Monday, October 26, 2020

किताबों की दुनिया : 217

जाने क्या अंजाम होगा अब मिरी तक़दीर का
ख़ुदकुशी के वक़्त टूटा सिलसिला ज़ंजीर का
सिलसिला :कड़ी

उसने दिल की धड़कनें मुझको सुनाने के लिए
डाला है तावीज़ गर्दन में मिरी तस्वीर का

भैंस की आँखों पे पट्टी बांध कर तहबंद से
राँझा पहने फिर रहा है आज लहंगा हीर का

कल्पना कीजिये कि भैंस की आँखों पर राँझे का तहबंद है और उसके पीछे राँझा हीर का लहंगा पहने ठुमकता चल रहा है। इस दिलकश मंज़र को देख कर आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? आप हैरान होंगे या मुस्कुरायेंगे या ठहाका लगा कर हँसेंगे। मेरे ख्याल से आप हैरान तो बाद में होंगे पहले अगर आप बिंदास नहीं हैं तो मुस्कुरायेंगे वरना ठहाका लगाएंगे। ये मुस्कुराने और ठहाके लगाने का गुण ही आपको जानवरों से अलग करता है क्यूंकि सिर्फ जानवर ही न मुस्कुराते हैं न ठहाके लगाते हैं। तो आज किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में हम आपको पहली बार मुस्कुराने और ठहाके लगाने की दावत देते हैं। पता नहीं क्यों हमारे समाज में हँसने और ठहाके लगाने को बेहूदगी समझा जाता है। शायद इसीलिए आप लोगों को सड़कों या महफ़िलों में खुल कर ठहाके लगाते नहीं देख पाते ।ख़ास तौर पर तथाकथित सभ्रांत लोगों को। तमीज़दार लोग सिर्फ़ मुस्कुराते हैं वो भी हौले से। इस से तनाव बढ़ता है। इस तनाव भरे युग में अपना मानसिक संतुलन बनाये रखने के लिए खुल कर हंसना सबसे कारगर इलाज है। मेरी बात शायद आपको नागवार गुज़रे इसलिए चलिए उन फ़िल्मी गानों का ज़िक्र करते हैं जो हँसने की पैरवी करते हैं ।आज के दौर के युवा ने शायद मुकेश के गाने न सुने हों लेकिन हमारे दौर में उनका फ़िल्म 'किनारे किनारे' का ये गाना हमें बहुत बड़ा सबक देता था 'जब ग़मे इश्क़ सताता है तो हँस लेता हूँ , हादिसा याद ये आता है तो हँस लेता हूँ ' उन्हीं का गाया फ़िल्म 'आशिक़ी' का एक और गीत है 'तुम आज मेरे संग हँस लो तुम आज मेरे संग गा लो और हँसते गाते इस जीवन की उलझी राह सँवारो '। ये दोनों गाने सिखाते हैं कि विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है -हँसो। 

जो किसी बहाने घर में कभी सालियाँ भी आतीं
भला फिर ये क्यों झमेला मुझे नागवार होता
*
फिर भला इसमें लुत्फ़ ही क्या है
इश्क़ जब गालियों भरा न हुआ
*
हुआ था दर्द से भारी तो ग़म क्या सर के कटने का
न सर कटता मिरा तो ज़िन्दगी भर सर फिर होता
*
मुर्ग़ बिरयानी सभी कुछ है पसंद
पेट में हो गैस तो फिर खाएँ क्या
*
पार्टी को तोड़िये, फिर जोड़िये, फिर तोड़िये 
रंग ले ही आएगी मौक़ा-परस्ती एक दिन 
 *
बदल कर ज़रा भेस हम हीजड़ों का
नवाबों के रंगी हरम देखते हैं
हरम:अन्तःपुर ,ज़नानख़ाना  
*
दफ़्तर में आ ही जाता हूँ कुछ वक़्त काटने
वैसे किसी के बाप का नौकर नहीं हूँ मैं
*
जब से बढ़ा है शहर में मौतों का सिलसिला
हमराह अपने रखता हूँ इक नौहागर को मैं
नौहागर :रोने पीटने वाला
*
वो सियाह ज़ुल्फ़ें जो बन कर नाग डसती थीं हमें
वक़्त की फटकार खा कर अब सिवय्यां हो गईं
*
गंजे हुए हैं हम मियां जूते ही खा के इश्क़ में
जिसको हो अपना सर अज़ीज़ उसकी गली में जाए क्यों


