पिछली बार आपको एक पेंटर शायर से मिलवाया आज मिलिए एक इंजिनीयर शायर से. वैसे इंसान दिल से शायर होता है पेशे से नहीं इसीलिए आज शायरी के आकाश पर चमकने वाले अधिकांश सितारे किसी न किसी ऐसे पेशे से जुड़े हुए हैं जिनका शायरी से दूर दूर तक का नाता नहीं है. कहने का सीधा सा मतलब है के वो दिन अब लद गए जब मियां ग़ालिब जैसे पाए दार शायर सिर्फ और सिर्फ शायरी ही किया करते थे, तब शायरी पेशा था अब शौक है. आज का शायर चूँकि ज़मीन से जुड़ा हुआ है इसी कारण आज की शायरी में जामो-मीना, हुस्नो-इश्क की जगह इंसानी जद्दोजहद ने ले ली है. आज का शायर अपनी और अपने जैसे दूसरों की तकलीफें और खुशियाँ अपनी शायरी में ढालता है इसी कारण आज की शायरी अवाम की अपनी दास्ताँ है.
इस तरह कब तक हंसेगा- गायेगा
एक दिन बच्चा बड़ा हो जाएगा
फाइलें यदि मेज़ पर ठहरें नहीं
दफ्तरों के हाथ क्या लग पायेगा
'रेस' जीतेंगी यहाँ बैसाखियाँ
पाँव वाला दौड़ता रह जाएगा
हमारे आज के शायर हैं जनाब
ओम प्रकाश 'यती' जी, जो उत्तर प्रदेश सिचाईं विभाग में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत हैं. खास बात ये है के 'यती' जी ने सिर्फ सिविल इंजिनीयरिंग ही नहीं की बल्कि विधि में स्नातक और हिंदी साहित्य में एम्.ऐ. भी किया है जो अपने आप में एक विलक्षण बात है. उनका एक ग़ज़ल संग्रह "
बाहर छाया भीतर धूप" सन १९९७ में छप चुका है और दूसरा जिसकी हम आज बात करेंगे "
सच कहूँ तो" अभी हाल ही में प्रकशित हुआ है.

मन में मेरे उत्सव जैसा हो जाता है
तुमसे मिलकर खुद से मिलना हो जाता है
भीड़ बहुत ज्यादा दिखती है यूँ देखो तो
लेकिन जब चल दो तो रस्ता हो जाता है
जब आते हैं घर में मेरे माँ-बाबूजी
मेरा मन फिर से इक बच्चा हो जाता है
माँ-बाप के सामने फिर से बच्चा बन जाने की बात मन को कहीं भीतर से छू जाती है और येही शायरी की खूबी है. दो मिसरों में वो बात कह दी जाती है जिसे कहने में दूसरी विधा में शायद ग्रन्थ लिखने पड़ें . एक और शायर मन से बच्चा बनने की बात करता है और दूसरी और बड़े होने के बाद की दुश्वारियों की भी चर्चा बहुत सार्थक ढंग से करता है. ओम जी की शायरी में ये विविधता देखते ही बनती है.
हमें मालूम है फिर भी नहीं हम खिलखिला पाते
बहुत से रोग तो केवल हंसी से भाग जाते हैं
निभाने हैं गृहस्थी के कठिन दायित्व हम को ही
मगर कुछ लोग इस रस्साकशी से भाग जाते हैं
यहाँ इक रोज़ हड्डी रीढ़ की हो जायेगी गायब
चलो ऐसा करें इस नौकरी से भाग जाते हैं
इस आखरी शेर में यती जी ने लाखों करोड़ों नौकरी पेशा लोगों की दुखती रग पर हाथ रख दिया है. ऐसे शेर कहना आसान काम नहीं इसीलिए ये बड़ी मुश्किल से नज़र आते हैं. श्री बाल स्वरुप राही जी ने इस पुस्तक की भूमिका में तभी कहा है कि "
ओम जी के बारे में अगर मैं सच कहूँ तो यही कहूँगा कि इन्होने हिंदी-ग़ज़ल को अलग पहचान दी है. इनकी हर ग़ज़ल का अपना रंग है जो आजकल थोक में लिखी जा रही ग़ज़लों से अलग है. इनकी ग़ज़लों में हिंदी मुहावरों का सटीक प्रयोग है. 'यती' जी के एक-एक शेर में हिंदी कविता के संस्कार विधमान हैं."
