उर्दू के बेहतरीन शायरों की शायरी का हिंदी में लिप्यंतरण हो चुका है और हो भी रहा है। हिंदी का एक विशाल पाठक वर्ग है जो शायरी से उतनी ही मोहब्बत करता है जितनी कि उर्दू पढ़ने समझने वाले लोग। इसी सिलसिले में एक और लाजवाब शायर की किताब बाजार में आयी है ,जो बहुत पहले आ जानी चाहिए थी पर चलिए देर आये दुरुस्त आये या यूँ कहें-" देर लगी आने में तुमको शुकर है फिर भी आये तो ".... ये शायर यूँ तो जन्में हिन्दुस्तान में, जा बसे पकिस्तान में, लेकिन ऐसा कहना गलत होगा क्योंकि शायर किसी मुल्क का नहीं होता उसे सरहदों या ज़ुबानों की हद में नहीं बाँधा जा सकता, वो तो अपने उन सभी पाठकों का होता है जो दुनिया में कहीं भी बसे हों, कारण आपको इस शायर की एक ग़ज़ल के इन शेरों में मिल जायेगा :--
"गाँव कनेक्शन " ब्लॉग पर इस शायर के बारे में जो जानकारी मिलती है वो इस तरह है "साल 1928 में पंजाब के होशियारपुर में मुहम्मद फ़तह खान के घर में एक बेटे ने जन्म लिया। उसका नाम रखा गया मुहम्मद मुनीर खान नियाज़ी। साल भर ही गुज़रा था कि फ़तह खान साहब का इंतकाल हो गया। ज़रा सी उम्र में वालिद के इंतकाल से मुनीर के घर के हालात बदल गए। जब मुनीर बड़ा हुआ तो उसने अपना नाम बदल लिया अब वो मुहम्मद मुनीर खान नियाज़ी नहीं, सिर्फ मुनीर नियाज़ी हो गया।
पाकिस्तान की जदीद शायरी में मुनीर नियाज़ी, फैज़ अहमद फैज़ और नूनकीम राशिद के बाद आने वाला नाम है। उनका लहजा बेहद नर्म और ख्याल मख़मल की तरह मुलायम थे। न उनकी आवाज़ में कभी तल्खी सुनी गई न उनकी शायरी में। बड़ी से बड़ी बात को बिना हंगामे के आसानी से कहने के लिए पहचाने जाने वाले मुनीर नियाज़ी की शायरी में एक नयापन है। उनकी शायरी में ज़बान की ऐसी रिवायत है कि जिसमें कई मुल्की और ग़ैरमुल्की ज़बानों की विरासत मिलती है।"
आज हम उनकी किताब "देर कर देता हूँ मैं" जिसे वाणी प्रकाशन ने "दास्ताँ कहते कहते " श्रृंखला के अंतर्गत पेपरबैक में छापा है की बात करेंगे
ज़िन्दगी के बेशुमार रंग अपनी पूरी पॉजिटिविटी के साथ जिस तरह मुनीर साहब की शायरी में दिखाई देते हैं वैसे और किसी शायर की शायरी में नहीं। हिंदी पाठकों में उनका नाम अभी तक उतना लोकप्रिय नहीं हुआ जितना कि उनके समकालीन शायरों का हुआ है इसका कारण खोजने के लिए आपको मुनीर साहब को पढ़ना पड़ेगा। आप पाएंगे कि मुनीर नियाज़ी की शायरी चौंकाती नहीं बल्कि उनकी ही तरह धीरे धीरे मद्धम ठहरे हुए लहज़े में ख़ामोशी से अपनी बात कहती है। आज के तड़क भड़क और शोरोगुल वाले माहौल में ख़ामोशी की आवाज़ को सुनने के लिए धीरज चाहिए , जो है नहीं।
उनकी शायरी में कुछ खास लफ्ज़ जैसे हवा, शाम जंगल बार बार आते हैं। परवीन शाक़िर साहिबा के साथ एक गुफ़्तगू में उन्होंने बताया कि उनकी शायरी में एक नए शहर का तसव्वुर आता है एक ऐसा शहर जो इस शहर से जिसमें वो रह रहे हैं बिलकुल अलग हो जिसमें मुहब्बत की फ़िज़ां हो नफ़रत दुःख उदासी का नामों निशाँ न हो जिसकी हवाएं अलग हों गुलशन अलग हो बहारें अलग हों। ये तसव्वुर हर अच्छे इंसान का होता है और उसे पता होता है कि इसका पूरा होना मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं इसीलिए वो ताउम्र वो इसे पाने की कोशिश में लगा रहता है !
