Monday, December 24, 2012

किताबों की दुनिया - 77

नए प्रोजेक्ट के सिलसिले में इन दिनों लगभग हर महीने दो तीन दिनों के लिए गाजिआबाद और दिल्ली जाना पड़ रहा है. ज़िन्दगी अभी मुंबई -जयपुर और दिल्ली के बीच घूम रही है. अटैची पूरी तरह खुलती भी नहीं के फिर से पैक करने का समय हो जाता है. उम्र के इस मोड़ पर भागदौड़ का अपना मज़ा है लेकिन इस वजह से पढना लिखना कुछ कम हो रहा है. अब साहब ज़िन्दगी है, इसमें तो ये सब चलता रहता है :

ज़िन्दगी में फूल भी हैं खार भी 
हादसे भी हैं मगर त्यौहार भी 

हर जगह हैं गैर -ज़िम्मेदार लोग 
हर जगह हैं लोग ज़िम्मेदार भी 

प्यार हो जाय जहाँ पर बे-असर 
बे-असर होगी वहां तलवार भी 

खूबसूरत इत्तेफाक देखिये कि गाजिआबाद के जिस होटल में अक्सर मैं ठहरता हूँ उसी के पास पता चला मेरे प्रिय शायर " अशोक रावत " भी रहते हैं. अशोक जी की ग़ज़लें मैं सतपाल ख्याल साहब के ब्लॉग पर पढ़ कर उनका प्रशंशक हो चुका था, वहीँ से उनका मोबाइल नंबर भी मिला. उन्हें फोन किया तो लगा जैसे बरसों की पहचान हो. बात निकली और फिर दूर तलक गयी. पहली ही बार में इतनी आत्मीयता से बात करने वाले शख्स मैंने बहुत कम देखें हैं आज के इस युग में जहाँ :

अनपहचानी सी लगती हैं अपने ही घर की दीवारें 
अपनी ही गलियों में लगता जैसे हम अनजान हो गए 

बिगड़ गए ताऊ जी, पापा के हिस्से का जिक्र किया 
जब ज़ेवर की जब बात चली तो चाचा बेईमान हो गए 

छोटे भाई के बच्चों की शक्लें अब तक याद नहीं हैं 
राखी नहीं भेजती जीजी भैया अब महमान हो गए 

अशोक जी जैसा व्यक्ति किसी अजूबे से कम नहीं. मैंने फोन पर उनसे उनका ग़ज़ल संग्रह "थोडा सा ईमान" ,जिसका जिक्र आज हम करेंगे , पढने की ख्वाइश का इज़हार किया. अगले दिन सुबह ही वो अपनी किताब के साथ मेरे होटल की लाबी में मेरा इंतज़ार करते हुए मिले. मेरी खातिर अपने घर से दूर खास तौर पर उनका मुझसे मिलने और किताब देने आना मुझे भाव विभोर कर गया. बातों का सिलसिला जब शुरू हुआ तो लगा जैसे बरसों से बिछुड़े दो मित्र गप्पें मार रहे हैं.


फूलों का अपना कोई परिवार नहीं होता 
खुशबू का अपना कोई घर द्वार नहीं होता 

इस दुनिया में अच्छे लोगों का ही बहुमत है 
ऐसा अगर न होता ये संसार नहीं होता 

कितने ही अच्छे हों कागज़ पानी के रिश्ते 
कागज़ की नावों से दरिया पार नहीं होता 

अशोक जी की ग़ज़लें उनके व्यक्तित्व की तरह सच्ची और सरल हैं. उनमें लफ्फाज़ी बिलकुल नहीं है. वो जो अपने आस पास देखते हैं महसूस करते हैं वो ही सब उनके शेरों में दिखाई देता है. इंसान और समाज में आ रहे नकारात्मक बदलाव से वो आहत होते हैं. उनकी ये पीड़ा उनके शेरों में ढल कर उतरती है :

मील के कुछ पत्थरों तक ही नहीं ये सिलसिला 
मंजिलें भी हो गयी हैं अब लुटेरों की तरफ 

जो समंदर मछलियों पर जान देता था कभी 
वो समंदर हो गया है अब मछेरों की तरफ 

सांप ने काटा जिसे उसकी तरफ कोई नहीं 
लोग साँपों की तरफ हैं या सपेरों की तरफ 

15 नवम्बर 1953 को मथुरा जिला के मलिकपुर गाँव में जन्में अशोक भाई सिविल इंजिनियर हैं, आगरा के निवासी हैं और नॉएडा स्थित भारतीय खाद्य निगम में उच्च अधिकारी हैं. सिविल इंजीनियर से बेहतर भला कौन शायर हो सकता है. सिविल इंजीनियर को पता होता है किस काम के लिए कैसा मिश्रण तैयार किया जाता है कैसे नक़्शे बनाये जाते हैं और कैसे ईंट दर ईंट रख कर निर्माण किया जाता है. जरा सी चूक भारी पड़ जाती है. अशोक जी ग़ज़लों में छुपा उनका सिविल इंजीनियरिंग पक्ष साफ़ दिखाई देता है. उनके शेर एक दम कसे हुए नपे तुले होते हैं जिसमें न एक लफ्ज़ जोड़ा जा सकता है और न घटाया.

मेरी नादानी कि जो सपनों में देखे 
मैं हकीक़त में वो मंज़र चाहता था 

भूल मुझसे सिर्फ इतनी सी हुई है 
मैं भी हक़ सबके बराबर चाहता था 

घर का हर सामान मुझको मिल गया पर 
वो नहीं जिसके लिए घर चाहता था 

मेरे ये कहने पर की आजकल लोग न शायरी पढ़ते हैं न सुनते हैं वो तमतमा गए. बोले नीरज जी आप सही नहीं हैं आज कल भी लोग अच्छी शायरी पढ़ते और पसंद करते हैं. आजके दौर में कच्चे शायरों का जमावड़ा अधिक हो गया है. हर कोई शेर या ग़ज़ल कह रहा है, बिना ग़ज़ल का व्याकरण समझे. कम्यूटर पर इतनी सुविधा है के आप कुछ भी लिखें आपको वाह वाह करने वाले तुरंत मिल जाते हैं जो आपके पतन का कारण बनते हैं. पहले एक शेर कहने में पसीना निकल जाता था उस्ताद लोग एक एक मिसरे पर हफ़्तों शागिर्द से कवायद करवाते थे तब कहीं जा कर एक शेर मुकम्मल होता था आज उस्ताद को कौन पूछता है फेसबुक पे शेर डालो और पसंद करने वालों की कतार लग जाती है क्यूँ की पसंद करने वाले को भी तो आपकी वाह वाही की जरूरत होती है. तू मुझे खुजा मैं तुझे खुजाऊं की परम्परा चल पड़ी है.

