Monday, June 26, 2017

किताबों की दुनिया -131

आसमानों की बुलंदी में कहाँ आया ख्याल 
इक नशेमन भी बना लूँ चार तिनके जोड़कर 

बेयक़ीनी ने ये कैसा ख़ौफ़ मुझमें भर दिया 
अब कहीं जाता नहीं मैं खुद को तनहा छोड़कर 

कम से कम दस्तक ही देकर देख लेता एक बार 
मुझमें दाख़िल क्यों हुआ वो शख़्स मुझको तोड़कर 

ये बाकमाल लहज़ा , लफ़्ज़ों को बरतने का ये हुनर और कहन का ये दिलचस्प अंदाज़, शायरी के दीवाने बखूबी जानते हैं कि ये लखनऊ स्कूल की देन है जो जनाब 'मीर तकी मीर' साहब से शुरू हुई. इसी 'लखनऊ स्कूल' की गंगा जमुनी तहज़ीब की गौरव शाली परम्परा को उनके बाद सौदा ,नासिख़ ,मज़ाज़ ,जोश, आनंद नारायण मुल्ला ,वाली आसी, कृष्ण बिहारी नूर जैसे शायरों ने आगे बढ़ाया और अब उसी परम्परा को मुनव्वर राणा, भारत भूषण पंत और ख़ुशबीर सिंह 'शाद' के साथ युवा शायर अभिषेक शुक्ला और मनीष शुक्ला बहुत ख़ूबसूरती से आगे बढ़ा रहे हैं।
हमारे आज के मोतबर शायर हैं जनाब ' ख़ुशबीर सिंह 'शाद' "साहब जिनकी हाल ही में देवनागरी लिपि में एनीबुक द्वारा प्रकाशित किताब 'शहर के शोर से जुदा' की बात हम करेंगे।


ये भी मुमकिन है कि खुद ही बुझ गए हों चराग़ 
बेगुनाही किसलिए अपनी हवा साबित करे 

तेरे सजदे भी रवा, तेरी इबादत भी क़ुबूल 
शर्त ये है ख़ुद को तू पहले ख़ुदा साबित करे 

अपने ख़द्दो- खाल की ख़ुद ही गवाही दूंगा मैं 
क्यों मिरि पहचान कोई दूसरा साबित करे 

लखनऊ स्कूल की गंगा जमुनी शायरी की तहज़ीब को 'ख़ुशबीर' साहब ने अपने उस्ताद 'वाली आसी' साहब की शागिर्दी में सीखा। जनाब 'वाली आसी' साहब के बारे में हम 'भारत भूषण पंत' साहब की किताब 'बेचेहरगी' की चर्चा के दौरान बता चुके हैं , उनके शागिर्दों में मुनव्वर राणा भी शामिल थे। मुशायरों के मंच पर अंधड़ की तरह चल रही शायरी के बीच 'शाद' साहब की शायरी सुबह के वक्त मंद मंद चलती पुरवाई की तरह महसूस होती है।

हो तो गए बहाल तअल्लुक़ सभी मगर  
दिल में जो इक ख़लिश थी पुरानी, नहीं गयी 

वो रात इक कनीज़ के सपनो की रात थी 
उस रात ख़्वाब गाह में रानी नहीं गयी 

लफ़्ज़ों को फिर गवाह बनाया गया है 'शाद' 
अश्कों की इक दलील भी मानी नहीं गयी 

4 सितम्बर 1954 को सीतापुर उत्तर प्रदेश में जन्में 'शाद' ने अपनी पढाई 'सिटी मोंटेसरी स्कूल' लखनऊ और 'क्राइस्ट चर्च कॉलेज' लखनऊ से की। उनके पिता चाहते थे कि वो उनकी आलमबाग ,जहाँ वो रहते थे, वाली प्रिंटिंग प्रेस को संभालें लेकिन उनका भाग्य उन्हें कोई दूसरी ही दिशा में ले गया। बचपन से ही उन्हें कविताओं से प्रेम था तभी उन्होंने हिंदी के लगभग सभी कवियों की रचनाओं को पढ़ डाला। शायरी की तरफ झुकाव हुआ तो उन्होंने 'सुल्तान खान 'साहब से बाकायदा उर्दू की तालीम ली। धीरे धीरे शेर कहने लगे। अमीनाबाद में उन दिनों साहित्य प्रेमियों की महफ़िल लगा करती थी ,वहीँ 'शाद' साहब ने जनाब 'वाली आसी' साहब को अपने शेर सुनाये। उनके शेरों और कहन से प्रभावित हो कर 'वाली आसी ' साहब ने उन्हें अपनी शागिर्दी में रख लिया।

मैं आज़िज़ आ चुका हूँ अपनी गैरत की नसीहत से 
ये कहती है कि जो करना वो मुझसे पूछ कर करना

मिरि मिटटी तुझे चूमूँ कि आँखों से लगाऊं मैं 
तिरा ही हौसला है एक कोंपल को शजर करना

बहुत समझाया मैंने हाशियों की क्या जरुरत है 
मगर वो चाहता था दास्ताँ को मुख़्तसर करना 

मुझे मालूम है मेरे बिना वो रह नहीं सकता 
कहीं भटका हुआ मिल जाय तो मुझको ख़बर करना 

अपनी पहली किताब 'जाने कब ये मौसम बदले' जो 1992 में शाया हुई थी के बाद उन्होंने मुड़ कर नहीं देखा और लगातार शेर कहते रहे नतीज़ा ये हुआ कि अब तक उनके नौ मज़्मुए शाया हो चुके हैं जिन में से तीन तो उर्दू अकेडमी उत्तर प्रदेश द्वारा पुरुस्कृत हो चुके हैं। उनकी शेष किताबों के उन्वान इस तरह हैं "गीली मिटटी (1998) ", 'ज़रा ये धूप ढल जाय (2005)", "बेख्वाबियाँ (2007) ","जहाँ तक ज़िन्दगी है (2009)","बिखरने से जरा पहले (2011)", "लहू की धूप (2012)", "बात अंदर के मौसम की (2014)" इसके अलावा उनकी एक किताब "चलो कुछ रंग ही बिखरे (2000)" को पाकिस्तान के जाने माने प्रकाशक 'वेलकम बुक पोर्ट' ने प्रकाशित किया है।

मिरि दरियादिली उतरे हुए दरिया की सूरत है 
ये हसरत ही रही दिल में किसी के काम आऊं मैं 

