देवियों और सज्जनों ...इस काव्य संध्या में मेरे साथ बने रहने वाले श्रोता, देवी या सज्जन की श्रेणी के ही हो सकते हैं...सीधी सी बात है इतनी सहनशीलता साधारण मानव में तो हो ही नहीं सकती, आप काव्य की पिछली चार श्रृंखलाओं में हमारे साथ बने हुए हैं...सिर्फ़ बने ही नहीं हुए बल्कि उसका आनंद भी उठा रहे हैं...और ऐसे काव्य पिपासु श्रोता अब दुर्लभ श्रेणी में आते हैं...इसलिए ऐसे विलक्षण श्रोताओं को नमन करते हुए चलिए इस यात्रा को आगे बढाते हैं.
मेरी ये इच्छा थी की इस श्रृंखला का समापन इसी पोस्ट में कर दूँ. लेकिन इसमें दो दुविधाएं थीं एक तो ये की बाकी के कवियों /शायरों की रचनाएँ थोडी लम्बी थीं और उनमें कांट छाँट का अधिकार मैंने अपने पास नहीं रखा था, दूसरे ये की माना आप लोग देवी और सज्जन की श्रेणी में घोषित हो चुके हैं लेकिन इसका अर्थ ये तो नहीं होता की उनपर आवशयकता से अधिक अत्याचार करूँ. इस कारण मेरी इस पोस्ट को आप काव्य संध्या श्रृंखला की अन्तिम से पूर्व की पोस्ट समझें.
चलिए आदर सहित बुलाते हैं अपनी विनम्रता से मोहित कर देने वाले श्री रामप्यारे रघुवंशी जी को
परिचय : हिन्दी सहित्य में एम्.ऐ. श्री रघुवंशी जी पिछले कई वर्षों से एम्.टी.एन.एल में कार्य करते हुए, साहित्य साधना में रत हैं. कवि सम्मलेन में अपनी रचनाओं की रस धार में श्रोताओं को भिगोने में प्रवीण हैं.रघुवंशी जी ने तालियों की गड़गडाहट के बीच अपनी सुरीली आवाज में जब ये रचना गा कर सुनाई तो अपने गावं से दूर रह रहे लोगों के दिल भर आए...बिहार के देहात की जबान में आप भी इस रचना का आनंद लीजिये
ऊ पिपरा क छहियाँ ऊ दीदी क बहियाँ !
ऊ अँगुरी पकीर के, चलब लरिकइयाँ !!
ऊ दादी के अँचरा में, बचवन लुकाइल
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!१!!
ऊ गांगू क ठेला, ऊ चवन्नी क मेला !
गोधुलिया की बेला में, खनवां क खेला !
चोटहिया जलेबी से, मन ना अघाईल !
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!२!!
ऊ गइया बछरुआ, ऊ मुरुगवा क बोलिया !
रतियाँ पपिहरा दिनवां, कूहुके कोयलिया !
बरसे सवनवां जियरा मोर अकुलाइल !
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!३!!
ऊ नेवता क पाँती, ऊ लड़िकपन क गाँती !
ऊ बाबा क सोटवा ,ऊ संघी सघाती !
ऊ मूंछी औबारा के संग कढ़ी बा देखाइल !
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!४!!
ऊ बुन्नी बनवरी, ऊ बेसन क फुलवरी !
ऊ बेसन क भुरता, ऊ सतुआ क भौरी !
पेटवा ना भरल, नहीं मनवां अघाइल
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!५!!
ऊ भईया क बोली, ऊ भौजी क ठिठोली !
ऊ दीया देवारी , ऊ फागुनवां क होरी !
गुलेला के रंगना में, गउँआ रंगाइल !
हमें गाँव आपन बहुत याद आइल !!६!!
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गाँव की मिटटी से रची बसी रघुवंशी जी की इस रचना के बाद उन्होंने आज के भारत की जो तस्वीर अपनी अगली रचना में पेश की वो अब आप के सामने है....पढिये और उनके फन की दाद दीजिये...