तुम्हारा बेख़बर रहना बड़ी तकलीफ देता है 
पता तो है तुम्हें सब कुछ कहाँ पर क्या खराबी है 

कभी इक पल गुज़रता है तो लगता है कि युग बीता 
कभी यह ज़िन्दगी, महसूस होता है ज़रा सी है 

खुदा का काम हो जैसे तमाशा देखते रहना 
कभी भी ये नहीं लगता कहीं कोई खुदा भी है 

ग़ज़लों की ये छोटी सी किताब गागर में सागर समान है ,जिसे शब्दकार प्रकाशन शाहगंज आगरा ने प्रकाशित किया है. अत्यंत सादे कलेवर वाली इस किताब में अशोक जी की वो ग़ज़लें हैं जो देश की प्रसिद्द पत्रिकाओं और अखबारों में छप चुकी हैं. हर ग़ज़ल के नीचे उस पत्रिका या अखबार का नाम और प्रकाशन तिथि अंकित है. आपको इस किताब की प्राप्ति के लिए अशोक जी से संपर्क करना होगा जो इन दिनों अपने दूसरी पुस्तक के प्रकाशन की तैय्यारी में व्यस्त हैं. आप अशोक जी से उनके मोबाइल +919458400433 (आगरा ) और +919013567499 (नोयडा ) पर संपर्क कर उन्हें इतने बेहतरीन शेरों के लिए बधाई दें और आज की ग़ज़ल पर चर्चा करें आपको असीमित आनंद आएगा. यकीन न हो तो आजमा कर देखें. अब समय हो गया है आपसे विदा लेने का लेकिन चलने से पहले पढ़िए अशोक जी की ग़ज़ल के ये शेर :

चैन से रहने का हमको मशवरा मत दीजिये 
अब मज़ा देने लगी हैं ज़िंदगी की मुश्किलें 

कुछ नहीं होगा अंधेरों की शिकायत से जनाब 
जानिये ये भी कि क्या हैं रौशनी की मुश्किलें 

रोज़ उठने बैठने की साथ में मजबूरियां 
वर्ना कोई कम नहीं हैं दोस्ती की मुश्किलें

Monday, December 10, 2012

जहाँ उसूल दांव पर लगे वहां उठा धनुष

इस बार दिवाली के शुभ अवसर पर गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरा आयोजित किया गया. तरही का मिसरा था "घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे" इस मिसरे के साथ शिरकत करने वाले शायरों और कवियों ने अपनी रचनाओं से अचंभित कर दिया. मुशायरे का पूरा मज़ा तो आप गुरुदेव के ब्लॉग पर जा कर ही ले सकते हैं यहाँ पढ़िए वो ग़ज़ल जो मैंने उस तरही में भेजी थी. उम्मीद है पसंद आएगी:




तुझे किसी से प्यार हो तो हो रहे तो हो रहे 
 चढ़ा हुआ ख़ुमार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 जहाँ पे फूल हों खिले वहां तलक जो ले चले 
 वो राह, खारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 उजास हौसलों की साथ में लिये चले चलो 
 घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे 

बशर को क्या दिया नहीं खुदा ने फिर भी वो अगर 
बिना ही बात ख़्वार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 मेरा मिजाज़ है कि मैं खुली हवा में सांस लूं 
 किसी को नागवार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 चमक है जुगनूओं में कम, मगर उधार की नहीं 
 तू चाँद आबदार हो तो हो रहे तो हो रहे 
 आबदार: चमकीला 

 जहाँ उसूल दांव पर लगे वहां उठा धनुष 
 न डर जो कारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे 
 कारज़ार : युद्ध 

 फ़कीर हैं मगर कभी गुलाम मत हमें समझ 
 भले तू ताज़दार हो तो हो रहे तो हो रहे 

 पकड़ तू सच की राह को भले ही झूठ की तरफ 
 लगी हुई कतार हो तो हो रहे तो हो रहे

Monday, November 26, 2012

किताबों की दुनिया-76

उनकी ये जिद कि वो इंसान न होंगे, हरगिज़ 
मुझको ये फ़िक्र, कहीं मैं न फ़रिश्ता हो जाऊं 

भूल बैठा हूँ तेरी याद में रफ़्तार अपनी 
मुझको छू दे कि मैं बहता हुआ झरना हो जाऊं 

बंद कमरे में तेरी याद की खुशबू लेकर 
एक झोंका भी जो आ जाय तो ताज़ा हो जाऊं 

फरिश्तों की तरह पाक, बहते झरनों की तरह मचलते और खुशबू की तरह महकते हुए अशआर शायरी की जिस किताब के हर पन्ने पर मिल जाते हैं उस किताब का नाम है "रौशनी महकती है " और शायर हैं जनाब " सत्य प्रकाश शर्मा". शर्मा जी शायरों की उस जमात से ताल्लुक रखते हैं जिन्हें अपना नाम बेचना नहीं आता, मंचों पर लफ्फाजी करनी नहीं आती जो अपनी ख़ुशी के लिए लिखते हैं और जिन्हें इस बात का कतई कोई मुगालता नहीं है के वो शायरी के माध्यम से कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं।


मुझे रुसवा करे अब या कि रक्खे उन्सियत कोई 
तक़ाज़ा ही नहीं करती है मेरी हैसियत कोई 

कभी दरिया सा बहता हूँ कभी खंडहर सा ढहता हूँ 
मैं इंसा हूँ, फरिश्तों सी नहीं मुझ में सिफ़त कोई 

मज़ा ये है कि तहरीरें उभर आती हैं चेहरे पर 
छुपाना भी अगर चाहे, छुपाये कैसे ख़त कोई 

श्री सत्य प्रकाश शर्मा जी से मेरा परिचय करवाने का श्रेय मेरे मुंबई निवासी शायर मित्र सतीश शुक्ल 'रकीब' को जाता है। बातों बातों में उन्होंने शर्मा जी की शायरी का जिक्र किया और लगे हाथ उनसे मोबाइल पे बात भी करवा दी। पहली बात से ही दिल में घर कर गए शर्मा जी का जन्म 5 जुलाई 1956 कानपुर में हुआ, होश सँभालते ही उनका झुकाव ग़ज़लों की और ऐसा हुआ के अब तक नहीं छूटा बल्कि रोज़ के रोज़ बढ़ता ही जा रहा है गोया शायरी न हुई शराब हो गयी जो " छुटती नहीं है काफिर मुंह से लगी हुई।।" भारतीय स्टेट बैंक में उप प्रबंधक के ओहदे पर काम करते हुए शायरी और फिर शायरी की मुकम्मल किताब के लिए वक्त निकालना आसान काम नहीं होता। उसके लिए दिल में जूनून चाहिए जो उनमें भरपूर है।

इस खौफ़ से उठने नहीं देता वो कोई सर 
हम ख्वाइशें अपनी कहीं मीनार न कर दें 

मुश्किल से बचाई है जो एहसास की दुनिया 
इस दौर के रिश्ते उसे बाज़ार न कर दें 

ये सोच के नज़रें वो मिलाता ही नहीं है 
आँखें कहीं ज़ज्बात का इज़हार न कर दें 

शर्मा जी की ग़ज़लें ही अनूठी नहीं है उन्होंने जिस अंदाज़ से ये किताब अपनी पत्नी को समर्पित की है वो भी उतना ही अनूठा है वो लिखते हैं " जीवन संगिनी कृष्णा के लिए ... जो ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव में पूरे यकीन के साथ मेरे साथ खड़ी रहीं ...जिन्हें मैं इस किताब के अलावा कुछ ख़ास नहीं दे सका।

दूर कितने करीब कितने हैं 
क्या बताएं रकीब कितने हैं 

ये है फेहरिश्त जाँ निसारों की 
तुम बताओ सलीब कितने हैं 

जिसको चाहें उसी से दूर रहें 
ये सितम भी अजीब कितने हैं 

अपनी खातिर नहीं कोई लम्हा 
हम भी आखिर गरीब कितने हैं 

देश की प्रमुख पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में छपी उनकी ग़ज़लें मेरी तरह उनके बहुत से चाहने वालों की तादाद में इजाफा कर रही हैं। उन्हें अली अवार्ड (भोपाल) अमृत कलश सम्मान (गोरखपुर) और डा भगवत शरण चतुर्वेदी स्मृति सम्मान (जयपुर) से नवाज़ा गया है। ज़मीन से जुड़े इस शायर से बात करना भी कभी न भुलाए जाने वाला अनुभव है।

