Monday, December 21, 2020

किताबों की दुनिया - 221

बच्चे साँस रोके बैठे थे तभी मंच से नाम की घोषणा हुई और उसके बाद जो तालियाँ बजी उन्होंने रुकने का नाम ही नहीं लिया। रूकती भी कैसे ? आखिर ऐसा करिश्मा स्कूल में पहली बार जो हुआ था। लगातार तीसरी बार प्रथम स्थान। आठवीं कक्षा में, नौवीं में और अब दसवीं में भी ।अनवरत बजती तालियों के बीच मुस्कुराता हुआ वो बच्चा मंच पर आया जिसका नाम घोषित करते वक़्त शिक्षक की ख़ुशी का पारावार न था। वो बच्चा इस शिक्षक का ही नहीं स्कूल के हेडमास्टर से लेकर सभी शिक्षकों का चहेता था। सिर्फ़ पढाई में ही नहीं क्रिकेट के मैदान पर जब वो बल्ला ले कर उतरता तो विपक्षी टीम के बॉलर को समझ नहीं आता कि वो उसे कहाँ बॉल डाले जहाँ उसका बल्ला न पहुँच पाये ,कप्तान ये सोच कर परेशान होता कि वो फील्डर कहाँ खड़ा करे ताकि उसके बल्ले से निकली बॉल बाउंडरी पार न कर पाये और जब वो बॉल लेकर ओवर फेंकने जाता तो बल्लेबाज़ अपनी क़िस्मत को कोसता कि कहाँ इसके सामने आ गया। 
वो एक ऐसा बच्चा था जिस पर पूरे स्कूल को गर्व था। स्कूल वालों को तो पक्का यक़ीन था कि अब ग्यारवीं में ये बच्चा टॉप करेगा ही और फिर अगले साल बाहरवीं की बोर्ड परीक्षा में वो मैरिट में आ कर स्कूल का नाम पूरे प्रदेश में रौशन करेगा।  
ग्यारवीं कक्षा में उसके शिक्षकों ने एक मत से उसे साइंस दिलवा दी। शिक्षक चाहते थे कि बच्चा साइंस की पढाई कर इंजिनियर बने जबकि बच्चे का रुझान आर्टस की ओर था। घर और स्कूल वालों के इसरार से बच्चे ने आखिर, बेमन से ही सही, साइंस पढ़ना मंज़ूर किया और क्लास टेस्ट्स में आशा के अनुरूप सबसे आगे रहा। 
वार्षिक परीक्षाएँ सर पर थीं और पढाई पूरे जोर पर, तभी वो हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। 

खड़े ऊँचाइयों पर पेड़ अक्सर सोचते होंगे 
ये पौधे किस तरह गमलों में रह कर जी रहे होंगे  
*
दहशत के मारे भाग गये दश्त तरफ 
लफ़्ज़ों ने सुन लिया था छपाई का फ़ैसला 
*
बुलन्दियों पे ज़रा देर उसको टिकने दें 
अभी ग़लत है उसे आपका सफल कहना 
*
अफ़सोस, दर्द, टीस, घुटन, बेकली, तड़प 
क्या-क्या पटक के जाती है दुनिया मेरे आगे 
*
आग से शर्त लगाई है तुम्हारे दम पर 
ऐ हवाओं ! न मेरा नाम डुबाया जाए 
*
उसे कुछ इस तरह शिद्दत से ख़ुद में ढूंढता हूँ मैं 
मुसाफ़िर जिस तरह रस्ते में छाया ढूंढते होंगे 
*
रात-भर प्यार हँसी, शिकवे, शिकायत मतलब 
एक कमरे का हंसी ताजमहल हो जाना 
*
बे सबब अपनी  फ़ितरत को बदलने बजाय 
चंद आँखों में खला जाय, यही बेहतर है 
*
रखा था इसलिए काँटों के बीच तूने मुझे 
ऐ मेरी ज़ीस्त ! तुझे इक गुलाब होना था 
*
आँख खुली जब, चिड़िया ने चुग डाले खेत 
अब क्या, अब तो खर्राटे पर रोना था       
 
इस बात को अभी यहीं छोड़ कर चलिए थोड़ा पीछे चलते हैं। राजस्थान के जालोर जिले का एक गाँव है 'सांचोर' जिसका अभी हाल ही में अखबारों में ज़िक्र आया है क्यों कि वहाँ जून 2020 में एक 2.78 किलो का उल्का पिंड बहुत बड़े धमाके साथ गिरा था उसी सांचोर गाँव में 19 सितम्बर 1989 को एक मध्यमवर्गीय परिवार में उस प्रतिभावान बच्चे का जन्म हुआ जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं। बच्चे में पढ़ने की भूख उसके पिता को बचपन से ही नज़र आने लगी। ये बच्चा अपनी क्लास की किताबों के अलावा अपने से बड़े भाइयों की क्लास की किताबें खास तौर पर हिंदी की बड़े चाव से पढ़ डालता। 
पिता ने एक बार उसे बाज़ार से राजस्थान पत्रिका द्वारा प्रकाशित बच्चों की पाक्षिक पत्रिका 'बालहँस ' पढ़ने को ला कर दी। इस पत्रिका को पढ़ कर तो जैसे बच्चे में और पढ़ने की भूख बढ़ गयी। पिता के संग जाकर उसने वो दूकान देख ली जहाँ बालहंस के अलावा और दूसरी बच्चों की पत्रिकाऐं जैसे 'नन्दन' ' 'नन्हें सम्राट' आदि मिला करती थीं। पाठ्यपुस्तकों के अलावा अब ये पत्रिकाऐं भी नियमित रूप से पढ़ी जाने लगीं। पत्रिकाएं देख कर बच्चे का मन करता कि उसकी रचनाएँ और फोटो भी ऐसे ही इन पत्रिकाओं में छपे जैसे दूसरे लेखकों के छपती हैं। पत्रिकाओं में छपने की इस प्रबल चाह में बच्चे ने लिखना शुरू किया।      

बहुत हुआ कि हक़ीक़त की छत पे आ जाओ 
भरी है तुमने अभी तक उड़ान काग़ज़ पर 
*
हैरत है पीपल की शाख़ों से कैसे अरमां 
पतले-पतले धागों में आ कर बँध जाते हैं 
*
पेशानी पर बोसा तेरी चाहत का 
दिल पर कितने जंतर-मंतर करता है 
*
हर इक जगह तलाशते हैं अपना आदमी 
कहने को जात-पात से हैं कोसो दूर हम 
*
अजब-सा ख़ौफ़ है बस्ती में तारी 
शहर को धर्म का दौरा पड़ा है 
*
नाज़ुक मन पर रंग हज़ारों चढ़ते हैं 
दिल से दिल की जब कुड़माई होती है 
*
ज़्यादा सहूलतों के हैं नुक्सान भी ज़्यादा 
साये बड़े तो होंगे ही परबत के मुताबिक़ 
*
कुछ नहीं मुझ में कहीं भी कुछ नहीं है 
पर 'नहीं' में भी तेरी मौजूदगी है 
*
अगरचे छाँव है तो धूप भी है 
कई रंगों में कुदरत बोलती है 
*
 हर क़दम पर हादसों का डर सताता है यहाँ 
ज़िन्दगी है हाइवे का इक सफ़र अनमोल जी  
   
ग्यारवीं में बच्चे ने पहली कविता लिखी जो, कि जैसा उस उम्र का तकाज़ा होता है, थोड़ी रोमांटिक थी, लिहाज़ा उसने किसी को नहीं दिखाई। फिर देश प्रेम से ओतप्रोत एक कविता लिखी जो हर किसी को पढ़वाने लायक थी। बच्चा चाहता था कि इस कविता को वो अपने पिता को दिखाए क्यूंकि उन्हीं की प्रेरणा से ही उसने लेखन शुरू किया था। बच्चा अपनी इस कविता को पिता को दिखाता उस से पहले ही पिता बीमार हो गये। बच्चे ने सोचा कि दो तीन दिन बाद जब पिता ठीक हो जायेंगे तब दिखायेगा लेकिन 'तभी वो हुआ जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी'    
पिता  के अचानक इस तरह दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़्सत होने के बाद जैसे बच्चे के पाँवों तले से ज़मीन ही ख़िसक गयी। घर में एक मात्र वो ही कमाने वाले थे लिहाज़ा उनके जाने के बाद घर की माली हालात बिगड़ गयी। गंभीर आर्थिक संकट मुँह बाए खड़ा हो गया। ग्यारवीं की परीक्षाएँ सर पर थीं लेकिन मातमपुर्सी के रस्मो रिवाज़ के चलते बच्चा उन दिनों एक अक्षर भी नहीं पढ़ पाया जिन दिनों उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। नतीज़ा वो हुआ जो नहीं होना चाहिए था।  प्रथम श्रेणी में पास होने की उम्मीद में पढ़ने वाले बच्चे की सप्लीमेंट्री आयी। आकाश नापने के ख़्वाब देखने वाले परिंदे के मानों पर ही कतरे गये। 

लेखन छूटा, स्कूल छूटा, पढाई छूटी लेकिन हिम्मत और हौंसला नहीं छूटा। बच्चे ने परिवार को आर्थिक सम्बल देने के लिए गाँव में अपनी परचूनी की छोटी सी दूकान खोल ली और साथ ही ख़ाली वक़्त में प्राइवेटली बारहवीं की परीक्षा की तैयारी की और पास हुआ।           

चाय का कप, ग़ज़ल, तेरी बातें 
कैसे अरमान पलने लगते हैं 
*
जो फेंकी ज़िन्दगी ने यार्कर थी 
उस अंतिम गेंद पर छः जड़ चुका हूँ 
*
दफ़्तर, बच्चे ,बीवी, साथी, रिश्ते-नाते, दुनियादारी 
सबके सबको खुश रख पाना इतना तो आसान नहीं है 
*
बहुत आसान है मुश्किल हो जाना 
बहुत मुश्किल है पर आसान होना 
*
बहुत मासूम है दिल गर बिछड़ जाये कोई अपना 
फ़लक पर नाम का उसके सितारा ढूंढ लेता है 
*
आदमी बनने की ख़ातिर छटपटाता वो रहा 
रब समझ कर तुम इबादत उम्र भर करते रहे 
*
पीठ से खंज़र ने करली दोस्ती 
और फिर  बदला अधूरा रह गया 
*
समंदर हो कि मौसम हो या फिर लाचार इंसां हो 
कहाँ समझे जहां वाले किसी की ख़ामोशी की हद 
*
 ख़त के लफ़्ज़ों के बीच मैं खुद को 
उसकी टेबल पे छोड़ आया हूँ 
*
थोड़ा अच्छा होना, होता है अच्छा  
वरना मँहगी पड़ जाती अच्छाई है   

