Monday, December 28, 2009

जिसकी शाखें परिंदों के गाने सुनें

सुधि पाठको प्रस्तुत है इस वर्ष की अंतिम ग़ज़ल "नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाओं सहित"



उलझनें उलझनें उलझनें उलझनें
कुछ वो चुनती हमें,कुछ को हम खुद चुनें

जो नचाती हमें थीं भुला सारे ग़म
याद करते ही तुझको बजी वो धुनें

पूछिये मत ख़ुशी आप उस पेड़ की
जिसकी शाखें परिंदों के गाने सुनें

वक्त ने जो उधेड़े हसीं ख्वाब वो
आओ मिल कर दुबारा से फिर हम बुनें

सिर्फ पढने से होगा क्या हासिल भला
ज़िन्दगी में न जब तक पढ़े को गुनें

जो भी सच है कहो वो बिना खौफ के
तन रहीं है निगाहें तो बेशक तनें

अब रिआया समझदार 'नीरज' हुई
हुक्मरां बंद वादों के कर झुनझुनें

(गुरुदेव पंकज सुबीर जी द्वारा दुलारी गयी ग़ज़ल)

Monday, December 21, 2009

किताबों की दुनिया - 20

शायरी करना तो अभी का शौक है लेकिन शायरी पढना बहुत पुराना.बरसों से अच्छे शायरों को पढता रहा हूँ और ये काम अभी भी बदस्तूर जारी है. इसी शौक की वजह से मैं आपका तारुफ्फ़ नयी नयी किताबों से करवाने का प्रयास करता हूँ. किताबों के आलावा नेट पर भी जहाँ कहीं सम्भावना नज़र आये नज़रें दौड़ाता रहता हूँ. 'अनुभूति' मेरी प्रिय साईट है जिसे 'पूर्णिमा वर्मन' जी चलाती हैं.इस साईट पर हर हफ्ते अंजुमन के तहत नए अशार पढने को मिलते हैं. अपनी इसी खोज के दौरान मैं चंद ऐसी ग़ज़लों से रूबरू हुआ जिन्होंने मुझ पर गहरा असर डाला.

शायर का नाम देखा तो मुझे अनजाना लगा. मुझे अनजान शायरों को पढने में बहुत मजा आता है क्यूंकि आप नहीं जानते की वो कैसे हैं, कैसा लिखते हैं, क्या सोचते हैं याने आपके मन में उनकी कोई पूर्व छवि बनी हुई नहीं होती. आप उन्हें निष्पक्ष हो कर पढ़ते हैं. इसी में मजा आता है. वहीँ अनुभूति की साईट पर उनका परिचय भी दिया हुआ था जिसमें उनकी ग़ज़ल की किताब का जिक्र भी था. अनुभूति से ही उनकी मेल का पता मिला और तुरंत उन्हें पुस्तक भेजने का अनुरोध कर डाला.

आज किताबों की दुनिया में उसी शायर "संजय ग्रोवर" जी की किताब " खुदाओं के शहर में आदमी" का जिक्र करूँगा जिसे उन्होंने मुझे कोरियर से भेज अनुग्रहित किया.

संजय जी का 'संवाद घर' के नाम से ब्लॉग भी है.



सबसे पहले तो इस किताब के शीर्षक ने ही मुझे आकर्षित किया. इसी से मुझे शायर की नयी सोच का भान हो गया था, फिर जैसे जैसे मैं इसके वर्क पलटता गया, मेरी सोच पुख्ता होती चली गयी.

मौत की वीरानियों में ज़िन्दगी बन कर रहा
वो खुदाओं के शहर में आदमी बन कर रहा

ज़िन्दगी से दोस्ती का ये सिला उसको मिला
ज़िन्दगी भर दोस्तों में अजनबी बन कर रहा

उसकी दुनिया का अँधेरा सोच कर तो देखिये
वो जो अंधों की गली में रौशनी बन कर रहा

एक अंधी दौड़ की अगुआई को बैचैन सब
जब तलक बीनाई थी मैं आखरी बन कर रहा
बीनाई: रौशनी

अपेक्षा कृत युवा (जन्म १९६३) संजय साहब के बागी तेवरों का अंदाज़ा इस बात से हो जाता है की ये किताब उन्होंने तसलीमा नसरीन साहिबा को समर्पित की है. ज्ञान प्रकाश विवेक जी ने इस पुस्तक की भूमिका में सही लिखा है की: अनुभवों की गहराई बेशक संजय की शायरी में न हो, अपने समय की मुश्किलों से मुठभेड़ की जुर्रत मौजूद है.

वक्त का यह कौनसा संवाद है
आदमी अब हर जगह उत्पाद है

भीड़ है भेड़ों की, तोतों की तुकें
जो नया है वो महज़ अपवाद है

क्यूँ अमन के तुम उड़ाते हो कपोत
धर्म का मतलब तो अब उन्माद है

ये छोटी सी किताब है जिसमें कुल जमा चौरासी पन्ने हैं लेकिन हर पन्ना बार बार पढने लायक है. संजय जी ने अपनी ग़ज़लों में बहुत से प्रयोग लिए हैं. उनकी एक ग़ज़ल में पत्थर शब्द का प्रयोग हर शेर में किया गया है लेकिन अलग अलग सन्दर्भों में, उसी ग़ज़ल के चंद शेर देखें:

पत्थरों को भी जो आईनों के माफिक तोड़ दे
इतनी कुव्वत रख सके इक ऐसा पत्थर लाईये

हैसियत देखे बिना बेख़ौफ़ पत्थर मारना
आपके बस का नहीं, बच्चा कोई बुलवाईये
(इस शेर को पढ़ कर मुझे पुरानी फिल्म 'अंकुर' का अंतिम दृश्य याद आ गया जिसमें एक बच्चा ज़मींदार के घर पर पत्थर उठा कर मारता है)

पत्थरों की मार से महफूज़ रहने के लिए
मंदिरों में पत्थर अपने नाम के लगवाईए

ज्ञान प्रकाश जी भूमिका में आगे लिखते हैं "संजय ग्रोवर की शायरी उम्मीदों और संभावनाओं की शायरी है. शायरी में आकाश को छूने की काल्पनिकता नहीं है. हवा को मुठ्ठियों में कैद करने की जिदें भी नहीं हैं. ज़मीन पर चलने और अपनी जड़ें तलाश करने की बेकरारी जरूर है."

