Monday, November 23, 2020

किताबों की दुनिया -219


तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझको क़बूल 
ये सहूलत तो मुझे सारा जहाँ देता है 
*
सभी ने देखा मुझे अजनबी निगाहों से 
कहाँ गया था अगर घर नहीं गया था मैं 
*
मुस्कुराना सिखा रहा हूँ तुझे 
अब तिरा दुःख भी पालना पड़ेगा 
*
क्यों बात बढ़ाना चाहते हो 
तुम अपनी कमगुफ़्तारी से 
कम गुफ़्तारी -कम बोलना
*
ख़ुद ही पढ़ते हैं क़सीदे उसके 
ख़ुद ही दाँतों से ज़ुबाँ काटते हैं 
*
मैं जानता हूँ मुझे मुझसे माँगने वाले 
पराई चीज़ का जो लोग हाल करते हैं 
*
हम अगर अबके साल भी न मिले 
फिर उधेड़ोगी तुम ये स्वेटर क्या 
*
तुझे खोकर तो तिरी फ़िक्र बहुत जायज़ है 
तुझे पाकर भी तिरा ध्यान रखा जाएगा क्या 
*
मैं ये चाहता हूँ कि उम्र भर रहे तिश्नगी मिरे इश्क़ में 
कोई जुस्तज़ू रहे दरमियाँ तिरे साथ भी तिरे बाद भी   
*
तुम अपने कर्ब का इज़हार कर भी सकती हो 
कि प्याज़ काट के ये वक़्त कट भी सकता है 
कर्ब: दुःख  
*
अब तो इक़रार भी नहीं दरकार 
अब तिरी ख़ामुशी का क्या कीजे 
*
बाज़-औक़ात ख़ुशी छू के गुज़र जाती है 
रह भी जाती है कभी लॉटरी इक नंबर से   
  
ओकाड़ा , पाकिस्तान के पंजाब प्रोविन्स का एक शहर जिसमें मोहल्ले हैं और मोहल्ले के घर एक दूसरे से जुड़े हुए। देखा ये गया है कि जहाँ घर जुड़े होते हैं वहां उनमें रहने वाले लोगों के दिल भी आपस में जुड़े होते हैं। लोगों की तकलीफें और खुशियाँ सांझी होती हैं। सबको पता होता है कि किसके घर के सामने वाले पेड़ का पीला पत्ता टूट के नीचे गिरा है और किसके पड़ौस के पेड़ में फल लगे हैं। इन्हीं मोहल्ले में से एक मोहल्ले का बच्चा एक घर से दूसरे घर यूँ घुसता है जैसे दूसरा घर भी उसके अपने घर का ही विस्तार हो। किसी भी घर में जा कर कुछ भी मांग के खा लेता है ये हाल सिर्फ़ इस बच्चे का ही नहीं है सभी बच्चों का है। यहाँ के सभी बच्चों के लिए मोहल्ले के सभी घर उनके अपने हैं।
जिस बच्चे का ज़िक्र मैं कर रहा हूँ उसकी पैदाइश 31 अगस्त 1980 की है और उसके घर का माहौल अलबत्ता थोड़ा सख़्त है। माँ-बाप दोनों सख़्त मिज़ाज़ हैं लेकिन बच्चे से प्यार करने वाले हैं। बच्चे को घर में शरारतें करने की सहूलिहत नहीं मिलती लिहाज़ा वो ये काम बाहर करता है। बच्चा अपने शहर ,मोहल्ले में बहुत खुश है उसे लगता है शायद सारी दुनिया इतनी ही खूबसूरत है और सारी दुनिया के लोग आपस में ऐसे ही मोहब्बत से रहते हैं। बच्चे की ज़िन्दगी के पंद्रह सोलह साल यूँ ही हँसी ख़ुशी से बीत जाते हैं । तभी एक दिन बच्चे के वालिद ऐलान करते हैं कि वो लोग ओकाड़ा छोड़ कर अपने और बच्चों के बेहतर मुस्तक़बिल के लिए जल्द ही लगभग 250 की.मी. दूरी पर बसे बड़े शहर बहावलपुर जा कर बस जाएँगे जहाँ उनके बाकि रिश्तेदार रहते हैं । बच्चा समझ नहीं पाता कि वो इस बात पर ख़ुशी ज़ाहिर करे या अपने पुराने दोस्त और मोहल्ले को छोड़ने का ग़म मनाये।               

धूप में साया बने तन्हा खड़े होते हैं 
बड़े लोगों के ख़सारे भी बड़े होते हैं 
ख़सारे - नुक़सान 
*
ले आयी छत पे क्यों मुझे बेवक़्त की घुटन 
तेरी  तो ख़ैर बाम पे आने की उम्र है 
*
उसे कहो जो बुलाता है गहरे पानी में 
किनारे से बँधी किश्ती का मसअला समझे 
*
वो दस्तयाब हमें इसलिए नहीं होता 
हम इस्तेफ़ादा नहीं देखभाल करते हैं 
इस्तेफ़ादा -लाभ उठाना 
*
दफ़्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वगरना मैं 
बारिश की एक बूँद न बेकार जाने दूँ 
*
यानी अब भी सादा दिल हूँ अंदर से 
अच्छा चेहरा देख के धोका खाता हूँ 
*
बेतकल्लुफ़ है बहुत मुझसे उदासी मेरी 
मुस्कुराऊँ तो पकड़ती है मुझे कॉलर से 
*
हम हुए क्या ज़रा ख़फ़ा तुमसे 
जिसको देखो तुम्हारा हो गया है 
*
बदल के देख चुकी है रियाया साहिबे-तख़्त 
जो सर क़लम नहीं करता ज़ुबान खींचता है 
साहिबे-तख़्त: राजा 
*
हमारे ग़म कहीं कम पड़ गए तो क्या होगा  
इरादा है कि अभी हमने और जीना है 
*
होते-होते होगा वस्ल हमारा पाक तकल्लुफ़ से 
पैर अभी मानूस नहीं है नये-नवेले बूट के साथ 
*
सर झटकने से कुछ नहीं होगा 
मैं तिरे हाफ़िज़े में रह गया हूँ 
हाफिज़े: मष्तिष्क/ याददाश्त 


