Monday, May 31, 2010

किताबों की दुनिया - 30

जावेद अख्तर साहब ने फिल्म सरहद के लिए एक गीत लिखा था "पंछी नदियाँ पवन के झोंके कोई सरहद न इन्हें रोके..." पंछी नदियाँ पवन के झोंकों के अलावा और भी बहुत कुछ है जिन्हें सरहदें नहीं रोक पातीं. कुछ इंसान और उनका हुनर उन्हें सरहद की सीमाओं के पार ले जाता है. जैसे मौसिकी के उस्ताद किसी भी मुल्क के क्यूँ न हों वो हर सुनने वाले के दिल के तारों को झंकृत कर देते हैं वैसे ही शायरी किसी मुल्क विशेष के शायर की ना होकर उसके चाहने वालों की हो जाती है.

आज हम पाकिस्तान की उस मशहूर शायरा की किताब का जिक्र करेंगे जिसे हम भारत वासिओं ने भी सर आँखों पर बिठाया है. आपने सही पहचाना उस शायरा का नाम है " परवीन शाकिर" जो कराची सिंध पाकिस्तान में 24.11.1952 को पैदा हुईं. इंग्लिश लिटरेचर और लैंग्वेज में एम ऐ करने के बाद उन्होंने पी.ऐच.डी. की डिग्री हासिल की. उन्हें उनकी शायरी के लिए आदमजी पुरूस्कार से नवाज़ा गया. डा. सैयद नसीर अली से उनका निकाह हुआ और उनका सैयद मुराद अली नाम का बेटा भी है. उनकी 26.12.1994 को एक सड़क दुर्घटना में असमय हुई मौत ने दोनों देशों में उनके चाहने वालों को स्तब्ध कर दिया था.


देवनागरी में पहली बार उनकी शायरी को सुरेश कुमार जी ने सम्पादित किया है और डायमंड बुक्स वालों ने " खुली आँखों में सपना " शीर्षक से उसे प्रकाशित किया है. प्रस्तुत हैं उसी किताब के पन्नो पर बिखरे शायरी का जादू जगाते परवीन शाकिर साहिबा की कलम के हुस्न की नुमाइंदगी करते चंद अशआर


तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मिरा तन मोर बनके नाचता है

मैं उसकी दस्तरस* में हूँ, मगर वो
मुझे मेरी रिज़ा^ से, मांगता है
दस्तरस* = हाथों की पहुँच
रिज़ा^ = स्वीकृति

किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी, टालता है

जिस शायरा के अशआर जन मानस में मुहावरों की तरह प्रयोग में आने लगें उस की किन लफ़्ज़ों में तारीफ़ की जाये. प्रस्तुत हैं उनकी एक बहुत प्रसिद्द ग़ज़ल के चंद अशआर जो उनकी मौत के सोलह साल बाद भी उन्हें जिंदा रखे हुए हैं:-

बारिश हुई तो फूलों के तन चाक* हो गए
मौसम के हाथ भीग के सफ्फ़ाक** हो गए
चाक: टुकड़े टुकड़े
सफ्फ़ाक: अत्याचारी

बादल को क्या खबर है कि बारिश की चाह में
कितने बलंद-औ-बाला शजर ख़ाक हो गए

जुगनू को दिन के वक्त परखने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद* के चालाक हो गए
अहद*= समय

लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक* हो गए
बेबाक*= निर्लज्ज

परवीन जी की शायरी में आप भारतीय परिवेश और संस्कृति की खुशबू को महसूस कर सकते हैं, इसीलिए उनका कलाम भारतियों को कभी अजनबी नहीं लगा. उनका शब्द चयन और भाव भी अद्भुत है. उनके इन शेरों को पढ़ कर कौन कहेगा के वो पाकिस्तान की उर्दू ज़बान की शायरा हैं?