वफ़ा के नाम पे तुम जान देने लगते हो 
तुम्हारे शौक तो बर्बाद करने वाले हैं 

हमें पता है कि नश्तर तुम्हारे बहरे हैं 
ये ज़ख्म भी कहाँ फ़रियाद करने वाले हैं 

खबर लगी जो मुसीबत की घर से दौड़ पड़े 
ये अश्क दर्द की इमदाद करने वाले हैं 

इस किताब में शर्मा जी की 86 ग़ज़लें संगृहीत हैं, अपनी ग़ज़लों से पहले उन्होंने अपने राह्बरों और शायरी के दोस्तों का जिक्र बहुत पुर खुलूस अंदाज़ में किया है। एक़ ऐसे अंदाज़ में जो उनका अपना है। सबसे अच्छी बात है के किताब में उन्होंने किसी शायर या रहनुमा की कोई भी टिप्पणी, जिसमें अमूनन शायर और उसकी शायरी उनकी शान में कसीदे पढ़े जाते हैं, को जगह नहीं दी है। किताब में पहले उन्होंने अपने दिल की बात की है और फिर अपनी ग़ज़लों को सीधे अपने पाठकों के सामने परोस दिया है।

कातिलों में ज़मीर ढूढेंगे 
क्या महल में कबीर ढूंढेंगे 

खेल ऐसा भी एक दिन होगा 
सारे पैदल वज़ीर ढूँढेंगे 

जाँ पे बन आएगी मेरी तब तक 
जब तलक आप तीर ढूंढेंगे 

"रोशनी महकती है " को पांखी प्रकाशन, छतरपुर एंक्लेव फेज़-1, दिल्ली- 110074 ने प्रकाशित किया है , इस किताब की प्राप्ति के लिए आप +919999428213 पर फोन से या फिर paankhipublication@gmail.com पर मेल से संपर्क कर मंगवा सकते हैं। इस खूबसूरत किताब को अपने घर की लाइब्रेरी की शोभा बनाइये और इसमें प्रकाशित लाजवाब शायरी के लिए +919695531284 पर फोन कर शर्मा जी को बधाई दीजिये। एक अच्छे और सच्चे शायर की हौसला अफजाही करना हर शायरी के दीवाने का फ़र्ज़ बनता है। नयी किताब की खोज में निकलने से पहले मैं आपको उनके ये शेर और पढवाता चलता हूँ

तू ख्वाइशों से जंग का एलान कर के देख 
नुक्सान की न सोच, ये नुक्सान करके देख 

दुनिया है इक तरफ, तेर एहसास इक तरफ 
तू किस में खुश रहेगा, जरा ध्यान कर के देख 

कुछ तेरी हैसियत में चमक और आएगी 
कुछ तेरी हैसियत नहीं, ये मान कर के देख

Monday, November 12, 2012

जैसे की कोई बच्चा हँसता हो खिलखिलाकर

आप सब को दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं




हर बात पे अगर वो बैठेंगे मुंह फुला कर 
रूठे हुओं को कब तक लायेंगे हम मना कर 

सच बोल कर सदा यूँ दिल खुश हुआ हमारा 
जैसे की कोई बच्चा हँसता हो खिलखिलाकर 

अपने रकीब को जब देखा वहां तो जाना 
रुसवा किया गया है हमको तो घर बुला कर 

पहले दिए हजारों जिसने थे घाव गहरे 
मरहम लगा रहा है अब वो नमक मिला कर 

गहरी उदासियों में आई यूँ याद तेरी 
जैसे कोई सितारा टूटा हो झिलमिलाकर 

माना हूँ तेरा दुश्मन बरसों से यार लेकिन 
मेरे भी वास्ते तू एक रोज़ कुछ दुआ कर 

गर खोट दिल में तेरे बिलकुल नहीं है "नीरज" 
 फिर किस वजह से करता है बात फुसफुसाकर

Monday, October 29, 2012

किताबों की दुनिया - 75

आज के युग में ये बात बहुत आम हो गयी है के लोग अपनी असलियत छुपा कर जो वो नहीं हैं उसे दिखाने की कोशिश करते हैं और ऐसे मौकों पर मुझे साहिर साहब द्वारा फिल्म इज्ज़त के लिए लिखा और रफ़ी साहब द्वारा गाया एक गाना " क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे, नकली चेहरा सामने आये असली सूरत छिपी रहे " याद आता है. लेकिन साहब अपवाद कहाँ नहीं होते, जब कोई ताल ठोक कर जैसा वो है वैसा ही अपने बारे में बताते हुए कहता है की:

इक तअल्लुक है वुजू से भी सुबू से भी मुझे 
मैं किसी शौक़ को पर्दे में नहीं रखता हूँ 

तो यकीन मानिये दिल बाग़ बाग़ हो जाता है. वुजू और सुबू से अपनी दोस्ती को सरे आम मानने वाले हमारी आज की "किताबों की दुनिया" श्रृंखला जो अपने 75 वें मुकाम पर पहुँच चुकी है ,के शायर हैं जनाब "राहत इन्दोरी" साहब, जिनकी, दुनिया के किसी भी कोने में हो रहे, मुशायरे में मौजूदगी उसकी कामयाबी की गारंटी मानी जाती है.

कोई मौसम हो, दुःख-सुख में गुज़ारा कौन करता है 
परिंदों की तरह सब कुछ गवारा कौन करता है 

घरों की राख फिर देखेंगे पहले देखना ये है 
घरों को फूंक देने का इशारा कौन करता है 

जिसे दुनिया कहा जाता है, कोठे की तवायफ है 
इशारा किसको करती है, नज़ारा कौन करता है 

 दोस्तों जिस किताब का मैं जिक्र कर रहा हूँ उस किताब का शीर्षक है " चाँद पागल है " और इसे वाणी प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है. इस किताब में राहत साहब की एक से बढ़ कर एक खूबसरत 117 ग़ज़लें संगृहीत हैं.


कुछ लोगों से बैर भी ले
दुनिया भर का यार न बन 

सब की अपनी साँसें हैं 
सबका दावेदार न बन 

कौन खरीदेगा तुझको 
उर्दू का अखबार न बन 

अपने अशआरों में ताजगी का एहसास राहत साहब ने फिल्म 'करीब" जो सन 1998 में रीलीज़ हुई थी, में लिखे गीतों से ही करा दिया था, उस फिल्म में रसोई घर में अपने काम गिनाती हिरोइन द्वारा गाये गाने को मैं अभी
तक नहीं भूल पाया हूँ. आप भी सुने:

  

लोग अक्सर शायरों को पढ़ते हैं या सुनते हैं लेकिन राहत इन्दोरी उस शायर का नाम है जिसे लोग पढना, सुनना और देखना पसंद करते हैं. राहत साहब को मुशायरों में शेर सुनाते हुए देखना एक ऐसा अनुभव है जिस से गुजरने को बार बार दिल करता है. उन्होंने सामयीन को शायरी सुनाने के लिए एक नयी स्टाइल खोज ली है जो सिर्फ और सिर्फ उनकी अपनी है. वो शेर को पढ़ते ही नहीं उसे जीते भी हैं.