ये कैसी कश्मकश ठहरी हमारे दरमियाँ दुनिया 
न मुझको रास आये तू, न तुझको रास आऊं मैं 

किसी दिन लुत्फ़ लूँ मैं भी तिरे हैरान होने का 
किसी दिन बिन बताये ही तिरी महफ़िल में आऊं मैं 

बस इक ज़िद ही तो हाइल है हमारे दरमियाँ वरना 
अगर पहले मनाये वो तो शायद मान जाऊं मैं 

बहुत ही कम शायर हैं जो मुशायरों में सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए अपनी शायरी से समझौता नहीं करते और ख़ास तौर पर ऐसे शायर जिनकी रोज़ी रोटी ही इस से चलती हो वो तो बहुत ही संभल कर मंच पर अपनी रचनाएँ सुनाते हैं। जनाब ख़ुशबीर सिंह साहब अपवाद हैं उन्होंने कभी शायरी के मेयार से समझौता नहीं किया,तालियां बटोरने के लिए हलकी शायरी नहीं की क्यूंकि इसकी उन्हें कभी जरुरत ही महसूस नहीं हुई। उनकी शायरी इतनी खूबसूरत और दिलकश होती है कि श्रोता बार बार तालियां बजाते हुए और और सुनने की फरमाइश करते हैं। हक़ीक़त ये है कि आज भी लोग अच्छी शायरी के दीवाने हैं लेकिन क्यूंकि अच्छा कहने वाले बहुत कम हैं इसलिए वो लफ़्फ़ाज़ी सुनने के लिए मज़बूर हैं।

तिरि कुर्बत भी मुझको रास हो ऐसा नहीं फिर भी 
अकेलेपन से डरता हूँ मुझे तनहा न छोड़ा कर 
कुर्बत =समीपता 

नहीं ! अच्छा नहीं लगता मुझे यूँ मुन्तशिर होना
मेरी लहरों में अपनी याद के पत्थर न फेंका कर 
मुन्तशिर = बिखर हुआ 

तुझे अलफ़ाज़ के पैकर ही में हर बात दिखती है 
कभी खामोशियों को भी सुना कर और समझा कर 

'शाद' साहब के चाहने वाले पूरी दुनिया में फैले हुए हैं उन्हें 'अमेरिका , यूनाइटेड अरब एमिराईट , पाकिस्तान ,दोहा, ओमान, बेहरीन,दुबई, अबू धाबी और सिंगापुर आदि में अपनी शायरी सुनाने का मौका मिल चुका है. उनके इंटरव्यू और शायरी भारत और पाकिस्तान के प्रमुख अखबारों और पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती है। दोनों मुल्कों के टी वी पर भी उन्हें चाव से देखा सुना जाता है। दूरदर्शन पंजाबी ने तो उन पर एक वृत्त चित्र का निर्माण कर उसे प्रदर्शित भी किया है। जम्मू यूनिवर्सिटी ने एक विद्यार्थी को उनके साहित्य पर शोध के लिए 'एम् फिल' की डिग्री प्रदान की है।

किसी के बस में कहाँ था कि आग से खेले 
मिरे क़रीब कोई इक मिरे सिवा न गया 

मैं एक फूल की वुसअत में रह के जी लेता 
मगर हवा ने पुकारा तो फिर रहा न गया 
वुसअत =फैलाव 

था मेरे गिर्द बहुत शोर मेरे होने का 
मैं जब तलक तेरी खामोशियों में आ न गया 

'शाद' साहब को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए जो पुरूस्कार मिले हैं अगर उनकी गिनती की जाय तो ये पोस्ट छोटी पड़ जाएगी सारे तो नहीं लेकिन कुछ चुनिंदा पुरूस्कार इस तरह हैं नार्थ अमेरिका की अंजुमन-ऐ-तरक्की द्वारा पोएट ऑफ दी ईयर अवॉर्ड ,अमेरिकन इस्लामिक कांग्रेस अवार्ड ,हसरत मोहानी अवॉर्ड पकिस्तान ,जश्ने अदब ऐज़ाज़ अवॉर्ड श्री गोपी चंद नारंग द्वारा,लोक लिखारी अवॉर्ड पंजाब ,और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दिया गया 'यश भारती' अवॉर्ड।

उसी वुसअत से जिसके पार जाना गैर मुमकिन था 
मैं आगे बढ़ गया हद्दे-नज़र से मश्विरा करके 
वुसअत = फैलाव 

मसाइल ज़िन्दगी के खुद ब खुद आसान हो जाएँ 
कभी देखो किसी आशुफ्ता सर से मश्विरा करके 
मसाइल =समस्या , आशुफ्ता सर =पागल, सिरफिरा 

जवाँ बच्चों की अपनी ज़िन्दगी है उनसे क्या शिकवा 
जुदा होते हैं क्या पत्ते शजर से मश्विरा करके 

"शहर के शोर से जुदा" में 'शाद' साहब की लगभग 90 ग़ज़लें संग्रहित हैं , एनीबुक के पराग अग्रवाल ने गागर में सागर भरने का प्रयास किया है जिसमें वो बहुत हद तक क़ामयाब भी हुए हैं. 'शाद' साहब के कलाम को किसी भी एक किताब में समेटा ही नहीं जा सकता ,इस किताब में पराग साहब ने ग़ज़लों ने बाद उनकी कुछ और ग़ज़लों के फुटकर शेर भी प्रकाशित किये हैं जिनमें से अधिकतर उनकी पहचान बन चुके हैं। किताब में मुश्किल उर्दू लफ़्ज़ों का हिंदी में अर्थ न देना आम पाठक को अखर सकता है, हो सकता है कि अगले संस्करण में इस कमी को प्रकाशक द्वारा पूरा लिया जाय।
इस किताब की प्राप्ति के लिए आप पराग को उनके मोबाइल 9971698930 पर संपर्क करें और 'शाद'साहब को, जो अब जालंधर रहते हैं, उनके मोबाइल 09872011882 पर संपर्क कर दिल से बधाई दें। वैसे ये किताब अमेज़न पर भी उपलब्ध है

आईये आपको चलते चलते ख़ुशबीर साहब के कुछ ऐसे शेर पढ़वाता हूँ जो उनकी पहचान बन चुके हैं :-

