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Monday, December 19, 2011
किताबों की दुनिया - 64
![](http://1.bp.blogspot.com/-bhBtKHfhOVY/TuL4GDLIO9I/AAAAAAAADYU/1ixc2-j-nlg/s320/kunvar%2Bji.jpg)
Monday, December 5, 2011
ख़ुदा के फज्ल से चलने लगा मेरा क़लम कुछ कुछ
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दोस्तों आज पेशे खिदमत है मेरे अज़ीज़ दोस्त जनाब सतीश शुक्ला 'रकीब' साहब की निहायत खूबसूरत ग़ज़ल. सतीश साहब मुंबई में रहते हैं और इस्कोन मंदिर के प्रबंधन से जुड़े हुए हैं. सतीश जी बेहद मिलनसार और ज़हीन इंसान हैं उनसे मिलना एक हसीन इत्तेफाक है . पिछले दस वर्षों से वो ग़ज़ल लेखन में सक्रीय हैं. उनका लेखन मुंबई के उस्ताद शायर स्वर्गीय जनाब गणेश बिहारी 'तर्ज़' साहब की सोहबत में परिष्कृत हुआ है. इस ग़ज़ल में आप देखें सतीश जी ने किस ख़ूबसूरती से "कुछ कुछ" रदीफ़, जो बहुत अधिक प्रचलित नहीं है ,का निर्वाह किया है.ग़ज़ल पढ़ कर सतीश जी को उनके मोबाइल +919892165892 पर बात कर दाद जरूर दें.
Monday, November 21, 2011
किताबों की दुनिया - 63
ऐसे अशआर पढ़ कर अचानक मुंह से कोई बोल नहीं फूटते, हैरत से आँखें फटी रह जाती हैं और दिल एक लम्हे के लिए धड़कना बंद कर देता है. हकीकत तो ये है कि ऐसे कुंदन से अशआर यूँ ही कागज़ पर नहीं उतरते इस के लिए शायर को उम्र भर सोने की तरह तपना पड़ता है. इस तपे हुए सोने जैसे शायर का नाम है "निश्तर खानकाही" जिनकी किताब "मेरे लहू की आग" का जिक्र आज हम यहाँ करने जा रहे हैं. "निश्तर खानकाही" के नाम से शायद हिंदी के पाठक बहुत अधिक परिचित न हों क्यूँ की निश्तर साहब उन शायरों की श्रेणी में आते हैं जो अपना ढोल पीटे बिना शायरी किया करते थे.
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घायल मन की पीड़ समझ कर उसे अपने अशआरों में ढालने वाले इस शायर ने अपने जन्म के बारे में एक जगह लिखा है: " 'कोई रिकार्ड नहीं है, लेकिन मौखिक रूप में जो कुछ मुझे बताया गया है, उसके अनुसार 1930 के निकलते जाड़ों में किसी दिन मेरा जन्म हुआ था, जहानाबाद नाम के गाँव में, जहाँ मेरे वालिद सैयद मौहम्मद हुसैन की छोटी-सी जमींदारी थी". पाठकों की सूचना के लिए बता दूं के जहानाबाद उत्तर प्रदेश के 'बिजनौर जनपद का एक गाँव है. बिजनोर में जीवन के अधिकांश वर्ष गुज़ारने के बाद 7 मार्च 2006 को खानकाही साहब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
