Monday, October 29, 2018

किताबों की दुनिया -201

मिले तो खैर न मिलने पे रंजिशें कैसी 
कि उससे अपने मरासिम थे पर न थे ऐसे 
*** 
आस कब दिल को नहीं थी तेरे आ जाने की 
पर न ऐसी कि क़दम घर से न बाहर रखना
 *** 
मेरी गर्दन में बाहें डाल दी हैं 
तुम अपने आप से उकता गए क्या
 *** 
मगर किसी ने हमें हमसफ़र नहीं जाना 
ये और बात कि हम साथ-साथ सब के गये 
***
 मुंसिफ हो अगर तुम तो कब इन्साफ करोगे 
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यों नहीं देते
 ***
 खिले तो अब के भी गुलशन में फूल हैं लेकिन 
न मेरे ज़ख्म की सूरत न तेरे लब की तरह 
*** 
इस चकाचौंध में आँखे भी गँवा बैठोगे 
उसके होते हुए पलकों को झुकाये रखना 
*** 
हम यहाँ भी नहीं हैं खुश लेकिन 
अपनी महफ़िल से मत निकाल हमें 
*** 
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल 
हार जाने का हौसला है मुझे
 *** 
हंसी ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है 
ये हर मकाम पे क्या सोचता है आखिर तू 

बहुत बड़ा ऑडिटोरियम था ,पूरा खचाखच भरा हुआ, लोग कुर्सियों के अलावा कॉरिडोर में भी बैठे थे ,यूँ समझें तिल धरने को भी जगह नहीं थी। सामने मंच पर साजिंदे बैठे और बीच में शॉल ओढ़े गायक जिसकी उँगलियाँ हारमोनियम पर थीं। अचानक गायक ने हारमोनियम पर सुर छेड़े और जैसे ऑडिटोरियम में करंट सा दौड़ गया। तालियों की गड़गड़ाहट से दीवारें कांपने लगीं , कुछ लोग सीट पर से खड़े हो कर सीटियां बजाने लगे, गायक ने आलाप लिया तालियां और तेज हो गयीं , लोग खुद गुनगुनाने लगे। गायक ने हारमोनियम रोक दिया सामने की सीट पे बैठे एक सज्जन को सलाम किया वो उठ खड़े हुए और ऑडिटोरियम में बैठे लोगों की और मुंह करके हाथ हिलाया। तालियों बजती रहीं। गायक ने गला साफ़ करके कहा " मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी शायर को उसके जीते जी इतना सम्मान और मकबूलियत हासिल हुई हो ,ये अपने दौर के तो सबसे मकबूल शायर हैं ही ,आने वाली सदियां भी इन्हें शिद्दत से याद किया करेंगी। "

 फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं 
तेरे आने के ज़माने आये 

 ऐसी कुछ चुप-सी लगी है जैसे 
हम तुझे हाल सुनाने आये 

 दिल धड़कता है सफ़र के हंगाम 
काश ! फिर कोई बुलाने आये 
हंगाम :समय 

 क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी 
लोग क्यों जश्न मनाने आये 

 आज हम जिस शायर और उसकी किताब की बात कर रहे हैं उसे उर्दू बोलने समझने वाले सभी लोग चाहे वो जिस भी मुल्क के बाशिंदे हों बेहद प्यार करते थे, करते हैं और करते रहेंगे।इनकी शायरी को सरहदों में बांधना ना-मुमकिन है। हमने जिस गायक की बात अभी की वो थे जनाब मेहदी हसन साहब और शायर थे जनाब 'अहमद फ़राज़' जिस धुन को हारमोनियम पर अभी उन्होंने बजाया वो थी फ़राज़ साहब की बेहद मशहूर ग़ज़ल "रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ ..." इस एक ग़ज़ल ने मेहदी हसन साहब को जो मकबूलियत दिलाई उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। लगता है जैसे मेहदी हसन साहब इस ग़ज़ल को गाने के लिए बने थे ,यूँ तो उनकी ढेरों ग़ज़लें सुनने वालों को मुत्तासिर करती रही हैं लेकिन 'रंजिश ही सही ..." की तो बात ही अलग है।इस ग़ज़ल को हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बहुत से नए पुराने गायक -गायिकाओं ने पहले भी गाया है आज भी गाते हैं, गाते भी रहेंगे लेकिन जो असर मेहदी हसन साहब ने इसे गाते हुए पैदा किया था उसकी तो बात ही कुछ और है। यूँ तो फ़राज़ साहब की ढेरों किताबें बाजार में हैं, उन्हीं में से एक "ख़्वाब फ़रोश" हमारे सामने है :