ताज़ा कौन किताबें निकलीं
उतरी हुई जुराबें निकलीं

शोहरत के संदूक में अक्सर
चोरी की पोशाकें निकलीं

मैले जिस्म घरों के अन्दर
बाहर धुली कमीज़ें निकलीं

पानी का भी जी भर आया
यूँ बेजान शराबें निकलीं

संजय जी ने अपने आस पास पनपते विरोधाभास को बखूबी अपनी शायरी में ढाला है. इनकी ग़ज़लें मंचीय नहीं हैं और व्यवस्था विरोध के सरल फार्मूले को अपनाती हैं .उनका प्रयास अच्छे शेर कहने का रहा है और उन्होंने अच्छे शेर कहें भी हैं:

जीती-जगती कलियों को लें तोड़, बनाते हार
पत्थर की दुर्गाओं की फिर पूजा करते लोग

कमज़ोरों के आगे दीखते पत्थर जैसे सख्त
ताक़तवर कोई आये तो फूल से झरते लोग

अपने काम की खातिर देते रिश्वत में परसाद
कहने को सब कहते हैं भगवान् से डरते लोग

संजय जी की ग़ज़लें भारत की प्रत्येक अखबार पत्रिका में छप चुकीं हैं, इसके आलावा दो व्यंग संकलन और दो ग़ज़ल संकलन भी प्रकाशित हो चुके हैं. इस किताब के प्रकाशक स्वयं संजय जी ही हैं इसलिए ग़ज़ल प्रेमियों को उनसे उनके घर 147- ऐ . पाकेट ऐ, दिलशाद गार्डन,दिल्ली - 95 संपर्क करना पड़ेगा अथवा आप उनसे फोन 011-43029750 ,एवं मोबाईल 09910344787 द्वारा भी संपर्क कर सकते हैं.अस्सी रु. मूल्य की ये किताब हर ग़ज़ल प्रेमी को पढनी चाहिए.

आखिर में इस देश के लाखों करोड़ों हिंदी प्रेमियों के लिए उनका ये शेर पेश कर रहा हूँ, जो हमें सोचने को बाध्य करता है.

खाट पर पसरी हुई मेहमान अंग्रेजी के साथ
अपने घर में हिंदी की लाचारगी को सोचना

इसी ग़ज़ल के दो शेर और पढ़ते चलिए और संजय जी से संपर्क कर उन्हें इस लाजवाब किताब के लिए बधाई दीजिये. कम से कम इतना तो आप कर ही सकते हैं

दुश्मनों के खौफ से पीछा छुड़ाना हो अगर
दोस्तों में कुलबुलाती दुश्मनी को सोचना

जिस घडी मन कृष्ण जैसी रास लीलाएं रचे
उस घडी इक पल ठहर कर द्रौपदी को सोचना




Monday, December 14, 2009

नाचिये, थाप जब उठे दिल से




चाह कुछ भी नहीं है पाने की
खासियत बस यही दिवाने की

गैर का साथ गैर के किस्से
ये तो हद हो गई सताने की

साथ फूलों के वो रहा जिसने
ठान ली खार से निभाने की

टूट बिखरेगा दिल का हर रिश्‍ता
छोडि़ये जिद ये आजमाने की

सारी खुशियों को लील जाती है
होड़ सबसे अधिक कमाने की

नाचिये, थाप जब उठे दिल से
फ़िक्र मत कीजिये ज़माने की

साफ़ कह दीजिये नहीं आना
आड़ मत लीजिये बहाने की

फैंक दरवाज़े तोड़ कर 'नीरज'
देख फिर शान आशियाने की


(नमन गुरुदेव पंकज सुबीर जी को जिनका स्नेह ग़ज़लें लिखने की हिम्मत देता है )

Monday, December 7, 2009

मैं तस्वीर उतारता हूँ...


फोटोग्राफी मेरा शौक है लेकिन इस विधा में मैं पारंगत नहीं हूँ. मेरे ख्याल से फोटोग्राफी में जो सबसे अहम् बात है वो है आपकी आँख. आप किस वक्त क्या, कैसे देखते हैं, ये बहुत महत्वपूर्ण है . उसके बाद कैमरे की गुणवत्ता और आपके हुनर का नंबर आता है. दरअसल ये सब कुछ होने के बावजूद एक चीज और जरूरी है वो है किस्मत...आप किस समय कहाँ हैं और कैमरे की आँख से क्या पकड़ पाते हैं ये सब आपके हाथ में नहीं होता. बहुत बार बहुत अच्छा दृश्य होने के बावजूद रौशनी या कैमरा आपका साथ नहीं देता या फिर रौशनी और कैमरे का साथ सही होने पर जैसे दृश्य चाहें वैसे नहीं मिलते. अगर इन का सही संगम हो तो फोटोग्राफ यादगार बन जाता है.

भूमिका में ही आपका सारा समय नष्ट किये बैगैर मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ.

अभी कुछ दिनों पहले पूना में फोटोग्राफी प्रदर्शनी लगी हुई थी.एक शाम फैक्ट्री से सीधे प्रदर्शनी देखने जा पहुंचा. अपना सस्ता मोबाईल साथ था ही, उसी से खींची प्रदर्शनी में प्रदर्शित कुछ फोटो दिखाता हूँ जिनको देख मेरे मुंह से वाह निकल गयी थी..

प्रदर्शनी का नाम था "दृष्टिकोण" स्थल के मुख्य द्वार के बाहर लगे बैनर को देख कर ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल था की अन्दर इतनी खूबसूरत फोटो प्रदर्शित की गयी होंगीं.


प्रदर्शन हाल में कुछ फोटोग्राफी के घनघोर प्रेमियों को देखा जा सकता था .ये लोग आधे आधे घंटे तक एक ही फोटो के सामने खड़े उसकी कम्पोजीशन कैमरे के एंगल, रौशनी आदि तकनिकी बातों पर चर्चा कर रहे थे.


सबसे पहले मुझे शाम के आखरी पहर में झील के किनारे एक ठूंठ से दिखने वाले चित्र ने आगे बढ़ने से रोक दिया. आपजो देख रहे हैं वो असली चित्र का प्रतिबिम्ब मात्र है इसलिए हो सकता है की इसकी असली खूबसूरती पकड़ में ना सके, फिर भी काले, हलके नीले, बैगनी और नारंगी रंगों की छटा तो आप देख ही सकते हैं...


तार पर बैठे दो प्रतीक्षा रत छोटे पक्षी और दूर से उनकी और आती उनकी माँ का ये फोटो, फोटोग्राफर की अच्छी किस्मत का ही परिणाम है, क्यूँ की ये दृश्य क्षणिक है और उसे सही समय में पकड़ना इतना आसान नहीं है.


इसी तरह एक पक्षी द्वारा अपने शिकार को खाते हुए का ये फोटो दांतों तले ऊँगली दबाने को बाध्य करता है क्यूँ की इस फोटो में पक्षी ने अपने भोजन के लिए पकडे पतंगे को चौंच द्वारा काट कर दो टुकड़े कर डाले हैं और एक टुकड़ा टूट कर गिरता हुआ नज़र आ रहा है. ये भी किस्मत से सही समय पर लिया गया फोटो है.