मैंने हाथों को ही पतवार बनाया वरना
एक टूटी हुई कश्ती मेरे किस काम की थी

ये हवा कैसे उड़ा ले गयी आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी

बोझ उठाये हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं माँ ! तेरी ये उम्र तो आराम की थी

ये हिन्दुस्तानी ज़बान की ख़ूबसूरती महज़ एक ग़ज़ल तक ही सीमित नहीं है, ऐसे करिश्में आपको पूरी किताब में बिखरे मिलेंगे. किताब के सफ्हे पलटते जाइए और लुत्फ़ उठाते जाइये. एक और ग़ज़ल के चंद अशआर पढ़वाता हूँ ताकि आप मेरी बात से सहमत हो जाएँ :-

रात गए मैं बिंदिया खोजने जब भी निकलूं
कंगन खनके और कानों की बाली गाये

सजे हुए हैं पलकों पर खुश रंग दिये से
आँख सितारों की छाँव दीवाली गाये

सजन का इसरार कि हम तो गीत सुनेंगे
गोरी चुप है लेकिन मुख की लाली गाये

मुंह से न बोले, नैन मगर मुस्काते जाएँ
उजली धूप न बोले, रैना काली गाये

परवीन जी की शायरी खुशबू के सफ़र की शायरी है. प्रेम की उत्कट चाह में भटकती हुई, वो तमाम नाकामियों से गुज़रती है, फिर भी जीवन के प्रति उसकी आस्था समाप्त नहीं होती. अशआर उनकी कलम की नोक के इशारे पर रक्स करते हैं और पढने वाले के दिल में उतर जाते हैं...

आँखों पे धीरे धीरे उतर के पुराने ग़म
पलकों पे नन्हें-नन्हे सितारे पिरो गये

वो बचपने की नींद तो अब ख़्वाब हो गयी
क्या उम्र थी कि रात हुई और सो गये

एक सौ साठ पृष्ठों की ये किताब परवीन जी की लाजवाब ग़ज़लों और नज्मों से भरी पड़ी है. 'डायमंड बुक्स' द्वारा प्रकाशित इस किताब को हासिल करना बहुत मुश्किल काम नहीं होना चाहिए. अगर आपको ये किताब आपके निकट के पुस्तक विक्रेता या स्टेशन की बुक स्टाल पर ना मिले तो आप 011-51611861-865 पर फोन कीजिये या उनकी वेब साईट www.diamondpublication.com को छान मारिये, सबसे आसान रहेगा यदि आप उन्हें sales@diamondpublication.com एड्रेस पर मेल करें और मात्र 75 रु. की ये किताब घर बैठे प्राप्त कर इसका भरपूर आनंद लें.

धनक-धनक* मिरी पोरों के ख़्वाब कर देगा
वो लम्स** मेरे बदन को गुलाब कर देगा
*धनक धनक= इन्द्रधनुष-इन्द्रधनुष
**लम्स = स्पर्श

मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाउंगी
वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा

अब आखिर में चलते चलते नज़र दौड़ाइए उनकी छोटी छोटी चंद नज्मों पर और देखिये किस ख़ूबसूरती से वो अपनी बात सुनने -पढने वाले तक पहुंचाती हैं.

बारिश

बारिश अब से पहले भी कई बार हुई थी
क्या इस बार मेरे रंगरेज़ ने चुनरी कच्ची रंगी थी
या तन का ही कहना सच कि
रंग तो उसके होंठों में था.

ओथेलो

अपने फोन पर अपना नंबर
बार बार डायल करती हूँ
सोच रही हूँ
कब तक उसका टेलीफोन एंगेज रहेगा
दिल कुढ़ता है
इतनी-इतनी देर
वो किस से बातें करता है

मुक़द्दर

मैं वो लड़की हूँ
जिस को पहली रात
कोई घूंघट उठा कर ये कह दे
मेरा सब कुछ तिरा है, दिल के सिवा !

जीवन साथी से

धूप में बारिश होते देख के
हैरत करने वाले
शायद तूने मेरी हंसी को
छूकर
कभी नहीं देखा

आप डूबिये परवीन जी की शायरी में हम तो चले आपके लिए एक और किताब तलाशने.....



Monday, May 24, 2010

मैंने तेरा नाम लिखा है

दोस्तों आज मैं आपको अपने आदरणीय गुरुदेव श्री प्राण शर्मा साहब की वो कविता पढवाता हूँ जो मुझे बेहद पसंद है और जिसने बहुत प्रशंशा अर्जित की है.उम्मीद करता हूँ के आप सब भी इसे पढ़ कर मेरी तरह ही आनंदित होंगे. कुछ माह पूर्व ये कविता आदरणीय महावीर जी के ब्लॉग की शोभा भी बढ़ा चुकी है.