बच्चे की पढ़ने की ललक देखिये कि घोर आर्थिक तंगी होने के बावज़ूद उसने अपनी दूकान पर नियमित अख़बार मँगवाना शुरू दिया क्यूँकि अख़बार के साथ अलग अलग दिन विशेष परिशिष्ट जो आते थे। परचूनी की दूकान से थोड़ी बहुत आमदनी होने लगी। धीरे धीरे कहावत 'हिम्मत ए मर्दां मदद ए ख़ुदा' सच होने लगी। मुश्किल हालात ने बच्चे को मानसिक रूप से मज़बूत बनाया और अपने पाँव पर खड़े होने का हुनर तो सिखाया लेकिन आगे क्या करना है ये समझाने वाला न कोई घर में था न गाँव में । बच्चे ने अपनी समझ के अनुसार सरकारी नौकरी पाने के लिए  बी.ऐ. में अंग्रेज़ी विषय लिए, पास हुआ लेकिन सरकारी नौकरी नहीं मिली। एक दिन अपनी दूकान किसी सौंप कर वो एक प्राइवेट स्कूल में बच्चों को पढ़ाने की नौकरी करने लगा। स्कूल में नौकरी इसलिए की ताकि पढ़ने लिखने का मौका मिलता रहे।कुछ समय बाद अपना एक छोटा सा कोचिंग सेंटर खोल लिया जो चल निकला। जिंदगी ढर्रे पर लौटने लगी। 
तभी सं 2009 के अंत में आमिर खान की फ़िल्म आयी 'थ्री इडियट्स ' जिसे देख बच्चे को एहसास हुआ कि वो जो कर रहा है उसे जीना नहीं कहते। ज़िन्दगी में अगर अपने सपने साकार करने का प्रयास न किया तो जीना व्यर्थ है। सपना था लेखक बनने का। सन 2010 इस बच्चे के जीवन में टर्निंग प्वाइंट बन कर आया। अपने सपने साकार करने ये लिए इस बच्चे ने अपने जमे -जमाये काम के साथ-साथ गाँव भी छोड़ दिया।   
सपनों को साकार करने की धुन में जोख़िम उठाने वाला ये बच्चा आज हिंदी ग़ज़ल के आकाश में एक चमकता सितारा है जो के.पी.अनमोल के नाम से जाना जाता है।  इन्हीं की ग़ज़लों की क़िताब 'कुछ निशान कागज़ पर' हमारे सामने है जिसे 'किताबगंज प्रकाशन' ने प्रकाशित किया है। ये ग़ज़लें पाठक के दिल पर निशान छोड़ने में सक्षम हैं।
 

खूब ज़रूरी हैं दोनों 
झूठ ज़रा-सा ज़्यादा सच 
*
ख़ुद को बना सका न मैं सौ कोशिशों के बाद 
और उसने एक बार में छू कर बना दिया 
*
सवाल ये नहीं है लौट कैसे आया वो 
सवाल ये है कि वो लौट कैसे आया है 
*
कुछ रोज़ कोई मेरा भी ज़िम्मा सँभाल ले 
तंग आ चुका हूँ अब तो मैं खुद को सँभाल कर   
*
कुछ न मन का कर सकें, ये वक़्त की कोशिश रही 
काम मन के ही मगर हम, ख़ासकर करते रहे    
               
अनमोल जी ने गाँव छोड़ जोधपुर का रुख़ किया जहाँ उन्हें एक स्वस्थ साहित्यिक माहौल मिला। जोधपुर में स्वतंत्र लेखन के साथ कम्पीटीटिव परीक्षाओं की तैयारी भी चलने लगी। जोधपुर के वरिष्ठ साहित्यकारों के सानिध्य से उन्होंने बहुत कुछ सीखा। इतना सब होने के बावज़ूद अनमोल जी को अपनी मंज़िल का रास्ता सुझाई नहीं दे रहा था। तभी उनके जीवन में आये एक शख़्स ने उन्हें हिंदी में एम.ऐ. करने की सलाह दी। इस सलाह से जैसे मंज़िल का रास्ता आलोकित हो गया। हिंदी शुरू से अनमोल जी का प्रिय विषय रहा था। उन्होंने हिंदी में सिर्फ़ प्रथम श्रेणी से एम. ऐ ही नहीं किया बल्कि कॉलेज में टॉप भी किया। 
व्यक्तिगत कारणों से वो 2014 में जोधपुर से रुड़की आ गए और फिर यहीं के हो कर रह गए। रुड़की में उन्होंने वेब डिजाइनिंग का कोर्स किया और फिर उसी को पेशा बना लिया। वेब डिजाइनिंग से उनकी भौतिक जरूरतें पूरी होती हैं लेकिन अपनी मानसिक ज़रूरीयात को वो 'हस्ताक्षर' वेब पत्रिका निकाल कर पूरा करते हैं। पिछले पाँच से अधिक वर्षों से लगातार प्रकाशित  'हस्ताक्षर' हिंदी की प्रतिष्ठित वेब पत्रिका के रूप में स्थापित हो चुकी है। इस अनूठी मासिक वेब पत्रिका में आप हिंदी में साहित्य की लगभग सभी विधाओं को पढ़ सकते हैं।  यदि आप किसी विधा में लिखते हैं तो अपना लिखा प्रकाशन के लिए भेज भी सकते हैं। हस्ताक्षर वेब पत्रिका का अपना एक विशाल पाठक समूह है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। 

जीवन में अब अनमोल वो काम करते हैं जिसे उनका दिल चाहता है। थ्री ईडियट्स फिल्म की टैग लाइन की तरह उनके जीवन में अब 'आल इज वैल' है।

ज़रा सा मुस्कुराने लग गये हैं 
मगर इसमें ज़माने लग गये हैं 

जवां उस दम हुईं रूहें हमारी 
बदन जब चरमराने लग गये हैं 

बस इक ताबीर के चक्कर में मेरे 
कई सपने ठिकाने लग गये हैं 

मुसलसल अश्क़ , बेचैनी उदासी 
मेरे ग़म अब कमाने लग गये हैं 

इस 'ऑल इज वैल' के पीछे कितना संघर्ष छुपा है इसका किसी को अंदाज़ा नहीं है। अनमोल जी के जीवन की कहानी हमें प्रेरणा देती है कि ऊपर वाले के दिए इस जीवन को हमें अपने हिसाब से अपनी ख़ुशी से जियें। ऊपर वाला माना बहुत ही कम लोगों को सब कुछ तश्तरी में परोस कर देता है लेकिन सबको एक चीज बहुतायत में देता है वो है 'हिम्मत'। अफ़सोस बहुत कम लोग ऊपर वाले के दिए इस गुण को अपनाते हैं। अपने सपनों को साकार करने में संघर्ष करना पड़ता है और जो हिम्मत से संघर्ष करता है उसे मंज़िल मिलती ही है।  
अनमोल जी की बचपन से छपने की चाह ने ही उन्हें आज इस मुकाम पर ला खड़ा किया है। 'कुछ निशान कागज़ पर ' से पहले उनका एक ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' भी छप चुका है। हिंदी के वरिष्ठ ग़ज़ल कारों जैसे श्री ज़हीर कुरेशी, ज्ञान प्रकाश विवेक , हरेराम समीप , अनिरुद्ध सिन्हा आदि ने उनकी ग़ज़लों को अपने ग़ज़ल संकलन में शामिल किया है उन पर आलोचनात्मक लेख लिखे हैं , ये बात युवा ग़ज़लकार के लिए किसी भी बड़े ईनाम से कम नहीं है।
हिंदी ग़ज़ल पर अनमोल जी के लिखे आलोचनात्मक लेख बहुत चर्चित हुए हैं । उनकी ग़ज़लें देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं में निरंतर प्रमुखता से स्थान पाती हैं। दूरदर्शन राजस्थान और आकाशवाणी से भी उनकी ग़ज़लें प्रसारित हुई हैं। इसके अलावा उनकी ग़ज़लें , न्यूज़ीलैंड की 'धनक', केनेडा की 'हिन्द चेतना', सऊदी अरब की 'निकट', आयरलैंड की 'एम्स्टेल गंगा' और न्यूयार्क की 'NASKA; जैसी लोकप्रिय वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। सहज सरल भाषा में गहरी बात व्यक्त करने में सक्षम ये ग़ज़लें पढ़ते सुनते वक़्त सीधे दिल में उतर जाती हैं। 
  
मृदु भाषी अनमोल जी आज जहाँ हैं, वहाँ बहुत खुश हैं और संतुष्ट हैं यही तो एक सफल जीवन की उपलब्धी होती है। 

इतना सब कुछ मिल जाने पर भी अनमोल जी को अपनी पहली रचना अपने पिता को न सुना पाने का ग़म अभी भी सालता है। वो इस बात का ज़िक्र करते हुए बहुत भावुक हो जाते हैं। हमें यकीन है कि चाहे वो अब उनके आसपास मौज़ूद नहीं हैं लेकिन जहाँ भी हैं आज अपने बेटे को इस मुक़ाम पर देख कर खुश होते होंगे। अनमोल की कामयाबी के पीछे उनके पिता की अदृश्य दुआओं का ही हाथ है। आज वो जो हैं उनकी दी हुई तरबियत का ही नतीज़ा हैं। 
अनमोल जी को उनके उज्जवल भविष्य के लिए आप उनके मोबाईल न. 8006623499 पर शुभकामनायें देते हुए उनसे इस किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछ सकते हैं। 
आईये अंत में उनकी ग़ज़ल ये शेर पढ़वाता चलता हूँ।         

ये क्यों सोचूँ किसी ने क्या कहा है 
मेरे जीने का अपना फ़लसफ़ा है 

बहुत गहरी ख़ामोशी ओढ़ मुझमें 
समंदर दूर तक पसरा पड़ा है 

मेरी नज़रों से देखो तुम अगर तो 
इसी दीवार में इक रास्ता है 

नदी बहती है कितना दर्द लेकर 
किनारों को कहाँ कुछ भी पता है

Monday, December 7, 2020

किताबों की दुनिया - 220

ये जो मौजूद है इसी में कहीं 
इक ख़ला है तुझे नहीं मालूम 

तब कहाँ था वो अब कहाँ पर है 
पूजता है ! तुझे नहीं मालूम 

इश्क़ खुलता नहीं किसी पर भी 
दायरा है ! तुझे नहीं मालूम 

रोते-रोते ये क्या हुआ तुझको 
हँस पड़ा है ! तुझे नहीं मालूम 

जिस किताब का ज़िक्र हम करने जा रहे हैं उसके शायर के बारे में किताब के फ्लैप पर क्या  लिखा है आइये सबसे पहले वो पढ़ते हैं। "पहली बात कि ये इस शायर की शायरी में जब मुहब्बत दाख़िल होती है तो पूरी कायनात में फूल खिलने लगते हैं। गुस्सा फूटता है तो बदला नहीं बेबसी होती है। जब ये शायर हैरत के संसार में दाख़िल होता है तो पाठक भी हैरतज़दा हो जाते हैं और सबसे बड़ी बात ये कि ये बने बनाये ढर्रे पर नहीं चलना चाहता और ख़ुद ही सब अनुभव करना चाहता हैं। 
सबसे ख़ास बात ये शायर बहुत ईमानदारी से शायरी करता हैऔर जैसा कि इस किताब भूमिका में लिखा है 'ईमानदार शायरी यूँ ही अवाम को बैचैन करने वाली होती है। ये कुछ-कुछ ठहरे पानी में कंकर, बल्कि भारी पत्थर फेंकने का काम है। ज़ाहिर है पानी उछलेगा आवाज़ होगी और छींटे पड़ेंगे तो लोग मार से बचने की कोशिश ही करेंगे, मगर ईमानदार शायरी से कैसे बचा जा सकता है ? बंद कमरे के दरवाज़ों, दीवारों को पार कर सुनने की शक्ति पर दस्तकें ही नहीं देती अपितु हथौड़े बजाती है। "      
    
उसे भी ज़िद थी कि माँगूँ तो सब जहाँ देखे   
दराज़ मैं भी कहाँ हाथ करने वाला था   
दराज़ : फैलाना 

खुली हुई थी बदन पर रूवां रूवां आँखें 
न जाने कौन मुलाक़ात करने वाला था 

मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी 
चिराग़ जैसे कोई बात करने वाला था 

