Monday, December 29, 2008

वो आँखें, कह देती हैं सब




कह ना पायें, जो उनके लब
वो आँखें, कह देती हैं सब

पहले तो सबका इक ही था
अब सबका अपना अपना रब

हालत तो देखो इन्सां की
खुद ही से डरता है वो अब

तनहा काटो तब पूछेंगे
होती है कितनी लम्बी शब

खुद को भी मुजरिम पाओगे
अपने भीतर, झांकोगे जब

हरदम आंसू, मत छलकाओ
मन मर्ज़ी का, होता है कब

नीरज आँखें, खोलो देखो
हर सू उसके ही, हैं करतब



( गुरु देव पंकज सुबीर जी के आशीर्वाद से लिखी ग़ज़ल )

Friday, December 26, 2008

किताबों की दुनिया -2

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है
जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तै करने में वक्त तो लगता है
जगजीत सिंह जी की रेशमी आवाज में बरसों पहले जब ये ग़ज़ल सुनी तो आनंद आ गया इतने खूब सूरत अशआर लगे इस ग़ज़ल के की केसेट को बार बार रिवाईंड कर सुनता रहा. अब भी जब कभी मौका लगता है ये ग़ज़ल सुनता हूँ . तब कहाँ मालूम था की इस ग़ज़ल के शायर जनाब 'हस्ती मल जी हस्ती' से एक दिन मुलाकात हो जायेगी नवी मुंबई में अनिता जी के घर 'बतरस' संस्था की और से गोष्ठी थी जिसमें मैं भी था और हस्ती जी भी. उनसे आग्रह कर ये ग़ज़ल सुनी. इसके बाद एक बार उनके घर पर भी एक गोष्ठी में जाने का सुअवसर मिला. हस्ती जी से मिलना एक अनुभव है , एक ऐसा अनुभव जो आप कभी नहीं भुला सकते. सौम्य प्रकृति के हस्ती जी राजस्थान से हैं और मुंबई में उनका स्वर्ण आभूषनो का अपना व्यवसाय है. तभी उनके शेर शब्दों के मोतियों से जड़े होते हैं. हर ग़ज़ल एक हीरों का तराशा हुआ हार लगती है.



जयपुर में आयोजित पुस्तक मेले में उनकी पुस्तक "कुछ और तरह से भी " पर नजर पढ़ी और तुंरत खरीद लाया. पुस्तक क्या है भावनाओं का खजाना है. एक एक शेर और ग़ज़ल अनमोल है. आज हम उसी पुस्तक की चर्चा करेंगे.
ग़ज़ल प्रेमियों को समर्पित इस किताब में अस्सी ग़ज़लें हैं और उनमें से आप के लिए कुछ शेरों का चुनाव करना एक बहुत बड़ी चुनौती है.

अपनी पहली ही ग़ज़ल से वो पाठक को अपनी शैली से चमत्कृत कर देते हैं...

ज़माने के लिए जो हैं बड़ी नायाब और महंगी
हमारे दिल से सब की सब है वो उतरी हुई चीजें

दिखाती हैं हमें मजबूरियां ऐसे भी दिन अक्सर
उठानी पड़ती हैं फ़िर से हमें फेंकी हुई चीजें

किसी महफिल में जब इंसानियत का नाम आया है
हमें याद गयीं बाज़ार में बिकती हुई चीजें

शब्दों के नगीने से सजी उनकी एक और ग़ज़ल के कुछ शेर देखें:

छू हो जाती है धज सारी या कुछ बाकी रहता है
डिगरी,पदवी,ओहदों से तू अपना नाम हटा कर देख

जंतर-मंतर, जादू- टोने, झाड़-फूंक, डोरे-ताबीज
छोड़ अधूरे आधे नुस्खे ग़म को गीत बना कर देख

उलझन और गिरह तो 'हस्ती' हर धागे की किस्मत है
आज नहीं तो कल उलझेगी जीवन डोर बचा कर देख

