Monday, July 9, 2018

किताबों की दुनिया-185

क्या और उससे मांगता जिसने तमाम उम्र
तुझसे बिछुड़ के जाने की हिम्मत न दी मुझे
***
मुझसे मिलने ही नहीं देती मुझको
 वो जो दीवार खड़ी है मुझ में
***
रात सोने के लिए दिन काम करने के लिए
वक़्त मिलता ही नहीं आराम करने के लिए
***
ये लोग तुझसे हमें दूर कर रहे हैं मगर
तिरे बग़ैर हमारा गुज़ारा थोड़ी है
***
चराग बुझते चले जा रहे हैं सिलसिला-वार
मैं खुद को देख रहा हूँ फ़साना होते होते
***
उसने बारिश में खिड़की खोल के देखा
नहीं भीगने वालों को कल क्या क्या परेशानी हुई 
 *** 
ज़मीन पैर से निकली तो ये हुआ मालूम 
हमारे सर पे कई दिन से आस्मां भी नहीं 
 *** 
उसीने सबको किया है लहूलुहान कि जो 
 किसी पे वार न करता हुआ नज़र आया 
 *** 

 मौसम में उमस है. अक्टूबर के महीने में कराची की रातें उमस भरी ही होती हैं। एक घर की छत पर तीन लोग बैठे शराब पी रहे हैं, साथ में धुएँ के छल्ले उड़ा रहे हैं ,आधे चाँद की रात है यही कोई ग्यारह बजे होंगे ,हवा भी नहीं चल रही है, अगर ये लोग नीचे किसी कमरे में बैठते तो ज्यादा सुकून मिलता लेकिन तीनों को पता है कि ये मुमकिन नहीं। जिसकी छत पे बैठे हैं ये लोग उसके परिवार के लिए पाँव पसारने की जगह भी कमरे में नहीं है लिहाज़ा छत पर बैठे रहने के अलावा और रास्ता भी क्या है ? हाँ- किसी छोटे मोटे रेस्त्रां या शराबखाने में बैठा जा सकता था लेकिन तीनों के पास अगर इतने पैसे होते तो शराब की एक बोतल और न खरीद लाते। तंगदस्ती के इस आलम की भनक तक नहीं लगायी जा सकती इन्हें देख कर। हल्की रौशनी में साफ़ तो नहीं दिख रहा लेकिन अंदाज़ा जरूर हो रहा है कि जिस शख़्स के लम्बे लम्बे बाल और पतला मरियल सा शरीर है वो बाकी के दोनों लोगों से उम्र में काफी बड़ा है -बोल भी ज्यादा वही रहा है और पी भी वही ज्यादा रहा है। बाकि के दोनों जवान उसकी बात को बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। चलिए, लेकिन दबे पाँव-कोई आहट न हो -हम उनके पास चलते हैं।

 रुख़्सत हुआ है दिल से तुम्हारा ख़्याल भी 
 इस घर से आज आख़िरी मेहमान भी गया 

 ऐसा कहाँ वो मानने वाला था मेरी बात 
 बादल उमड़ के आए हैं तो मान भी गया 

 क्या कर सकेगा शहर कि मरने से पेश्तर 
 गर अपने क़ातिलों को मैं पहचान भी गया

 "जानी " लम्बे बाल वाले अधेड़ ने गिलास से एक लम्बा घूँट भरते हुए दोनों से कहा " शायरी क्या है ? शायरी पसमंज़र को देख पाने और उसे बयान करने का हुनर है। एक तो मंज़र होता है जिसे हमारी आँखें देखती हैं, उस मंज़र के पीछे क्या है उसे हमारे दिलो-दिमाग की आँख देखती है अल्फ़ाज़ चुनती है और शेर में पिरोती है। हँसते हुए आदमी या औरत के पीछे छुपी घुटन, तड़पन, उदासी और अकेलापन हर कोई नहीं देख सकता। मंज़र को बयां करना शायर का काम नहीं ये काम खबरनवीस करते हैं पसे मंज़र बयां करो तो नाम कमाओगे। पसमंज़र के नज़ारे जितनी सफाई से देख पाओगे उतना ही तुम्हारा नाम होगा।तो सबसे पहले वो नज़र पैदा करो जो वो देख पाए जो दूसरे नहीं देख पाते, दूसरी जो अहम् चीज है 'जानी' वो है इल्म -उसे मज़बूत करो- मतलब खूब पढ़ो फिर लिखो ,समझे ?"हम देख रहे हैं कि एक युवा उनकी बात को बड़ी शिद्दत से आत्मसात कर रहा है और दूसरा बीच बीच में उनके द्वारा सुनाये शेरों पर अँधेरे में ही स्केचिंग कर रहा है।

