Monday, November 17, 2014

किताबों की दुनिया -102

उस पार से मुहब्बत आवाज़ दे रही है 
दरिया उफ़ान पर है दिल इम्तहान पर है 

ऊंचाइयों की हद पर जा कर ये ध्यान रखना 
अगला कदम तुम्हारा गहरी ढलान पर है 

'राजेंद्र' से भले ही वाक़िफ़ न हो ज़माना 
ग़ज़लो का उसकी चर्चा सबकी जुबान पर है 

हम अपनी आज की 'किताबों की दुनिया ' श्रृंखला में 2 मार्च 1960 में जन्मे उसी राजेंद्र तिवारी जी की किताब 'संभाल कर रखना 'की चर्चा करेंगे और जानेंगे कि क्यों उनकी ग़ज़लें सबकी जबान पर हैं।


उठाती है जो ख़तरा हर क़दम पर डूब जाने का 
वही कोशिश समन्दर में खज़ाना ढूंढ लेती है 

हक़ीक़त ज़िद किये बैठी है चकनाचूर करने को 
मगर हर आँख फिर सपना सुहाना ढूंढ लेती है 

न कारोबार है कोई , न चिड़िया की कमाई है 
वो केवल हौसले से आबो-दाना ढूंढ लेती है 

कानपुर निवासी राजेंद्र जी को शुरू से ही शोहरत की कोई लालसा नहीं रही न मंचो के माध्यम से न प्रकाशनों के लेकिन जिस तरह फूल को अपने खिलने की सूचना किसी को देनी नहीं होती उसकी खुशबू उसके खिलने का पता दे देती वैसे ही लगनशील रचनाकार की उत्कृष्ट रचनाएँ उसकी शोहरत स्वयं फैला देती हैं। ऐसे ही रचनाकारों में शुमार किये जाते हैं राजेंद्र तिवारी जी। फ़िक्र और फ़न के सम्यक सामंजस्य के कारण उनकी ग़ज़लें एक अलग छाप छोड़ती हैं।

गृहस्थी में कभी रूठें -मनायें ठीक है, लेकिन 
हो झगड़ा रोज़ तो घर की ख़ुशी को चाट जाता है 

सिमट कर जैसे आ जाये समंदर एक क़तरे में 
कोई ऐसा भी लम्हा है, सदी को चाट जाता है 

ग़ज़ल की परवरिश करने पे खुश होना होना तो लाज़िम है 
ग़ुरूर आ जाये तो फिर शायरी को चाट जाता है 

चेहरे पे खिचड़ी दाढ़ी, गहरी आवाज, आकर्षक लहजा, लहज़े में ग़ज़ब का आत्म विशवास औरगुरूर से कोसों दूर राजेंद्र जी का शायरी से लगाव 18 साल की उम्र से हो गया था जिसे संवारा और परवान चढ़ाया उनके गुरु और मार्गदर्शक स्व.पं कृष्णानन्द जी चौबे ने। उनके स्नेहनिल संरक्षण, सम्यक मार्गदर्शन और उत्साह वर्धन ने उनकी रचनात्मकता को निखारने के साथ ही फ़िक्र को ग़ज़ल के साँचे में ढालने की कला सिखाई।

पर्वत के शिखरों से उतरी सजधज कर अलबेली धूप 
फूलों फूलों मोती टाँके, कलियों के संग खेली धूप 

सतरंगी चादर में लिपटी जैसे एक पहेली धूप 
जाने क्यों जलती रहती है, छत पर बैठ अकेली धूप 

मुखिया के लड़के सी दिन भर मनमानी करती घूमे 
आँगन -आँगन ताके - झाँके फिर चढ़ जाय हवेली धूप 

अपनी बेहतरीन और दिलफरेब शायरी के लिए राजेंद्र जी को सन 2000 में अली अवार्ड से और 2001 में वाक़िफ़ रायबरेली सम्मान से नवाजा गया. इसके अलावा अनुरंजिका ,सौरभ ,मानस संगम इत्यादि अनेक साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। आपकी ग़ज़लों को देश की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे हंस, कथालोक, नवनीत, अक्षरा, इंद्र प्रस्थ भारती, कथन और गगनांचल इत्यादि में भी प्रकाशित किया गया है।

न जाने कौनसी तहज़ीब के तहत हमको 
सिखा रहें हैं वो ख़ंजर संभाल कर रखना 

ख़ुशी हो ग़म हो न छलकेंगे आँख से आंसू 
मैं जानता हूँ समंदर संभाल कर रखना 

तुम्हारे सजने संवरने के काम आएंगे 
मेरे ख्याल के ज़ेवर संभाल कर रखना 

भला हो मेरे मुंबई निवासी शायर मित्र सतीश शुक्ला 'रकीब' साहब का जिनके माध्यम से मुझे राजेंद्र जी और उनकी की शायरी को जानने का मौका मिला। उत्तरा बुक्स केशम् पुरम दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस ग़ज़ल संग्रह में राजेंद्र जी की 101 ग़ज़लें संगृहीत हैं जिसे 09868621277 पर फोन कर प्राप्त किया जा सकता है। आप राजेंद्र जी से 9369810411 पर संपर्क कर के भी इस किताब को प्राप्त कर सकते हैं।

पत्थरोँ से सवाल करते हैं 
आप भी क्या कमाल करते हैं 

खुशबुएँ क़ैद हो नहीं सकतीं 
क्यों गुलों को हलाल करते हैं 

वे जो दावे कभी नहीं करते 
सिर्फ वे ही कमाल करते हैं 

बिना कोई दावा किये कमाल करने वाले इस सच्चे और अच्छे शायर की ये किताब हर शायरी प्रेमी पाठक को पढ़नी चाहिए ताकि इस बात की पुष्टि हो कि बाजार से समझौता किये बिना भी उम्दा शायरी के दम पर मकबूलियत हासिल की जा सकती है।
चलते चलते आईये पढ़ते हैं उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर और निकलते हैं एक और किताब की तलाश में :

दर्द के हरसिंगार ज़िंदा रख 
यूँ ख़िज़ाँ में बहार ज़िंदा रख 

ज़िन्दगी बेबसी की कैद सही 
फिर भी कुछ इख़्तियार ज़िंदा रख 

ख्वाइशें मर रही हैं, मरने दे 
यार खुद को न मार , ज़िंदा रख 

गर उसूलों की जंग लड़नी है 
अपनी ग़ज़लों की धार ज़िंदा रख

Monday, October 27, 2014

अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं


दिपावली के शुभ अवसर पर पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरे का सफल आयोजन हुआ ,उसी में प्रस्तुत खाकसार की ग़ज़ल 

दुबक के ग़म मेरे जाने किधर को जाते हैं 
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं 

हज़ार बार कहा यूँ न देखिये मुझको 
हज़ार बार मगर, देख कर सताते हैं 

उदासियों से मुहब्बत किया नहीं करते 
हुआ हुआ सो हुआ भूल, खिलखिलाते हैं 

हमें पता है कि मौका मिला तो काटेगा 
हमीं ये दूध मगर सांप को पिलाते हैं 

कमाल लोग वो लगते हैं मुझ को दुनिया में 
जो बात बात पे बस कहकहे लगाते हैं 

जहाँ बदल ने की कोशिश करी नहीं हमने 
बदल के खुद ही जमाने को हम दिखाते हैं 

बहुत करीब हैं दिल के मेरे सभी दुश्मन 
निपटना दोस्तों से वो मुझे सिखाते हैं 

गिला करूँ मैं किसी बात पर अगर उनसे 
तो पलट के वो मुझे आईना दिखाते हैं 

रहो करीब तो कड़ुवाहटें पनपती हैं 
मिठास रिश्तों की कुछ फासले बढ़ाते हैं 

नहीं पसंद जिन्हें फूल वो सही हैं, मगर 
गलत हैं वो जो सदा खार ही उगाते हैं 

ये बादशाह दिए रोंध कर अंधेरों को 
गुलाम मान के, अपने तले दबाते हैं 

बहुत कठिन है जहां में सभी को खुश रखना 
कि लोग रब पे भी अब उँगलियाँ उठाते हैं 

जिसे अंधेरों से बेहद लगाव हो 'नीरज' 
चराग सामने उसके नहीं जलाते हैं

Monday, October 6, 2014

किताबों की दुनिया - 101


इंसान में हैवान , यहाँ भी है वहां भी 
अल्लाह निगहबान, यहाँ भी है वहां भी 

रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत 
हर खेल का मैदान , यहाँ भी है वहां भी 

