Monday, July 27, 2020

किताबों की दुनिया 209 /1 

कहीं ये इश्क की वहशत को नागवार न हो 
झिझक रहा हूँ तिरे ग़म को प्यार करते हुए 
वहशत :उन्माद 
***
देख तितली की अचानक परवाज़ 
शाख़ से फूल उड़ा हो जैसे 
***
अजीब फ़ैसला था रौशनी के ख़ालिक़ का 
कि जो दिया भी नहीं थे वही सितारा बने 
ख़ालिक़ :निर्माता 
***
अब एक उम्र में याद आयी है तो याद आया 
सितारा बुझते हुए रौशनी बिखेरता है 
***
वो फिर मिला तो मुझे हैरतों से ताकता रहा 
कि दिल-गिरफ़्ता न लगता था बोलचाल से मैं 
दिल-गिरफ़्ता :उदास,दुखी 
***
फिर एक बार मैं रोया तो बेख़बर सोया 
वरना ग़म से निकलना मुहाल था मेरा 
***
अजीब राहगुज़र थी कि जिसपे चलते हुए 
क़दम रुके भी नहीं रास्ता कटा भी नहीं 
***
ये दुःख है उसका कोई एक ढब तो होता नहीं 
अभी उमड़ ही रहा था कि जी ठहर भी गया 
***
जो अक्स थे वो मुझे छोड़ कर चले गए हैं 
जो आइना है मुझे छोड़ कर नहीं जाता 
***
सच ये है कि पड़ता ही नहीं चैन किसी पल 
गर सब्र करूँगा तो अदाकारी करूँगा 

मैं मुरारी बापू का भक्त नहीं लेकिन उनकी एक बात का क़ायल हूं और वो है उनका रामकथा के दौरान ग़ज़ल के शेर सुनाना। उन के माध्यम से शायरी जन-जन तक पहुंच रही है. उन्हें शायरी की कितनी समझ है यह तो पता नहीं लेकिन उन्हें शायरी से कितनी मोहब्बत है यह साफ दिखाई देता है। सन 2005 में राजस्थान के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल नाथद्वारा में राम कथा हुई जिसमें उनकी मौजूदगी में इंडो पाक मुशायरा रखा गया. एक हिंदू धार्मिक स्थल पर मुस्लिम शायरों की शायरी को जिस तरह से मुरारी बापू की मौजूदगी में सुना गया उसे देखकर अलगाववादी ताक़तों की अगर नींद उड़ गई हो तो हैरत की बात नहीं होगी. इससे एक बात स्पष्ट होती है कि शायरी, धर्म के दायरे में नहीं आती ।कोई भी व्यक्ति चाहे वो किसी भी धर्म या संप्रदाय का हो शायरी का दीवाना हो सकता है. खुशी की बात है कि आज के दौर में भी लोग शायर का नाम देखकर शेर पसंद नहीं करते.
इसी मुशायरे में पाकिस्तान से आए हमारे आज के शायर को उनके कलाम पर ज़बरदस्त दाद हासिल हुई थी.

ये दुःख पहले कभी झेला नहीं था 
अकेला था मगर तन्हा नहीं था 

हवा से मेरी गहरी दोस्ती थी 
मैं जब तक शाख़ से टूटा नहीं था 
 
मुहब्बत एक शीशे का शजर थी 
घना था पेड़ पर साया नहीं था 
 
मैं जिसमें देखता था अक्स अपना 
वो आईना फ़क़त मेरा नहीं था 

चलिए क़रीब 50 साल पहले के लाहौर चलते हैं. 6 दिसम्बर 1961 को लाहौर में पैदा हुआ एक बारह तेरह साल का लड़का स्कूल से घर लौट रहा है और रास्ते में खुद से ही बातें कर रहा है ।घर पर आकर बस्ता टेबल पर रख कर चहकते हुए मां से कहता है कि 'अम्मी आज मैंने शेर की कहे हैं'. ये सुनकर मां का दिल कैसा बल्लियों उछला होगा, आप सोच सकते हैं। जिस परिवार में लड़के के पिता, दादा, परदादा और दो फूफियां बेहतरीन शायर हों, वहां लड़के का शेर कहना कोई बहुत बड़ी घटना होनी तो नहीं चाहिए लेकिन मां इस बात पर खुश हुई कि उसकी 6 औलादों में से किसी एक में तो खानदान की रिवायत कायम रखने की काविश नजर आई. बात लड़के के पिता तक पहूंची । शाम को पिता ने उसे बुलाया, उससे से शेर सुने और खुश होते हुए बोले बरखुरदार तुम तो वज़न में कहते हो, शाबाश !! दो-चार दिन बाद घर पर हर महीने होने वाला मुशायरा एक कमरे में चल रहा था कि अचानक पिता ने लड़के को बुलाया और सबसे बोले कि मेरा बेटा भी शेर कहता है आप सब साहिबान इसे सुनेंं । लड़के ने घबराते हुए शेर पढे जिसे सुनकर सदारत कर रहे मशहूर शायर जनाब 'अहसान दानिश' साहब उठे और लड़के को गले लगाते हुए उसके पिता से बोले 'ज़की कै़फी साहब मुबारक हो आपके यहां शायर पैदा हुआ है, क्या नाम है इसका ?' ' सऊद अशरफ उस्मानी' पिता गर्व से बोले.

हम भी वैसे न रहे दश्त भी वैसा न रहा 
उम्र के साथ ही ढलने लगी वीरानी भी 

वो जो बर्बाद हुए थे तेरे हाथों वही लोग 
दम-ब-ख़ुद देख रहे हैं तिरि हैरानी भी 

आखिर इक रोज़ उतरनी है लबादों की तरह 
तने-मलबूस ये पहनी हुई उरियानी भी 
शरीर का वस्त्र , उरियानी :नग्नता 

ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ 
दोस्त इक उम्र में मिलती है ये आसानी भी   
  
अहसान दानिश साहब ने ये बात बिल्कुल ठीक कही कि शायर पैदा ही होते हैं बनते नहीं .शायरी कोई डॉक्टरी, वकालत या इंजीनियरिंग जैसा पेशा नहीं है कि किसी कॉलेज, यूनिवर्सिटी में पढ़े, डिग्रियां ली और बन गए, ना ही ये पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले किसी दूसरे पेशे की तरह है। शायरी का फ़न किसी को तोहफ़़े की तरह भी नहीं दिया जा सकता ।शायरी इंसान के अंदर होती है लेकिन हर इंसान के अंदर नहीं. ये तौफ़ीक़ ऊपर वाला हर किसी को अता नहीं करता। शायर होता तो दूसरे आम इंसानों की तरह ही है लेकिन उसकी सोच का दायरा बड़ा होता है. वो औरों से ज्यादा संवेदनशील होता है इसलिए दूसरों के सुख दुःख को अच्छे से महसूस कर सकता है. शायर को अपने या दूसरों के अहसास एक खास रिदम में खूबसूरत अंदाज़ के साथ लफ्जों में पिरोने का हुनर आता है. कामयाब शायर बनने के लिए ऊपर वाले के दिए इस फ़न को लगातार मेहनत से सँवारना पड़ता है। 

जब तक मैं तेरे पास था बस तेरे पास था 
तूने मुझे जमींं पे उतारा तो मैं गया 

अपनी अना की आहनी जंजीर तोड़ कर 
दुश्मन ने भी मदद को पुकारा तो मैं गया 
अना: घमंड, आहनी: इस्पात की 

तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है 
तू मुझसे एक बार भी हारा तो मैं गया 

ये ताक ये चराग़ मेरे काम के नहीं 
आया नहीं नज़र वो दोबारा तो मैं गया

सऊद साहब पढ़ाई के दौरान शायरी करते रहे लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया. साइंस में ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने लाहौर से एमबीए की डिग्री हासिल की. एमबीए के बाद उन्होनें अपनी ग़जलें इक्ठ्ठा की उन में से कुछ छाँटी और मशहूर शायर 'अहमद नदीम कासमी' साहब के दफ्तर जा पहुंचे. उस वक्त कासमी साहब एक रिसाला निकाला करते थे जिसमें मयारी गजलें छपा करती थींं. दफ्तर में कासमी साहब के सामने लाजवाब शायरा परवीन शाक़िर साहिबा बैठी थींं. सऊद साहब अपनी गजलें नदीम साहब को देकर वापस आ गए. जब कुछ दिन तक जवाब नहीं आया तो वह फिर से कासमी साहब के दफ्तर पहुंचे जहां कासमी साहब नहीं थे लेकिन परवीन शाकिर साहिबा बैठी थी उन्होंने सऊद साहब को देखते ही कहा 'अरे आप तो वही है ना जो कुछ दिन पहले अपनी गजलें छपने के लिए दे गए थे माशा अल्लाह आप बहुत अच्छा लिखते हैं, लिखते रहेंं '. परवीन शाक़िर जैसी शायरा से अपनी तारीफ सुन कर उसी पल सऊद साहब ने ग़जल की दुनिया में अपना एक मुकाम बनाने का फ़ैसला कर लिया. 

