जो तू नहीं तो ये वहम-ओ-गुमान किसका है
ये सोते जागते दिन रात ध्यान किसका है
कहां खुली है किसी पे ये वुसअत-ए -सहारा
सितारे किसके हैं ये आसमान किसका है
वुसअत ए सहारा: रेगिस्तान का फैलाव
*
वही इक शेर मुझ में सांस लेगा
जिसे कहते ज़माने लग गए हैं
*
खुद में रहने का ये भी ख़दशा है
हो न जाऊं कहीं मैं अपना शिकार
अब के तन्हाई जानलेवा है
ख़ुद से बाहर निकल किसी को पुकार
*
मैं जिसके साए से बचकर निकलना चाहता हूं
वो मुझको राह में अक्सर दिखाई देता है
हमारे बीच ये नज़दीकियां ही काफी हैं
तुम्हारे घर से मेरा घर दिखाई देता है
*
फूलों ने बदले रंग कई
तेरे जैसा होने को
तुमको पाकर सोचता हूं
कितना कुछ है खोने को
*
बड़ी गहराई में मिलते हैं लफ़्ज़ों के ख़ज़ाने
गुहर भी क्या कभी पानी के ऊपर तैरते हैं
*
बहुत मजबूत हो पाए न रिश्ते
कि दोनों में कोई झगड़ा नहीं था
अगर आप शायरी प्रेमी हैं तो ये मुमकिन नहीं है कि आपने 'रतन पंडोरवी', 'राजेंद्र नाथ रहबर' और 'परवीन कुमार अश्क़' का नाम न सुना हो। सौभाग्यवश मैंने इन तीनो पर लिखा भी है। इन तीनो का आपस में जो सम्बन्ध है वो शायरी के अलावा उस शहर से भी है जिसके ये तीनो ही बाशिंदे रहे हैं। वो शहर है 'पठानकोट', इस शहर से मात्र 14 किलोमीटर दूर के एक गाँव 'शाहपुर कंडी' में 23 नवम्बर 1976 को जन्मे 'सुनील आफ़ताब' का नाम अब पठानकोट में जन्में ख्यातिप्राप्त शायरों की लिस्ट में शामिल हो गया है। हालाँकि ये जरूरी नहीं है फिर भी बता दूँ की 'शाहपुर कंडी' गाँव 'सुनील आफ़ताब' की जन्म भूमि के अलावा 'रावी' नदी पर बने शाहपुर कंडी बाँध' के लिए भी प्रसिद्ध है।
'सुनील' को शायरी विरासत में नहीं मिली , उनके परिवार में दूर दूर तक किसी का शायरी से कोई नाता नहीं रहा। फिर सुनील क्यों शायरी की तरफ मुख़ातिब हुए ? इसका जवाब सुनील के पास भी नहीं है। मुझे लगता है कि इंसान में कोई न कोई गुण उसे जन्म से मिलता है। हमें ही अपने अंदर छिपे गुणों का सही से अंदाजा नहीं होता। हर किसी के, उसके अंदर छिपे, गुण सामने नहीं आ पाते। कई बार तो हमें अपने अंदर के गुणों का पता जब चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।'सुनील' को खुशकिस्मती से अपने इस गुण का पता तब चला जब वो कालेज में पढ़ रहे थे। वो लिखते, अपने दोस्तों को सुनाते और खुश होते। ये वो ज़माना था जब इंटरनेट नहीं आया था .लिहाज़ा जो जानकारी चाहिए होती उसके लिए किताबें ही एक मात्र जरिया थीं। 'सुनील' ने अपने कालेज की लाइब्रेरी में रखी शायरी की किताबों को गंभीरता से पढ़ना शुरू किया। शायरी क्या होती है? ग़ज़ल का व्याकरण क्या है? जैसे पेचीदा सवालों का जवाब वो किताबों से ढूंढने लगे और कामयाब भी हुए। ग़ज़ल सीखने के लिए उन्होंने किसी एक उस्ताद को नहीं तलाशा बल्कि किताबों और अपने साथ के शायरों के मशवरों से खुद को दुरुस्त किया।