खुद्दारी उनके जीवन की शैली है जो उनके हर शेर में झलकती है अब जरा उनके ये तेवर देखें:

दिन काट लिया करते हैं सहरा की तपिश में
लेकिन कभी हम भीख में सावन नहीं लेते

सजने की गरज जिनको है ख़ुद के मिलें वो
ज़हमत कहीं जाने की ये दरपन नहीं लेते

मेहनत की कमाई पे जो करते हैं गुज़ारा
मोती भी लगे हों तो भी उतरन नहीं लेते

हुनर का येही जोहर आप उनकी छोटी बहर की ग़ज़लों में भी देख सकते हैं मसलन :

एक सच्ची पुकार काफ़ी है
हर घड़ी क्या खुदा खुदा करना

जब भी चाहत जगे समंदर की
एक नदी की तरह बहा करना

आप ही अपने काम आयेंगे
सीखिए ख़ुद से मशवरा करना

उनकी येही अदा एक और ग़ज़ल में भी देखें:

थान अंगूठी से निकले
इतनी कात मोहब्बत को

दुःख घेरे तो खेला कर
अक्कड़ -बक्कड़ -बम्बे बो

पहन पहन कर 'हस्ती' जी
रिश्तों को मैला करो

मैंने जो कुछ पढाया आपको वो तो उस आनंद का शतांश है जो इसे पूरी पढने के बाद प्राप्त होता है , मजे की बात है की आप इस पुस्तक को जितनी बार पढेंगे आप को हर बार नए आनंद की अनुभूति होगी. मेरा दावा है की ये पुस्तक ग़ज़ल प्रेमियों को कभी निराश नहीं करेगी. अब आप ही बताईये आज के हालात पर ऐसे शेर आप को कहाँ और पढ़ने को मिलेंगे?

ऐसा नहीं की साथ नहीं देते लोग-बाग़
आवाज दे के देखो फ़सादात के लिए

पड़ता है असहले का जखीरा भी कम कभी
इक फूल ही बहुत है कभी मात के लिए

बाहर हो कोई चाहे शिवाले में हो कोई
हर शख्स है कतार में खैरात के लिए

और आख़िर में हस्ती जी का इक शेर जिसेसे पता चलता है की वो इतने मकबूल शायर क्यूँ है,आप फरमाते हैं :

शायरी है सरमाया खुशनसीब लोगों का
बांस की हर इक टहनी बांसुरी नहीं होती

इस अद्भुत शेर के साथ हमारा "कुछ और तरह से भी" किताब का ये सफर यहीं समाप्त होता है. पैंसठ रुपये मूल्य की ये किताब भी वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है जिसका पता ठिकाना आप किताबों की दुनिया भाग १ में देख सकते हैं.

अब हम लेखनी को देते हैं विश्राम, जय सिया राम....फ़िर मिलेंगे..जल्द ही इक और किताब के साथ.सायोनारा...सायोनारा...

Monday, December 22, 2008

हाथ में फूल


हाथ में फूल दिल में गाली है
ये सियासत बड़ी निराली है

छीन लेती है नींद आंखों से
याद तेरी सनम मवाली है

भूलता है इमानदारी को
पेट जिसका जनाब खाली है

तोडिये मोह का जरा बंधन
फ़िर दिवाले में भी दिवाली है

आप की चाह आप की बातें
ज़िन्दगी इसमें ही निकाली है

भीड़ से जब अलग किया ख़ुद को
हो गयी हर नज़र सवाली है

अपना बनकर रहा है वो "नीरज"
बात जब तक उसकी टाली है

Thursday, December 18, 2008

किताबों की दुनिया - १

दोस्तों पढ़ना और वो भी किताबें खरीद कर पढ़ना मेरा बरसों पुराना शौक रहा है। मैंने सोचा आप से उन ढेरों किताबों में से, जो मेरी नज़रों से गुजरी हैं, चंद शायरी की किताबों की चर्चा करूँ. आज कल देख रहा हूँ की ग़ज़ल लिखने और सीखने का शौक अपने परवान पर है, इसी के चलते चलिए अच्छी शायरी की बात करें.