निश्तर साहब ने लगभग दस वर्ष की उम्र से ही लेखन आरम्भ कर दिया था. इतनी छोटी उम्र में लेखन शुरू करने के हिसाब से हमारे पास उनके द्वारा रचे साहित्य का बहुत बड़ा ज़खीरा होना चाहिए था, लेकिन नहीं है. इसके पीछे दो कारण हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं की कोई प्रति अपने पास नहीं रखी। आकाशवाणी से प्रकाशित होने वाली अथवा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली रचनाओं- रूपकों, कहानियों, लेखों, नज़्मों अथवा ग़ज़लों की प्राय: कोई प्रति उनके पास नहीं रही। दूसरा कारण तो और भी कष्टप्रद है। उन्हीं के शब्दों में- 'उस्तादों की तलाश से निराश होकर जब मैंने अभ्यास और पुस्तकों को अपना गुरु माना तो हर साल रचनाओं का एक बड़ा संग्रह तैयार हो जाता, किंतु मैं हर साल स्वयं उसे आग लगा देता। यह सिलसिला लगभग बीस वर्ष तक चलता रहा। हर पांडुलिपि पाँच सौ से सात सौ पृष्ठों तक की होती थी।' .ग़ज़लकार निश्तर जी के इस कथन से ही कल्पना की जा सकती है कि यदि उनके द्वारा रचित साहित्य का व्यवस्थित रूप से प्रकाशन होता तो साहित्य-जगत् को आज उनका विपुल साहित्य पढ़ने को उपलब्ध होता।
निश्तर साहब के लिए किसी भी विधा में लिखना सामान्य-सी बात थी , किंतु उनके व्यक्तित्व का एक प्रभावशाली पक्ष ये था कि उनकी दृष्टि सदैव आदमी और उसके भीतर के आदमी, समाज और उसके भीतर के समाज पर टिकी रहती थी , जो यथार्थ को कला के सुंदर रूप में प्रस्तुत करती है. निश्तर ख़ानक़ाही के नाम की साहित्यिक रूप में व्याख्या कर डा. मीना अग्रवाल लिखती हैं- 'नश्तर या निश्तर का अर्थ है चीर-फाड़ करने का यंत्र। साहित्य में चीर-फाड़ शब्दों के स्तर पर भी होती है। निश्तर साहब की शायरी भी एक ऐसा ही नश्तर है कि पाठक के दिल में स्वयं बिंध जाता है। उनकी शायरी हृदय को छूने वाली है।'
खुदा हाफिज़ कहने से पहले चलिए पढ़ते हैं निश्तर साहब की एक अलग ही रंग में कही ग़ज़ल के चंद शेर जिसे अंदाज़ा हो जाता है के वो किस पाए के शायर थे और अपनी बात किस ख़ूबसूरती से कहने में माहिर थे :
Monday, November 7, 2011
आप थे फूल टहनियों पे सजे
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Monday, October 24, 2011
किताबों की दुनिया - 62
*****
मात्र साठ सत्तर शायरी की किताबें पढ़ लेने के बाद मुझे ये गलत फ़हमी हो चली थी कि मैंने उर्दू हिंदी के बेहतरीन समकालीन शायरों को पढ़ लिया है और अब अधिक कुछ पढने को बचा नहीं है. मुझे ही क्या हम सभी ऐसी गलत फ़हमी के शिकार होते हैं. किसी एक विषय पर सतही जानकारी इकठ्ठा कर अपने आपको प्रकांड पंडित समझने लगते हैं. हजारों वर्षों से इंसान न जाने कितने विषयों पर खोज करता आया है और ये खोज आज तक पूरी नहीं हुई है. हम दरअसल वो अंधे हैं जो हाथी के किसी एक हिस्से को पकड़ कर उसे ही हाथी समझने का भ्रम पाल लेते हैं.
खैर मेरी ये ग़लतफहमी बनी रहती अगर मैंने जनाब "अकील नोमानी" साहब की किताब "रहगुज़र" नहीं पढ़ी होती. सच कहूँ तो मैंने अकील साहब के बारे में अधिक नहीं सुना था, ये तो युवा शायर "गौतम राजरिश" जी ने एक बार कहीं फेस बुक पर उनके नाम का जिक्र किया तो मैंने उन्हें खोजने की प्रक्रिया शुरू की. खोज करने से नोमानी साहब तो मिले ही साथ में उनकी बेहतरीन शायरी की किताब भी मिल गयी.