क़िताब 'सरहद के आर-पार की शायरी ' शीर्षक के अंतर्गत छपने वाली सीरीज जिसके बारे में आप पहले पढ़ चुके हैं में दो शायर होते हैं एक भारत से दूसरे पाकिस्तान से। इस बार भारतीय शायर हैं जनाब 'तुफ़ैल चतुर्वेदी' साहब जिनकी बेहतरीन शायरी के अलावा इस किताब में आप उनकी लिखी लाजवाब भूमिका भी पढ़ सकते हैं उन्होंने ने ही अपनी और पाकिस्तानी शायर की शायरी के संपादन की जिम्मेवारी भी उठाई है। पाकिस्तानी शायर हैं जनाब 'रफ़ी रज़ा' साहब जिनकी उर्दू ग़ज़लों का लिप्यांतरण नौजवान शायर 'इरशाद खान 'सिकंदर' साहब ने किया है।  
आज हम पाकिस्तानी शायर 'रफ़ी रज़ा' की शायरी और उनकी ज़िन्दगी पर थोड़ी बहुत बात करेंगे। थोड़ी बहुत इसलिए कि उनकी शायरी पर ही इतनी लम्बी बात हो सकती है कि जिसे समेटने में अच्छी-ख़ासी मोटी क़िताब भी छोटी पड़े। 
रफ़ी रज़ा साहब का नम्बर तुफ़ैल साहब ने दिया और रफ़ी साहब से अपने बारे में मुझे बताने की सिफ़ारिश सिकंदर भाई ने की, मैं दोनों का शुक्रगुज़ार हूँ क्यूंकि उनके सहयोग के बिना ये पोस्ट संभव नहीं थी। 
पाकिस्तान में चिनाब नदी के किनारे 'रबवह' (रबवा) जो पंजाब प्रोविंस में है में 9 अक्टूबर 1962 को मोहम्मद रफ़ी का जन्म हुआ। ये नाम उनकी ख़ाला ने बहुत इसरार करके रखवाया जो भारत के विलक्षण और लोकप्रिय गायक 'मोहम्मद रफ़ी' की जबरदस्त प्रशंसक थीं। बाद में मोहम्मद नाम कहीं पीछे छूट गया और सिर्फ़ रफ़ी रह गया। रज़ा तखल्लुस भी उन्होंने बाद में रखा। अहमदिया जमात में पैदा हुए रफ़ी रज़ा का जीवन आसानी भरा नहीं रहा। यहाँ ये बताना जरूरी हो जाता है कि अहमदिया इस्लाम का एक संप्रदाय है। इसका प्रारंभ मिर्ज़ा गुलाम अहमद (1835-1908) के जीवन और शिक्षाओं से हुआ। अहमदिया आंदोलन के अनुयायी गुलाम अहमद को मुहम्मद साहब के बाद एक और पैगम्बर (दूत) मानते हैं जबकि इस्लाम में पैगम्बर मोहम्मद ख़ुदा के भेजे हुए अन्तिम पैगम्बर माने जाते हैं। दुनिया भर के दूसरे मुसलमान इन्हें काफ़िर मानते है। इनके हज करने पर भी प्रतिबंध है। सन 1974 में अहमदिया संप्रदाय के मानने वाले लोगों को पाकिस्तान में एक संविधान संशोधन के जरिए गैर-मुस्लिम करार दे दिया गया था । एक मुस्लिम देश में ग़ैर-मुस्लिम माने जाने वाले समुदाय की क्या हालत होती है ये वही समझ सकता है जिसने इसे भुगता है।     .

  
दुख का इलाज ढूंढ रहा था बहाव में 
रो-रो के मैंने और दुखा ली हुई है आँख 
*
जाते-जाते न मुड़ के देख मुझे 
शाम के वक़्त शाम होने दे 
*
ये जो कनारे-चश्म तड़प सी है, रंज है 
ऐ दिल ! यक़ीन कर अभी रोया नहीं गया 
*
मैं बुझाता हूँ किसी इश्क़ में मर्ज़ी से अगर 
जा चमकता है कहीं और सितारा मेरा 
*
मैं शाख़े-उम्र पे बस सूखने ही वाला था 
लिपट गया कोई आकर हरा-भरा मुझसे 
*
इल्म ख़ुद भी बड़ी मुसीबत है 
इससे बढ़ कर वबाल है ही नहीं 
*
उसको अंदाज़ा मिरी प्यास का फिर 
रेत को पानी पिलाने से हुआ 
*
दुश्मन से ही लड़ा है अभी ख़ुद से तो नहीं 
मैदाने-कार-ज़ार में आया नहीं है तू 
 मैदाने-कार-ज़ार : युद्ध स्थल 
*
तू ने नफ़रत से मिरी जान तो क्या लेनी थी 
मैं यही काम मुहब्बत से किए जाता हूँ 

एक चलना है कि खिंचता ही चला जाता हूँ 
एक रुकना है कि ताकत से किए जाता हूँ  
 
रबवह(रबवा) में उन्होंने पहले 'तालीम उल--इस्लाम' स्कूल और फिर कॉलेज से ऍफ़ एस सी तक की तालीम हासिल की। तालीम के साथ-साथ देश दुनिया में फैले मज़हबों के बारे में भी जानकारी की। आठवीं क्लास तक आते-आते वो इस्लाम की तारीफ़ पढ़ चुके थे। 
पढ़ने का शौक रफ़ी साहब को दीवानगी की हद से आगे तक था। ये शौक़ उन्हें अपनी वालिदा से मिला। स्कूल की किताबों के अलावा वो जो जहाँ कहीं कुछ भी लिखा मिलता उसे बहुत दिलचस्पी से पढ़ते चाहे वो सौदा सुलफ़ के साथ आये कागज़ पर लिखा हो या दवाओं के साथ आये रैपर पर। दवाओं के रैपर पढ़ पढ़ कर तो उन्हें बहुत सी दवाओं के फार्मूले तक याद हो गए थे जो अमूमन मेडिकल सेल्स रिपेरजेंटेटिव को भी याद नहीं हुआ करते।
ऍफ़ एस सी करने के बाद वो रबवह छोड़ कर इंस्ट्रूमेंटेशन इंजिनीयरिंग के कोर्स के लिये, जो तीन साल का था, सरगोधा के पॉलिटेक्निक कॉलेज में पढ़ने चले गये। ये कोर्स तीन की जगह चार साल में पूरा हुआ ,क्यों ? इसके पीछे की कहानी ये बताती है कि किसी भी मुल्क में  डिक्टेटरशिप लागू होने पर आम इंसान की ज़िन्दगी पर क्या असर पड़ता है। डिक्टेटर को जो वो सोचता है उसे लागू करने की पूरी आज़ादी होती है वो अपनी भलाई के लिए कुछ भी कर गुजरने से गुरेज़ नहीं करता। उसे अवाम की कोई परवाह नहीं होती। ये 'जिया उल हक़' के शासन काल की बात है। तक्षिला के पॉलिटेक्निक कॉलेज में कुछ लड़कों ने जिया के ख़िलाफ़ बग़ावत की तैयारी के लिए हथियार कॉलेज के एक कमरे में छुपाने शुरू कर दिए। ये बात फ़ौजियों को किसी तरह पता चल गयी। जिया उल हक़ तक जब ये ख़बर पहुंची तो उसने, बजाय एक तक्षिला के पॉलिटेक्निक कॉलेज पर एक्शन लेने के, देश के सभी पॉलिटेक्निक कॉलेजों पर एक्शन ले लिया और उन्हें एक साल के लिए बंद कर दिया। इस तुग़लकी निर्णय से पूरे मुल्क़ के बेक़सूर छात्रों का जिनका इस बग़ावत से दूर दूर का भी रिश्ता नहीं था ,पूरा एक साल ख़राब हो गया। 
इंस्ट्रूमेंटेशन की पढाई के साथ साथ रफ़ी साहब ने प्राइवेटली बी. ऐ. की डिग्री जिसमें उर्दू एडवांस और लिटरेचर एडवांस के साथ साथ फ़ारसी भी शामिल थी , हासिल कर ली। इस तरह उन्हें उर्दू साहित्य की अच्छी खासी जानकारी हो गयी।         
       
ए वाइज़ा तू ख़ुदा की तरफ़ से है ही नहीं 
इसीलिए तिरा लहजा डपटने वाला है 
वाइज़ा : धर्मोपदेशक 
*
डर रहा था मैं गहरी खाई से 
पाँव फिसला तो मेरा डर निकला 
*
तो क्या दुआएँ करूँ सानहों के होने की 
गले मिले हैं सभी सानहे के होने  से 
सानहों : दुर्घटनाओँ 
*
जिसकी जुबां का ज़ख्म मिरी रूह तक गया 
कौन उससे पूछता तिरी तलवार है कहाँ 
*
तू मिल रहा है मुझसे मगर आग है किधर 
मिट्टी को क्या करूँ मैं ,मुझे जान चाहिये 
*
वो रौशनी मिरी बीनाई ले गयी पहले 
फिर उसके बाद मिरा देखना मिसाल हुआ 
*
ख़ुदा का नाम लिया और फिर भरा सागर 
लो मैं शराब को ख़ुद ही हराम करने लगा 
*
बहुत दिनों से ख़मोशी थी चीख़ कर टूटी 
जो ख़ौफ़ था मिरे अंदर दहाड़ कर निकला 
*
महक रही है कोई याद गुफ़्तगू की तरह 
सुलग सुलग के अगरबत्ती जल रही है कोई  
*
वो पहली मुहब्बत चली आती है बुलाने 
वो पहला ख़सारा मुझे रुकने नहीं देता 
ख़सारा : घाटा 


रफ़ी साहब को खेल कूद में बेहद दिलचस्पी थी। स्कूली दिनों में वो तकरीबन हर खेल की टीम में शिरक़त करते और टीम को जिताते लेकिन उनके इस हुनर को किसी खास टूर्नामेंट के वक़्त ,सिफ़ारिशी बच्चों की ख़ातिर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता। जब भी स्कूल के बाहर कोई टीम भेजनी होती उसमें उनकी जगह किसी रसूख़दार बच्चे का नाम होता। ये भेदभाव दुनिया भर में खेलों में ही नहीं बल्कि ज़िन्दगी में कहाँ नहीं होता? रफ़ी साहब इस बात को जानते थे लेकिन जब ये भेदभाव वो अपने साथ जरूरत से ज्यादा होते देखते तो इस नाइंसाफी पर खून के घूँट पी कर रह जाते। उन्होंने टीम वाले खेलों को छोड़ उन खेलों की तरफ़ रुख़ किया जिसमें आप अकेले अपने दमखम पर हिस्सा लेते हैं जैसे एथेलेटिक्स और खूब मैडल जीते। 
आठवीं जमात से रफ़ी साहब को लिखने का शौक़ परवान चढ़ा। उन्हें लगा कि कहानियाँ लिखने से ग़ज़लें और नज़्म लिखना आसान है। इसके लिए उस्ताद की तलाश शुरू हुई, कुछ मिले भी लेकिन वहां भी जब उन्होंने दोयम दर्ज़े के शायरों को वाह वाही पाते और उस्ताद को उनकी हौसला अफ़ज़ाही करते देखा तो उस्ताद की तलाश बंद कर दी और किताबों का सहारा लिया। किताबों को अपना उस्ताद बनाया उन्हीं से उरूज़ सीखा और ग़ज़ल में लफ्ज़ बरतने का सलीका भी। आज वो जिस मुकाम पर हैं वो अपने इस पढ़ने की आदत की वज़ह से ही हैं।  
उन्होंने अपनी ग़ज़ल सं 1979 में कही जो लाहौर के उस रिसाले में छपी जो अहमीदियों में बहुत मक़बूल था। बाद में उनकी ग़ज़लें बग़ावती तेवर वाली थीं जो जिया की हुकूमत के ख़िलाफ़ थीं लेकिन किस्मत से फ़ौजियों की नज़रों से बच गयीं वरना उन दिनों बग़ावत करने और शासक के ख़िलाफ़ लिखने वालों को उठा कर जेल में डाल दिया जाता था। 
धीरे धीरे वो पहले छोटी छोटी नशिस्तों में और फिर मुशायरों में ग़ज़लों में पढ़ते पढ़ते मक़बूल होते तो होते गए लेकिन उन्हें ये मकबूलियत थोथी लगी। उन्हें  ये बात समझ में आने लगी कि अगर शायरी की दुनिया में अपना नाम पुख़्ता तौर पर दर्ज़ करवाना है तो वो लिखना पड़ेगा जो सबसे अलग हो। चौंकाने वाली शायरी कुछ वक्त आपको वाह वाही दिला देती है लेकिन उसके बाद उसका कोई वजूद नहीं रह जाता। 