 इक आदमी से तर्क-ए-मरासिम के बाद अब 
 क्या उस गली से कोई गुज़ारना भी छोड़ दे 
 तर्क-ए-मरासिम=सम्बन्ध विच्छेद 

 आना अब उसने छोड़ दिया है अगर तो क्या 
 दिल बेसबब चराग़ जलाना भी छोड़ दे 

 मज़बूत कश्तियों को बचाने के वास्ते 
 दरिया में एक नाव शिकस्ता भी छोड़ दे 

 तीनों की गुफ़्तगू लगातार चल रही है ये रोज का काम है ,महीनो से चल रहा है और उसके साथ साथ ठहाके भी - कमाल के लोग हैं ये -चैन की एक भी सांस इन्हें ज़िन्दगी नहीं लेने दे रही फिर भी हंस रहे हैं और वहां देखें सब कुछ होते हुए भी लोग टसुए टपकाते रहते हैं -अपना रोना रोना भी एक फैशन हो गया है -कोई किसी बात से खुश ही नहीं होता -दुखी रहने के बहाने ढूंढता है -और एक तरफ ये हैं कि दुखी होने के सारे कारण पास में होने के बावजूद हंस रहे हैं - कौनसी दुनिया के हैं ये लोग ? लम्बे बालों वाले ने एक गहरा कश लेते हुए ढेर सा धुआं छोड़ा और कहा कि "जानी शायरी में सिर्फ इंसान तक मत पहुंचो उसके सब कांशियस माइंड तक जाओ -पता करो की जो वो कह रहा है या कर रहा है उसके पीछे क्या सोच रहा है -इंसान का दिमाग बहुत काम्प्लेक्स है उसका एनालिसिस करो-उसकी फ़ितरत को समझो फिर लिखो "

 हिज़्र में ऐसे अँधेरे भी न देखे कोई 
 दिल मुंडेरों पे दिये देख के डर जाता है 

 कैसी नींदें हैं कि बंद आँखें जगाती है मुझे
 कैसा सपना है कि हर रात बिखर जाता है 

 यूँ गुज़रता है बस अब दिल से तिरे वस्ल का ध्यान 
 जैसे परदेश में त्यौहार गुज़र जाता है 

 सोच रहे होंगे कि इस उमस भरी आधी रात को क्यों मैं टाइम मशीन में बिठा कर आप को इस छत पे ले आया हूँ -सोचना लाजमी भी है। दरअसल हमारे आज के शायर इस तिगड्डे में से ही कोई एक हैं। किसे पता था कि लम्बे बालों वाले इस बेतरतीब सी शख्सियत वाले इंसान के ये दो होनहार साथी आने वाले वक्त में अपना नाम रोशन करेंगे।आज तो हालात ये हैं कि इन्हें ये भी पता नहीं कि कल को रोटी भी मयस्सर होगी या नहीं। हमारे आज के शायर वो हैं जो लम्बे बालों वाले के दाहिनी और बैठे हैं नाम है "जमाल एहसानी" और बाएं और बैठे इस खूबसूरत से नौजवान का नाम है "शाहिद रस्सम" जिन्होंने अपनी पेंटिंगस से पूरी दुनिया में पहचान बनाई है। रंग इनके हाथों में आ कर रक्स करने लगते हैं -और ये जो इन सब से बड़े हैं वो हैं जनाब "जॉन एलिया " साहब। जॉन साहब उस यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं जहाँ शाहिद पढ़ते हैं। शाहिद और जमाल दोस्त हैं। दोनों ही जॉन साहब के जबरदस्त फ़ैन। उम्र इन तीनों के रिश्ते में कभी आड़े नहीं आयी।