हाल ही में जयपुर में "राष्ट्रीय पुस्तक मेला" आयोजित हुआ था वहीँ घूमते हुए ग़ज़लों की जिस किताब पर निगाह पढ़ी उसका नाम था" सुबह की उम्मीद" जिसे लिखा था जनाब बी. आर.'विप्लवी' जी ने.



इसे मेरा अल्प ज्ञान कहें की मैंने इस से पहले न तो इस किताब का नाम सुना था और न ही लेखक का. एक अनजान किताब को खरीदने में जो जोखिम रहता है उसे उठाने की सोच दिल में आयी.

घर आ कर किताब को पढ़ा तो हैरान रह गया. मेरी उम्मीद से कई गुना खूबसूरत एक से बढ़ कर एक ग़ज़लें पढने को मिलीं.
किताब में 'विप्लवी' जी के बारे में अधिक कुछ लिखा नहीं मिलता लेकिन उनका लिखा खूब मिलता है वे भूमिका में कहते हैं की:
"काव्य या शायरी की दुनिया को जज्बाती समझा जाता है इसलिए इसे अक्सर आनंद लेने या रस लेने का साधन समझा गया है. मैं इस बात को यूँ मानता हूँ यह दिल की खुशी आदमी की भावनाओं में झंकार पैदा करके भी मिलती है और उसे झकझोर करके भी. इसलिए इसमें वो ताकत है कि सोये लोगों को जगाये और आगे कि लडाई के लिए तैयार करे.आज कि कविता या शायरी की यह जरूरत भी है."

विप्लवी साहेब ने शायरी की प्रेरणा और मार्ग दर्शन मशहूर शायर जनाब वसीम बरेलवी से प्राप्त किया.
वसीम साहेब फरमाते हैं की" विप्लवी जी जिस प्रकार हिन्दी संस्कार के फूलों को उर्दू तेहज़ीब की खुशबू में बसने का प्रयत्न कर रहे हैं, उसने उनकी गज़लिया शायरी को लायके- तबज्जो बना दिया है."

श्री गोपाल दास "नीरज" जी कहते हैं की "भाई विप्लवी जी की ग़ज़लें पढ़ कर मन मुग्ध हो गया. आजकल ग़ज़लें तो हर कोई लिख रहा है लेकिन बहुत कम लोग हैं जो ग़ज़ल को आत्मा तक पहुँचा पाए हैं"

श्री बेकल उत्साही जी कहते हैं की" विप्लवी जी ने अपनी गज़लों में रवानी के साथ मायनी को उजागर किया है, यह एक पुख्ताकार का काम है "

आयीये पढ़ते हैं विप्लवी जी का चुनिन्दा कलाम...

पहले पन्ने से ही अपनी शायरी का जादू दिखाते उन्होंने लिखा:

पैर फिसले,खताएं याद आयीं
कैसे ठहरे, ढलान लम्बी है

ज़िन्दगी की जरूरतें समझो
वक्त कम है दूकान लम्बी है

झूट,सच,जीत, हार की बातें
छोडिये, दास्तान लम्बी है

आज के हालत पर छोटी बहर में करिश्मा कुछ यूँ बिखेरा है:

कलम करना था जिनका सर जरूरी
उन्हीं को सर झुकाए जा रहे हैं

सुयोधन मुन्सफी के भेष में हैं
युधिष्ठिर आजमाए जा रहे हैं

लड़े थे 'विप्लवी'जिनके लिए हम
उन्हीं से मात खाए जा रहे हैं

उनके कलम की सादगी देखिये, किस सहजता से अपनी बात कहते हैं:

मुझे वो इस तरह से तोलता है
मिरी कीमत घटाकर बोलता है

वो जब भी बोलता है झूठ मुझसे
तो पूरा दम लगा कर बोलता है

ज़ुबां काटी,तआरुफ़ यूँ कराया
यही है जो बड़ा मुहं बोलता है

एक दूसरी ग़ज़ल के दो शेर और पेश करता हूँ

कुँआ खोदा गया था जिनकी खातिर
वही प्यासे के प्यासे जा रहे हैं

कहाँ सीखेंगे बच्चे जिद पकड़ना
सभी मेले तमाशे जा रहे हैं


एक ग़ज़ल जिसके सभी शेर मुझे बहुत पसंद आए:

ये कौन हवाओं में ज़हर घोल रहा है
सब जानते हैं,कोई नहीं बोल रहा है

मर्दों की नज़र में तो वो कलयुग हो कि सतयुग
औरत के हँसी जिस्म का भूगोल रहा है


जो ख़ुद को बचा ले गया दुनिया की हवस से
इस दौर में वह शख्स ही अनमोल रहा है

जीवन कि कड़वी सच्चाइयों को बहुत खूबसूरती से बयां करते उनके ये दो शेर पढ़ें:

अदाकारी जिन्हें आती नहीं वे मात खाते हैं
फ़क़त सच होने से ही बात सच मानी नहीं जाती

ये मुंसिफ अपनी आंखों पर अजब चश्मा लगाता है
बिना दौलत कोई सूरत भी पहचानी नहीं जाती

मोहब्बत 'विप्लवी' अब एक घर बैठे का ज़ज्बा है
किसी से भी कहीं कि खाक तक छानी नहीं जाती

पूरी किताब ऐसे एक से बढ़ कर एक उम्दा शेरों से भरी हुई है कि किसे सुनाये और किसे छोडें का चुनाव बहुत मुश्किल है अब इसे पढ़ें:

जूठनों पर कुक्करों सा आदमी का जूझना
आज भी सच है,सितारों पर भले चढ़ जाईये

अब सुना है जंगलों में शेर का है खौफ़ कम
गाँव में लेकिन बिना बन्दूक के मत जाईये


एक सौ छतीस पृष्ठों की इस किताब में कोई एक सौ ग़ज़लें है और सभी शानदार. ऐसे में उनमें से कुछ को छांटना बहुत दुष्कर काम है. नेरी गुजारिश है की हर शायरी के प्रेमी को इसे पढ़ना चाहिए. ये किताब वाणी प्रकाशन २१-ऐ दरिया गंज, नई-दिल्ली से छपी है और इसका मूल्य मात्र साठ रुपये है. आप इसके बारे में इ-मेल से जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं...पता है:vani_prakashan@yahoo.com , vani_prakashan@mantraonline.com , फ़ोन :011-23273167, 51562621

अब चलिए आख़िर में उनकी दो और गज़लों के चुनिन्दा शेर पढ़ते चलते हैं,पहली ग़ज़ल के शेर कुछ यूँ हैं:

वास्ता सीता का देके कहने लगे
इम्तिहानो से रिश्ते निखर जायेंगे

भूले भटके हुओं से कोई ये कहे
रहबरों से मिलेंगे तो मर जायेंगे

घर में रहने को कहता है कर्फ्यू मगर
जो हैं फुटपाथ पर किसके घर जायेंगे

और और दूसरी ग़ज़ल के ये तीन बेहतरीन शेर.....

उन्हीं से उजालों की उम्मीद है
दिए आँधियों में जो जलते रहे

उन्हीं को मिलीं सारी ऊचाईयां
जो गिरते रहे और संभलते रहे

हासिले ग़ज़ल शेर है:

छुपाता रहा बाप मजबूरियां
खिलौनों पर बच्चे मचलते रहे

अगली बार एक नयी किताब और नए अशआर लेकर फ़िर खिदमत में हाज़िर होंगे तब तक के लिए...नमस्कार. दसवेदानिया