मुनीर नियाज़ी साहब के 11 उर्दू और 4 पंजाबी संकलन प्रकाशित हैं, जिनमें ‘तेज हवा और फूल’, ‘पहली बात ही आखिरी थी’ और ‘एक दुआ जो मैं भूल गया था’ जैसे मशहूर नाम शामिल हैं. उनकी किताबें उनकी ज़िन्दगी की मुख़्तलिफ़ मंज़िलें हैं जिन्हें उन्होंने ने अपनी किताबों की शक्ल में रक़म किया है। हिंदी में शायद पहली बार वाणी प्रकाशन की ये किताब आयी है।
नियाज़ी साहब बंटवारे के बाद साहिवाल में बस गये थे और सन 1949 में ‘सात रंग’ नाम के मासिक का प्रकाशन शुरु किया. बाद में आप फिल्म जगत से जुड़े और अनेकों फिल्मों में मधुर गीत लिखे. आपका लिखा मशहूर गीत ‘उस बेवफा का शहर है’ फिल्म ‘शहीद ‘ के लिये स्व. नसीम बेगम ने १९६२ में गाया. बकौल शायर इफ़्तिकार आरिफ़, मुनीर साहब उन पांच उर्दू शायरों में से एक हैं, जिनका कई यूरोपियन भाषाओं में खुब अनुवाद किया गया है. उनकी ग़ज़लों को पाकिस्तान के ग़ज़ल गायकों ने अपनी आवाज़ दी है. आप में से जो ग़ुलाम अली साहब के दीवाने हैं उन्होंने उनकी दिलकश आवाज़ में मुनीर साहब की ये ग़ज़ल जरूर सुनी होगी :-
मुनीर साहब ज़िन्दगी भर शायरी के किसी कैम्प में शामिल नहीं हुए उनके अनुसार सिर्फ कमज़ोर विचारधारा और सोच के इंसान ही अपना एक ग्रुप बनाते हैं जिन्हें अपने फ़न पर ऐतबार होता है वो अकेले ही चलते हैं। बहुत धीर गंभीर तबियत के मालिक मुनीर साहब जब मंच से अपनी बेहद लोकप्रिय नज़्म "हमेशा देर कर देता हूँ मैं" -सुनाते थे तो इस छोटी सी नज़्म को सुनते वक़्त शायद ही कोई इंसान हो जिसकी आँखें नहीं भर आती थी। मेरी आपसे गुज़ारिश है कि यदि आपने इस नज़्म को उनकी ज़बानी नहीं सुना है तो एक बार यू ट्यूब पर इसे सर्च करके देखें और सुनें :-
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
जरूरी बात करनी हो कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
मदद करनी हो उसकी, यार की ढारस बँधाना हो
बहुत देरीना रस्तों पर किसी से मिलने जाना हो
देरीना = पुराने
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
बदलते मौसमों की सैर में दिल को लगाना हो
किसी को याद रखना हो किसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ उसको जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं हर काम करने में i
इस किताब की भूमिका में प्रसिद्ध शायर 'शीन काफ़ निज़ाम' साहब लिखते हैं कि 'मुनीर की शायरी में बनावट और बुनावट नहीं सीधे-सीधे अहसास को अलफ़ाज़ और ज़ज़्बे को ज़बान देने का अमल है. उनकी शायरी का ग्राफ बाहर से अंदर और अंदर से अंदर की तरफ है एक ऐसी तलाश जो परेशां भी करती है और प्राप्य पर हैरान भी जो हर सच्चे और अच्छे शायर का मुकद्दर है।
जनाब 'मुनीर' बरसों पाकिस्तान टीवी के लाहौर केंद्र से जुड़े रहे उन्हें 1992 में पाकिस्तान सरकार द्वारा 'प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस ' के खिताब से और मार्च 2005 में ‘सितार-ए-इम्तियाज’ के सम्मान से नवाज़ा गया.कौन जानता था कि मंच से गूंजती यह आवाज़ 26 दिसम्बर 2006 की रात में दिल का दौरा पड़ने से हमेशा के लिये चुप हो जायेगी. वैसे नियाज़ी साहब साँस की बीमारी से एक अर्से से परेशान थे.