पक्षी का ही एक और फोटो, फोटो ग्राफी कला का अनूठा नमूना है. इस फोटो में पक्षी के पंखों से झरती रौशनी को क्या खूब कैद किया है. मेरी नज़र में ये एक दुर्लभ फोटो है. विशेषग्य शायद इस बारे में कुछ और राय रखें लेकिन मुझे ये चित्र ग़ज़ब का लगा.


ब्लैक एंड वहाईट याने श्वेत श्याम फोटो अब गुज़रे कल की बात हो गयी है. कुछ फोटो ग्राफर अब भी ये मानते हैं की जो तिलिस्म श्वेत श्याम फोटो से पैदा होता है, रंगीन फोटो उस तक नहीं पहुँच सकती. इस प्रदर्शनी में प्रदर्शित दो चार श्वेत श्याम चित्र इस बात की पुष्टि भी करते नज़र आये. आप बताएं क्या ये भावी सचिन तो नहीं?


इसी कड़ी में एक लद्दाखी वृद्ध महिला का अपने चश्मे को पोंछते हुए का फोटो भी उलेखनीय है. फोटो ग्राफर इसके लिए प्रशंशा का पात्र है.


पोर्ट्रेट फोटोग्राफी में खासी अहमियत रखता है. स्टूडियो की चार दिवारी में पोर्ट्रेट खींचना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है लेकिन उस चार दिवारी के बाहर कोई पोर्ट्रेट खींचना बहुत मुश्किल काम है. आप इस फोटो को देख कर शायद मेरी बात पर यकीन करें.


एक और चित्र जिसने मुझे ठिठकने पर मजबूर किया वो था एक प्रतीक्षा रत युवती का. इस चित्र का गहरा प्रभाव देखने वाले के साथ दूर तक चलता है.


आयीये अब जरा रंगों का खेल देखा जाए. सबसे पहले देखते हैं एक नदी में सूर्यास्त के समय एकाकी नौका का ये फोटो जो हतप्रभ कर देता है. ढलता सूर्य कहीं नहीं है लेकिन उसकी लालिमा से सारा माहौल लाल हो गया है .


इसी लालिमा को अब देखते है आकाश पर. इन चित्रों को देख कर भरत व्यास जी का गीत " ये कौन चित्रकार है ये कौन चित्रकार ..." याद आ जाता है.


अब देखिये अजीब विरोधाभास इस फोटो में. होली के रंगों के बीच एक सफ़ेद कपडे पहना व्यक्ति अपने आपको लगता है बहुत असहज महसूस कर रहा है.


नृत्य और रंगों का एक गहरा सम्बन्ध है. नृत्य उल्हास का प्रतीक हैं और रंग भी तभी अधिकाँश नृत्यों में रंग बिरंगे वस्त्रों का उपयोग किया जाता है.शायद ही कोई नृत्य बिना श्रृंगार और तड़क भड़क वाले रंगीन कपड़ो के संपन्न किया जाता हो. इसी बात को फोटो ग्राफर ने अपनी इस फोटो में प्रदर्शित किया है.


इस प्रदर्शनी में सौ से ऊपर फोटो प्रदर्शित किये गए थे जिनमें से कुछ को ही मैं आप तक पहुंचा पाया हूँ. उम्मीद करता हूँ की मेरी ये पोस्ट भी पिछली बार की 'रंगोली' की तरह ही पसंद की जाएगी. आप अपने उदगार व्यक्त करें ताकि भविष्य में इस तरह के काम और भी किये जाएँ.

Monday, November 30, 2009

बिस्तर ज़मीं को,बांह को तकिया बना लिया




यूं हसरतों का दायरा हद से बढ़ा लिया
खुशियों को जिन्‍दगी से ही अपनी घटा लिया

खुद पर भरोसा था तभी, उसने ये देखिये
दीपक हवा के ठीक मुका‍बिल जला लिया

हम से फकीरों को कहीं जब नींद आ गयी
(महनत कशों को जब कहीं पे नींद आ गयी )
बिस्तर ज़मीं को,बांह को तकिया बना लिया

शिद्दत से है तलाश मुझे ऐसे शख्‍स की
इस दौर में है जिसने भी ईमां बचा लिया

वो ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी क्या बोलिये मियां
औरों से जिंदगी में जो तुमने सदा लिया

मां बाप को न पूछा कभी जीते जी मगर
दीवार पे उन्‍हीं का है फोटो सजा लिया

"नीरज" उसी के नाम से काटें ये ज़िन्दगी
इक बार जिसको आपने दिल में बसा लिया


( गुरुदेव पंकज सुबीर जी के आशीर्वाद बिना, ये ग़ज़ल इस स्वरुप में नहीं आ पाती )

Monday, November 23, 2009

किताबों की दुनिया - 19

ऐ खुदा रेत के सेहरा को समन्दर कर दे
या छलकती हुई आँखों को भी पत्थर कर दे

तुझको देखा नहीं मेहसूस किया है मैंने
आ किसी दिन मेरे एहसास को पैकर* कर दे
पैकर* = आकृति

और कुछ भी मुझे दरकार नहीं है लेकिन
मेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे

बरसों से जब भी जगजीत सिंह जी की आवाज़ में ये ग़ज़ल उनके अल्बम 'ऐ साउंड अफेयर' को सुनता हूँ तो इसे बार बार रीवाइंड कर सुनने को जी करता है . एक तो जगजीत जी की आवाज़ और उसपर ये जादुई अशार मुझे बैचैन कर देते हैं .

इस खूबसूरत ग़ज़ल के शायर हैं जनाब "डा. शाहिद मीर" साहब. आज 'किताबों की दुनिया' श्रृंखला में उन्हीं की बेजोड़ किताब " ऐ समंदर कभी उतर मुझ में " का जिक्र करेंगे. दरअसल इस किताब में मीर साहब के चुनिंदे कलामों का संपादन किया है श्री अनिल जैन जी ने. संपादन क्या किया है गागर में सागर भर दिया है.