पंजाब का एक प्रमुख शहर है पटियाला जो अपने 'पैग' के अलावा दीवान 'जर्मनी दास' की किताब 'महाराजा' और 'महारानी' में चर्चित महाराजा भूपेंद्र सिंह के किस्सों के अलावा मौसिकी के उस घराने के लिए प्रसिद्ध है जिससे जनाब बड़े ग़ुलाम अली खां साहब भी मुतअल्लिक़ थे। उसी शहर में एक मिठाई की दूकान थी, जिसकी मिठाइयों की मिठास से ज़्यादा मीठी उसके मालिकों की ज़ुबान हुआ करती थी। दुकान के मालिकों से ख़ालिस उर्दू, हिंदी और पंजाबी में कभी शे'र तो कभी उनकी पैरोडी तो कभी चटपटे जुमले सुनता हुआ ग्राहक एक की जगह तीन मिठाइयां ले लेता और फिर भी वहीँ जमा रहता। दुकान के मालिक श्री मातू राम जी के बेटे 'राज़' को दुकान जा कर अपने पिता, भाई और मामा की लच्छेदार बातें सुननी बड़ी अच्छी लगतीं। घर में माँ भी, कभी कभी ऐसे जुमले जड़ देती कि राज़ हँसते हँसते लोटपोट हो जाता। शायरी में राज़ की दिलचस्पी बढ़ने लगी। इस ख़ुशनुमा माहौल में राज़ कब शायरी करने लगा उसे पता ही नहीं चला और तो और कब मिर्ज़ा ग़ालिब उसके ज़ेहन पर सवार हो गए इसकी भी ख़बर नहीं लगी। ग़ालिब का जादू उनके सर चढ़ कर बोलने लगा।  
   
रात का सन्नाटा हो और राज़दां कोई न हो
बीवियां तनहा ही घूमें और मियां कोई न हो
*
थान पर खच्चर के मैंने ऊँट बांधा था जो कल
रंग उस पर वो चढ़ा कि हिनहिनाता जाए है
थान : खूँटा
*
मुहल्ले वालों का सर फोड़ना है बात अलग
फटेगी शर्ट तो समझोगे तुम रफ़ू क्या है
*
अच्छे ख़ासे को भी लंगड़ा कह दिया
ज़ाइके बदनाम हैं यूँ आम के
*
मेरे अल्लाह मेरी पारसाई पर करम करना
 मुसल्सल तेज़ बारिश में वो लिपटा जाए है मुझ से
*
सांडों की लड़ाई में परेशान सभी थे
कुत्ता मिरे पीछे था तो भैंसा मिरे आगे
*
सोहबत का जानवर की हुआ उन पे ये असर
पाली है जब से लोमड़ी चालाक हो गए
*
हम हो चुके है घुटनों से लाचार क्या करें
यानी उचक के हुस्न का दीदार क्या करें
*आहे होंगे
मरते थे जो हसीन वो मुँह फेर कर चले
इस चौखटे पे झुर्रियों की मार देख कर
*
इश्क़ के ख़ुतूत ने दिखलाया रंगे-ख़ास
महबूब जितने थे उन्हें ले भागे डाकिए
ख़ुतूत :चिठ्ठियां
*
योग,आसन और प्राणायाम ही के ज़ोर पर 
भक्तनों को ले के स्वामी एक दिन उड़ जाएंगे 
साधुओं का होगा संगम अब के जो भी घाट पर 
है ख़बर वो ऐश-ओ-इश्रत टैंट में ही पाएंगे

ये राज़ ही हमारे आज के शायर हैं जिनका पूरा नाम श्री 'त्रिलोकी नाथ काम्बोज' है लेकिन अदबी हलकों में इन्हें "टी.एन. राज़" के नाम से जाना जाता है। इनकी किताब "ग़ालिब और दुर्गत" हमारे सामने है जिसमें राज़ साहब ने, जैसा कि आपने अब तक पढ़ कर समझ ही लिया होगा, ग़ालिब साहब की मशहूर ग़ज़लों की वो दुर्गत की है कि ग़ालिब उसे पढ़ कर बजाय नाराज़ होने के क़ब्र के अँधेरे में मारे ख़ुशी के भंगड़ा कर रहे होंगे। कारण ये कि जो काम राज़ साहब ने किया है वो बच्चों का खेल नहीं है । तन्ज़-ओ-मिज़ाह याने हास्य व्यंग की शायरी करना, वो भी ग़ालिब की ज़मीन पर, बहुत ही मुश्किल काम है लेकिन साहब राज़ साहब ने इस काम को अंजाम दिया है और क्या खूब दिया है। किताब पढ़ते पढ़ते दिल बाग़ बाग़ हो जाता है। अगर ये काम आसान होता तो अब तक बहुत से शायर इसे कर चुके होते। ऐसा नहीं है कि बाक़ी शायरों ने कोशिश नहीं की ,खूब की लेकिन साहब ग़ालिब की ज़मीन इतनी सख्त है कि बहुत से खेती करने वालों के तो इस कोशिश में हल ही टूट गए और जो थोड़े बहुत हल चला पाए उनके ख्यालों के बीज उसमें पनपे ही नहीं । ग़ालिब छोड़िये वैसे भी तन्ज़-ओ-मिज़ाह पर आसानी से कलम नहीं चलती तभी तो शायरी के इतिहास में संजीदा शायरों के नाम की तो एक कभी न खत्म होने वाली लम्बी सी लिस्ट बन जायेगी लेकिन ढंग के तन्ज़-ओ-मिज़ाह के शायर शायद उँगलियों पर गिनने लायक भी न हों। एक नज़ीर अकबराबादी जरूर जेहन में आते हैं जबकि इस विधा में नस्र में लिखने वालों की तादाद जरूर कुछ बड़ी है। सच्ची बात तो  ये है कि किसी को हँसाना मुश्किल है और रुलाना बहुत आसान इसलिए लोग आसान काम को ज्यादा तरज़ीह देते हैं और रुलाने के नए नए तरीके इज़ाद करते रहते हैं। 
 