तब किसे पता था कि बहावलपुर आकर ये बच्चा शायरी करेगा और एक दिन पूरी दुनिया में 'अज़हर फ़राग़' के नाम से जाना जायेगा। 'अज़हर फ़राग़' साहब की लाजवाब शायरी को हम हिन्दी पाठकों तक पहुँचाने के लिए सबसे पहले हमें जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब को उनकी ग़ज़लों के संपादन और इरशाद खान सिकंदर साहब को लिप्यांतर के लिए तहे दिल से शुक्रिया अदा करना होगा। ये दोनों ग़ज़लों के पारखी हैं इसलिए 'सरहद पार की शायरी' श्रृंखला की इस कड़ी में उन्होंने 'अज़हर साहब की शायरी के अनमोल मोती पिरोये हैं जिसे राजपाल एन्ड सन्स ने पहली बार देवनागरी में प्रकाशित किया है।    


दीवारें छोटी होती थीं लेकिन परदा होता था 
ताले की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था 
 
कभी-कभी आती थी पहले वस्ल की लज़्ज़त अंदर तक 
बारिश तिरछी पड़ती थी तो कमरा गीला होता था 

शुक्र करो तुम उस बस्ती में भी इक स्कूल खुला 
मर जाने के बाद किसी का सपना पूरा होता था 

जब तक माथा चूम के रुख़सत करने वाली ज़िंदा थी 
दरवाज़े से बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था

बहावलपुर ओकाड़ा से बड़ा शहर है लिहाज़ा इसमें रहने के तौर तरीक़े ओकाड़ा से अलग थे। मोहल्लों की जगह कॉलोनीज थीं जिनमें घर एक दूसरे से जुड़े हुए नहीं दूर दूर थे। लोगों के दिलों में भी जुड़ाव नहीं था। लोगों के आपसी सम्बन्ध दुआ सलाम और आप कैसे हैं? मैं ठीक हूँ, से आगे आसानी से नहीं बढ़ते थे। अज़हर को शुरू शुरू में ऐसे माहौल में बड़ी घुटन महसूस होने लगी। कुछ दिन अनमने से बीते, धीरे धीरे कॉलेज के दोस्तों के बीच मन रमने लगा और पता नहीं कब अज़हर को शायरी का शौक लग गया। उम्र के इस बासंती मोड़ पर जब हर तरफ़ फूल खिले नज़र आते हैं और हवाओं में चन्दन की महक आने लगती है अधिक तर नौजवान अपने दिल में उमड़ रहे ज़ज़्बातों को शायरी, कविता के माध्यम से वयक्त करने लगते हैं। एक उम्र के बाद बहुत से तो इस रुमानियत से बाहर निकल कर दूसरी तरफ़ चल देते हैं और कुछ बिरले इसमें डूब जाने की सोचने लगते हैं। अज़हर को शायरी से बेपनाह मोहब्बत हो गयी लेकिन उसे कोई सही ग़लत बताने वाला उस्ताद नहीं मिल रहा था। सीनियर शायरों का रुख़ बेहद रूखा था और वो सिखाने के नाम पर मुँह बना लिया करते थे। ऐसे में किसी ने उन्हें उस्ताद शायर 'नासिर अदील' साहब का नाम सुझाया जो उस वक्त अपनी नासाज़ तबियत के चलते शायरी छोड़ चुके थे। 

हर शीशे का डर है भय्या 
बच्चों वाला घर है भय्या 

ऐनक का वावैला करना 
ठोकर से बेहतर है भय्या 
वावैला: हंगामा  

मैं जो तुमको खुश दिखता हूँ 
पर्दे की झालर है भय्या 

आधा-आधा रो लेते हैं 
एक टिशू पेपर है भैय्या 

अपनी एक ग़ज़ल कागज़ पर लिख कर अज़हर साहब 'अदील' साहब को ढूंढते ढूंढते उन तक जा पहुँचे। 'अदील' साहब को मिल कर उन्हें लगा जैसे किसी दरवेश से मिल रहे हों। बड़े अदब से अज़हर साहब ने उन्हें आदाब किया और वो कागज़ जिस पर वो अपनी ग़ज़ल लिख कर लाये थे उनके सामने रख दिया। 'अदील' साहब ने कागज़ उठाया ग़ज़ल पढ़ी और कागज़ को बड़ी ऐतियाद से एक और रख कर अज़हर साहब को गौर से देखा और उन्हें मीर की एक ग़ज़ल सुनाई उसका मतलब समझाया फिर ग़ालिब का शेर सुना कर उसकी व्याख्या की आखिर में कुमार पाशी की एक ग़ज़ल सुना कर उसके रदीफ़ काफ़िये के इस्तेमाल पर विस्तार से बताते रहे। एक आध घंटे की इस गुफ़्तगू के दौरान एक बार भी उन्होंने उस ग़ज़ल की चर्चा नहीं की जो अज़हर साहब अपने साथ लाये थे। अगले दिन अज़हर साहब अपनी एक और ग़ज़ल 'अदील' साहब को दिखाने जा पहुंचे और 'अदील' साहब ने फिर वो ही किया जो पहले दिन किया था, इस बार उन्होंने नासिर काज़मी, ज़फर इक़बाल और फ़िराक़ साहब का कलाम उन्हें बड़े मन से सुनाया और उसके एक एक लफ्ज़ पर चर्चा की। ये सिलसिला इसी तरह एक दो महीने तक रोज यूँ ही चलता रहा। कागज़ पर लिख कर लाई अज़हर साहब की ग़ज़लें एक के ऊपर एक तह कर बिना किसी चर्चा के रखी जाती रहीं। धीरे धीरे अज़हर साहब उस्तादों के कलाम और उनकी बारीकियां 'अदील' साहब  से सुन सुन कर समझ गये कि जो ग़ज़लें रोज़ रोज़ कागज़ पर लिख कर वो ला रहे हैं उन्हें ग़ज़ल कहना ग़ज़ल की तौहीन है। अब ऐसे उस्ताद की शान में सिर्फ सजदा ही किया जा सकता है जो बिना कुछ कहे आपको ये अहसास करवा दे कि बरखुरदार ग़ज़ल कहना इतना आसान नहीं है जितना समझा जा रहा है।  