 जिस तरह बादल का साया प्यास भड़काता रहे 
मैंने ये आलम भी देखा है तिरि तस्वीर का 

 जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर 
आज तक हर नक़्श फ़रियादी मिरि तहरीर का

 जिसको भी चाहा उसे शिद्दत से चाहा है फ़राज़ 
सिलसिला टूटा नहीं है दर्द की ज़ंज़ीर का 

 ये कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नहीं होगा कि फ़राज़ बीसवीं सदी के महान शायरों इक़बाल और फैज़ साहब के बाद उर्दू के सबसे लोकप्रिय शायर हुए हैं। ऐसा भी नहीं है कि उनके समकालीन शायरों की शायरी उनसे मयार में कम थी लेकिन जो लोकप्रियता फ़राज़ साहब ने हासिल की वैसी उनके साथ के शायर नहीं हासिल कर पाए। अगर गौर करें तो पाएंगे कि फ़राज़ साहब की लोकप्रियता का राज़ उनकी शायरी की ज़बान थी। बेहद आसान ज़बान में गहरी बात कहने का जो हुनर फ़राज़ साहब के पास था वैसा और दूसरे शायरों में नहीं मिलता यही कारण है कि उनकी ग़ज़लों को भारत या पाकिस्तान के गायकों ने खूब गाया है। फ़राज़ खुद भी देश विदेश के मुशायरों में अपनी सादा ज़बान और अपना कलाम पढ़ने के निराले अंदाज़ के कारण बहुत बुलाये जाते थे। उनके व्यक्तित्व और कलाम को पढ़ कर ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि इस शायर के पास फौलाद का जिगर है।

 ये ख़्वाब है खुशबू है कि झौंका है कि पल है
 ये धुंध है बादल है कि साया है कि तुम हो

 इस दीद की साअत में कई रंग हैं लरज़ां 
मैं हूँ कि कोई और है ,दुनिया है, कि तुम हो
 साअत =क्षण 

 देखो ये किसी और की आँखें हैं कि मेरी 
देखूं ये किसी और का चेहरा है ,कि तुम हो 

 पाकिस्तान के शहर कोहाट में 12 जनवरी 1931 को जन्मे अहमद फ़राज़ का असली नाम सैयद अहमद शाह था लेकिन वह दुनिया भर में अपने तख़ल्लुस अहमद फ़राज़ के नाम से जाने जाते थे. कोहाट में प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद वो आगे पढ़ने के लिए 75 की मी दूर बसे बड़े शहर पेशावर चले गए। पेशावर के मशहूर एडवर्ड कॉलेज से उन्होंने उर्दू और फ़ारसी ज़बानों में एम् ऐ की डिग्री हासिल की। स्कूल के ज़माने में उनका बैतबाज़ी में हिस्से लेने का शौक बाद में शायरी की ओर खींच लाया। ग़ज़ल लेखन की और उनका झुकाव कॉलेज दिनों से ही हो गया था जहाँ फैज़ अहमद फैज़ पढ़ाया करते थे। शुरू में उनकी शायरी रुमानियत से भरी नज़र आती है। फैज़ और अली सरदार ज़ाफ़री साहब के संपर्क में आने के बाद उनकी शायरी में बदलाव देखने को मिलता है।

 तू भी हीरे से बन गया पत्थर 
 हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ 

 देर से सोच में हैं परवाने 
राख हो जाएँ या हवा हो जाएँ 

 अब के अगर तू मिले तो हम तुझसे 
ऐसे लिपटें तिरि क़बा हो जाएँ

 'फ़राज़' अपने आदर्श फैज़ की तरह क्रांतिकारी शायर नहीं थे लेकिन उनकी शायरी में राजनीती में होने वाली ओछी हरकतों को खुल कर बयां करने का हौसला था. बांग्ला देश बनने से पहले पश्चिमी पाकिस्तान की सेना द्वारा पूर्वी पकिस्तान के बंगाली सैनिकों और आम इंसान पर ढाये गए जुल्म को उन्होंने खुल कर अपनी एक नज़्म में बयां किया है। इस नज़्म को उन्होंने सार्वजानिक रूप से एक मुशायरे में पढ़ा और पाकिस्तान की सेना को जल्लाद कहा। जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के इशारे पर उन्हें रातों रात बिना किसी वारंट के जेल में बंद कर दिया गया। कोई और शायर होता तो इस बात के लिए सार्वजानिक रूप से माफ़ी मांग कर जेल से बाहर आ सकता था लेकिन फ़राज़ को ये मंज़ूर नहीं था। जेल की चार दीवारों में बंद घुटन और साथ ही उन पर ढाये जाने वाले जुल्म फ़राज़ को तोड़ने में नाकामयाब रहे। फ़राज़ के इस हौसले की चारों और बहुत प्रशंशा हुई।