गाड़ी रूकती नज़र नहीं आती 
छींक वक़्ते सफ़र नहीं आती 

जूता बाटा का अब चले कैसे 
पहले सी वो रबर नहीं आती 

आँख में जब से उतरा मोतिया 
कोई सूरत नज़र नहीं आती 

ज़हमते-गैस होगी सुब्ह-रफअ 
नींद क्यों रात भर नहीं आती 
ज़हमते गैस -गैस की तकलीफ़ , सुब्ह-रफअ : सुबह दूर 

बीवी जाती है जब भी मायके को 
कोई भी साली घर नहीं आती 
    
जनाब त्रिलोकी नाथ उर्फ़ टी.एन. साहब का जन्म 19 सितम्बर 1934 में पटियाला में हुआ। 'राज़' तख़ल्लुस ज़ाहिर सी बात है बाद में जुड़ा। परिवार का ताल्लुक क्यूंकि मिठाई से था, जिसमें पढाई से ज़्यादा तजुर्बा काम आता है, लिहाज़ा अपनी पढाई लिखाई पर परिवार में से किसी ने कोई ख़ास तवज्जोः नहीं दी। 'राज़' साहब ठहरे इस परिवार के बिगड़े शहज़ादे इसलिए जनाब ने वो काम नहीं किया जो ख़ानदानी था बल्कि इसके उलट पढाई लिखाई की। पढाई-लिखाई क्या की यूँ समझिये कि 'उनके ख़्याल आये तो आते चले गए' की तर्ज़ पर वो पढ़ते चले गए। उर्दू और हिंदी में एम्.ए. की डिग्रियाँ पा कर जब उनका जी नहीं भरा तो हज़रत एल एल बी की ओर मुड़ गए और उसकी भी डिग्री हासिल कर ली वो भी 'ऑनर्स' के साथ। ये तो हुई पढाई की बात अब ज़रा शौक़ देखें ज़नाब के, शायरी तो, जैसा आपको पता लग चुका है, ख़ैर था ही साथ में ज्योतिष में भी जोर आज़माइश करते हुए महारत हासिल कर ली और शतरंज सीख कर अच्छे अच्छे उस्तादों को पानी पिलाने लगे। रोज़ी रोटी के लिए वक़ालत करने की ठानी लेकिन अदालत में मी लार्ड मी लार्ड बोलने से कोफ़्त होने लगी तो मास्टरी, अफ़सरी, प्रोफ़ेसरी और फिर सरकार में नौकरी दर नौकरी करते हुए खूब पापड़ बेले। लेक्चरारी में बंधे कुछ दिन कुरुक्षेत्र में भी रहे और जब वहां मन नहीं लगा तो पंचकुला आ गए और हुकूमत हरियाणा के महकमा-ऐ-क़ानून से वाबस्ता हो गए फिर वहीँ से आखिर में सितम्बर 1993 में बतौर डिप्टी सेकेट्री रिटायर हुए। 

मुर्ग़ चोरी का रोज़ खाता हूँ 
मैं नहीं जानता सज़ा क्या है 

मैं चला हूँ विदेशी दौरे पर 
ये न पूछो कि मुद्दआ क्या है 

रह के सुहबत में उनकी चलेगा पता 
घोड़ा क्या चीज़ है गधा क्या है 

बीवी उम्मीद से है पचपन में 
या इलाही ये माजरा क्या है

ग़ालिब के अलावा राज़ साहब ने ज़ौक़ ,फ़ानी ,जोश ,शक़ील ,जिग़र , फ़िराक ,क़तील शिफ़ाई साहिर जैसे अज़ीम शायरों की ग़ज़लों की भी इसी तरह दुर्गत करने में कोई कसर छोड़ी। इस किताब में आप ग़ालिब के अलावा इन सब शायरों की ग़ज़लों पर की गयी पैरोडी का भी मज़ा उठा सकेंगे। राज़ साहब अपनी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "चचा ग़ालिब के शेर 'मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों के पेशे नज़र उदासी, बेचैनी, तनाव और परेशानी हर इंसान को ज़िन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर घेरे हुए है। इन के बीच हँसी ख़ुशी के मौक़े जुटा लेने वाला इंसान ही ख़ुश किस्मत है। क्यूंकि मिज़ाह का लुत्फ़ लेते रहने वाले इंसान के लिए दुनिया के ग़मों को बर्दाश्त करने के लिए एक नयी ताक़त और हिम्मत पैदा हो जाती है। नामवर मिज़ाह निगार जनाब 'मुज्तबा हुसैन' अपनी किताब 'तकल्लुफ़ बरतरफ़' में एक जगह लिखते हैं ' मैं हँसी को मुक़द्दस फ़रीज़ा (पावन कर्तव्य ) मानता हूँ और क़हक़हा लगाने को ज़िन्दगी का सबसे बड़ा एडवेंचर -- ज़िन्दगी के बेपनाह ग़मों में घिरे रहने के बावजूद इंसान का क़हक़हा लगाना ऐसा ही है जैसे विशाल समंदर में भटके हुए किसी जहाज़ को अचानक कोई टापू मिल जाए।    
सुनता वो कम है हसीं उसको सुनाए न बने
भैंस के सामने ज्यूँ बीन बजाए न बने