 जो मेरे जिक्र पर अब क़हक़हे लगाता है 
 बिछड़ते वक्त कोई हाल देखता उसका 

 मुझे तबाह किया और सबकी नज़रों में 
 वो बेकुसूर रहा, ये कमाल था उसका 

 जो साया साया शब-ओ-रोज़ मेरे साथ रहा 
 गली गली मैं पता पूछता फिरा उसका 

 जनाब "जमाल एहसानी" जिनकी किताब "अकेलेपन की इन्तिहा " की हम बात कर रहे हैं का जन्म पाकिस्तान के "सरगोधा" जो लाहौर से 172 की मी दूर है में 21 अप्रेल 1951 को हुआ। उनके पूर्वज भारत के पानीपत जिले के थे जो 1947 में शायद रोजी रोटी के चक्कर में सरगोधा जा बसे।सरगोधा में प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद छोटी उम्र में ही वो कराची चले गए। कराची में उन्होंने आगे पढाई की , कॉलेज भी गए और बीए पास किया। शाहिद रस्सम जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है ,से उनकी दोस्ती हुई। शाहिद ने ही उन्हें जॉन साहब से मिलवाया। ज़िन्दगी से उनकी जद्दोजेहद कराची पहुँचने के साथ ही शुरू हो गयी। क्या क्या पापड़ नहीं बेले उन्होंने। कैसे कैसे इम्तिहान नहीं दिए। पता नहीं क्यों अक्सर देखा गया है कि क्रिएटिव इंसान को ज़िन्दगी में सुकून नहीं मिलता। उसके अंदर का कोलाहल उसे शांत बैठने नहीं देता। वो नज़र, जो सबके पास नहीं होती, उन्हें बैचैन रखती है क्यूंकि उसकी वजह से उन्हें तल्ख़ हकीकतें दिखाई पढ़ती हैं जो जान लेवा होती हैं।


 ये ग़म नहीं है कि हम दोनों एक हो न सके 
 ये रन्ज है कि कोई दरमियान में भी न था 

 हवा न जाने कहाँ ले गयी वो तीर कि जो
 निशाने पर भी न था और कमान में भी न था 

 'जमाल' पहली शनासाई का वो इक लम्हा 
 उसे भी याद न था मेरे ध्यान में भी न था

 मैं तो क्या कहूं आप वो पढ़ें जो जॉन एलिया साहब उनके बारे में फ़रमा गए हैं "जमाल उन 'नामवर' शाइरों से कहीं ज़ियादा शुऊर रखता है जो अज़ीमुश्शान कहलाते हैं। 'जमाल' ज़बान-ओ-बयान के मामले के मुआमले में बहुत मोहतात (सतर्क) है। जमाल एहसानी जमालियात (सौंदर्य शास्त्र ) का काबिल-ए-रश्क़ शुऊर रखते हैं और उसे बड़ी हुनरमंदी के साथ काम में लाते हैं " यही कारण है कि उर्दू लिटरेचर के छात्रों ने जितना जमाल के काम को पसंद किया है उतना उनके साथ के शायरों को नहीं। उनके चाहने वाले पूरी दुनिया में फैले हुए हैं -अफ़सोस की बात है कि उस वक्त सोशल मिडिया का बोलबाला नहीं था वरना तो उनका नाम हर शायरी के चाहने वालों के घर में लिया जाता।

 अभी तो मंज़िल-ए-जानां से कोसों दूर हूँ मैं 
 अभी तो रास्ते हैं याद अपने घर के मुझे 