जैसे कोई दो दो उम्रें काट रहा हो 
झेली अपनी और उसकी तन्हाई मैंने 

एक मुहब्बत मुझमें शोलाज़न रहती थी  
ख़ैर फिर इक दिन आग से आग बुझाई मैंने 

खुद को राज़ी रखने की हर कोशिश करके 
आखिर अपने आप से जान छुड़ाई मैंने 

मेरी पूँजी और थी , मेरे ख़र्च अलग थे 
ख़्वाब कमाए मैंने ,नींद उड़ाई मैंने 

सऊद साहब की शायरी के प्रति इस दीवानगी के चलते ही उन्हें ये मुकाम हासिल हुआ कि आज पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर उस गोशे में जहाँ उर्दू शायरी समझी जाती है लोग उनको पढ़ना सुनना पसंद करते हैं। उनकी शायरी से रूबरू होते हुए 'अहमद नदीम क़ासमी' साहब की उनके बारे में कही ये बात ज़ेहन में आ जाती है वो फरमाते हैं कि " जब ग़ज़ल विधा से ऊब चुके लोग मुझसे ये कहते हैं अब इस विधा में कहने को कुछ नहीं रहा तो मैं उनको मशवरा देता हूँ कि वो सऊद अशरफ़ उस्मानी को पढ़ लें क्यूंकि उसने ग़ज़ल के जिस्म में नयी जान फूंकी है।"  इस नए पन के कारण ही उनके पहले ग़ज़ल के मुज़मुए "कौस" को 1997 में पाकिस्तान प्राइम मिनिस्टर अवार्ड ,2006 में दूसरे मज़मुए "बारिश" को अहमद नदीम क़ासमी अवार्ड और 2016 में तीसरे मज़मुए "जलपरी" को भी ढेरों अवार्ड हासिल हुए हैं। शायरी के वो प्रेमी जो उर्दू लिपि पढ़ नहीं सकते अब उनकी चुनिंदा ग़ज़लों को देवनागरी में   'राजपाल एंड संस ' द्वारा प्रकाशित किताब " सरहद के आर-पार की शायरी" श्रृंखला में पढ़ सकते हैं। इस किताब में उनके साथ लाजवाब भारतीय शायर मरहूम 'रऊफ रज़ा ' साहब की ग़ज़लें भी संकलित हैं। किताब का संपादन देश के प्रसिद्ध शायर और शायरी के बेहतरीन जानकार जनाब 'तुफैल चतुर्वेदी ' साहब ने किया है। सऊद साहब की तीनों ग़ज़ल की किताबों से 85 ग़ज़लें छाँटना आसान काम नहीं था लेकिन तुफैल साहब ने जिस खूबी से इसे अंजाम दिया है उसके  लिए उनकी जितनी भी तारीफ की जाय कम है। आज हम इस किताब का सिर्फ आधा हिस्सा, याने जो सऊद साहब की शायरी का है , ही आपके सामने लाये हैं।   
       

दिल की अपनी ही समझ होती है 
जो फ़क़त ज़हन हैं, वो क्या समझेंं 

एक भूली हुई ख़ुश्बू मुझसे 
कह रही है मुझे ताज़ा समझें 

बात करते हुए रुक जाता हूं 
आप इस बात को पूरा समझें 

दिल को इक उम्र समझते रहे हम 
फिर भी इक उम्र में कितना समझें

आप इस किताब के संकलनकर्ता जनाब तुफैल चतुर्वेदी जी की व्यक्तिगत सोच या उनके और किसी भी दृष्टिकोण से भले मतभेद रखें लेकिन उनकी इस बात को झुठलाने की आपको कोई वज़ह नहीं मिलेगी कि "हमारे समय की शायरी पुराने उस्तादों से कहीं आगे की, ताज़ा और बेहतर है। आज के शायर हर एतबार से हर हवाले से बहुत अच्छे और नए शेर कह रहे हैं। कोई भी कसौटी तय कर लीजिये आप पाएंगे कि ये माल खरा सच्चा और चोखा है। इनके काम  फीकापन नहीं है. इसके लिए ये लोग भी ज़िम्मेदार हैं कि फ़ीके ,बेस्वाद बल्कि बदज़ायका अशआर का पहाड़ नहीं लगाते बल्कि अपने क़लाम को काटते छांटते हैं ,न सिर्फ अच्छा कहते हैं बल्कि सिर्फ अच्छा क़लाम  मन्ज़रे-आम पर लाते हैं" इस बात को समझने के लिए आपने जो अब तक अशआर पढ़ें वो अगर काफ़ी नहीं हैं तो लीजिये पढ़िए सऊद साहब के कुछ मुख़्तलिफ़ अशआर :
      
उस पेड़ का अजीब ही नाता था धूप से 
खुद धूप में था सबको बचाता था धूप से 
***
सांस में रेत की लहरें करवट लेती हैं 
अब मेरे लहज़े में सहरा बोलता है 
***
हम ऐसे लोग तो अपने भी बन नहीं पाते 
सो खूब सोच-समझ कर कोई हमारा बने 
***
लेकिन उनसे और तरह की रौशनियां सी फूट पड़ीं 
आंसू तो मिलकर निकले थे आँख के रंग छुपाने को 
***
कहीं कुछ और भी हो जाऊँ न रेज़ा-रेज़ा 
ऐसा टूटा हूँ कि जुड़ते हुए डर लगता है 
***
दिल से तेरी याद उतर रही है 
सैलाब के बाद का समां है 
***
कभी-कभी मिरे दिल में धमाल पड़ती हुई 
कभी-कभी कोई मुझमें मलंग होता हुआ 
***
मैं इक शजर से लिपटता हूँ आते जाते हुए 
सुकूँ भी मिलता है मुझको दुआ भी मिलती है 
***
वो तितलियों के परों पर भी फूल काढ़ता है 
ये लोग कहते हैं उसकी कोई निशानी नहीं 
***
ये तुम जो आईने की तरह चूर-चूर हो 
तुमने भी अपनी उम्र को दिल पर गुज़ारा क्या   

सऊद साहब शायरी करते नहीं जीते हैं शायरी उनके लिए मश्गला याने टाइम पास करने की चीज नहीं ज़िंदगी गुज़ारने का तरीका है. वो कहते हैं कि अपनी ग़ज़लों का पहला पाठक मैं ही होता हूं और जिस शेर पर मेरे मुंह से वाह नहीं निकलती उसे तुरंत खारिज ही नहीं करता बल्कि उसको तब तक सुधारता रहता हूं जब तक वह मुझे पसंद नहीं आ जाता. इनका मानना है कि इंसान को शायरी से मोहब्बत होनी चाहिए, जरूरी नहीं कि आप शायरी ही करें अगर आप शायरी पढ़ते हैं तो भी आपकी शख्सियत पर उसका असर पड़ता है आप एक बेहतरीन इंसान ही नहीं बनते आपका सेंस ऑफ ह्यूमर भी सुधरता है. पाकिस्तान के संपन्न घराने से ताल्लुक रखने वाले सऊद साहब का प्रकाशन का बड़ा व्यवसाय है 
चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ:

 वो गोरी छांव में है और सियाह धूप में हम 
तो उनका हक़ है, उन्हीं का जलाना बनता है 

ख़िरद के आढ़तियों को यह इल्म ही तो नहीं
कि खूब सोच समझकर दिवाना बनता है 

खुदा को मानता और दोस्त जानता हूं 'सऊद' 
और आजकल ये चलन क़ाफिराना बनता है

आखिरी में एक ज़रूरी बात करनी रह गई किताबों की दुनिया अब सिमटती जा रही है ।कभी लोगों के हाथों में रहने वाली किताबें अब धीरे-धीरे अलमारियों में बंद दम तोड़ रही हैं और वहां से भी गायब हो रही हैं. उनकी जगह मोबाइल, लैपटॉप और किंडल पर इ- बुक ने ले ली है. इसमें कोई बुराई नहीं, क्योंकि तकनीक आपको यह सुविधा देती है कि आप चाहे जितनी किताबें अपने साथ लिए जहां चाहे वहां ले जा सकते हैं.  शायद आने वाली पीढ़ी किताब से निकलने वाली खुशबू और वर्क पलटने से उपजे संगीत को कभी नहीं जान पाएगी. 
सऊद साहब का एक शेर, जिसे मेरी तमन्ना है कि कभी सच ना हो, पेश है :