 मेरे झूठ को खोलो भी और तोलो भी तुम 
लेकिन अपने सच को भी मीज़ान में रखना 
मीज़ान =पलड़ा 

बज़्म में यारों की शमशीर लहू में तर है 
रज़्म में लेकिन तलवारों को म्यान में रखना 
रज़्म =युद्ध 

 इस मौसम में गुलदानों की रस्म कहाँ है 
लोगो ! अब फूलों को आतिशदान में रखना  

तानाशाही रवैय्यों से उनका दूसरा पाला तब पड़ा जब जनरल जिया -उल-हक़ पाकिस्तान के डिक्टेटर बने। जिया हर पढ़ेलिखे समझदार इंसान से नफरत करते थे। उन्हें फ़राज़ का सैन्य अधिकारीयों के खिलाफ लिखना नाग़वार गुज़रता था। फ़राज़ उस वक्त के पाकिस्तान के माहौल से निराश हो कर वहां से 6 साल के लिए जलावतन हो गए और ब्रिटेन, कनाडा और यूरोप में प्रवास करते रहे। उनके साथ पाकिस्तानी हुक्मरानों ने जैसा बुरा व्यवहार किया उसकी मिसाल ढूंढना मुश्किल है। अमेरिका के पिठ्ठू कहने पर जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने उनके सारे सामान के साथ उन्हें सरकारी घर से सड़क पर ला खड़ा किया। अमेरिका में बसे पाकिस्तानी 'मोअज़्ज़म शेख ' ने अपने एक लेख में लिखा था कि "अगर ओलम्पिक में किसी शायर या कवि पर किये गए अत्याचारों पर मैडल देने की प्रतियोगिता होती तो पाकिस्तान को गोल्ड मैडल मिलता।"

 बदला न मेरे बाद भी मौजू-ए-गुफ़्तगू 
मैं जा चुका हूँ फिर भी तेरी महफ़िलों में हूँ

 मुझसे बिछुड़ के तू भी तो रोयेगा उम्रभर 
ये सोच ले कि मैं भी तेरी ख्वाइशों में हूँ 

 तू हंस रहा है मुझ पे मेरा हाल देख कर 
और फिर भी मैं शरीक तेरे कहकहों में हूँ

 भले ही पाकिस्तानी हुक्मरानों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया लेकिन पाकिस्तान की अवाम ने हमेशा उन्हें सर आँखों पे बिठाया। पाकिस्तान की ही नहीं बल्कि हर उस इंसान ने जिसे उर्दू ज़बान और शायरी से मोहब्बत है फ़राज़ साहब को अपने दिल के तख्ते ताउस पर बड़ी इज़्ज़त से बिठया है। ये उनके प्रति लोगों का प्यार ही है जिसकी बदौलत उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिनमें सितारा-ए-इम्तियाज़ ,हिलाल-ए-इम्तियाज और निगार अवार्ड प्रमुख हैं। सं 2006 में उन्होंने सरकार की नीतियों से सहमत न होते हुए हिलाल-ऐ-इम्तिआज़ अवार्ड वापस कर दिया था। 25 अगस्त 2008 को इस्लामाबाद के एक निजी अस्पताल में गुर्दे की विफलता से फराज़ का निधन हो गया। 26 अगस्त की शाम को इस्लामाबाद, पाकिस्तान के एच -8 कब्रिस्तान के कईप्रशंसकों और सरकारी अधिकारियों के बीच उनको सुपुर्दे ख़ाक कर दिया गया। पाकिस्तान सरकार ने अपने किये पे शर्मिंदा होते हुए उन्हें उनकी मृत्यु के बाद सन 2008 में हिलाल-ऐ- पकिस्तान के अवार्ड से नवाज़ा।

 यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए 
अब यही तर्क-ऐ-तअल्लुक़ के बहाने मांगे 

 अपना ये हाल कि जी हार चुके लुट भी चुके 
और मोहब्बत वही अंदाज़ पुराने मांगे

 ज़िन्दगी हम तिरे दागों से रहे शर्मिंदा 
और तू है कि सदा आईनाख़ाने मांगे 

 अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल फ़ैज और फ़िराक का नाम आता है जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फ़राज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया। उसकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रखरखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा।