तुझसे कुछ और तअल्लुक़ भी ज़रूरी है मिरा 
ये मुहब्बत तो किसी वक़्त भी मर सकती है 

मेरी ख़्वाहिश है कि फूलों से तुझे फतह करूँ 
वरना ये काम तो तलवार भी कर सकती है 

हो अगर मौज में हम जैसा कोई अँधा फ़क़ीर 
एक सिक्के से भी तक़दीर सँवर सकती है 

इस बात को अच्छे से समझने के बाद अज़हर साहब ने 'अदील' साहब से सबसे पहले ग़ज़ल का अरूज़ सीखा ,लफ्ज़ बरतने का हुनर और ग़ज़ल के क्राफ्ट की बारीकियाँ समझीं। जब बात कुछ समझ में आयी तब उन्होंने उस्ताद की रहनुमाई में ग़ज़लें एक बार फिर से कहनी शुरू कीं।  'अदील' साहब का ये जुमला कि 'कोरस में गाने वाले का अपना सुर कितना भी सुरीला हो सोलो गाने वाले के जैसी पहचान नहीं बना सकता' अज़हर साहब ने गाँठ बांध लिया और उस तरह की शायरी से अलग ऐसी शायरी करनी शुरू की जो विषय और क्राफ्ट में सबसे अलग थी। नतीज़ा ? वो हज़ारों शायरों की भीड़ में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए। बड़ा उस्ताद वो होता है जिसके शागिर्द उसकी जैसी नहीं बल्कि उस से बेहतर शायरी करते हैं। शागिर्द के नाम से उस्ताद का नाम रौशन होना चाहिए। अज़हर साहब की शायरी की कामयाबी के ताज में उस दिन एक बेशकीमती रत्न तब जुड़ा जब 2017 में 'जावेद अख़्तर' साहब ने अपनी सदारत में दुबई के एक मुशायरे में उन्हें सुनने के बाद कहा कि "यार अब तुम्हारे बाद क्या मुशायरा पढ़ना है ?"

मुहब्बत के कई मानी हैं लेकिन 
ज़ियादा सामने का सिर्फ़ तू है 

दुआ भूली हुई होगी किसी को 
फ़लक पर इक सितारा फ़ालतू है 

कहीं भी रख के आ जाता हूँ खुद को 
न जाने किस को मेरी जुस्तजू है 

ख़ुदा सुनता है जैसे बेज़बाँ की 
नमाज़ उस की भी है जो बेवज़ू है 

ऐसा नहीं है कि ये कामयाबी जनाब अज़हर फ़राग़ को रातों रात मिल गयी। इस कामयाबी और अपनी मौजूदगी को दर्ज़ करवाने में उन्हें एक लम्बा अरसा लगा। अपना रास्ता, जो सबसे अलग हो, उसे खोजना और फिर उस पर चलना आसान नहीं होता। जिस तरह के रंग की शायरी अज़हर साहब करते थे वो उस ज़माने में क़बूल ही नहीं होती थी। एक बार जब उन्होंने एक बहुत नामवर प्रगतिशील शायर को अपना ये शेर 2001 में सुनाया कि 'ग़लत न जान मेरी दूसरी मोहब्बत को , यकीन कर ये तेरे हिज्र की तलाफ़ी है (हिज्र -बिछोह , तलाफ़ी-प्रायश्चित ) तो वो उनके मुँह की और हैरत से तकता रहा और सर झटक कर चल दिया। उस जमाने में ,जब अहमद फ़राज़ का ये शेर ' हम मोहब्बत में भी तौहीद (ईश्वर को एक मानना )के कायल हैं फ़राज़, एक ही शख़्स को महबूब बनाये रक्खा' पाकिस्तान की गली गली में मशहूर था, लोग इस बात पे यकीन रखते थे कि 'मोहब्बत एक से होती है हज़ारों से नहीं, रौशनी चाँद से होती है सितारों से नहीं' अज़हर का ये शेर कि 'तुझसे कुछ और ताल्लुक भी जरूरी है मेरा , ये मोहब्बत तो किसी वक्त भी मर सकती है' लोगों के गले नहींउतरा।               
वक़्त बदला लोगों की सोच बदली और कल तक अज़हर फ़राग़ की जिस शायरी को नकार दिया गया था उससे नयी नस्ल के लोग जुड़ने लगे। नौजवान शायरों ने उनकी राह पकड़ी और शायरी में नयी फ़िज़ा के आने का ऐलान कर दिया। फ़राग़ साहब की इस सोच ने कि 'शायर को सालों के आगे का पता होना चाहिए , सौ साल बाद कैसी दुनिया होगी उसका तसव्वुर होना चाहिए तभी उसका नाम शायरी में ज़िंदा रहेगा।आज के हालत पर शायरी करना तो अख़बार की खबर लिखने जैसा काम होगा'  ग़ज़ल कहने के अंदाज़ को बदल दिया  

रात की आग़ोश से मानूस इतने हो गये 
रौशनी में आए तो हम लोग अंधे हो गये 
आग़ोश -गोद, मानूस -अभ्यस्त 