कागज की ये महक ये नशा रूठने को है 
ये आखिरी सदी है किताबों से इश्क की

Monday, July 20, 2020

किताबों की दुनिया -208

सोना लेने जब निकले तो हर हर ढेर में मिट्टी थी 
जब मिट्टी की खोज में निकले सोना ही सोना देखा 
***
 मैं तो घर में अपने आप से बातें करने बैठा था 
अन देखा सा इक चेहरा दीवार पे उभरा आता है 
***
 प्यासी बस्ती प्यासा जंगल प्यासी चिड़िया प्यासा प्यार 
मैं भटका आवारा बादल किस की प्यास बुझाऊं
***
अगर घर से निकलें तो फिर तेज धूप 
मगर घर में डसती हुई तीरगी
***
 हैंं कुछ लोग जिनको कोई ग़म नहीं 
अ'जब तुर्फ़ा ने'मत है ये बेहिसी 
तुर्फ़ा: अनोखी, बेहिसी:संवेदनहीनता 
***
न जाने किस की हमें उम्र भर तलाश रही 
जिसे क़रीब से देखा वह दूसरा निकला 
***
ये दिल का दर्द तो साथी तमाम उम्र का है 
ख़ुशी का एक भी लम्हा मिले तो उससे मिलो 
***
घर में बैठे सोचा करते हमसे बढ़कर कौन दुखी है
इक दिन घर की छत पे चढ़े तो देखा घर-घर आग लगी है
***
मुझको नींद नहीं आती है
अपनी चादर मुझे उढ़ा दो
***
बस इतनी बात थी कि अ'यादत को आए लोग
दिल के हर इक जख़्म का टाँका उधड़ गया
अ'यादत:मिज़ाज पुर्सी
***
ऐसी रातें भी हम पे गुज़री हैं
तेरे पहलू में तेरी याद आई
***
इस की तो दाद देगा हमारा कोई रक़ीब  
जब संग उठा तो सर भी उठाते रहे हैं हम 

1947 की बात है दिल्ली स्टेशन पर गजब की भीड़ थी .दोस्त की सलाह पर वो लड़का दिल्ली से अलीगढ़ वाली ट्रेन में बड़ी मुश्किल से चढ़ पाया था. उस वक्त देश आजाद होने पर जश्न के रूप में बेगुनाह लोगों का खून सिर्फ़ इसलिए बहाया जा रहा था कि उनके मज़हब अलग थे. बीस साल का ये युवा दुबला पतला सा लड़का सहमा सा एक कोने में बैठा था कि दो-चार स्टेशन के बाद ही कुछ बलवाई ट्रेन में चढ़ गए और एक मज़हब विशेष के लोग ढूंढ कर ट्रेन के बाहर उतारने लगे. लड़के की आंखों में उतरे डर को देखकर एक बलवाई ने उसे गिरेबान से पकड़कर घसीटते हुए नीचे उतार लिया.
अल्लामा इकबाल ने गलत ही कहा था "कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना" जब कि इतिहास गवाह है कि "मज़हब ने ही सिखाया आपस में बैर रखना". हम सिर्फ इस बात पर किसी का खून कर देते हैं कि वो हमारे मज़हब का नहीं है जबकि उसका न तो उस मज़हब में पैदा होने पर कोई इख्तियार होता है न हमारा इस मज़हब में पैदा होने पर.  इंसान अकेला इतना हिंसक नहीं होता जितना वो भीड़ में हो जाता है.अकेले में किए गुनाह का बोझ दिल पर अधिक होता है जबकि भीड़ में किए गुनाह का बोझ भीड़ में बंट कर हल्का हो जाता है.
आखरी आवाज़ जो उस लड़के ने सुनी वो थी "मारो" और उसके बाद उसने खंजर अपनी पसलियों में तेजी से घुसता महसूस किया.

 मैं ढूंढने चला हूं जो खुद अपने आप को 
तोहमत ये मुझ पे है कि बहुत खु़द-नुमा हूं मैं 

जब नींद आ गई हो सदा ए जरस को भी 
मेरी ख़ता यही है कि क्यों जागता हूं मैं
सदा ए जरस : कारवाँ की घंटियों की आवाज़

 लाऊं कहां से ढूंढ कर मैं अपना हम-नवा 
खुद अपने हर ख़याल से टकरा चुका हूं मैं 

ऐ उम्र ए रफ़्ता मैं तुझे पहचानता नहीं 
अब मुझको भूल जा कि बहुत बेवफा़ हूं मैं

 ज़ख्म कितना भी गहरा हो भर जाता है ।रह जाता है सिर्फ़ एक निशान जो हमेशा इस बात की याद दिलाता है कि कभी यहां एक ज़ख्म था। हमारे आज के शायर ख़लीलुर्रहमान आ'ज़मी जिनकी किताब "तेरी सदा का इन्तिज़ार" का जि़क्र कर रहे हैं इस निशान को कभी नहीं भूल पाए. ये निशान हमेशा उनकी आँखों के सामने रहा नतीजतन वो हमेशा अकेलेपन के समंदर में डूबे रहे, खलाओं में भटकते रहे और अपने भीतर टहलते रहे. रस्मन तौर पर वह दुनिया से जुड़े दिखाई जरूर देते थे लेकिन हक़ीक़त में शायद उनका खुद से भी राबता कम था.


जिंदगी आज तलक जैसे गुजारी है न पूछ 
जिंदगी है तो अभी कितने मजे और भी हैं 
***
यूं जी बहल गया है तेरी याद से मगर 
तेरा ख्याल तेरे बराबर ना हो सका
***
भला हुआ कि कोई और मिल गया तुमसा 
वगरना हम भी किसी दिन तुम्हें भुला देते
*** 
ये और बात कहानी सी कोई बन जाए 
हरीम ए नाज़ के पर्दे हवा से हिलते हैं 
हरीम ए नाज़ :माशूका का मकान  
***
हमने उतने ही सर ए राह जलाए हैं चराग़ 
जितनी बर्गश्ता ज़माने की हवा हमसे हुई
बर्गश्ता: बिगड़ी हुई
***
एक दो पल ही रहेगा सब के चेहरों का तिलिस्म 
कोई ऐसा हो कि जिसको देर तक देखा करें
 *** 
मेरे दुश्मन न मुझको भूल सके
वरना रखता है कौन किसको याद
***
सुना रहा हूं उन्हें झूठ मूठ इक किस्सा 
कि एक शख्स मोहब्बत में कामयाब रहा
***
हाय वो लोग जिनके आने का
 हश्र तक इंतजार होता है
***
इतने दिन बीते कि भूले से कभी याद तेरी 
आए तो आंख में आंसू भी नहीं आते हैं
***
खिड़कियां जागती आंखों की खुली रहने दो 
दिल में महताब उतरता है इसी जीने से
***
जिंदगी छोड़ने आई मुझे दरवाजे तक 
रात के पिछले पहर मैं जो कभी घर आया
***
उत्तर प्रदेश के डिस्ट्रिक्ट आजमगढ़ और उस के आस पास ख़ास तौर पर सुल्तानपुर इलाक़े की मिटटी में पता नहीं क्या तासीर है की वहां एक से बढ़ कर एक बेहतरीन शायर हुए हैं और आज भी हो रहे हैं। ख़लीलुर्रहमान साहब की पैदाइश भी सुल्तानपुर के गाँव सीधा की है। गाँव के कट्टर मुस्लिम परिवार में मोहम्मद सफी साहब के यहाँ 1927 में आज़मी साहब का जन्म हुआ। आजमगढ़ से मैट्रिक पास करने के बाद अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से उर्दू में मास्टर्स की डिग्री हासिल की और फिर 1957 में पी.एच.डी की।       
1953 से वो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में बतौर लेक्चरर नौकरी करने लगे पांच साल बाद रीडर बने. 

वो दिन कब के बीत गए जब दिल सपनों से बहलता था 
घर में कोई आए कि न आए एक दिया सा जलता था  

शायद अपना प्यार ही झूठा था वरना दस्तूर ये था 
मिट्टी में जो बीज भी बोया जाता था वो फलता था 

दुनिया भर की राम कहानी किस किस ढंग से कह डाली 
अपनी कहने जब बैठे तो इक इक लफ्ज़ पिघलता था 

ख़लील साहब को लिखने का शौक बचपन से ही था बच्चों की पत्रिका "पयामी तालीम" में उनकी रचनाएं नियमित छपती थीं. इस शौक को उन्होंने उर्दू साहित्य को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने में परवान चढ़ाया. गद्य और पद्य दोनों विधाओं में उनकी क़लम चली और खूब चली. पुराने और अपने समकालीन रचनाकारों पर उन्होंने आलोचनात्मक लेख लिखे जो आज भी उर्दू के सर्वश्रेष्ठ आलोचनात्मक लेखों में शामिल होते हैं. उस वक्त जब शायरी महबूब के आरिज़ ओ लब ,बुलबल ओ चमन, हुस्न ओ इश्क की जंजीरों में जकड़ी हुई थी खलिल साहब ने अपने समकालीनों के साथ उसे जदीदियत की ओर मोड़ा. उसे प्रगतिशील बनाया और उसमें वो लफ़्ज इस्तेमाल किए जो अमूमन शायरी की ज़बान से दूर रखे जाते हैं. 