मिरी मर्ज़ी के मुझको रंग देदे 
तो फिर तस्वीर मेरी ज़िम्मेवारी 
*** 
कैसी बेरंगियों से गुज़रा हूँ 
ज़िन्दगी तुझमें रंग भरते हुए 
*** 
थकन जो जिस्म की होती उतार भी लेते 
तमाम रूह थका दी है इस सफर ने तो 
*** 
तुमने इक बात कही दिल पे क़यामत टूटी 
इक शरर कम तो नहीं आग लगाने के लिए 
*** 
मुठ्ठी में किर्चियों को ज़रा देर भींच लो 
फिर उसके बाद पूछना कैसे जिया हूँ मैं 
*** 
ये तेरा ताज नहीं है हमारी पगड़ी है 
ये सर के साथ ही उतरेगी सर का हिस्सा है

Monday, June 19, 2017

किताबों की दुनिया -130

आज आत्म प्रशंशा, आत्म मुग्धता और आत्म स्तुति के इस संक्रमक दौर में जहाँ हर बौना अपने आपको अमिताभ से ऊंचा और हर तुक्के बाज़ अपने को ग़ालिबो मीर से बेहतर मानता हो अगर कोई ताल ठोक कर सोशल मीडिया के सार्वजनिक मंच पर ये कहे कि "मैं बेतुका ,बेहूदा, बदतमीज़, वाहियात ,अनपढ़ ,गँवार,ज़ाहिल और मुँहफट हूँ " तो आप हैरान नहीं हो जायेंगे ?
हमारे आज के शायर अपने बारे में ऐसा बयान सनसनी फैलाने के कारण नहीं दे रहे बल्कि ऐसा कहना उनकी निराली शख्शियत का हिस्सा है।

फिर तुझे सोच लिया हो जैसे 
तार बिजली का छुआ हो जैसे 

धड़कनें तेज़ हुई जाती हैं 
कोई ज़ीने पे चढ़ा हो जैसे 

लाख अपने को समेटा हमने 
फिर भी कुछ छूट गया हो जैसे 

याद बस याद फ़क्त याद ही याद 
और सब भूल गया हो जैसे 

हमारे आज के शायर हैं जनाब "शमीम अब्बास" साहब जिनकी किताब "बाँट लें,आ कायनात" का जिक्र हम करेंगे। हिंदी पाठकों के लिए शमीम साहब का नाम शायद बहुत अधिक जाना पहचाना न हो लेकिन उर्दू शायरी से मोहब्बत करने वाले हर शख्श ने उन्हें पढ़ कर बिजली के तार को छू लेने जैसे अनुभव जरूर हासिल किये होंगे क्योंकि इनके शेर कभी कभी जोर का झटका धीरे से देते हैं । किताब के फ्लैप पर ब्रेकेट में लिखा है "उर्दू ग़ज़लें" जबकि इस किताब की ग़ज़लें न उर्दू और न हिंदी में बल्कि उस ज़बान में हैं जिसे हम रोजमर्रा की ज़िन्दगी में इस्तेमाल करते हैं।


प्यारे तेरा मेरा रिश्ता 
इक उड़ती तितली और बच्चा 

उस ने हामी भर ली आखिर 
बिल्ली के भागों छींका टूटा 

तेरी कहानी कहते कहते 
अच्छे अच्छे का दम फूला 

दुनिया भर के शग्ल पड़े हैं 
पर जिसको हो तेरा चस्का 

सन 1948 में फैज़ाबाद उत्तर प्रदेश में जन्में शमीम साहब जब कुल 2 साल के थे तो परिवार के साथ मुंबई आ बसे और तब से अब तक मुंबई में भिंडी बाजार की जामा मस्जिद के पास बड़े ही सुकून से रह रहे हैं। हाईस्कूल के बाद मुंबई के ही महाराष्ट्र कॉलेज से उन्होंने तालीम हासिल की और वहीँ छुटपुट काम करते हुए शायरी करने लगे। पूछने पर वो हँसते हुए कहते हुए कहते हैं कि वो खालिस मुम्बइया टपोरी हैं। निहायत दिलचस्प शख्सियत के मालिक शमीम साहब न केवल अपने आचार व्यवहार में बल्कि शायरी करने में भी बेहद बिंदास हैं.

ये नहीं ये भी नहीं और वो नहीं वो भी नहीं 
दूसरा तुझसा कोई मिल जाए मुमकिन ही नहीं 

तू पसारे पाँव बैठा है मेरे लफ़्ज़ों में यूँ 
अब कोई आए कहाँ कोई जगह खाली नहीं 

इम्तेहां मेरा न ले इतना कि रिश्ता टूट जाए 
तू बहुत कुछ है ये माना कम मगर मैं भी नहीं 

क्या है तू और क्या नहीं जैसा है क्या वैसा है तू
बात हर पहलू से की तुझ पर मगर चिपकी नहीं 

इस तरह का लहज़ा, रंग और तेवर इस से पहले उर्दू शायरी में पढ़ा सुना नहीं गया। शमीम साहब ने अपनी खुद की ज़मीन तलाश की, वो ज़बान इस्तेमाल की जो सुनने पढ़ने वाले को अपनी लगी। उर्दू शायरी की सदियों पुरानी रिवायत को तोड़ना कोई आसान काम नहीं था लेकिन शमीम साहब ने ये काम बहुत दिलकश अंदाज़ में किया और छा गए। अपने चाहने वालों में 'दादा' के नाम से मशहूर और नौजवान शायरों के चहेते शमीम साहब की शिरकत के बिना मुंबई की कोई नशिस्त मुकम्मल नहीं मानी जाती

छाई रहती है घनी छाँव मुसलसल कहिये 
बेसमर पेड़ है इक याद का पीपल कहिये 

सर्दियाँ हों तो रज़ाई की जगह होता है 
गर्मियां हो तो उसी शख्स को मलमल कहिये 

छुइए उस को तो मरमर सा बदन होता है 
जब बरतीये तो यही लगता है दलदल कहिये 

शमीम साहब ने "रेख्ता" की साइट पर फ़रहत एहसास साहब को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि बचपन में बड़े और प्रसिद्द शायरों की शायरी पढ़ते या सुनते हुए उन्हें लगता था कि उर्दू शायरी की भाषा बहुत औपचारिक है, वो सोचते थे कि क्यों हम आम बोलचाल की भाषा में बेतकल्लुफी से जैसे हम अपने यार दोस्तों से या घर में भाई अम्मी से या बाजार में दुकानदार से या दुकानदार हम से बात करते हैं , शायरी नहीं कर सकते ?