"देर कर देता हूँ मैं" किताब में मुनीर साहब की लगभग 85 ग़ज़लें और 43 नज़्में संगृहीत हैं जिन्हें पढ़ कर उनकी शायरी के मैयार का अंदाज़ा होता है, उन्हें सरापा पढ़ने के लिए तो उर्दू सीखनी ही पड़ेगी क्यों की हिंदी में उनका लिखा बहुत ज्यादा उपलब्ध नहीं है।वाणी प्रकाशन ने किताब को ख़ूबसूरती से छापा है लेकिन आवरण के साइड में "मुनीर नियाज़ी" की जगह "मुनीर जियाज़ी" छाप देने की गलती अखरती है। आप इस किताब को वाणी प्रकाशन को sales@vaniprakashan.in पर मेल लिख कर या फिर अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। चलते चलते उनकी ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें, सोचें कि ये शेर किसी उर्दू शायर के हैं या हिंदी शायर के और फिर हिंदी /उर्दू ग़ज़ल की दीवार को हमेशा के लिए गिरा दें :
सारे मंज़र एक जैसे, सारी बातें एक-सी
सारे दिन हैं एक से और सारी रातें एक-सी
बेनतीजा बेसमर जंगो-जदल सूदो-जियाँ
सारी जीतें एक जैसी, सारी मातें एक-सी
बेनतीजा=परिणामहीन , बेसमर=फल रहित, जंगो-जदल=लड़ाई-झगड़ा, सूदो-जियाँ=लाभ-हानि
अब किसी में अगले वक़्तों की वफ़ा बाक़ी नहीं
सब कबीले एक हैं अब, सारी जातें एक-सी
एक ही रुख़ की असीरी ख़्वाब है शहरों का अब
उनके मातम एक-से, उनकी बरातें एक-सी
असीरी =बाध्यता ,मज़बूरी
"गाँव कनेक्शन " ब्लॉग पर इस शायर के बारे में जो जानकारी मिलती है वो इस तरह है "साल 1928 में पंजाब के होशियारपुर में मुहम्मद फ़तह खान के घर में एक बेटे ने जन्म लिया। उसका नाम रखा गया मुहम्मद मुनीर खान नियाज़ी। साल भर ही गुज़रा था कि फ़तह खान साहब का इंतकाल हो गया। ज़रा सी उम्र में वालिद के इंतकाल से मुनीर के घर के हालात बदल गए। जब मुनीर बड़ा हुआ तो उसने अपना नाम बदल लिया अब वो मुहम्मद मुनीर खान नियाज़ी नहीं, सिर्फ मुनीर नियाज़ी हो गया।
पाकिस्तान की जदीद शायरी में मुनीर नियाज़ी, फैज़ अहमद फैज़ और नूनकीम राशिद के बाद आने वाला नाम है। उनका लहजा बेहद नर्म और ख्याल मख़मल की तरह मुलायम थे। न उनकी आवाज़ में कभी तल्खी सुनी गई न उनकी शायरी में। बड़ी से बड़ी बात को बिना हंगामे के आसानी से कहने के लिए पहचाने जाने वाले मुनीर नियाज़ी की शायरी में एक नयापन है। उनकी शायरी में ज़बान की ऐसी रिवायत है कि जिसमें कई मुल्की और ग़ैरमुल्की ज़बानों की विरासत मिलती है।"