नाक में दम जो करे उसका पसीना मेरे
बात गर्मी में बिना लक्स नहाए न बने

सब्ज़ी जो सस्ती मिली हमने ज़्यादा ले ली
अब उठाए न उठे और गिराए न बने

मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के महान और कालजयी शायर हैं। प्रत्येक गायक इनकी ग़ज़लों को अपना स्वर प्रदान करने में फ़क्र महसूस करता है। सहगल, सुरैय्या, बेग़म अख्तर, रफ़ी ,तलत महमूद   जगजीत सिंह और ग़ुलाम अली जैसे गायकों ने इनकी ग़ज़लों को गा कर अत्यंत लोकप्रिय बना दिया है।'ग़ालिब-जीवन,शायरी ,ख़त और सफ़र-ए-कलकत्ता' नामक पुस्तक हिंदी में ग़ालिब ग़ज़लों की सरल व्याख्या और उनके जीवन सम्बन्धी बहुत ही दिलचस्प जानकारियों सहित एक लाजवाब कारनामा है जिसका अगला संस्करण एक नयी आब-ओ-ताब के साथ प्रकाशनाधीन है। बहुत पहले इस पुस्तक को सम्पादित करते हुए राज़ साहब ने निश्चय किया था कि क्यों न इस अज़ीम शायर को उन्हीं की ज़मीनों में अंकुरित हास्य-व्यंग रुपी श्रद्धा सुमन अर्पित किये जाएं। तो लीजिये फलस्वरूप फ़िलहाल आप क़हक़हों से भरपूर ' ग़ालिब और दुर्गत' का थोड़ा आनंद लें जिसकी खुशवंत सिंह, डॉ. गोपीचंद नारंग , बशीर बद्र, निदा फ़ाज़ली, प्रो जगन्नाथ आज़ाद , सागर ख़य्यामी ,इब्राहिम अश्क़ जैसे साहित्यकारों ने भूरी भूरी प्रशंसा की। ये किताब 'साक्षी पेपरबैक्स'  एस -16 ,नवीन शाहदरा ,दिल्ली 110032 से प्रकाशित हुई है। आप ये पुस्तक सीधे प्रकाशक से 09810461412 पर संपर्क कर या फिर अमेज़न से ऑन लाइन भी मँगवा सकते हैं।

तिरे बन्दे का ऐ मालिक कभी तो पेच-ओ-ख़म निकले 
कभी इसकी भी दुम निकले कभी इसका भरम निकले   

डिनर ढाबे पे जिन साहब को कल मैंने खिलाया था 
वही हज़रत मिरी महबूब के चौथे ख़सम निकले 

ये सब बरसाती मेंढक हैं ये लीडर दुम हैं कुत्ते की 
हज़ारों बार पिट कर भी न कम्बख्तों के ख़म निकले 
ख़म : टेढ़ा पन 

पुलिस ने रात भर पीछा किया था चोर का लेकिन 
निशां जब सुब्ह को देखे तो भैंसों के क़दम निकले 

नज़ाक़त को ग़ज़ल की हम ने ढाला है ज़राफ़त में 
न ग़ालिब ने कसर छोड़ी न हम ही 'राज़' कम निकले 
ज़राफ़त: हास्य             

राज़ साहब के मित्र डॉ नाशिर नक़वी साहब लिखते हैं कि ' 86 साल की उम्र में भी ये शख़्स किसी तौर पर अपने आप को बूढ़ा क़ुबूल करने को तैयार नहीं क्यूंकि इनका ख़्याल है कि आदमी दिल से बूढ़ा नहीं होना चाहिए। बूढ़ा वो होता है जो हँसने हँसाने से परहेज़ करता है। बस यही वो अदा है जो टी एन राज़ को जवां और हरदिल अज़ीज़ बनाए हुए है। आप उनसे 9646532292 या 9988097276 पर बात कर खुद इस बात का यकीन कर सकते हैं। नक़वी साहब आगे लिखते हैं कि ' राज़ की मिज़ाहिया शायरी में एक बड़ी ख़ूबी ये है कि वो हँसने हँसाने के साथ समाज को दरपेश मौजूदा मसअलों और बुराइयों से वाकिफ़ कराने में कामयाब हैं। राज़ खुद को निशाना बना कर किसी ऐब को उजागर करके अपने दाएं बाएं फैली कुरीतियों के छीटें बिखेरते हैं जो बड़े दिल गुर्दे की बात है। इनका हर शेर एक अदबी और मेयारी लतीफ़े का सा असर छोड़ता है। जिस आदमी में ,जिस समाज में हँसने हँसाने की सलाहियत नहीं होती वो समाज टी बी ज़दा होता है , जहाँ हर इंसान के सीने में घुटन और तनाव की खांसी सुनाई देती है। इस माहौल में अगर कोई शख़्स अपने मज़ाहिया अंदाज़ एहसास और इज़्हार से मुस्कुराने, हँसने और क़हक़हा लगाने की प्रेरणा देता है तो उसे फ़रिश्ता ही कहा जायेगा। राज़ साहब इस माने में फ़रिश्ता हैं क्यूंकि वो कहीं हल्के और कहीं तीखे तन्ज़ के साथ हँसने और हँसाने का अनोखा और अछूता गुर जानते हैं। 

