दहलीज़ मेरे घर की अंधेरों से अट न जाय
पागल हवा चराग़ से आकर लिपट न जाय
हमसाये चाहते हैं मिरे घर को फूंकना
और ये भी चाहते हैं घर उनके लपट न जाय
पा ही गया मैं इश्क़ के मकतब में दाखिला
दुनिया संभल, कि तुझसे मिरा जी उचट न जाय
एक दुबले पतले सांवले से लड़के ने, जो दूर से देखने पर किसी स्कूल का विद्यार्थी लगता है, जब ये शेर मुझे सुनाये तो हैरत से मुँह खुला ही रह गया " दुनिया संभल। कि तुझसे मिरा जी उचट न जाय " मिसरा दसों बार दोहराया और अहा हा हा कहते हुए उस से पूछा कि ये शेर किसके हैं बरखुरदार ? जवाब में लड़के ने अपना चश्मा ठीक करते हुए शरमा कर सर झुकाया और बोला " मेरे ही हैं नीरज जी " सच कहता हूँ एक बार तो उसकी बात पे बिलकुल यकीन नहीं हुआ और जब हुआ तो उसे गले लगते हुए मैंने भरे गले से कहा - जियो !
तुम्हें जिस पर हंसी आई मुसलसल
वो जुमला तो अखरना चाहिए था
वहां पर ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी थी
उसी कूचे में मरना चाहिए था
किसी की मुस्कराहट छीन बैठे
सलीक़े से मुकरना चाहिए था
समझ आया है ये बीनाई खो कर
उजालों से भी डरना चाहिए था
फिर उसके बाद सोच कि बाकी बचेगा क्या
तू सिर्फ कृष्ण भक्ति से रसखान काट दे
महफ़िल की शक्ल आपने देखी है उस घडी
दानां की बात जब कोई नादान काट दे
कमतर न आंकिए कभी निर्धन के अज्म को
अपनी पे आये पानी तो चट्टान काट दे
गंगा जमुनी तहजीब की नुमाइंदगी करती इरशाद की ग़ज़लें सीधे पढ़ने सुनने वालों के दिल में उत्तर जाती है। ये तय करना मुश्किल है कि इरशाद उर्दू के शायर हैं या हिंदी के। 8 अगस्त 1983 को जन्मे इरशाद ने शायरी की राह अपने आप चुनी बकौल इरशाद शायरी ऐसी विधा थी जिससे उनके पूरे खानदान में किसी का भी दूर दूर तक कोई नाता नहीं रहा था। पूरे कट्टर धार्मिक परिवेश में पले -बढे इरशाद के पीछे शायरी की बला कब और कैसे पड़ गयी ये उन्हें खुद भी नहीं मालूम। अब उनके नक़्शे कदम पर उनकी छोटी बहन परवीन खान बहुत सधे हुए क़दमों से चल रही है।
हौसला भले न दो उड़ान का
तज़करा तो छोड़ दो थकान का
ईंट उगती देख अपने खेत में
रो पड़ा है आज दिल किसान का
मुझमें कोई हीरे हैं जड़े हुए
सब कमाल है तेरे बखान का
मैं चराग से जला चराग हूँ
रौशनी है पेशा खानदान का
'लफ्ज़' पत्रिका के संपादक संचालक जनाब 'तुफैल चतुर्वेदी' साहब ने उर्दू के बेहतरीन युवा शायरों की पूरी खेप तैयार करने में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है और आज भी कर रहे हैं। उनके मार्गदर्शन और उस्तादी में जनाब 'विकास राज' और ' स्वप्निल तिवारी' जैसे बहुत से शायरों ने अपने हुनर को संवारा और धार दी। इन दो शायरों की तरह इरशाद भी खुद फ़ारिगुल-इस्लाह ही नहीं हुए बल्कि बहुत अच्छे शेर कहने वाले कई शायरों की रहनुमाई भी कर रहे हैं।
कल तेरी तस्वीर मुकम्मल की मैंने
फ़ौरन उस पर तितली आकर बैठ गयी
रोने की तरकीब हमारे आई काम
ग़म की मिटटी पानी पाकर बैठ गयी
वो भी लड़ते लड़ते जग से हार गया
चाहत भी घर बार लुटा कर बैठ गयी
तुफैल साहब के अलावा इरशाद की शायरी को सजने संवारने में उर्दू के बहुत बड़े शायर जनाब फ़रहत एहसास और डॉ अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब का भी बहुत बड़ा हाथ रहा है। इरशाद भाई ने इस किताब में अपनी बात कहते हुए लिखा भी है कि "तक़दीर जब-जब मुझे मेरी हार गिनवाती है मैं अपनी जीत के तीन नाम, याने 'तुफैल साहब , फरहत एहसास और जनाब अब्दुल बिस्मिल्लाह साहब , गिनवाकर तक़दीर की बोलती बंद कर देता हूँ।