पहले तो सब्ज़ बाग़ दिखाया गया मुझे
फिर खुश्क रास्तों पे चलाया गया मुझे

रक्खे थे उसने सारे स्विच अपने हाथ में
बे वक़्त ही जलाया, बुझाया गया मुझे

पहले तो छीन ली मेरी आँखों की रौशनी
फिर आईने के सामने लाया गया मुझे

पद्म श्री "बेकल उत्साही" साहब ने लिखा है " हज़रत जिगर मुरादाबादी की खिदमत में रहता था तो वो बार-बार हिदायत करते 'बेटे, बहुत अच्छे इंसान बनो फिर बहुत अच्छे अशआर कहोगे' सच है कि अच्छा इंसान ही अच्छी सोच से अच्छी बातें करता है. शाहिद इस कसौटी पर खरे उतरते हैं."शाहिद मीर" ने राजस्थान के तपते सहरा, मध्य प्रदेश की ऊबड़ खाबड़ ज़मीन पर रह कर किस क़दर बुलंदियों को छुआ है जहाँ किसी फ़नकार और कलमकार को पहुँचने के लिए एक उम्र सऊबतें झेलकर भी पहुंचना मुश्किल है "

सूखे गुलाब, सरसों के मुरझा गए हैं फूल
उनसे मिलने के सारे बहाने निकल गए

पहले तो हम बुझाते रहे अपने घर की आग
फिर बस्तियों में आग लगाने निकल गए

'शाहिद' हमारी आँखों का आया उसे ख़याल
जब सारे मोतियों के खज़ाने निकल गए

एम.एससी, पी.एच डी. (औषधीय वनस्पति), किये हुए "शाहिद मीर" साहब बाड़मेर राजस्थान के राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में उप प्राचार्य के पद पर काम कर रहे हैं. आपकी 'मौसम ज़र्द गुलाबों का' (ग़ज़ल संग्रह), 'कल्प वृक्ष' (हिंदी काव्य संग्रह) और 'साज़िना' (कविता संग्रह) प्रकाशित हो चुके हैं. उनका कहना है की " विज्ञानं का विद्यार्थी होने की वजह से बौद्धिक स्तर पर किसी एक दृष्टिकोण और वाद को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया."

तेरा मेरा नाम लिखा था जिन पर तूने बचपन में
उन पेड़ों से आज भी तेरे हाथ की खुशबू आती है

जिस मिटटी पर मेरी माँ ने पैर धरे थे ऐ 'शाहिद'
उस मिटटी से जन्नत के बागात की खुशबू आती है

उर्दू ज़बान की मिठास, कहने का निराला ढंग और सोच की नयी ऊँचाइयाँ आपको इस किताब को पढ़ते हुए जकड लेंगी. "बशीर बद्र" साहब ने "मीर" साहब के लिए ऐसे ही नहीं कहा की " कायनात के बहुत से रंग ज़र्द मौसमों और सुर्ख़ गुलाबों के पैकरों में हमारे सामने ब राहे-रास्त नहीं आते बल्कि उन खूबसूरत अल्फाज़ के शीशों में अपनी झलक दिखाते हैं, जिनमें "शाहिद मीर" ने खुद को तहलील कर रखा है."

चिलमन-सी मोतियों की अंधेरों पे डालकर
गुज़री है रात ओस सवेरों पे डालकर

शायद कोई परिंदा इधर भी उतर पड़े
देखें तो चंद दाने, मुंडेरों पे डालकर

आखिर तमाम सांप बिलों में समां गए
बदहालियों का ज़हर सपेरों पे डालकर

डायमंड बुक्स, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक को आप फोन न.011-41611861 या फेक्स न.011-41611866 पर सूचित कर मंगवा सकते हैं, अथवा उनकी वेब साईट www.dpb.in या मेल आई.डी. sales@diamondpublication.com पर लिख कर भी संपर्क कर सकते हैं. आप कुछ भी करें लेकिन यदि आप उर्दू शायरी के कद्रदां हैं तो ये किताब आपके पास होनी ही चाहिए.

उजले मोती हमने मांगे थे किसी से थाल भर
और उसने दे दिए आंसू हमें रूमाल भर

उसकी आँखों का बयां इसके सिवा क्या कीजिये
वुसअतें* आकाश सी, गहराईयाँ पाताल भर
वुसअतें*= फैलाव

आप जब तक इस 95 रु.मूल्य की किताब में प्रकाशित 149 ग़ज़लों का लुत्फ़ लें तब तक हम निकलते हैं आपके लिए एक और किताब की तलाश में, खुदा हाफिज़ कहने से पहले ये शेर भी पढ़वाता चलता हूँ आपको :

जिस्म पर ज़ख्म तीर वाले हैं
हम सलामत ज़मीर वाले हैं

ज़ायका लब पे सूखी रोटी का
सामने ख्वान* खीर वाले हैं
ख्वान* = बर्तन

आत्मा उनकी है अँधेरे में
जो चमकते शरीर वाले हैं


Monday, November 16, 2009

छोटी सी मुस्कान भिडू


मुंबई के लोग जितने दिलचस्प हैं उतनी ही दिलचस्प है उनकी भाषा. ये भाषा जो न मराठी है और ना ही हिंदी ये अजीब सी भाषा है, जिसका भारतीय संविधान में दी गयी भाषा सूची में कोई जिक्र नहीं है लेकिन इसे बोलने सुनने में जो आनंद मिलता है उसे बयां नहीं किया जा सकता. ये दिल से बोली जाती है और दिल से ही सुनी जाती है.

आज की ग़ज़ल उसी भाषा में कही गयी है ,जिसे मुंबई वाले दिन रात बोलते नहीं थकते. उम्मीद है भाषा विद इस प्रयोग से नाराज़ नहीं होंगे, क्यूँ की ग़ज़ल की भाषा अगर रोज मर्रा वाली हो तो उसका मजा ही कुछ और है. जो लोग भाषा का आनंद नहीं उठाना चाहते वो ग़ज़ल में कही गयी बातों का आनंद लें. मतलब आनंद लेने से है जैसे भी हो लें.
.
रदीफ़ में भिडू शब्द प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है दोस्त, मित्र, सखा...


बे-मतलब इन्सान भिडू
होता है हलकान भिडू

अख्खा लाइफ मच मच में
काटे वो, नादान भिडू


प्यार अगर लफड़ा है तो
ये लफड़ा वरदान भिडू


कैसे हम बिन्दास रहें
ग़म लाखों, इक जान भिडू


बात अपुन की सिंपल है
दे, फिर ले सम्मान भिडू


जब जी चाहे टपका दे
रब तो है इक डान भिडू

फुल टू मस्ती में गा रे
तू जीवन का गान भिडू


सब झगडे खल्लास करे
छोटी सी मुस्कान भिडू

जीवन है सूखी रोटी
तू 'मस्का-बन' मान भिडू

'मस्का-बन' मुंबई वासियों का बहुत प्रिय आहार है...इसमें दो पाव के बीच, जिसे 'बन' कहते हैं खूब सारा मख्खन (मस्का) लगा के खाया जाता है...मुंबई के हर गली नुक्कड़ पर आपको इसका ठेला मिल जायेगा....

'खोखा' 'पेटी' ले डूबी
हम सब का ईमान भिडू

('खोखा' 'पेटी' मुम्बईया जबान में एक करोड़ रूपये और एक लाख रूपये के लिए प्रयुक्त प्रचिलित शब्द हैं.)

