
गुप्ता जी आज सुबह से ही बहुत खुश थे. इसका कारण जानने के लिए ज्ञान के सागर में डुबकी लगाने की जरूरत नहीं है. जब कारण सतह पर ही तैर रहा हो तो उसके लिए डुबकी लगाना अकलमंदी नहीं होगी. गुप्ता जी दो कारणों से खुश थे पहला और अहम कारण था चार दिनों के इन्तेज़ार के बाद इसबगोल की भूसी, जो वो विशेष तौर पर भारत से ले कर आये थे और जिसका सेवन वो रोज नित्यकर्म से पूर्व किया करते थे, का अब जाकर असर होना और दूसरा चीन से घर जाने के समय का पास आना.
हर चीज़ जो शुरू होती है वो खतम भी होती है फिर चाहे वो चीन यात्रा ही क्यूँ न हो. विदेश में चार पांच दिनों के बाद देश की याद बहुत जोर से आने लगती है. अपना देश अपना देश ही होता है. न अपने जैसा खाना न अपनी भाषा और न अपने दोस्त नाते रिश्तेदार. विदेश में हमें लाख सुविधाएँ मिलें लेकिन दिल घर वापसी के लिए धड़कता ही है. देश के बाहर रहने वाले लोग बाहर से भले ही बहुत खुश और संपन्न लगें लेकिन अंदर से वो अपने को बहुत अकेला और खोखला महसूस करते हैं. ये बात मैं अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मिले अनेक भारतियों से की गयी बातचीत के आधार पर कह रहा हूँ लेकिन मेरी ये बात सबके लिए सच हो ये दावा नहीं करता.
शंघाई से हम लोग चेंदू शहर गए जो लकड़ी के फर्नीचर के लिए सारे चीन में मशहूर है. दो दिन वहाँ रुकने के बाद चीन में हमारे अंतिम पड़ाव नानजिंग शहर पहुंचे . हमारे एक चीनी मित्र ची तुंग हमारी प्रतीक्षा में खड़े मिले. नानजिंग चीन के मुख्य शहरों में से एक है और बहुत ख़ूबसूरती से बसाया गया है. नानजिंग पहुँच कर सबसे पहले हमने अपनी ग्रुप फोटो खिंचवाई

होटल जाने के रास्ते भर हम नानजिंग शहर की ख़ूबसूरती निहारते रहे. गुप्ता जी अपना “ओ शिट” भूल चुके थे और चहक रहे थे.
“देखो सर जी ये शहर तो वाकई में बहुत खूबसूरत हैगा, सड़कें कितनी चौड़ी हैंगी, लोग कितने कम हैंगे. चीन की जनसख्या अपने से ज्यादा हैगी जे मानने को दिल नहीं करता हैगा” सिंह साहब को गुप्ताजी की बातें पसंद नहीं आतीं लेकिन गुप्ता जी की इस बार बात सच्ची थी इसलिए अपना “छड्डो जी” वाला अमोघ अस्त्र छह कर भी नहीं चला पाए.

होटल पहुंचे जिसके बाहर एक विशाल काय शेर नुमा पत्थर की प्रतिमा राखी हुई थी. गुप्ता जी सब कुछ भूल कर उसे गौर से निहारने लगे और फिर ची की और मुखातिब हुए:
“ये क्या हैगा?”
“ये ड्रैगन है”
“ड्रैगन ? माने क्या हैगा?”
“ड्रैगन एक पवित्र जीव है जिसकी प्रतिमा बना कर उसे हर आफिस होटल घर आदि के बाहर रखा जाता है”
“किसलिए रखते हैंगे ?”
“वो इसलिए ताकि बुरी आत्माएं अंदर प्रवेश न कर पायें”
“याने अब सिंह साहब होटल में प्रवेश नहीं कर पायेंगे”
“ओ छड्डो जी”

जरूरी नहीं के ड्रेगन की प्रतिमाएं एक जैसी हों बल्कि ड्रेगन दूसरी मुद्रा में भी बैठे दिखाए दे जाते हैं. लेकिन ये पाषाण प्रतिमाएं मूर्ती कला का शानदार नमूना होती हैं. ड्रेगन की अदा और उस पर की गयी चित्रकारी हतप्रभ कर देती है.ये ड्रेगन डरावने जरूर हैं लेकिन अगर प्यार से काम लें तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ते ये ही बात गुप्ता जी को बताने के लिए हमें एक ऐसे ही एक ड्रेगन के मुंह में अपना हाथ डाल कर दिखाना पड़ा.