जिस्म दरिया का थरथराया है
हमने पानी से सर उठाया है
अब मैं ज़ख्मों को फूल कहता हूँ
फ़न ये मुश्किल से हाथ आया है
जिन दिनों आपसे तवक़्क़ो थी
आपने भी मज़ाक़ उड़ाया है
हाले -दिल उसको क्या सुनाएँ हम
सब उसी का किया-कराया है
प्रसिद्ध शायर 'ज्ञान प्रकाश विवेक' जी ने लिखा है कि 'सिकंदर की ग़ज़लों में सादगी की गूँज हमें निरंतर महसूस होती है , उनकी ग़ज़लों में बड़बोलेपन का कोई स्थान नहीं है। विनम्रता इन ग़ज़लों को ऐसे संस्कार में रचती है कि दो मिसरे कोई शोर नहीं मचाते। शायरी का अगर दूसरा नाम तहज़ीब है तो उसे यहाँ महसूस किया जा सकता है।
तेरी फ़ुर्क़त का अमृत पिया
और उदासी अमर हो गयी
फुरकत -जुदाई
यूँ हुआ फिर करिश्मा हुआ
मिटटी ही कूज़ागर हो गयी
मुझको मिटटी में बोया गया
मेरी मिटटी शजर हो गयी
इरशाद की शायरी की ये तो अभी शुरुआत ही है हमें उम्मीद है कि आने वाले वक्त में वो और भी बेहतरीन शायर बन के मकबूल होगा, जिसकी शायरी में इश्क के अलावा दुनिया के रंजों ग़म खुशियां मजबूरियां घुटन टूटन बेबसी के रंग भी नुमायां होंगे। उर्दू शायरी को इस नौजवान शायर से बड़ी उम्मीदें जगी हैं. और क्यों न जगें ? जिस शायर की पहली ही किताब चर्चा में आ जाय उस से भविष्य में और अच्छे की उम्मीद बंध ही जाती है। अब इरशाद का मुकाबला खुद इरशाद से होगा उसे अब अपनी हर कहन को अपने पहले कहे से बेहतर कहना होगा ये काम जितना आसान दिखता है उतना है नहीं लेकिन हमें यकीन है कि इरशाद के बुलंद हौसले उसे सिकंदर महान बना कर ही छोड़ेंगे।
मैं भी कुछ दूर तलक जाके ठहर जाता हूँ
तू भी हँसते हुए बच्चे को रुला देती है
ज़ख्म जब तुमने दिए हों तो भले लगते हैं
चोट जब दिल पे लगी हो तो मज़ा देती है
दिन तो पलकों पे कई ख्वाब सज़ा देता है
रात आँखों को समंदर का पता देती है
इस किताब के प्रकाशन के लिए एनीबुक डॉट कॉम की जितनी तारीफ की जाय कम है। बड़े प्रकाशक जहाँ नए और कम प्रचलित लेखकों कवियों या शायरों को छापने से बचते हैं वहीँ एनीबुक ने न केवल इरशाद खान 'सिकंदर' की किताब को छापा बल्कि बहुत खूबसूरत अंदाज़ में छापा। इसके पीछे 'पराग अग्रवाल' जी - जो इसके करता धर्ता हैं, का शायरी प्रेम झलकता है। किताब की प्राप्ति के लिए आप एनीबुक को उनके हाउस न। 1062 , ग्राउंड फ्लोर , सेक्टर 21 , गुड़गांव पर लिखे या contactanybook@gmail.com पर मेल करें। सबसे आसान है की आप इरशाद भाई को उनके मोबाईल 9818354784 पर बधाई देते हुए किताब प्राप्ति का आसान रास्ता पूछें या फिर पराग अग्रवाल जी से उनके मोबाईल फोन 9971698930 पर बात कर किताब मंगवा लें। चाहे जो करें लेकिन इस होनहार शायर की किताब आपकी निजी लाइब्रेरी में होनी ही चाहिए।
अगली किताब की तलाश से पहले आपको पढ़वाते हैं इरशाद की एक ग़ज़ल के ये शेर
क्या किसी का लम्स फिर इंसा बनाएगा मुझे
उसके जाते ही समूचा जिस्म पत्थर हो गया
कारवां के लोग सारे गुमरही में खो गए
मैं अकेली जान लेकर तनहा लश्कर हो गया
क्या करूँ ग़म भी छुपाना ठीक से आता नहीं
दास्ताँ छेड़ी किसी ने मैं उजागर हो गया