करती है हर घड़ी मिरे दिल में शुमारे-उम्र 
क़िस्तों में क़ैद से यूँ रिहा हो रहा हूँ मैं 
शुमारे-उम्र : उम्र की गिनती  
*
बदन थमाते हुए ये नहीं बताया था 
तमाम उम्र ये कोहे-गिराँ पकड़ना है 
कोहे-गिराँ : भारी पहाड़ 
*
ये सूरज बुझ रहा है जो उफ़क़ में 
मुझे अपनी कहानी लग रही है 
*
एक इस उम्र का ही काटना काफ़ी नहीं क्या 
इश्क़ का बोझ मिरी जाँ पे इज़ाफ़ी नहीं क्या 
इज़ाफ़ी : अतिरिक्त 
*
तुम मिल गए तो देखो तुम्हारी ख़ुशी को फिर 
चारों तरफ़ से दुख ने हिफाज़त में ले लिया 
*
सब्ज़ होने से हक़ीक़त तो नहीं बदलेगी 
लाख इतराए मगर अस्ले-शजर मिट्टी है 
अस्ले-शजर : पेड़ की वास्तविकता 
*
अब बोलने लगा हूँ ज़मीं के ख़िलाफ़ भी 
मुझको बना रहा है निडर इतना आसमान 
*
नतीजा कुछ भी निकले कुछ तो निकले 
मुसलसल इम्तिहाँ का क्या किया जाये 
*
सुनने से तो ख़ुशबू का तअल्लुक़ भी नहीं है 
क्यों बात वो करता है महकने के बराबर 
*
 ये फड़फड़ाता हुआ शोला खोल दे कोई 
बंधा चराग़ से क्यों आग का परिंदा है 

इंस्ट्रूमेंटेशन के बाद उनकी दिलचस्पी इलेक्ट्रॉनिक्स की और हुई इसलिए उन्होंने इलेक्टॉनिक्स के क्षेत्र में तालीम हासिल की और पाकिस्तान में जब कम्यूटर आया तो वो उस इंडस्ट्री के साथ जुड़ गए। ये उनकी ज़िन्दगी का टर्निंग प्वाइंट था क्यूंकि इसी इंडस्ट्री ने उन्हें कैनेडा में बसने और नौकरी का मौका दिया और वो पाकिस्तान से कैनडा शिफ्ट हो गए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कम्यूटर कंपनियों में काम करते करते वो जल्द ही उकता गए और फ़ार्मेसी की और मुड़ गए  लेकिन वहां भी उनका मन ज़्यादा देर तक नहीं टिका । बेचैनी की हालत में किसी ने उन्हें 'एंटोमोलोजी' का कोर्स करने की सलाह दी। एंटोमोलोजी आप जानते होंगे कि इंसेक्ट्स और उनके इंसान के साथ संबंध का विज्ञान है। केनेडा की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से उन्होंने एंटोमोलोजी का कोर्स किया और वो अभी उसी से जुड़ी इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं। 
ये सब करने के साथ साथ शायरी का सफ़र भी लगातार चलता रहा। शायरी में उन्होंने अपनी मेहनत से अपनी जगह बनाई।  रफ़ी साहब का मानना है कि आप जो कुछ भी करें दिल से करें और सबसे अलग करने की सोचें। पगडंडियों पर चलने वालों के पाँव के निशान उस पर ज़्यादा देर तक नहीं रह पाते, यदि आप अपने पाँव के निशान छोड़ना चाहते हैं तो आपको अलग रास्ते पर ही चलना होगा। एक पिटे हुए धारे से खुद की शायरी को अलग रखना बेहद मुश्किल काम है। रफ़ी साहब चाहते हैं कि उनकी शायरी पढ़ कर लोग पहचान लें कि ये क़लाम रफ़ी रज़ा का है। 

मिरे मिज़ाज को बख़ियागरी नहीं आती 
तअल्लुक़ात का धागा उधड़ता रहता है 
*
खिड़की से देखते हुए क्यों पीछे हट गईं 
क्या रौशनी गली की बुझाने लगी हो तुम 
*
सिमटने की कोई हद पार कर आया हूँ क्या मैं 
जो अब मेरा बिखर जाना ज़रूरी हो गया है 
*
कहना तो था कि ख़ुश हूँ तुम्हारे बग़ैर भी  
आँसू मगर कलाम से पहले ही गिर गया 
*
सोचते रहने में अंदाज़ा नहीं था मुझको 
सोचते रहने में मुहलत ने निकल जाना है 
*
न जाने किसको ज़रुरत पड़े अँधेरे में 
चराग़ राह में देखा था घर नहीं लाया 
*
सर उठाता हूँ तो ढह जाता हूँ 
कोई दीवार हूँ मिट्टी की तरह 

रफ़ी साहब का मानना है कि "एक नयी धारा या सोच या तर्ज़, जिसे कबूलियत भी मिले बल्कि क़बूलियते आम मिले, को शायरी में पैदा करना बहुत मुश्किल काम है क्यूंकि यदि अलग करने की फ़िक्र में आप शायरी की जुबान या उसकी स्टाइल या डिक्शन बदल देते हैं तो फिर उसकी तासीर कम हो जाने का डर रहता है। उर्दू ग़ज़ल का मसअला ये है बल्कि ख़ासियत ये है कि इसे तग़ज़्ज़ुल के बगैर क़ुबूलियत नहीं मिलती। तग़ज़्ज़ुल का मतलब ऐसे है जैसे जब आपको भूख़ लगती है और आपको खाना दिखाया जाता है तो उस खाने की खुशबू से उसको देखने से आपके मुँह में स्लाइवा बनना शुरू हो जाता है जिसे राल टपकना भी कहते हैं । ग़ज़ल में तग़ज़्ज़ुल वो राल ही है जो श्रोता सुनने से पहले खुद को तैयार करते हुए अपने ज़ेहन को एक खास रौ में ले के आता है एक ख़ास माहौल उसके ज़ेहन में होता है वो उसी को एक्पेक्ट करता और उसी पर रिएक्ट करता है। याने भर पेट खाने के बावजूद खाने को देखते रहने और उसे लगातार खाने को दिल करे। जिसे खा कर वो कहे कि अहा स्वाद आ गया। ये स्वाद ही तग़ज़्ज़ुल है। स्वाद जो आपके सेंसेस को जगा दे।  बासी फ़ीका अधपका  खाना सिर्फ़ बेहद भूखा इंसान ही खा सकता है। भरपेट इंसान को तो उसे देखना भी गवारा नहीं होगा खाना तो दूर की बात है ।  देखिये दुनिया भर में मसाले वही होते हैं नमक मिर्च हल्दी धनिया आदि उनका अनुपात ही खाने में स्वाद लाता है , ये अनुपात सीखना ही असली हुनर है।  
 अपनी शायरी में जो ये स्वाद याने तग़ज़्ज़ुल पैदा कर लेता है वो क़ामयाब हो जाता है।
शायरी सहज होनी चाहिए ,बहती हुई सी ,रवानी लिए हुए। चौंकाने वाली शायरी की उम्र लम्बी नहीं होती चाहे उसे कितनी भी मक़बूलियत मिली हो। कामयाबी के लिए एक बात ये भी है कि अपनी शायरी में आप मुश्किल लफ़्ज़ों के इस्तेमाल से परहेज़ करें। उन्होंने अपनी शायरी में उन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल भी किया है  जिनमें फ्लो नहीं होता जैसे पछाड़ उखाड़ झाड़ आदि और इसे लोगों ने इसे पसंद भी किया।       
      
कौन कहता है कि ईमान से डर लगता है 
मुझको अल्लाह के दरबान से डर लगता है 

ग़ैर के डर का वो अंदाज़ा लगा सकता है 
जिस मुसलमां को मुसलमान से डर लगता है 

झाँकते क्यों नहीं ख़ुद अपने गिरेबान में आप 
आप को अपने गिरेबान से डर लगता है 

कल  सुनी गुफ़्तगू हैवानों की छुपा कर मैंने 
सभी कहते थे कि इंसान से डर लगता है 

रफ़ी साहब ने कुछ अलग किस्म की शायरी करने के लिए अपने साथ के और पुराने शायरों को पढ़ना शुरू किया और उनपर आलोचनात्मक लेख भी लिखने लगे। आलोचना में उन्होंने बहुत ईमानदारी से काम किया और आलोचना करते वक्त ये नहीं देखा कि शायरी उनके दोस्तों की है या दुश्मनों की। कुछ तो मज़हबी पाखण्ड के विरोधी विचारों के कारण और कुछ आलोचना में सच कहने के कारण उनके दुश्मनों की तादाद दोस्तों से बहुत ज़्यादा हो गयी। इससे उनकी सोच में बिल्कुल भी फ़र्क नहीं पड़ा। वो साफ़ तौर पर सबसे  कहते भी हैं कि फलाँ शख़्स की शायरी में मुझे ये कमी नज़र आ रही है यदि आप मेरी दलील से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते तो तो कोई बात नहीं आप बताएं कि मैं कहाँ ग़लत हूँ और यदि आप साबित करते हैं कि मैं ग़लत हूँ तो मुझे अपनी ग़लती मानने में कोई ऐतराज़ नहीं है लेकिन होता इसके उलट है लोग आलोचना से तिलमिला जाते हैं और व्यक्तिगत बातों पर कीचड़ उछालना शुरू  कर देते हैं। रफ़ी साहब ऐसी लोगों और उनकी बातों से घबराते नहीं हैं बिना डरे अपनी बात पुख्ता ढंग से कहते हैं। 
तुफ़ैल साहब ने किताब की भूमिका में लिखा भी है कि "ग़लत को ढोल बजा कर सबके सामने लाना इसलिए भी ज़रूरी है कि ऐसा न किया जाये तो दुरुस्त के साथ सदियों से होती आयी नाइंसाफ़ी बंद नहीं हो पायेगी। ये विरोध बड़े पैमाने पर लोगों में उलझन पैदा करता है। कान-पूँछ लपेट कर कूँ कूँ करते हुए किसी तरह ज़िन्दगी जीने वाले लोग ग़ुर्राने वाला लहजा नापसंद तो करेंगे ही।" 
रफ़ी साहब शायरी के अलावा एक्टिविस्ट भी हैं और बेहद ज़रूरतमंदों की मदद के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं।उर्दू में उनके दो ग़ज़ल संग्रह '  सितारा लकीर छोड़ गया' और 'इतना आसमान' प्रकाशित हो चुके हैं. देवनागरी में पहली बार राजकमल प्रकाशन ने उनकी शायरी को इसे प्रस्तुत किया है। आप अगर शायरी याने अच्छी और भीड़ से अलग किस्म की शायरी पढ़ने में रूचि रखते हैं तो ये क़िताब आपके पास जरूर होनी चाहिए जो कि अमेजन से ऑन लाइन मंगवाई जा सकती है। 
चलते चलते आईये पढ़ते उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के चंद शे'र:        