'सुनील' बहुत ज़ज़्बाती इंसान हैं। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता। वो अपने बारे में बार बार इसरार करने पर भी कुछ नहीं बताते। उन्हें अपने बारे में बढ़चढ़ कर बताने की बात तो छोड़िये कुछ भी बताने से परहेज़ है। ये जो सब मैं यहाँ उनके बारे में लिख रहा हूँ ये भी बड़ी मुश्किल से मैंने पता किया है। आज के इस दौर में जहाँ एक ज़र्रा अपने आप को पहाड़ बताने के लिए दिन रात एक कर रहा है वहां एक ऐसा नौजवान भी है जो ख़ामोशी से अपना काम कर रहा है। मज़े की बात ये है कि उसे चाहने वाले भी उतने ही हैं जितने अपने आपको बढ़ चढ़ कर बताने वालों के हैं। कहने का मतलब ये है कि अगर आपके पास हुनर है, बात कहने का सलीका है तो आपको अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनने की जरुरत नहीं है। अगर फूल में खुशबू है तो वो चाहे जहाँ खिला हो उसकी खुशबू तो फैलेगी ही। इंटरनेट की हवा से खुशबू जरा जल्दी फैलती है लेकिन दिल में बसती तभी है जब वो दिलकश हो और दिल ओ दिमाग को तारो ताज़ा कर दे।' सुनील' की शायरी में ये खूबियां आपको मिल जाएँगी।
'गुरु नानक देव' यूनिवर्सिटी से बी एस सी तथा 'जम्मू यूनिवर्सिटी' के 'रामिष्ट कालेज' से बीएड करने के बाद 'सुनील' अध्यापन करने लगे। ये सिलसिला लम्बा नहीं चला। क्यों ? शायद संवेदनशील, सच्चे, सिद्धांतवादी और खुद्दार व्यक्ति के लिए कोई भी नौकरी करना आसान नहीं होता। नौकरी में समझौते करने ही पड़ते हैं। मुझे नहीं मालूम कि उन्होंने नौकरी क्यों छोड़ी, हो सकता है कोई और कारण रहा हो लेकिन छोड़ दी ये पक्का है। उसके बाद उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया। कौनसा ? ये सवाल मैंने भी सुनील जी से पूछा तो उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया 'छोटा मोटा रंगों का' , इससे आगे पूछने की मुझे हिम्मत भी नहीं हुई।
तुम्हारे साथ मेरी चाहतें तुम्हीं तक थीं
तुम्हारे बाद सभी से मुझे मोहब्बत है
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ढूंढने निकले तो फिर हम ढूंढते ही रह गए
ज़िंदगी तुझको तो अपने पास ही समझे थे हम
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अब एक घर ही में शामिल हैं जाने कितने घर
मैं घर में आऊं तो घर को तलाश करता हूं
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रौशनी में तो चमकती है शराफ़त मेरी
तीरगी में मेरा किरदार बदल जाता है
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डूब जाए न कहीं नाव मेरी
बढ़ते जाते हैं मुसाफिर मेरे
*
ज़िंदगी कुछ इस तरह बोझल हुई
हमने जीने का इरादा कर लिया
एक बात तो पक्का है कोई भी 'सुनील' ऐसे ही 'आफ़ताब' नहीं बन जाता।अपने अंदर लगातार आग पैदा करनी पड़ती है , तपना पड़ता है और निरंतर चलना पड़ता है। 'सुनील' अपने मुंह से चाहे कुछ न बताएं लेकिन उनकी शायरी से अंदाज़ा हो जाता है कि उन्होंने 'सुनील' से 'सुनील आफताब' बनने के लिए कितनी तपस्या की होगी। इस किताब की भूमिका में - जो कमाल है और बार बार पढ़ने लायक है -- प्रसिद्ध शायर 'अमीर इमाम' ने लिखा है कि ' अच्छा शेर किसी शाइर के दिल से निकलने और उसके क़लम से लिखे जाने के बाद मुकम्मल नहीं होता बल्कि आने वाली नस्लों में फूलता-फलता रहता है', 'सुनील' की इस किताब में ऐसे शेर इक्का दुक्का नहीं, ढेरों हैं और यही इस किताब की खासियत है।