हिन्दू भी मज़े में हैं, मुसलमां भी मज़े में 
इन्सान परेशान , यहाँ भी है वहां भी 

अपने और सरहद पार के मुल्क में जो समानता है उसको हमारी "किताबों की दुनिया " के 100 वें शायर के अलावा शायद ही किसी और शायर ने इतनी ख़ूबसूरती और बेबाकी से पेश किया हो। सुधि पाठक इस बात से चौंक सकते हैं कि जब ये इस श्रृंखला की 101 वीं कड़ी है तो फिर शायर 100 वें कैसे हुए ? सीधी सी बात है हमने ही तुफैल में या समझें जानबूझ कर हमारे शहर और बचपन के साथी राजेश रेड्डी का जिक्र दो बार कर दिया था जो इस श्रृंखला की अघोषित नीति के अनुसार गलत बात थी। अब जो हो गया सो हो गया, उस बात को छोड़ें और जिक्र करें हमारे आज के शायर का जो इस दौर के सबसे ज्यादा पढ़े और सुने जाने वाले शायरों में से एक हैं। शायर का नाम बताने से पहले पढ़िए उनकी ये रचना जिसे पढ़ कर मुझे यकीन है आप फ़ौरन जान जायेंगे कि मैं आज किस शायर की किताब का जिक्र करने वाला हूँ :-

बेसन की सौंधी रोटी पर ,खट्टी चटनी जैसी माँ 
याद आती है चौका-बासन, चिमटा, फुकनी -जैसी माँ

बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में 
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी - जैसी माँ 

बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गयी 
फ़टे  पुराने इक अलबम में चंचल लड़की - जैसी माँ 


"निदा फ़ाज़ली " - एक दम सही जवाब और किताब है साहित्य अकादमी पुरूस्कार से सम्मानित "खोया हुआ सा कुछ ". ग़ज़ल हो या नज़्म,गीत हो या दोहे हर विधा में रचनाकार निदा फ़ाज़ली अपनी सोच,शिल्प, और अंदाज़े बयां में दूसरों से अलग ही दिखाई नहीं देते , पूरी उर्दू शायरी में अकेले नज़र आते हैं। इस किताब की अधिकतर रचनाओं मसलन " कहीं कहीं पे हर चेहरा तुम जैसा लगता है ", "ग़रज़-बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला" ,"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफर के हम हैं" ,"धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो", "मुंह की बात सुने हर कोई", आदि को जगजीत सिंह जी ने अपने स्वर में ढाल कर हर खास-ओ-आम तक पहुंचा दिया है इसीलिए हम आज उनकी उन ग़ज़लों का जिक्र करेंगे जो इनसब से अलग हैं :

निकल आते हैं आंसू हँसते - हँसते 
ये किस ग़म की कसक है हर ख़ुशी में 

गुज़र जाती है यूँ ही उम्र सारी 
किसी को ढूंढते हैं हम किसी में 

सुलगती रेत में पानी कहाँ था 
कोई बादल छुपा था तिश्नगी में 

बहुत मुश्किल है बंजारा मिज़ाजी 
सलीका चाहिए आवारगी में 

आधुनिक शायर निदा फ़ाज़ली साहब की आधुनिकता उनके पाठकों और श्रोताओं से कभी दूर नहीं होती। निदा जी की पहचान उनकी सरल सहज ज़मीनी भाषा है जिसमें हिंदी उर्दू का फर्क समाप्त हो जाता है और यही उनकी लोकप्रियता का राज़ भी है ।

उठके कपडे बदल , घर से बाहर निकल , जो हुआ सो हुआ 
रात के बाद दिन , आज के बाद कल , जो हुआ सो हुआ 

जब तलक सांस है, भूख है प्यास है , ये ही इतिहास है  
रख के काँधे पे हल , खेत की और चल , जो हुआ सो हुआ 

मंदिरों में भजन, मस्जिदों में अजां , आदमी है कहाँ 
आदमी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल, जो हुआ सो हुआ 

किताब के रैपर पर सही लिखा है कि ' निदा फ़ाज़ली की शायरी एक कोलाज़ के सामान है। इसके कई रंग और रूप हैं। किसी एक रुख से इसकी शिनाख्त मुमकिन नहीं। उन्होंने ज़िन्दगी के साथ कई दिशाओं में सफर किया है उनकी शायरी इस सफर की दास्तान है। जिसमें कहीं धूप कहीं छाँव है कहीं शहर कहीं गाँव है। '

इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी 
रात जंगल में कोई शमअ जलाने से रही 

फासला चाँद बना देता है हर पत्थर को 
दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही 

शहर में सबको कहाँ मिलती है रोने की जगह 
अपनी इज़्ज़त भी यहाँ हंसने हंसाने से रही 

12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली के एक कश्मीरी परिवार में जन्में निदा की स्कूली शिक्षा ग्वालियर में हुई। 1947 के भारत पाक विभाजन में उनके माता पिता पाकिस्तान चले गए जबकि निदा भारत में रहे। बचपन में एक मंदिर के पास से गुज़रते हुए उन्होंने सूरदास का भजन किसी को गाते हुए सुना और उससे प्रभावित हो कर वो भी कवितायेँ लिखने लगे। रोजी रोटी की तलाश उन्हें 1964 में मुंबई खींच लायी जहाँ वो धर्मयुग और ब्लिट्ज के लिए नियमित रूप से लिखने लगे।

हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं ज़माने के लिए 
घर से बाहर की फ़िज़ा हंसने हंसाने के लिए 

मेज़ पर ताश के पत्तों सी सजी है दुनिया 
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए 

तुमसे छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था 
तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए 

मुंबई की फ़िल्मी दुनिया ने भी उनकी लेखन प्रतिभा को पहचाना और उन्हें फिल्मों में गीत और स्क्रिप्ट लेखन का मौका दिया। फिल्म 'रज़िया सुलतान' के लिए लिखे उनके गानों ने धूम मचा दी। फ़िल्मी गीत लिखने में स्क्रिप्ट और मूड की बाध्यता उन्हें रास नहीं आई। वो लेखन को भी चित्रकारी और संगीत की तरह सीमा में बंधी हुई विधा नहीं मानते। इसी कारण उनका फ़िल्मी दुनिया से नाता सतही तौर पर ही रहा।

याद आता है सुना था पहले 
कोई अपना भी खुदा था पहले 

जिस्म बनने में उसे देर लगी 
इक उजाला सा हुआ था पहले 

अब किसी से भी शिकायत न रही 
जाने किस किस से गिला था पहले 

निदा साहब की हिंदी उर्दू गुजराती में लगभग 24 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।"खोया हुआ सा कुछ" देवनागरी में उनके "मोर नाच" के बाद दूसरा संकलन है जिसे "वाणी प्रकाशन " दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस संकलन में निदा साहब की चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा उनकी नज़्में और दोहे भी शामिल हैं।