इरादा था कि मैं कुछ देर तूफां का मज़ा लेता 
मगर बेचारे दरिया को उतर जाने की जल्दी थी 

मैं अपनी मुठ्ठियों में कैद कर लेता ज़मीनों को 
मगर मेरे कबीले को बिखर जाने की जल्दी थी 

मैं साबित किस तरह करता कि हर आईना झूठा है 
कई कमज़र्फ चेहरों को उतर जाने की जल्दी थी 

निदा फाजली साहब ने इस किताब के फ्लैप पर दी गयी भूमिका में लिखा है " सोचे हुए और जिए हुए आम इंसान के दुःख दर्द के फर्क को राहत के शेरों में अक्सर देखा जा सकता है. इस फर्क को राहत की ग़ज़ल की भाषा में भी पहचाना जा सकता है. राहत की ग़ज़ल की ज़ुबान में जो लफ्ज़ इस्तेमाल होते हैं, वो आम आदमी की तरह गली -मोहल्लों में चलते फिरते महसूस होते हैं. इस सरल-सहज, गली-मोहल्लों में चलने फिरने वाली भाषा के ज़रिये उन्होंने समाजके एक बड़े रकबे से रिश्ता कायम किया है."

आबले अपने ही अंगारों के ताज़ा हैं अभी 
लोग क्यूँ आग हथेली प' पराई लेते 

बर्फ की तरह दिसम्बर का सफ़र होता है 
हम तुझे साथ न लेते तो रज़ाई लेते 

कितना हमदर्द सा मानूस सा इक दर्द रहा 
इश्क कुछ रोग नहीं था कि दवाई लेते 

एक जनवरी 1950 को इंदौर में जन्में राहत साहब ने अपनी स्कूली और कालेज तक की पढाई इंदौर में ही की, कालेज की फुटबाल और हाकी टीम के कप्तान रहे राहत साहब ने भोपाल की बरकतुल्ला विश्व विद्यालय से एम् ऐ. (उर्दू) करने के बाद भोज विश्व विद्यालय से पी एच डी. हासिल की. उन्नीस वर्ष की उम्र में उन्होंने कालेज में अपने शेर सुनाये और देवास 1972 में हुए आल इंडिया मुशायरे में उन्होंने पहली बार शिरकत कर अपने इस नए सफ़र की शुरुआत की.

उन्होंने लगभग चालीस हिंदी फिल्मों में अब तक गीत लिखे हैं. उनमें से फिल्म "मिनाक्षी" का गीत "ये रिश्ता क्या कहलाता है..." मुझे बहुत पसंद है.

कतरा कतरा शबनम गिन कर क्या होगा 
दरियाओं की दावेदारी किया करो 

चाँद जियादा रोशन है तो रहने दो 
जुगनू भईया जी मत भारी किया करो 

रोज़ वही इक कोशिश जिंदा रहने की 
मरने की भी कुछ तैय्यारी किया करो 

इसी किताब में "मुनव्वर राना" साहब ने शायरी और राहत साहब के बारे में बहुत अच्छी बात कही है " शायरी गैस भरा गुब्बारा नहीं है जो पलक झपकते आसमान से बातें करने लगता है ! बल्कि शायरी तो खुशबू की तरह आहिस्ता आहिस्ता अपने परों को खोलती है, हमारी सोच और दिलों के दरवाज़े खोलती है और रूह की गहराईयों में उतरती चली जाती है. राहत ने ग़ज़ल की मिट्टी में अपने तजुर्बात और ज़िन्दगी के मसायल को गूंथा है यही उनका कमाल भी है और उनका हुनर भी और इसी कारनामे की वजह से वो देश विदेश में जाने और पहचाने जाते हैं. "

रोज़ तारों की नुमाइश में ख़लल पड़ता है 
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है 

रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं 
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है 

उसकी याद आई है साँसों ज़रा आहिस्ता चलो 
धडकनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है 

देश विदेश में अपनी शायरी के पंचम को लहराने वाले राहत साहब को इतने अवार्ड्स से नवाज़ा गया है के उन सबके जिक्र के लिए एक अलग से पोस्ट लिखनी पड़ेगी . उनमें से कुछ खास हैं :पाकिस्तानी अखबार 'जंग' द्वारा दिया गया सम्मान, यू.पी. हिंदी उर्दू साहित्य अवार्ड, डा.जाकिर हुसैन अवार्ड, निशाने-एजाज़, कैफ़ी आज़मी अवार्ड, मिर्ज़ा ग़ालिब अवार्ड, इंदिरा गाँधी अवार्ड, राजीव गाँधी अवार्ड, अदीब इंटर नेशनल अवार्ड, मो. अली ताज अवार्ड, हक़ बनारसी अवार्ड आदि आदि आदि...(लिस्ट बहुत लम्बी है).

राहत साहब की अब तक सात किताबें हिंदी -उर्दू में छप चुकी हैं , "चाँद पागल है" हिंदी में उनकी ग़ज़लों का पांचवां संकलन है.

मसाइल, जंग, खुशबू, रंग, मौसम 
ग़ज़ल अखबार होती जा रही है 

कटी जाती है साँसों की पतंगें 
हवा तलवार होती जा रही है 

गले कुछ दोस्त आकर मिल रहे हैं 
छुरी पर धार होती जा रही है 

इस किताब की प्राप्ति के लिए वही कीजिये जो आपने अब तक किया है याने वाणी प्रकाशन दिल्ली वालों से संपर्क या फिर नैट पर बहुत सी ऐसी साईट हैं जो आपको ये किताब भिजवा सकती हैं उनकी मदद लीजिये , इन सभी साईट का जिक्र यहाँ संभव नहीं है लेकिन इच्छुक लोग मुझसे मेरे ई -मेल neeraj1950@gmail.com या मोबाइल +919860211911 पर मुझसे संपर्क कर पूछ सकते हैं.

अगर आप इस खूबसूरत किताब में शाया शायरी के लिए राहत साहब को बधाई देना चाहते हैं तो उनसे  email - rahatindorifoundation@rediffmail.com Phone : +91 98262 57144  पर संपर्क करें.

आपसे राहत साहब के इन शेरों के साथ विदा लेते हैं और निकलते हैं अगली किताब की खोज पर .

वो अब भी रेल में बैठी सिसक रही होगी 
मैं अपना हाथ हवा में हिला के लौट आया 

खबर मिली है कि सोना निकल रहा है वहां 
मैं जिस ज़मीन प' ठोकर लगा के लौट आया 

वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा 
मैं उसके ताज की कीमत लगा के लौट आया


 




Monday, October 15, 2012

अब धनक के रंग सारे रात दिन



सिर्फ यादों के सहारे रात दिन
पूछ मत कैसे गुज़ारे रात दिन 

साथ तेरे थे शहद से, आज वो 
हो गए रो-रो के खारे रात दिन

कूद जा, बेकार लहरें गिन रहा
बैठ कर दरिया किनारे रात दिन 

बांसुरी जब भी सुने वो श्याम की
तब कहां राधा विचारे रात, दिन 

आपके बिन जिंदगी बेरंग थी 
अब धनक के रंग सारे रात दिन 

है बहुत बेचैन बुलबुल क़ैद में 
आसमाँ करता इशारे रात दिन 

लौट आएंगे वो नीरज ग़म न कर 
खो गये हैं जो हमारे रात दिन 


(ग़ज़ल की नोंक पलक गुरुदेव पंकज सुबीर जी ने संवारी है)

Monday, October 1, 2012

किताबों की दुनिया - 74

हर शायर की तमन्ना होती है के वो कुछ ऐसे शेर कह जाय जिसे दुनिया उसके जाने के बाद भी याद रखे...लेकिन...मैंने देखा है बहुत अच्छे शायरों की ये तमन्ना भी तमन्ना ही रह जाती है...शायरी की किताबों पे किताबें और दीवान लिखने वाले शायर भी ऐसे किसी एक शेर की तलाश में ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं. गुरुदेव पंकज सुबीर जी के कहे अनुसार "अच्छा और यादगार शेर कहा नहीं जाता ये शायर पर ऊपर से उतरता है ". ऐसा ही एक शेर, जिसे मैंने भोपाल में दो दशक पहले, मेरे छोटे भाई के नया घर लेने के अवसर पर हुई पार्टी में उसके एक साथी के मुंह से पहली बात सुना था, मेरी यादों में बस गया.