आंगनों में दफ़्न हो कर रह गई हैं ख्वाइशें 
हाथ पीले होते-होते रंग पीले हो गये 

भीड़ में गुम हो गये हम अपनी ऊँगली छोड़कर 
मुनफ़रीद होने की धुन में औरों जैसे हो गये 
मुनफ़रीद-अनूठे    

बड़े उस्ताद उन्हीं नौजवानों को अपना शागिर्द बनाया करते जिनसे या तो उन्हें कोई फ़ायदा हासिल होने की उम्मीद होती या फिर किसी दोस्ती या ताल्लुकात का क़र्ज़ चुकाना होता। इस वजह से ऐसे युवा जिनमें अच्छी शायरी करने का ज़ज़्बा तो होता था लेकिन उस्ताद तक रसाई का ज़रिया नहीं होता था ,आगे नहीं बढ़ पाते थे। इससे दोयम दर्ज़े के शायर मन्ज़रे आम पर छाने लगे और शायरी में गिरावट आने लगी। अज़हर साहब ने नौजवानो की इस तकलीफ़ को शिद्दत से महसूस किया क्यूंकि वो खुद भी शुरू में इस समस्या से दो चार हो चुके थे। 

तब अज़हर साहब ने, पाकिस्तान के नौजवान शायरों को ग़ज़ल की बारीकियां सीखने में मदद पहुँचाने की गरज़ से एक फ़ोरम का गठन किया। अज़हर साहब की रहनुमाई में इस फोरम से जुड़ कर नौजवान शायरों ने एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा और शायरी के क्षेत्र में नाम कमाया। बहावलपुर में 2010 के बाद 'नयी ग़ज़ल' की लहर चली जिसमें नौजवान शायरों ने उन सभी विषयों पर जो समाज में कभी टैबू समझे जाते थे, ग़ज़लें कहीं जो बहुत मकबूल हुईं, नयी ज़मीनें तलाशी गयीं, नए विषय उठाये गए, क्राफ्ट और कहन की खोज की गयी। ये सब करने में ग़ज़ल के उरूज़ के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी। नयी ग़ज़ल को रिवायती ग़ज़ल के एक्टेंशन के रूप में पेश किया गया। इस बदलाव ने ग़ज़ल में नयी जान फूंक दी ,पढ़ने सुनने वालों को इसमें ताज़गी का एहसास हुआ और इससे ग़ज़ल की लोकप्रियता में चार चाँद लग गए।

अज़हर साहब का मानना है कि जिस तरह आम पढ़ने सुनने वालों ने जहाँ इस नयी ग़ज़ल को ख़ुशी से अपनाया वहीँ आलोचक अभी भी ग़ज़ल की उसी पुरानी रवायत से चिपके बैठे हैं और इस ताज़गी को नकारने में लगे हैं। पारम्परिक लोग बदलाव को आसानी से नहीं स्वीकारते लेकिन वक़्त उन्हें बाद में स्वीकारने को मज़बूर कर देता है। सरकारों के भरोसे रहने से साहित्य का कभी भला नहीं हो सकता। पाठ्य पुस्तकों में अभी भी उन्हीं को जगह मिलती है जिनकी रचनाएँ अब अपना महत्व खो चुकी हैं याने सम-सामयिक नहीं हैं। सरकारों को चाहिये की वो चुनिंदा नौजवानों के कलाम भी पाठ्यपुस्तकों में लाये ताकि आने वाली पीढ़ी को अंदाज़ा हो कि आज के दौर की सोच और शायरी कैसी है।  

ग़ज़ल को पूरी तरह से समर्पित अज़हर भाई की दो किताबें सन 2006 में 'मैं किसी दास्ताँ से उभरूँगा' और सन 2017 में 'इज़ाला' के नाम से उर्दू में मंज़र-ऐ-आम पर आ चुकी हैं। हिंदी में जैसा की पहले बताया है ये ही एक मात्र किताब है जिसमें उनकी 80 ग़ज़लें संकलित हैं और सभी बार बार पढ़ने लायक हैं। 
अज़हर फ़राग़ साहब के बारे में सब कुछ एक पोस्ट में समेट लेना संभव नहीं लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं इसलिए थोड़े को ज्यादा माने और आखिर में उनके ये चंद अशआर पढ़ें :

हम जिसे चाहे अपना कहते रहें 
वही अपना है जिसे पा लिया जाय 
*
फिर उसके बाद गले से लगा लिया मैंने 
ख़िलाफ़ अपने उसे पहले ज़हर उगलने दिया 
*
ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किसकी 
लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को 
रियाज़त :अनवरत अभ्यास से आने वाली सिद्धता 
*
घर में किसका पाँव पड़ा 
छत से जाले उतर गये 
*       
 कुछ इतना सहल न था रौशनी से भर जाना 
नज़र दिये पे बड़ी देर तक जमानी पड़ी 
सहल: सरल 
*
कोई तो नाम हो तअल्लुक़ का 
किस हवाले से बोझ ढोया जाय

Monday, November 9, 2020

किताबों की दुनिया -218 

शहरों का भटकना मिरी आदत का करम था
जंगल की शुरुआत  तिरी याद ने की है
*
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे मौक़े पे निशाना भी ग़लत लगता है
*
क़त्ल होने की सिफ़त बाद के असबाक़ में है
पहले ख़ंजर की कसौटी पे उतरना सीखो 
सिफ़त-ख़ूबी , असबाक़-पाठों
*
कौन रक्खेगा ख़बर बाद में इस रिश्ते की
लाओ माँ-बाप की तस्वीर को उल्टा कर दूँ
*
अभी तो शक है ग़लत रहनुमाई करने का
हमें यक़ीन अगर हो गया तो क्या होगा
*
तन्हा रहने का सबब हो तो बहुत गहरा हो
वर्ना तन्हाई भी किरदार से गिर जाती है
*
जब से समझ में आया कि हम भी है आदमी
उस दिन से आदमी पे भरोसा नहीं किया
*
अना का बोझ भी रक्खा है मेरे शाने पर
ये हाथ काँप रहा है सलाम करते हुए
*
छोड़ कर खेल कैसे हट जाता
मैं जुआरी था और हार में था