इतने बखेड़े पाल लिए कब फुरसत मिलती है 
आज की तय दोनों में थी अब कल पर रख्खी है 

वो अपने झंझट में फंसा मैं अपने झमेले में 
वक्त न उसके पास है और न मुझको छुट्टी है 

अच्छे खासे लोगों से यह बस्ती है आबाद 
तेरे सिवा जाने क्यूँ अपनी सब से कट्टी है 

लगा तो तीर नहीं तो तुक्का सीधी सी है बात 
कोशिश वोशिश काहे की अंधे की लाठी है 

ये सोच उस वक्त बहुत क्रांतिकारी थी क्यूंकि इस तरह पहले किसी ने या तो सोचा नहीं था या फिर उसे अमल में लाने का जोखिम नहीं उठाया था हालाँकि कुछ हद तक अल्वी साहब ने ये कोशिश की जरूर लेकिन वो शमीम साहब की तरह बिंदास नहीं हो पाए .शमीम साहब ने ये ज़ोखिम उठाया और खूब उठाया जिसकी वजह से शुरू में उन्हें नकारा गया लेकिन धीरे धीरे दाद के साथ हौसला अफ़ज़ाही भी मिलने लगी और फिर तो वो खुल कर अपना जलवा दिखने लगे।

यूँ ही ये ज़िन्दगी चलती रही है
तवायफ़ भी कहीं बेवा हुई है 

किसी जानिब किसी जानिब बढूं मैं 
तुम्हारी याद रस्ता काटती है 

लगाए घात बैठी है तमन्ना 
जहाँ मौका मिले मुंह मारती है 

शमीम साहब के बड़े भाई शफ़ीक़ अब्बास साहब भी बहुत बड़े शायर हैं लेकिन उनकी शायरी की जो ज़बान है वो शमीम साहब से बिलकुल अलहदा है।"शमीम" साहब फरमाते है की जो ज़बान वो इस्तेमाल करते हैं वो उनकी माँ की ज़बान है जिसे वो अपने साथ रदौली उत्तरप्रदेश से ले आयीं और जो बरसों बरस मुंबई में रहने के बावजूद भी उनके होंठो पे रही। शमीम साहब कहते हैं कि उनकी शायरी में जो फ़िक्र आती है, ख्याल आते हैं वो उनकी ही ज़बान में जिसे वो रोजमर्रा की गुफ्तगू में इस्तेमाल करते हैं, आते हैं , उन्हें लफ्ज़ तलाशने नहीं पड़ते वो इसी ज़बान में सोचते हैं और कहते हैं।

मुद्दतों बाद रात दर्द उठा 
ज़िन्दगी तेरा कुछ पता तो चला 

तुम मदावे की शक्ल आ धमके 
मैं कुढ़न का मज़ा भी ले न सका 
मदावे : इलाज़ , कुढ़न : कष्ट , तकलीफ 

यह तो तय है कि रात था कोई 
तू नहीं था तो कौन था बतला 

आज किस मुंह से तुम को झुठलाएं 
हम को पहचानते नहीं ! अच्छा 

उर्दू में शमीम साहब की शायरी के शायद दो मज़मुए आ चुके हैं ,"बाँट लें, आ क़ायनात " शायद मेरी समझ में उनका हिंदी में पहला मज़्मुआ है जिसे "हलक फाउंडेशन ,12, इंद्रप्रस्थ, फ्लाईओवर ब्रिज अँधेरी (पूर्व) मुंबई ने शाया किया है. मुझे तो ये किताब जयपुर के बेजोड़ नामवर शायर और गीतकार जनाब लोकेश सिंह 'साहिल' साहब की मेहरबानी से पढ़ने को मिली है लेकिन आप इस किताब की प्राप्ति के लिए शमीम साहब को उनके घर 022-28113418 पर या उनके मोबाईल न 9029492884 पर संपर्क करके पूछ सकते हैं।दिल्ली में तुफैल साहब के यहाँ "लफ्ज़" के सन 2015 में हुए मुशायरे में उनसे एक बार बात हुई थी।बेहद हंसमुख दोस्ताना तबियत के मालिक शमीम साहब यकीनन किताब के बारे में आपकी जरूर मदद करेंगे।

लफ़्ज़ों चंगुल में फंस कर रह जाता है ख्याल 
बात उलझ कर रह जाती है हाय रे मज़बूरी 

तेरे कर्ब ने आनन् फानन मौसम बदला है 
हर सू पेड़ घनेरे हैं और सूरज में खुनकी 
कर्ब =निकटता , खुनकी =शीतलता 

जाने क्या है जब जब उस से नज़रें पलटी हैं 
सारे शहर की कोई गुल कर देता है बिजली 

पेपर बैक में छपी इस छोटी सी किताब में शमीम साहब की लगभग 84 ग़ज़लें और फुटकर शेर हैं। हिंदी में उनकी इन ग़ज़लों और शेरों का जिसने भी तर्जुमा किया है उसने या फिर प्रकाशक ने हिज्जों की बहुत सी गलतियां की हैं जो शमीम साहब की लाजवाब शायरी को पढ़ते वक्त अखरती हैं।हर कमी के बावजूद ये किताब हाथ में लेने के बाद किसी भी शायरी प्रेमी के लिए पूरी ख़तम किये बिना छोड़नी मुश्किल है। उनके बहुत से शेर पढ़ने वाले के दिलो दिमाग में हमेशा से बस जाने वाले हैं. आप इस किताब को मंगवाने का जतन करें तब तक मैं उनकी एक बहुत मकबूल ग़ज़ल के ये शेर पढ़वा कर अगली किताब की तलाश में निकलता हूँ.

मिल न मिल मर्ज़ी तेरी
चित तेरी पट भी तेरी 

बाँट ले आ कायनात 
तू मेरा बाकी तेरी 

उसके बिन ऐ ज़िन्दगी 
ऐसी की तैसी तेरी 

इक मेरी भी मान ले 
मैंने सब रक्खी तेरी 

मैं सभी पर खुल चुका 
बंद है मुठ्ठी तेरी

Monday, June 12, 2017

किताबों की दुनिया - 129

उर्दू के बेहतरीन शायरों की शायरी का हिंदी में लिप्यंतरण हो चुका है और हो भी रहा है। हिंदी का एक विशाल पाठक वर्ग है जो शायरी से उतनी ही मोहब्बत करता है जितनी कि उर्दू पढ़ने समझने वाले लोग। इसी सिलसिले में एक और लाजवाब शायर की किताब बाजार में आयी है ,जो बहुत पहले आ जानी चाहिए थी पर चलिए देर आये दुरुस्त आये या यूँ कहें-" देर लगी आने में तुमको शुकर है फिर भी आये तो ".... ये शायर यूँ तो जन्में हिन्दुस्तान में, जा बसे पकिस्तान में, लेकिन ऐसा कहना गलत होगा क्योंकि शायर किसी मुल्क का नहीं होता उसे सरहदों या ज़ुबानों की हद में नहीं बाँधा जा सकता, वो तो अपने उन सभी पाठकों का होता है जो दुनिया में कहीं भी बसे हों, कारण आपको इस शायर की एक ग़ज़ल के इन शेरों में मिल जायेगा :--