शायर तो 'अकील' बस वही है
लफ़्ज़ों में जो दिल पिरो गया है
लफ़्ज़ों में दिल पिरोने वाले इस शायर के बारे में क्या कहूँ? जब से "रहगुज़र" पढनी शुरू की है इसमें से बाहर आने को दिल ही नहीं करता.डा. मंजूर हाश्मी साहब की उनके बारे में कही ये बात कि "अकील की शायरी एक दर्दमंद और पुरखुलूस दिल की आवाज़ है" इस किताब को पढने के बाद शतप्रतिशत सही लगती है.
मेरी ग़ज़ल में हैं सहरा भी और समंदर भी
ये ऐब है कि हुनर है मुझे ख़बर ही नहीं
सहरा और समंदर का एक साथ लुत्फ़ देने वाली इस किताब की चर्चा आज हम अपनी इस श्रृंखला में करेंगे और जानेंगे कि क्यूँ राहत इन्दौरी साहब को गुज़िश्ता तीस पैंतीस बरस में किसी नए शायर ने इतना मुतास्सिर नहीं किया, जितना अकील नोमानी ने.
आंसुओं पर ही मेरे इतनी इनायत क्यूँ है
तेरा दामन तो सितारों से भी भर जाएगा
तुम जो हुशियार हो, खुशबू से मुहब्बत रखना
फूल तो फूल है, छूते ही बिखर जाएगा
हर कोई भीड़ में गुम होने को बैचैन -सा है
उडती देखेगा जिधर धूल, उधर जाएगा
भीड़ में गुम होने से हमें सुरक्षा का एहसास होता है. लेकिन में भीड़ में गुम लोगों के चेहरे नहीं होते पहचान नहीं होती और जिन्हें अपनी पहचान करवानी होती है ऐसे बिरले साहसी लोग भीड़ में शामिल नहीं होते भीड़ से अलग रहते हैं, जो जोखिम भरा काम होता है. अकील साहब सबमें शामिल हैं मगर सबसे जुदा लगते हैं. सब में शामिल हो कर सबसे जुदा लगने का हुनर बिरलों में ही होता है, और बिरले ही ऐसे शेर कह सकते हैं:
ज़िन्दगी यूँ भी है, ज़िन्दगी यूँ भी है
या मरो एकदम या मरो उम्र भर
या ज़माने को तुम लूटना सीख लो
या ज़माने के हाथों लुटो उम्र भर
उनको रस्ता बताने से क्या फायदा
नींद में चलते रहते हैं जो उम्र भर
अकील साहब इतने बेहतरीन शेर कहने के बावजूद भी निहायत सादगी से अपने आपको उर्दू शायरी का तालिबे इल्म ही मानते हैं. उनका ये शेर देखें जिसमें उन्होंने किस ख़ूबसूरती इस बात का इज़हार किया है:
मंजिले-शेरो-सुख़न, सबके मुकद्दर में कहाँ
यूँ तो हमने भी बहुत काफ़िया-पैमाई की
उन्हें इस बात का जरा सा भी गुरूर नहीं है कि वो उर्दू के बेहतरीन शायर हैं जबकि मैंने देखा है अक्सर लोग मुशायरों में महज़ तालियाँ बजवाने के लिए निहायत सतही शेर कहते हैं लेकिन अकील साहब के संजीदा कलाम लोग पिछले तीस सालों से मुशायरों में बड़े अदब के साथ सुनते आ रहे हैं.