जहाँ रोना था रो सके न वहाँ 
इसी ख़ातिर इधर उधर रोये 

लोग रोये बिछड़ने वालों पर 
और हम ख़ुद को ढूँढ़ कर रोये 

कोई चारा बचा नहीं होगा 
वर्ना क्यों मेरे चारागर रोये 
चारागर : चिकित्सक 

है ख़ुदा जब कि हर जगह मौजूद 
छुपछुपा कर कोई किधर रोये   





( ये पोस्ट रफ़ी रज़ा साहब के कैनेडा से भेजे वाइस मैसेज पर आधारित है )





Monday, November 23, 2020

किताबों की दुनिया -219


तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझको क़बूल 
ये सहूलत तो मुझे सारा जहाँ देता है 
*
सभी ने देखा मुझे अजनबी निगाहों से 
कहाँ गया था अगर घर नहीं गया था मैं 
*
मुस्कुराना सिखा रहा हूँ तुझे 
अब तिरा दुःख भी पालना पड़ेगा 
*
क्यों बात बढ़ाना चाहते हो 
तुम अपनी कमगुफ़्तारी से 
कम गुफ़्तारी -कम बोलना
*
ख़ुद ही पढ़ते हैं क़सीदे उसके 
ख़ुद ही दाँतों से ज़ुबाँ काटते हैं 
*
मैं जानता हूँ मुझे मुझसे माँगने वाले 
पराई चीज़ का जो लोग हाल करते हैं 
*
हम अगर अबके साल भी न मिले 
फिर उधेड़ोगी तुम ये स्वेटर क्या 
*
तुझे खोकर तो तिरी फ़िक्र बहुत जायज़ है 
तुझे पाकर भी तिरा ध्यान रखा जाएगा क्या 
*
मैं ये चाहता हूँ कि उम्र भर रहे तिश्नगी मिरे इश्क़ में 
कोई जुस्तज़ू रहे दरमियाँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी   
*
तुम अपने कर्ब का इज़हार कर भी सकती हो 
कि प्याज़ काट के ये वक़्त कट भी सकता है 
कर्ब: दुःख  
*
अब तो इक़रार भी नहीं दरकार 
अब तिरी ख़ामुशी का क्या कीजे 
*
बाज़-औक़ात ख़ुशी छू के गुज़र जाती है 
रह भी जाती है कभी लॉटरी इक नंबर से   
  
ओकाड़ा , पाकिस्तान के पंजाब प्रोविन्स का एक शहर जिसमें मोहल्ले हैं और मोहल्ले के घर एक दूसरे से जुड़े हुए। देखा ये गया है कि जहाँ घर जुड़े होते हैं वहां उनमें रहने वाले लोगों के दिल भी आपस में जुड़े होते हैं। लोगों की तकलीफें और खुशियाँ सांझी होती हैं। सबको पता होता है कि किसके घर के सामने वाले पेड़ का पीला पत्ता टूट के नीचे गिरा है और किसके पड़ौस के पेड़ में फल लगे हैं। इन्हीं मोहल्ले में से एक मोहल्ले का बच्चा एक घर से दूसरे घर यूँ घुसता है जैसे दूसरा घर भी उसके अपने घर का ही विस्तार हो। किसी भी घर में जा कर कुछ भी मांग के खा लेता है ये हाल सिर्फ़ इस बच्चे का ही नहीं है सभी बच्चों का है। यहाँ के सभी बच्चों के लिए मोहल्ले के सभी घर उनके अपने हैं।
जिस बच्चे का ज़िक्र मैं कर रहा हूँ उसकी पैदाइश 31 अगस्त 1980 की है और उसके घर का माहौल अलबत्ता थोड़ा सख़्त है। माँ-बाप दोनों सख़्त मिज़ाज़ हैं लेकिन बच्चे से प्यार करने वाले हैं। बच्चे को घर में शरारतें करने की सहूलिहत नहीं मिलती लिहाज़ा वो ये काम बाहर करता है। बच्चा अपने शहर ,मोहल्ले में बहुत खुश है उसे लगता है शायद सारी दुनिया इतनी ही खूबसूरत है और सारी दुनिया के लोग आपस में ऐसे ही मोहब्बत से रहते हैं। बच्चे की ज़िन्दगी के पंद्रह सोलह साल यूँ ही हँसी ख़ुशी से बीत जाते हैं । तभी एक दिन बच्चे के वालिद ऐलान करते हैं कि वो लोग ओकाड़ा छोड़ कर अपने और बच्चों के बेहतर मुस्तक़बिल के लिए जल्द ही लगभग 250 की.मी. दूरी पर बसे बड़े शहर बहावलपुर जा कर बस जाएँगे जहाँ उनके बाकि रिश्तेदार रहते हैं । बच्चा समझ नहीं पाता कि वो इस बात पर ख़ुशी ज़ाहिर करे या अपने पुराने दोस्त और मोहल्ले को छोड़ने का ग़म मनाये।               

धूप में साया बने तन्हा खड़े होते हैं 
बड़े लोगों के ख़सारे भी बड़े होते हैं 
ख़सारे - नुक़सान 
*
ले आयी छत पे क्यों मुझे बेवक़्त की घुटन 
तेरी  तो ख़ैर बाम पे आने की उम्र है 
*
उसे कहो जो बुलाता है गहरे पानी में 
किनारे से बँधी किश्ती का मसअला समझे 
*
वो दस्तयाब हमें इसलिए नहीं होता 
हम इस्तेफ़ादा नहीं देखभाल करते हैं 
इस्तेफ़ादा -लाभ उठाना 
*
दफ़्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वगरना मैं 
बारिश की एक बूँद न बेकार जाने दूँ 
*
यानी अब भी सादा दिल हूँ अंदर से 
अच्छा चेहरा देख के धोका खाता हूँ 
*
बेतकल्लुफ़ है बहुत मुझसे उदासी मेरी 
मुस्कुराऊँ तो पकड़ती है मुझे कॉलर से 
*
हम हुए क्या ज़रा ख़फ़ा तुमसे 
जिसको देखो तुम्हारा हो गया है 
*
बदल के देख चुकी है रियाया साहिबे-तख़्त 
जो सर क़लम नहीं करता ज़ुबान खींचता है 
साहिबे-तख़्त: राजा 
*
हमारे ग़म कहीं कम पड़ गए तो क्या होगा  
इरादा है कि अभी हमने और जीना है 
*
होते-होते होगा वस्ल हमारा पाक तकल्लुफ़ से 
पैर अभी मानूस नहीं है नये-नवेले बूट के साथ 
*
सर झटकने से कुछ नहीं होगा 
मैं तिरे हाफ़िज़े में रह गया हूँ 
हाफिज़े: मष्तिष्क/ याददाश्त 


तब किसे पता था कि बहावलपुर आकर ये बच्चा शायरी करेगा और एक दिन पूरी दुनिया में 'अज़हर फ़राग़' के नाम से जाना जायेगा। 'अज़हर फ़राग़' साहब की लाजवाब शायरी को हम हिन्दी पाठकों तक पहुँचाने के लिए सबसे पहले हमें जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब को उनकी ग़ज़लों के संपादन और इरशाद खान सिकंदर साहब को लिप्यांतर के लिए तहे दिल से शुक्रिया अदा करना होगा। ये दोनों ग़ज़लों के पारखी हैं इसलिए 'सरहद पार की शायरी' श्रृंखला की इस कड़ी में उन्होंने 'अज़हर साहब की शायरी के अनमोल मोती पिरोये हैं जिसे राजपाल एन्ड सन्स ने पहली बार देवनागरी में प्रकाशित किया है।    


दीवारें छोटी होती थीं लेकिन परदा होता था 
ताले की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था 
 
कभी-कभी आती थी पहले वस्ल की लज़्ज़त अंदर तक 
बारिश तिरछी पड़ती थी तो कमरा गीला होता था 

शुक्र करो तुम उस बस्ती में भी इक स्कूल खुला 
मर जाने के बाद किसी का सपना पूरा होता था 

जब तक माथा चूम के रुख़सत करने वाली ज़िंदा थी 
दरवाज़े से बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था

बहावलपुर ओकाड़ा से बड़ा शहर है लिहाज़ा इसमें रहने के तौर तरीक़े ओकाड़ा से अलग थे। मोहल्लों की जगह कॉलोनीज थीं जिनमें घर एक दूसरे से जुड़े हुए नहीं दूर दूर थे। लोगों के दिलों में भी जुड़ाव नहीं था। लोगों के आपसी सम्बन्ध दुआ सलाम और आप कैसे हैं? मैं ठीक हूँ, से आगे आसानी से नहीं बढ़ते थे। अज़हर को शुरू शुरू में ऐसे माहौल में बड़ी घुटन महसूस होने लगी। कुछ दिन अनमने से बीते, धीरे धीरे कॉलेज के दोस्तों के बीच मन रमने लगा और पता नहीं कब अज़हर को शायरी का शौक लग गया। उम्र के इस बासंती मोड़ पर जब हर तरफ़ फूल खिले नज़र आते हैं और हवाओं में चन्दन की महक आने लगती है अधिक तर नौजवान अपने दिल में उमड़ रहे ज़ज़्बातों को शायरी, कविता के माध्यम से वयक्त करने लगते हैं। एक उम्र के बाद बहुत से तो इस रुमानियत से बाहर निकल कर दूसरी तरफ़ चल देते हैं और कुछ बिरले इसमें डूब जाने की सोचने लगते हैं। अज़हर को शायरी से बेपनाह मोहब्बत हो गयी लेकिन उसे कोई सही ग़लत बताने वाला उस्ताद नहीं मिल रहा था। सीनियर शायरों का रुख़ बेहद रूखा था और वो सिखाने के नाम पर मुँह बना लिया करते थे। ऐसे में किसी ने उन्हें उस्ताद शायर 'नासिर अदील' साहब का नाम सुझाया जो उस वक्त अपनी नासाज़ तबियत के चलते शायरी छोड़ चुके थे। 

हर शीशे का डर है भय्या 
बच्चों वाला घर है भय्या 

ऐनक का वावैला करना 
ठोकर से बेहतर है भय्या 
वावैला: हंगामा  

मैं जो तुमको खुश दिखता हूँ 
पर्दे की झालर है भय्या 

आधा-आधा रो लेते हैं 
एक टिशू पेपर है भैय्या 

अपनी एक ग़ज़ल कागज़ पर लिख कर अज़हर साहब 'अदील' साहब को ढूंढते ढूंढते उन तक जा पहुँचे। 'अदील' साहब को मिल कर उन्हें लगा जैसे किसी दरवेश से मिल रहे हों। बड़े अदब से अज़हर साहब ने उन्हें आदाब किया और वो कागज़ जिस पर वो अपनी ग़ज़ल लिख कर लाये थे उनके सामने रख दिया। 'अदील' साहब ने कागज़ उठाया ग़ज़ल पढ़ी और कागज़ को बड़ी ऐतियाद से एक और रख कर अज़हर साहब को गौर से देखा और उन्हें मीर की एक ग़ज़ल सुनाई उसका मतलब समझाया फिर ग़ालिब का शेर सुना कर उसकी व्याख्या की आखिर में कुमार पाशी की एक ग़ज़ल सुना कर उसके रदीफ़ काफ़िये के इस्तेमाल पर विस्तार से बताते रहे। एक आध घंटे की इस गुफ़्तगू के दौरान एक बार भी उन्होंने उस ग़ज़ल की चर्चा नहीं की जो अज़हर साहब अपने साथ लाये थे। अगले दिन अज़हर साहब अपनी एक और ग़ज़ल 'अदील' साहब को दिखाने जा पहुंचे और 'अदील' साहब ने फिर वो ही किया जो पहले दिन किया था, इस बार उन्होंने नासिर काज़मी, ज़फर इक़बाल और फ़िराक़ साहब का कलाम उन्हें बड़े मन से सुनाया और उसके एक एक लफ्ज़ पर चर्चा की। ये सिलसिला इसी तरह एक दो महीने तक रोज यूँ ही चलता रहा। कागज़ पर लिख कर लाई अज़हर साहब की ग़ज़लें एक के ऊपर एक तह कर बिना किसी चर्चा के रखी जाती रहीं। धीरे धीरे अज़हर साहब उस्तादों के कलाम और उनकी बारीकियां 'अदील' साहब  से सुन सुन कर समझ गये कि जो ग़ज़लें रोज़ रोज़ कागज़ पर लिख कर वो ला रहे हैं उन्हें ग़ज़ल कहना ग़ज़ल की तौहीन है। अब ऐसे उस्ताद की शान में सिर्फ सजदा ही किया जा सकता है जो बिना कुछ कहे आपको ये अहसास करवा दे कि बरखुरदार ग़ज़ल कहना इतना आसान नहीं है जितना समझा जा रहा है।  