मेरा भारत महान
भारत की स्वर्ण जयंती पर
एक अस्सी वर्ष की बुढिया ने कहा
"मैं कभी परेशान नहीं हुई
तब भी जब मैंने इकलौता बेटा खोया था
मैं स्वयम कर्ज के बोझ से दबती रही
पर परेशान नहीं हुई
परन्तु उफ़! मैं हैरान थी ये सुनकर
की आजादी के अर्ध शताब्दी बाद
देश हजारों करोड़ के कर्ज के नीचे दबा है
और सचमुच परेशान तब हुई
जब मैं यह जान पाई
की देश के कर्ज से भी
कई गुना अधिक घोटाला करने वाले
भारत के वो सपूत हैं
जिन्हें कहने का हक़ मिला है की
"मेरा भारत महान"
हाथ में कटोरा लिए एक भिकारिन
ने कहा" आजाद भारत में हमें
निश्चित ही तरक्की मिली है,
आज हमारे कई भाई
कोट और टाई लगाकर
अंग्रेजी में भिक्षा मांगते हैं
और उनकी आमदनी
हमारे से कई गुना बेहतर है
अरे भाई अंग्रेजी की यह कीमत
तो अंग्रेजों के ज़माने में भी
नहीं थी
अब हम दोनों में बस येही फर्क है
की वो कहते हैं "अवर कंट्री इज ग्रेट"
और हम कहते हैं की "मेरा भारत महान"
नेहरू जी के साथ वर्षों
साथ निभाए एक परिंदे ने कहा
"आख़िर देश तो अपना है
पर अपने पंखों में
जटायु जैसी ताकत कहाँ है
जो चारों तरफ़ व्याप्त
इस प्रदूषण जैसे रावण से
भारत सी सीता को बचा सकूँ
प्रदूषण जो केवन वायु मंडल तक
सीमित नहीं बल्कि भारत के
घर आँगन समाज और राजनीती को
नेस्तनाबूद कर रहा है
अब तो बस एक ही सपना है
की प्राण छोड़ने से पहले
कोई राम भारत की गद्दी पर
पदासीन होवे और मैं
उसकी गोद में अन्तिम साँस लेते हुए
कह सकूँ "मेरा भारत महान"
दिल्ली से लौटे नेता जी से
मैंने पूछा ६० वर्षों बाद
न खादी वस्त्र, न खादी टोपी
अब इक्की द्दुक्की टोपियाँ ही बची हैं
जो या तो कीमत खो चुकी हैं
या अच्छी कीमत के इन्तेजार में हैं
नेताजी ने तपाक से उत्तर दिया
"हमारे पूर्वजों ने आजादी की
बहुत कीमत चुकाई है
हम उसे वसूल रहे हैं
जब तक देश का एक एक नेता
नहीं बनता धनवान
भला तुम्ही बताओ "मेरा भारत कैसे बनेगा महान"
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ना थमने वाली तालियों के बीच रघुवंशी जी ने अपना स्थान ग्रहण किया...श्रोता और और की मांग करते रहे लेकिन समय की कमी ने उनकी आवाज को दबा दिया.
बाकि बचे कवि शायर अपनी अपनी कुर्सियों पर कसमसाते देखे गए इसलिए रघुवंशी जी को फ़िर कभी बुलाने के वादे के बाद संचालक महोदय ने आवाज दी भाई कवि कुलवंत को
परिचय: कवि कुलवंत रुड़की विश्विद्यालय से रजत पदक प्राप्त धातुकी में इंजीनियरिंग स्तानक हैं और भाभा परमाणु अनुसन्धान केन्द्र में वैज्ञानिक अधिकारी हैं. इनका हिन्दी काव्य प्रेम विलक्षण है. विभिन्न विषयों पर इनकी हिन्दी भाषा में कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.कवि कुलवंत जी ने अपनी चिर परिचित अनूठे अंदाज में श्रोताओं को अपनी रचनाओं से मुग्ध कर दिया. आयीये सुनते हैं अब कुलवंत जी को.