बहुत कम किताबें ऐसी होती हैं जिन्हें पढ़ने के बाद आपका दिल कई दिनों तक दूसरी किताब उठाने को न करे। आप सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी में डूबे रहना चाहें। ऐसी किसी किताब का लिखने वाला अगर आपके लिए अनजान हो तो लुत्फ़ दुगना हो जाता है क्यूंकि नामी गरामी शायर से तो आपको उम्मीद होती ही है कि उसका कलाम क़ाबिले तारीफ़ होगा लेकिन जब अनजान शायर का क़लाम आपको झूमने पर मज़बूर कर दे तो वो ख़ुशी लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं हो सकती । इसे यूँ समझें कि अमूनन शराब की ब्रांड से हमें नशे का थोड़ा बहुत अंदाज़ा हो जाता है लेकिन अगर बोतल पर कोई ऐसा ब्रांड लिखा हो जिसे आपने कभी देखा सुना न हो और उसे पी कर उसका नशा उतरने का नाम न ले तो सोचिये उसका मज़ा क्या होगा ? 
उस्ताद शायर और संपादक 'तुफ़ैल चतुर्वेदी' साहब और आज के दौर के नौजवान बेहतरीन शायर लिप्यांतरकार जनाब 'इरशाद ख़ान सिकंदर' साहब ने मिल कर हमें जिस शायर से मुलाकात करवाई है उसे पढ़ कर दोनों को फ़र्शी सलाम करने को जी चाहता है। अगर ये दोनों आपस में न मिलते तो यकीन जानिये 'राजपाल एन्ड संस' वालों की 'सरहद आर-पार की शायरी' वाली ये श्रृंखला इतनी दिलकश न होती। दोनों ही शायरी के मर्मज्ञ हैं, जौहरी हैं लिहाज़ा इनके हाथ से जो निकलेगा वो बहुमूल्य ही होगा। 
इस श्रृंखला के एक आध शायर को छोड़ बाकि के सभी शायर ऐसे हैं जिन्हें हिंदी पाठकों ने शायद ही कभी पढ़ा हो. पाकिस्तानी शायरों को न पढ़ पाने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन अपने देश के ऐसे बेमिसाल शायरों को हिंदी के पाठक इसलिए नहीं पढ़ पाए क्यूंकि नंबर एक ,उनका काम सिर्फ उर्दू में ही शाया हुआ है नंबर दो ,उन्होंने अपनी शायरी के मयार से कभी समझौता नहीं किया इसलिए वो मुशायरों के मंच पर लोकप्रिय होने के लिए कही जाने वाली सतही और चौंकाने वाली शायरी से ताल मेल नहीं बिठा पाये। 

हमारे घर के ग़मों का कोई सवाल नहीं
सवाल ये है कि दरवाज़ा खोलना है अभी

अँधेरी रात का लम्बा सफ़र तो बाद में है
ये जगमगाता हुआ शहर काटना है अभी

तुम्हारे साथ गुज़ारे हुए महीनों से
तुम्हें निकालते रहने का सिलसिला है अभी

अच्छी और मेयारी शायरी कभी भुलाई नहीं जा सकती। वो कभी न कभी सामने आती ही है और लोगों के दिलो दिमाग़ पर छा जाती है। जनाब तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब इस किताब की भूमिका में इसी बात को अपने ख़ास अंदाज़ में यूँ बयाँ करते हैं ' ऐसी शायरी किस काम की जिसे स्टेज पर ड्रामेबाज़ी गायकी का सहारा लेना पड़े ? मुशायरे में ग़ज़ल गायकी के बल पर या कूल्हा लगाने से चल जायेगी मगर वक़्त तो बड़ी ज़ालिम चीज है। उसकी नज़र में जगह बनाने के लिए बड़ी मेहनत दरकार है। वो निर्मम है। किसी का लिहाज़ नहीं करता। किसी का ड्रामा ,गाना उसे याद नहीं रहता बक़ौल जनाब दिलावर फ़िगार साहब 'ये टेंटुआ तो किताबों में छप नहीं सकता'। "

जो चोट दे गए उसे गहरा तो मत करो
हम बेवक़ूफ़ है कहीं चर्चा तो मत करो

माना के तुमने शहर को सर कर लिया मगर
दिल जा-नमाज़ है इसे रस्ता तो मत करो
जा-नमाज़ -नमाज़ पढ़ने की चटाई