और तो कोई बताता नहीं इस शहर का हाल 
इश्तिहारात ही दीवार के पढ़ कर देखें 
इश्तिहारात: विज्ञापन  

जितने साथी थे वो इस भीड़ में सब खोए गए 
अब तो सब एक से लगते हैं किसे हम ढूंढें  

घर की वीरानी तलब करती है दिन भर का हिसाब
हमको यह फ़िक्र जरा शाम को बाहर निकलें 

ब्लड कैंसर एक गंभीर बिमारी है जो ख़लील साहब को उस वक्त लगी जब उनका लेखन उन्वान की ओर था. उनके मित्र शमीम हन्फ़ी लिखते हैं कि " देश में चेतना के चराग की लौ रोज़ ब रोज़ तेज होती जा रही थी और इस पूरी जद्द ओ जह्द में ख़लील साहब का हिस्सा सबसे ज्यादा था । वो जदीदियत के क़ाफ़ला-सालारों में शुमार किए जाते थे। अचानक ख़लील साहब की सेहत ज़वाब देने लगी लेकिन बीमारी के दौर में भी वो तख़्लीक़ी ( क्रिएटिव) और फन्नी (आर्टिस्टिक ) सतह पर बहुत ज़रखेज और शादाब दिखाई देते थे। आखरी दौर में लिखी उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में आप मौत का रक़्स देख सकते हैं। अपनी और बढ़ती मौत के क़दमों की आहट साफ़ तौर पे रोज़ सुनना मौत से भी बदतर होता है। वो रात में उठकर बैठ जाते और जल्दी जल्दी हमेशा पास ही रखे काग़ज़ पर लिखने लगते। उस दौर में लिखी रचनाओं में अधूरे रह गए ख़्वाबों का दर्द और उदासी का रंग झलकता  है "  
एक जून 1978 को मात्र 51 वर्ष की उम्र में ख़लील साहब ने दुनिया ऐ फ़ानी को अलविदा कह दिया।   

 ये अलग बात कि हर सम्त से पत्थर आया 
सर-बुलन्दी का भी इलज़ाम मिरे सर आया 

बारहा सोचा कि ऐ काश न आँखें होतीं 
बारहा सामने आँखों के वो मंज़र आया  

मैं नहीं हक़ में ज़माने को बुरा कहने के 
अब के मैं खा के ज़माने की जो ठोकर आया  

ख़लील साहब के शागिर्दों में अँगरेज़ उर्दू स्कॉलर रॉल्फ रसेल और शायर 'शहरयार' उल्लेखनीय हैं। उनका तअल्लुक़ बशीर बद्र, ज़ाहिदा ज़ैदी ,मुई'न अहसन जज़्बी ,नासिर काज़मी ,इब्न इंशा ,बलराज कोमल, बाक़र मेहदी जैसे अदीबों से रहा। उनकी लिखी किताबों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है। उनकी किताबों का सफर 'कागज़ी पैराहन" से शुरू हुआ जो 1953 में मंज़र ऐ आम पर आयी उसके बाद 'नया अहद नामा' 'फ़िक्र ओ फ़न' 'ज़ाविये निगाह' आदि दस किताबों से होता हुआ 'ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी' पर ख़तम हुआ. देवनागरी में उनकी एकमात्र किताब "तेरी सदा का इंतज़ार"  'रेख़्ता बुक्स बी 37 ,सेक्टर -1 नोएडा उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित हुई। ये किताब अब अमेज़न पर ऑन लाइन उपलब्ध है। जैसा कि आपको मालूम ही है कि हमारे यहाँ जीते जी किसी को सम्मान देने से परहेज़ किया जाता है इसीलिए ख़लील साहब को उनके जाने के बाद न सिर्फ़ उर्दू साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए ' ग़ालिब अवार्ड' दिया गया बल्कि यूनिवर्सिटी द्वारा उन्हें प्रोफ़ेसर की पदवी भी अता की गयी।   
चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल ये अशआर भी पढ़वा देता हूँ : 

दूर रह कर ही जो आँखों को भले लगते हैं 
दिल ए दीवाना मगर उनकी ही क़ुर्बत मांगे  

पूछते क्या हो इन आँखों की उदासी का सबब 
ख्वाब जो देखे वो ख़्वाबों  की हक़ीक़त मांगे  

अपने दामन में छुपा ले मेरे अश्कों के चराग 
और क्या तुझसे कोई ऐ शब-ऐ-फ़ुर्क़त मांगे  

वो निगह कहती है बैठे रहो महफ़िल में अभी 
दिल की आशुफ़्तगी उठने की इजाज़त मांगे 
आशुफ़्तगी : दीवानगी 

Monday, July 13, 2020

किताबों  की दुनिया :207 

सियासी लोग खो बैठे हैं पानी 
सभी कीचड़ से कीचड़ धो रहे हैं 
***
दोस्ती, प्यार, जर्फ़, हमदर्दी 
हमने देखे हैं कटघरे कितने 
***
कब से रोज़ादार हैं आँखें तेरी 
दीद का आदाब कर इफ़्तार कर 
***
एक मुस्कान को आंसू ने ये खत भेजा है 
अपने कुन्बे में ज़रा कीजिये शामिल मुझको 
***
भला क्यों आसमाँ की सिम्त देखें 
ज़मीनें क्या नहीं दिखला रही हैं  
***
धूप, बारिश, शफ़क़, नदी, मिटटी 
ऐसे लफ़्ज़ों की मेज़बानी कर 
***
हाथ पीले हुए हमारे भी 
दर्द से हो गयी है कुड़माई 
***
हुआ अब देह का बर्तन पुराना 
बदल डालो ठठेरा बोलता है  
*** 
रात मावस की है ये तो ठीक है 
तुम सितारों का निकलना देखते 
***
बंद था द्वार और उम्र भर 
हम बनाते रहे सातिये  

ये तो मुझे याद है कि मई 2011 थी लेकिन तारीख़ याद नहीं आ रही। सुबह मोबाईल पर घंटी बजी देखा तो आदरणीय नन्द लाल जी सचदेव साहब का फोन था ,जो अभी हाल ही में हम सब को छोड़  कर पंचतत्व में विलीन हो गए हैं। मुझे आदेश दिया कि अगर मैं जयपुर में हूँ तो 'काव्यलोक' की 86 वीं गोष्ठी में फलाँ तारीख़ रविवार को फलाँ जगह पहुंचू। ये तब की बात है जब मैं ग़ज़लों में काफिया पैमाइ किया करता था और खुद को शायर समझने का मुगालता पाले हुआ था। ऊपर वाले का शुक्र है कि किताबें पढ़ने की आदत की वजह से मुझे अहसास हो गया कि जो शायरी मैं कर रहा हूँ वो मुझसे पहले बहुत से उस्ताद मुझसे हज़ार गुणा बेहतर ढंग से कर चुके हैं और कर रहे हैं,बकौल मुनीर नियाज़ी  "दम-ए-सहर जब खुमार उतरा तो मैंने देखा, तो मैंने देखा" और मैंने शायरी छोड़ दी। मज़े की बात ये है कि किसी ने पूछा भी नहीं कि क्यों छोड़ी।  

 नया सूरज तो झुलसाने लगा है 
बहुत नाराज़ थे हम तीरगी से  

न जाने वक्त को क्या हो गया है 
तअल्लुक़ तोड़ बैठा है घड़ी से  

लबों तक आ गये आंसू छलक कर 
कोई मरता भी कैसे तिश्नगी से  

जब मैं निर्धारित स्थान पर पहुंचा तो कमरे में कोई 25-30 लोग कुर्सियों पे बैठे थे और सामने आदरणीय नन्दलाल जी के एक ओर गोष्ठी संचालिका और दूसरी ओर सफ़ेद सफारी सूट पहने एक हज़रत बैठे थे जो धीरे से नंदलाल जी के कान में कुछ कहते और मुस्कुराते । गोष्ठी शुरू हुई। जो भी अपना कलाम पढ़ने आता वो सुनाते हुए सफारी पहने सज्जन की तवज्ज़ो चाहता  अगर वो सज्जन रचना पढ़ते हुए रचनाकार की और देख सर हिला देते तो पढ़ने वाले को लगता जैसे कर ली दुनिया मुठ्ठी में। मैंने अपने पड़ौसी से पूछा कि ये सफारी पहने हज़रत कौन हैं तो उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे कह रहे हों अजीब अहमक हो, जयपुर में रह कर पूछ रहे हो कि ये कौन हैं ? आखिर जब मंच संचालिका ने बहुत आदर से उन्हें पढ़ने को बुलाया तो पता चला कि उनका नाम "लोकेश कुमार सिंह 'साहिल' है। बैठे बैठे ही उन्होंने अपने सुरीले गले से ये ग़ज़ल पढ़ी तो समझ में आया कि लोग क्यों उनकी तवज़्ज़ो चाहते हैं : 