सारे मंज़र एक जैसे, सारी बातें एक-सी 
सारे दिन हैं एक से और सारी रातें एक-सी 

बेनतीजा बेसमर जंगो-जदल सूदो-जियाँ 
सारी जीतें एक जैसी, सारी मातें एक-सी 
बेनतीजा=परिणामहीन , बेसमर=फल रहित, जंगो-जदल=लड़ाई-झगड़ा, सूदो-जियाँ=लाभ-हानि 

अब किसी में अगले वक़्तों की वफ़ा बाक़ी नहीं 
सब कबीले एक हैं अब, सारी जातें एक-सी

एक ही रुख़ की असीरी ख़्वाब है शहरों का अब 
उनके मातम एक-से, उनकी बरातें एक-सी 
असीरी =बाध्यता ,मज़बूरी 

 "गाँव कनेक्शन " ब्लॉग पर इस शायर के बारे में जो जानकारी मिलती है वो इस तरह है "साल 1928 में पंजाब के होशियारपुर में मुहम्मद फ़तह खान के घर में एक बेटे ने जन्म लिया। उसका नाम रखा गया मुहम्मद मुनीर खान नियाज़ी। साल भर ही गुज़रा था कि फ़तह खान साहब का इंतकाल हो गया। ज़रा सी उम्र में वालिद के इंतकाल से मुनीर के घर के हालात बदल गए। जब मुनीर बड़ा हुआ तो उसने अपना नाम बदल लिया अब वो मुहम्मद मुनीर खान नियाज़ी नहीं, सिर्फ मुनीर नियाज़ी हो गया।
पाकिस्तान की जदीद शायरी में मुनीर नियाज़ी, फैज़ अहमद फैज़ और नूनकीम राशिद के बाद आने वाला नाम है। उनका लहजा बेहद नर्म और ख्याल मख़मल की तरह मुलायम थे। न उनकी आवाज़ में कभी तल्खी सुनी गई न उनकी शायरी में। बड़ी से बड़ी बात को बिना हंगामे के आसानी से कहने के लिए पहचाने जाने वाले मुनीर नियाज़ी की शायरी में एक नयापन है। उनकी शायरी में ज़बान की ऐसी रिवायत है कि जिसमें कई मुल्की और ग़ैरमुल्की ज़बानों की विरासत मिलती है।"

आज हम उनकी किताब "देर कर देता हूँ मैं" जिसे वाणी प्रकाशन ने "दास्ताँ कहते कहते " श्रृंखला के अंतर्गत पेपरबैक में छापा है की बात करेंगे



कल मैंने उसको देखा तो देखा नहीं गया 
मुझसे बिछुड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था 

शामे-फ़िराक़ आयी तो दिल डूबने लगा 
हमको भी अपने आप पे कितना गुरूर था 

निकला जो चाँद, आयी महक तेज़ सी ' मुनीर ' 
मेरे सिवा भी बाग़ में कोई जरूर था 

ज़िन्दगी के बेशुमार रंग अपनी पूरी पॉजिटिविटी के साथ जिस तरह मुनीर साहब की शायरी में दिखाई देते हैं वैसे और किसी शायर की शायरी में नहीं। हिंदी पाठकों में उनका नाम अभी तक उतना लोकप्रिय नहीं हुआ जितना कि उनके समकालीन शायरों का हुआ है इसका कारण खोजने के लिए आपको मुनीर साहब को पढ़ना पड़ेगा। आप पाएंगे कि मुनीर नियाज़ी की शायरी चौंकाती नहीं बल्कि उनकी ही तरह धीरे धीरे मद्धम ठहरे हुए लहज़े में ख़ामोशी से अपनी बात कहती है। आज के तड़क भड़क और शोरोगुल वाले माहौल में ख़ामोशी की आवाज़ को सुनने के लिए धीरज चाहिए , जो है नहीं।

तुझसे बिछुड़ कर क्या हूँ मैं, अब बाहर आ कर देख 
हिम्मत है तो मेरी हालत आँख मिला कर देख 

दरवाज़े के पास आ आ कर वापस मुड़ती चाप 
कौन है इस सुनसान गली में, पास बुला कर देख 

शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान 
कमरे की दीवारों पर कोई नक़्श बना कर देख 

तू भी मुनीर अब भरे जहाँ में मिल कर रहना सीख 
बाहर से तो देख लिया अब अंदर जा कर देख 

उनकी शायरी में कुछ खास लफ्ज़ जैसे हवा, शाम जंगल बार बार आते हैं। परवीन शाक़िर साहिबा के साथ एक गुफ़्तगू में उन्होंने बताया कि उनकी शायरी में एक नए शहर का तसव्वुर आता है एक ऐसा शहर जो इस शहर से जिसमें वो रह रहे हैं बिलकुल अलग हो जिसमें मुहब्बत की फ़िज़ां हो नफ़रत दुःख उदासी का नामों निशाँ न हो जिसकी हवाएं अलग हों गुलशन अलग हो बहारें अलग हों। ये तसव्वुर हर अच्छे इंसान का होता है और उसे पता होता है कि इसका पूरा होना मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं इसीलिए वो ताउम्र वो इसे पाने की कोशिश में लगा रहता है !