नानजिंग के जिस होटल में हम ठहरे वो था तो बहुत शानदार लेकिन वहाँ एक ही दिक्कत थी वो ये के कोई भी अंग्रेजी नहीं समझता था सिवा रिशेप्शन पर बैठे एक आध लड़के लड़कियों के.ये समस्या हमें पूरी यात्रा के दौरान परेशान करती रही. मेरी तो आपको ये सलाह रहेगी कि अगर आपके साथ कोई स्थानीय भाषा बोलने वाला नहीं है तो बेहतर है आप चीन न जाएँ वर्ना आप दुखी हो जायेंगे . मुझे ये बात समझ नहीं आई के इतनी तरक्की करने के बावजूद भी वहाँ के लोगों में दूसरी दुनिया के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आवश्यक अंग्रेजी भाषा के प्रति इतनी बेरुखी क्यूँ है. वैसे चीनी और भारतीय लोगों में मुझे बहुत समानता दिखाई दी जैसे लोगों का आपसी प्रेम, बुजुर्गों के प्रति श्रधा. युवाओं का बड़ों के प्रति आदर भाव आदि जबकि ये बात मुझे अमेरिका और यूरोप में नहीं दिखाई दी.चीनी लोग बहुत सहज हैं और जल्दी ही आपके दोस्त बन जाते हैं जबकि यूरोप के लोग घमंडी होते हैं और भारतियों के प्रति उनका रवैय्या भी रुखा होता है.
नानजिंग के जिस होटल में हम ठहरे वो बाहर से ऐसा दिखाई देता था:

अंदर से भी होटल की छवि देखें, खास तौर पर कोने में ऊपर जाती सीडियां देखें वहाँ ऊपर एक रेस्टोरेंट था.दूसरे दिन शाम होटल के उसी रेस्टोरेंट में कोई शादी की पार्टी थी. नव-दंपत्ति सारा समय आगुन्तकों के स्वागत के लिए सीडियों पर खड़े रहे और जैसे ही कोई बुजुर्ग महिला या पुरुष आता वो फ़ौरन सीढियां उतर कर उसका स्वागत करते और उनके हाथ पकड़ कर ऊपर छोड़ कर आते. बुजुर्ग स्नेह वश उनके सर पर हाथ फेरते, ठीक भारतीय परम्परा की तरह. मुझे ये देख बहुत अच्छा लगा.

होटल से चंद क़दमों की दूरी पर एक बाजार था जिसमें किसी भी प्रकार के वाहनों का आवागमन बंद था. लोग पैदल ही शाम और रात वहाँ घुमते नज़र आते थे. वहाँ भी कुछ होटल, दुकाने और रेस्टोरेंट थे जिनमें एक भारतीय रेस्टोरेंट भी था जिसकी वजह से हम रोज रात दो दिन तक भारतीय भोजन का आनंद उठाते रहे. सबसे पहले देखिये उस पैदल बाज़ार के आरम्भ में बनाये गए होटल का चित्र:

उसके बाद इस बाजार को प्रदर्शित करता हुआ एक चित्र:

और अंत में भारतीय रेस्टोरेंट का बोर्ड जिसने हर शाम सारे दिन थक हार कर वापस लौटने पर हमारे पेट भरने में पूरी सहायता की. इस रेस्तरां के मालिक दिल्ली के साहनी साहब हैं. बड़े प्यार से वो हमें अपने
रेस्तरां की डिशेज तारीफ़ कर कर के खिलाते. गुप्ता जी और सिंह साहब की वहाँ जाते ही बांछे खिल जातीं दोनों भाव विभोर हो जाते. मन की खुशी बातों में झलकती

गुप्ता: सर चीनी चाहे हम से आगे चले गए हैंगे लेकिन मेरे हिसाब से वो अभी भी बहुत पीछे हैंगे.
मैं: कैसे गुप्ता जी ?
गुप्ता : सर चौड़ी चौड़ी सड़कें बना लेना तेज गति की ट्रेन चला लेना बड़ी बात हैगी लेकिन उस से बड़ी बात हैगी खड्डे वाली सड़कों या मुंबई की धक्कम धक्के वाली ट्रेन में यात्रा करते वक्त भी मुस्कुराते रहना और गीत गाते रहना.
ये बहुत जंगली लोग हैंगे इसलिए जिंदा बन्दर की खोपड़ी खोल कर उसका भेजा नमक डाल कर खाते हैंगे हमारी तरह मक्की की रोटी ढेर सा मक्खन डले हुए सरसों के साग के संग नहीं खाते हैंगे. इनको टिड्डों के सूप के स्वाद का ही पता हैगा गाज़र के हलवे के स्वाद के बारे ये नहीं जानते हैगे.
सिंह: सही कहा तूने गुप्ते “ जो खाते हैं डडडू ( मेंडक) क्या जाने वो लड्डू?”