तामीर का जुनून मुबारक तुम्हें मगर
कारीगरों के हाथ तराशा तो मत करो
तामीर -निर्माण

आज हम जिस शायर की बात कर रहे हैं उसे अपने दौर के कद्दावर शायर, जो अपनी अदाकारी के बल पर मुशायरों की जान हुआ करते थे, ने अपने साथ मिलाने की भरसक कोशिश की ,लुभावने वादे किये लेकिन कामयाब नहीं हो सके। ऐसा क्या था इस शायर में कि उसे अपने दल  में शामिल करने के लिए इस नामचीन शायर को मिन्नतें करनी पड़ीं ? जवाब है -उसकी लाजवाब शायरी। ऐसी शायरी जो सामईन के दिलो-दिमाग पर हमेशा के लिए तारी हो जाय। मैं आपको उस कद्दावर शायर का नाम तो नहीं बताऊंगा लेकिन उस शायर का नाम जरूर बताऊंगा , जिसने किसी भी दल का हिस्सा बनने से साफ़ इंकार कर दिया जिसने कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया जो अगर चाहता तो किसी का पिछलग्गू बन कर दाम और नाम दोनों कमाता। अपनी शर्तों पे जीने वाले और अकेले चलने वाले इस अज़ीम शायर का नाम था जनाब 'अहमद कमाल परवाज़ी'. 
हिंदी पाठकों के लिए ही नहीं बल्कि उर्दू जानने वालों के लिए भी ' परवाज़ी' साहब का नाम बहुत जाना पहचाना नहीं है। मैंने उनके बारे में जानने के लिए गूगल खंगाला अपने शायर मित्रों से बात की लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। आखिर उनके छोटे बेटे 'नावेद परवाज़ी' मेरी मदद को सामने आये। उनकी बदौलत ही आज आप 'परवाज़ी' साहब के बारे में पढ़ पा रहे हैं। उनकी बाकमाल शायरी को देवनागरी में पहली बार 'सरहद के आर-पार की शायरी' किताब में शाया किया है राजपाल एन्ड संस् ने।      


तिरी ख़्वाहिश से ऊपर उठ रहा हूँ
यही लम्हा नतीजा हो गया तो
*
ग़म का अहसास नहीं है तो अधूरापन है
एक आंसू भी टपक जाए तो पूरा हो जाउँ
*
नायाब कोई चीज़ गुज़रती है तो हम लोग
ये सोचने लगते हैं हमारी तो नहीं है
*
सही तो ये था कि रस्ते में ख़ुश्क हो जाता 
बुरा तो ये है कि दरिया में गिर गया दरिया 
*
जो खो गया है कहीं ज़िन्दगी के मेले में
कभी-कभी उसे आँसू निकल के देखते हैं
*
चलो ये देख लें अब किसकी जीत होती है
मैं ख़ाली हाथ तिरे हाथ में निवाला है
*
खिलौने बाद में पहले तू इस रसीद से खेल
ऐ मेरे लाल तिरी फ़ीस भर के आया हूँ
*
शुरू में मैं भी इसे रौशनी समझता था
ये ज़िन्दगी है इसे हाथ मत लगा लेना
*
बच्चों की तरह तुमको बरतना नहीं आता
दुनिया तो हवाओं में उड़ाने के लिए है
*
वो अगर आज की माँ है तो थपकती कब है
तू अगर आज का दिल है तो धड़कता क्यों है

महाकाल की नगरी 'उज्जैन' में 11 मार्च 1944 को कमाल साहब का जन्म हुआ। आठ भाई बहनों में वो सातवें नंबर पर थे। पिता उज्जैन के किसी हॉस्पिटल में कम्पाउंडर थे, घर की माली हालत अच्छी न होते हुए भी उन्होंने अपने सभी बच्चों को बेहतरीन तालीम दिलवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कमाल साहब के बड़े भाई इक़बाल हुसैन हॉकी के जबरदस्त खिलाड़ी होने के साथ साथ शायरी भी करते थे। अपने दोस्तों के घरों पर अक्सर होने वाली नशिस्तों में इक़बाल साहब अपने साथ कमाल साहब को भी ले जाते। अपने भाई के कलाम पर मिलती वाहवाहियों से कमाल साहब बहुत खुश होते और खुद भी वैसा ही कुछ लिखने की कोशिश करते। बड़े भाई को कमाल साहब ने एक आध बार अपना लिखा दिखाया जिसे उन्होंने देख कर ख़ारिज कर दिया लेकिन कमाल साहब ने लिखना नहीं छोड़ा। कभी कभी तो वो अपने भाई के क़लाम में कमियां निकाल कर उसे अपनी छोटी बहन को सुनाया करते क्यूंकि बड़े भाई को बताने से डाँट का डर जो था। ग़ज़ल सीखने के लिए उन्होंने उज्जैन के शायर 'तुफ़ैल' साहब की शागिर्दी तो की लेकिन ये सिलसिला ज्यादा दिन चला नहीं। ज़्यादातर वो अपने लिखे को तब तक काटते छाँटते रहते जब तक उन्हें अपने कलाम से पूरी तसल्ली न हो जाती।         