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे 
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे 
मोतबर: विश्वसनीय 

 उर्दू शायरी में मकान और घर के महीन से फर्क को इतनी ख़ूबसूरती से शायद ही कभी बयां किया गया हो और अगर किया भी गया है तो मुझे उसका इल्म नहीं है. इस एक शेर ने इसके शायर को वो मुक़ाम दिया जिसकी ख्वाइश हर शायर अपने दिल में रखता है.

शायरी की किताबों को जयपुर की लोकायत, जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूँ, में खोजते हुए जब इस किताब के पहले पन्ने पर सबसे पहले दिए इस शेर पर मेरी निगाह पढ़ी तो लगा जैसे गढ़ा खज़ाना हाथ लग गया है. किताब है " नए मौसम की खुशबू " और शायर हैं जनाब " इफ्तिख़ार आरिफ़ "


 मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे 
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे 

 मैं ज़िन्दगी की दुआ मांगने लगा हूँ बहुत 
जो हो सके तो दुआओं को बेअसर कर दे 

 मैं अपने ख़्वाब से कट कर जियूं तो मेरा ख़ुदा 
उजाड़ दे मेरी मिटटी को दर-बदर कर दे 

शायरी में सूफ़ियाना रंग के साथ मज़हबी रंग का प्रयोग सबसे पहले आरिफ़ साहब ने किया जो सत्तर के दशक में नया प्रयोग था. बाद के शायरों ने उनके इस लहजे की बहुत पैरवी की और ये लहजा उर्दू शायरी का नया मिजाज़ बन गया. आज भी जब कोई नौजवान चाहे वो हिन्दुस्तान का हो या पकिस्तान का जब शायरी की दुनिया में नया नया कदम रखता है तो आरिफ़ साहब की तरह शेर कहने की कोशिश करता है.

हिज्र की धूप में छाओं जैसी बातें करते हैं 
आंसू भी तो माओं जैसी बातें करते हैं 
हिज्र: जुदाई 

खुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते 
फिर भी लोग खुदाओं जैसी बातें करते हैं 

एक ज़रा सी जोत के बल पर अंधियारों से बैर 
पागल दिए हवाओं जैसी बातें करते हैं 

आरिफ़ साहब का जन्म 21 मार्च 1943 को लखनऊ में हुआ. उन्होंने लखनऊ विश्व विद्यालय से 1964 में एम्.ऐ. की शिक्षा प्राप्त की. उस वक्त लखनऊ में मसूद हुसैन रिज़वी, एहतिशाम हुसैन, रिजवान अल्वी और मौलाना अली नक़ी जैसी बड़ी हस्तियाँ मौजूद थीं. इनके बीच रह कर आरिफ़ साहब ने साहित्य, तहजीब, रिवायत और मज़हब का पाठ पढ़ा.

नद्दी चढ़ी हुई थी तो हम भी थे मौज में 
पानी उतर गया तो बहुत डर लगा हमें 

दिल पर नहीं यकीं था सो अबके महाज़ पर 
दुश्मन का एक सवार भी लश्कर लगा हमें 
महाज़: रणभूमि 

गुड़ियों से खेलती हुई बच्ची की गोद में 
आंसू भी आ गया तो समंदर लगा हमें 

लखनऊ विश्व विद्यालय से एम्.ऐ. करने के बाद आरिफ़ साहब पकिस्तान चले गए. वहां उन्होंने 1977 तक रेडिओ पाकिस्तान और टेलिविज़न में काम किया. उसके बाद वो 1991 तक लन्दन में बी.सी.सी.आई. के जन संपर्क प्रशाशक और उर्दू मरकज़, लन्दन के प्रभारी प्रशाशक जैसे पदों पर आसीन रहे. सन 1991 से वो पाकिस्तान में रहते हुए "मुक्तदरा कौमी ज़बान" जैसी महत्वपूर्ण संस्था के अध्यक्ष के रूप में भाषा और साहित्य की सेवा कर रहे हैं.

समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं 
जो हम से मिल के बिछड़ जाय वो हमारा नहीं 

समन्दरों को भी हैरत हुई कि डूबते वक्त 
किसी को हमने मदद के लिए पुकारा नहीं 

वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सरे बाज़ार 
जो कह रहा था कि बिकना हमें गवारा नहीं 

हिंदी भाषी शायरी के दीवानों के लिए हो सकता है आरिफ़ साहब का नाम नया हो और शायद उनका लिखा बहुत से लोगों ने पढ़ा भी न हो लेकिन उर्दू शायरी के फ़लक पर उनका नाम किसी चमचमाते सितारे से कम नहीं. वाणी प्रकाशन वालों ने हिंदी के पाठकों के लिए उर्दू के बेहतरीन शायरों की किताबें प्रस्तुत की हैं और इस काम के लिए उनकी जितनी तारीफ़ की जाय कम है. आरिफ़ साहब की इस किताब को शहरयार और महताब नकवी साहब ने सम्पादित किया है.

हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिनके सबब 
ज़मीं बलंद हुई आसमां के होते हुए 

बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा 
मकाँ के होते हुए, लामकाँ के होते हुए 
लामकां : बिना मकाँ 

दुआ को हाथ उठाते हुए लरजता हूँ 
कभी दुआ नहीं मांगी थी माँ के होते हुए 

इस किताब में जहाँ आरिफ़ साहब की चुनिन्दा ग़ज़लें संगृहीत हैं वहीँ उनकी कुछ बेमिसाल नज्में भी शामिल की गयीं हैं. आरिफ़ साहब की उर्दू में लिखी चार किताबें मंज़रे आम पर आ चुकी हैं, देवनागरी लिपि में पहली बार उनके कलाम को वाणी प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है. पाकिस्तान सरकार द्वारा उन्हें "हिलाले इम्तिआज़", सितारा-ऐ-इम्तिआज़ जैसे इनाम से नवाज़ा जा चुका है, भारत में भी आलमी उर्दू कांफ्रेंस ने उन्हें " फैज़ इंटर नेशनल अवार्ड" से नवाज़ा है. दोनों मुल्कों में अपने कलाम का लोहा मनवाने वाले आरिफ़ साहब को पढना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा है.

नए मौसम की खुशबू आज़माना चाहती है 
खुली बाहें सिमटने का बहाना चाहती हैं 

 नयी आहें, नए सेहरा, नए ख़्वाबों के इमकान 
नयी आँखें, नए फ़ित्ने जगाना चाहती हैं 

बदन की आग में जलने लगे हैं फूल से जिस्म 
हवाएं मशअलों की लौ बढ़ाना चाहती हैं 

ऐसे एक नहीं अनेक उम्दा शेरों से भरी ये किताब बेहतरीन उर्दू शायरी को हिंदी में पढना चाहने वाले पाठकों के लिए किसी वरदान से कम नहीं. इस किताब को, वाणी वालों को सीधे लिख कर या फिर नेट के ज़रिये आर्डर दे कर, मंगवा सकते हैं. वाणी प्रकाशन वालों का पूरा पता, नंबर आदि मैं अपनी पुरानी पोस्ट्स पर कई बार दे चुका हूँ इसलिए उसे यहाँ फिर से दे कर अपनी इस पोस्ट को लम्बी करना मुझे सही नहीं लग रहा. आरिफ़ साहब के इन शेरों के साथ आपसे विदा लेते हुए वादा करते हैं के हम जल्द ही एक और नयी किताब के साथ आपके सामने हाज़िर होंगे.

ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है 
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है 

घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ 
शाम होती है तो घर ज़ाने को जी चाहता है 

डूब जाऊं तो कोई मौज निशाँ तक न बताए 
ऐसी नद्दी में उतर जाने को जी चाहता है

Monday, September 17, 2012

मन सरोवर में खुशियों के 'नीरज' खिले

( आपके सहयोग और प्यार के कारण इस ब्लॉग ने पांच वर्ष पूरे कर लिए हैं. 5 सितम्बर 2007 से अब तक याने इन पांच वर्षों में उपलब्धि के नाम पर 285 पोस्ट,11000 से अधिक टिप्पणियां, एक लाख चौबीस हज़ार से अधिक बार देखे गए पेज और 435 सदस्य नहीं है बल्कि वो अद्भुत अटूट रिश्ते हैं जो इस ब्लॉग के कारण ही बन पाए हैं. )

अभी हाल ही में गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर तरही मुशायरे का आयोजन हुआ था. मुशायरा नवोदित शायर अर्श की शादी के उत्सव पर आयोजित किया गया था लाज़मी था के उसमें प्यार के अलग अलग रंग बिखेरतीं ग़ज़लें आयें और आयीं भी. प्यार के इतने रंग उस तरही में बिखरे के हर कोई उसमें सराबोर हो गया. उसी मुशायरे में भेजी खाकसार की ग़ज़ल यहाँ भी पढ़ें:-



हर अदा में तेरी दिलकशी है प्रिये
जानलेवा मगर सादगी है प्रिये

भोर की लालिमा चाँद की चांदनी
सामने तेरे फीकी लगी है प्रिये

लू भरी हो भले या भले सर्द हो
साथ तेरे हवा फागुनी है प्रिये

बिन तेरे बैठ आफिस में सोचा किया
ये सजा सी, भी क्या नौकरी है प्रिये

पास खींचे, छिटक दूर जाए कभी
उफ़ ये कैसी तेरी मसखरी है प्रिये

मुस्कुराती हो जब देख कर प्यार से
एक सिहरन सी तब दौड़ती है प्रिये

फूल चाहत के देखो खिले चार सू
प्रीत की अल्पना भी सजी है प्रिये

पड़ गयी तेरी आदत सी अब तो मुझे
और आदत कहीं छूटती है प्रिये ?

मन सरोवर में खुशियों के 'नीरज' खिले
पास आहट तेरी आ रही है प्रिये

Monday, September 3, 2012

किताबों की दुनिया - 73

श्री अवनीश कुमार जी की किताब "पत्तों पर पाजेब", जिसकी चर्चा आज हम इस श्रृंखला में करेंगे, की भूमिका के आरम्भ में दी गयी इन पंक्तियों ने मुझे इस किताब को खरीद कर पढने के लिए प्रेरित किया.

“कविता एक कोशिश करती है-जीवन का चित्र बनाने की, यथार्थ और उस से कुछ बेहतर...रंग वही हैं जो कायनात ने दिए हैं, तमाम कोशिशों के बाद भी तस्वीर मुकम्मल नहीं होती, फिर नयी कोशिश होती है. ये किताब भी ऐसी ही एक कोशिश है...”


वो बेहतर जानते हैं चोट क्या होती हथोड़े की
मिली तकदीर लोहे की, पड़े हैं जो निहाई पर

वो जिसके हाथ में खंज़र था, अब भोला कबूतर है
सभी की आँख दीवानी है हाथों की सफाई पर

नीली ओढ़नी पर रौशनी का एक दरिया सा
सितारे दे गया है चाँदनी की मुंह दिखाई पर

आज कल ग़ज़लें थोक के भाव लिखी जा रही हैं और छप भी रही हैं. हर पत्रिका में एक आध ग़ज़ल का होना अनिवार्य हो गया है. बहती गंगा में हाथ धोते हुए हमें बहुत से नौसिखिये कच्चे शायर बहुतायत में नज़र आ जाते हैं. जिस विधा में सदियों से कहा जा रहा हो उसमें कोई नयी बात कहना या फिर किसी पुरानी बात को नए अंदाज़ से कहना आसान काम नहीं है. और जब कभी ऐसा नज़र आता है तबियत खुश हो जाती है:

बाढ़ का पानी घरों की छत तलक तो आ गया
रेडियो पर बज रहा मौसम सुहाना आएगा

सड़क पर ठंडी बियर के बोर्ड को पढ़ते हुए
सोचता हूँ कब एक छोटा चायखाना आएगा

ढूध से चलती हों जिसमें रोटी के चक्के लगे
देखना ऐसा भी कारों का ज़माना आएगा

अवनीश कुमार के लिए कविता न तो उच्छ्वास है और न अदाकारी. अवनीश इस चलताऊ माहौल के रचनाकार नहीं हैं यद्दपि उनकी हर ग़ज़ल पहले मिसरे से ही हमें बाँध लेती है और आखिरी शेर तक पहुँचते -पहुँचते हमारे एहसास की दुनिया एकदम बदल जाती है :

बहुत था बीमार सूरज हड़बड़ाकर धूप ने
गिरवी रख दीं तीरगी के हाथ अपनी चूड़ियाँ

ज़िन्दगी भर रामलीला में लड़े सच की तरफ
मज़हबी दंगे में वो मारे गए रहमत मियां

जब वो बोले लगे कानों में शहद सा घुल गया
पहन रक्खीं नीम की सीकों की जिसने बालियाँ


उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले के भूड़नगरिया गाँव में 1969 में जन्में अवनीश कुमार वनस्पति विज्ञानं में एम.एस.सी. हैं और बी.एड करने बाद शिक्षा विभाग में सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं. उनका पहला कविता संग्रह "आइना धूप में " 1993 को प्रकाशित हुआ था उसके बाद अब 2011 में "पत्तों पर पाजेब " ग़ज़ल संग्रह.

मोहब्बत कैद हो जाती है सोने की जंजीरों में
महज़ अफवाह है यारों, ज़माने ने उड़ाई है

ज़मूरे ने कहा-सारा तमाशा पेट की खातिर
कोई जादू नहीं है सिर्फ हाथों की सफाई है

उतर जाते हैं रिक्शे से उसे धक्का लगाते हैं
पता है छोटे बच्चों को बहुत ऊंची चढाई है

हमारे चारों और घटने वाली छोटी छोटी घटनाओं पर उनकी पैनी नज़र जाती है और वो उसे शेर में ढाल देते हैं: इस संग्रह में रोमांटिक ग़ज़लें भी हैं, पर उनका मिजाज़ यथार्थवादी है. उड़ान है, पर मिटटी की खुशबू के साथ. ग़ज़लों में अपनी बात कहने का उनका निराला अंदाज़ उन्हें अपने सम कालीन शायरों से अलग करता है और भीड़ में अपनी पहचान बनाता है.