'नीरज' उसकी वाट लगा
जो दिखलाये शान भिडू



(इस ग़ज़ल को गुरुदेव पंकज सुबीर का आर्शीवाद प्राप्त है)

Monday, November 9, 2009

रंगोली सजाओ...रे

"स्टेलनेस मेरा ही यू.एस.पी. हो, ऐसा नहीं है। आप कई ब्लॉगों पर चक्कर मार आईये। बहुत जगह आपको स्टेलनेस (स्टेनलेस से कन्फ्यूज न करें) स्टील मिलेगा| लोग गिने चुने लेक्सिकॉन/चित्र/विचार को ठेल^ठेल (ठेल घात ठेल) कर आउटस्टेण्डिंग लिखे जा रहे हैं।

असल में हम लोग बहुत ऑब्जर्व नहीं कर रहे, बहुत पढ़ नहीं रहे। बहुत सृजन नहीं कर रहे। टिप्पणियों की वाहियात वाहावाहियत में गोते लगा रिफ्रेश भर हो रहे हैं!"

ज्ञान भईया ने अपने ब्लॉग में सात नवम्बर को प्रकाशित पोस्ट पर उक्त पंक्तियाँ लिखीं, तभी दिल ने कहा प्यारे तुम भी तो ये ही सब कुछ कर रहे हो अपने ब्लॉग पर. याने अपनी एक आध ग़ज़ल और बीच बीच में किताबों की जानकारी ठेल रहे हो...कुछ और भी करो यार. तभी इस पोस्ट को लिखने का ख्याल आया. उम्मीद है सुधि पाठकों का जायका बदलने में ये पोस्ट थोडी बहुत सहायक होगी.



यूँ तो दिवाली कब की जा चुकी, लेकिन उसकी खुमारी अभी तक बरकरार है. पिछले दिनों यूँ ही शाम घर से लोनावला घूमने निकल गए. घूमते घूमते वहां के टाऊन हाल जा पहुंचे जहाँ रंगोली स्पर्धा का बोर्ड लगा हुआ था. रंगोली आप समझते हैं न अरे वोही जिसे बंगाल में 'अल्पना' , बिहार में 'अरिपना, राजस्थान में 'मांडना', गुजरात, महाराष्ट्र और कर्णाटक में 'रंगोली' , उत्तर प्रदेश में 'चौक पुराना' केरल और तमिल नाडू में 'कोलम' और आन्ध्र प्रदेश में 'मुग्गु' के नाम से पुकारा जाता है. जिसमें गुलाल, रंगीन मिटटी, संगमरमर के रंगीन चूरे के मिश्रण से फर्श पर चित्रकारी की जाती है .ये प्रथा बहुत पुरानी है. उत्सुकता हमें अन्दर खींच ले गयी. एक बड़े से हाल में जब वहां उकेरी हुई रंगोलियों को देखा तो मुंह खुले का खुला ही रह गया. आप लोगों ने शायद इस से पहले इस तरह की रंगोली देखी हो लेकिन मेरे लिए ये पहला मौका था.

आयीये देखते हैं उन्हीं प्रर्दशित रंगोलियों में से कुछ के चित्र जो मैंने अपने मोबाईल कैमरे से खींचे खास तौर पर आपके लिए, पसंद ना आयें तो दोष मेरे मोबाईल को दें मुझे नहीं.

(चित्रों पर क्लिक करने से आप इस कला की बारीकियां शायद अच्छे से पकड़ पायें)

सबसे पहले देखते हैं हाल में घुसते ही नज़र आने वाले दृश्य को


आगे बढ़ने पर परम्परागत रूप को प्रर्दशित करती हुई ये रंगोली देख ठिठकने को मजबूर होना पड़ा. रंग संयोजन और आकर्षक डिजाईन देख बरबस हाथ ताली बजाने लगे.


तभी दायें हाथ नज़र पड़ी तो मुंह खुला का खुला रह गया. ये चित्र बहुत आकर्षक था. देखिये लड़की की चुम्बकीय आँखें और लहराते बाल...और दाद दीजिये इस कलाकार की कलाकारी को.


थोडा आगे बढ़ते ही दिखाई दिया सिर्फ दो रंगों से सजी अद्भुत रंगोली . ईंट के बुरादे और काले रंग के माध्यम से साक्षात् चाणक्य स्वरुप चित्र देख कर मेरा सर कलाकार के आदर में झुक गया.


फिर आयी बारी उस चित्र की जिसे देख आँखें धन्य हुईं...आकाश पर उड़ते परिंदों को देखती युवती के इस चित्र ने अजब उदासी का समां बाँध दिया. हैरत हुई की कैसे इन नाज़ुक पलों को घूसर रंगों से कलाकार ने पकड़ लिया .


बात यहीं ख़तम हो जाती तो ठीक था लेकिन एक छोटे से कोने में कप प्याली में पढ़ी चाय के चित्र ने ग़ज़ब ढा दिया. कलाकार की कलाकारी ही थी की इस सामान्य से चित्र को उसने अपने कौशल से नयनाभिराम बना दिया.


ग्रामीण परिवेश और उसी वेशभूषा में इस वृद्ध के चित्र पर आप कुछ कहना चाहेंगे, मैं तो कह नहीं पाऊंगा क्यूँ की मेरी तो बोलती ही इसे देख कर बंद हो गयी थी.



सुधि पाठको पहले से आगाह कर दूं की अगले दो चित्र आपको तालियाँ बजाने पर मजबूर कर देंगे. क्यूँ इन चित्रों में रंग संयोजन तो कमाल का है ही लेकिन जो भाव हैं वो बस अद्भुत हैं.

पहला चित्र है एक लड़की जिसके बाल बिखरे बिखरे से हैं...आँखें आपसे कुछ कह रही हैं...इतना बोलता चित्र वो भी रंगों के माध्यम से फर्श पर बनाना एक चमत्कार ही है.


दूसरा चित्र है इंतज़ार रत युवती का. टकटकी लगाये आँखें...उदास चेहरा...ढीले लटके हाथ...बेताबी...हताशा...उफ्फ्फ...इन सब को शेड्स डाल कर इस खूबसूरती से चित्रित किया गया था की बस आँखें वहां से हिलने का नाम ही नहीं ले रहीं थीं...