 जो लिखता फिरता है दीवार-ओ-दर पे नाम मिरा
 बिखेर दे न कहीं हर्फ़ हर्फ़ कर के मुझे 

 मोहब्बतों की बुलंदी पे है यकीं तो कोई 
 गले लगाए मिरी सतह पर उतर के मुझे 

 चराग़ बन के जला जिसके वास्ते इक उम्र 
 चला गया वो हवा के सुपुर्द कर के मुझे 

 जमाल एहसानी की ज़िन्दगी को समझने के लिए हमें उनकी उस बात को पढ़ना होगा जो उन्होंने अपने लिए कही और जो इस किताब में भी दर्ज़ है ,इतनी साफ़ और दिलकश खुद बयानी बहुत कम पढ़ने को मिलती है " मुझे शायरी ने अच्छे दिनों के ख़्वाब और बुरे दिनों की हक़ीक़तों से रुशनास (परिचित ) कराया। मैंने शायरी ही से सब कुछ जाना और शायरी ही से सब कुछ माना। मेरी तमन्नाएँ , आसूदा और ना आसूदा (पूरी-अधूरी) ख़्वाइशें, जुनूँ , ख़िरद (बुद्धि ), दोस्तियां, दुश्मनियां ,इन्तिहा-पसंदी ,मयाना-रवी (मध्य मार्ग पर चलना ), तलव्वुन-मिज़ाज़ी (स्वभाव की अस्थिरता) कुछ न कुछ करते रहने की धुन या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का लुत्फ़ ये सब कुछ मेरी शायरी की अता (देन) है। "

बहुत आराइश-ए-खाना के मन्सूबे बनाता हूँ
 मगर कमरे की छत पर एक जाला अच्छा लगता है
 आराइश-ए-खाना= घर सजाना

 मुझे अच्छा नहीं लगता ज़बाँ को बन्द कर लेना
 मगर बच्चों के हाथों में निवाला अच्छा लगता है

 कभी दिल शाद रहता है किसी के मिलते रहने से 
 कभी कोई बिछुड़ कर जाने वाला अच्छा लगता है 

 वो कोई और है हम में से हरगिज़ हो नहीं सकता 
 जिसे इस घर से बाहर का उजाला अच्छा लगता है

 इंसान की मज़बूरी छटपटाहट और पीड़ा की नुमाइंदगी "मुझे अच्छा नहीं लगता ---" वाले शेर में जिस तरह बयां हुई है वो आपको अंदर तक कचोटती है ,हिला देती है। इतने सादा लफ़्ज़ों में अपनी मज़बूरी का इज़हार करना ये बताता है कि 'जमाल' किस पाए के शायर हैं। आप उस इंसान की पीड़ा का अंदाज़ा लगाइये जब मज़बूरी में उसे अपनी ख़ुद्दारी दबानी पड़ती है। जमाल अपने बारे में आगे लिखते हैं कि " मैंने मिसरा मौजूँ (बनाने ) के सिवा जो भी काम किया उसमें मुंह की खाई ,बल्कि बाज़-औकात (कभी कभी) तो मिसरा मौजूँ करने का भी यही नतीजा सामने आया। ऐसे लम्हात भी गुज़रे कि शायरी से हाथ खींचने का इरादा किया मगर दूसरे सब इरादों की तरह ये भी शर्मिंदा-ए-ताबीर(पूरा ) न हुआ लिहाज़ा आम आदमी की तरह जीने को जी चाहता है न ख़ास आदमी की ख़ूबू (प्रकृति) मिज़ाज का हिस्सा है। बहर हाल ये रास्ता मेरा ख़ुद इख़्तियार-कर्दा (अपनाया हुआ ) है , इसलिए मुझे इसके सुख भी अज़ीज़ हैं और दुःख भी।

 ढांप देते हैं हवस को इश्क की पोशाक में
 लोग सारे शहर में बदनाम हो जाने के बाद 

 याद करने के सिवा अब कर भी क्या सकते हैं हम 
 भूल जाने में तुझे नाकाम हो जाने के बाद 

 खुद जिसे मेहनत-मशक्कत से बनाता हूँ 'जमाल' 
छोड़ देता हूँ वो रस्ता आम हो जाने के बाद 