एक नगर ऐसा बस जाए जिसमें नफ़रत कहीं न हो 
आपस में धोखा करने की, ज़ुल्म की ताक़त कहीं न हो 

उसके मकीं हों और तरह के, मस्कन और तरह के हों 
उसकी हवाएं और तरह की ,गुलशन और तरह के हों 
मकीं =निवासी , मस्कन =घर 

 मुनीर नियाज़ी साहब के 11 उर्दू और 4 पंजाबी संकलन प्रकाशित हैं, जिनमें ‘तेज हवा और फूल’, ‘पहली बात ही आखिरी थी’ और ‘एक दुआ जो मैं भूल गया था’ जैसे मशहूर नाम शामिल हैं. उनकी किताबें उनकी ज़िन्दगी की मुख़्तलिफ़ मंज़िलें हैं जिन्हें उन्होंने ने अपनी किताबों की शक्ल में रक़म किया है। हिंदी में शायद पहली बार वाणी प्रकाशन की ये किताब आयी है।

उस हुस्न का शेवा है जब इश्क नज़र आये 
परदे में चले जाना शर्माए हुए रहना 

इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्मे से 
इक चाँद सा आँखों में चमकाए हुए रहना 

आदत सी बना ली है तुमने तो 'मुनीर' अपनी 
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना 

नियाज़ी साहब बंटवारे के बाद साहिवाल में बस गये थे और सन 1949 में ‘सात रंग’ नाम के मासिक का प्रकाशन शुरु किया. बाद में आप फिल्म जगत से जुड़े और अनेकों फिल्मों में मधुर गीत लिखे. आपका लिखा मशहूर गीत ‘उस बेवफा का शहर है’ फिल्म ‘शहीद ‘ के लिये स्व. नसीम बेगम ने १९६२ में गाया. बकौल शायर इफ़्तिकार आरिफ़, मुनीर साहब उन पांच उर्दू शायरों में से एक हैं, जिनका कई यूरोपियन भाषाओं में खुब अनुवाद किया गया है. उनकी ग़ज़लों को पाकिस्तान के ग़ज़ल गायकों ने अपनी आवाज़ दी है. आप में से जो ग़ुलाम अली साहब के दीवाने हैं उन्होंने उनकी दिलकश आवाज़ में मुनीर साहब की ये ग़ज़ल जरूर सुनी होगी :-

चमन में रंगे-बहार उतरा तो मैंने देखा 
नज़र से दिल का ग़ुबार उतरा तो मैंने देखा

ख़ुमारे-मय में वो चेहरा कुछ और लग रहा था 
दमे-सहर जब खुमार उतरा तो मैंने देखा 
ख़ुमारे-मय=शराब का खुमार , दमे-सहर=सुबह के वक्त 

इक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझको 
मैं एक दरिया के पार उतरा तो मैंने देखा

मुनीर साहब ज़िन्दगी भर शायरी के किसी कैम्प में शामिल नहीं हुए उनके अनुसार सिर्फ कमज़ोर विचारधारा और सोच के इंसान ही अपना एक ग्रुप बनाते हैं जिन्हें अपने फ़न पर ऐतबार होता है वो अकेले ही चलते हैं। बहुत धीर गंभीर तबियत के मालिक मुनीर साहब जब मंच से अपनी बेहद लोकप्रिय नज़्म "हमेशा देर कर देता हूँ मैं" -सुनाते थे तो इस छोटी सी नज़्म को सुनते वक़्त शायद ही कोई इंसान हो जिसकी आँखें नहीं भर आती थी। मेरी आपसे गुज़ारिश है कि यदि आपने इस नज़्म को उनकी ज़बानी नहीं सुना है तो एक बार यू ट्यूब पर इसे सर्च करके देखें और सुनें :-

हमेशा देर कर देता हूँ मैं 
जरूरी बात करनी हो कोई वादा निभाना हो 
उसे आवाज़ देनी हो उसे वापस बुलाना हो 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं 
मदद करनी हो उसकी, यार की ढारस बँधाना हो 
बहुत देरीना रस्तों पर किसी से मिलने जाना हो 
देरीना = पुराने 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं 
बदलते मौसमों की सैर में दिल को लगाना हो 
किसी को याद रखना हो किसी को भूल जाना हो 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं 
किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो 
हक़ीक़त और थी कुछ उसको जा के ये बताना हो 
हमेशा देर कर देता हूँ मैं हर काम करने में i

इस किताब की भूमिका में प्रसिद्ध शायर 'शीन काफ़ निज़ाम' साहब लिखते हैं कि 'मुनीर की शायरी में बनावट और बुनावट नहीं सीधे-सीधे अहसास को अलफ़ाज़ और ज़ज़्बे को ज़बान देने का अमल है. उनकी शायरी का ग्राफ बाहर से अंदर और अंदर से अंदर की तरफ है एक ऐसी तलाश जो परेशां भी करती है और प्राप्य पर हैरान भी जो हर सच्चे और अच्छे शायर का मुकद्दर है।

इतने खामोश भी रहा न करो
ग़म जुदाई में यूँ किया न करो 

ख़्वाब होते हैं देखने के लिए 
उन में जा कर मगर रहा न करो 

कुछ न होगा गिला भी करने से 
ज़ालिमों से गिला किया न करो 

अपने रूत्बे का कुछ लिहाज़ 'मुनीर' 
यार सब को बना लिया न करो 

जनाब 'मुनीर' बरसों पाकिस्तान टीवी के लाहौर केंद्र से जुड़े रहे उन्हें 1992 में पाकिस्तान सरकार द्वारा 'प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस ' के खिताब से और मार्च 2005 में ‘सितार-ए-इम्तियाज’ के सम्मान से नवाज़ा गया.कौन जानता था कि मंच से गूंजती यह आवाज़ 26 दिसम्बर 2006 की रात में दिल का दौरा पड़ने से हमेशा के लिये चुप हो जायेगी. वैसे नियाज़ी साहब साँस की बीमारी से एक अर्से से परेशान थे. 

अपनी ही तेग़े-अदा से आप घायल गया 
चाँद ने पानी में देखा और पागल हो गया 

वो हवा थी शाम ही से रस्ते खाली हो गए 
वो घटा बरसी कि सारा शहर जल-थल हो गया 

मैं अकेला और सफ़र की शाम रंगों में ढली 
फिर ये मंज़र मेरी आँखों से भी ओझल हो गया 

अब कहाँ होगा वो और होगा भी तो वैसा कहाँ 
सोच कर ये बात जी कुछ और बोझल हो गया 

 "देर कर देता हूँ मैं" किताब में मुनीर साहब की लगभग 85 ग़ज़लें और 43 नज़्में संगृहीत हैं जिन्हें पढ़ कर उनकी शायरी के मैयार का अंदाज़ा होता है, उन्हें सरापा पढ़ने के लिए तो उर्दू सीखनी ही पड़ेगी क्यों की हिंदी में उनका लिखा बहुत ज्यादा उपलब्ध नहीं है।वाणी प्रकाशन ने किताब को ख़ूबसूरती से छापा है लेकिन आवरण के साइड में "मुनीर नियाज़ी" की जगह "मुनीर जियाज़ी" छाप देने की गलती अखरती है। आप इस किताब को वाणी प्रकाशन को sales@vaniprakashan.in पर मेल लिख कर या फिर अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। चलते चलते उनकी ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें, सोचें कि ये शेर किसी उर्दू शायर के हैं या हिंदी शायर के और फिर हिंदी /उर्दू ग़ज़ल की दीवार को हमेशा के लिए गिरा दें :