निदा साहब को सन 1998 में साहित्य अकादमी और 2013 पद्म श्री के पुरूस्कार से नवाज़ा गया है। इसके अलावा भी खुसरो पुरूस्कार ( म,प्र ), मारवाड़ कला संगम (जोधपुर), पंजाब असोसिएशन (लुधियाना), कला संगम (मद्रास ), हिंदी -उर्दू संगम ( लखनऊ ), उर्दू अकेडमी (महाराष्ट्र), उर्दू अकेडमी ( बिहार) और उर्दू अकेडमी (उ.प्र ) से भी सम्मानित किया जा चुका है.
चलिए चलते चलते उनके उन दोहों का आनंद भी ले लिया जाय जिन्हें जगजीत सिंह जी ने नहीं गाया है और उनकी बहुमुखी प्रतिभा को सलाम करते हुए अगले शायर की तलाश पर निकला जाए।

जीवन भर भटका किये , खुली न मन की गाॅंठ 
उसका रास्ता छोड़ कर , देखी उसकी बाट 
**** 
बरखा सब को दान दे , जिसकी जितनी प्यास 
मोती सी ये सीप में, माटी में ये घास 
**** 
रस्ते को भी दोष दे, आँखे भी कर लाल 
चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल 
**** 
मैं क्या जानू तू बता तू है मेरा कौन 
मेरे मन की बात को, बोले तेरा मौन

Wednesday, September 17, 2014

किताबों की दुनिया - 100

मुंह पर मल कर सो रहे काली कीचड़ ज़िन्दगी 
जैसे यूँ धुल जाएँगी होने की रूसवाइयां 

गिर कर ठंडा हो गया हिलता हाथ फकीर का 
जेबों में ही रह गयीं सब की नेक कमाईयां 

फिरता हूँ बाज़ार में , रुक जाऊं लेता चलूँ 
उसकी खातिर ब्रेज़ियर , अपने लिए दवाइयाँ 

चलता -फिरता गोद में नीला गोला ऊन का 
गर्म गुलाबी उँगलियाँ , गहरी सब्ज़ सलाइयां 

कहन में अलग अंदाज़ और नए लफ़्ज़ों के प्रयोग के कारण अपने बहुत से साथी शायरों की आँख की किरकिरी बने पाकिस्तान के जिस शायर की किताब ' बिखरने के नाम पर ' का जिक्र हम आज करने जा रहे हैं उनका नाम है 'ज़फर इक़बाल '


रात फिर आएगी, फिर ज़ेहन के दरवाज़े पर 
कोई मेहँदी में रचे हाथ से दस्तक देगा 

धूप है , साया नहीं आँख के सहरा में कहीं 
दीद का काफिला आया तो कहाँ ठहरेगा 
दीद : दृष्टि 

आहट आते ही निगाहों को झुका लो कि उसे 
देख लोगे तो लिपटने को भी जी चाहेगा 

पाकिस्तान के ओकारा में 1933 को जन्में ज़फ़र साहब ने पिछले चार दशकों में जितना लिखा है उतना आज के दौर के किसी और उर्दू शायर ने शायद ही लिखा हो। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल की पारम्परिक भाषा उसके रूपकों, प्रतीकों, उपमाओं और दूसरे बंधे बंधाये सांचो को तोड़ते हुए अपनी अलग ही ज़मीन तैयार की। शायरी में नए प्रयोग किये जो बहुत सफल रहे।

जिस्म जो चाहता है, उससे जुदा लगती हो 
सीनरी हो मगर आँखों को सदा लगती हो 
सदा : आवाज़ 

सर पे आ जाये तो भर जाए धुंआ साँसों में 
दूर से देखते रहिये तो घटा लगती हो 

ऐसी तलवार अँधेरे में चलाई जाए 
कि कहीं चाहते हों, और कहीं लगती हो 

छठी दहाई में उभरने वाले शायरों में ज़फर इक़बाल सबसे चर्चित शायर रहे हैं। उन्होंने बोलचाल की शैली को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रस्तुत किया और रचनात्मक स्तर पर एक नयी काव्यात्मक भाषा की रचना की। उनकी ग़ज़लों में कुछ बातें अटपटी जरूर लगती हैं लेकिन ये सभ्य समाज की अलंकृत भाषा एवं काल्पनिक विषयों से आगे आम आदमी की मानसिक स्थिति की सीधी अभिव्यक्ति करती हैं।

कोई सूरत निकलती क्यों नहीं है 
यहाँ हालत बदलती क्यों नहीं है 

ये बुझता क्यों नहीं है उनका सूरज 
हमारी शमअ जलती क्यों नहीं है 

अगर हम झेल ही बैठे हैं इसको 
तो फिर ये रात ढलती क्यों नहीं है 

मुहब्बत सर को चढ़ जाती है, अक्सर 
मेरे दिल में मचलती क्यों नहीं है 

'वाणी प्रकाशन' दिल्ली से प्रकाशित 'ज़फर' साहब की पहली देवनागरी भाषा में छपी शायरी की इस किताब में उनके छ: अलग अलग संग्रहों से चुनी हुई ग़ज़लों को संकलित किया गया है। ज़फर साहब की शायरी को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने का भागीरथी प्रयास जनाब 'शहरयार' और 'महताब हैदर नकवी' साहब ने मिल कर किया है।

जिस से चाहा था, बिखरने से बचा ले मुझको 
कर गया तुन्द हवाओं के हवाले मुझ को 
तुन्द : तेज़ 

मैं वो बुत हूँ कि तेरी याद मुझे पूजती है 
फिर भी डर है ये कहीं तोड़ न डाले मुझको 

मैं यहीं हूँ इसी वीराने का इक हिस्सा हूँ 
जो जरा शौक से ढूढ़ें वही पा ले मुझको 

ज़फर साहब को पूरा पढ़ने की हसरत रखने वालों को उर्दू पढ़ना आना जरूरी है क्यों की उनकी कुलियात जो चार भागों में 'अब तक ' के शीर्षक से छपी है उर्दू में है। हालाँकि उन्होंने जितना लिखा है उसका एक छोटा सा अंश ही इस किताब में शामिल है फिर भी इस किताब में छपी उनकी सवा सौ ग़ज़लें पढ़ कर उनकी शायरी के मिज़ाज़ का अंदाज़ा उसी तरह हो जाता है जैसे कुऐं के पानी के स्वाद का उसकी एक बूँद चखने से हो जाता है।

खोलिए आँख तो मंज़र है नया और बहुत 
तू भी क्या कुछ है मगर तेरे सिवा और बहुत 

जो खता की है जज़ा खूब ही पायी उसकी 
जो अभी की ही नहीं, उसकी सज़ा और बहुत 
जज़ा : नेकी का बदला 

खूब दीवार दिखाई है ये मज़बूरी की 
यही काफी है बहाने न बना, और बहुत 

सर सलामत है तो सज़दा भी कहीं कर लूँगा 
ज़ुस्तज़ु चाहिए , बन्दों को खुदा और बहुत 

अंत में अपने पाठकों का मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ जिनके लगातार उत्साह वर्धन, सहयोग और प्रेम ने मुझे इस श्रृंखला को 100 के जादुई आंकड़े तक पहुँचाने में मदद की।

Monday, September 1, 2014

किताबों की दुनिया - 99

नर्म लहज़े में दर्द का इज़हार
गो दिसंबर में जून की बातें 
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जुर्म था पर बड़े मज़े का था 
जिसको चाहा वो दूसरे का था 
**** 
ज़ेहन की झील में फिर याद ने कंकर फेंका 
और फिर छीन लिया चैन मिरे पानी का
**** 
जब भी चाहें उदास हो जाएँ 
शुक्र है इतना इख़्तियार मिला 
**** 
कोई मंज़िल न मुझको रोक सकी 
खुद मिरा घर भी मेरी राह में है 
**** 
जो छुपाने की थी बात बता दी मुझको 
ज़िन्दगी तूने बहुत सख्त सज़ा दी मुझको 

हमारी "किताबों की दुनिया " श्रृंखला की ये पोस्ट इस लिहाज़ से अनूठी है कि हमारे आज के शायर के मशहूर वालिद साहब की किताब का जिक्र भी हम इस श्रृंखला में पहले कर चुके हैं। इस श्रृंखला में पिता के बाद उसके पुत्र की किताब का जिक्र पहली बार हो रहा है । मज़े की बात ये है कि इनके बड़े भाई भी आज हिन्दुस्तानी फिल्मों के बहुत बड़े लेखक और गीतकार हैं और साथ ही बेहतरीन शायर भी। इस शायर के नाम पर से पर्दा उठे उस से पहले आईये एक नज़र उनकी एक ग़ज़ल के इन शेरों पर डाल लें :