 ज़माने भर के ग़म को अपने सीने में दफ़्न किये ये मोतबर शायर लीवर की बीमारी के चलते आखिर 10 फरवरी 1998 याने महज़ 47 साल की उम्र में ज़िन्दगी की जंग हार गया। 'जमाल' को इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुखसत हुए 20 साल हो चुके हैं लेकिन उनके कलाम की ताज़गी आज भी मोनालिसा की मुस्कान तरह ताज़ी और दिलकश है।उनकी शायरी की दो किताबें " सितारा-ए -सफ़र" और "रात के जागे हुए " उनके जीते जी मंज़र-ए-आम पर आये और तीसरा "तारे को महताब किया " उनके इन्तेकाल के तुरंत बाद।

 बंद कमरों में मकीं सोते हैं और आँगन में 
 मेरे और रात की रानी के सिवा कुछ भी नहीं 

 जो उतरता है वो बहता ही चला जाता है 
 गोया दरिया में रवानी के सिवा कुछ भी नहीं 

 जितने चेहरे हैं वो मिटटी के बनाये हुए हैं 
 जितनी आँखें हैं वो पानी के सिवा कुछ भी नहीं 

 12 अक्टूबर को 'जमाल' साहब की दसवीं बरसी के मौके पर के उनकी तीनो किताबों से तैयार "कुलियात-ए-जमाल" को मंज़र-ए-आम पर लाने का प्रोग्राम रखा गया। जिसमें और लोगों के अलावा उनके अज़ीज़ दोस्त शाहिद रस्सम साहब को बुलाया गया था। शाहिद जमाल की बातें करते करते करते रो पड़े उनके साथ ही वहां बैठे दर्शकों की आँखें भी भर आयीं। अगर आपकी रुखसती के बाद लोग आपको याद कर के रोयें तो मेरी नज़र में आपने जो ज़िन्दगी में कमाया है उसकी तुलना किसी दौलत से नहीं की जा सकती। दुनिया में हज़ारों लोग रोज मरते हैं कौन किसी की याद में रोता है ? ज़िन्दगी भर आपके साथ रहने वाले, साथ चलने वाले भी दो चार रोज में रो-धो कर चुप हो जाते हैं , गैरों की तो बात ही छोड़ दें। काश इस मंज़र को साहिर देखते तो उन्हें 'हमदोनो' फिल्म में अपना लिखा गाने "कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त , सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया " को दुबारा लिखना पड़ता।

 जरा सी बात पे दिल से बिगाड़ आया हूँ 
 बना-बनाया हुआ घर उजाड़ आया हूँ 

 वो इन्तिक़ाम की आतिश थी मेरे सीने में 
 मिला न कोई तो खुद को पछाड़ आया हूँ 

 मैं इस जहां की किस्मत बदलने निकला था 
 और अपने हाथ का लिख्खा ही फाड़ आया हूँ 

 हम लोगों को, जो उर्दू पढ़ना नहीं जानते लेकिन शायरी से मोहब्बत करते हैं ,रेख़्ता बुक्स का एहसानमंद होना चाहिए जिसकी बदौलत हम उन शायरों का कलाम देवनागरी में पढ़ पा रहे हैं जिनका नाम भी हमने नहीं सुना था (मैं अपनी बात कर रहा हूँ ). ऐसी बहुत कम किताबें होती हैं जिसके हर पेज पर आपको एक आध या कभी ढेर से शेर ऐसे मिल जाएँ जो तालियां बजाने पर मज़बूर करें। ये किताब ऐसी ही है। इसे आप अमेज़न से ऑन लाइन बहुत आसानी से मंगवा सकते हैं। जो अमेजन से नहीं मंगवा सकते वो सीधे रेख़्ता बुक्स को बी-37 सेक्टर -1 नोएडा वाले पते पर लिख सकते हैं या contact@rekhta.org पर मेल कर सकते हैं। रास्ता आप चुनें मैं जमाल साहब की इस किताब से कुछ फुटकर शेर आपको पढ़वा कर नयी किताब की तलाश में निकलता हूँ।