आज हम उनकी किताब "देर कर देता हूँ मैं" जिसे वाणी प्रकाशन ने "दास्ताँ कहते कहते " श्रृंखला के अंतर्गत पेपरबैक में छापा है की बात करेंगे
कल मैंने उसको देखा तो देखा नहीं गया
मुझसे बिछुड़ के वो भी बहुत ग़म से चूर था
शामे-फ़िराक़ आयी तो दिल डूबने लगा
हमको भी अपने आप पे कितना गुरूर था
निकला जो चाँद, आयी महक तेज़ सी ' मुनीर '
मेरे सिवा भी बाग़ में कोई जरूर था
ज़िन्दगी के बेशुमार रंग अपनी पूरी पॉजिटिविटी के साथ जिस तरह मुनीर साहब की शायरी में दिखाई देते हैं वैसे और किसी शायर की शायरी में नहीं। हिंदी पाठकों में उनका नाम अभी तक उतना लोकप्रिय नहीं हुआ जितना कि उनके समकालीन शायरों का हुआ है इसका कारण खोजने के लिए आपको मुनीर साहब को पढ़ना पड़ेगा। आप पाएंगे कि मुनीर नियाज़ी की शायरी चौंकाती नहीं बल्कि उनकी ही तरह धीरे धीरे मद्धम ठहरे हुए लहज़े में ख़ामोशी से अपनी बात कहती है। आज के तड़क भड़क और शोरोगुल वाले माहौल में ख़ामोशी की आवाज़ को सुनने के लिए धीरज चाहिए , जो है नहीं।
तुझसे बिछुड़ कर क्या हूँ मैं, अब बाहर आ कर देख
हिम्मत है तो मेरी हालत आँख मिला कर देख
दरवाज़े के पास आ आ कर वापस मुड़ती चाप
कौन है इस सुनसान गली में, पास बुला कर देख
शायद कोई देखने वाला हो जाए हैरान
कमरे की दीवारों पर कोई नक़्श बना कर देख
तू भी मुनीर अब भरे जहाँ में मिल कर रहना सीख
बाहर से तो देख लिया अब अंदर जा कर देख
उनकी शायरी में कुछ खास लफ्ज़ जैसे हवा, शाम जंगल बार बार आते हैं। परवीन शाक़िर साहिबा के साथ एक गुफ़्तगू में उन्होंने बताया कि उनकी शायरी में एक नए शहर का तसव्वुर आता है एक ऐसा शहर जो इस शहर से जिसमें वो रह रहे हैं बिलकुल अलग हो जिसमें मुहब्बत की फ़िज़ां हो नफ़रत दुःख उदासी का नामों निशाँ न हो जिसकी हवाएं अलग हों गुलशन अलग हो बहारें अलग हों। ये तसव्वुर हर अच्छे इंसान का होता है और उसे पता होता है कि इसका पूरा होना मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं इसीलिए वो ताउम्र वो इसे पाने की कोशिश में लगा रहता है !
