Monday, October 1, 2012

किताबों की दुनिया - 74

हर शायर की तमन्ना होती है के वो कुछ ऐसे शेर कह जाय जिसे दुनिया उसके जाने के बाद भी याद रखे...लेकिन...मैंने देखा है बहुत अच्छे शायरों की ये तमन्ना भी तमन्ना ही रह जाती है...शायरी की किताबों पे किताबें और दीवान लिखने वाले शायर भी ऐसे किसी एक शेर की तलाश में ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं. गुरुदेव पंकज सुबीर जी के कहे अनुसार "अच्छा और यादगार शेर कहा नहीं जाता ये शायर पर ऊपर से उतरता है ". ऐसा ही एक शेर, जिसे मैंने भोपाल में दो दशक पहले, मेरे छोटे भाई के नया घर लेने के अवसर पर हुई पार्टी में उसके एक साथी के मुंह से पहली बात सुना था, मेरी यादों में बस गया.

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे 
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे 
मोतबर: विश्वसनीय 

 उर्दू शायरी में मकान और घर के महीन से फर्क को इतनी ख़ूबसूरती से शायद ही कभी बयां किया गया हो और अगर किया भी गया है तो मुझे उसका इल्म नहीं है. इस एक शेर ने इसके शायर को वो मुक़ाम दिया जिसकी ख्वाइश हर शायर अपने दिल में रखता है.

शायरी की किताबों को जयपुर की लोकायत, जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूँ, में खोजते हुए जब इस किताब के पहले पन्ने पर सबसे पहले दिए इस शेर पर मेरी निगाह पढ़ी तो लगा जैसे गढ़ा खज़ाना हाथ लग गया है. किताब है " नए मौसम की खुशबू " और शायर हैं जनाब " इफ्तिख़ार आरिफ़ "


 मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे 
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे 

 मैं ज़िन्दगी की दुआ मांगने लगा हूँ बहुत 
जो हो सके तो दुआओं को बेअसर कर दे 

 मैं अपने ख़्वाब से कट कर जियूं तो मेरा ख़ुदा 
उजाड़ दे मेरी मिटटी को दर-बदर कर दे 

शायरी में सूफ़ियाना रंग के साथ मज़हबी रंग का प्रयोग सबसे पहले आरिफ़ साहब ने किया जो सत्तर के दशक में नया प्रयोग था. बाद के शायरों ने उनके इस लहजे की बहुत पैरवी की और ये लहजा उर्दू शायरी का नया मिजाज़ बन गया. आज भी जब कोई नौजवान चाहे वो हिन्दुस्तान का हो या पकिस्तान का जब शायरी की दुनिया में नया नया कदम रखता है तो आरिफ़ साहब की तरह शेर कहने की कोशिश करता है.

हिज्र की धूप में छाओं जैसी बातें करते हैं 
आंसू भी तो माओं जैसी बातें करते हैं 
हिज्र: जुदाई 

खुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते 
फिर भी लोग खुदाओं जैसी बातें करते हैं 

एक ज़रा सी जोत के बल पर अंधियारों से बैर 
पागल दिए हवाओं जैसी बातें करते हैं 

आरिफ़ साहब का जन्म 21 मार्च 1943 को लखनऊ में हुआ. उन्होंने लखनऊ विश्व विद्यालय से 1964 में एम्.ऐ. की शिक्षा प्राप्त की. उस वक्त लखनऊ में मसूद हुसैन रिज़वी, एहतिशाम हुसैन, रिजवान अल्वी और मौलाना अली नक़ी जैसी बड़ी हस्तियाँ मौजूद थीं. इनके बीच रह कर आरिफ़ साहब ने साहित्य, तहजीब, रिवायत और मज़हब का पाठ पढ़ा.

नद्दी चढ़ी हुई थी तो हम भी थे मौज में 
पानी उतर गया तो बहुत डर लगा हमें 

दिल पर नहीं यकीं था सो अबके महाज़ पर 
दुश्मन का एक सवार भी लश्कर लगा हमें 
महाज़: रणभूमि 

गुड़ियों से खेलती हुई बच्ची की गोद में 
आंसू भी आ गया तो समंदर लगा हमें 

लखनऊ विश्व विद्यालय से एम्.ऐ. करने के बाद आरिफ़ साहब पकिस्तान चले गए. वहां उन्होंने 1977 तक रेडिओ पाकिस्तान और टेलिविज़न में काम किया. उसके बाद वो 1991 तक लन्दन में बी.सी.सी.आई. के जन संपर्क प्रशाशक और उर्दू मरकज़, लन्दन के प्रभारी प्रशाशक जैसे पदों पर आसीन रहे. सन 1991 से वो पाकिस्तान में रहते हुए "मुक्तदरा कौमी ज़बान" जैसी महत्वपूर्ण संस्था के अध्यक्ष के रूप में भाषा और साहित्य की सेवा कर रहे हैं.

समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं 
जो हम से मिल के बिछड़ जाय वो हमारा नहीं 

समन्दरों को भी हैरत हुई कि डूबते वक्त 
किसी को हमने मदद के लिए पुकारा नहीं 

वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सरे बाज़ार 
जो कह रहा था कि बिकना हमें गवारा नहीं 

हिंदी भाषी शायरी के दीवानों के लिए हो सकता है आरिफ़ साहब का नाम नया हो और शायद उनका लिखा बहुत से लोगों ने पढ़ा भी न हो लेकिन उर्दू शायरी के फ़लक पर उनका नाम किसी चमचमाते सितारे से कम नहीं. वाणी प्रकाशन वालों ने हिंदी के पाठकों के लिए उर्दू के बेहतरीन शायरों की किताबें प्रस्तुत की हैं और इस काम के लिए उनकी जितनी तारीफ़ की जाय कम है. आरिफ़ साहब की इस किताब को शहरयार और महताब नकवी साहब ने सम्पादित किया है.

हमीं में रहते हैं वो लोग भी कि जिनके सबब 
ज़मीं बलंद हुई आसमां के होते हुए 

बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा 
मकाँ के होते हुए, लामकाँ के होते हुए 
लामकां : बिना मकाँ 

दुआ को हाथ उठाते हुए लरजता हूँ 
कभी दुआ नहीं मांगी थी माँ के होते हुए 

इस किताब में जहाँ आरिफ़ साहब की चुनिन्दा ग़ज़लें संगृहीत हैं वहीँ उनकी कुछ बेमिसाल नज्में भी शामिल की गयीं हैं. आरिफ़ साहब की उर्दू में लिखी चार किताबें मंज़रे आम पर आ चुकी हैं, देवनागरी लिपि में पहली बार उनके कलाम को वाणी प्रकाशन वालों ने प्रकाशित किया है. पाकिस्तान सरकार द्वारा उन्हें "हिलाले इम्तिआज़", सितारा-ऐ-इम्तिआज़ जैसे इनाम से नवाज़ा जा चुका है, भारत में भी आलमी उर्दू कांफ्रेंस ने उन्हें " फैज़ इंटर नेशनल अवार्ड" से नवाज़ा है. दोनों मुल्कों में अपने कलाम का लोहा मनवाने वाले आरिफ़ साहब को पढना एक नए अनुभव से गुजरने जैसा है.

नए मौसम की खुशबू आज़माना चाहती है 
खुली बाहें सिमटने का बहाना चाहती हैं 

 नयी आहें, नए सेहरा, नए ख़्वाबों के इमकान 
नयी आँखें, नए फ़ित्ने जगाना चाहती हैं 

बदन की आग में जलने लगे हैं फूल से जिस्म 
हवाएं मशअलों की लौ बढ़ाना चाहती हैं 

ऐसे एक नहीं अनेक उम्दा शेरों से भरी ये किताब बेहतरीन उर्दू शायरी को हिंदी में पढना चाहने वाले पाठकों के लिए किसी वरदान से कम नहीं. इस किताब को, वाणी वालों को सीधे लिख कर या फिर नेट के ज़रिये आर्डर दे कर, मंगवा सकते हैं. वाणी प्रकाशन वालों का पूरा पता, नंबर आदि मैं अपनी पुरानी पोस्ट्स पर कई बार दे चुका हूँ इसलिए उसे यहाँ फिर से दे कर अपनी इस पोस्ट को लम्बी करना मुझे सही नहीं लग रहा. आरिफ़ साहब के इन शेरों के साथ आपसे विदा लेते हुए वादा करते हैं के हम जल्द ही एक और नयी किताब के साथ आपके सामने हाज़िर होंगे.

ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है 
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है 

घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ 
शाम होती है तो घर ज़ाने को जी चाहता है 

डूब जाऊं तो कोई मौज निशाँ तक न बताए 
ऐसी नद्दी में उतर जाने को जी चाहता है

30 comments:

दीपिका रानी said...

उम्दा शायरी.. एक संग्रहणीय किताब।

Anupama Tripathi said...

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे

जनाब आरिफ़ की बहुत सुंदर शायरी ...
आभार नीरज जी ...!!

सदा said...

दुआ को हाथ उठाते हुए लरजता हूँ
कभी दुआ नहीं मांगी थी माँ के होते हुए
बहुत खूब ... एक और लाजवाब प्रस्‍तुति ...आभार आपका

रविकर said...

जबरदस्त संग्रह |
आदरणीय नीरज जी
आपको बहुत बहुत बधाई ||

Amit Kumar "Amit" said...

उम्दा शायरी

PRAN SHARMA said...

NEERAJ JI , EK ACHCHHE SHAYAR AUR
UNKEE KITAAB SE AAPNE PARICHAY
KARAAYAA HAI . AAPKAA SAADHUWAAD .

प्रवीण पाण्डेय said...

सच कहा अच्छी रचना ऊपर से ही उतरती है ।

नीरज गोस्वामी said...

Comment received on mail:-

मज़ा आ गया आरिफ़ साहेब की गजलें पढ़कर ! ऐसी हैं जैसे कोई जाना पहचाना हवा का झोंका मन के किवाड़ हल्के से हिला गया हो! नहीं?

सर्व

तिलक राज कपूर said...

घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर ज़ाने को जी चाहता है
भाई घर में बीबी के अलावा और लोग भी रहते हैं न।
शुद्ध मज़ाक वो भी आरिफ़ साहब की संज़ीदा शायरी पर, मुआफ़ी चाहता हूँ।
आपके मायम से एक और नायाब मोती मिला आज। आभार।

Vaanbhatt said...

इफ्तिख़ार आरिफ़ से तार्रुफ़ करने का शुक्रिया...एकदम ताज़ा ख़ुश्बू सी लगी प्रस्तुति...

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

नायाब,शायरी,की एक संग्रहणीय किताब ,,,परिचय के लिये आभार ,,,,

RECECNT POST: हम देख न सके,,,

Unknown said...

नमस्कार सर

आपके ब्लॉग पर बेहतरीन से बेहतरीन शायरों से परिचय होता हैं , और आप जी हर बार एक महान रचनाकार से अपने पाठको को मिलाते हैं , इसके लिए बहुत- बहुत धन्यबाद I
दिल से आवाज़ आई आप जी के लिए दो लाइन लिख रहा हूं

"चुन - चुन के मोतीओं की इक माला पिरो रहे हो,
किसी देवता के गले का हार शायद बिखरा हैं जमी पर"

Ankit said...

नमस्कार नीरज जी,
किताबों और शायरी की दुनिया के समंदर से एक और मोती को आप चुन के लाये हैं.
इफ्तिख़ार आरिफ़ जी के अशआर पढ़ के अलग ही नशा तारी है, हर शेर पर ढेरों दाद निकल रही हैं. वाह वाह.

Asha Joglekar said...

जनाब आरिफ साहब की शेरो शायरी से व्किफ कराने का शुक्रिया । कितने कितने बेहतरीन शायर हैं जिनसे हम अनजान ही रहते गर आप ये काम नही करते ।

ये सेर दिल को छू गया ।

हिज्र की धूप में छाओं जैसी बातें करते हैं
आंसू भी तो माओं जैसी बातें करते हैं

Parul Singh said...

नीरज जी बहुत अच्छा लगा इफ्तिखार आरिफ जी जैसे
बेहतरीन
शायर के बारे मैं जानकार
कुछ शेर जिन पर बार बार नज़र गयी ....
समन्दरों को भी हैरत हुई कि डूबते वक्त
किसी को हमने मदद के लिए पुकारा नहीं

नयी आहें, नए सेहरा, नए ख़्वाबों के इमकान
नयी आँखें, नए फ़ित्ने जगाना चाहती हैं

ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है

मेरा मन पंछी सा said...

लाजवाब शायरियां...
:-)

Prakash Jain said...

Waah!! kya kehne....

Rahul Paliwal said...

Niraj Sir, aap kamal he..Picking Diamonds from faded History..

नीरज गोस्वामी said...

Wah janab kya kahne, kya khub likhte hai aarif sahab. Neeraj sahab
apka behad shukriya, apne kai behtarin shairon se milwaya.

BHUPESH JOSHI

हरकीरत ' हीर' said...

मैं ज़िन्दगी की दुआ मांगने लगा हूँ बहुत
जो हो सके तो दुआओं को बेअसर कर दे

क्या बात है ....


दुआ को हाथ उठाते हुए लरजता हूँ
कभी दुआ नहीं मांगी थी माँ के होते हुए


शेर तो लाजवाब हैं हीं ....आपकी शब्दावली इसमें चार चाँद लगा देत है .....

काश हमारी भी कोई ग़ज़ल की किताब होती ....:))

प्रदीप कांत said...

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे
__________________


अद्भुद

बस....

Manish Kumar said...

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे


wah wah ab ye sher to ab mujhe bhi yaad rahega humesha !

पी.एस .भाकुनी said...

वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सरे बाज़ार
जो कह रहा था कि बिकना हमें गवारा नहीं....
शायरी की दुनिया के समंदर से एक और मोती को आप चुन के लाये हैं. जिस हेतु आपका आभार व्यक्त करता हूँ ,

Suman said...

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे
जिधर देखो उधर बड़े-बड़े मकान है
अब शायद ही कहीं घर होगा
नीरज जी,
एकसे एक नायाब शेर है ....बढ़िया संग्रह, एक अच्छी पोस्ट
आभार !

Vinay said...

क्या कहने!

अब Google Chrome से बनाओ PDF files

जयकृष्ण राय तुषार said...

नीरज भाई वाकई आप गज़ल के लिए शानदार काम कर रहे हैं |मेरे ब्लॉग पर आकर मेरा जोरदार उत्साहवर्धन करते रहने के लिए आपका हृदय से आभार |

महेन्‍द्र वर्मा said...

आरिफ साहब की शख्सियत और उनके कलाम से रूबरू हुआ, कमाल का लिखते हैं।
आपकी समीक्षा भी गजब की है।
बधाई आरिफ साहब और आपको।

मनोज कुमार said...

लाजवाब!
पढ़ना होगा।

Onkar said...

बहुत सुन्दर शेर

Jack said...

मजेदार शायरी.. फनी जोक्स हिन्दी में पढ़े शायरी लड़की पटाने वाले शायरी

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