 इस सफर में कोई दो बार नहीं लुट सकता 
 अब दोबारा तिरि चाहत नहीं की जा सकती
 *** 
याद रखना ही मोहब्बत में नहीं है सब कुछ
 भूल जाना भी बड़ी बात हुआ करती है
 *** 
तेरे बगैर जिसमें गुज़ारी थी सारी उम्र 
 तुझसे जब आए मिल के तो वो घर ही और था 
 *** 
 दिल से तेरी याद निकल कर जाए क्यों 
 घर से बाहर क्यों घर का सामान रहे 
 *** 
जो सिर्फ एक ठिकाने से तेरे वाकिफ़ हैं
 तिरी गली में वो नादान जाया करते हैं
 *** 
अजब है तू कि तुझे हिज़्र भी गराँ गुज़रा 
 और एक हम कि तिरा वस्ल भी गवारा किया
 *** 
इश्क करने वालों को सिर्फ ये सहूलत है
 कुछ न करने से भी दिल बहलता रहता है
 *** 
देखने वालों ने यकजान समझ रख्खा था 
 और हम साथ निभाते रहे मजबूरी में 
 *** 
जमाल खेल नहीं है कोई ग़ज़ल कहना 
 की एक बात बतानी है इक छुपानी है

9 comments:

vikas sharma raaz said...

शानदार शायर पर शानदार तब्सिरा

के० पी० अनमोल said...

अलग ज़ाविये के शेर हैं। वाकई अच्छी शायरी है। समीक्षा ने शुरू में बोर किया लेकिन अन्त तक आप वापस आ ही गए। शुक्रिया अच्छी चीज़ से परिचय करवाने के लिए।

mgtapish said...

ये ग़म नहीं है कि हम दोनों एक हो न सके
ये रन्ज है कि कोई दरमियान में भी न था
'जमाल' पहली शनासाई का वो इक लम्हा
उसे भी याद न था मेरे ध्यान में भी न था
Waaaaaah kya kahne bahut umda waaaaaah

Unknown said...

ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल में क्या होना चाहिए---इस मुद्दे पर शुरू में किया गया ज़िक्र काफ़ी अहम है। इससे आज के शो'रा को शे'र कहने से पहले कुछ सबक़ लेना चाहिए।
यूं तो जमाल साहिब का कलाम क़ाबिले-दाद है ही, लेकिन ज़रा इस सादा-से मिस्रों पर ग़ौर करें---
दिल से तेरी याद निकलकर जाये क्यों
घर से बाहर क्यों घर का सामान रहे
इस ख़ूबसूरत किताब का तआरुफ़ कराने के लिए डियर नीरज, तहे-दिल से शुक्रिया।
--दरवेश भारती, मो.9268798930.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-07-2018) को "अब तो जम करके बरसो" (चर्चा अंक-3028) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

आलोक यादव said...

नीरज भाई आप कमाल का काम कर रहे हैं। साधुवाद।
जमाल साहब का ये शेर बहुत पसंद आया:
इश्क़ करने वालो को सिर्फ ये सहूलत है
कुछ न करने से भी दिल बहलता रहता है
वाह।

Parul Singh said...

ऐसी शायरी का ज़िक्र इतने शायराना अंदाज मे ना हो तो ये नाइंसाफी ही होगी। शायरी लाजवाब ।
दिल से तेरी याद निकल कर जाए क्यों
घर से बाहर क्यों घर का सामान रहे
वाह किस किस शेर का जिक्र करें,,
याद नही पड़ रहा कभी इस खूबसूरत किस्सागोई की शक्ल में कोई समीक्षा पढ़ी हो मैंने। बहुत बहुत शुभकामनाएँ सर।

Onkar said...

सुन्दर शेर

Unknown said...

जमाल साहब की बहुत ही बढ़िया शायरी।शुक्रिया नीरज सर ....
एक शेर जो दिल के सबसे करीब हो गया...........सभी अच्छे है मगर ये कुछ खास है
ये लोग तुझसे हमें दूर कर रहे हैं मगर
तिरे बग़ैर हमारा गुज़ारा थोड़ी है...