तुझसे कुछ और तअल्लुक़ भी ज़रूरी है मिरा 
ये मुहब्बत तो किसी वक़्त भी मर सकती है 

मेरी ख़्वाहिश है कि फूलों से तुझे फतह करूँ 
वरना ये काम तो तलवार भी कर सकती है 

हो अगर मौज में हम जैसा कोई अँधा फ़क़ीर 
एक सिक्के से भी तक़दीर सँवर सकती है 

इस बात को अच्छे से समझने के बाद अज़हर साहब ने 'अदील' साहब से सबसे पहले ग़ज़ल का अरूज़ सीखा ,लफ्ज़ बरतने का हुनर और ग़ज़ल के क्राफ्ट की बारीकियाँ समझीं। जब बात कुछ समझ में आयी तब उन्होंने उस्ताद की रहनुमाई में ग़ज़लें एक बार फिर से कहनी शुरू कीं।  'अदील' साहब का ये जुमला कि 'कोरस में गाने वाले का अपना सुर कितना भी सुरीला हो सोलो गाने वाले के जैसी पहचान नहीं बना सकता' अज़हर साहब ने गाँठ बांध लिया और उस तरह की शायरी से अलग ऐसी शायरी करनी शुरू की जो विषय और क्राफ्ट में सबसे अलग थी। नतीज़ा ? वो हज़ारों शायरों की भीड़ में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए। बड़ा उस्ताद वो होता है जिसके शागिर्द उसकी जैसी नहीं बल्कि उस से बेहतर शायरी करते हैं। शागिर्द के नाम से उस्ताद का नाम रौशन होना चाहिए। अज़हर साहब की शायरी की कामयाबी के ताज में उस दिन एक बेशकीमती रत्न तब जुड़ा जब 2017 में 'जावेद अख़्तर' साहब ने अपनी सदारत में दुबई के एक मुशायरे में उन्हें सुनने के बाद कहा कि "यार अब तुम्हारे बाद क्या मुशायरा पढ़ना है ?"

मुहब्बत के कई मानी हैं लेकिन 
ज़ियादा सामने का सिर्फ़ तू है 

दुआ भूली हुई होगी किसी को 
फ़लक पर इक सितारा फ़ालतू है 

कहीं भी रख के आ जाता हूँ खुद को 
न जाने किस को मेरी जुस्तजू है 

ख़ुदा सुनता है जैसे बेज़बाँ की 
नमाज़ उस की भी है जो बेवज़ू है 

ऐसा नहीं है कि ये कामयाबी जनाब अज़हर फ़राग़ को रातों रात मिल गयी। इस कामयाबी और अपनी मौजूदगी को दर्ज़ करवाने में उन्हें एक लम्बा अरसा लगा। अपना रास्ता, जो सबसे अलग हो, उसे खोजना और फिर उस पर चलना आसान नहीं होता। जिस तरह के रंग की शायरी अज़हर साहब करते थे वो उस ज़माने में क़बूल ही नहीं होती थी। एक बार जब उन्होंने एक बहुत नामवर प्रगतिशील शायर को अपना ये शेर 2001 में सुनाया कि 'ग़लत न जान मेरी दूसरी मोहब्बत को , यकीन कर ये तेरे हिज्र की तलाफ़ी है (हिज्र -बिछोह , तलाफ़ी-प्रायश्चित ) तो वो उनके मुँह की और हैरत से तकता रहा और सर झटक कर चल दिया। उस जमाने में ,जब अहमद फ़राज़ का ये शेर ' हम मोहब्बत में भी तौहीद (ईश्वर को एक मानना )के कायल हैं फ़राज़, एक ही शख़्स को महबूब बनाये रक्खा' पाकिस्तान की गली गली में मशहूर था, लोग इस बात पे यकीन रखते थे कि 'मोहब्बत एक से होती है हज़ारों से नहीं, रौशनी चाँद से होती है सितारों से नहीं' अज़हर का ये शेर कि 'तुझसे कुछ और ताल्लुक भी जरूरी है मेरा , ये मोहब्बत तो किसी वक्त भी मर सकती है' लोगों के गले नहींउतरा।               
वक़्त बदला लोगों की सोच बदली और कल तक अज़हर फ़राग़ की जिस शायरी को नकार दिया गया था उससे नयी नस्ल के लोग जुड़ने लगे। नौजवान शायरों ने उनकी राह पकड़ी और शायरी में नयी फ़िज़ा के आने का ऐलान कर दिया। फ़राग़ साहब की इस सोच ने कि 'शायर को सालों के आगे का पता होना चाहिए , सौ साल बाद कैसी दुनिया होगी उसका तसव्वुर होना चाहिए तभी उसका नाम शायरी में ज़िंदा रहेगा।आज के हालत पर शायरी करना तो अख़बार की खबर लिखने जैसा काम होगा'  ग़ज़ल कहने के अंदाज़ को बदल दिया  

रात की आग़ोश से मानूस इतने हो गये 
रौशनी में आए तो हम लोग अंधे हो गये 
आग़ोश -गोद, मानूस -अभ्यस्त 

आंगनों में दफ़्न हो कर रह गई हैं ख्वाइशें 
हाथ पीले होते-होते रंग पीले हो गये 

भीड़ में गुम हो गये हम अपनी ऊँगली छोड़कर 
मुनफ़रीद होने की धुन में औरों जैसे हो गये 
मुनफ़रीद-अनूठे    

बड़े उस्ताद उन्हीं नौजवानों को अपना शागिर्द बनाया करते जिनसे या तो उन्हें कोई फ़ायदा हासिल होने की उम्मीद होती या फिर किसी दोस्ती या ताल्लुकात का क़र्ज़ चुकाना होता। इस वजह से ऐसे युवा जिनमें अच्छी शायरी करने का ज़ज़्बा तो होता था लेकिन उस्ताद तक रसाई का ज़रिया नहीं होता था ,आगे नहीं बढ़ पाते थे। इससे दोयम दर्ज़े के शायर मन्ज़रे आम पर छाने लगे और शायरी में गिरावट आने लगी। अज़हर साहब ने नौजवानो की इस तकलीफ़ को शिद्दत से महसूस किया क्यूंकि वो खुद भी शुरू में इस समस्या से दो चार हो चुके थे। 

तब अज़हर साहब ने, पाकिस्तान के नौजवान शायरों को ग़ज़ल की बारीकियां सीखने में मदद पहुँचाने की गरज़ से एक फ़ोरम का गठन किया। अज़हर साहब की रहनुमाई में इस फोरम से जुड़ कर नौजवान शायरों ने एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा और शायरी के क्षेत्र में नाम कमाया। बहावलपुर में 2010 के बाद 'नयी ग़ज़ल' की लहर चली जिसमें नौजवान शायरों ने उन सभी विषयों पर जो समाज में कभी टैबू समझे जाते थे, ग़ज़लें कहीं जो बहुत मकबूल हुईं, नयी ज़मीनें तलाशी गयीं, नए विषय उठाये गए, क्राफ्ट और कहन की खोज की गयी। ये सब करने में ग़ज़ल के उरूज़ के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी। नयी ग़ज़ल को रिवायती ग़ज़ल के एक्टेंशन के रूप में पेश किया गया। इस बदलाव ने ग़ज़ल में नयी जान फूंक दी ,पढ़ने सुनने वालों को इसमें ताज़गी का एहसास हुआ और इससे ग़ज़ल की लोकप्रियता में चार चाँद लग गए।

अज़हर साहब का मानना है कि जिस तरह आम पढ़ने सुनने वालों ने जहाँ इस नयी ग़ज़ल को ख़ुशी से अपनाया वहीँ आलोचक अभी भी ग़ज़ल की उसी पुरानी रवायत से चिपके बैठे हैं और इस ताज़गी को नकारने में लगे हैं। पारम्परिक लोग बदलाव को आसानी से नहीं स्वीकारते लेकिन वक़्त उन्हें बाद में स्वीकारने को मज़बूर कर देता है। सरकारों के भरोसे रहने से साहित्य का कभी भला नहीं हो सकता। पाठ्य पुस्तकों में अभी भी उन्हीं को जगह मिलती है जिनकी रचनाएँ अब अपना महत्व खो चुकी हैं याने सम-सामयिक नहीं हैं। सरकारों को चाहिये की वो चुनिंदा नौजवानों के कलाम भी पाठ्यपुस्तकों में लाये ताकि आने वाली पीढ़ी को अंदाज़ा हो कि आज के दौर की सोच और शायरी कैसी है।  

ग़ज़ल को पूरी तरह से समर्पित अज़हर भाई की दो किताबें सन 2006 में 'मैं किसी दास्ताँ से उभरूँगा' और सन 2017 में 'इज़ाला' के नाम से उर्दू में मंज़र-ऐ-आम पर आ चुकी हैं। हिंदी में जैसा की पहले बताया है ये ही एक मात्र किताब है जिसमें उनकी 80 ग़ज़लें संकलित हैं और सभी बार बार पढ़ने लायक हैं। 
अज़हर फ़राग़ साहब के बारे में सब कुछ एक पोस्ट में समेट लेना संभव नहीं लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं इसलिए थोड़े को ज्यादा माने और आखिर में उनके ये चंद अशआर पढ़ें :

हम जिसे चाहे अपना कहते रहें 
वही अपना है जिसे पा लिया जाय 
*
फिर उसके बाद गले से लगा लिया मैंने 
ख़िलाफ़ अपने उसे पहले ज़हर उगलने दिया 
*
ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किसकी 
लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को 
रियाज़त :अनवरत अभ्यास से आने वाली सिद्धता 
*
घर में किसका पाँव पड़ा 
छत से जाले उतर गये 
*       
 कुछ इतना सहल न था रौशनी से भर जाना 
नज़र दिये पे बड़ी देर तक जमानी पड़ी 
सहल: सरल 
*
कोई तो नाम हो तअल्लुक़ का 
किस हवाले से बोझ ढोया जाय