अंदर का शोर अच्छा है थोड़ा दबा रहे 
बेहतर यही है आदमी कुछ बोलता रहे 

मिलता रहे हंसी ख़ुशी औरों से किस तरह 
वो आदमी जो खुद से भी रूठा हुआ रहे 

बिछुडो किसी से उम्र भर ऐसे कि उम्र भर 
तुम उसको ढूंढो और वो तुम्हें ढूंढता रहे 

उस्ताद शायर जाँ निसार अख्तर के 31 जुलाई 1946 को लखनऊ में जन्में बेटे और जावेद अख्तर साहब के छोटे भाई "सलमान अख्तर" साहब की किताब "नदी के पास " का जिक्र हम आज इस श्रृंखला में करेंगे। ज़ाहिर सी बात है सलमान साहब को अदबी माहौल विरासत में मिला।


कौन समझा कि ज़िन्दगी क्या है 
रंज होता है क्यों, ख़ुशी क्या है 

जिन के सीनों पे ज़ख्म रोशन हों 
उनके रातों की तीरगी क्या है 

लोग, किस्मत, खुदा, समाज, फ़लक 
आगे इन सबके आदमी क्या है 

हम बहुत दिन जियें हैं दुनिया में 
हम से पूछो कि ख़ुदकुशी क्या है 

बहुत ज्यादा के हकदार इस बेहतरीन शायर की चर्चा बहुत कम हुई है क्यों की 'शायद उन्हें अपने आपको बेचने का हुनर नहीं आया। सलमान साहब पर उनकी माँ 'सफ़िया ' की बीमारी का बहुत गहरा असर हुआ शायद इसीलिए उन्होंने पांच साल की कच्ची उम्र में में डाक्टर बनने की ठान ली। पहले उन्होंने कॉल्विन तालुकदार कालेज से पढाई की और फिर अलीगढ विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान चिकित्सा में एम.डी की डिग्री हासिल की.

कब लौट के आओगे बता क्यों नहीं देते 
दीवार बहानों की गिरा क्यों नहीं देते 

तुम पास हो मेरे तो पता क्यों नहीं चलता 
तुम दूर हो मुझसे तो सदा क्यों नहीं देते 

बाहर की हवाओं का अगर खौफ है इतना 
जो रौशनी अंदर है, बुझा क्यों नहीं देते 

सलमान साहब ने अपनी शायरी की शुरुआत अपने बड़े भाई जावेद से पहले ही कर दी थी तभी तो जावेद साहब ने उनकी इस हिंदी-उर्दू लिपि में छपी किताब की भूमिका में लिखा है कि "उम्र में तो ये मुझसे कोई ढेढ़ साल छोटा है लेकिन शायरी में मुझसे पूरे दस साल बड़ा है " इनकी पहली किताब जो सं 1976 में प्रकाशित हुई थी जिसका आमुख उनके वालिद जाँ निसार अख्तर साहब ने लिखा था।

तीर पहुंचे नहीं निशानों पर 
ये भी इल्ज़ाम है कमानों पर 

जिस ने लब सी लिए सदा के लिए 
उसका चर्चा है सब ज़बानों पर 

सर झुकाये खड़े हैं सारे पेड़ 
और फल सज गए दुकानों पर 

सच की दौलत न हाथ आई कभी 
उम्र कटती रही बहानों पर 

मनो विज्ञान विषय पर उनकी 13 किताबें और 300 से अधिक आलेख विभिन्न देशों के मेडिकल जर्नल्स में छप कर प्रसिद्धि पा चुके हैं। शायरी में 'नदी के पास' उनका तीसरा संकलन है जो "कूबकू " और 'दूसरा घर " के बाद शाया हुआ है। ये किताब देवनागरी और उर्दू दोनों लिपियों में प्रकाशित हुई है. इस किताब में सलमान साहब की कुछ नज़्में और पचास के ऊपर ग़ज़लें संग्रहित हैं।

थोड़े बड़े हुए तो हकीकत भी खुलगयी 
स्कूल में सुना था कि भारत महान है 

देखूं मिरे सवाल का देता है क्या जवाब 
सुनता हूँ आदमी बड़ा जादू बयान है 


गो देखने में मुझसे बहुत मुख्तलिफ है वो 
अंदर से उसका हाल भी मेरे समान है 

सन 2004 में स्टार पब्लिकेशन 4 /5 आसफ अली रोड नई दिल्ली -110002 द्वारा प्रकाशित इस किताब को मंगवाने के लिए आपके पास सिवा उन्हें पत्र लिखने के और कोई दूसरा रास्ता मुझे नहीं मालूम। मुझे ये किताब अलबत्ता उभरती शायरा और स्थापित कवयित्री "पूजा प्रीत भाटिया ' जी के सौजन्य से प्राप्त हुई थी बहुत ही दिलकश अंदाज़ में जावेद अख्तर द्वारा लिखी भूमिका और सलमान साहब की बेहतरीन ग़ज़लों को समेटे ये किताब हर शायरी के प्रेमी को पढ़नी चाहिए। आखिर में सलमान साहब की एक ग़ज़ल के ये शेर आपके हवाले कर मैं अब चलता हूँ अगली किताब की तलाश में। खुश रहें।

फर्क इतना है कि आँखों से परे है वर्ना 
रात के वक्त भी सूरज कहीं जलता होगा 

खिड़कियां देर से खोलीं, ये बड़ी भूल हुई 
मैं ये समझा था कि बाहर भी अँधेरा होगा 

कौन दीवानों का देता है यहाँ साथ भला 
कोई होगा मिरे जैसा तो अकेला होगा


Monday, August 18, 2014

किताबों की दुनिया - 98


अक्सर मुझे ही शायरी की किताब ढूंढने के लिए इधर उधर भटकना पड़ता है , बहुत सी किताबें देखता हूँ ,खरीदता हूँ पढता हूँ और उन में से मुझे जो किताब पसंद आती है उसका जिक्र अपनी इस 'किताबों की दुनिया' श्रृंखला में करता हूँ। ये सिलसिला पिछले छै:- सात सालों से लगातार चल रहा है। कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोई किताब भी मुझे अचानक ढूंढ लेती है। और जब ऐसा होता है तो उस ख़ुशी को बयां करना लफ़्ज़ों के बस में नहीं होता।

नतीजा कुछ न निकला उनको हाल-दिल सुनाने का 
वो बल देते रहे आँचल को ,बल खाता रहा आँचल 

इधर मज़बूर था मैं भी, उधर पाबन्द थे वो भी 
खुली छत पर इशारे बन के लहराता रहा आँचल 

वो आँचल को समेटे जब भी मेरे पास से गुज़रे 
मिरे कानों में कुछ चुपके से कह जाता रहा आँचल 

दरअसल हुआ यूँ कि इंदौर निवासी कामयाब कवयित्री और उभरती शायरा ' पूजा भाटिया 'प्रीत' जो अब नवी मुंबई के बेलापुर बस गयी हैं ,ने अपने घर एक दिन चाय पे बुलाया। उनके पति 'पंकज' जो खुद कविता और शायरी के घनघोर प्रेमी हैं ने अपने हाथ से बनाई लाजवाब नीम्बू वाली चाय पिलाई। गपशप के दौरान जब किताबों का जिक्र आया तो उन्होंने ने कहा कि नीरज जी आज आपको हम एक ऐसे शायर की किताब पढ़ने को देते हैं जिसे आपने अभी तक अपनी किताबों की दुनिया श्रृंखला में शामिल नहीं किया है। अंधे को क्या चाहिए ? दो आँखें। तो साहब आज मैं उसी किताब का जिक्र कर रहा हूँ जिसका शीर्षक है "याद आऊंगा " और शायर हैं जनाब 'राजेंद्र नाथ रहबर '