मैं पंचकुला के होनहार शायर जनाब 'महेंद्र कुमार सानी जी का बेहद शुक्रगुज़ार हूँ जिनके कारण मुझे इस बाक़माल शायर का पता चला। चलिए देखते हैं कि राज़ साहब ने जिगर मुरादाबादी साहब की एक ग़ज़ल की क्या खूब दुर्गत की है :
       
यूँ ज़िन्दगी तबाह किए जा रहा हूँ मैं 
पीरी में भी विवाह किए जा रहा हूँ मैं 
पीरी : बुढ़ापा 

बस का तो इस बुढ़ापे में कुछ भी नहीं रहा 
क्या क्या न फिर भी चाह किए जा रहा हूँ मैं 

उन गुलरुख़ों पे जो हुए खण्डर मेरी तरह 
हसरत भरी निगाह किए जा रहा हूँ मैं 
गुलरुख़ों : फूल से चेहरे वाले 

बीवी की डाँट है कभी अफ़सर की झाड़ है 
दोनों से ही निबाह किए जा रहा हूँ मैं 

और अब आख़िर में फ़िराक़ साहब की एक ग़ज़ल की भी दुर्गत देख लें। सच तो ये है कि मैं सभी की दुर्गत तो एक पोस्ट में पढ़वा नहीं सकता सिर्फ़ आपसे गुज़ारिश ही कर सकता हूँ कि ऐसी अनमोल किताब का आपके पास होना ज़रूरी है क्यूंकि कुछ पता थोड़े ही होता है कि ज़िन्दगी में न जाने कब आपको हँसने की ज़रुरत पड़ जाय, इसलिए अग्रिम इंतज़ाम करके रखें।

किसी के इश्क़ में मरना जो जी में ठान लेते हैं
वो अपनी क़ब्र का जुग़राफ़िया पहचान लेते हैं
जुग़राफ़िया :भूगोल 

नज़र के वास्ते सुर्मा ,ज़बीं के वास्ते बिंदी
वो क्या क्या क़त्ल का मेरे लिए सामान लेते हैं

इधर बीवी जो दे ताने उधर मच्छर सताते हों
तो सर से पाओं तक हम पूरी चादर तान लेते हैं

रिटायर हो के जब से 'राज़' हम बैठे हैं घर अपने
नहीं चलती हमारी, बीवी के फ़रमान लेते हैं

Monday, October 12, 2020

किताबों की दुनिया -216 

पते की बात भी मुँह से निकल ही जाती है 
कभी कभी कोई झूठी ख़बर बनाते हुए 
*
मिज़ां तक आता जाता है बदन का सब लहू खिंच कर 
कभी क्या इस तरह भी याद का काँटा निकलता है 
मिज़ां :पलक 
*
मैं अपने आप में गुम था मुझे ख़बर न हुई 
गुज़र रही थी मुझे रौंदती हुई दुनिया 
*
रात बहुत दिन बाद आए हैं दिल के टुकड़े आँखों में 
रात बहुत दिन बाद मिले हैं ये अंगारे पानी से 
*
रोज़ बुनियाद उठाता हूँ नई 
रोज़ सैलाब बहा कर ले जाए 
*
कुछ और तर्ह की मुश्किल में डालने के लिए 
मैं अपनी ज़िन्दगी आसान करने वाला हूँ 
*
न बात कहने की मोहलत है और न सुनने की 
चले चलो यूँही एक आध इशारा करते हुए 
*
जो भी सच्ची बात कहेगा ज़हर लगेगा दुनिया को 
अपने सच में थोड़ा थोड़ा झूठ मिलाते रहा करो 
*
कहते हो कि याद उसकी वबाले-ए-दिल-ओ-जाँ है 
ऐसा ही अगर है तो भुला कर उसे देखो        
वबाले-ए-दिल-ओ-जाँ : दिल और जान की मुश्किल  
*
वो यूँ मिला था कि जैसे कभी न बिछड़ेगा 
वो यूँ गया कि कभी लौट कर नहीं आया 

बात तब की है जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव अपने चरम पर था। आणविक युद्ध की तैयारियों के चलते दोनों देश परीक्षण कर चुके थे। ऐसे में दोनों देशों के तब के प्रधानमंत्रियों ने शांति स्थापित करने के लिए एक ऐतिहासिक क़दम उठाया। वो था ,दोनों देशों के बीच बस सेवा शुरू करने का निर्णय। इस बस सेवा को नाम दिया गया 'सदा-ऐ-सरहद' । शुक्रवार 19 फ़रवरी 1999 का दिन भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। इसी दिन दोनों देशों के बीच ये बस यात्रा शुरू की गयी थी जो आज भी दिल्ली और लाहौर के बीच चलती है (बीच में कुछ समय के लिए स्थगित की गयी थी )। भारत की और से इस पहली सद्भावना बस यात्रा में तब के प्रधानमंत्री स्व .श्री अटलबिहारी बाजपेयी जी के साथ भारत के गणमान्य नागरिक भी शामिल थे। वाघा बार्डर पर पाकिस्तान के प्रधान मंत्री श्री नवाज़ शरीफ़ ने इस बस से पधारे भारतीय प्रतिनिधि मंडल का भावभीना स्वागत किया था । लाहौर में भारतीयों के सम्मान में हुए एक शाही भोज के कार्यक्रम में श्री नवाज़ शरीफ़ और उनके केबिनेट के सदस्यों और पाकिस्तान के सम्मानित नागरिकों की मौजूदगी में एक युवा शायर ने श्री अटलबिहारी बाजपेयी जी को उन्हीं की कविताओं का उर्दू में छपा संकलन ' हम जंग न होने देंगे' भेंट में दिया। सब ने तालियां बजा कर उस युवा शायर को दोनों देशों की दोस्ती के लिए तैयार किये इस खूबसूरत तोहफ़े के लिए बधाई दी। किसे पता था कि कुछ दिनों बाद ये तोहफ़ा ही इस शायर की जान का दुश्मन बन जायेगा। 