Monday, November 9, 2020

किताबों की दुनिया -218 

शहरों का भटकना मिरी आदत का करम था
जंगल की शुरुआत  तिरी याद ने की है
*
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे मौक़े पे निशाना भी ग़लत लगता है
*
क़त्ल होने की सिफ़त बाद के असबाक़ में है
पहले ख़ंजर की कसौटी पे उतरना सीखो 
सिफ़त-ख़ूबी , असबाक़-पाठों
*
कौन रक्खेगा ख़बर बाद में इस रिश्ते की
लाओ माँ-बाप की तस्वीर को उल्टा कर दूँ
*
अभी तो शक है ग़लत रहनुमाई करने का
हमें यक़ीन अगर हो गया तो क्या होगा
*
तन्हा रहने का सबब हो तो बहुत गहरा हो
वर्ना तन्हाई भी किरदार से गिर जाती है
*
जब से समझ में आया कि हम भी है आदमी
उस दिन से आदमी पे भरोसा नहीं किया
*
अना का बोझ भी रक्खा है मेरे शाने पर
ये हाथ काँप रहा है सलाम करते हुए
*
छोड़ कर खेल कैसे हट जाता
मैं जुआरी था और हार में था

बहुत कम किताबें ऐसी होती हैं जिन्हें पढ़ने के बाद आपका दिल कई दिनों तक दूसरी किताब उठाने को न करे। आप सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी में डूबे रहना चाहें। ऐसी किसी किताब का लिखने वाला अगर आपके लिए अनजान हो तो लुत्फ़ दुगना हो जाता है क्यूंकि नामी गरामी शायर से तो आपको उम्मीद होती ही है कि उसका कलाम क़ाबिले तारीफ़ होगा लेकिन जब अनजान शायर का क़लाम आपको झूमने पर मज़बूर कर दे तो वो ख़ुशी लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं हो सकती । इसे यूँ समझें कि अमूनन शराब की ब्रांड से हमें नशे का थोड़ा बहुत अंदाज़ा हो जाता है लेकिन अगर बोतल पर कोई ऐसा ब्रांड लिखा हो जिसे आपने कभी देखा सुना न हो और उसे पी कर उसका नशा उतरने का नाम न ले तो सोचिये उसका मज़ा क्या होगा ? 
उस्ताद शायर और संपादक 'तुफ़ैल चतुर्वेदी' साहब और आज के दौर के नौजवान बेहतरीन शायर लिप्यांतरकार जनाब 'इरशाद ख़ान सिकंदर' साहब ने मिल कर हमें जिस शायर से मुलाकात करवाई है उसे पढ़ कर दोनों को फ़र्शी सलाम करने को जी चाहता है। अगर ये दोनों आपस में न मिलते तो यकीन जानिये 'राजपाल एन्ड संस' वालों की 'सरहद आर-पार की शायरी' वाली ये श्रृंखला इतनी दिलकश न होती। दोनों ही शायरी के मर्मज्ञ हैं, जौहरी हैं लिहाज़ा इनके हाथ से जो निकलेगा वो बहुमूल्य ही होगा। 
इस श्रृंखला के एक आध शायर को छोड़ बाकि के सभी शायर ऐसे हैं जिन्हें हिंदी पाठकों ने शायद ही कभी पढ़ा हो. पाकिस्तानी शायरों को न पढ़ पाने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन अपने देश के ऐसे बेमिसाल शायरों को हिंदी के पाठक इसलिए नहीं पढ़ पाए क्यूंकि नंबर एक ,उनका काम सिर्फ उर्दू में ही शाया हुआ है नंबर दो ,उन्होंने अपनी शायरी के मयार से कभी समझौता नहीं किया इसलिए वो मुशायरों के मंच पर लोकप्रिय होने के लिए कही जाने वाली सतही और चौंकाने वाली शायरी से ताल मेल नहीं बिठा पाये। 

हमारे घर के ग़मों का कोई सवाल नहीं
सवाल ये है कि दरवाज़ा खोलना है अभी

अँधेरी रात का लम्बा सफ़र तो बाद में है
ये जगमगाता हुआ शहर काटना है अभी

तुम्हारे साथ गुज़ारे हुए महीनों से
तुम्हें निकालते रहने का सिलसिला है अभी

अच्छी और मेयारी शायरी कभी भुलाई नहीं जा सकती। वो कभी न कभी सामने आती ही है और लोगों के दिलो दिमाग़ पर छा जाती है। जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब इस किताब की भूमिका में इसी बात को अपने ख़ास अंदाज़ में यूँ बयाँ करते हैं ' ऐसी शायरी किस काम की जिसे स्टेज पर ड्रामेबाज़ी गायकी का सहारा लेना पड़े ? मुशायरे में ग़ज़ल गायकी के बल पर या कूल्हा लगाने से चल जायेगी मगर वक़्त तो बड़ी ज़ालिम चीज है। उसकी नज़र में जगह बनाने के लिए बड़ी मेहनत दरकार है। वो निर्मम है। किसी का लिहाज़ नहीं करता। किसी का ड्रामा ,गाना उसे याद नहीं रहता बक़ौल जनाब दिलावर फ़िगार साहब 'ये टेंटुआ तो किताबों में छप नहीं सकता'। "

जो चोट दे गए उसे गहरा तो मत करो
हम बेवक़ूफ़ है कहीं चर्चा तो मत करो

माना के तुमने शहर को सर कर लिया मगर
दिल जा-नमाज़ है इसे रस्ता तो मत करो
जा-नमाज़ -नमाज़ पढ़ने की चटाई

तामीर का जुनून मुबारक तुम्हें मगर
कारीगरों के हाथ तराशा तो मत करो
तामीर -निर्माण

आज हम जिस शायर की बात कर रहे हैं उसे अपने दौर के कद्दावर शायर, जो अपनी अदाकारी के बल पर मुशायरों की जान हुआ करते थे, ने अपने साथ मिलाने की भरसक कोशिश की ,लुभावने वादे किये लेकिन कामयाब नहीं हो सके। ऐसा क्या था इस शायर में कि उसे अपने दल  में शामिल करने के लिए इस नामचीन शायर को मिन्नतें करनी पड़ीं ? जवाब है -उसकी लाजवाब शायरी। ऐसी शायरी जो सामईन के दिलो-दिमाग पर हमेशा के लिए तारी हो जाय। मैं आपको उस कद्दावर शायर का नाम तो नहीं बताऊंगा लेकिन उस शायर का नाम जरूर बताऊंगा , जिसने किसी भी दल का हिस्सा बनने से साफ़ इंकार कर दिया जिसने कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया जो अगर चाहता तो किसी का पिछलग्गू बन कर दाम और नाम दोनों कमाता। अपनी शर्तों पे जीने वाले और अकेले चलने वाले इस अज़ीम शायर का नाम था जनाब 'अहमद कमाल परवाज़ी'. 
हिंदी पाठकों के लिए ही नहीं बल्कि उर्दू जानने वालों के लिए भी ' परवाज़ी' साहब का नाम बहुत जाना पहचाना नहीं है। मैंने उनके बारे में जानने के लिए गूगल खंगाला अपने शायर मित्रों से बात की लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। आखिर उनके छोटे बेटे 'नावेद परवाज़ी' मेरी मदद को सामने आये। उनकी बदौलत ही आज आप 'परवाज़ी' साहब के बारे में पढ़ पा रहे हैं। उनकी बाकमाल शायरी को देवनागरी में पहली बार 'सरहद के आर-पार की शायरी' किताब में शाया किया है राजपाल एन्ड संस् ने।      


तिरी ख़्वाहिश से ऊपर उठ रहा हूँ
यही लम्हा नतीजा हो गया तो
*
ग़म का अहसास नहीं है तो अधूरापन है
एक आंसू भी टपक जाए तो पूरा हो जाउँ
*
नायाब कोई चीज़ गुज़रती है तो हम लोग
ये सोचने लगते हैं हमारी तो नहीं है
*
सही तो ये था कि रस्ते में ख़ुश्क हो जाता 
बुरा तो ये है कि दरिया में गिर गया दरिया 
*
जो खो गया है कहीं ज़िन्दगी के मेले में
कभी-कभी उसे आँसू निकल के देखते हैं
*
चलो ये देख लें अब किसकी जीत होती है
मैं ख़ाली हाथ तिरे हाथ में निवाला है
*
खिलौने बाद में पहले तू इस रसीद से खेल
ऐ मेरे लाल तिरी फ़ीस भर के आया हूँ
*
शुरू में मैं भी इसे रौशनी समझता था
ये ज़िन्दगी है इसे हाथ मत लगा लेना
*
बच्चों की तरह तुमको बरतना नहीं आता
दुनिया तो हवाओं में उड़ाने के लिए है
*
वो अगर आज की माँ है तो थपकती कब है
तू अगर आज का दिल है तो धड़कता क्यों है

महाकाल की नगरी 'उज्जैन' में 11 मार्च 1944 को कमाल साहब का जन्म हुआ। आठ भाई बहनों में वो सातवें नंबर पर थे। पिता उज्जैन के किसी हॉस्पिटल में कम्पाउंडर थे, घर की माली हालत अच्छी न होते हुए भी उन्होंने अपने सभी बच्चों को बेहतरीन तालीम दिलवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कमाल साहब के बड़े भाई इक़बाल हुसैन हॉकी के जबरदस्त खिलाड़ी होने के साथ साथ शायरी भी करते थे। अपने दोस्तों के घरों पर अक्सर होने वाली नशिस्तों में इक़बाल साहब अपने साथ कमाल साहब को भी ले जाते। अपने भाई के कलाम पर मिलती वाहवाहियों से कमाल साहब बहुत खुश होते और खुद भी वैसा ही कुछ लिखने की कोशिश करते। बड़े भाई को कमाल साहब ने एक आध बार अपना लिखा दिखाया जिसे उन्होंने देख कर ख़ारिज कर दिया लेकिन कमाल साहब ने लिखना नहीं छोड़ा। कभी कभी तो वो अपने भाई के क़लाम में कमियां निकाल कर उसे अपनी छोटी बहन को सुनाया करते क्यूंकि बड़े भाई को बताने से डाँट का डर जो था। ग़ज़ल सीखने के लिए उन्होंने उज्जैन के शायर 'तुफ़ैल' साहब की शागिर्दी तो की लेकिन ये सिलसिला ज्यादा दिन चला नहीं। ज़्यादातर वो अपने लिखे को तब तक काटते छाँटते रहते जब तक उन्हें अपने कलाम से पूरी तसल्ली न हो जाती।         

