Monday, September 23, 2013

कोह सा अकड़ा खड़ा रहता था जो

नीरज शर्मा जो मेरे पडौसी हैं कल सुबह सुबह दांत निकाले मेरे घर आये। वैसे वो हमेशा दांत निकाले ही आते हैं लेकिन इस बार उनके दांत अपेक्षा कृत अधिक निकले हुए थे. ये आने वाले खतरे का सिग्नल था. उनके हाथ में एक कागज़ था जिसे थमाते हुए वो सोफे पे पसर गए और वार्तालाप शुरू हुआ :-
ये क्या है?
ग़ज़ल
ग़ज़ल?
हाँ चौंक क्यूँ गए ?
आप और ग़ज़ल?
क्यूँ ग़ज़ल क्या आप ही लिख सकते हैं ?
नहीं, लेकिन आप भी ...
जी मैं भी , मैं क्यूँ नहीं?
पढूं?
नहीं
तो?
छापें
छापें?
कहाँ ?
अपने ब्लॉग पे
मेरे ब्लॉग पे? आपकी ग़ज़ल ?
हाँ , इसमें बुराई क्या है , और कहीं छप नहीं रही इसलिए सोचा आप को दे दूं ताकि आप ब्लॉग पे छाप दें
......
आप चुप क्यूँ हैं? आप नहीं छापते दूसरों की ग़ज़ल कभी कभी ?
छापी नहीं पोस्ट की है एक आध बार
एक ही बात है , छापो मत चलो पोस्ट ही कर दो। अहसान उतर जाएगा
एहसान?
कैसा एहसान?
जो हमारी मैडम ने आप की काम वाली बाई पे किया है
क्या किया है ?
दही जमाने के लिए जामन दिया था ना। कल आपने कल दही खाया होगा
हाँ खाया तो था
बाई से पूछा नहीं दही जमा कैसे
नहीं?
अब समझ आ गया ना. आप नहीं छापेंगे मतलब पोस्ट करेंगे तो मैं समझूंगा आप एहसान फरामोश हैं। चलता हूँ .
सुनिए
कहिये
आपने मक्ते में मेरा नाम क्यूँ दिया है ?
आपका ? मैंने तो अपना ही दिया है , अब आपका और मेरा एक ही नाम है तो मैं क्या करूँ?
लोग समझेंगे की ये मेरी ग़ज़ल है।
क्या इत्ती ख़राब है ?
......
आप चुप हो गए ?
क्या कहूँ ?
कुछ मत कहें, आप पोस्ट करें .

तो लीजिये पेश है नीरज शर्मा जी की ये ग़ज़ल जो मैंने अपने पर एहसान फरामोश का लेबल न चिपके ये सोच कर पोस्ट की है .



ज़िन्दगी में तब झमेला हो गया 
नीम तुम, जब मैं करेला हो गया 

कोह सा अकड़ा खड़ा रहता था जो 
वक्त जब बदला तो ढेला हो गया  
कोह : पर्वत/पहाड़ 

रक्स करती थीं जहाँ तन्हाईयाँ 
तुम बसे दिल में तो मेला हो गया 

सोचता जो कुछ अलग है भीड़ से 
शख्स वो कितना अकेला हो गया 

हम चले जिस ओर तनहा ही चले 
वो चला जिस और रेला हो गया 

बंद थी जब तक वो गिन्नी सा रहा 
खुल गयी मुठ्ठी तो धेला हो गया 

ख़्वाब में जब वो दिखा 'नीरज' मुझे 
 मैं अकेले से दुकेला हो गया

Monday, September 9, 2013

किताबों की दुनिया - 86

देवियों और सज्जनों क्या आपने जयपुर के "नवरत्न प्रजापति" का नाम सुना है ? अरे ये क्या आपतो बगलें झाकने लगे। शर्मिंदा न हों मैंने कौनसा सुना था , ये तो भला हो गूगल का जिसकी मेहरबानी से ये नाम पता चला। नवरत्न जी वो मिनिएचर आर्टिस्ट हैं जिन्होंने विश्व की सबसे छोटी, काम में आने वाली लालटेन बनाई है। ये लालटेन केरोसिन की सिर्फ तीन बूंदों से बीस सेकण्ड तक जलती है .

आप पूछेंगे की किताबों की दुनिया में प्रजापति जी का किस्सा क्यूँ ? प्रजापति जी का जिक्र मिनिएचर आर्ट के कारण आया। इस कला में कलाकार का दक्ष होना आवश्यक है जरा सी चूक पूरी कृति को बर्बाद कर सकती है। इस कला में सुधारने की गुंजाईश नहीं के बराबर होती है इसलिए कलाकार को अपना हर कदम बहुत सोच समझ के उठाना पड़ता है।

शायरी में ये ही बात छोटी बहर की ग़ज़लों पर लागू होती है। देखने में बहुत सरल सी लगने वाली छोटी बहर को साधना उस्तादों के बस की ही बात होती है। ग़ज़ल की इस विधा में विज्ञानं व्रत जी ने अपना एक खास मुकाम बनाया है। उन्हीं के नक़्शे कदम पर चलने की कोशिश कर रहे हैं अपेक्षा कृत युवा शायर " सलीम खाँ फ़रीद " साहब जिनकी किताब "एक सवाये सुर को साधो" का जिक्र हम आज करेंगे .