अगला चित्र प्रेम की पराकाष्ठा के प्रतीक राधा और कृष्ण का था...आँखें शायद बूंदी शैली जैसी थीं...मैं क्षमा चाहूँगा अगर कहीं ये बात गलत साबित हुई तो क्यूँ की मैं चित्रकला विशेषग्य नहीं हूँ एक साधारण दर्शक हूँ और इन रंगोलियों को देखने का मेरा दृष्टिकोण भी एक साधारण दर्शक का ही है. जो विशेषग्य हैं वो ही शायद इन चित्रों में निहित कला की ऊचाईयों या कमियों को समझ सकते हैं


यूँ तो इस प्रदर्शनी में पचास से अधिक रंगोलियाँ प्रर्दशित थीं लेकिन मेरे लिए सबको दिखाना यहाँ संभव नहीं है, इसलिए चलते चलते आखरी चित्र दिखा कर विदा लेता हूँ.



मुझे मालूम पढ़ा की ये सभी चित्रकार लोनावला के आसपास बसे छोटे छोटे गाँव के कलाकारों के द्वारा ही उकेरे गए हैं. कला किसी जगह या परिवेश की मोहताज़ नहीं मैं अपनी इस पोस्ट के माध्यम से उन अनाम चित्रकारों के और अश्वमेघ क्लब के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ , जिन्होंने बिना जे जे स्कूल आफ आर्ट्स या बड़ी डिग्री का सहारा लिए इतनी खूबसूरत चित्रकारी या रंगोली प्रदर्शन से मेरी एक शाम रंगीन कर दी. मुझे उम्मीद है इस आभार प्रदर्शन में आप भी मेरा साथ देंगे.

Monday, November 2, 2009

दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें

दीपावली के पावन पर्व पर इस बार गुरुदेव पंकज सुबीर जी ने धमाकेदार तरही मुशायरे का आयोजन किया. जिसमें देश विदेश के जाने माने माँ सरस्वती के उपासकों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. इस मुशायरे में शिरकत करना ही अपने आपमें कम सम्मान की बात नहीं थी. आप सुधि पाठकों के लिए मैं , जो मेरी ग़ज़ल को वहां नहीं पढ़ पाए, यहाँ एक बार फिर प्रस्तुत करता हूँ .




दीप जलते रहें झिलमिलाते रहें
तम सभी के दिलों से मिटाते रहे

हर अमावस दिवाली लगे आप जब
पास बैठे रहें, मुस्कुराते रहें

प्यार बासी हमारा न होगा अगर
हम बुलाते रहें वो लजाते रहें

बात सच्ची कही तो लगेगी बुरी
झूठ ये सोच कर क्यूँ सुनाते रहें

दर्द में बिलबिलाना तो आसान है
लुत्फ़ है, दर्द में खिलखिलाते रहें

भूलने की सभी को है आदत यहाँ
कर भलाई उसे मत गिनाते रहें

सच कहूँ तो सफल वो ग़ज़ल है जिसे
लोग गाते रहें गुनगुनाते रहें

हैं पुराने भी 'नीरज' बहुत कारगर
पर तरीके नये आजमाते रहें

Monday, October 26, 2009

किताबों की दुनिया - 18


आज जिस किताब का जिक्र कर रहा हूँ दोस्तों वो मेरे पास बहुत अरसे से है. ना जाने कितनी बार इसे पढ़ा है इस से सीखा है. मुझे इस किताब के बारे में लिखने में शुरू से ही एक झिझक रही है. मुझे यकीन है की मैं इस किताब के बारे में जो भी कहूँगा वो अधूरा ही रह जायेगा. आप चाँद का, झील का, बादल का, परबत का, सागर का, आकाश का, धरती का कितना भी जिक्र करलें वो अधूरा ही होगा. पूरा हो ही नहीं सकता . वो असीम है जिसे शब्द नहीं बाँध सकते. शब्दों की ये मजबूरी ही मुझे इस किताब के बारे में लिखने से रोकती रही.

लेकिन इस किताब की भूमिका में ही मेरी समस्या का हल मिल गया. इस किताब की भूमिका एक बहुत ही अनोखे अंदाज़ में लिखी है पद्मश्री "कुँअर बैचैन" जी ने. मैं उसी भूमिका में से कुछ पंक्तियाँ आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ क्यूँ की इस पुस्तक की समीक्षा उन जैसे सिद्ध लेखक, कवि, शायर के बस की ही बात है.और इस किताब का आवरण पृष्ठ भी कुंअर बैचैन जी ने ही बनाया है, जो उनके लेखन के साथ साथ,चित्रकारी की कला में भी दक्ष होने का प्रमाण है.

जिस किताब का जिक्र मैं कर रहा हूँ उसके शायर हैं परम श्रधेय मेरे गुरुदेव श्री प्राण शर्मा जी , किताब का शीर्षक है "ग़ज़ल कहता हूँ"

इसे "अनुभव प्रकाशन" ई-28 लाजपत नगर, साहिबाबाद - 201005, ई-मेल: anubhavprakashan@rediffmail.com ने बहुत आकर्षक ढंग से प्रकाशित किया है.




अब आप पढिये कुंअर जी इस किताब के बारे में क्या कहते हैं :

प्राण जी बहुत प्यारे शायर हैं. वे भले ही यू के. चले गए किन्तु उनकी स्मृतियाँ अभी अपने देश भारत से जुडी हैं, उन्हें क्षोभ इस बात का है की पैसे की खातिर यू.के. चले आये. वे कहते हैं:

हरी धरती खुले नीले गगन को छोड़ आया हूँ
कि कुछ सिक्कों की खातिर मैं वतन को छोड़ आया हूँ

कहाँ होती है कोई मीठी बोली अपनी बोली सी
मगर मैं "प्राण" हिंदी की फबन को छोड़ आया हूँ

प्राण शर्मा जी ऐसे व्यक्ति हैं, जो घर परिवार को सर्वाधिक महत्व देते हैं. उन्हें इस बात का गहरा दुःख है कि आज परिवार टूट रहे हैं, उनमें दरारें पढ़ रही हैं, वे ढह रहे हैं. किन्तु यह वहीँ होता है जिनका आधार मज़बूत नहीं है:-

पुरजोर हवा में गिरना ही था उनको
ऐ "प्राण" घरों की दीवारें थीं कच्ची
***
चूल्हा चौका कपडा लत्ता खौफ है इनके बहने का
तूफानों का खौफ नहीं है खौफ है घर के ढहने का

प्राण साहब के ज़िन्दगी पर कहे गए कई अशआर हैं, जो ज़िन्दगी के प्रति उनके दृष्टिकोण को व्यक्त करते हैं, जैसे की:-

जागती है कभी जगाती है
ज़िन्दगी चैन से नहीं सोती
***
छोड़ जाती है सभी को
ज़िन्दगी किसकी सगी है
***
ज़िन्दगी को ढूँढने निकला हूँ मैं
जिंदगी से बेखबर कितना हूँ मैं
***
नाचती है कभी नचाती है
जिंदगानी है इक नटी प्यारे
***
माना सुख दुःख से है लदी प्यारे
फिर भी प्यारी है ज़िन्दगी प्यारे