तू कृष्ण ही ठहरा तो सुदामा का भी कुछ कर 
काम आते हैं मुश्किल में फ़क़त यार पुराने 

फाकों पे जब आ जाता है फ़नकार हमारा 
बेच आता है बाजार में अखबार पुराने 

देखा जो उन्हें एक सदी बाद तो 'रहबर ' 
छालों की तरह फूट पड़े प्यार पुराने 

शकरगढ़ पाकिस्तान में पैदा हुए रहबर साहब मुल्क के बटवारे के बाद अपने माता -पिता के साथ पठानकोट में चले आये और यहीं के हो कर रह गए.हिन्दू कॉलेज अमृतसर से बी.ऐ , खालसा कॉलेज अमृतसर से एम.ए और पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से एल.एल बी के इम्तिहान पास किये। शायरी का शौक उन्हें लकड़पन से ही हो गया जो फिर ता-उम्र उनका हमसफ़र रहा।

आइना सामने रक्खोगे तो याद आऊंगा 
अपनी जुल्फों को संवारोगे तो याद आऊंगा 

ध्यान हर हाल में जाएगा मिरि ही जानिब 
तुम जो पूजा में भी बैठोगे तो याद आऊंगा 

याद आऊंगा उदासी की जो रुत आएगी 
जब कोई जश्न मनाओगे तो याद आऊंगा 

शैल्फ में रक्खी हुई अपनी किताबों में से 
कोई दीवान उठाओगे तो याद आऊंगा 

मशहूर शायर 'प्रेम कुमार बर्टनी' फरमाते हैं कि 'राजेंद्र नाथ' के अशआर निहायत पाकीज़ा , सच्चे और पुर ख़ुलूस हैं और उनकी शायरी किसी गुनगुनाती हुई नदी की लहरों पर बहते हुए उस नन्हे दिए की मानिंद है जो किसी सुहागिन ने अपने रंग भरे हाथों से बहुत प्यार के साथ गंगा की गोद के हवाले किया हो। आप हो सकता है 'रहबर' साहब के नाम से अधिक वाकिफ न हों लेकिन अगर आप ग़ज़ल प्रेमी हैं और जगजीत सिंह जी को सुने हैं तो उनकी ये नज़्म जरूर आपके ज़हन में होगी :

तेरे खुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे 
प्यार में डूबे हुए ख़त मैं जलाता कैसे 
तेरे हाथों के लिखे ख़त मैं जलाता कैसे 
तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूँ 
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ 

इस नज़्म से रहबर साहब को वो मकबूलियत हासिल हुई जो जनाब हफ़ीज़ जालंधरी को ' अभी तो मैं जवान हूँ ...." और साहिर लुधियानवी साहब को 'ताजमहल' से हुई थी। ऐसी ही कई और बेमिसाल नज़्में और ग़ज़लें कहने का फ़न आपने पंजाब के उस्ताद शायर प. रतन पंडोरवी जी की शागिर्दी में सीखा।

दुनिया को हमने गीत सुनाये हैं प्यार के 
दुनिया ने हमको दी हैं सज़ाएं नयी नयी 

ये जोगिया लिबास , ये गेसू खुले हुए 
सीखीं कहाँ से तुमने अदाएं नयी नयी 

जब भी हमें मिलो ज़रा हंस कर मिला करो 
देंगे फकीर तुम को दुआएं नयी नयी 

उर्दू ज़बान की टिमटिमाती लौ को जलाये रखने का काम रहबर साहब ने खूब किया है. उनकी सभी किताबें 'तेरे खुशबू में बसे खत' , 'जेबे सुखन' ,' ..... और शाम ढल गयी' 'मल्हार', 'कलस' और 'आग़ोशे गुल ' उर्दू ज़बान में ही प्रकाशित हुई थीं। 'याद आऊंगा ' उनकी देवनागरी में छपी पहली किताब है , जो यक़ीनन हिंदी में शायरी पढ़ने वालों को खूब पसंद आ रही है क्यूंकि इसमें शायरी की वो ज़बान है जो आजकल पढ़ने को कम मिलती है

तुम जन्नते कश्मीर हो तुम ताज महल हो
'जगजीत' की आवाज़ में ग़ालिब की ग़ज़ल हो 

हर पल जो गुज़रता है वो लाता है तिरी याद 
जो साथ तुझे लाये कोई ऐसा भी पल हो 

मिल जाओ किसी मोड़ पे इक रोज अचानक 
गलियों में हमारा ये भटकना भी सफल हो 

किसी भी ज़बान को ज़िंदा रखने के लिए जरूरी है कि उसे अवाम के करीब तर लाया जाय लिहाज़ा रहबर साहब ने अपनी उर्दू ग़ज़लों में भारी भरकम अल्फ़ाज़ इस्तेमाल नहीं किये हैं। सादगी और रेशमी अहसास उनकी हर ग़ज़ल में पढ़ने को मिलते हैं। अपनी पूरी शायरी में वो एक बेहतरीन इंसान, दोस्त और पुर ख़ुलूस रूमानी शायर के रूप में उभर कर सामने आते हैं.

शायरी और खास तौर पर उर्दू साहित्य को अपनी अनोखी प्रतिभा से चार चाँद लगाने वाले रहबर साहब को हाल ही में पंजाब सरकार ने अपने सर्वोच्च साहित्यक पुरूस्कार 'शिरोमणि उर्दू साहित्यकार अवार्ड ' से सम्मानित किया है। दूरदर्शन द्वारा उन पर निर्मित 23 मिनट की डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बनाई गयी है जिसे डी डी पंजाबी व् डी डी जालंधर केन्द्रों से प्रसारित किया गया है। 

फेंका था जिस दरख़्त को कल हमने काट के 
पत्ता हरा फिर उस से निकलने लगा है यार 

ये जान साहिलों के मुकद्दर संवर गए 
वो ग़ुस्ले-आफताब को चलने लगा है यार 
ग़ुस्ले-आफताब = सन बॉथ ( सूर्य -स्नान ) 

उठ और अपने होने का कुछ तो सबूत दे 
पानी तो अब सरों से निकलने लगा है यार 

दर्पण पब्लिकेशन बी -35 /117 , सुभाष नगर , पठानकोट -145001 द्वारा प्रकाशित इस किताब इस किताब में 'रहबर' साहब की सौ से अधिक ग़ज़लें संकलित की गयी हैं। दर्पण वालों ने इस किताब में न तो अपना ई -मेल एड्रेस दिया है और न ही फोन नंबर लिहाज़ा आप के पास इस किताब की प्राप्ति के लिए सिवा उन्हें चिट्टी लिखने के यूँ तो कोई दूसरा विकल्प नहीं है लेकिन फिर भी आप एक काम कर सकते हैं आप सीधे राजेंद्र नाथ रहबर साहब से उनके मोबाइल न. 09417067191 या 01862227522 पर बात करके उनसे इस किताब की प्राप्ति का रास्ता पूछ सकते हैं। यकीन माने रहबर साहब की बुलंद परवाज़ी और उम्दा ख़यालात-ओ-ज़ज़्बात से लबरेज़ ग़ज़लें आपकी ज़िन्दगी में रंग भर देंगीं।

चलते चलते आईये पढ़ते हैं उनकी एक नज़्म जिसके बारे में प्रेम वार बर्टनी साहब ने कहा था कि 'पांच मिसरों की इस नज़्म में पचास मिसरों की काट है " 

फर्क है तुझमें, मुझमें बस इतना, 
तूने अपने उसूल की खातिर, 
सैंकड़ों दोस्त कर दिए क़ुर्बा, 
और मैं ! एक दोस्त की खातिर , 
सौ उसूलों को तोड़ देता हूँ।