हम भी खुश थे जब वो जीते, लेना एक न देना दो
भाग रहे थे तुम भी पीछे , लेना एक न देना दो
उनको तो मंदिर-मस्जिद से वोट की खेती करनी थी
हम आपस में लड़ना सीखे, लेना एक न देना दो
क्यूँ देते हो राय किसी को, पूछ रहा है क्या कोई ?
बोले मुझसे मेरे बेटे, लेना एक न देना दो
'यती' जी की अधिकांश ग़ज़लों का वातावरण पारिवारिक है. परिवार के बिखरने और बुजुर्गों के हाशिये पर चले जाने की पीड़ा उनकी शायरी में उभर कर आई है. जिस पारिवारिक एकता की हम विश्व भर में एक मिसाल थे आज उसकी चर्चा करने मात्र से हम कतराते हैं. हम आधुनिकता की आंधी में अपने परिवार को छिन्न भिन्न होता देख रहे हैं लेकिन उसे बचाने के प्रयास में कुछ कर नहीं रहे. हमारे यहाँ के बुजुर्ग भी आधुनिक विकसित देशों के बुजुर्गों की तरह अकेले या उपेक्षित जीवन जीने को विवश हैं. इस पीड़ा को 'यती' जी ने अपनी शायरी में बहुत सशक्त शब्द दिए हैं.
कुर्ता, धोती, गमछा, टोपी सब जुट पाना मुश्किल था
पर बच्चों की फीस समय से भरते आये बाबूजी
बडकी की शादी से लेकर फूलमती के गौने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आये बाबूजी
नाती-पोते वाले होकर अब भी गाँव में तनहा हैं
वो परिवार कहाँ हैं जिस पर मरते आये बाबूजी
इसी पीड़ा को एक और ग़ज़ल में किस तरह से 'यती' जी ने ढाला है इसकी भी बानगी देखिये. इन ग़ज़लों में इश्वर न करे आपको अपने घर परिवार की छवि दिखाई दे., क्यूँ की इनकी पीड़ा को एक भुक्त भोगी बहुत गहरे से समझ सकता है. अगर आपके घर परिवार में ऐसा है तो कृपया इसे सुधारने की और कदम बढायें क्यूँ की परिवार के टूटने या बुजुर्गों की अवहेलना करने के नतीजे फलदायी नहीं होते.
हंसी को और खुशियों को हमारे साथ रहने दो
अभी कुछ देर सपनों को हमारे साथ रहने दो
तुम्हें फुर्सत नहीं तो जाओ बेटा आज ही जाओ
मगर कुछ रोज़ बच्चों को हमारे साथ रहने दो
ये जंगल कट गए तो किसके साए में गुज़र होगी
हमेशा इन बुजुर्गों को हमारे साथ रहने दो
अविचल प्रकाशन -बिजनौर द्वारा प्रकाशित इस किताब की प्राप्ति के लिए आप उन्हें ई-मेल avichalprakashan@yahoo.in कर सकते हैं या फिर 03142-263659 पर फोन भी कर सकते हैं. सबसे आसान और तर्क संगत बात तो ये होगी यदि आप ओम जी को उनके मोबाइल न. 09410476193 पर पहले उन्हें इन खूबसूरत ग़ज़लों के गुलदस्ते के लिए बधाई दें और फिर इस किताब की प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें. आप चाहें तो ओम जी को yatiom@gmail.com मेल भी कर सकते हैं. आईये एक बार फिर हम ओम जी के माध्यम से उस सुनहरी पलों को जी लें जिनकी यादें अब सिर्फ गिनती के लोगों के पास ही बचीं हैं.
खेतों खलियानों की फसलों की खुशबू
लाते हैं बाबूजी गाँवों की खुशबू
गठरी में तिलवा है, चिवड़ा है, गुड है
लिपटी है अम्मा के हाथों की खुशबू
बाहर हैं भैय्या की मीठी फटकारें घर में है भाभी की बातों की खुशबू
मंगरू भी चाचा हैं, बुधिया भी चाची,
गाँवों में जिंदा है रिश्तों की खुशबू
खिचड़ी है, बहुरा है, पिंडिया है, छठ है
गाँवों में हरदम त्योंहारों की खुशबू