एक नगर ऐसा बस जाए जिसमें नफ़रत कहीं न हो
आपस में धोखा करने की, ज़ुल्म की ताक़त कहीं न हो
उसके मकीं हों और तरह के, मस्कन और तरह के हों
उसकी हवाएं और तरह की ,गुलशन और तरह के हों
मकीं =निवासी , मस्कन =घर
मुनीर नियाज़ी साहब के 11 उर्दू और 4 पंजाबी संकलन प्रकाशित हैं, जिनमें ‘तेज हवा और फूल’, ‘पहली बात ही आखिरी थी’ और ‘एक दुआ जो मैं भूल गया था’ जैसे मशहूर नाम शामिल हैं. उनकी किताबें उनकी ज़िन्दगी की मुख़्तलिफ़ मंज़िलें हैं जिन्हें उन्होंने ने अपनी किताबों की शक्ल में रक़म किया है। हिंदी में शायद पहली बार वाणी प्रकाशन की ये किताब आयी है।
उस हुस्न का शेवा है जब इश्क नज़र आये
परदे में चले जाना शर्माए हुए रहना
इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्मे से
इक चाँद सा आँखों में चमकाए हुए रहना
आदत सी बना ली है तुमने तो 'मुनीर' अपनी
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना
नियाज़ी साहब बंटवारे के बाद साहिवाल में बस गये थे और सन 1949 में ‘सात रंग’ नाम के मासिक का प्रकाशन शुरु किया. बाद में आप फिल्म जगत से जुड़े और अनेकों फिल्मों में मधुर गीत लिखे. आपका लिखा मशहूर गीत ‘उस बेवफा का शहर है’ फिल्म ‘शहीद ‘ के लिये स्व. नसीम बेगम ने १९६२ में गाया. बकौल शायर इफ़्तिकार आरिफ़, मुनीर साहब उन पांच उर्दू शायरों में से एक हैं, जिनका कई यूरोपियन भाषाओं में खुब अनुवाद किया गया है. उनकी ग़ज़लों को पाकिस्तान के ग़ज़ल गायकों ने अपनी आवाज़ दी है. आप में से जो ग़ुलाम अली साहब के दीवाने हैं उन्होंने उनकी दिलकश आवाज़ में मुनीर साहब की ये ग़ज़ल जरूर सुनी होगी :-
चमन में रंगे-बहार उतरा तो मैंने देखा
नज़र से दिल का ग़ुबार उतरा तो मैंने देखा
ख़ुमारे-मय में वो चेहरा कुछ और लग रहा था
दमे-सहर जब खुमार उतरा तो मैंने देखा
ख़ुमारे-मय=शराब का खुमार , दमे-सहर=सुबह के वक्त
इक और दरिया का सामना था 'मुनीर' मुझको
मैं एक दरिया के पार उतरा तो मैंने देखा
मुनीर साहब ज़िन्दगी भर शायरी के किसी कैम्प में शामिल नहीं हुए उनके अनुसार सिर्फ कमज़ोर विचारधारा और सोच के इंसान ही अपना एक ग्रुप बनाते हैं जिन्हें अपने फ़न पर ऐतबार होता है वो अकेले ही चलते हैं। बहुत धीर गंभीर तबियत के मालिक मुनीर साहब जब मंच से अपनी बेहद लोकप्रिय नज़्म "हमेशा देर कर देता हूँ मैं" -सुनाते थे तो इस छोटी सी नज़्म को सुनते वक़्त शायद ही कोई इंसान हो जिसकी आँखें नहीं भर आती थी। मेरी आपसे गुज़ारिश है कि यदि आपने इस नज़्म को उनकी ज़बानी नहीं सुना है तो एक बार यू ट्यूब पर इसे सर्च करके देखें और सुनें :-
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
जरूरी बात करनी हो कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
मदद करनी हो उसकी, यार की ढारस बँधाना हो
बहुत देरीना रस्तों पर किसी से मिलने जाना हो
देरीना = पुराने
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
बदलते मौसमों की सैर में दिल को लगाना हो
किसी को याद रखना हो किसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं
किसी को मौत से पहले किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ उसको जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं हर काम करने में i