Monday, July 28, 2014

किताबों की दुनिया - 97


गलियों गलियों दिन फैलाता हूँ लेकिन 
घर में बैठी शाम से डरता रहता हूँ 

पेड़ पे लिख्खा नाम तो अच्छा लगता है 
रेत पे लिख्खे नाम से डरता रहता हूँ 

बाहर के सन्नाटे अच्छे हैं लेकिन 
अंदर के कोहराम से डरता रहता हूँ 

"किताबों की दुनिया" श्रृंखला धीरे धीरे जिस मुकाम पर पहुँच रही है उसकी कल्पना इसके शुरू करते वक्त कम से कम मुझे तो नहीं थी। अब इसके पीछे आप जैसे सुधि पाठकों का प्यार है , मेरा जूनून है या फिर उन किताबों में छपी शायरी की कशिश है जिनका जिक्र इस श्रृंखला में हो चुका है, हो रहा है या होगा ये बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन यकीन जानिये इस वक्त मैं इस बहस के मूड में कतई नहीं हूँ , इस वक्त तो बस मेरा मूड उस किताब का जिक्र करने का हो रहा है जिसका नाम है " आस्मां अहसास " और शायर हैं जनाब "निसार राही " साहब।


लफ़्ज़ों से तस्वीर बनाते रहते हैं 
जैसे तैसे जी बहलाते रहते हैं 

जब से चेहरा देखा उनकी आँखों में 
आईने से आँख चुराते रहते हैं 

बारिश, पंछी, खुशबू, झरना, फूल, चराग़ 
हम को क्या क्या याद दिलाते रहते हैं 

नक़्शे-पा से बच कर चलता हूँ 
अक्सर ये रस्ता दुश्वार बनाते रहते हैं 

जोधपुर, राजस्थान में 3 अगस्त 1969 को जन्में निसार साहब ने एम एस सी (बॉटनी) करने के बाद उर्दू में एम ऐ और पी.एच.डी की डिग्रियां हासिल कीं जो हैरत की बात है, हमारे ज़माने में ऐसे लोग कम ही मिलेंगे । निसार साहब ने अपने शेरी-सफ़र की शुरुआत ग़ज़ल से की । जोधपुर के हर छोटे बड़े मुशायरे का आगाज़ उनके मुंतख़िब शेरों की किरअत से होता था। बचपन में स्टेज से मिली दाद ही ने उन्हें शेर कहने पर उकसाया होगा।

ये चाहता हूँ कि पहले बुलंदियां छू लूँ 
फिर उसके बाद मैं देखूं मज़ा फिसलने का 

कभी तो शाम के साये हों उसके भी घर पर 
कभी हो उसको भी अहसास खुद के ढलने का 

सुनाई देती है आवाज़ किस के क़दमों की 
बहाना ढूंढ रहा है चराग जलने का  

'निसार',जोधपुर से ताल्लुक रखते हैं जहाँ बारिश औसत से भी कम होती है और तीसरे साल अकाल पड़ता है बावजूद इसके उनकी शायरी में आप समंदर, बारिश, पेड़ नदी हरियाली का जिक्र पूरी शिद्दत से पाएंगे। उनकी शायरी ज़िंदादिली से जीने की हिमायत करती शायरी है। वो अपने शेरों में गहरी बातें बहुत ही सादा ज़बान में पिरोने के हुनर से वाकिफ हैं।

दिल में हज़ार ग़म हों मगर इस के बावजूद 
चेहरा तो सब के सामने शादाब चाहिए 

खुशबू, हवा, चराग़, धनक, चांदनी, गुलाब 
घर में हर एक किस्म का अस्बाब चाहिए 

बादल समन्दरों पे भी बरसें हज़ार बार 
लेकिन 'निसार' सहरा भी सेराब चाहिए 

भारतीय जीवन बीमा निगम में मुलाज़मत कर रहे निसार साहब का एक और ग़ज़ल संग्रह 'रौशनी के दरवाज़े' सन 2007 में मंज़रे आम पर आ कर मकबूलियत पा चुका है। निसार साहब के इस ग़ज़ल संग्रह में भी चौकाने वाले खूबसूरत शेर बहुतायत में पढ़ने को मिल जाते हैं। सबसे बड़ी बात है के निसार साहब के शेरों में सादगी है पेचीदगी नहीं और इसी कारण उनका कलाम सहज लगता है बोझिल नहीं।

इस तरह धूप ने रख्खा मिरे आँगन में क़दम 
जैसे बच्चा कोई सहमा हुआ घर में आये 

ज़र्द पत्तों को जो देखा तो ये मालूम हुआ 
कितने मौसम तेरी यादों के शजर में आये 

जाने ये कौनसा रिश्ता है मिरा उस से 'निसार' 
उसके आंसू जो मिरे दीदा-ऐ-तर में आये

'निसार' साहब ने ग़ज़लों के आलावा नात, सलाम, मंतकब, दोहे, माहिये और नज़्में भी लिखीं और खूब लिखीं। सर्जना प्रकाशक बीकानेर द्वारा प्रकाशित किताब 'आस्मां अहसास' में आप निसार साहब की करीब 60 चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा 50 बेहतरीन नज़्में भी पढ़ सकते हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप सर्जना प्रकाशक को उनके इस मेल आई डी sarjanabooks@gmail.com पर मेल करें या फिर निसार साहब को उनकी खूबसूरत शायरी के लिए 09414701789 पर फोन कर बधाई देते हुए उनसे किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें। मैं तो भाई इस किताब को दिल्ली में हुए विश्व पुस्तक मेले से खरीद कर लाया था।

बारिश के इस मौसम में आईये मैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाते हुए अब आपसे विदा लेता हूँ।

आग लगी है सपनों में 
बरसा पानी बारिश कर 

झूट ज़मीं से बह जाए 
ऐसी सच्ची बारिश कर 

बेकाबू हो उसका प्यार 
उस दिन जैसी बारिश कर 

भूल न जाएँ लोग 'निसार' 
जल्दी जल्दी बारिश कर

Monday, July 7, 2014

किताबों की दुनिया - 96


जिस को भी अपने जिस्म में रहने को घर दिया 
उन्हीं के हाथ से मिरी मुठ्ठी में जान बंद 

जिन की ज़बान मेरी खमोशी ने खोल दी 
उन को गिला कि क्यों रही मेरी ज़बान बंद 

बाज़ार असलेहे का रहे रात भर खुला 
राशन की दिन ढले ही मगर हर दुकान बंद 
असलेहे = शस्त्र 

'अशरफ' ग़ज़ल को अपनी कभी तेग़ भी बना 
कर सर क़लम सितम का दुखों की दुकान बंद 

रिवायती शायरी की बात को पिछली पोस्ट से आगे बढ़ाते हुए आज किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में ज़िक्र करते हैं जनाब 'अशरफ गिल' साहब की किताब "सुलगती सोचों से " का।


कल तलक जिस में रह न पाएंगे 
उसको अपना मकान कहते हैं 

अपने बस में न अपने काबू में 
जिसको अपनी ज़बान कहते हैं 

हो ख़िज़ाँ और बहार का हमदम 
तब उसे गुलसितान कहते हैं 

उसके ज़ोर-ओ-सितम से हूँ वाक़िफ़ 
सब जिसे मेहरबान कहते हैं 

अशरफ गिल साहब का खमीर पंजाब की सर जमीं से उठा है। अशरफ जोड़ासियान गाँव , तहसील वज़ीराबाद , जिला गुज़राँवाला , (अब पाकिस्तान) में सन 1940 में पैदा हुए। पंजाब यूनिवर्सिटी , लाहौर से बी ऐ करने के बाद आप अकाउंटिंग की शिक्षा के लिए सिटी कालेज फ़्रिज़नो , केलिफोर्निया अमेरिका चले गए और वापस पाकिस्तान लौट कर यूनाइटेड बैंक में अफसर की हैसियत से बरसों नौकरी की। बाद में निजी कारोबार अपना कर अमेरिका में ही बस गए।