ख़ुशी गम से अलग रहकर मुकम्मल हो नहीं सकती
मुसलसल हंसने वालों को भी आखिर रोना पड़ता है
अभी तक नींद से पूरी तरह रिश्ता नहीं टूटा
अभी आँखों को कुछ ख्वाबों की खातिर सोना पड़ता है
मैं जिन लोगों से ख़ुद को मुखतलिफ़ महसूस करता हूँ
मुझे अक्सर उन्हीं लोगों में शामिल होना पड़ता है
अकील साहब के बारे में उस्ताद शायर "सर्वत ज़माल" साहब की टिप्पणी काबिले गौर है वो कहते हैं "अकील नोमानी ऐसा एक शायर है जो सिर्फ दिखने में पत्थर नज़र आता है लेकिन करीब आओ तो उसकी मोम जैसी नरमी और शहद जैसी मिठास का अंदाज़ा होता है, मुझे ख़ुशी है कि मैं उनके करीब बहुत करीब हूँ." अकील साहब के ये शेर सर्वत साहब की बात की ताकीद करते हैं:
कैसी रस्में, कैसी शर्तें
चाहत तो चाहत होती है
वस्ल के लम्हों ने समझाया
दुनिया भी जन्नत होती है
उन आँखों को याद करो तो
दर्द में कुछ बरकत होती है
हुनर को पनपने के लिए कभी सुविधाओं या किसी बड़े शहर की जरूरत नहीं होती. अकील साहब ने अपनी शायरी का सफ़र बरेली के एक छोटे से कस्बे "मीरगंज " शुरू किया और पिछले सत्ताईस सालों से वो वहीँ रह कर उर्दू अदब की सेवा कर रहे हैं. एक साधारण से काश्तकार लेकिन अदब के असाधारण प्रेमी पिता के बेटे अकील साहब को शेरो शायरी का फ़न घुट्टी में नसीब हुआ. मात्र बीस साल की उम्र में अपने उस्ताद ज़लील नोमानी की रहनुमाई में वो शेर कहने लगे और पत्र-पत्रिकाओं में छपने भी लगे. सन 1978 से शुरू हुआ ये सिलसिला आज तक बदस्तूर ज़ारी है.
मैं ही तो नहीं सर्द मुलाक़ात का मुजरिम
पहले की तरह तू भी तो हंस कर नहीं मिलता
जिस दिन से सब आईने खुले छोड़ दिए हैं
उस दिन से किसी हाथ में पत्थर नहीं मिलता
मिल जाऊं तो दुनिया मुझे खोने नहीं देती
खो जाऊं तो ख़ुद को भी मैं अक्सर नहीं मिलता
"रहगुज़र" किताब हम जैसे अलीबाबाओं के लिए जो अच्छी शायरी की खोज में दर बदर ख़ाक छानते रहते हैं किसी ख़जाने से कम नहीं.एक ऐसा खज़ाना जो कभी खाली नहीं होता. इस किताब को गुंजन प्रकाशन , सी-130 , हिमगिरी कालोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद ने प्रकाशित किया है. इसकी प्राप्ति की सूचना के लिए आप 0591-2454422 पर फोन करें अथवा मोबाईल नंबर 099273-76877 पर संपर्क करें. सबसे श्रेष्ठ बात तो ये रहेगी कि आप नोमानी साहब को इस किताब के लिए उन्हें उनके मोबाइल 094121-43718 अथवा 093593-42600 पर बधाई दें और साथ ही इसे प्राप्त करने का सरल रास्ता भी पूछ लें .
ख़ुद को सूरज का तरफ़दार बनाने के लिए
लोग निकले हैं चराग़ों को बुझाने के लिए
सब हैं संगीनी-ऐ-हालात से वाकिफ लेकिन
कोई तैयार नहीं सामने आने के लिए
कितने लोगों को यहाँ चीखना पड़ता है 'अकील'
एक कमज़ोर की आवाज़ को दबाने के लिए
"रहगुज़र" का खुमार तो आसानी से उतरने से रहा...दिल करता है इस किताब पर अविराम लिखता चला जाऊं...लेकिन पोस्ट की अपनी मजबूरी है, इस किताब में से कुछ अशआर मैंने बतौर नमूना आपके सामने पेश किये हैं, इस खजाने में इन मोतियों के अलावा जो हीरे जवाहरात हैं उन्हें खोजने के लिए आपको स्वयं कोशिश करनी होगी. जल्द ही मिलते हैं एक और शायरी की किताब के साथ. चलते चलते आखिर में पढ़िए उनकी छोटी बहर की एक ग़ज़ल के चंद शेर...