हाल हमारा पूछने वाले 
क्या बतलाएँ सब अच्छा है 

क्या क्या बात न बन सकती थी 
लेकिन अब क्या हो सकता है 

कब तक साथ निभाता आख़िर 
वो भी दुनिया में रहता है 

दुनिया पर क्यों दोष धरें हम 
अपना दिल भी कब अपना है 
 
दरअसल हुआ यूँ कि इस नौजवान शायर की ये अदा और उसका बाजपेयी जी के साथ  मुस्कुराकर फोटो खिंचवाने का मंज़र उस दावत में आये एक फ़ौजी अफ़सर की निग़ाहों में चुभ गया। दूसरे दिन के लगभग सभी पाकिस्तानी अख़बारों में उस शायर, जिसका नाम 'आफ़ताब हुसैन' है, की बाजपेयी जी को क़िताब देते की फोटो प्रमुखता से छपी जो उस फ़ौजी अफ़सर को और भी नाग़वार गुज़री। सीधी सी बात है अगर दुश्मनी ही ख़त्म हो जाय तो फ़ौज का क्या काम ? वैसे भी क़लम से बन्दूक की दुश्मनी बहुत पुरानी है। बन्दूक अवाम की ज़बान बंद करने के काम आती है और क़लम अवाम को ज़बान खोलने को उकसाती है। खैर साहब जैसा कि पड़ौसी मुल्क़ की गौरवशाली परम्परा है, कुछ महीनो के बाद ही फ़ौज ने नवाज़ शरीफ़ की शराफ़त को दरकिनार करते हुए उनकी सत्ता का पासा पलट कर मुल्क़ पर कब्ज़ा कर लिया। आफ़ताब हुसैन की तरफ़ से दोस्ती का हाथ बढ़ाने वाली इस मासूम सी हरक़त को मुल्क़ के साथ ग़द्दारी समझ कर फ़ौज की तरफ़ से उनपर कड़ी नज़र रखने का फरमान जारी हो गया। जासूस उनकी छोटी बड़ी सभी गतिविधियों को नोट करने लगे। आये दिन उनके उठाये हर क़दम की पूछताछ की जाती जैसे वो फलाँ से क्यों मिले ,क्या बात की फलाँ जगह क्यों गएआदि आदि। एक शरीफ़ बेक़सूर इंसान को परेशान करने के लिए जितने हथकंडे अपनाये जा सकते थे सब अपनाये जाने लगे। उनकी अच्छी खासी सुकून से कट रही ज़िन्दगी दुश्वार की जाने लगी .

समझ में आती नहीं जिसको बात ही मेरी 
वो मेरी बात की तफ़्सीर करने के लिए है 
तफ़्सीर : व्याख्या 

कोई नहीं जो कहे हर्फ़ दो तसल्ली के  
जिसे भी देखिये तक़रीर करने के लिए है 
*
गुज़र के आया हूँ मैं रौंदता हुआ खुद को 
किसी का काम था लेकिन ये काम मुझ से हुआ 
*
चलता जाता हूँ मुसलसल किसी वीराने को 
और लगता है मुझे जैसे घर आता हुआ हूँ 
*
क्या ख़बर मेरे ही सीने में पड़ी सोती हो 
भागता फिरता हूँ जिस रोग भरी रात से मैं 
*
मोहब्बत है मैं उसको देखता हूँ सोचता हूँ 
मोहब्बत जब नहीं होगी तो वो कैसा लगेगा 
*
हवस की राह से निकलो अगर नहीं है मोहब्बत 
ये रास्ता भी उसी रास्ते से जा मिलेगा         
*
रास्ता देखते रहते थे कि आएगा कोई 
और जिसे आना था जाने की तरफ़ से आया 
*
इस समन्दर में गुज़ारा नहीं होने वाला 
किसी खामोश जज़ीरे की तरफ जाता हूँ मैं 
*
सर सलामत है तो समझो न सलामत मुझको 
अंदर अंदर कोई दीवार दरकती हुई है 