घुप अँधेरे में छिपे सूने बनों की ओर से 
गीत बरखा के सुनो रंगों में डूबे मोर से 

लाख पलकों को झुकाओ, लाख घूंघट में छुपो 
सामना हो कर रहेगा दिल के मोहन चोर से 

भाग कर जाएँ कहाँ इस देस से अब ऐ 'मुनीर' 
दिल बँधा है प्रेम की सुन्दर, सजीली डोर से

Monday, June 5, 2017

किताबों की दुनिया - 128/2

जॉन एलिया साहब से एक बार जब किसी ने पूछा कि आप इतने बरसों से शायरी कर रहे हैं लेकिन आपका कोई मज्मूआ अब तक शाया क्यों नहीं हुआ तो उन्होंने फ़रमाया :- “अपनी शायरी का जितना मुंकिर* मैं हूं, उतना मुंकिर मेरा कोई बदतरीन दुश्मन भी न होगा. कभी कभी तो मुझे अपनी शायरी. बुरी, बेतुकी, लगती है इसलिए अब तक मेरा कोई मज्मूआ शाये नहीं हुआ और जब तक खुदा ही शाये नहीं कराएगा. उस वक्त तक शाये होगा भी नहीं.’ *मुंकिर: खारिज करने वाला”
जॉन साहब की ये बुरी और बेतुकी शायरी शाया होने के बाद किस क़दर हंगामा बरपा देगी अगर इस का जरा सा भी गुमाँ उन्हें होता तो शायद उनकी सभी किताबें उनके जीते जी ही शाया हो गयी होतीं।

रूठा था तुझसे यानी ख़ुद अपनी ख़ुशी से मैं 
फिर उसके बाद जान न रूठा किसी से मैं 

बाँहों से मेरी वो अभी रुखसत नहीं हुआ 
पर गुम हूँ इंतेज़ार में उसके अभी से मैं 

दम भर तिरी हवस से नहीं है मुझे क़रार 
हलकान हो गया हूँ तेरी दिल-कशी से मैं 

इस तौर से हुआ था जुदा अपनी जान से 
जैसे भुला सकूंगा उसे आज ही से मैं 

जरा सोचिये ऐसे लाजवाब अशआर बिना पाठकों तक पहुंचे रद्दी के भाव बाज़ार में बिक गए होते अगर ख़ालिद अहमद अन्सारी साहब उन्हें सहेज कर किताबों की शक्ल नहीं देते। सुना है की उनके अशआर लोगों ने चुराने शुरू कर दिए थे बहुत मुमकिन है कि उनकी शायरी का अहम् तो नहीं पर थोड़ा बहुत हिस्सा ऐसे उठाईगिरों की कैद में अब भी पड़ा हो।

जीत के मुझको खुश मत होना, मैं तो इक पछतावा हूँ 
खोऊँगा, कुढ़ता ही रहूँगा , पाऊंगा , पछताऊंगा 

एह्दे-रफ़ाक़त ठीक है लेकिन मुझको ऐसा लगता है 
तुम तो मेरे साथ रहोगी , मैं तनहा रह जाऊँगा 
एह्दे-रफ़ाक़त =दोस्ती का वादा 

शाम को अक्सर बैठे बैठे, दिल कुछ डूबने लगता है 
तुम मुझको इतना मत चाहो , मैं शायद मर जाऊँगा 

एनीबुक प्रकाशन ने जॉन साहब का 'गुमान ' के बाद एक साल के अंदर ही दूसरा शेरी मज़्मूआ 'लेंकिन' जिस की बात हम अभी कर रहे हैं को जिस सादगी और ख़ूबसूरती से शाया किया है उसकी जितनी तारीफ़ की जाय कम होगी। एक नए प्रकाशक के लिए एक शायरी की किताब छापना वो भी जॉन एलिया जैसे की ,बहुत बड़ी बात है। हिंदी के बड़े से बड़े प्रकाशक भी ये काम नहीं कर पाए जो इस नए प्रकाशक ने कर दिखाया है।


अभी इक शोर सा उठा है कहीं 
कोई खामोश हो गया है कहीं 

तुझको क्या हो गया कि चीजों को 
कहीं रखता है ढूंढता है कहीं 

तू मुझे ढूंढ मैं तुझे ढूंढूं 
कोई हम में से रह गया है कहीं 

इसी कमरे से कोई हो के विदाअ 
इसी कमरे में छुप गया है कहीं

'गुमान' या 'लेकिन' पढ़ते वक्त इस बात का एहसास होता है कि जॉन साहब का अपनी बात को कहने का सबसे जुदा अपना एक अलग अंदाज़ था ,उनकी शायरी चौंकाने वाली और एक दम नयी थी। कहना होगा कि वो ओरिजिनल शायर थे जिन्होंने किसी और की बनाई राह पर चलने से गुरेज किया और अपनी ज़मीने ईज़ाद कीं। आज तो बहुत से शायर उनकी नक़ल करते हुए मिल जायेंगे लेकिन उस वक्त ऐसी शायरी करने वाला उनके अलावा कोई दूसरा नहीं था जो मंज़र से ज्यादा पसमंज़र पर निगाहें रखते हुए शायरी करे।उनकी शायरी की जुबान भी बिलकुल अलग थी।

इक तरफ दिल है इक तरफ दुनिया 
ये कहानी बहुत पुरानी है 

क्या बताऊँ मैं अपना पासे -अना 
मैंने हंस हंस के हार मानी है 
पासे -अना =स्वाभिमान की रक्षा 

रोजमर्रा है ज़िन्दगी का अजीब 
रात है और नींद आनी है 

ज़िन्दगी किस तरह गुज़ारूं मैं 
मुझको रोज़ी नहीं कमानी है 

आज सोशल मिडिया पर उनके मुशायरे के ढेरों विडिओ रोज दिखाई देते हैं , लोग उनकी अनोखी अदाओं लम्बी जुल्फों, बात चीत के अंदाज़ की चर्चा तो करते नज़र आते हैं लेकिन उनकी शायरी की जितनी होनी चाहिए उतनी चर्चा नहीं हो रही जो कि होनी चाहिए.. वो अकेले ऐसे शायर हैं जिसे किसी ढांचे में फिट नहीं किया जा सकता। वो जिस बात को कबूल कर रहे हैं उसे ही तुरंत नकारते भी नज़र आजायेंगे बशर्ते की कोई बात उनकी पहले से कबूल की गयी बात से बेहतर हो। जॉन साहब की शायरी प्याज की परतों की तरह है जिसे अभी पूरी तरह से खोला नहीं गया है।