प्राण जी के अशआरों में दार्शनिकता भी मिलती है क्यूँ की बिना दर्शन के कविता खोखली है, निष्प्रयोजन है. दुनिया तथा दुनिया से जुड़े अन्य तथ्यों पर प्राण जी ने बहुत अच्छी टिप्पणियां की हैं, आप भी पढें:-

मुस्कुराता हो तो है कुछ दाम का
फूल मुरझाया हुआ किस काम का
***
यूँ तो किसी भी बात का डर था नहीं हमें
डरने लगे तो अपने ही साए से डर गए
***
रौशनी आये तो आये कैसे घर में
दिन में भी हर खिड़की पर पर्दा है प्यारे
***
आग लगे तो इसकी कीमत राख से ज्यादा क्या होगी
पीपल की लकडी हो चाहे या लकडी हो चन्दन की

प्राण जी आध्यात्म और दर्शन से जुड़े हैं और अपनी ग़ज़लों में उन्हें स्थान देते हैं, उतने ही वो इस संसार में व्याप्त विद्रूपताओं और विसंगतियों के प्रति सचेत भी हैं. ऐसे प्रसंगों में वे कुछ तिक्त हो जाते हैं वैसे तिक्तता उनका मूल स्वभाव नहीं है.किन्तु जहाँ जरूरी है वहां तो तिक्त हुआ ही जाता है. आप देखें उनकी तिक्तता भी ग़ज़ल के अंदाज़ में कितनी साफ्ट हो गयी है:-

बात मन की क्या सुनाई जान कर अपना उसे
बात जैसे पर लगा कर हर तरफ उड़ने लगी
***
वक्त था जब दर खुले रहते थे सबके
अब तो हैं तालों पे ताले सोचता हूँ
***
संग तुम्हारा मीठा है ये सोचा था
यह पानी खारा भी है मालूम न था
***
कौन है दोस्त, है सवाल मेरा
कौन दुश्मन है ये सवाल नहीं

किसी शायर की पहचान कि वह बड़ा है या छोटा, इस बात से होती है कि उसके कितने ऐसे शेर हैं जो उधृत करने योग्य हैं , जो अनुभव से लबालब भरे हैं और लोगों के होठों तक आने और याद रखने की सामर्थ्य रखते हैं, जैसे कि ये:-

उससे उम्मीद कोई क्या रक्खे
जिसका अपना कोई ख्याल नहीं
***
खो न देना कभी इसको कहीं रख कर
दोस्ती भी दोस्तों सौगात होती है
***
हर समस्या का कोई न कोई हल है दोस्तों
गाँठ हाथों से न खुल पाए, तो दाँतों से खुले

शायर हमेशा दुखों में रहता है, उनमें तपता है , सोने से कंचन बनता है तब कहीं वो शायरी कर पाता है. कितनी सोचों में डूबता है तब कहीं कोई शेर हो पाता है.

सोच की भट्टी में सौ सौ बार दहता है
तब कहीं जाकर कोई एक शेर कहता है


किताब प्राप्ति के लिए आप इस पते पर संपर्क करें :
श्री के.बी.एल सक्सेना
श्रीमहारानी भवन
3/8 रूप नगर
दिल्ली -11OOO7
मोबाईल: 9868478552


इस किताब में छपी प्राण साहब की 91 ग़ज़लों का आनंद आप जब तक उठायें तब तक हम ढूंढते हैं एक और नायाब किताब आपके लिए.

Monday, October 19, 2009

फूलों वाले पौधे बो



क्यों ,कैसे ये मत सोचो
होता है जो होने दो

चैन चलो पाया कुछ तो
जब भी पूजा पत्थर को

प्यार मिलेगा बदले में
पहले प्यार किसी को दो

किसको देता है सब कुछ
नीली छतरी वाला वो

जो देखा, सच बोल दिया
तुम क्या नन्हे मुन्ने हो

काँटों वाली राहों में
फूलों वाले पौधे बो

याद में उसकी ऐ 'नीरज'
रोना है तो खुलकर रो

(पत्थर सी ग़ज़ल को बुत की शक्ल में ढाला है गुरुदेव प्राण शर्मा जी ने)

Monday, October 12, 2009

दिया जला देना मेरे मन

दिवाली से पूर्व इस पोस्ट पर सबको अग्रिम शुभकामनाएं देते हुए मैं अपनी एक मनपसंद कविता जिसे श्री राज जैन जी ने लिखा है को आप सब तक पहुँचाना चाहता हूँ. उम्मीद है सुधि पाठक इसे पसंद करेंगे.





दिया जला देना मेरे मन

एक तमन्ना की तुलसी पर
इक रस्मों की रंगोली पर
इक अपनेपन के आँगन में
एक कायदों की डोली पर

ख्वाब देखती खिड़की पर इक
खुले ख़यालों की छत पर भी
एक सब्र की सीढ़ी ऊपर
इक चाहत की चौखट पर भी

एक तर्जुबे के तहखाने
एक लाज की बारी में भी
एक दोस्ती की ड्योढ़ी पर
इक किस्मत की क्यारी में भी

एक मुहब्बत के कुएँ पर
नोंक झोंक की नुक्कड़ पर भी
एक भरोसे के दरखत पर
चतुराई की चौपड़ पर भी

हर कोना हो जाए रोशन

दिया जला देना मेरे मन

राज जैन


Monday, October 5, 2009

किताबों की दुनिया - 17

मन में उतर रहे हैं किसी संत के चरण
ग़ज़लें उतर रहीं हैं भजन के लिबास में

आप लोग अकसर मुझे कहते हैं की मैं शायरी की किताबों के बारे में लिख कर बहुत बड़ा काम कर रहा हूँ और मैं हर बार आपकी इस बात का खंडन करता हूँ. बहुत बड़ा काम तो उनका है जो इस दौर में भी शायरी करते हैं और उनका भी जो शायरी की इन किताबों को छापते हैं. सबसे बड़ा काम तो हकीकत में आप लोग करते हैं जो इन्हें पढ़ते हैं. भला बताईये भाग दौड़ भरी इस ज़िन्दगी में जहाँ सबको अपने अलावा किसी और के बारे में सोचने की फुर्सत नहीं है, शायरी की किताब या उसके बारे में पढना कितना बड़ा काम है, बड़ा ही नहीं बल्कि यूँ कहिये हैरान कर देने वाला काम है...अजूबा कहें तो अधिक उपयुक्त होगा.