ज़मीं से दूर होता जा रहा हूँ 
मैं अब मशहूर होता जा रहा हूँ  

दिखाताा फिर रहा था ऐब सबके 
सो चकनाचूर होता जा रहा हूँ  

उजालों में ही बस दिखता हूँ सबको 
तो क्या बेनूर होता जा रहा हूँ  

उसके बाद लोकेश जी से अक्सर मुलाकात होने लगी और ये पता लगने लगा कि इस इंसान को पूरा समझना कठिन है। लोकेश जी के इतने आयाम हैं कि देख कर हैरत होती है। दरअसल वो अंधों के हाथी हैं जो किसी को पेड़ का तना ,किसी को रस्सी, किसी को सांप, किसी को अनाज फैटने वाला सूपड़ा, किसी को भाला तो किसी को दीवार सा नज़र आते हैं। ये इस बात पर निर्भर करता है कि आपने उनका कौनसा पक्ष देखा है। उन्हें समग्र देख पाना संभव नहीं।यही कारण है कि उन्हें पसंद-नापसंद करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है । इसका सीधा अर्थ ये निकलता है कि भले ही आप इन्हें पसंद करें या नापसंद लेकिन इन्हें अनदेखा, अंग्रेजी में जिसे कहते हैं 'इग्नोर' , नहीं कर सकते. या तो ये आपकी आँखों में बसेंगे या खटकेगें पर रहेंगे आँख ही में आप पूछेंगे कि आपको कैसे पता चला कि वो हाथी हैं ,तो मेरा जवाब ये है कि मैंने लोगों के बताए चित्रों को जोड़ के देखा है. 

तबस्सुम तो है तेरा बोलता सा  
बड़ा खामोश लेकिन कहकहा है  

किताबों से मुझे बाहर निकालो 
मेरे भीतर का बच्चा चीखता है  

बहुत ही खुशनुमा लगती है बस्ती 
किसी का ग़म तमाशा हो गया है  

किताबों की दुनिया में उनकी ताजा ग़ज़लों की किताब "तुक" के माध्यम से उन पर चर्चा करेंगे। उनके विचार आपको बताएँगे और दूसरों के उनके बारे में विचार भी सामने लाएंगे। सवाल ये है कि लोकेश जी पे चर्चा क्यों "तुक' पर क्यों नहीं ? तो जवाब ये है कि लोकेश जी को जान लिया तो 'तुक' पे चर्चा की जरुरत ही नहीं रहेगी। वो इस किताब के हर पृष्ठ पर शिद्दत और ईमानदारी से मौजूद हैं। साहिल जी को बहुत से लोग शायर भी नहीं मानते, अजी लोगों की छोड़िए वो तो खुद भी नहीं मानते और अपने को तुक्के बाज कहते हैं. आज के इस दौर में जहाँ एक मिसरा तक ढंग से नहीं कहने वाले खुद को ग़ालिब के क़द का शायर समझते हैं वहाँ खुद को ताल ठोक कर तुक्के बाज कहना साहस का काम है।सच बात तो ये है कि शायरी दर अस्ल खूबसूरत तुकबंदी ही तो है अब आप इसे कोई भी नाम दे दें.


जिंदगी कब की एक पड़ाव हुई 
हां मगर माहो साल आते हैं  

जिनकी आंखों को रोशनी बख्शी 
उनकी आंखों में बाल आते हैं  

कोई मंथन तो अब कहां होगा 
आ समंदर खंगाल आते हैं 

साहिल साहब को सफ़ेद रंग, जो शांति का प्रतीक है कुछ ज्यादा ही प्रिय है. अक्सर उनसे बिना बात उलझने वाले लोग कुछ समय बाद सफ़ेद झंडा हिलाते हुए उनके सामने आ कर आत्म- समर्पण कर देते हैं। इसलिए नहीं कि वो बड़े भारी योद्धा हैं बल्कि इसलिए कि वो सामने वाले को एहसास करवा देते हैं हैं कि उनसे उलझना वक्त की बर्बादी है क्यूंकि वो मुहब्बत से भरे इंसान हैं ,उलझने में विश्वास ही नहीं करते। अपनी बात स्पष्ट कहते हैं और फिर उस पर कायम रहते हैं। ये ही कारण है कि किताब का शीर्षक 'तुक' और उनका नाम देखें सफ़ेद रंग में छपा है. किताब का बैक ग्राउंड हलके और गहरे भूरे रंग का मिश्रण है जो मिटटी का रंग है। याने वो अपनी मिटटी से जुड़े इंसान हैं इसलिए हमेशा संयत रहते हैं। उन्हें आप हवा में उड़ते कभी नहीं देख सकते। ये ऐसी खूबियां हैं जो विरले ही दिखाई देती हैं। ऐसी खूबियां न होती तो क्या भारत के पूर्व प्रधानमंत्री आदरणीय चंद्र शेखर जी उन्हें अपना मानस पुत्र कहते ?    

 जिसे किताबों से चिढ़ है 
उस बच्चे का बस्ता मैं 
***
धन का घुँघरू भी अद्भुत है 
संबंधों को नृत्य कराये 
***
तेरे ख्याल की कैसी है रहगुज़र जिसमें 
पहाड़ आते हैं लेकिन शजर नहीं आते 
***
किस हथेली को ये पसंद नहीं 
मेंहदियों के रचाव में रहना 
***
खुदा की ज़ात पे ऊँगली उठाने वालो सुनो 
यकीं की धूप गुमां से ख़राब होती है 
***
जब से इनमें से इक वज़ीर बना 
क्या अजब जश्न है पियादों में
 ***
टूट कर भी जी रहे हैं अज़्मतों के साथ हम 
रोज़  ग़म देती है लेकिन ज़िन्दगी अच्छी लगी 
***
निगाहे-नाज का ही जब ये ढंग है तो फिर 
निगाहे-ग़ैब का सोचो पयाम क्या होगा
 ***
न इंतज़ार करो नामाबर के आने का  
कोई जवाब न आना भी इक जवाब तो है 
***
कितना अच्छा है खामियां निकलीं 
तेरे अंदर तो आदमी है अभी  

बात चंद्रशेखर जी की चली है तो बताता चलूँ कि वो देश के पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने राज्य मंत्री या केंद्र में मंत्री बने बिना ही सीधे प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। जिन्होंने 4260 की.मी. पद यात्रा के दौरान लाखों लोगों से संपर्क कर लोकप्रियता की उन ऊंचाइयों को छुआ जिसे देख इंदिरा गांधी जैसी कद्दावर नेता भी घबरा गयीं .राजनीति के विद्वानों का मत है कि अगर श्री चंद्र शेखर को सत्ता में रहने का अधिक वक्त मिलता तो आज देश की हालत कुछ और ही होती। श्री चंद्र शेखर एक दृढ, साहसी और ईमानदार नेता होने के साथ साथ अत्यंत संवेदनशील, जागरूक साहित्यकार भी थे। उनके संपादन में दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका 'यंग इण्डिया' में उनके सम्पादकीय लेख देश में लिखे जाने वाले सर्वश्रेष्ठ सम्पादकीय लेखों में से एक हुआ करते थे। ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी चंद्रशेखर जी ने अगर अपना वरद हस्त साहिल जी के सर पर रखा तो उन्हें जरूर उनमें अपनी ही युवा छवि दिखाई दी होगी। लोकेश 'साहिल' जी ने 'तुक' उन्हें ही समर्पित की है। 