गुप्ता जी ने अचानक हमसे इक बात पूछी बोले “ सर जिस तरह हम लोग चायनीज खाने के शौकीन हैंगे वैसे ये चीनी भारतीय खाने के शौकीन क्यूँ नहीं हैंगे? आपने देखा होगा अपने देश के हर नुक्कड़ पर आपको चायनीज फ़ूड के रेस्टोरेंट मिल जायेंगे और तो और अब तो आम भारतियों के घरों में भी चायनीज खाना बनता हैगा लेकिन आप किसी चीनी से पूछो के भाई तेरे घर क्या माँ दी दाल बनती है ? या तूने कभी कढ़ी खाई है ?भरवां भिन्डी या करेले की सब्जी के चटखारे लिए हैं ? और तो और आलू के परोंढे दही के संग खाए हैंगे तो वो मुंडी हिला के ना में जवाब देगा, शर्त लगा लो.”
गुप्ता जी की बात में दम है. हम उनकी इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाए,आपके पास अगर जवाब है तो टिपण्णी में जरूर बताएं ताकि गुप्ता जी को संतुष्ट किया जा सके.
आखिर वो दिन आ ही गया जब हम नानजिंग से हांगकांग के लिए उड़ गए. हांगकांग से दो घंटे बाद हम लोगों की फ्लाईट बैंकोक होते हुए मुंबई के लिए थी. हांगकांग एयरपोर्ट पर घर लौटने की खुशी मानो छुप ही नहीं रही है:

विमान में जितने चीनी या विदेशी हांगकांग से हमारे साथ बैठे थे वो सब बैंकोक में उतर गए और वहाँ से बहुत से भारतीय दल बल सहित चढ़ गए. अधिकांश लोग किसी ट्रेवल एजेंसी द्वारा आयोजित टूर के सदस्य थे इसलिए वो बिना सीट नंबर देखे अपने अपने इष्ट मित्रों या परिवार जन के पास जा कर बैठ गए. एयर होस्टेस पहले तो सबको अपनी अपनी सीट पर बैठने का आग्रह करती रही लेकिन जब किसी पर कोई असर होता दिखाई नहीं दिया तो खुद एक कोने में जा कर चुप चाप बैठ गयी.
रात का एक बजा तो विमान बैंकोक से उड़ा और उसके आधे घंटे बाद खाने पीने का अखिल भारतीय आयोजन शुरू हो गया जो तीन बजे सुबह तक निर्बाध गति से चलता रहा.
कन्वेयर पर हमारे और दूसरे लोगों के सामान के साथ साथ लगभग तीस चालीस फ़्लैट टी.वी भी थे जो बैंकोक के मुसाफिर अपने साथ लाये थे.तभी कस्टम के दो अधिकारी वहाँ आये और बोले के जिनके साथ टी.वी है वो लोग अलग से खड़े हो जाएँ उनकी जांच होगी.हर टीवी पर कस्टम ड्यूटी लगेगी जो छै से दस बारह हज़ार के बीच टी.वी.के साइज़ के हिसाब से होगी. लोगों में घबराहट फ़ैल गयी तभी टूर आपरेटर का एक बन्दा आया और उसने सबको कहा " टेंशन लेने का नहीं, ये तो रोज का नाटक है रे बाप..., डरने का नहीं, अपुन है ना रे...अपुन सब सेट कर दिया ऐ, क्या? बत्तीस इंच टी.वी.का दो हज़ार और चालीस इंची का पांच हज़ार कस्टम वाले कू देने का और ग्रीन चेनल से मस्त निकलने का, समझे क्या? अभी टाइम खोटी मत करो खीसे में हाथ डालो और पैसा निकालो जल्दी चलो " वहीं उसने सबसे पैसे लिए एक पोटली बनाई और गायब हो गया. बाद में मैंने देखा सब लोग हँसते हुए कस्टम वालों से बतियाते हुए अपने अपने टी.वी ट्राली पर रख कर ग्रीन चेनल से बाहर निकलने लगे.
हम लोग जब बाहर आये तो सुबह के सात बज रहे थे, याने प्लेन आने के तीन घंटे बाद हम लोग बाहर आये. फर्श पर हर जगह बिकती सब्जियों के ढेर, भिनभिनाती मख्खियों, पेड़ों पर फडफडाते पक्षियों, बेवजह इधर उधर मुंह मारते कुत्तों और एक दूसरे को धक्के देते इंसानों के शोर के बावजूद हमें अपने वतन आ कर बहुत अच्छा लगा.