इक रोज़ तुमसे हाथ मिलाने की आरज़ू
इतनी शदीद थी कि मिरे हाथ जल गये
शदीद : तीव्र

मेरी तरह से ट्रेन भी सुनसान हो गई
एक-एक करके सारे मुसाफ़िर निकल गये

ये उन दिनों की बात है जब दर्द दर्द था
अब तो हमारे ज़ख़्म भी सोने में ढल गये

कॉलेज के दिनों में उनकी दोस्ती कुछ ऐसे लोगों से हुई जो गुंडे किस्म के थे जो जुआ खेलते और हर किसी से झगड़ते फिरते थे। दोस्तों के कहने पर कमाल साहब एक कमरा किराये पर लेकर लोगों को जुआ खिलाने लगे लेकिन खुद कभी नहीं खेला। इससे उन्हें आमदनी होने लगी और अपनी जेब, जैसा कि उन्होंने अपने बेटे नावेद को बताया,अठ्ठनियों चवन्नियों से भरने लगे। एक दिन उन्हें लगा कि जो ज़ायका कभी बड़ी मुश्किल से हाथ आयी चवन्नी की चाय पीने में आता था वो लोगों को जुआ खिला कर हासिल हुई दौलत से मिली चाय में नहीं आता है । बस उसी दिन से उन्होंने जुआ खिलाना बंद कर दिया और पढाई में लग गए।
एम.ए. एल.एल.बी की डिग्री हासिल करने के बाद जिला सहकारी केंद्रीय बैंक मर्यादित की 'मकदोने' ब्रांच में नौकरी करने लगे। मकदोने उज्जैन से लगभग 60 की.मी. दूर एक गाँव है। शुरू में तो मकदोने  की हवा उन्हें रास नहीं आयी इसलिए वापस उज्जैन चले आये लेकिन जब घरवालों ने नौकरी छोड़ने पर ऐतराज़ किया तो वापस लौट गए। यहीं से उनकी शायरी के सफ़र का आगाज़ हुआ। गाँव की खुली आबोहवा, खेत खलियान, कच्ची पगडंडियां, किसान और उनके परिवारों की खुशियां, परेशानियां , मिटटी की सौंधी खुशबू सब उनकी शायरी में जगह पाने लगे। बैंक पहुँचने के लिए उन्हें साईकिल से लम्बा रास्ता तय करना पड़ता था और इस पूरे रास्ते में उनका दिमाग शेर बुनता रहता जिसे वो बैंक पहुँचते ही कागज़ पर उतार लेते थे। शायर वही बन सकता है जो धुनी हो, ये पार्ट टाइम जॉब नहीं है, शायर को चौबीसों घंटे शायरी में ही डूबे रहना पड़ता है। दुनियादारी के काम साथ साथ चलते रहते हैं और दिमाग शेर कहने में उलझा रहता है। ये तपस्या है, इसे जो जितनी शिद्दत से करता है उतना ही उसे इसका फल मिलता है। कमाल साहब के बिस्तर पर तकिये के पास हमेशा एक रजिस्टर और पैन पड़ा रहता था जिसमें वो रात कभी भी उठ कर अचानक आया ख्याल दर्ज़ कर लिया करते थे। 

तुझसे बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ 
जिसपे मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ

तुम मिरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
मैं अगर झूठ न बोलूं तो अकेला हो जाऊँ

मैं तिरी क़ैद को तस्लीम तो करता हूँ मगर
ये मेरे बस में नहीं है कि परिन्दा हो जाऊँ

वो तो अंदर की उदासी ने बचाया वर्ना
उनकी मर्ज़ी तो यही थी कि शगुफ़्ता हो जाऊँ
शगुफ़्ता- खुशहाल

समझौता परस्ती कमाल साहब की आदत का हिस्सा नहीं थी। वो जो करते हमेशा अपनी तरफ से परफेक्ट किया करते। चाहे कपड़े पहनने का शऊर हो, बैंक का काम हो, लोगों से मेल मुलाकात हो, दोस्तों से दोस्ती हो, रिश्तेदारों से रिश्तेदारी निबाहना हो या बच्चों की पढाई हो याने कोई काम हो वो उसे पूरी शिद्दत और ईमानदारी से करने की कोशिश करते। यही कारण है कि उनकी शायरी उनके समकालीन शायरों से बहुत अलग और असरदार है। इस किताब के बाहरी फ्लैप पर कमाल साहब की शायरी का निचोड़ कुछ यूँ बयाँ किया गया है "अहमद कमाल परवाज़ी की शायरी जैसे ज़िन्दगी की मुश्किलों से होड़ लेती हुई। तीखे तंज़ कसती हुई सबको होशियार,ख़बरदार करती हुई आगे बढ़ती है। परवाज़ी रवायतों को तोड़ते हुए अपनी ग़ज़लों में ऐसे ऐसे विषय पिरोते हैं जो शायद पहली बार उर्दू ग़ज़ल का हिस्सा बने हैं जैसे -रबी और खरीफ़ की फ़सल, बच्चों के स्कूल की फ़ीस,सियासत के दाँव-पेच, गाँव की ज़िन्दगी ---"
ये अलग बात है कि उन्हें इस शायरी की बदौलत वो मक़बूलियत हासिल नहीं हुई जिसके वो हक़दार थे। मक़बूलियत का दरअसल आपके हुनर से कोई सीधा रिश्ता नहीं होता कई बार ये तिकड़म या किस्मत से हासिल होती है ,ज़्यादातर ये भी देखा गया है कि हुनरमंद लोगों को मकबूलियत आसानी से मिलती भी नहीं क्यूंकि वो अपने वक़्त से बहुत आगे की सोच वाले होते हैं। दूसरी ख़ासियत जो कमाल साहब के बेटे 'नावेद' ने मुझे बताई वो ये कि'कमाल' साहब बहुत सकारात्मक सोच के इंसान थे। कैसे भी हालात हों उनकी सोच हमेशा पॉजिटिव रहती। हर हाल में खुश रहना और अपने साथ रहने वालों को हमेशा खुश रखना उन्हें आता था। हर किसी की मदद करने में उन्हें ख़ुशी हासिल होती थी। घर परिवार के लोग, रिश्तेदार,दोस्त जब कभी किसी मौके पर एक साथ इकठ्ठा होते तो कमाल साहब को पुकारते जो अपने जुमलों और किस्सों से सबके पेट में हँसा हँसा कर दर्द कर दिया करते। लोग उनकी ज़िंदादिली की मिसाल दिया करते थे। 

तिरे ख़िलाफ़ गवाही तो दे रहा हूँ मगर
दुआएँ मांग रहा हूँ तिरी रिहाई की
*
मेरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
लोग तो अब भी समझते हैं कि घर जाता हूँ
*
हम इत्तिफाक़ से दोनों ही झूठ बोलते थे
यही तो चीज़ तअल्लुक़ में एतबार की थी
*
कह तो देता हूँ यहाँ लोग मिरे अपने हैं
बाद में नाम बताने में उलझ जाता हूँ
*
रंजिशें कैसे छोड़ सकता हूँ
शहर में अजनबी न हो जाऊँ
*
मेरा दिल  भी किसान है या रब
इसका कर्ज़ा अदा नहीं होता
*
घाव की शक्ल में निकलता है
चाँद बरसात के ज़माने में
*
उम्र भर पेड़ लगाने का नतीजा रख दे
ला मिरे हाथ पे सूखा हुआ पत्ता रख दे
*
ये तो अच्छा है कि हक़ मार रहे हो लेकिन
इससे क्या होगा अभी और निखरना सीखो
*
इसमें जीने की तमन्ना ही अजब लगती है
प्यार तो डूब के मरने के लिये होता है 

एक तो रिटायरमेंट दूसरे तीनों बेटों का पढ़ लिख कर नौकरी के सिलसिले में घर छोड़ कर बाहर जाना बेटियों का आगे की पढाई के लिए हॉस्टल का रुख करना कमाल साहब को तन्हा कर गया। इसी बीच एक ऐसा हादसा भी हुआ जो उन्हें नागवार गुज़रा जिसका यहाँ ज़िक्र करना उनकी निजी ज़िन्दगी में घुसपैठ जैसी हरक़त कहलाएगी लेकिन उसकी वजह से उन्हें गहरा सदमा लगा और वो दिल की बीमारी पाल बैठे। इसका एहसास उन्हें अपने एक भाई के इंतेक़ाल के बाद हुआ जब वो उन्हें दफ़ना कर लौट रहे थे लेकिन अपनी खुद्दारी के चलते उन्होंने अपनी इस तक़लीफ़ का इज़हार किसी नहीं किया। उन्हें अल्लाह के सिवा और किसी से कभी कोई उम्मीद नहीं रखी। अपनी परेशानी किसी को बताने के हक़ में कभी नहीं रहे। 
 29 दिसम्बर 2007 शाम की बात है तीन बेटों में से मँझला बेटा जो ईदुल जुहा पर घर आया हुआ था कमाल साहब से गले मिल कर नौकरी पर वापस जाने के लिए अपने दोनों भाइयों के साथ रेलवे स्टेशन के लिए निकला।अभी तीनो भाई स्टेशन पहुँचे ही थे कि कमाल साहब के अज़ीज़ दोस्त जिया साहब का बड़े भाई के पास फोन आया कि वापस घर पहुंचो तुम्हारे अब्बा की तबियत नासाज़ है उन्हें ठंडा पसीना आ रहा है। तीनो भाई वापस लौटे तब तक कमाल साहब हॉस्पिटल पहुँच चुके थे। एक घंटे की मशक्कत के बाद डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उनके ज़नाज़े में जैसे लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा। भले ही उज्जैन के बाहर लोग उन्हें ज्यादा न जानते हों लेकिन वो अपने शहर के लोगों के लाडले थे। 
उनके इंतेक़ाल के बाद एक दिन जब उनके बड़े भाई ने, जिन्होंने कभी उनके क़लाम को ध्यान से नहीं पढ़ा था, अचानक उनकी एक किताब को पढ़ना शुरू किया तो पढ़ते चले गए और आखिर में भरे गले से बोले 'अफ़सोस कमाल इतने कमाल का शायर था ये मुझे आज पता चला' .काश अपने बड़े भाई के इस जुमले को सुनने के लिए उस वक्त कमाल मौजूद होते।    

पहले मालूम नहीं था कि सफ़र होते हैं
अब ये मालूम नहीं है कि सफ़र कितने हैं

एक पत्ती से भी महरूम उगाने वाला
काटने वाले के हाथों में शजर कितने हैं

कल तलक कितना परेशान था घर की ख़ातिर
आज घर छोड़ के निकला हूँ तो घर कितने हैं

कमाल साहब की उर्दू में दो किताबें प्रकाशित हुई थीं पहली 1988 में 'मुख़्तलिफ़' और दूसरी 2005 में 'बरकरार'. कमाल साहब की दिली ख़्वाइश थी कि उनकी ग़ज़लें देवनागरी में भी शाया हों लेकिन ऐसा हो नहीं सका। सं 2009 में उनके दोस्तों ने उनकी ग़ज़लों को देवनागरी में  'चाँदी का वरक़' नाम की किताब में छपवाया। अफ़सोस, ये किताब हिंदी पाठकों के हाथ जितनी पहुँचनी चाहिए थी पहुँच नहीं पायी।अब तो शायद ही ये बाज़ार में मिले। देवनागरी में उनकी श्रेष्ठ ग़ज़लें अब 'सरहद आर-पार की शायरी' में ही संकलित हैं। ये किताब हर ग़ज़ल प्रेमी के संग्रह में होनी चाहिए क्यूंकि इसमें संकलित ग़ज़लें बार बार पढ़ने लायक हैं बल्कि यूँ कहूँ कि हज़ार बार पढ़ने लायक हैं तो ग़लत नहीं होगा। 
आख़िर में आईये उनके चंद चुनिंदा अशआर आपको पढ़वाता चलता हूँ :
     
छोटी सी एक बात पर मंज़र बदल गए 
दामन फटा तो हाथ से रिश्ते निकल गये 
*
अंगूठे दे के उतारा गया ख़रीफ का बोझ 
रबीअ फ़स्ल में बाज़ू चुका दिए जाएँ 
*
मुझे बताओ क़ाबा किस तरफ है 
मैं हुज़रा छोड़ के चकरा गया हूँ 
*
पहले तो घर में रहने की आदत सी डाल दी 
अब कह रहे हैं कौम के धारे से कट गया 
*
बस एक पल में दो आलम तलाश कर लेना 
वो एक बार निगाहें उठा के देखेंगे 
*
ग़म के बगैर जश्न मुकम्मल न हो सका 
ऐसा लगा कि कोई मचलने से रह गया 
*
यहाँ का मसअला मिटटी की आबरू का नहीं 
यहाँ सवाल ज़मीनों पे इख़्तियार का है 
*
एक पागल है जो दिन भर यही चिल्लाती है 
मेरे भारत के लिए कौनसी बस जाती है 
*
मैंने किरदार से गिरते हुए लोगों की तरफ़ 
इतना देखा है कि कमज़ोर निगाहें कर लीं 
*
पाँव के नीचे फूल रख देगा 
ज़िन्दगी भर निकालते रहना