रूठ कर फिर से छिपूँ घर के किसी कोने में 
इक खिलौने के लिए सब से खफा हो जाऊं  

इसी उम्मीद पर दिन काट दिए हैं मैंने 
जिंदगी मैं तेरी रातों का दिया हो जाऊं  

जो मुझे छोड़ कर जाते हैं वो पंछी सुन लें 
कल नई रुत में फलों से ना लदा हो जाऊं 

इस किताब में श्री चंद्र शेखर जी का एक पत्र छपा है जो उन्होंने अपनी मृत्यु के एक हफ्ते पहले लिख कर भेजा था. वो लोकेश जी को प्रदान किए जाने वाले एक लाख की धनराशि मूल्य के  'बिहारी पुरस्कार' सम्मान समारोह में आना चाहते थे, लेकिन खराब स्वास्थ्य के चलते नहीं आ पाए. श्री चंद्र शेखर जी लिखते हैं कि " जिसने अपने जीवन में हर पहलू को परखा है, देखा है, भुगता है वही सही अर्थ में जीवन के रस की अभिव्यक्ति कर सकता है. राग, विराग, स्नेह, घृणा, उल्लास और उदासी सब कुछ ही तो देखना होता है, पर उसे अपने अंदर उतारकर जो लोगों तक पहुंच पाता है वही कलमकार है, साहित्यकार है. लोकेश भी उन्हीं लोगों में से एक हैं, ये अनुभूति के धनी हैं और उसे प्रकट करने में पूरी तरह सक्षम. इनकी भाषा में स्वाभाविकता है, लोगों को मोह लेने की शक्ति है भी है क्योंकि इनकी भाषा सामान्यजन की भाषा है और इनके भाव उनकी आपबीती के बखान।  

जिसको मौजों से उलझने का हुनर आता है 
उसको मझधार ने खुश होकर उछाला होगा  

जिसकी हर बात तुझे तीर सी चुभ जाती है 
वो बहर हाल तेरा चाहने वाला होगा  

तू तो इंसान है संदल का कोई पेड़ नहीं 
तूने किस तौर से सांपों को संभाला होगा  

जिनको आता है अदब में भी सियासत करना 
उनके कांधों पे ही रेशम का दुशाला होगा 

चंद्र शेखर जी के पत्र में उतरे भाव लोकेश जी के लिए सबसे बड़ा सम्मान हैं. हालांकि उनके लिए वरिष्ठ तथा साथी साहित्यकारों द्वारा वयक्त भाव भी कम महत्वपूर्ण नहीं. क्या कारण है कि लोकेश जी के लिए पुराने और नए साहित्यकार प्रशंसा का भाव रखते हैं. सुनने वाले उन्हेँ दीवानावार चाहते हैं. 'तुक' की ग़जलें पढ़ेंगे तो जवाब खुद ब खुद मिल जाएगा. ये ग़ज़लें किसी महबूबा से की गई गुफ्तगू नहीं हैं इनमें हमारी आपकी रोज की बातें समाहित हैं. ये हमारे सुख-दुख को, समाज की विडंबनाओं को, राजनीति के कीचड़ को और इंसान की फितरत को बयां करती हैं. इनमें हमें हमारा ही अक्स दिखाई देता है. ये ग़जलें जो जैसा है उसे बिना बात घुमाए सीधे सरल ढंग से कहती हैं. ये कहन ही इन्हें विशेष बनाती है. 

जिसे देखो वही बनता है आलिम 
जहालत काम करती जा रही है  

तुझे कमजोर सब कहने लगे हैं 
शराफत काम करती जा रही है  

बिना दिल के भी जिंदा लोग हैं सब 
       ये आदत काम करती जा रही है     
     
चंदौसी उत्तर प्रदेश के एक राजसी घराने में जन्में युवराज लोकेश कुमार सिंह जयपुर आ कर कब एक फक्कड़ फ़क़ीर तबियत के 'साहिल' में ढल गए ये शोध का विषय हो सकता है.रख रखाव अब भी उनका ठसके वाला है चाल और गर्दन में ख़म शाहों जैसा है बदली है तो सिर्फ़ सोच जिसके पीछे निश्चय ही चंद्र शेखर जी से निकटता का असर है जयपुर में उन्हें 'तारा प्रकाश जोशी' जैसे कवि और 'राही शहाबी' जैसे शायर की सोहबत में सीखने का मौका मिला। इस गंगा जमनी तहज़ीब का उन पर ये असर हुआ कि अब ये तय करना मुश्किल है कि वो बेहतर ग़ज़लकार हैं या कवि। 25 से अधिक संस्थाओं से जुड़े और देश के अग्रणी रचनाकारों के साथ 2000 से अधिक  कविसम्मेलन ,मुशायरे पढ़ने वाले लोकेश 'साहिल' आज भी मंच से जब ग़ज़लें या कवितायेँ या दोहे या मुक्तक या माहिये या घनाक्षरी छंद या आल्हा या कुंडलियां सुनाते हैं तो श्रोताओं के पास सिवाए मंत्रमुग्ध हो कर सुनने के और कोई विकल्प नहीं बचता। अपने शब्दों और सुरों से वो ऐसा जादू जगाते हैं कि लगता है समय थम सा गया है। उनके लेखन में आज भी युवाओं से अधिक ऊर्जा है और कलम में आंधी सी गति।         , 

ठिठुरती रात में काटी है ज़िन्दगी जिसने  
उसी ने धूप को पाया है मोतबर कितना  

तमाम ज़िन्दगी काग़ज़-क़लम में बीत गयी 
दुखों से काम लिया हमने उम्र भर कितना  

अदब तो बेच दिया तालियों लिफ़ाफ़ों में 
बनोगे और भला तुम भी नामवर कितना  

छंद मुक्त कविताओं और मंच पर सुनाये जाने वाले चुटकलों के घोर विरोधी और मीर परम्परा के लोकेश जी का 'तुक' दूसरा ग़ज़ल संग्रह है जिसे ऐनी बुक्स प्रकाशन इंदौर ने जिस ख़ूबसूरती से हार्ड बाउंड रूप में प्रकाशित किया है उसकी जितनी तारीफ की जाय कम है. किताब हाथ में लेकर सुखद अनुभूति होती है और पढ़ने की ललक बढ़ जाती है। किताब यूँ तो अमेजन पर ऑन लाइन उपलब्ध है  लेकिन आप चाहें तो ऐनी बुक्स के पराग अग्रवाल जी से 9971698930 पर संपर्क कर उसे मंगवा सकते हैं और पढ़ने के बाद साहिल साहब को 9414077820 पर संपर्क कर मशवरा दे सकते हैं कि वो अपने इस ख्याल को दिल से निकाल दें कि वो सिर्फ तुकबंदी करते हैं क्यूंकि सिर्फ़ तुकबंदी करने से इतनी खूबसूरत ग़ज़लों का सृजन नहीं हो सकता। उसके लिए ख्याल की पुख़्तगी और उसे शेर में पिरोने का सलीका आना चाहिए जो उन्हें बखूबी आता है। तभी उनके तो इस सलीक़े के विजय बहादुर सिंह, अली अहमद फ़ातमी, कृष्ण कल्पित, शीन काफ़ निज़ाम, अब्दुल अहद 'साज़', एहतिशाम अख़्तर, कृष्ण बिहारी नूर , मख्मूर सईदी , मुमताज़ राशिद,इनाम शरर , मुकुट सक्सेना और फ़ारुख़ इंजीनियर जैसे रचनाकार भी क़ायल हैं। 
आख़िर में पेश हैं किताब की पहली ग़ज़ल से ये शेर : 

तुम्हारे साथ की आवारगी में 
मिली है ज़िंदगानी ख़ुदकुशी में  

उसे कह दो कि थोड़ा चुप  रहे अब 
बहुत है शोर उसकी ख़ामशी में  

है हम पर ख़ौफ़ कितना तीरगी का 
उजाला ढूंढते हैं रौशनी में  

फ़क़त आता है 'साहिल' तुक मिलाना 
नहीं कुछ भी तो तेरी शायरी में 

Monday, July 6, 2020

किताबों की दुनिया -206 /2

'गुलाम अब्बास' जिस गांव में रहते थे वहाँ रहते हुए शायरी की दुनिया में आगे बढ़ने के रास्ते कम थे लेकिन घर की मज़बूरियों की वजह से उनका लाहौर जाने का सपना पूरा नहीं हो पा रहा था। कोई उन्हें राह दिखाने वाला नहीं था। बड़ा भाई वहीँ के एक स्कूल में पढ़ाया करता था उसी की शिफारिश पर गुलाम अब्बास भी स्कूल में पढ़ाने लगे। ये नौकरी उन्हें बहुत दिनों तक रास नहीं आयी। दिल में अच्छा शायर बनने और अपना मुस्तकबिल संवारने की ललक आखिर अक्टूबर 1981 में उन्हें उनके सपनों के शहर लाहौर में ले आयी. 'रोजनामा जंग' अखबार में उन्हें 700 रु महीने की तनख्वा पर प्रूफ रीडर की  नौकरी मिल गयी। नौकरी और शायरी दोनों साथ साथ चलने लगी। नया शहर, नए लोग, नए कायदे मुश्किलें पैदा करने लगे और गाँव की सादा ज़िन्दगी ,घर का सुकून उन्हें बार बार लौटने को उकसाने लगा। लेकिन गुलाम अब्बास आँखों में सपने लिए मज़बूत इरादों से लाहौर आये थे इस लिए डटे रहे। मुश्किलों ने उनकी शायरी को पुख्ता किया। 