गुलों में ढूढती फिरती है बेकल
तितलियाँ खुशबुओं के ख़त पुराने

आज फिर अब्र के घूंघट से साधे
शिकारी चाँद ने सौ सौ निशाने

सोचता हूँ तेरी भीगी पलक पर
मैं रख दूं धूप के मौसम सुहाने

तेरी चाहत की चिंगारी रखी है
हमारे फूस के हैं, आशियाने

"पत्तों पर पाजेब" की ग़ज़लें, नए अंदाज़ की ग़ज़लें हैं जिनमें नए बिम्ब और प्रतीक निहायत ख़ूबसूरती से पिरोये गए हैं. और तो और पौराणिक, ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं के माध्यम से भी आज के व्यक्ति की व्यथा कही गयी है. अविनीश जी को पढने के बाद आप ग़ज़लों में आ रहे परिवर्तन को भलीभांति महसूस कर सकते हैं. ये ग़ज़लें हमारे जीवन से इस कदर जुडी हैं के हर शेर हमें अपनी आपबीती लगने लगता है.

परेशां हैं कई घर की घुटन से
बहुत से हैं कि जिनपे घर नहीं है

ऐ मीरे-फौज तू है जंग भी है
कि तेरे साथ अब लश्कर नहीं है

सुबह सय्याद ने देखा, कफस में
फलक का ख्वाब है...ताईर नहीं है

मीरे-फौज=सेनापति, कफस=पिंजरा, ताईर=परिंदा

वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब की भूमिका में अवनीश ने लिखा है " हम सब कला-रूपों के 'ग्लैमर' से सम्मोहित थे. लेकिन 'ग्रीन रूम' में झांकना दुःखदायी था क्यूंकि सारे मेकअप उतर चुके थे. किरदारों के चमकते चेहरे अब बीते ज़माने की बात हो गयी थी. एक अदद 'रोल माडल' की तलाश करने वाले बहुत मायूस हुए." अवनीश ने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से ग्रीन रूम में झाँका है और चेहरों की बेबसी को उकेरा हैं जिन्हें अब तक मेकअप ने ढका हुआ था.

कोई तो बात है जिससे कि हमने कलम ही पकड़ी
हमारे वक्त भी मौजूद थी तलवार मौलाना

नहीं आदाब कर पाए हमारे बेबसी देखो
हमारे हाथ में रक्खे रहे अंगार मौलाना

वक्त का दर्द गाती है -दिलों पर राज करती है
ग़ज़ल मुजरा नहीं करती किसी दरबार मौलाना

इस किताब की हर ग़ज़ल और वो सभी नज्में जो आखिर में दी गयी हैं, अवनीश जी की विलक्षण सोच का लोहा मनवा देती हैं. उनकी कलम के जादू से पाठक बाहर नहीं निकल पाता. शायरी की ऐसी बेजोड़ किताब हर उस शख्स के पास होनी चाहिए जिसे शायरी से मोहब्बत है. मेरा अपने पाठकों से निवेदन है के चाहे वो इस किताब को न खरीदें लेकिन अवनीश जी को उनके मोबाइल 9410043814 पर फोन कर उन्हें इस लाजवाब शायरी के लिए बधाई जरूर दें ,और कुछ हो न हो लेकिन एक अच्छे शायर की हौसला अफ़जाही करना हमारा फ़र्ज़ होना चाहिए

तुम साथ हो तो घर की कमी फिर नहीं खलती
ये बात है जो घर से निकल, सोच रहा हूँ

हाँ! वक्त मुश्किलों से भरा है बहुत मगर
कीचड़ में ही खिलते हैं कमल, सोच रहा हूँ

सदियों से रहते आये हैं फुटपाथ पे जो लोग
मैं उनके लिए ताज महल, सोच रहा हूँ

अब हम निकलते हैं एक नयी किताब और नए शायर की तलाश में...

Monday, August 20, 2012

आंखें करती हैं बातें



मैं राजी तू राज़ी है
पर ग़ुस्‍से में क़ाज़ी है

आंखें करती हैं बातें
मुंह करता लफ्फाजी है

जीतो हारो फर्क नहीं
ये तो दिल की बाज़ी है

तुम बिन मेरे इस दिल को
दुनिया से नाराजी है

कड़वा मीठा हम सब का
अपना अपना माजी है

सब में रब दिखता जिसको
वो ही सच्चा हाजी है

दर्द अभी कम है ‘नीरज’
चोट अभी कुछ ताज़ी है


( ये ग़ज़ल गुरु देव पंकज सुबीर जी का मिडास टच लिए हुए है )

Monday, August 6, 2012

किताबों की दुनिया -72

छोटे गाँव कस्बों की तो बात ही छोड़ दें बड़े बड़े शहरों में भी अच्छी शायरी की किताब खोजना रेगिस्तान में पानी खोजने से भी कठिन काम है. सस्ती शायरी के संस्करण भले की रेलवे की बुक स्टाल या एक आध दुकान पर मिल जाएँ लेकिन अगर आप वाकई उम्दा शायरी के शौकीन हैं तो ऐसी किताब को खोजने के लिए आपको दर दर भटकना पड़ेगा. ये बात मैं सिर्फ अपने अनुभव से बता रहा हूँ इसलिए गलत भी हो सकता हूँ क्यूँ कि अनुभव हम सब के अलग अलग हो सकते हैं.

जयपुर में एक "
लोकायत प्रकाशन" है, जहाँ हिंदी की उन किताबों का ढेर है जिन पर मिटटी की परतें चढ़ी रहती हैं, वहां किताबें स्टील के रैक्स के अलावा फर्श पर भी बिखरी पड़ी रहती हैं. लोकायत की डबल दुकान पर एक साधारण सी टेबल के पीछे एक अति साधारण कुर्सी पर चश्मा लगाये बैठे उसके करता धर्ता शेखर जी हमेशा मुझे देखते ही मुस्कुरा कर कहते हैं " आईये सर फिरे नीरज जी"

उनका कहना सही है क्यूँ की आज के युग में कोई भी पढ़ा लिखा इंसान ऐसी साधारण सी दुकान पर किताबें ढूँढने और खरीदने नहीं जाता और अगर किताब हिंदी में हो तो मान के चलिए कि वो इंसान सर फिर ही होगा. किताबों की खोज के दौरान मैंने हर दुकान और बड़े बड़े माल में सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी भाषा की किताबों को ही बिकते देखा है.

लोकायत पर किताब की खोज करते और धूल फांकते हुए मेरी नज़र जिस किताब पर पढ़ी उसी का जिक्र हम आज अपनी किताबों की दुनिया की श्रृंखला में करने जा रहे हैं:

हम भी होशियार न थे प्यार भी पागल की तरह
बात फैली है तेरे आँख के काजल की तरह

चार सू सैले हवा* भी है संभलना भी है
ज़ीस्त भी है तेरे उड़ते हुए आँचल की तरह
चार सू सैले हवा:: चारों और हवा के झोंके
ज़ीस्त: ज़िन्दगी

रात सी रात है बरसात है तन्हाई है
कूकता है मेरे दिल में कोई कोयल की तरह

आज की किताब है " आवाज़ चली आती है" और शायर हैं मरहूम जनाब " शाज़ तमकनत" साहब. हिंदी पाठकों के लिए शायद ये नाम अंजाना हो लेकिन दकन में इनका नाम बहुत इज्ज़त से लिया जाता है. शाज़ साहब उर्दू के उन चन्द शायरों में शुमार किये जाते हैं जिन्होंने उर्दू साहित्य में नया इज़ाफा किया है. वो जिस कदर अपने समय में एकांत प्रिय रहे और अपनी ज़िन्दगी के उतार चढ़ावों से गुज़रते हुए शायरी को अपना ओढना-बिछौना बनाया, शायद ही कोई और शायर इस बांकपन के साथ नज़र आता है.