इस किताब की भूमिका में प्रसिद्ध शायर 'शीन काफ़ निज़ाम' साहब लिखते हैं कि 'मुनीर की शायरी में बनावट और बुनावट नहीं सीधे-सीधे अहसास को अलफ़ाज़ और ज़ज़्बे को ज़बान देने का अमल है. उनकी शायरी का ग्राफ बाहर से अंदर और अंदर से अंदर की तरफ है एक ऐसी तलाश जो परेशां भी करती है और प्राप्य पर हैरान भी जो हर सच्चे और अच्छे शायर का मुकद्दर है।
इतने खामोश भी रहा न करो
ग़म जुदाई में यूँ किया न करो
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए
उन में जा कर मगर रहा न करो
कुछ न होगा गिला भी करने से
ज़ालिमों से गिला किया न करो
अपने रूत्बे का कुछ लिहाज़ 'मुनीर'
यार सब को बना लिया न करो
जनाब 'मुनीर' बरसों पाकिस्तान टीवी के लाहौर केंद्र से जुड़े रहे उन्हें 1992 में पाकिस्तान सरकार द्वारा 'प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस ' के खिताब से और मार्च 2005 में ‘सितार-ए-इम्तियाज’ के सम्मान से नवाज़ा गया.कौन जानता था कि मंच से गूंजती यह आवाज़ 26 दिसम्बर 2006 की रात में दिल का दौरा पड़ने से हमेशा के लिये चुप हो जायेगी. वैसे नियाज़ी साहब साँस की बीमारी से एक अर्से से परेशान थे.
अपनी ही तेग़े-अदा से आप घायल गया
चाँद ने पानी में देखा और पागल हो गया
वो हवा थी शाम ही से रस्ते खाली हो गए
वो घटा बरसी कि सारा शहर जल-थल हो गया
मैं अकेला और सफ़र की शाम रंगों में ढली
फिर ये मंज़र मेरी आँखों से भी ओझल हो गया
अब कहाँ होगा वो और होगा भी तो वैसा कहाँ
सोच कर ये बात जी कुछ और बोझल हो गया
"देर कर देता हूँ मैं" किताब में मुनीर साहब की लगभग 85 ग़ज़लें और 43 नज़्में संगृहीत हैं जिन्हें पढ़ कर उनकी शायरी के मैयार का अंदाज़ा होता है, उन्हें सरापा पढ़ने के लिए तो उर्दू सीखनी ही पड़ेगी क्यों की हिंदी में उनका लिखा बहुत ज्यादा उपलब्ध नहीं है।वाणी प्रकाशन ने किताब को ख़ूबसूरती से छापा है लेकिन आवरण के साइड में "मुनीर नियाज़ी" की जगह "मुनीर जियाज़ी" छाप देने की गलती अखरती है। आप इस किताब को वाणी प्रकाशन को sales@vaniprakashan.in पर मेल लिख कर या फिर अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। चलते चलते उनकी ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें, सोचें कि ये शेर किसी उर्दू शायर के हैं या हिंदी शायर के और फिर हिंदी /उर्दू ग़ज़ल की दीवार को हमेशा के लिए गिरा दें :
घुप अँधेरे में छिपे सूने बनों की ओर से
गीत बरखा के सुनो रंगों में डूबे मोर से
लाख पलकों को झुकाओ, लाख घूंघट में छुपो
सामना हो कर रहेगा दिल के मोहन चोर से
भाग कर जाएँ कहाँ इस देस से अब ऐ 'मुनीर'
दिल बँधा है प्रेम की सुन्दर, सजीली डोर से
6 comments:
उर्दू के बेहतरीन साहित्य का अनुवाद (तर्जुमा) या लिप्यंतरण?
आदरणीय अग्रवाल जी , आपने सही मार्ग दर्शन किया है सही शब्द लिप्यंतरण ही है तर्जुमा नहीं। आपका दिल से आभारी हूँ। मैंने भूल सुधार ली है
बहुत आभार इस जानकारी के लिए, बहुत शुभकामनाएं।
रामराम
behad umda shayri prastut ki hai aapne Niyaji saheb ki...
बहुत बढ़िया
बहुत शानदार लिखा है आपने🙏
Post a Comment