जीवन में एक बार कभी जो
वक्त मिले तो देखने जाना
ताजमहल के एक पत्थर पर
मैंने तेरा नाम लिखा है

तू क्या जाने तब भी मैंने
दुनिया का हर सुख बिसरा कर
तुझ को मन से ही था चाहा
तू क्या जाने तब भी मैंने
खुद से क्या जग से भी बढ़ कर
तेरा था हर काम सराहा
तू क्या जाने तेरी यादें
मन की छोटी मंजूषा में
अब तक सम्भाले बैठा हूँ
तेरी गर्वीली अंगड़ाई
तेरी प्यार भरी पहुनाई
जीवन में पाले बैठा हूँ
तेरी सुविधा की खातिर ही
नाम अपना घनश्याम लिखा है.

जीवन में एक बार कभी जो
वक्त मिले तो देखने जाना
ताजमहल के एक पत्थर पर
मैंने तेरा नाम लिखा है

याद मुझे है अब तक सब कुछ
ताजमहल के पिछवाड़े में
तेरा मेरा मिलना जुलना
याद मुझे है अब तक सब कुछ
धीरे धीरे मेरे मन का
तेरे सुन्दर मन से खुलना
याद मुझे है अब तक सब कुछ
पीपल की शीतल छाया में
तेरा मेरा बैठे रहना
याद मुझे है अब तक सब कुछ
आँखों ही आँखों से मन की
प्यारी प्यारी बातें कहना
प्यार सदा जीवित रहता है
मैंने यह पैग़ाम लिखा है

जीवन में एक बार कभी जो
वक्त मिले तो देखने जाना
ताजमहल के एक पत्थर पर
मैंने तेरा नाम लिखा है

जी करता है अब भी वैसे
लाल, गुलाबी फूलों जैसे
दिन अपनी ख़ुशबू बिखराएं
जी करता है अब भी वैसे
सावन के बादल नर्तन कर
प्यार भरी बूँदें बरसायें
जी करता है अब भी वैसी
सोंधी सोंधी मस्त हवाएं
तन मन दोनों को लहरायें
वैसे ही हम नाचें झूमें
वैसे ही हम जी भर घूमें
वैसी ही मस्ती बिखराएँ
तुझ से मिलने की खातिर ही
एक जरूरी काम लिखा है.

जीवन में एक बार कभी जो
वक्त मिले तो देखने जाना
ताजमहल के एक पत्थर पर
मैंने तेरा नाम लिखा है

प्राण शर्मा

Monday, May 17, 2010

किताबों की दुनिया - 29

हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चन्द लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए

इस बार किताबों की दुनिया में किताब का जिक्र करने इसे पहले एक गीत सुनते हैं:--





मुझे उम्मीद है आपको ये गीत बहुत पसंद आया होगा क्यूँ की इस गीत में संगीत के साथ साथ लाजवाब शायरी भी है, ऐसे ही एक नहीं कई मधुर यादगार गीतों के रचयिता हैं जनाब जांनिसार अख्तर साहब. आज हम उन्ही की नायाब रचनाओं को जिसे निदा फ़ाज़ली साहब ने अपनी किताब ' जाँनिसार अख्तर एक जवान मौत" 'में सम्पादित किया है का जिक्र करेंगे. आज के नौजवानों को सूचित कर दूं की आज के मशहूर शायर जावेद अख्तर साहब जनाब जां निसार अख्तर साहब के बेटे हैं.



मैं सो भी जाऊं तो क्या, मेरी बंद आँखों में
तमाम रात कोई झांकता लगे है मुझे


मैं जब भी उसके ख्यालों में खो सा जाता हूँ
वो खुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे


दबा के आई है सीने में कौन सी आहें
कुछ आज रंग तेरा सांवला लगे है मुझे


जांनिसार साहब ने अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ उसकी दोस्ती में गर्क कर दिए. वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे वो ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. उसके बाद उन्होंने जो लिखा उस से उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ.

जब शाख कोई हाथ लगाते ही चमन में
शर्माए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो

ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर
नद्दी कोई बलखाये तो लगता है कि तुम हो


इस किताब की भूमिका में निदा फ़ाज़ली साहब ने जां निसार अख्तर के कई अनछुए पहलू पाठकों के सामने बड़े दिलचस्प अंदाज़ में रखें हैं. हमें अख्तर साहब की शायरी और उनकी शख्सियत के अलग अलग रंग देखने को मिलते हैं. निदा फ़ाज़ली लिखते हैं: "जाँ निसार ने अपने ख़त में लिखा है 'आदमी जिस्म से नहीं दिलो दिमाग से बूढा होता है ' वे वास्तव में आखरी दिन तक जवान रहे. वो नौजवानों की तरह रात में देर तक चलने वाली महफ़िलों और बाहर के मुशायरों में अपने आपको खर्च करते रहे."