रहा जोश हमको कमाल का न रहा ध्यान कोई ज़वाल का 
यही भूल की न समझ सके क्या हलाल है क्या हराम है 

मेरे पास आएं जो एक क़दम, बढूँ उनकी सिम्त मैं दो क़दम 
जो मिलाएं मुझसे नहीं क़दम , उन्हें दूर ही से सलाम है 

वही ज़िंदगानी मिरी हुई, मेरे हुक्म पर जो चली रुकी 
जो बिखर गयी न सिमट सकी, वही आप लोगों के नाम है 

अशरफ साहब हर फ़न मौला इंसान हैं वो ग़ज़लें तो लिखते ही हैं उन्हें बखूबी गाते भी हैं क्यूंकि वो खुद मौसिकी के रसिया हैं। वो आम और खास के दिलों में उतरने का हुनर और मिडिया के भरपूर इस्तेमाल का सलीका भी जानते हैं। उन्होंने पंजाबी गाने न सिर्फ लिखे ,बल्कि उन्हें गाया भी। उर्दू फिल्मों के गीत भी लिखे। ' सुलगती सोचों से ' उनकी देव नागरी में छपी पहली किताब है जिसके ज़रिये अब वो हिंदी पाठकों से भी रूबरू हो रहे हैं। चूँकि गिल साहब पंजाबी , उर्दू , फ़ारसी और अंग्रेजी ज़बान से वाकिफ हैं इसलिए इन ज़बानों की मिठास उनकी शायरी में भी आ गयी है।

मैं वोट मर्ज़ी के इक रहनुमा को दे बैठा 
तभी हुकूमती दरबारियों की ज़द में हूँ 

किताबें भेजूं जिन्हें वो जवाब देते नहीं 
मैं उन की रद्दी की अलमारियों की ज़द में हूँ 

मसीहा भेज दो घर मेरे तुम न आओ 
भले तुम्हारी याद की बीमारियों की ज़द में हूँ 

जो देखा लिख दिया शेरोँ में हू ब हू शायद 
किया है जुर्म जो अखबारियों की ज़द में हूँ 

गिल साहब की ग़ज़लों से गुज़रते हुए आपको शायरी के अनेक रंग दिखाई देंगे। इंसानी ग़म -ख़ुशी , दर्द -राहत , प्यार- नफरत ,जफ़ा -वफ़ा ,गुल-कांटे , अमीरी गरीबी , दोस्ती-दुश्मनी , आशिक-माशूक ही नहीं बल्कि अपने आस पास घटती अच्छाई-बुराई को भी उन्होंने अपनी ग़ज़लों में समेटा है।

मिरी ग़ज़ल के हज़ार मानी , मिरी ग़ज़ल के हज़ार पैकर 
मिरे ज़माने के सानी भी , रंग मेरी ग़ज़ल के देखेँ 

सदा सहारों के आसरे पर हुए हैं बे आसरा जहां में 
बहुत चले राह पर किसी की अब अपनी मर्ज़ी से चल के देखें 

जिन्होंने बख्शी हैं सर्द आहें , भरी हैं अश्कों से ये निगाहें 
हम उनकी खातिर, ना फिर भी चाहें, पटक के सर हाथ मल के देखें 

जो मुल्क एटम बना रहे हैं , वो मुफलिसी को बढ़ा रहे हैं 
दिलों की धरती हसीं तर है , दिलों का नक्शा बदल के देखें 

दुनिया भर में इस बेमिसाल शायरी के लिए गिल साहब को ढेरों सम्मान और पुरूस्कार नवाज़े गए हैं। ये लिस्ट बहुत लम्बी है इसलिए उसे पूरी यहाँ दे पाना संभव नहीं है , बानगी के तौर पर 'अदबी अवार्ड 1999 - केलिफोर्निया-अमेरिका ' , 'ग़ज़ल अवार्ड , लाहौर ' , अवार्ड ऑफ ऑनर , पंजाब साहित्य अकेडमी -लुधियाना ' , सम्मान निशानी , लुधियाना , पंजाब ' , सम्मान पत्र , पंजाब साहित्य सभा , नवां शहर , पंजाब , आदि का जिक्र खास तौर पर करना चाहूंगा।

वो हम को भूल जाने से पेश्तर बताएं 
हम अपनी चाहत में कैसे कमी करेंगे 

इस दिल पे ज़ख्म मैंने यूँ ही नहीं सजाये 
दिल में कभी तो मेरे ये रौशनी करेंगे 

कुछ देर अक्ल को भी देते रहे हैं छुट्टी 
कुछ काम हमने सोचा बेकार भी करेंगे 

गिल साहब की लाजवाब 105 ग़ज़लों, जिनकी तरतीब और तर्जुमा जनाब एफ एम सलीम ( 9848996343 ) ने किया है, से सजी, एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस , दिल्ली -6 द्वारा प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति टेडी खीर है। भला हो मेरे मुंबई निवासी प्रिय मित्र और बेहतरीन शायर जनाब 'सतीश शुक्ला 'रकीब' साहब का जिन्होंने बिन मांगे ही ये कीमती तोहफा डाक से मुझे भेज दिया। किताब के चाहने वाले अलबत्ता जनाब गिल साहब को ,जो फिलहाल अमेरिका रहते हैं, उनके ई-मेल ashgill88@aol.com पर संपर्क कर इस किताब की प्राप्ति का रास्ता पूछ सकते हैं। आप उनकी बेहतरीन ग़ज़लों का लुत्फ़ उनकी साइट www.asssshrafgill.com पर पढ़ और youtube:ashrafgill1 पर क्लिक करके देख सुन सकते हैं. जो लोग अमेरिका में उनसे संपर्क के इच्छुक हैं वो उन्हें उनके इस पते पर लिखे ASHRAF GILL , 2348, W.CARMEN AVE, FRESNO, CA, 93728,USA या 5593896750 / 559233126 पर फोन करें। आखिर में , अगली किताब की खोज पर चलने से पहले उनकी एक ग़ज़ल के ये अशआर भी पढ़वाता चलता हूँ .

दिल में जिस वक्त ग़म पिघलते हैं 
अश्क आँखों से तब ही ढलते हैं 

जब मुहब्बत की बात चलती है 
गुफ्तगू का वो रुख बदलते हैं 

चन्द लम्हें कि उम्र भर के लिए 
दर्द बन कर बदन में पलते हैं 

जैसे तैसे गुज़ार ले 'अशरफ' 
तेरी खुशियों से लोग जलते हैं 

Monday, June 23, 2014

आसमाँ किस सहारे होता है ?


एक ग़ज़ल यूँ ही बैठे -ठाले 




कौन कहता है छुप के होता है 
क़त्ल अब दिन दहाड़े होता है 

गर पता है तुम्हें तो बतलाओ 
इश्क कब क्यों किसी से होता है 

ढूंढते हो सदा वहाँ उसको 
जो हमेशा यहाँ पे होता है 

धड़कनें घुँघरुओं सी बजती हैं 
दिल जब उसके हवाले होता है 

आरज़ू क्यों करें सहारे की 
आसमाँ किस सहारे होता है ? 