इक रोज़ तुमसे हाथ मिलाने की आरज़ू
इतनी शदीद थी कि मिरे हाथ जल गये
शदीद : तीव्र

मेरी तरह से ट्रेन भी सुनसान हो गई
एक-एक करके सारे मुसाफ़िर निकल गये

ये उन दिनों की बात है जब दर्द दर्द था
अब तो हमारे ज़ख़्म भी सोने में ढल गये

कॉलेज के दिनों में उनकी दोस्ती कुछ ऐसे लोगों से हुई जो गुंडे किस्म के थे जो जुआ खेलते और हर किसी से झगड़ते फिरते थे। दोस्तों के कहने पर कमाल साहब एक कमरा किराये पर लेकर लोगों को जुआ खिलाने लगे लेकिन खुद कभी नहीं खेला। इससे उन्हें आमदनी होने लगी और अपनी जेब, जैसा कि उन्होंने अपने बेटे नावेद को बताया,अठ्ठनियों चवन्नियों से भरने लगे। एक दिन उन्हें लगा कि जो ज़ायका कभी बड़ी मुश्किल से हाथ आयी चवन्नी की चाय पीने में आता था वो लोगों को जुआ खिला कर हासिल हुई दौलत से मिली चाय में नहीं आता है । बस उसी दिन से उन्होंने जुआ खिलाना बंद कर दिया और पढाई में लग गए।
एम.ए. एल.एल.बी की डिग्री हासिल करने के बाद जिला सहकारी केंद्रीय बैंक मर्यादित की 'मकदोने' ब्रांच में नौकरी करने लगे। मकदोने उज्जैन से लगभग 60 की.मी. दूर एक गाँव है। शुरू में तो मकदोने  की हवा उन्हें रास नहीं आयी इसलिए वापस उज्जैन चले आये लेकिन जब घरवालों ने नौकरी छोड़ने पर ऐतराज़ किया तो वापस लौट गए। यहीं से उनकी शायरी के सफ़र का आगाज़ हुआ। गाँव की खुली आबोहवा, खेत खलियान, कच्ची पगडंडियां, किसान और उनके परिवारों की खुशियां, परेशानियां , मिटटी की सौंधी खुशबू सब उनकी शायरी में जगह पाने लगे। बैंक पहुँचने के लिए उन्हें साईकिल से लम्बा रास्ता तय करना पड़ता था और इस पूरे रास्ते में उनका दिमाग शेर बुनता रहता जिसे वो बैंक पहुँचते ही कागज़ पर उतार लेते थे। शायर वही बन सकता है जो धुनी हो, ये पार्ट टाइम जॉब नहीं है, शायर को चौबीसों घंटे शायरी में ही डूबे रहना पड़ता है। दुनियादारी के काम साथ साथ चलते रहते हैं और दिमाग शेर कहने में उलझा रहता है। ये तपस्या है, इसे जो जितनी शिद्दत से करता है उतना ही उसे इसका फल मिलता है। कमाल साहब के बिस्तर पर तकिये के पास हमेशा एक रजिस्टर और पैन पड़ा रहता था जिसमें वो रात कभी भी उठ कर अचानक आया ख्याल दर्ज़ कर लिया करते थे। 

तुझसे बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ 
जिसपे मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ

तुम मिरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
मैं अगर झूठ न बोलूं तो अकेला हो जाऊँ

मैं तिरी क़ैद को तस्लीम तो करता हूँ मगर
ये मेरे बस में नहीं है कि परिन्दा हो जाऊँ

वो तो अंदर की उदासी ने बचाया वर्ना
उनकी मर्ज़ी तो यही थी कि शगुफ़्ता हो जाऊँ
शगुफ़्ता- खुशहाल

समझौता परस्ती कमाल साहब की आदत का हिस्सा नहीं थी। वो जो करते हमेशा अपनी तरफ से परफेक्ट किया करते। चाहे कपड़े पहनने का शऊर हो, बैंक का काम हो, लोगों से मेल मुलाकात हो, दोस्तों से दोस्ती हो, रिश्तेदारों से रिश्तेदारी निबाहना हो या बच्चों की पढाई हो याने कोई काम हो वो उसे पूरी शिद्दत और ईमानदारी से करने की कोशिश करते। यही कारण है कि उनकी शायरी उनके समकालीन शायरों से बहुत अलग और असरदार है। इस किताब के बाहरी फ्लैप पर कमाल साहब की शायरी का निचोड़ कुछ यूँ बयाँ किया गया है "अहमद कमाल परवाज़ी की शायरी जैसे ज़िन्दगी की मुश्किलों से होड़ लेती हुई। तीखे तंज़ कसती हुई सबको होशियार,ख़बरदार करती हुई आगे बढ़ती है। परवाज़ी रवायतों को तोड़ते हुए अपनी ग़ज़लों में ऐसे ऐसे विषय पिरोते हैं जो शायद पहली बार उर्दू ग़ज़ल का हिस्सा बने हैं जैसे -रबी और खरीफ़ की फ़सल, बच्चों के स्कूल की फ़ीस,सियासत के दाँव-पेच, गाँव की ज़िन्दगी ---"
ये अलग बात है कि उन्हें इस शायरी की बदौलत वो मक़बूलियत हासिल नहीं हुई जिसके वो हक़दार थे। मक़बूलियत का दरअसल आपके हुनर से कोई सीधा रिश्ता नहीं होता कई बार ये तिकड़म या किस्मत से हासिल होती है ,ज़्यादातर ये भी देखा गया है कि हुनरमंद लोगों को मकबूलियत आसानी से मिलती भी नहीं क्यूंकि वो अपने वक़्त से बहुत आगे की सोच वाले होते हैं। दूसरी ख़ासियत जो कमाल साहब के बेटे 'नावेद' ने मुझे बताई वो ये कि'कमाल' साहब बहुत सकारात्मक सोच के इंसान थे। कैसे भी हालात हों उनकी सोच हमेशा पॉजिटिव रहती। हर हाल में खुश रहना और अपने साथ रहने वालों को हमेशा खुश रखना उन्हें आता था। हर किसी की मदद करने में उन्हें ख़ुशी हासिल होती थी। घर परिवार के लोग, रिश्तेदार,दोस्त जब कभी किसी मौके पर एक साथ इकठ्ठा होते तो कमाल साहब को पुकारते जो अपने जुमलों और किस्सों से सबके पेट में हँसा हँसा कर दर्द कर दिया करते। लोग उनकी ज़िंदादिली की मिसाल दिया करते थे। 

तिरे ख़िलाफ़ गवाही तो दे रहा हूँ मगर
दुआएँ मांग रहा हूँ तिरी रिहाई की
*
मेरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
लोग तो अब भी समझते हैं कि घर जाता हूँ
*
हम इत्तिफाक़ से दोनों ही झूठ बोलते थे
यही तो चीज़ तअल्लुक़ में एतबार की थी
*
कह तो देता हूँ यहाँ लोग मिरे अपने हैं
बाद में नाम बताने में उलझ जाता हूँ
*
रंजिशें कैसे छोड़ सकता हूँ
शहर में अजनबी न हो जाऊँ
*
मेरा दिल  भी किसान है या रब
इसका कर्ज़ा अदा नहीं होता
*
घाव की शक्ल में निकलता है
चाँद बरसात के ज़माने में
*
उम्र भर पेड़ लगाने का नतीजा रख दे
ला मिरे हाथ पे सूखा हुआ पत्ता रख दे
*
ये तो अच्छा है कि हक़ मार रहे हो लेकिन
इससे क्या होगा अभी और निखरना सीखो
*
इसमें जीने की तमन्ना ही अजब लगती है
प्यार तो डूब के मरने के लिये होता है 