और क्या इस से ज्यादा कोई नर्मी बरतूं
दिल के जख्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह


और तो मुझको मिला क्या मेरी महनत का सिला
चन्द सिक्के हैं मेरे हाथ में छालों की तरह




अख्तर साहब ने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से सन 1935-36 में उर्दू में गोल्ड मेडल ले कर एम ऐ किया था. 1947 के देश विभाजन के पहले तक ग्वालिअर के विक्टोरिया कालेज में उर्दू के प्रोफ़ेसर रहे और फिर सन 1950 तक भोपाल के हमीदिया कालेज में उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद पर रहे. 'साफिया' जो जावेद अख्तर साहब की अम्मी हैं,से उनका निकाह सन 1943 में हुआ. 'साफिया' उस दौर के सबसे रोमांटिक शायर 'मजाज़' लखनवी की बहन थीं. दोनों हमीदिया कालेज में पढ़ाने लगे और प्रोग्रेसिव राइटर मूवमेंट से जुड़ गए. अख्तर साहब को उस मूवमेंट का प्रेसिडेंट बनाया गया जो उस वक्त की सरकार को गवारा नहीं हुआ. इसके चलते उन्हें भोपाल में ही अपना घर बार छोड़ मुंबई की शरण लेनी पड़ी, जहाँ वो साहिर के साथ जुड़ गए. साफिया दो बच्चों जावेद और सलमान के साथ भोपाल में ही रहीं. उस दौरान में साफिया के अख्तर साहब को लिखे पत्रों पर एक किताब 'तुम्हारे नाम'हिंदी में, अभी हाल ही में प्रकाशित हुई है, जो साहित्य का अनमोल हीरा है. एक पत्नी द्वारा अपने पति को लिखे निजी पत्र भी किस कदर ऊंचे दर्जे के साहित्यिक हो सकते हैं ये इस किताब को पढ़ कर ही जाना जा सकता है. मात्र 150/- रु.की ये किताब राजकमल प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुई है.

आये क्या क्या याद नज़र जब पड़ती उन दालानों पर
उसका काग़ज़ चिपका देना, घर के रौशनदानों पर

सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया
जाने किस का नाम खुदा था, पीतल के गुलदानों पर

आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मेरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ, साड़ी की दूकानों पर


इस किताब में अख्तर साहब की सिर्फ इकतीस ग़ज़लें ही हैं लेकिन इसके अलावा नज्में ,रुबाइयाँ, और फ़िल्मी गीत भी संकलित किये हुए हैं. साफिया की असमय केंसर से हुई मृत्यु पर उनकी कालजयी नज़्म 'खाके दिल' भी आप इसमें पढ़ सकते हैं और बिलकुल अलग लहजे में लिखी कमाल की रुबाइयाँ {'घर आँगन' के शीर्षक से} भी. ये रुबाइयाँ पति पत्नी के प्रेम और उनके बीच की छोटी छोटी बातों को लाजवाब ढंग से प्रस्तुत करती हैं. बानगी के तौर पर कुछ रुबाइयाँ पढवाता हूँ:--

आहट मेरे क़दमों की सुन पाई है
इक बिजली सी तनबन में लहराई है
दौड़ी है हरेक बात की सुध बिसरा के
रोटी जलती तवे पर छोड़ आई है

***

डाली की तरह चाल लचक उठती है
खुशबू हर इक सांस छलक उठती है
जूड़े में जो वो फूल लगा देते हैं
अन्दर से मेरी रूह महक उठती है

***

हर एक घडी शाक (कठिन) गुज़रती होगी
सौ तरह के वहम करके मरती होगी
घर जाने की जल्दी तो नहीं मुझको मगर
वो चाय पर इंतज़ार करती होगी

***

रहता है अज़ब हाल मेरा उनके साथ
लड़ते हुए अपने से गुज़र जाती है रात
कहती हूँ इतना न सताओ मुझको
डरती हूँ कहीं मान न जायें मेरी बात

***

इक रूप नया आप में पाती हूँ सखी
अपने को बदलती नज़र आती हूँ सखी
खुद मुझको मेरे हाथ हंसी लगते हैं
बच्चे का जो पालना हिलाती हूँ सखी

***

शुक्रिया अदा कीजिये 'वाणी प्रकाशन' दिल्ली वालों का जिन्होंने इस पुस्तक को प्रकाशित कर हम पाठकों के सामने अख्तर साहब का रूमानी संसार खोल दिया. अब ये आप पर है की आप उस संसार से रूबरू होते हैं या नहीं.