जिस शायर ने ये कहा है कि "ग़ज़ल बहुत बड़ी चीज़ है, बहुत ऊंची और गहरी चीज़. उस तक पहुंचना, उसे छूना, उसे जानना, उसे समझना सरल काम नहीं है. ग़ज़ल की तलाश ही ग़ज़ल की और बढ़ना है और ग़ज़ल को पा लेना ग़ज़ल से वापसी का नाम है :-

ये सोच के मैं उम्र की ऊचाईयाँ चढ़ा
शायद यहाँ, शायद यहाँ, शायद यहाँ है तू

पिछले कई जन्मों से तुझे ढूंढ रहा हूँ
जाने कहाँ, जाने कहाँ, जाने कहाँ है तू



उस अजीम शायर का नाम है "डा. कुंअर बेचैन" जो किसी परिचय के मोहताज़ नहीं. आज उन्हीं की जिस किताब का जिक्र यहाँ हो रहा है उसका शीर्षक है "आँधियों धीरे चलो" जिसमें आप पढ़ पाएंगे कुंअर जी की चर्चित ग़ज़लें.

दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए

सुख, जैसे बादलों में नहाती हों बिजलियाँ
दुःख, जैसे बिजलियों में ये बादल नहा लिए

'कुंअर बेचैन' साहब ने अपनी शायरी से इस भीड़ में अपनी एक अलग पहचान बनाई है .पदम् श्री गोपाल दास 'नीरज' कहते हैं " 'कुंअर बेचैन' ग़ज़ल कहने और लिखने वालों में सबसे अधिक ताज़े, सबसे अधिक सजग और सबसे अधिक अनुपम ग़ज़लकार हैं."
इस किताब के हर सफ्हे पर उन्होंने इस बात को सिद्ध किया है.

वो आँख क्या जो अश्क में भीगी नहीं कभी
वो भौंह क्या जो जुल्म के आगे तनी नहीं

यूँ खेल जानकार न घुमाएँ इधर-उधर
ये ज़िन्दगी है दोस्त, कोई फिरकनी नहीं

'कुंअर' जी का बात कहने का अंदाज़ सबसे जुदा है. वो अपने शेरों में ऐसे ऐसे शब्द और भाव प्रयोग में लाते हैं की पाठक दाँतों तले उँगलियाँ दबाने को मजबूर हो जाता है. बहुत सीधी साधी भाषा में कहे शेर से कमाल का असर पैदा करने का हुनर देखना हो तो उन्हें पढें:

बच्चों की गुल्लकों की खनक भी समेट ली
हम मुफलिसों का हाथ बुहारी की तरह है
बुहारी: झाडू

हमको नचा रहा है इशारों पे हर घड़ी
शायद हमारा पेट मदारी की तरह है

ये रात और दिन तो सरोते की तरह हैं
अपना वजूद सिर्फ सुपारी की तरह है

इस किताब की एक खूबी और है, ग़ज़लों के अलावा इस में बीच बीच में 'कुंअर' जी के बनाये अद्भुत रेखा चित्र भी है जो इस किताब के रंग को और भी निखार देते हैं. उनके इन रेखांकन को देख उनकी प्रतिभा के बहु आयामों को समझा जा सकता है.

मैं क्यूँ न पढूं रोज़ नयी चाह से तुझे
तू घर में मेरे एक भजन की किताब है

लोगों से कहो खुद भी कभी पढ़ लिया करें
जो उनके निजी चाल-चलन की किताब है

पढने के लिए दिन में ज़माने की धूप है
रातों में 'कुंअर' हम पे गगन की किताब है

भला हो "वाणी प्रकाशन" 21-A दरियागंज , नई दिल्ली, फोन: 011-23273167, 23275710 का जिन्होंने इस किताब को बेहद खूबसूरत ढंग से छापा है. इस संकलन में 'कुंअर' जी की एक सौ तीन ग़ज़लों के अलावा कुछ आजाद शेर भी संकलित है जैसे की ये :-

सावन में वो न आये तो हमने यही किया
झूले पे उनका नाम लिखा और झुला दिया
***
दुनिया ने मुझपे फेंके थे पत्थर जो बेहिसाब
मैंने उन्हीं को जोड़ के कुछ घर बना लिए
***
उसने फेंके मुझपे पत्थर और मैं पानी की तरह
और ऊंचा, और ऊंचा और ऊंचा उठ गया
***
मैं दिल की जिस किताब में ख़त-सा रखा रहा
तूने उसी किताब को खोला नहीं कभी

डा,कुंअर बेचैन की अब तक बहुत सी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और सराही गयी हैं. आपने गीत-नवगीत, गज़लें, कविता ,उपन्यास, दोहे और महा काव्य आदि पर अधिकार पूर्वक लिख ख्याति प्राप्त की है. कुंअर जी को आप उन्हीं की आवाज़ में अपनी ग़ज़लों का पाठ करते हुए http://www.radiosabrang.com/ पर सुन सकते हैं .

जब से मैं गिनने लगा इन पर तेरे आने के दिन
बस तभी से मुझको अपनी उँगलियाँ अच्छी लगीं

प्यास के मिटते ही ये क्या है कि मर जाता है प्यार
जब बढीं नजदीकियां तो दूरियां अच्छी लगीं

आप इस किताब को पढने के लिए कोई जुगत बिठाईये तब तक हम निकलते हैं एक और ग़ज़ल की विलक्षण किताब की खोज में. अपना ख्याल रखें.

Monday, September 28, 2009

बचपन की वो शैतानियां

मेरी ये पोस्ट समर्पित है हम सब के लाडले जाबांज मेजर गौतम राजरिश और उनके साथियों की हिम्मत, बहादुरी और देश प्रेम के जज्बे को. काश हर माँ का बेटा उनके जैसा हो.



जिंदगी की राह में हो जायेंगी आसानियां
मुस्‍कुराएं याद कर बचपन की वो शैतानियां

होशियारी भी जरूरी मानते हैं हम मगर
लुत्फ़ आता ज़िन्दगी में जब करें नादानियाँ

देख हालत देश की रोकर शहीदों ने कहा
क्‍या यही दिन देखने को हमने दीं कुर्बानियां

तेरी यादें ति‍तलियां बन कर हैं हरदम नाचतीं
चैन लेने ही नहीं देतीं कभी मरजानियां

तब रहा करता था बरसों याद सबको हादसा
अब नहीं होती किसी को जान कर हैरानियाँ

जी हुजूरी जब तलक है तब तलक वो आपका
फेर लेता है नज़र जब भी हों ना-फर्मानियाँ

बरकतें खुलकर बरसतीं उन पे हैं "नीरज" सदा
मानते हैं बेटियों को जो घरों की रानियाँ


{तहे दिल से शुक्र गुज़ार हूँ गुरुदेव "पंकज सुबीर" जी का जिन्होंने बहुत ज़्यादा मसरूफ़ियत होने के बावज़ूद इस ग़ज़ल के लिए अपना कीमती वक्त निकाला और इसे प्रकाशन योग्य बनाया}