उन ख्यालों का क्या करें आखिर
जो सुपुर्दे - कलम नहीं होते
बारिशों ही से काम चलता है
खेत शबनम से नम नहीं होते
उसका ग़म भी अजीब होता है
जिसको औरों के ग़म नहीं होते
Monday, October 10, 2011
पत्तों सा झड़ जाना क्या
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Monday, October 3, 2011
किताबों की दुनिया - 61
"अशआर में तेरे जो ये जिद्दत नहीं होती"… वाह...देखिये कितनी सही और गहरी बात की है. दुनिया में जो सब कर रहे हैं उसी को किये जाने में भला क्या लुत्फ़ है ? अपनी पहचान बनाने के लिए आपको कुछ अलग करना ही पड़ता है, अगर नहीं करेंगे तो आप भीड़ में गुम हो जायेंगे. हमारे आज के शायर जनाब " डा. महताब हैदर नक़वी" जिनकी किताब "हर तस्वीर अधूरी " का हम जिक्र करने जा रहे हैं, भीड़ में होते हुए भी भीड़ से अलग हैं.
![](http://2.bp.blogspot.com/-jlQO6BHZwcc/TmB8C3KEZBI/AAAAAAAADOI/Hg2nL27WtyM/s320/6023_Har-Tashvir-Adhuri_l.jpg)
समकालीन उर्दू शायरी के आठवें दशक में उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज करवाने में जावेद अख्तर ,निदा फ़ाज़ली, जुबैर रिज़वी, अमीन अशरफ, शीन काफ़ निजाम, तरन्नुम रियाज़, आलम खुर्शीद आदि के साथ जनाब महताब हैदर नक़वी साहब का नाम भी लिया जाता है. उनकी शायरी में हमारे आज की समस्याएं परेशानियाँ सुख दुःख झलकते हैं, इसलिए उनकी शायरी हमें अपनी सी लगती है. वो आज के बिगड़ते हालत को देख चिंतित भी हैं तो कहीं उसी में उन्हें उम्मीद की किरण भी नज़र आती है.
उम्मीद करता हूँ के आपको नक़वी साहब की शायरी पसंद आई होगी. शायर की हौसला अफजाही के लिए गुज़ारिश है के आप उन्हें इस बेहतरीन शायरी के लिए उनके मोबाइल 09456667284 पर फोन कर मुबारकबाद जरूर दें .ये मोबाईल नंबर मुझे नैट से बहुत मुश्किल से मिला है, मेरी इस मेहनत का सिला सिर्फ उन्हें फोन पर दाद दे कर ही दिया जा सकता है. अगली किताब की तलाश में चलने से पहले लीजिये पेश करता हूँ नक़वी साहब की एक ग़ज़ल के तीन और शेर :
Monday, September 26, 2011
सुखनवर
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अगर मैं आपसे पूछूं कि क्या आप जनाब अनवारे-इस्लाम को जानते हैं तो आप में से अधिकांश शायद अपनी गर्दन को ऊपर नीचे हिलाने की बजाय दायें बाएं हिलाएं. आपकी गर्दन को दायें बाएं हिलते देख मुझे ताज़्जुब नहीं होगा. अदब से मुहब्बत करने वालों का यही अंजाम होता देखा है. जो बाज़ार में बैठ कर बिकाऊ नहीं हैं उन्हें भला कौन जानता है ? खुद्दारी से अपनी शर्तों पर जीने वाले इंसान विरले ही होते हैं और ऐसे विरले लोग ही ऐसा शेर कह सकते हैं:-
इस्लाम भाई भोपाल निवासी हैं और एक पत्रिका "सुखनवर "चलाते हैं. अनेक राज्यों से सम्मान प्राप्त और लगभग साठ से ऊपर एडल्ट एजुकेशन की किताबों के लेखक इस्लाम भाई ने फिल्मों और टेलीविजन के धारावाहिकों में लेखन और अभिनय भी किया है. बहुमुखी प्रतिभा के धनि जनाब अनवारे इस्लाम साहब से मुझे गुफ्तगू करने का मौका मिल चुका है, उनसे गुफ्तगू करना ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती को करीब से महसूस करने जैसा है. वो कमाल के शेर कहते हैं और तड़क भड़क से कोसों दूर रहते हैं. आईये आज उनके कुछ अशआर आप को पढवाएं
पता : सी -16 , सम्राट कालोनी ,अशोका गार्डन ,भोपाल -462023 (म .प्र .)