पुलिस द्वारा उनसे गाहे बगाहे पूछताछ की जाती, जिरह की जाती, डराया धमकाया जाता और इस मामूली से मसले को फ़ौज के हक़ में ले जाने के लिए उनपर दबाव बनाया जाता कि वो वही कहें जो ख़ुफ़िया एजेंट उनसे कहलवाना चाहते हैं। आफ़ताब हुसैन के जमीर ने पुलिस द्वारा गलत बयानी की पेशकश को मंज़ूर नहीं किया। जमीर पर अपनी किताब 'अघोषित आपातकाल' में कमलेश्वर लिखते हैं  कि ' जमीर नाम की कोई चीज फ़ौज के पास नहीं होती जमीर नाम का बीज 'तहजीब-संस्कृति' के खेतों से उगता है। बारूद के गोदामों या बारूदी ज़मीन में नहीं। "  
 2 मार्च 2002 को कराची में एक मुशायरा आयोजित किया गया था जिसमें शिरकत करने को आफ़ताब लाहौर से कराची गए और मुशायरे के बाद किसी काम की वजह से वहीँ रुक गए। चार मार्च को उनके लाहौर वाले घर पर छापा पड़ा और सारा सामान तहस नहस कर दिया गया। असल में फ़ौजी और आई एस आई के एजेंट आफ़ताब हुसैन को गिरफ़्तार करने को आये थे। ये तो अच्छा हुआ कि वे उस वक्त कराची में थे। कराची में आफ़ताब को उनके छोटे भाई से इस छापे की ख़बर मिली और इससे पहले कि कराची में उनपर आफत टूटती वो अपने गाँव चले गए। 

सोचने से ही परेशानी है 
मत परेशान रहो, सोचो मत   

मन्ज़िल-ए-शौक़ किसे मिलती है 
बस यूँही चलते चलो, सोचो मत 

इश्क़ का का काम है सुब्हान-अल्लाह 
सोचते क्या हो करो, सोचो मत 

सोचते रहने से क्या होता है 
उठ के कुछ काम करो, सोचो मत 

गाँव से इस्लामाबाद जाने और वहां से भारत का वीसा प्राप्त करने की अलग ही कहानी है। वीसा मिलने के बाद अगर आफ़ताब हवाई जहाज़ से भारत आते तो एयरपोर्ट पर ही पकडे जाते लिहाज़ा उन्होंने 'समझौता एक्प्रेस' से जाना ही बेहतर समझा। वाघा बार्डर पर चेकिंग हुई लेकिन वहां की पुलिस इतनी मुस्तैद नहीं नहीं थी कि उन्हें पकड़ती। पाकिस्तानी ख़ुफ़िया पुलिस को भी उनके भारतीय वीसा की भनक नहीं लगी थी इसलिए वो सकुशल भारत आ गए जहाँ उन्हें राजनीतिक शरण मिल गयी। भारत में उनके बहुत से चाहने वाले और दोस्त थे जिनमें कमलेश्वर प्रमुख थे। कमलेश्वर ने ही उनकी इस दास्तान को अपनी किताब 'अघोषित आपातकाल' में विस्तार से कलम बद्ध किया है। आज हम उनकी ग़ज़लों की किताब 'मोहब्बत जब नहीं होगी' को आपके सामने लाये हैं । इस क़िताब को 'रेख़्ता बुक्स' ने प्रकाशित किया है आप इसे contact@rekhta.org से या फिर अमेजन से आसानी से मँगवा सकते हैं। ये किताब उन्होंने 'कमलेश्वर और केदार सिंह' को याद करते हुए समर्पित की है। 


चार साँसे थीं मगर सीने को बोझल कर गईं 
दो क़दम की ये मसाफ़त किस क़दर भारी हुई 
मसाफ़त :दूरी 

एक मंज़र है कि आँखों से सरकता ही नहीं 
एक साअ'त है कि सारी उम्र पर तारी हुई 
साअ'त : पल     

किन तिलिस्मी रास्तों में उम्र काटी आफ़ताब 
जिस क़दर आसाँ लगा उतनी ही दुश्वारी हुई 

आफ़ताब हुसैन का जन्म 6 जून 1962 को तालागंग, पंजाब पाकिस्तान में हुआ। गाँव में  शुरूआती तालीम के बाद ये लाहौर पढ़ने चले आये और यूनिवर्सिटी ओरियंटल कॉलेज लाहौर से उर्दू साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और उसी शहर में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के तौर पर काम करते रहे। उनकी क़ाबलियत के चलते उन्हें 'हल्क़ा ए अर्बाबे ज़ौक़' लाहौर का सेकेट्री बनाया गया। यहाँ आपको बतलाता चलूँ कि 'हल्क़ा ए अर्बाबे ज़ौक़' 29 अप्रेल 1939 को पाकिस्तान का एक महत्वपूर्ण साहित्यिक मूवमेंट था जिसे 'नून मीम राशिद' और 'मीरजी' ने शुरू किया और बाद में इसमें पाकिस्तान के प्रसिद्ध साहित्यकारों के अलावा भारत के 'कृष्ण चन्दर' और 'राजेंद्र सिंह बेदी' जैसे साहित्यकारों भी जोड़ा। लाहौर से शुरू हुआ ये मूवमेंट अब पाकिस्तान के विभिन्न शहरों के अलावा 'भारत , यूरोप और नार्थ अमेरिका के बहुत से शहरों में भी शुरू हो चुका है। बीस साल की उम्र याने सन 1982 में ही आफ़ताब हुसैन ने अपनी शायरी की बदौलत पाकिस्तान में वो मुक़ाम हासिल कर लिया था जिसे हासिल करने में दूसरे अपनी पूरी उम्र खर्च कर देते हैं। 