क्या खबर थी कि तेरे बाद ये दिन आयेंगे
आप ही रूठेंगे हम आप ही मन जायेंगे

ज़िन्दगी है तो बहरेहाल गुज़र जायेगी
दिल को समझाया था कल आज भी समझायेंगे

सुबह फिर होगी कोई हादिसा याद आएगा
शाम फिर आएगी फिर शाम से घबराएंगे

31 जनवरी 1933 को हैदराबाद में शाज़ तमनकत साहब का जन्म हुआ. उस वक्त उर्दू शायरी का वहां बोलबाला था. शाज़ साहब को अपनी माँ से बे इन्तहा मोहब्बत थी लेकिन बचपन में ही उनका साया अचानक सर से उठने पर वो टूट गए. उसी टूटन ने शाज़ साहब के भीतर उस शायर को पैदा किया जिसने आगे चल कर इंसान की ज़िन्दगी और समाज के दर्द को अपनी शायरी के विशाल दामन में समेटा. कालेज की पढाई ख़तम होते होते शाज़ साहब की गिनती हैदराबाद के नामवर शायरों में होनी लगी. फ़िराक गोरखपुरी जैसे शायर ने उनके बारे में कहा कि " शाज़ की शायरी मोहब्बत की शायरी है. इनके लफ़्ज़ों की महक दूर से पहचानी जा सकती है."

कुछ रात ढले होती है आहट दरे दिल पर
कुछ फूल बिखर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

मत पूछ नकाबों से तू यारी है हमारी
हम चेहरों से डर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

हर सुबह तुझे जी से भुलाने का है वादा
हर शाम मुकर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

शाज़ साहब का पहला मजमुआ "तराशीदा" 1966 में शाया हुआ उसके बाद 1973 में " बयाज़े शाम" और 1977 में "नीम ख़्वाब". शाज़ साहब ने कम लिखा लेकिन जो लिखा वो उन्हें अमर कर गया. शाज़ साहब ने वारंगल से अध्यापन कार्य शुरू किया और कुछ समय वो पूना भी रहे. पूना में उन्होंने पूना कालेज आफ आर्ट्स के उर्दू विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर कार्य किया. पूना छोड़ते समय वहां "जश्न-ऐ-शाज़ " बड़ी धूम धाम से मनाया गया जिसमें सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी, जाँ निसार अख्तर, मजरूह सुल्तानपुरी और साहिर लुधियानवी जैसे मशहूर शायरों ने शिरकत की. शायर तो शायर इस कार्यक्रम में शिरकत के लिए मुंबई से दिलीप कुमार, वहीदा रहमान और सुनील दत्त साहब भी खिंचे चले आये. शाज़ साहब की शायरी की लोकप्रियता का आलम ये था कि उनकी रचनाओं को बेग़म अख्तर, फरीदा खानम, रईस खान बारसी, विट्ठल राव,गुलाम फ़रीद साबरी और हरिहरन जैसे गायकों ने अपनी आवाज़ दी.

जिस से बेज़ार रहे थे वही दर क्या कुछ है
घर की दूरी ने ये समझाया कि घर क्या कुछ है

रात भर जाग कर काटे तो कोई मेरी तरह
खुद-ब-खुद समझेगा वो पिछला पहर क्या कुछ है

जैसे किस्मत की लकीरों पे हमें चलना है
कौन समझेगा तेरी रहगुज़र क्या कुछ है

शाज़ साहब की शायरी आम आदमी के दिल की आवाज़ है . हिंदी में उनकी रचनाओं का ये पहला संकलन है जिसे शशि नारायण स्वाधीन साहब ने सम्पादित किया है और वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. वाणी प्रकाशन दिल्ली के बारे में पूरी जानकारी आपको इस श्रृंखला में बहुत जगह मिलेगी इसलिए उसे मैं यहाँ नहीं दे रहा. इस किताब के लिए आप वाणी प्रकाशन से संपर्क कर सकते हैं.

ख्याल आते ही कल शब् तुझे भुलाने का
चिराग बुझ गया जैसे मेरे सिरहाने का

करीब से ये नज़ारे भले नहीं लगते
बहुत दिनों से इरादा है दूर जाने का

मैं और कोई बहाना तलाश कर लूँगा
तू अपने सर न ले इल्ज़ाम दिल दुखाने का

जिस ज़माने में शाज़ साहब ने शायरी शुरू की वो ज़माना उर्दू के भारी भरकम लफ़्ज़ों के इस्तेमाल का ज़माना था. शाज़ साहब ने उसमें सादगी डाली और आम भाषा के लफ़्ज़ों का खूबसूरत इस्तेमाल किया. ये ही उनकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण बना. अपनी ज़बान में अपनी बात सुन कर आम इंसान उनकी शायरी का दीवाना हो गया.

कोई गिला कोई शिकवा ज़रा रहे तुमसे
ये आरज़ू है कि इक सिलसिला रहे तुमसे

अब एक दिन की जुदाई भी सह नहीं सकते
जुदा रहे हैं तो बरसों जुदा रहे तुमसे

हर एक शख्स की होती है अपनी मजबूरी
मैं उस जगह हूँ जहाँ फासला रहे तुमसे

18 अगस्त 1985 की सुबह हैदराबाद के शाह अली बंद मोहल्ले के असर अस्पताल के कमरा न. 21 में शाज़ साहब ने हमेशा के लिए अपनी आँखें मींच लीं. हैदराबाद में शायरी के एक युग का अंत हो गया. उर्दू की शायरी जिसमें हिंदी का छायावाद, रहस्यवाद और प्रयोगवाद का हल्का हल्का रंग शाज़ साहब के ज़रिये अदब में एक ऐसी तस्वीर बना चूका था जिसकी कूची शाज़ साहब के हाथों में थी. उनके जाने से ये रंग बिखर गए उन्हीं रंगों को फिर से इस किताब में समटने की कोशिश की गयी है.

प्यासा हूँ रेगज़ार* में दरिया दिखाई दे
जो हाल पूछ ले वो मसीहा दिखाई दे
रेगज़ार: रेगिस्तान

पड़ती है सात रंगों की तेरे बदन पे धूप
जो रंग तू पहन ले वो गहरा दिखाई दे

क्या क्या हकीकतों पे है परदे पड़े हुए
तू है किसी का और किसी का दिखाई दे

इस किताब में ऐसे एक नहीं सैंकड़ों शेर हैं जिन्हें मैं यहाँ कोट करना चाहता हूँ...लेकिन ये मेरी मजबूरी है के मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ. ग़ज़लों के अलावा इस किताब में शाज़ साहब की कुछ चुनिन्दा नज्में भी पढने को मिलती हैं. शाज़ साहब के अपने दोस्त शायरों के साथ लिए गए फोटो इस किताब में चार चाँद लगा देते हैं. मेरी शायरी के सभी दीवानों से गुज़ारिश है कि आप अपनी अलमारी में इस किताब को जरूर शामिल करें. अगली किताब की खोज में निकलने से पहले मैं आपको ये शेर पढवा कर विदा लेता हूँ -

शिकन शिकन तेरी यादें हैं मेरे बिस्तर की
ग़ज़ल के शेर नहीं करवटें हैं शब् भर की

फिर आई रात मेरी सांस, रूकती जाती है
सरकती आती हैं दीवारें फिर मेरे घर की

निबाह करता हूँ दुनिया से इस तरह अय ''शाज़"
कि जैसे दोस्ती हो आस्तीन -ओ -खंज़र की