ई मेल : sukhanwar12@gmail.com
ब्लॉग : http://patrikasukhanwar.blogspot.com/
मोबाइल : 09893663536 फ़ोन : 0755-4055182
अब देखिये उस शख्श को जो जिसके चेहरे पर इत्मीनान है और कलम में जान है याने जनाब अनवारे इस्लाम साहब
![](http://2.bp.blogspot.com/-41W4pdCLP2k/TmBkJNzrQZI/AAAAAAAADN4/Dvr1gAdPF0s/s320/anware%2Bislam1.jpg)
Monday, September 19, 2011
किताबों की दुनिया - 60
![](http://2.bp.blogspot.com/-r87zod-DdgE/TmdNIWIzHOI/AAAAAAAADOU/DG-nDbgEGDs/s320/Barish%2BKhare%2BPaani%2Bki.jpg)
Monday, September 12, 2011
डरेगा बिजलियों से क्यों शजर वो
![](http://4.bp.blogspot.com/-nzcpz-uptUU/Tl4CllKph3I/AAAAAAAADNo/-ZBDLk1ImlA/s320/l2.jpg)
यहां अटके पड़े हैं आप 'नीरज'
वहां मंजिल सदाएं दे रही है
Monday, September 5, 2011
किताबों की दुनिया - 59
अफ़सोस "छाया गांगुली" जी का गीत तो बहुत अधिक चर्चित नहीं हुआ लेकिन इस फिल्म के एक दूसरे गीत ने धूम मचा दी. गीत के बोलों में आम जन को अपनी ही कहानी सुनाई दी. इस मधुर गीत को स्वर दिया था सुरेश वाडकर जी ने, आईये सुनते/देखते हैं:
आप सोच रहे होंगे ये क्या हुआ "किताबो की दुनिया " श्रृंखला में फिल्म की चर्चा कैसे? सही सोच रहे हैं,क्या है कि बात को घुमा फिरा कर कहना ही आजकल फैशन में है. चर्चा शुरू हमने जरूर फिल्म से की है लेकिन बात पहुंचाई है उस शायर तक जिसका नाम है "शहरयार". आज हम उन्हीं की किताब "सैरे ज़हां" की चर्चा करेंगे.
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डा.अख़लाक़ मोहम्मद खान "शहरयार" साहब की इस किताब की लोकप्रियता को देखते हुए वाणी प्रकाशन वाले 2001 से अब तक इसके तीन संस्करण निकाल चुके हैं लेकिन मांग है के पूरी ही नहीं हो पाती. आज के दौर में शायरी की किताब के तीन संस्करण बहुत मायने रखते हैं. इसकी खास वजह ये है के शहरयार साहब की शायरी उर्दू वालों को उर्दू की और हिंदी वालों को हिंदी की शायरी लगती है.
शहरयार साहब अपनी शायरी के माध्यम से इंसानी ज़िन्दगी में प्यार और सरोकार भरते हैं. ऐसी कोई हलचल जिस से ज़िन्दगी जीने में बाधा पड़े उनको नागवार गुज़रती है और वो इसका विरोध करते हैं. जीवन मूल्यों में होती लगातार गिरावट उन्हें दुखी करती है.