Monday, December 15, 2008

धुंआ नफरत का



भेडिओं से खामखा ही डर रहा है आदमी .
काटने से आदमी के मर रहा है आदमी

दुश्मनी की बात करता है कभी मज़हब नहीं
क़त्ल उसके नाम पर क्यों कर रहा है आदमी

प्यार की खुशबू से यारो जो महकता था चमन
अब धुंआ नफरत का उस में भर रहा है आदमी

मिट गया है हर निशां उसका हमेशा के लिए
बिन उसूलों के कभी भी गर रहा है आदमी

कातिलों को दे चुनौती बात "नीरज" तब बने
अब कहाँ महफूज़ अपने घर रहा है आदमी

(आदरणीय प्राण शर्मा साहेब के आशीर्वाद से संवरी ग़ज़ल)

Monday, December 8, 2008

काँटों के बीच फूलों के गीत



काँटों के बीच फूलों के, गीत गा रही है
मुझको यूँ ज़िन्दगानी, जीना सिखा रही है

गद्दार हैं वतन के, दावे से कह रहा हूँ
खुशबू न जिनको इसकी, मिटटी से आ रही है

गहरे दिए हैं जबसे, यारों ने ज़ख्म मुझको
दुश्मन की याद तब से, मुझको सता रही है

भरता कभी न देखा, कासा ये हसरतों का
कोशिश में उम्र सबकी, बेकार जा रही है
कासा ( कटोरा, बर्तन )

करने कहाँ है देती, दिल की किसी को दुनिया
सदियों से लीक पर ही, चलना सिखा रही है

जी चाहता है सुर में, उसके मैं सुर मिला दूँ
आवाज कब से कोयल, पी को लगा रही है

ग़ज़लें ही मेरी साया, बन जायें काश "नीरज"
ये धूप ग़म की तीखी ,मुझको जला रही है

(गुरु देव प्राण शर्मा साहेब की रहनुमाई में लिखी ग़ज़ल)

Monday, December 1, 2008

सौवीं पोस्ट : एक नन्ही सी कली

"सब से पहले नतमस्तक हूँ उन असाधारण जांबाजों के लिए जिन्होंने सिर्फ़ इसलिए अपनी ज़िन्दगी कुर्बान कर दी की हम जैसे साधारण लोग जिंदा रहें."

दोस्तों ये मेरी सौवीं पोस्ट है...इसे उपलब्धि कहना ग़लत होगा...ये मुझे आपसे मिले प्यार का परिणाम है...धन्यवाद....नफरत, हिंसा, लोभ और तनाव ने मिल कर हमारी सोच को बंधक बना रखा है...ऐसे में शायरी या कविता हमें इस जकड से छूटने का एक खुशनुमा रास्ता दिखाती है...हमारी संवेदना और आशाओं को जगाये रखती है... इस अवसर पर अधिक कुछ कहने की बजाये पेश करता हूँ आदरणीय प्राण शर्मा साहेब की एक ताजा ग़ज़ल:




पेश ना आए कोई ऐ दोस्त, तुझ से बेदिली से
बात मत करना हमेशा, हर किसी से बेरुखी से

इतना भी कट कर रहो मत, दोस्तों से दोस्त मेरे
कुछ न कुछ होता है हासिल, हर किसी की दोस्ती से

दोस्त,अंधिआरा भी होना चाहिए, कुछ जिंदगी में
तंग पड़ जाओगे वरना, रौशनी ही रौशनी से

मुस्कराओगे तो सारा, मुस्कराएगा ज़माना
जगमगाती है की जैसे, सारी धरती चांदनी से

ये ज़रूरी तो नहीं कि, फूल ही महकें चमन में
आने लगती है महक भी, एक नन्ही सी कली से

आप खुश होते तो खुश, होता मेरा दिल हम खयालो
क्यों न हो मायूस अब, ये आपकी नाराजगी से

जी में आता है की कह दू, उस से तू है दिल का सूफी
जी रहा है इस ज़माने में, जो इतना सादगी से

घर में आई है खुशी तो, उस का स्वागत करना सीखो
शै नहीं है और कोई, दुनिया में बढ़ कर खुशी से

बाद मुद्दत के था आया, घर तुम्हारे एक मेहमां
क्या मिला गर तुम मिले, ऐ "प्राण"उस से अजनबी से