चीख कर क्यों सदायें देते हो 
जब असर बिन पुकारे होता है 

उम्र ढलने लगी समझ 'नीरज ' 
दर्द अब बिन बहाने होता है

Monday, May 26, 2014

किताबों की दुनिया - 95



दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो  
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी तुम मात करो हो 

हम को जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है 
हम और भुला दें तुम्हें ? क्या बात करो हो 

दामन पे कोई छींट न खंज़र पे कोई दाग़ 
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो 

आज के दौर में ग़ज़ल लेखन में बढ़ोतरी तो जरूर हुई है पर "तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो" जैसा खूबसूरत मिसरा पढ़ने को नहीं मिलता। ये कमाल ही रिवायती शायरी को आज तक ज़िंदा रखे हुए है। वक्त के साथ साथ इंसान की मसरूफियत भी बढ़ गयी है।  आज रोटी कपडा और मकान के लिए की जाने वाली मशक्कत शायर को मेहबूबा की जुल्फों की तरफ़ देखने तक की इज़ाज़त नहीं देती सुलझाना तो दूर की बात है। शायर अपने वक्त का नुमाइन्दा होता है इसीलिए हमें आज की शायरी में इंसान पर हो रहे जुल्म, उसकी परेशानियां, टूटते रिश्तों और उनके कारण पैदा हुआ अकेलेपन, खुदगर्ज़ी आदि की दास्तान गुंथी मिलती है।  

रखना है कहीं पाँव तो रखो हो कहीं पाँव  
चलना ज़रा आया है तो इतराय चलो हो 

जुल्फों की तो फितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे 
जुल्फों से ज़ियादा तुम्हीं बल खाय चलो हो 

मय में कोई खामी है न सागर में कोई खोट 
पीना नहीं आये है तो छलकाए चलो हो 

हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता 
तुम क्या हो तुम्हीं सब से कहलवाए चलो हो

ऐसे दौर में सोचा क्यों न रिवायती शायरी के कामयाब शायर जनाब " कलीम आज़िज़ " साहब के कलाम की मरहम आज के पाठकों की जख्मी हुई रूहों पर रखीं जाएँ ताकि उन्हें थोड़ी बहुत राहत महसूस हो। इसीलिए हमने आज" किताबों की दुनिया " श्रृंखला में उनकी किताब "दिल से जो बात निकली ग़ज़ल हो गयी " का चयन किया है । कुछ भी कहें साहब रिवायती शायरी का अपना मज़ा है जो सर चढ़ कर बोलता है। कलीम साहब को तो यकीन जानिये इस फन में महारत हासिल है.   



आज अपने पास से हमें रखते हो दूर दूर 
हम बिन न था क़रार अभी कल की बात है

इतरा रहे हो आज पहन कर नई क़बा 
दामन था तार तार अभी कल की बात है 
क़बा =एक प्रकार का लिबास 

अनजान बन के पूछते हो है ये कब की बात 
कल की है बात यार अभी कल की बात है 
   
11 अक्टूबर 1924 को तेलहाड़ा (जिला पटना )में जन्में कलीम साहब की शायरी को पढ़ते हुए बरबस 'मीर' साहब याद आ जाते हैं क्यों की उनकी ग़ज़लों का तेवर मीर साहब की बेहतरीन ग़ज़लों के तेवर की याद दिलाता है। मीर साहब की ग़ज़लों के तेवर की नक़ल बहुत से शायरों ने समय समय पर की है लेकिन कोई भी न इन तेवरों को दूर तक निभा पाया और न ही उसमें कुछ इज़ाफ़ा कर पाया । कलीम साहब ने ही मीर की शैली को पूरी कामयाबी साथ अपनाया और उसे अपने रंग और अंदाज़ से ताजगी भी प्रदान की।             
  
बंसी तो इक लकड़ी ठहरी लकड़ी भी क्या बोले है  
बंसी के परदे में प्यारे कृष्ण कन्हैया बोले है       
    
घर की बातें घर के बाहर भेदी घर का बोले है 
दिल तो है खामोश बेचारा लेकिन चेहरा बोले है 

अब तक शे'र -ओ-ग़ज़ल में उनकी गूँज रही हैं आवाज़ें 
सहरा से मजनूं बोले है शहर से लैला बोले है 

कलीम साहब की शायरी में , जिसका दामन उन्होंने छोटी उम्र से ही पकड़ लिया था , 1946 में तेलहाड़ा में हुए ख़ूनी साम्प्रदायिक दंगों बाद जिसमें उनका पूरा परिवार तबाह हो गया था, दर्द छलकने लगा । इसी दर्द ने उनकी शायरी को वो आग प्रदान की जिसकी आंच बहुत तेज थी और जिसकी टीस आजतक सुनाई देती है. उनकी कहानी जमाने की नहीं उनकी अपनी है। 

दिल टूटने का सिलसिला दिन रात है मियां 
इस दौर में ये कौन नयी बात है मियां 

नाराज़गी के साथ लो चाहे ख़ुशी से लो 
दर्दे जिगर ही वक्त की सौगात है मियां 

देने लगेंगे ज़ख्म तो देते ही जाएंगे 
वो हैं बड़े , बड़ों की बड़ी बात है मियां 

फूलों से काम लेते हो पत्थर का ऐ 'कलीम'
ये शायरी नहीं है करामात है मियां   

हिंदी भाषी पाठकों को ध्यान में रखते हुए जनाब 'ज़ाकिर हुसैन' साहब ने 'कलीम' साहब की लगभग चार सौ ग़ज़लों में से जो उनके दो ग़ज़ल संग्रह ' वो जो शायरी का सबब हुआ ' और 'जब फैसले बहाराँ आई थी ' में दर्ज़ हैं, करीब 150 ग़ज़लें इस किताब में सहेजी हैं। अच्छी शायरी के लिए जरूरी तीन कसौटियों - सांकेतिक,सार्थक और संगीतात्मक पर खरी उतरती इन सभी ग़ज़लों को बार बार पढ़ने का दिल करता है.

पूछो हो जो तुम हमसे रोने का सबब प्यारे 
हम काहे नहीं कहते गर हमसे कहा जाता 

गुज़री है जो कुछ हम पर गर तुम पे गुज़र जाती 
तुम हमसे अगर कहते हमसे न सुना जाता 

होती है ग़ज़ल 'आज़िज़' जब दर्द का अफ़साना 
कहते भी नहीं बनता चुप भी न रहा जाता        

भारत सरकार द्वारा 1989 में 'पद्मश्री' से सम्मानित कलीम साहब को दूसरे और ढेरों सम्मान प्राप्त हुए हैं जिनमें इम्तियाजे मीर - कुल हिन्द मीर अकादमी अल्लामा मिशिगन उर्दू सोसायटी अमेरिका ,प्रशंशा पत्र -उर्दू काउन्सिल आफ केनेडा , बिहार उर्दू एकेडेमी पुरूस्कार उल्लेखनीय हैं। कलीम साहब  ने 31 साल तक पटना कालेज में अध्यापन का कार्य किया और 1986 में सेवा निवृत हुए।        
     
मिरी बरबादियों का डाल कर इल्ज़ाम दुनिया पर 
वो ज़ालिम अपने मुंह पर हाथ रख कर मुस्कुरा दे है 

अब इंसानों की बस्ती का ये आलम है कि मत पूछो 
लगे है आग इक घर में तो हमसाया हवा दे है 

कलेजा थाम कर सुनते हैं लेकिन सुन ही लेते हैं 
मिरे यारों को मेरे ग़म की तल्खी भी मज़ा दे है 

वाणी प्रकाशन -दिल्ली ने सन 2014 में इस पुस्तक का प्रकाशन किया है।  आप वाणी प्रकाशन को इस किताब की प्राप्ति के लिए  +91 11 23273167 पर फोन करें या फिर मेल करें।  हज़ारों की भीड़ में अपनी पहचान बनाने वाली इस सलीकेमन्द शायर की ग़ज़लें सीधे दिल को छूती हैं। आप इस किताब को प्राप्त करने की जुगत करें तब तक हम निकलते हैं एक और किताब की तलाश में। 

उसे लूटेंगे सब लेकिन इसे कोई न लूटेगा 
न रखियो जेब में कुछ दिल में लेकिन हौसला रखियो 

मुहब्बत ज़ख्म खाते रहने ही का नाम है प्यारे 
लगाये तीर जो दिल पर उसी से दिल लगा रखियो 

न जाने कौन कितनी प्यास में किस वक्त आ जाए  
हमेशा अपने मयखाने का दरवाज़ा खुला रखियो 

यही शायर का सबसे कीमती सरमाया है प्यारे 
शिकस्ता साज़ रखियो दर्द में  डूबी सदा रखियो