यकीं किस पर करूँ मै आइना भी झूठ कहता है।
दिखाता उल्टे को सीधा व सीधा उल्टा लगता है ॥
शिकायत करते हैं तारे जमीं पर आके अब मुझसे,
है मुश्किल देखना इंसां को नंगा नाच करता है ।
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जबसे गई है माँ मेरी रोया नही
बोझिल हैं पलकें फिर भी मैं सोया नही
ऐसा नही आँखे मेरी नम हुई न हों
आँचल नही था पास फिर रोया नही
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मिलीमुझे दुनिया सारी जब मिला मौला
भुला दूँ मै खुद को नाम की पिला मौला
गमों से टूट रहा शख्स हर यहां रोता
भरा दुखों से जहां तुमसे है गिला मौला
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भरम पाला था मैंने प्यार दो तो प्यार मिलता है ।
यहाँ मतलब के सब मारे न सच्चा यार मिलता है ।
लुटा दो जां भले अपनी न छोड़ें खून पी लेंगे,
जिसे देखो छुपा के हाथ में तलवार मिलता है ।
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दुनिया के असली अजूबे
हाल फिलहाल एक हुआ तमाशा,
दुनिया वालों दो ध्यान जरा सा।
विश्व में नए अजूबे चुने गए,
एस एम एस से वोटिंग किए गए।
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करोड़ों का हुआ वारा - न्यारा,
देकर वास्ता इज्जत का यारा।
भोली जनता को बनाया गया,
ताज के नाम पर फंसाया गया।
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मीडिया भी बेफकूफ बन गई,
वह भी ताज के पीछे पड़ गई।
जनता से सबने गुहार लगाई,
जितने चाहो वोट दो भाई।
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वोट के नाम पर खूब कमाया,
भीख मांगने का नया तरीका पाया।
अरे भाई! ताज कहाँ अजूबा है ?
वहाँ तो सोई बस एक महबूबा है!
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आज के युग में कितनी तरक्की है,
ट्रेनें, हवाई-जहाज, सड़क पक्की है।
राकेट, मिसाईल, कारें, सितारा होटल हैं,
खुलती दिन रात जहाँ शैंपेन बोटल हैं।
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आओ दिखाता हूँ मै आपको सच्ची अजूबे,
प्रगति के दौर के ये हैं असली अजूबे।
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विश्व का प्रथम अजूबा - ध्यान दें !
मुंबई की लोकल ट्रेन में सफर कर दिखला दें!
कोई माई का लाल साबित कर दे,
इससे बड़ा अजूबा दुनिया में दिखा दे।
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आओ दिखाता हूँ मैं आपको सच्ची अजूबे,
प्रगति के दौर के ये हैं असली अजूबे।
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दूसरा अजूबा भी हमारे देश में,
नजरें उठा कर देख लो किसी भी शहर गली में।
कचरे के डब्बों से खाना ढ़ूंढ़ता आदमी,
उसी को खा कर अपनी भूख मिटाता आदमी।
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आओ दिखाता हूँ मै आपको सच्ची अजूबे,
प्रगति के दौर के ये हैं असली अजूबे।
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तीसरा अजूबा - कीड़ों सा रेंगता आदमी,
स्लम, फुटपाथ, ट्रैक पर जीवन बिताता आदमी।
सड़कों पर सुबह, लोटा लेकर बैठा आदमी,
देखिए अजूबा, मजबूर कितना आदमी।
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और भी कितने अजूबे हैं हमारे देश में,
एक एक कर गिनाना है न मेरे बस में।
एक एक कर गिनाना है न मेरे बस में॥
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कुलवंत जी रचनाओं ने श्रोताओं को गुदगुदाया भी और सोचने पर मजबूर भी किया. अब भला ऐसे कवि को सुनना रोज रोज कहाँ नसीब होता है लेकिन जैसा की मैंने पहले कहा समय बड़ा बलवान...इसलिए कुलवंत जी के बाद आदर सहित बुलाया भाई वागीश सारस्वत जी को
परिचय: वागीश सारस्वत जी एक चुम्बकीय व्यक्तित्व के इंसान हैं "वाग्धारा" पत्रिका के संचालन और संपादन के अलावा वे म.न.से के उपाध्यक्ष भी हैं.एक कद्दावर राजनितिक पार्टी के कद्दावर नेता का जो चेहरा उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया उस से सभी श्रोता गदगद हो गए. राजनेता इतना संवेदनशील भी हो सकता है ये देखना एक सुखद अनुभव था.