एक तो रिटायरमेंट दूसरे तीनों बेटों का पढ़ लिख कर नौकरी के सिलसिले में घर छोड़ कर बाहर जाना बेटियों का आगे की पढाई के लिए हॉस्टल का रुख करना कमाल साहब को तन्हा कर गया। इसी बीच एक ऐसा हादसा भी हुआ जो उन्हें नागवार गुज़रा जिसका यहाँ ज़िक्र करना उनकी निजी ज़िन्दगी में घुसपैठ जैसी हरक़त कहलाएगी लेकिन उसकी वजह से उन्हें गहरा सदमा लगा और वो दिल की बीमारी पाल बैठे। इसका एहसास उन्हें अपने एक भाई के इंतेक़ाल के बाद हुआ जब वो उन्हें दफ़ना कर लौट रहे थे लेकिन अपनी खुद्दारी के चलते उन्होंने अपनी इस तक़लीफ़ का इज़हार किसी नहीं किया। उन्हें अल्लाह के सिवा और किसी से कभी कोई उम्मीद नहीं रखी। अपनी परेशानी किसी को बताने के हक़ में कभी नहीं रहे। 
 29 दिसम्बर 2007 शाम की बात है तीन बेटों में से मँझला बेटा जो ईदुल जुहा पर घर आया हुआ था कमाल साहब से गले मिल कर नौकरी पर वापस जाने के लिए अपने दोनों भाइयों के साथ रेलवे स्टेशन के लिए निकला।अभी तीनो भाई स्टेशन पहुँचे ही थे कि कमाल साहब के अज़ीज़ दोस्त जिया साहब का बड़े भाई के पास फोन आया कि वापस घर पहुंचो तुम्हारे अब्बा की तबियत नासाज़ है उन्हें ठंडा पसीना आ रहा है। तीनो भाई वापस लौटे तब तक कमाल साहब हॉस्पिटल पहुँच चुके थे। एक घंटे की मशक्कत के बाद डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उनके ज़नाज़े में जैसे लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा। भले ही उज्जैन के बाहर लोग उन्हें ज्यादा न जानते हों लेकिन वो अपने शहर के लोगों के लाडले थे। 
उनके इंतेक़ाल के बाद एक दिन जब उनके बड़े भाई ने, जिन्होंने कभी उनके क़लाम को ध्यान से नहीं पढ़ा था, अचानक उनकी एक किताब को पढ़ना शुरू किया तो पढ़ते चले गए और आखिर में भरे गले से बोले 'अफ़सोस कमाल इतने कमाल का शायर था ये मुझे आज पता चला' .काश अपने बड़े भाई के इस जुमले को सुनने के लिए उस वक्त कमाल मौजूद होते।    

पहले मालूम नहीं था कि सफ़र होते हैं
अब ये मालूम नहीं है कि सफ़र कितने हैं

एक पत्ती से भी महरूम उगाने वाला
काटने वाले के हाथों में शजर कितने हैं

कल तलक कितना परेशान था घर की ख़ातिर
आज घर छोड़ के निकला हूँ तो घर कितने हैं

कमाल साहब की उर्दू में दो किताबें प्रकाशित हुई थीं पहली 1988 में 'मुख़्तलिफ़' और दूसरी 2005 में 'बरकरार'. कमाल साहब की दिली ख़्वाइश थी कि उनकी ग़ज़लें देवनागरी में भी शाया हों लेकिन ऐसा हो नहीं सका। सं 2009 में उनके दोस्तों ने उनकी ग़ज़लों को देवनागरी में  'चाँदी का वरक़' नाम की किताब में छपवाया। अफ़सोस, ये किताब हिंदी पाठकों के हाथ जितनी पहुँचनी चाहिए थी पहुँच नहीं पायी।अब तो शायद ही ये बाज़ार में मिले। देवनागरी में उनकी श्रेष्ठ ग़ज़लें अब 'सरहद आर-पार की शायरी' में ही संकलित हैं। ये किताब हर ग़ज़ल प्रेमी के संग्रह में होनी चाहिए क्यूंकि इसमें संकलित ग़ज़लें बार बार पढ़ने लायक हैं बल्कि यूँ कहूँ कि हज़ार बार पढ़ने लायक हैं तो ग़लत नहीं होगा। 
आख़िर में आईये उनके चंद चुनिंदा अशआर आपको पढ़वाता चलता हूँ :
     
छोटी सी एक बात पर मंज़र बदल गए 
दामन फटा तो हाथ से रिश्ते निकल गये 
*
अंगूठे दे के उतारा गया ख़रीफ का बोझ 
रबीअ फ़स्ल में बाज़ू चुका दिए जाएँ 
*
मुझे बताओ क़ाबा किस तरफ है 
मैं हुज़रा छोड़ के चकरा गया हूँ 
*
पहले तो घर में रहने की आदत सी डाल दी 
अब कह रहे हैं कौम के धारे से कट गया 
*
बस एक पल में दो आलम तलाश कर लेना 
वो एक बार निगाहें उठा के देखेंगे 
*
ग़म के बगैर जश्न मुकम्मल न हो सका 
ऐसा लगा कि कोई मचलने से रह गया 
*
यहाँ का मसअला मिटटी की आबरू का नहीं 
यहाँ सवाल ज़मीनों पे इख़्तियार का है 
*
एक पागल है जो दिन भर यही चिल्लाती है 
मेरे भारत के लिए कौनसी बस जाती है 
*
मैंने किरदार से गिरते हुए लोगों की तरफ़ 
इतना देखा है कि कमज़ोर निगाहें कर लीं 
*
पाँव के नीचे फूल रख देगा 
ज़िन्दगी भर निकालते रहना