इसलिए अब मैं किसी को नहीं जाने देता 
जो मुझे छोड़ के जाते हैं चले जाते हैं 
***
चाँदनी खंदा है अपने हुजरा-ऐ-महताब पर 
और मैं नाज़ाँ हूँ इस पर मेरा घर मिटटी का है 
खंदा : हंसती , हुजरा ऐ महताब : चाँद के कमरे नाज़ाँ :फ़क्र करने वाला 
***
ये तेरे बाद खुला है कि जुदाई क्या है 
मुझ से अब कोई अकेला नहीं देखा जाता 
***
पानी आँख में भर लाया जा सकता है 
अब भी जलता शहर बचाया जा सकता है 
***
उस को रस्ते से हटाने का ये मतलब तो नहीं 
किसी दीवार को दीवार न समझा जाए 
***
एक तो मुड़ के भी न जाने की अज़ीयत थी बहुत 
और उस पर ये सितम कोई पुकारा भी नहीं 
***
देखा न जाए धूप में जलता हुआ कोई 
मेरा जो बस चले करूँ साया दरख़्त पर 
***
अभी तो घर में न बैठो, कहो बुजुर्गों से  
अभी तो शहर के बच्चे सलाम करते हैं 
***
यकीं आता नहीं तो मुझ को या महताब को देखो 
कि रात उसकी भी कट जाती है जिस का घर नहीं होता 
***
बस यही देखने को जागते हैं शहर के लोग 
आसमाँ कब तेरी आँखों की तरह होता है 

गुलाम अब्बास लाहौर आ तो गए लेकिन इतने बड़े शहर में अपनी मंज़िल कैसे तलाश करें ये सोचने लगे। कोई मदद के लिए आगे नहीं आया। शहर के लोग बेमुरव्वत होते हैं, ऐसा नहीं है, ऐसा सोचना भी गलत होगा। दर असल शहर में लोग ज्यादा होते हैं सभी एक मैराथन दौड़ का हिस्सा होते हैं सभी को मंज़िल की तलाश और वहां तक पहुँचने की जल्दी होती है इसलिए किसी से भी ये उम्मीद रखना कि वो आपका हाथ पकड़ कर रास्ता दिखायेगा सही नहीं होगा। हाँ आपको धक्का दे कर आगे निकलने वाले बहुतायत में मिलेंगे। अब्बास साहब की ज़िन्दगी में शायरी और नौकरी के साथ साथ धक्के भी जुड़ गए लेकिन इन तकलीफ़ों ने उन्हें एक बेहतर इंसान बनने में मदद की। 

चलता रहने दो मियाँ सिलसिला दिलदारी का
आशिक़ी दीन नहीं है कि मुकम्मल हो जाए 

हालत-ऐ-हिज़्र में जो रक़्स नहीं कर सकता 
उस के हक़ में यही बेहतर है कि पागल हो जाए 

डूबती नाव में सब चीख रहे हैं 'ताबिश'
और मुझे फ़िक्र ग़ज़ल मेरी मुकम्मल हो जाए 

कहते हैं जब ऊपर वाला आप पर मेहरबान होता है तो वो खुद तो मदद को नहीं आता अलबत्ता अपना एक नुमाइंदा आपके पास भेज देता है। गुलाम अब्बास साहब की मदद के लिए ऊपर वाले ने जिन्हें भेजा वो थे पाकिस्तान के उस्ताद शायर जनाब खालिद अहमद साहब जो लाहौर ही में रहते थे ।खालिद साहब को उन्होंने अपना उस्ताद बनाया और उनकी रहनुमाई में ग़ज़ल कहने में खूब मेहनत करने लगे। मेहनत और लगन का नतीज़ा निकलना ही था। अब्बास ताबिश साहब की क़लम खूब चल निकली । खालिद साहब ने उन्हें एक अच्छा और कामयाब शायर बनने के गुर सिखाये और बताया कि शायरी फ़ुर्सत में किया जाने वाला काम नहीं है बल्कि ये पूरे वक्त किये जाने वाला काम है । अब आप हमेशा तो शेर नहीं कह सकते लेकिन शेर कहने के लिए आपको हमेशा शेर की कैफ़ियत में रहना होता है. अपने ही लिखे को बार बार खारिज़ करने का हुनर सीखना होता है। यूँ समझें शेर कहना मछली पकड़ने जैसा काम है आप को ख़्याल के दरिया में हमेशा जाल डाल के रखना होता है अब मछली तो मछली है फंसे तो अभी फंस जाय और न फंसे तो महीनों न फंसे।     

तुम मांग रहे हो मेरे दिल से मेरी ख़्वाइश 
बच्चा तो कभी अपने खिलौने नहीं देता 

मैं आप उठाता हूँ शब-ओ-रोज़ की ज़िल्लत 
ये बोझ किसी और को ढोने नहीं देता 
 शब-ओ-रोज़ :रात-दिन ,ज़िल्लत :बदनामी, तौहीन  

वो कौन है उससे तो मैं वाक़िफ़ भी नहीं हूँ 
जो मुझको किसी और का होने नहीं देता 

फिर वो वक्त आया जिसका हर शायर को बेताबी से इंतज़ार रहता है याने उसकी पहली किताब का मंज़र-ए-आम पर आना।  खालिद साहब ने ही उनकी पहली ग़ज़लों की किताब '"तम्हीद " शाया करवाई और उसके मंज़र-ऐ-आम पर आते ही 'अब्बास ताबिश' साहब के नाम खुशबू की पाकिस्तान ही नहीं पूरी दुनिया में फैले शायरी के दीवानों तक पहुँच गयी। 'तम्हीद' के बाद उनकी ग़ज़लों की पाँच और किताबें "आसमाँ ""मुझे दुआओं में याद रखना ",परों में शाम ढलती है ","रक्से दरवेश "और "शजर तस्बीह करते हैं "शाया हो चुकी हैं. आम तौर पर शायर की कुलियात उसके दुनिया से रुख़्सत होने के बाद ही शाया होती है लेकिन अब्बास ताबिश  "मुनीर नियाज़ी " साहब की तरह ये सोच कर कि अक्सर उनकी सभी किताबें उनके पाठकों को एक ही जगह नहीं मिल पातीं या फिर आउट आफ प्रिंट जाती हैं अपना कुलियात "इश्क आबाद "मंज़र -ऐ-आम पर ले आये."    
हिंदी में शायद उनकी पहली और एक मात्र ग़ज़लों की किताब 'राधा कृष्ण प्रकाशन से "रक्स जारी है " नाम से प्रकाशित हुई जिसका जिक्र हम अभी कर रहे हैं :   


यूँ ही ख्याल आता है बाँहों को देख कर 
इन टहनियों पे झूलने वाला कोई तो हो 

हम इस उधेड़बुन में मोहब्बत न कर सके 
ऐसा कोई नहीं मगर ऐसा कोई तो हो  

मुश्किल नहीं है इश्क का मैदान मारना 
लेकिन हमारी तरह निहत्था कोई तो हो 

 चलिए बात वहीँ से शुरू करते हैं जहाँ छोड़ी थी। जी हाँ लाहौर से।  लाहौर की ज़िन्दगी अब्बास साहब को रास आने लगी। प्रूफ रीडिंग की नौकरी पूरे चार साल करने के बाद गवर्मेंट लाहौर के कॉलेज में दाख़िला लेकर उर्दू में एम् ऐ किया और वहां से निकलने वाले मशहूर रिसाले 'रावी' का संपादन किया और फिर लाला मूसा के कॉलेज में लेक्चरर बन गए। आजकल गुलबर्गा कालेज में उर्दू विभाग के अध्यक्ष की हैसियत से नौकरी कर रहे हैं।