'सुनील' की शायरी में पुख़्तगी लाने में बेहतरीन शायर जनाब 'विकास शर्मा राज़',महेंद्र कुमार सानी' और 'अमीर इमाम' का बहुत बड़ा हाथ है।
अपनी तरह के अनूठे शायर 'विकास शर्मा राज़' साहब लिखते हैं कि 'सुनील की ग़ज़लों में 'नासिर काज़मी' साहब का असर कहीं कहीं दिखता है, खास तौर पर छोटी बहर की ग़ज़लों में। इस असर के बावजूद शाइर ने अपनी आवाज़ और अदा को तलाशने की कामयाब कोशिश की है।
उस्ताद शायर जनाब 'मयंक अवस्थी' ने सुनील की शायरी पर लिखा है कि ' लफ्ज़ बरतना सुनील की शायरी का सबसे मज़बूत पक्ष है। सुनील आफ़ताब की शायरी में कई लफ़्ज़ रईस हो गए हैं।'
मारूफ़ शायर जिया ज़मीर साहब लिखते हैं कि' सुनील संजीदगी से शेर कह रहे हैं। उन्हें कहीं जाने की जल्दी नहीं है , कुछ बड़ा हासिल करने की भूख भी उनमें दिखाई नहीं देती यानी अभी वो सिर्फ शेर कहने में मशगूल हैं.'
मैं ज़िया भाई की इस बात से इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ क्यूंकि जहाँ मुशायरों के मंचो पर बहुत से शायर अपने अध पके शेर कह कर धूम मचा रहे हैं वहां सुनील को मुशायरों में शेर पढ़ कर दाद के लिए झोली फैलाते देखना संभव ही नहीं है। यू ट्यूब पर भी शायद उनका एक आधा छोटा सा विडिओ कहीं हो तो हो वर्ना वो शायरी अपनी फ़ेसबुक वाल पर पोस्ट कर के ही खुश हैं।
लाजवाब युवा शायर 'महेंद्र सानी' जी ने इस किताब पर बहुत अद्भुत टिपण्णी की है वो लिखते हैं ' आफ़ताब धूप के रंग देखने के ख़ाहा हैं। धूप जो स्रोत्र भी है और विस्तार भी। धूप जो संसार भी है एकांत भी। इसी धूप की सादा रंगों की तर्जुमानी है 'सुनील आफ़ताब' की शायरी। वो सुबह का उजाला हो या शाम की मलगिजी रौशनी सबमें उसी धूप को कारफ़रमा देखते हैं।
'धूप में बैठने के दिन आये ' सुनील आफ़ताब का पहला शेरी मज़्मुआ है जिसमें उनकी 87 ग़ज़लें शामिल हैं। ये किताब 'रेख़्ता पब्लिकेशन से सन 2024 में शाया होकर चर्चित हो चुकी है। आप इसे अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं।
दुआएं मांगी थी मैंने तो कामयाबी की
ये कब कहा था मेरे इम्तिहान कम कर दे
*
घर से निकलूं तो दूर जा निकले
किसी जंगल में रास्ता निकले
इश्क़ राहें बदलता रहता है
क्या पता कौन बेवफ़ा निकले
*
तुम्हारे बाद जितना रह गया था
उसी में अब गुज़ारा कर रहा हूं
कई बेकार बहसों में उलझ कर
मैंअपना ही ख़सारा कर रहा हूं
ख़सारा: हानि
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तुम्हारी याद से रौशन है दिल की वीरानी
चराग़ बुझ गया तो फिर खंडर का क्या होगा
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फ़त्ह कर ली बुलंदियां सारी
अब तो सारा सफ़र ढलान का है
घर तो तक़्सीम होते रहते हैं
मसअला अब जो है मकान का है
*
या इतनी भी बेरंग ये दुनिया नहीं होती
या मेरी नज़र ने तुम्हें देखा नहीं होता
*
तमाम राह ए सफ़र यूं तो ख़ुशनुमा थी मगर
भर आई आंख तेरा शहर पार करते हुये