूछी मुहब्बत की सच्चाई जब 
नाम उसने मेरा बर्फ़ पर लिख दिया 
*
गिरने वाले को न गिरने दिया पलकें रख दीं 
अपने अश्कों को दिया खुद ही सहारा मैंने 
*
मुझको दहलीज़ के उस पार न जाने देना 
घर से निकलूंगी तो पहचान बदल जायेगी 
*
सहमे सहमे इन चिरागों की हिफ़ाज़त तो करो 
आँधियों का पैरहन ख़ुद काग़ज़ी हो जाएगा 
*
जाँ बचने की इम्कान अगर हैं तो इसी में 
लुट जाने का सामान रखें साथ सफर में  
*
क़ुरबत का असर होगा ये ही सोच के कुछ लोग 
काँटों से गुलाबों की महक माँग रहे हैं 
पहले उसने चिराग़ों को रौशन किया 
फिर हवाओं में कुछ आँधियाँ डाल दीं 
*
क्यों मैंने ख़ुद ही अपनी मसीहाई बेच दी 
बच्चे तो मेरे अपने भी बीमार थे बहुत 
*
ये क्या कि रोज़ वही एक जैसी उम्मीदें 
कभी तो आँखों में सपने नए सजाऊँ मैं 

उस्तादों की रहनुमाई में मीना जी ने अपने अलग अंदाज़, लब-ओ-लहज़ा और ज़ुबान से शायरी की दुनिया में पहचान बनाई। उन्होंने तल्ख़तर विषयों को रेशमी लफ़्ज़ों में पिरोने का फ़न सीखा और सीखा कि कैसे कड़वाहट को लफ़्ज़ों की शकर में लपेट कर पेश करते हैं। मीना नक़वी जी के लिए शायरी पेशा नहीं बल्कि शौक़ था और इस शौक़ को वो पूरी ज़िम्मेदारी, फ़िक्र, अहसासात, तजुर्बात से रंगीन बना रही थीं। नर्सिंग होम की ज़िम्मेवारी के साथ साथ घर गृहस्ती और दो बच्चों की परवरिश का जिम्मा उठाते हुए उन्होंने अपने लिखने के इस शौक़ को कभी कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। 
उनकी लगभग एक दर्ज़न किताबें मंज़र-ए-आम पर आ चुकी हैं इनमें से तीन 'दर्द पतझड़ का ' 'किर्चियाँ दर्द की' और 'धूप-छाँव' देवनागरी लिपि में उपलब्ध हैं। सिर्फ़ उर्दू में प्रकाशित  'सायबान', 'बादबान','जागती आँखें,'मंज़िल' और 'आइना' बहुत चर्चित हुई हैं। मीना जी की ग़ज़लें देश की सभी प्रसिद्ध उर्दू और हिंदी की पत्रिकाओं में छप चुकी हैं यही कारण है कि वो उर्दू और हिंदी पाठकों में समान रूप से लोकप्रिय हैं।
मीना जी को ढेरों अवार्ड्स मिले हैं जिनमें दिल्ली , बिहार उर्दू अकेडमी द्वारा दिया गया साहित्य सेवा सम्मान, बिहार कैफ़ मेमोरियल सोसाइटी द्वारा दिया गया बेहतरीन शायरा एवार्ड, सरस्वती सम्मान , सुर साधना मंच हरियाणा सम्मान उर्दू अकेडमी बिहार द्वारा रम्ज़ अज़ीमाबादी अवार्ड प्रमुख हैं। सबसे बड़ा सम्मान तो वो प्यार है जो मीना जी के पाठकों ने उन्हें दिया है। वो आज हमारे बीच भले ही नहीं हैं लेकिन वो अपने पाठकों के दिलों में हमेशा रहेंगी। 
अपनी मृत्यु से सिर्फ दो दिन पहले उन्होंने जो ग़ज़ल फेसबुक पर पोस्ट की उसे मैं आपको पढ़वाते हुए विदा लेता हूँ। (जैसा डा. शेख़ नगीनवी साहब के लेख में लिखा है )

मकान ए इश्क़ की पुख़्ता असास हैं हम भी  
यक़ीन मानिये ! दुनिया शनास हैं हम भी 

ये और बात कि गुल की रिदा हैं ओढ़े हुए 
ख़िज़ाँ की रुत के मगर आसपास हैं हम भी 

फ़क़त तुम्हीं में नहीं है ख़ुलूस का ख़ेमा 
मोहब्बतों के क़बीले को रास हैं हम भी 

परेशां तन्हा नहीं है वो लम्हा ए फुरक़त
ग़ज़ब का सानेहा था बदहवास हैं हम भी 

अभी तो सब को मयस्सर हैं सबके साथ हैं हम  
कि कुछ दिनों में तो बाद अज़ क़यास हैं हम भी 
अज़ : से, क़यास : अंदाज़ा 

जो दिल के सफ्हे पे लिखा था तूने चाहत से 
उसी फ़साने का इक इक्तेबास हैं हम भी 
इक्तिबास: उद्धरण   


(इस पोस्ट के लिए शुक्रगुज़ार हूँ 'नुसरत मेहदी' साहिबा का जिन्होंने 'अनवर कैफ़ी' साहब का नंबर दिया और फिर जनाब 'अनवर कैफ़ी' साहब का जिन्होंने मुझे अहम जानकारी अता फ़रमा कर मेरी मदद की )