कोई नहीं जो वरा-ए-नज़र भी देख सके 
हर एक ने उसे देखा है देखने के लिए 
वरा-ए-नज़र: आँखों की पहुँच से बाहर 

बदल रहे हैं ज़माने के रंग क्या क्या देख 
नज़र उठा कि ये दुनिया है देखने के लिए 

गुज़र रहा है जो चेहरे पे हाथ रक्खे हुए 
ये दिल उसी को तरसता है देखने के लिए 

पाकिस्तान में आफ़ताब साहब की ज़िन्दगी सुकून से कट रही थी तभी वो हादसा हुआ जिसका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है। भारत में शरण लेने के कुछ अरसे बाद वो अदीबों के आलमी इदारे (P. E. N. ) की दावत पर जर्मनी चले गए और वहाँ से ऑस्ट्रिया की कल्चरल मिनिस्ट्री और विएना शहर के बुलावे पर 'राइटर इन रेसिडेंस ' के तहत वहीँ बस गए। विएना यूनिवर्सिटी से तुलनात्मक साहित्य में पी एच डी की डिग्री लेने के बाद अब उसी यूनिवर्सिटी में दक्षिणी एशिया के साहित्य और संस्कृति का अध्यापन करते हैं और वहां से एक जर्मन-इंग्लिश भाषा की पत्रिका वर्ड एंड वर्ल्ड' भी निकालते हैं. हिंदी के अलावा उनकी रचनाएँ इटेलियन ,इंग्लिश ,पर्शियन, बंगाली और जर्मन आदि कई भाषाओँ में पढ़ी एवं सराही जाती हैं। ग़ज़ल के अलावा वो विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर विचारोत्तेजक लेख भी लिखते हैं। किसी ने सही कहा है कि ज़िन्दगी में जो होता है अच्छे के लिए होता है अगर वो बाजपेयी जी की कविताओं की उर्दू में किताब न छपवाते और उन्हें स्वयं भेंट न देते तो शायद वो वहाँ नहीं होते जहाँ आज हैं।    

कार-ए-दुनिया कहीं निमटा है किसी से भी कहीं 
आप बेकार मुसीबत में, पड़े रहते हैं   
कार-ए-दुनिया: दुनिया के काम    

शेर का नश्शा भी अफ्यून से कुछ कम तो नहीं 
कि जो पड़ जाते हैं इस लत में, पड़े रहते हैं 
अफ्यून: अफ़ीम 

यार लोग आ के सुना जाते हैं बातें क्या क्या  
और हम हैं कि मुरव्वत में, पड़े रहते हैं 

अब तो पड़ने में कोई लुत्फ़ न रहने में मज़ा 
बस पड़े रहने की आदत में, पड़े रहते हैं 

यूँ तो आफ़ताब हुसैन साहब की अलग अलग विषयों पर अब तक आधा दर्ज़न से अधिक किताबें उर्दू इंग्लिश में छप कर बाजार में आ चुकी हैं लेकिन उर्दू में छपी उनकी ग़ज़लों की एकमात्र किताब 'मत्ला' 1999 में छपी थी जो भारत और पाकिस्तान में बहुत चर्चित रही. आफ़ताब हुसैन इस क़िताब की भूमिका में लिखते हैं कि " शेर कहना मेरे लिए एक सुखद अनुभव है कि ये अभिव्यक्ति का वो माध्यम है जो मेरी ऊर्जा को जीनलाइज़ करता है। शेर कहते हुए मेरी नज़रों में कोई विशेष पाठक नहीं होता, मैं खुद भी नहीं होता।  बस एक तरंग होती है जो मुझसे लिखवाये चली जाती है। मेरी शाइरी का विषय-वस्तु क्या है ? मैंने इसके बारे में कभी गौर नहीं किया।  मैं समझता हूँ कि ज़िन्दगी ही की तरह शाइरी भी एक फैली हुई क़ायनात है। मैं इतना जरूर जानता हूँ कि मैं अपना सच लिखता हूँ और अपनी पूरी कुव्वत के साथ लिखता हूँ। "    
मेरी गुज़ारिश है कि आप आफ़ताब हुसैन साहब को पढ़ें और फिर खुद फैसला करें कि उनकी शाइरी कैसी है। आखिर में उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर आपकी ख़िदमत पेश करते हुए विदा लेता हूँ :

मन्ज़िल हाथ नहीं आ पाती ख़्वाब अधूरा रह जाता है 
राह-ए-तलब पर चलते चलते आदमी आधा रह जाता है 
राह-ए-तलब: ख्वाहिशों की राह    

कभी कभी तो दिल की धड़कन बंद भी हो जाती है साहब 
कभी कभी तो सीने में बस दर्द धड़कता रह जाता है 

तुझको भूल चुके हैं हम भी लेकिन ऐसी बात नहीं कुछ 
सूरज डूब भी जाए अगर तो एक धुँदलका रह जाता है  

वक़्त का पहिया चले तो फिर कब चल सकता है ज़ोर किसी का 
आदमी अपने आप को क्या क्या चीज़ समझता रह जाता है