सन 1976 में साहित्य अकादमी पुरूस्कार से नवाज़े गए अख्तर साहब के लिखे फिल्म अनारकली, नूरी ,प्रेम पर्वत, शंकर हुसैन, रज़िया सुलतान, बहु बेगम, बाप रे बाप, छूमंतर, सुशीला, सी.आई.डी. आदि फिल्म के गीतों ने धूम मचा दी थी. उनके गीत आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में घर किये हुए हैं जैसे ..." लेके पहला पहला प्यार....", आजा रे...नूरी...नूरी ", ये दिल और उनकी निगाहों के साए..."पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे..." गरीब जान के..."आ जाने वफ़ा आ..." बेमुरव्वत बेवफा बेगाना ऐ दिल आप हैं...."आदि.

चलते चलते सुनते हैं उनका लिखा ये गीत जो यकीनन आपका मन मोह लेगा....



हमने तो आपको गीत संगीत सुनवा दिए, अब इस किताब को खरीदने का आपका क्या इरादा है, ये आप जानें, खरीद लेंगे तो आनंद में डूबेंगे नहीं तो आप की मर्ज़ी हम तो अब अपना सबसे पसंद दीदा काम करने निकलते हैं याने ढूँढ़ते हैं आपके लिए एक और किताब... फिर मिलेंगे.

Monday, May 10, 2010

मैं लाकर गुल बिछाता हूं



तुझे दिल याद करता है तो नग्‍़मे गुनगुनाता हूँ
जुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूं

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं

अदावत* से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

*अदावत = दुश्मनी, घृणा

नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं

नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं

घटायें, धूप, बारिश, फूल, तितली, चांदनी 'नीरज'
तुम्‍हारा अक्‍स इनमें ही मैं अक्‍सर देख पाता हूँ

ये ग़ज़ल अभी ख़त्म नहीं हुई एक मक्ता और ज़ेहन में आया है जिसे मैं आप तक पहुँचाने में खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ...{ये कमजोरी है जिस पर काबू पाना जरूरी है}...चलिए ये बताइए के जब हम हुस्न-ऐ-मतला कह सकते हैं तो हुस्न-ऐ-मक्ता क्यूँ नहीं? सोचिये और जब तक जवाब मिले तब तक मैं ये एक और मक्ता आपको नज़र करता हूँ.

उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
फसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ

Monday, May 3, 2010

किताबों की दुनिया - 28

" गागर में सागर " आपने ये जुमला अक्सर सुना होगा लेकिन मैं नहीं जानता के आप में से कितने ऐसे हैं जिन्होंने इसे महसूस किया है. गागर में सागर वाले करिश्मे बहुत कम हुआ करते हैं लेकिन ये करिश्मा ,कम से कम मेरे लिए तो, किया है वाग्देवी प्रकाशन वालों ने. उन्होंने पकिस्तान के उस्ताद शायर जनाब वजीर आग़ा साहब की एक किताब प्रकाशित की है जिसका नाम है " उजड़े मकाँ का आईना " . मात्र पच्चीस रुपये की इस छोटी सी पेपर बैक किताब के एक सौ साठ पृष्ठों में उर्दू शायरी का अनमोल खज़ाना भरा पड़ा है. वो लोग जो उर्दू शायरी की नफासत और नजाकत को पसंद करते हैं इस किताब को सीने से लगाये रक्खेंगे ये मेरा दावा है.




इतना न पास आ कि तुझे ढूंढते फिरें
इतना न दूर जा कि हमावक्त पास हो
हमावक्त = हर समय

मैं भी नसीमे-सुब्ह की सूरत फिरूं सदा
शामिल गुलों की बास में गर तेरी बास हो
नसीमे-सुब्ह = सुबह की हवा

पाकिस्तान के सरगोधा में १८ मई १९२२ में जन्में वज़ीर आग़ा साहब हालाँकि हिंदी के पाठकों में अपने दूसरे साथियों की तरह बहुत अधिक प्रसिद्द नहीं हो पाए क्यूँ की वो मुशायरों के शायर कभी नहीं रहे जहाँ कमोबेश रोमांटिक ग़ज़लें पेश की जातीं हैं लेकिन अदबी हलकों में उनका दबदबा बाकायदा कायम है. आग़ा साहब नज्मों के उस्ताद माने जाते हैं लेकिन जब उन्होंने ग़ज़लें कहीं तो किसी से पीछे नहीं रहे:

यकीं दिलाओ न मुझको कि तुम पराये नहीं
मुझे तो ज़ख्म लगे तुमने ज़ख्म खाए नहीं

ये आईना किसी उजड़े मकाँ का आईना है
मैं गर्द साफ़ भी कर दूं तो मुस्कुराये नहीं

मकाँ ख़मोश अगर है तो दोष किसका है
करे भी क्या जो कोई उसको घर बनाये नहीं

आग़ा साहब की रचनाएँ हिंदी और पंजाबी के अलावा ग्रीक, अंग्रेजी, स्वीडिश, स्पेनिश आदि कई यूरोपियन भाषाओँ में अनूदित हुई हैं. कई सम्मानों से अलंकृत वजीर आग़ा कुछ आलोचकों की दृष्टि में नोबेल पुरूस्कार के लिए पाकिस्तान से वाजिब हकदार हैं.

चुप रहूँ और उसे मलाल न हो
अनकही का तो ऐसा हाल न हो

कुफ्ल कैसे खुलेगा उस लब का
मेरे लब पर अगर सवाल न हो
कुफ्ल= ताला

हूँ अकेला भरे ज़माने में
कोई मुझसा भी बेमिसाल न हो

जनाब शीन काफ निजाम और नन्द किशोर आचार्य जी ने बहुत मेहनत से इस किताब को सम्पादित किया है. इसमें आग़ा साहब की लगभग सौ से अधिक ग़ज़लें और चालीस के करीब नज्में समोहित हैं. उर्दू शायरी का हुस्न बिखरती उन्ही हर ग़ज़ल और नज़्म लाजवाब है और बार बार पढने लायक है. ये किताब ऐसी नहीं जिसे आप एक सांस में पढ़ कर उठ जाएँ बल्कि इसे घूँट घूँट पी कर देर तक इसके सरूर में डूबे रहें जैसी है.

तमाम उम्र ही गुजरी है दस्तकें सुनते
हमें तो रास न आया खुद अपने घर रहना

ज़रा सी ठेस लगी और घर को ओढ़ लिया
कहां गया वो तुम्हारा नगर नगर रहना

आईये अब उनके छोटी बहर में किये गए बेमिसाल हुनर पर भी इक नज़र डालें और इस नायाब किताब को मंगवाने की ईमानदार कोशिश करे. आप ये पुस्तक वाग्देवी प्रकाशन से उनके मेल vagdevibooks@gmail.com पर अपना पता भेज कर मंगवा सकते हैं या फिर उनसे 0151-2242023 फोन नंबर पर संपर्क कर इसके बारे में जानकारी ले सकते हैं.

एक लम्हा अगर गुज़र जाये
दूसरा तो गुज़र ही जायेगा

अब ख़ुशी भी तो दिल पे वार करे
ग़म तो ये काम कर ही जायेगा

ज़ब्त करता रहा अगर यूँ ही
ये शज़र बे-समर ही जायेगा
बे-समर = फल रहित

छोटी बहर ही में उनकी एक और ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाईये और देखिये के कैसे कम लफ़्ज़ों में गहरी बात की जाती है. ये हुनर हर किसी को ऊपर वाला अता नहीं करता.

आँख में तेरी अगर सहरा नहीं
हाल पर मेरे तू क्यूँ रोया नहीं

दस्तकें ही दस्तकें हैं हर तरफ
आदमी इक भी नज़र आता नहीं

मैं सदा दूं और तू आवाज़ दे
इस भरी दुनिया में मुमकिन क्या नहीं

रो रहा हूँ एक मुद्दत से मगर
आँख से आंसू कोई टपका नहीं

बस अभी इतना ही...अगर आप शायरी खास तौर पर अच्छी संजीदा शायरी के शौकीन हैं तो फिर ये किताब आपके लिए है. आपको सिर्फ एक मेल या फोन करने की देर है वाग्देवी प्रकाशन बीकानेर वाले इसे आप तक पहुँचाने में ज्यादा वक्त नहीं लेंगे. इसका मुझे पूरा विश्वाश है. मिलते हैं एक नयी किताब के साथ कुछ दिनों बाद.