लाहौर में जितना वक्त मिलता वो खालिद साहब की सोहबत में बिताने लगे। गुफ़तगू के दौरान खालिद साहब की बातें अब्बास साहब गांठ बांध लेते। उनकी एक बात उन सबके लिए गाँठ बांधनी जरूरी है, जो शायरी करते हैं और उस में अपनी पहचान बनाना चाहते हैं। खालिद साहब का कहना था कि शायरी लम्बी कूद के खेल की तरह होती है जिसमें आगे कूदने के लिए पहले पीछे की और जाना होता है। उनका इशारा रिवायत की ओर जाने से था। याने ये जानना जरूरी है कि आप से पहले किसी मौज़ू पर उस्ताद लोग क्या कह गए हैं और कैसे कह गए हैं। उन्हें पढ़ कर आप बहुत कुछ सीख सकते हैं। भले ही दुनिया हर दिन बदल रही हो लेकिन इंसान अभी भी वैसा ही है जैसा बाबा आदम के ज़माने में हुआ करता था। उसकी सोच में बहुत अधिक अंतर नहीं आया है। उसकी परेशानियां भी कमोबेश वैसी ही हैं। आधुनिकता ने उसे बाहर से भले ही बदल दिया हो लेकिन भीतर से गौर करें तो कुछ नहीं बदला। शायरी में अब नए अल्फ़ाज़ आ गए हैं लेकिन मूल बात अभी भी वही रहती है जो पहले थी। इश्क, रुसवाई, बेवफ़ाई, रक़ीब, ज़माना, मुश्किलें जस की तस हैं। 

वर्ना कोई कब गालियाँ देता है किसी को 
ये उसका करम है कि तुझे याद रहा मैं 

इस दर्ज़ा मुझे खोखला कर रख्खा था ग़म ने 
लगता था गया अब के गया अब के गया मैं 

इक धोके में दुनिया ने मेरी राय तलब की 
कहते थे कि पत्थर हूँ मगर बोल पड़ा मैं 

अब तैश में आते ही पकड़ लेता हूँ पाँव 
इस इश्क़ से पहले कभी ऐसा तो न था मैं 

रिवायत की तरफ़ जाने के बाद हमें ये याद रखना चाहिए कि हमें वहीँ का नहीं हो कर रह जाना। दरअसल रिवायत एक जंगल है जिसमें भटकने कि सम्भावना ज्यादा हैं। लोग रिवायत के जंगल में जा कर या तो रास्ता भटक के वहीँ के हो जाते हैं या फिर खाली हाथ लौट आते हैं जबकि हमें रिवायत के जंगल की खुशबू और ताज़गी को अपने साथ लिए लौटना होता है। जो ऐसा कर पाते हैं उनकी शायरी में ताज़गी और रवानी देर तक बनी रहती है। बहुत से कामयाब शायरों को आप देखें कि वो आगाज़ बहुत शानदार करते हैं लेकिन कुछ वक्त के बाद खुद को दोहराने लगते हैं।  खालिद साहब ने समझाया कि जब तुम्हें लगने लगे कि शायरी में दोहराव हो रहा है या ताज़गी ख़तम हो रही है तभी ठीक तभी आपको अपनी कलम एक तरफ़ रख देनी चाहिए। लिखना छोड़ के दूसरों को पढ़ना शुरू कर देना चाहिए। इस से आप अपनी साख देर तक बनाये रखने में कामयाब होंगे।      
    
हमारे दुःख न किसी तौर जब ठिकाने लगे 
हम अपने घर में परिंदों के घर बनाने लगे 
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बर्फ पिघलेगी तो हम भी चल पड़ेंगे उसके साथ 
देखने वाले यही समझेंगे कि दरिया जाए है 
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घर टपकता देख कर रोती है माँ 
छत तले इक छत पुरानी और है 
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कोई रोंदे तो उठाते हैं निगाहें अपनी 
वर्ना मिटटी की तरह राह से कम उठते हैं 
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वो अपनी मर्ज़ी का मतलब निकाल लेता है 
अगरचे बात तो हम सोच कर बनाते हैं 
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तुझे क़रीब समझते थे घर में बैठे हुए 
तिरि तलाश में निकले तो शहर फ़ैल गया 
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जिस तरह पेड़ को बढ़ने नहीं देती कोई बेल 
क्या जरूरी है मुझे घेर के मारा जाए 
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ये जमा ख़र्च ज़बानी है उसके बारे में 
कोई भी शख़्स उसे देख कर नहीं आता 
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 कि जैसे उससे मुलाकात फिर नहीं होगी 
वो सारी बातें इकठ्ठी बताना चाहता है 
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तन्हाई से थी मेरी मुलाक़ात आख़िरी 
रोया और इसके बाद मैं घर से निकल गया 

ताबिश साहब ने खूब पढ़ा है और आज भी मौका लगते ही पढ़ने लगते हैं चाहे शायर नया हो या पुराना। इसके अलावा सूफ़ी संत 'शाह हुसैन' को भी दिल से पढ़ा जिससे उनकी शायरी में इबादत  मुहब्बत के रंग आये। अब्बास साहब किसी के अच्छे शेर पर दाद देने से कभी नहीं चूकते। उनका मानना है कि अच्छा शेर ऊपर वाले की देन होता है वो चाहे जिसे अता करे,और हमें उसका एहतराम करना चाहिए। उम्मीद करनी चाहिए कि ऊपरवाला अच्छा शेर कभी आपको भी अता करेगा। ताबिश साहब नौजवान शायर,चाहे वो पाकिस्तान का हो या हिंदुस्तान का ,हौसला अफ़ज़ाही करना अपना फ़र्ज़ समझते हैं यही वजह है की दोनों मुल्कों के नौजवान शायर उन्हें बहुत पसंद करते हैं। दुनिया के गोशे गोशे में मुहब्बत का पैग़ाम देने वाले इस शायर के चाहने वाले सब तरफ़ फैले हुए हैं। ऐसा नहीं है कि इनके हिस्से में हमेशा फूल ही आये हों ,कांटे भी मिले हैं बल्कि मिलते रहते हैं लेकिन इनकी खूबी यही है कि ये जैसे फूल लेते वक्त मुस्कुराते हैं वैसे ही काँटों से ज़ख्म खाते वक्त भी। और इसी खूबी ने इन्हें बुलंदी पे पहुँचाया है।अब्बास साहब ने ये सिद्ध किया कि अगर आपकी शायरी में मयार है तो आप मुशायरों में बिना तरन्नुम और अदाकारी का सहारा लिए भी क़ामयाब हो सकते हैं  

कोई गठड़ी तो नहीं है कि उठा कर चल दूँ 
शहर का शहर मुझे रख़्त-ए-सफ़र लगता है 
रख्त-ए-सफ़र : सफ़र का सामान 

इस ज़माने में ग़नीमत है ग़नीमत है मियां 
कोई बाहर से भी दरवेश अगर लगता है 

काश लौटाऊँ कभी उसका परिंदा उसको 
अच्छा मिसरा मुझे टूटा हुआ पर लगता है 

आप सोच रहे होंगे कि मैं शायर के बारे में ही बताता जा रहा हूँ उसकी शायरी पे कुछ नहीं कह रहा तो हुज़ूर उसकी दो वजह है पहली ये कि मैं खुद को इस लायक़ नहीं समझता कि इस क़द्दावर शायर की शायरी पर तब्सरा करने की गुस्ताख़ी करूँ और दूसरी ये कि जिसे मैं पसंद या नापसंद करूँ उसे आप भी पसंद या नापसंद करें। इसलिए मैं उनकी किताब से यूँ ही जहाँ नज़र गयी वहां से कुछ अशआर आपको पढ़वा रहा हूँ यदि आपको पसंद आये तो आप खुद ब खुद राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली को गूगल पे ढूंढ निकालेंगे और इस किताब को मंगवा कर पूरी पढ़ेंगे ,वैसे ये किताब अमेज़न से ऑन लाइन मंगवाई जा सकती है। वैसे मुझे लगता है कि शायरी के दीवानों की अलमारी में ये किताब जरूर होनी चाहिए। ऐसी किताब जिसमें एक भी शेर आपको नेगटिव नहीं मिलेगा।अब्बास साहब ने ये सिद्ध किया कि अगर आपकी शायरी में मयार है तो आप मुशायरों में बिना तरन्नुम और अदाकारी का सहारा लिए भी क़ामयाब हो सकते हैं.अब्बास साहब को 2017 में क़तर में "मलिक मुसीबुर्रहमान इंटरनेशनल अवार्ड और पाकिस्तान सरकार द्वारा 'तमगा-ए-इम्तिआज़' के ख़िताब से नवाज़ा गया है।     
 
अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले चलते चलते ये अशआर भी पढ़वाता चलता हूँ। 

यूँ भी मंज़र को नया करता हूँ मैं 
देखता हूँ उसको हैरानी के साथ 

आँख की तह में कोई सहरा न हो 
आ रही है रेत भी पानी के साथ 

ज़िन्दगी का मसअला कुछ और है 
शेर के कह लेता हूँ आसानी के साथ 

अब अगर उनका एक शेर जो हमेशा जहाँ भी वो जाते हैं उनसे पहले ही वहां पहुँच जाता है और उनकी पहचान बन चुका है वो भी पढ़ लीजिये  

एक मुद्दत से मिरि माँ नहीं सोई 'ताबिश'
मैंने इक बार कहा था मुझे डर लगता है