प्रसिद्द कथाकार कमलेश्वर कहते हैं " शहरयार को पढता हूँ तो रुकना पड़ता है...पर यह रूकावट नहीं, बात के पडाव हैं, जहाँ सोच को सुस्ताना पड़ता है- सोचने के लिए. चौंकाने वाली आतिशबाजी से दूर उनमें और उनकी शायरी में एक शब्द शइस्तगी है. शायद येही वजह है कि इस शायर के शब्दों में हमेशा कुछ सांस्कृतिक अक्स उभरते हैं...सफ़र के उन पेड़ों की तरह नहीं हैं जो झट से गुज़र जाते हैं बल्कि उन पेड़ों की तरह हैं जो दूर तक चलते हैं और देर तक सफ़र का साथ देते हैं "
आम उर्दू शायरी के दीवानों के लिए शहरयार सिर्फ उस शायर का नाम है जिसने फिल्म उमराव जान के गीत लिखे, उन्हें सामान्यतः मुशायरों में नहीं देखा /सुना गया है .उन्हें शायद मुशायरों में जाना भी पसंद नहीं है. उन्होंने ने साहित्य शिल्पी में छपे अपने एक साक्षात्कार में कहा है: "इंडिया मे मुशायरों और कवि सम्मेलनों मे सिर्फ चार बाते देखी जाती है- पहली, मुशायरा कंडक्ट कौन करेगा? दूसरी- उसमे गाकर पढ़्ने वाले कितने लोग होगे? तीसरी- हंसाने वाले शायर कितने होंगे और चौथी यह कि औरतें कितनी होगीं? मुशायरा आर्गेनाइज –पेट्रोनाइज करने वाले इन्ही चीजों को देखते है। इसमे शायरी का कोई जिक्र नहीं। हर जगह वे ही आजमाई हुई चीजें सुनाते है। भूले बिसरे कोई सीरियस शायर फँस जाता है, तो सब मिलकर उसे डाउन करने की कोशीश करते है। इसे आप पॉपुलर करना कह लीजिए। फिल्म गज्ल भी बहुत पॉपुलर कर रहे है। पर बहुत पापुलर करना वल्गराइज करना भी हो जाता है बहुत बार। इंस्टीट्यूशन मे खराबी नहीं, पर जो पैसा देते है, वे अपनी पसद से शायर बुलाते है। गल्फ कंट्रीज मे भी जो फाइनेंस करते है, पसद उनकी ही चलती है। उनके बीच मे सीरियस शायर होगे तो मुशकिल से तीन चार और उन्हे भी लगेगा जैसे वे उन सबके बीच आ फँसे है। जिस तरह की फिलिंग मुशायरो के शायर पेश करते है, गुमराह करने वाली, तास्तुन, कमजरी वाली चीजें वे देते है, सीरियस शायर उस हालात मे अपने को मुश्किल मे पाता है।"
शहरयार साहब की अब तक चार प्रसिद्द किताबें उर्दू में शाया हो चुकी हैं उनकी सबसे पहली किताब सन १९६५ में "इस्मे-आज़म", दूसरी १९६९ में " सातवाँ दर", तीसरी १९७८ में "हिज्र के मौसम" और चौथी १९८७ में " ख्वाब के दर बंद हैं" प्रकाशित हुई. उर्दू के अलावा देवनागरी में भी उनकी पांच किताबें छप कर लोकप्रिय हो चुकी हैं.सैरे-जहाँ किताब की सबसे बड़ी खूबी है के इसमें उनकी चुनिन्दा ग़ज़लों के अलावा निहायत खूबसूरत नज्में भी पढने को मिलती हैं. वाणी प्रकाशन वालों ने इसे पेपर बैक संस्करण में छापा है जो सुन्दर भी है और जेब पर भारी भी नहीं पड़ता.
आखरी में देखते सुनते हैं वो गीत जिसने शहरयार साहब के नाम को हिन्दुस्तान के घर घर में पहुंचा दिया. आज तीस साल बाद भी जब ये गीत कहीं बजता है तो पाँव ठिठक जाते हैं. इस गीत में रेखा जी की लाजवाब अदाकारी,आशा जी की मदहोश करती आवाज़,खैय्याम साहब का संगीत और शहरयार साहब के बोल क़यामत ढा देते हैं.