 क्या क़यामत है कि जिनके लिए रुक-रुक के चले 
अब वही लोग हमें आबला-पा कहते हैं 

 कोई बतलाओ कि इक उम्र का बिछड़ा महबूब 
इत्तिफ़ाक़न कहीं मिल जाए तो क्या कहते हैं 

 जब तलक दूर है तू तेरी परिस्तिश करलें 
हम जिसे छू न सकें उसको खुदा कहते हैं 

 मेहदी हसन की आवाज़ में "रंजिश ही सही--" के अलावा "अब के हम बिछुड़े तो शायद ---" और गुलाम अली साहब की आवाज़ में ये आलम शौक का ---"जैसी न जाने कितनी ग़ज़लों के माध्यम से फ़राज़ साहब हमारे बीच सदियों तक ज़िंदा रहेंगे।पाकिस्तान के मेहदी हसन और गुलाम अली साहब के अलावा भारत के नामचीन गायकों जैसे जिनमें लता मंगेशकर, आशा भोंसले, जगजीत सिंह, पंकज उधास आदि ने भी अपना स्वर दिया है ।उनके क़लाम को पढ़ने का पूरा मज़ा लेने के लिए आपको उनकी किताब " ख़ानाबदोश चाहतों के" तलाशनी होगी जिसमें फ़राज़ साहब की चुनिंदा ग़ज़लें और नज़्में हैं। फ़राज़ साहब की शायरी का हिंदी में इस से बेहतर संकलन और किसी किताब में नहीं है। " " ख्वाब फरोश " , जिसे डायमंड बुक्स ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेज -2 द्वारा प्रकाशित किया है, को मंगवाने के लिए आप उन्हें 011-41611861 पर फोन करें या उनकी वेब साइट www.dpb.in पर जा कर इसे आन लाइन ऑर्डर करें। ये किताब अमेज़न पर भी आसानी से उपलब्ध है। आखिर में इस किताब की एक ग़ज़ल से ये शेर पढ़वाते हुए हम आपसे रुखसत होते हैं :

 ये क्या कि सबसे बयाँ दिल की हालतें करनी
 फ़राज़ तुझको न आई मोहब्बतें करनी 

 मोहब्बतें ये कुर्ब क्या है कि तू सामने है और 
हमें शुमार अभी से जुदाई की साअतें करनी 
कर्ब =निकटता , साअतें =क्षण  

हम अपने दिल से हैं मज़बूर और लोगों को
 ज़रा सी बात पे बरपा कयामतें करनी 

 ये लोग कैसे मगर दुश्मनी निभाते हैं 
हमें तो रास न आए मोहब्बतें करनी

7 comments:

Parul Singh said...

फ़राज़ मेरे इतने मेहबूब शायर हैं कि बयान करना कुछ भी मुश्किल है,मैंने अपनी ज़िंदगी के साथ इनके शेरों को चलते पाया हैं या यूं कहूँ के सहारा पाया है तो भी सही होगा। बहुत अच्छे शायर, अच्छी पोस्ट, और कुछ कह भावुक नही होना चाहती।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-10-2018) को "दिन का आगाज़" (चर्चा अंक-3140) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Unknown said...

*देखो किसी और की आँखें हैं कि मेरी
देखूँ ये किसी और का चेहरे है कि तुम हो ...

सुन्दर !
अति सुन्दर ! !

फ़राज़ साहब की ख़्वाब फ़रोश ...

और ..
नीरज जी भावभीनी प्रबुद्ध लेखनी ।

kamalbhai said...

अहा, नीरज साहब, इस हरदिलज़ीज शायर की किताब के बहाने कितनी ख़ूबसूरत अशआर पढवाये आपने। शुक्रिया शुक्रिया...💐

डॉ. पी. पुरुषोत्तम said...

ग़ज़ल का बहुत ही ख़ूबसूरत सफ़र करवाया आपने नीरजजी,इस बहाने फराज़ साहब की शायरी की दुनिया को क़रीब से महसूस कर सका। सचमुच - "उस शख़्स को बिछड़ने का सलीका भी नहीं,
जाते हुए खुद को मेरे पास छोड़ गया ।"

अनीता सैनी said...

बहुत ही सुन्दर

mgtapish said...

मिले तो खैर न मिलने पे रंजिशें कैसी
कि उससे अपने मरासिम थे पर न थे ऐसे
***
आस कब दिल को नहीं थी तेरे आ जाने की
पर न ऐसी कि क़दम घर से न बाहर रखना
***
जिस तरह बादल का साया प्यास भड़काता रहे
मैंने ये आलम भी देखा है तिरि तस्वीर का
अहमद फराज़ बहुत बड़ा नाम और आपका ये तबस्‍रा क्या कहना वाह वाह वाह ख़ूब बधाई