छोटे छोटे द्वार हमारे 
ओ' हाथी हैं यार हमारे 

एक अंगूठे ही के कारण 
चुकते नहीं उधार हमारे 

कई हजारों की बस्ती में 
हम ही हैं हर बार हमारे 

डर,शंका,विस्मय लाते हैं 
मिलजुल कर त्योंहार हमारे 

10 जुलाई 1964 को राजस्थान के सीकर जिले के हसामपुर में जन्में फरीद साहब ने हिंदी साहित्य में एम् ऐ किया है . आप पिछले तीस वर्षों से ग़ज़लें कह रहे हैं लेकिन सिमित मात्रा में, तभी तो उनकी अभी पहली ही किताब प्रकाशित हुई है। उन्होंने क्वांटिटी से अधिक क्वालिटी पे जोर दिया है। यही कारण है कि उनकी ग़ज़लों में किसी दूसरे शायर का प्रभाव नज़र नहीं आता बल्कि मौलिकता दिखाई देती है।

खाली थैला ले घर लौटे 
हमने भी बाज़ार किया है 

चिड़ियों ने मिल-जुल कर फिर से 
बाज़ों को सरदार किया है 

उजियारों के राजमहल में 
अंधों ने दरबार किया है 

खुद से आगे सोच न पाए 
सबने यों विस्तार किया है 

डा कुंअर बैचैन साहब इस किताब पर दिए फ्लैप में लिखते हैं " फरीद साहब अपनी शायरी के माध्यम से घटाघोप घिरे बादलों में बिजली की चमक भी प्रदान करते हैं तथा प्यासी धरती और प्यासी रूहों को शीतल जल जैसी शायरी की फुहार भी बन के आते हैं .उनकी शायरी के आलोक में हम अपने देश के हालात को देख पाते हैं और उन पर सोचने को मजबूर भी होते हैं।

जान भले ही भाले पर है 
लेकिन ध्यान निवाले पर है 

अंधियारी अंधी बस्ती में 
सारा दोष उजाले पर है 

मंजिल के सारे काँटों का 
खून हमारे छालों पर है 

नीचे द्वार बजाती जनता 
राजा दसवें माले पर है 

निदा फाजली साहब ने इस किताब की भूमिका में लिखा है की सलीम खाँ फरीद साहब की भाषा व्यंगात्मक है . वो बातों को संकेतों, प्रतीकों तथा बिम्बों के माध्यम से व्यक्त करते हैं, जिसके कारण वे अखबार की खबर की तरह पढ़ते ही बासी नहीं हो जाती उनकी हरारत और शेरियत बहुत दिनों तक पाठकों के साथ जीवित रहती है .
तुझ पर, मुझ पर, पग धर पहुंचे 
फिर वो सिंहासन पर पहुंचे 

कितने लोग सफ़र पर निकले 
कितने लोग मगर घर पहुंचे 

जारी है वह दौड़ की जिसमें 
लंगड़े लोग बराबर पहुंचे 

बचकर रहना देश, सदन में 
फिर तेरे सौदागर पहुंचे 

छोटी बहर के सिद्ध हस्त शायर जनाब विज्ञान व्रत साहब ने लिखा है की फरीद साहब ग़ज़ल कहने की हड़बड़ी या जल्दी में कतई नहीं रहे अगर ऐसा होता तो अब तक तो इस शायर के कई संकलन प्रकाशित हो गए होते। भाई सलीम खाँ साहब की ग़ज़लों में सियासत ,धर्म और विसंगतियां, सामाजिक कटु सत्य और आपसी सम्बन्ध अक्सर आते हैं। सलीम भाई का व्यंग उनकी ग़ज़लों को न केवल मार्मिक बनाता है अपितु व्यंग में निहित दंश पाठक के भीतर ऐसी तिलमिलाहट पैदा करता है जो उसे देर तक छटपटाने पर बाध्य करती है।

तू सचमुच नादान है प्यारे 
जो अब तक इंसान है प्यारे 

जब तक यह मतदान है प्यारे 
तब तक तुझ पर ध्यान है प्यारे 

तेरी ही कुर्बानी देंगे 
तू जिन पर कुर्बान है प्यारे 

सच की खातिर लड़ना मुश्किल 
पर मुश्किल आसान है प्यारे 

ये सच है की फरीद साहब की ये पहली किताब है लेकिन इस से पहले और बाद भी वो देश के प्रतिष्ठित अखबारों और रिसालों में बरसों से लगातार छपते रहे हैं। उनकी चुनिन्दा ग़ज़लों को जयपुर के बोधि प्रकाशन ने एक ही किताब में छाप कर हम जैसे उनके अनगिनत पाठकों पर बहुत बड़ा उपकार किया है।

उनकी ग़ज़ल साधना के लिए, रचना सांस्कृतिक संस्थान , नीम का थाना तथा साहित्य संस्थान नगर श्री चुरू द्वारा उनका ,सार्वजानिक सम्मान किया गया है।

इस्तेमाले गए 
फिर निकाले गए 

इक अँधेरा उगा 
सौ उजाले गए 

सत्य है सत्य के 
बोल बाले गए 

सर जो झुक न सके 
वो उछाले गए 

इस किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन से उनके मोबाइल नुम्बर 98290 18087 पर संपर्क करें और फिर अनूठी शायरी के लिए सलीम खाँ फरीद साहब को उनके मोबाईल न 9413070032 पर दाद देना न भूलें.

आपके लिए एक और किताब की तलाश के लिए निकलें तब तक पढ़िए फरीद साहब की ग़ज़ल के ये शेर :- 

फिरती सासू फूली-फूली 
बहुओं ने हर बात कबूली 

जब तुझको ही याद नहीं तो 
मैं भी तेरा सब कुछ भूली 

कह न सकी कम्पन अधरों की 
बात वही तो दिल को छू ली 

कब तक होगी  'हाँ जी हाँ जी !' 
हाँ ! अब होगी हुक्म उदूली