मुझे याँ किसी पे भरोसा नहीं 
मैं अपनी निगाहों से छुप कर छुपा 

पहुँच मुख़बिरों की सुख़न तक कहाँ 
सो मैं अपने होटों पे अक्सर छुपा 

मिरि सुन ! न रख अपने पहलु में दिल 
इसे तू किसी और के घर छुपा 

यहाँ तेरे अंदर नहीं मेरी खैर 
मिरि जां ! मुझे मेरे अंदर छुपा 

'लेक़िन' में शाया हुई ग़ज़लों में से कौनसे शेर चुनूं कौनसे छोडूं की उधेड़बुन में बहुत दिन लगा रहा आखिर हुआ ये कि अचानक पलटते हुए जिस पन्ने पर ऊँगली रखी उसी पर छपी ग़ज़ल से कुछ शेर उठा लिए और आपको पेश कर दिए - आखिर खज़ाना भी कहीं चुना जाता है ? जहाँ हाथ डालेंगे खरे सोने की खनखनाती अशर्फियाँ ही हाथ आएँगी , यकीन न हो तो अमेज़न से ऑन लाइन या फिर एनीबुक से 'लेकिन' मंगवाएं -जिसका पता मैंने अपनी पिछली पोस्ट में आपको दिया ही था - और खुद देख लें।

बोल रे जी अब साजन जी का मुखड़ा है किस दर्पण का 
मैं जो टूटा , मैं जो बिखरा , मैं था दर्पण साजन का

मुझको मेरे सारे खिलौने लाके दो मैं क्या जानूँ 
कैसी जवानी, किसकी जवानी , मैं हूँ अपने बचपन का 

उस जोगन के रूप हज़ारों , उनमें से एक रूप है तू 
जब से मैंने जोग लिया है जोगी हूँ उस जोगन का

'गुमान ' और 'लेकिन ' के बाद बात करते हैं उनकी तीसरी किताब की जो हाल में ही में " मैं जो हूँ जॉन एलिया हूँ" शीर्षक से प्रकाशित हुई है । वाणी प्रकाशन की इस पेपरबैक किताब में डा कुमार विश्वास ने जॉन साहब की कुछ चर्चित अधिकतर छोटी बहर की ग़ज़लों को संकलित किया है। जॉन साहब की शायरी को पूरी तरह तो नहीं लेकिन आंशिक रूप में जानने के लिहाज़ से इस किताब को पढ़ा जा सकता है।



तो क्या सचमुच जुदाई मुझसे कर ली 
तो खुद अपने को आधा कर लिया क्या 

बहुत नज़दीक आती जा रही हो 
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या 

वाणी प्रकाशन की ये किताब आपकी जॉन एलिया को पढ़ने की प्यास भड़का जरूर सकती है लेकिन बुझा नहीं सकती। कुमार साहब ने जॉन साहब की लगभग 140 ग़ज़लें इसमें संकलित की हैं जो पढ़ने वाले को अपने साथ बहा ले जाती हैं , उन्होंने ध्यान रखा है कि जॉन साहब के अपेक्षाकृत सरल अशआर हिंदी पाठकों को परोसे जाएँ

जो गुज़ारी न जा सकी हम से 
हमने वो ज़िन्दगी गुज़ारी है 

बिन तुम्हारे कभी नहीं आयी
क्या मिरि नींद भी तुम्हारी है 

आप में कैसे आऊं मैं तुझ बिन 
सांस जो चल रही है,आरी है 

 जॉन साहब दरअसल एक ऐसी दुनिया का खवाब देखते रहे जहाँ धर्म की दीवारें न हों भाईचारा हो अमन चैन हो ईमानदारी हो सच्चाई हो और जब ऐसी दुनिया उन्हें नहीं मिली तो वे टूट गए खुद को शराब में डुबो कर बर्बादी की कगार पर ले आये और इस दुनिया ऐ फानी से रुखसत हो गए। उनकी शायरी में उदासी झल्लाहट गुस्सा साफ़ देखा जा सकता है।अपनी बात कहने में वो किसी से कभी नहीं डरे और जो कहा किसी परवाह के बिंदास कहा

धरम की बांसुरी से राग निकले 
वो सूराखों से काले नाग निकले 

खुदा से ले लिया जन्नत का वादा 
ये जाहिद तो बड़े ही घाघ निकले 

है आखिर आदमियत भी कोई शै 
तिरे दरबान तो बुलडाग निकले 

कुमार विश्वास किताब की भूमिका में लिखते हैं कि " बिरला होने के लिए आपमें शब्दों को निभाने की न्यूनतम योग्यता होनी चाहिए , एक स्वाभिमान चाहिए , एक खुदरंग तबियत चाहिए और इस बात की सलाहियत चाहिए कि अपनी शायरी को आम आदमी से कैसे स्वीकार करवाना है। यही जॉन हैं। जॉन बिरले हैं। " बिरले ही हैं तभी तो ऐसे बिरले शेर कहें हैं उन्होंने

सोचता हूँ कि उसकी याद आखिर 
अब किसे रात भर जगाती है 

क्या सितम है कि अब तिरि सूरत 
ग़ौर करने पे याद आती है 

कौन इस घर की देखभाल करे 
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है 

हज़ारों शेर हैं जॉन साहब के जो लोगों के दिल में धड़कते हैं किस किस शेर की बात की जाय मेरी इस पोस्ट की एक सीमा है और जॉन साहब के शेरों की कोई सीमा नहीं एक कोट करो तो लगता है अरे इसे तो जरूर पढ़वाना चाहिए था क्या करें ? आप ऐसा करें इस किताब को वाणी प्रकाशन या फिर अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा ही लें ,मेरे भरोसे जॉन साहब को पढ़ना ठीक नहीं। आपसे विदा लेने से पहले उनका एक शेर पढ़वाता चलता हूँ जो मुझे बहुत पसंद है , शायद आपको भी पसंद आये , अपनी तरह का अकेला बिरला लाजवाब बेमिसाल सच्चा शेर
 :-
कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल जू हूँ मैं 
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएंगे 
 जू :सुन्दर