एकलव्य का अंगूठा
गलती तुम्हारी नहीं थी एकलव्य
जो काट दिया अंगूठा
द्रोणाचार्य के मांगने पर
तुम जानते थे सत्य के हिमायती नहीं हैं द्रोणाचार्य
फ़िर भी काट दिया था अंगूठा
गुरु-दक्षिणा के नाम पर
वक्त बदला
शब्द बदले
बदल गए अर्थ
मगर
द्रोणाचार्य कभी नहीं बदलते
हमेशा उपस्थित रहते हैं
कई-कई चेहरों में
आज भी द्रोणाचार्य
आहिस्ता -आहिस्ता निकलते हैं
अपने हितों की
बैसाखियाँ बना कर
अपनों को ही छलते हैं
श्रद्धा को विकलांग बना देते हैं
छलना उनका चरित्र है
आज के द्रोणाचार्यों का
वही पुराना चित्र है
एकलव्य आज भी श्रद्धावनत हो द्रोण की प्रतिमा बनाते हैं
पार्थ को परस्त करते हैं
पर
गुरुभक्ति नहीं बन पाती
एकलव्यों का कवच
स्वान मुखों को तीरों से बंद करके भी
बच नहीं पाते एक लव्य
द्रोणाचार्यों के हाथों ही ठगे जाते हैं
श्रद्धा और श्रम से हासिल
हुनर को छीन लेते हैं द्रोणाचार्य
चारण थे द्रोणाचार्य पहले भी
चारण हैं दोणाचार्य अब भी
शिक्षक थे द्रोणाचार्य तब भी
शिक्षक हैं द्रोणाचार्य अब भी
द्रोणाचार्य अब भी पढाते हैं
कौरवों और पांडवों को साथ साथ
करते हैं पक्षपात
राज भय नहीं है, राजाकर्षण है
स्वत्व और अर्थ का घर्षण है
गिरवी है स्वत्व
विजयी है अर्थ
आदर्श का प्रलाप
बिल्कुल व्यर्थ है
कौरव और पांडव
युद्ध में जुटेंगे जब
द्रोणाचार्य राजाकर्षण से नही बच पाएंगे
एकलव्य अंगूठा कटवा कर
हमेशा छटपटायेंगे
सत्य का विरोध
द्रोण की मजबूरी है
राजगुरु की पदवी जरूरी है
द्रोणाचार्य बदल नहीं सकते
नहीं बदल सकते कौरव और पांडव
मगर बदल सकते हैं एकलव्य
श्रधा के शाप से हो सकते हैं मुक्त
आज भी एकलव्य
सत्य के, ज्ञान के
पौरुष के, मान के
जाती सम्मान के
गुरु-गुरुभक्ति के
निष्ठा के, शक्ति के
महज अभिलाषी हैं
वे हासिल करते हैं जो ज्ञान
तप और त्याग से
छीन लेते हैं द्रोणाचार्य
बिल्कुल विराग से
आज भी द्रोणाचार्य के साथी हैं
छल और प्रपंच
तो श्रद्धा और निष्ठा
एकलव्यों की ढाल हैं
अंगूठा कटे एकलव्य
द्रोणाचार्यों के लिए चुनौती हैं
और द्रोणाचार्य
विकसित समाज के लिए पनौती हैं
द्रोण के द्वेष से
समाज मुक्त होना चाहिए
एकलव्यों का अंगूठा
अब नहीं कटना चाहिए
अगर कटता रहेगा
एकलव्यों का अंगूठा
तो शिक्षा का लहलहाता पेड़
ठूंठ बन जायेगा
द्रोणाचार्यों की वजह से
गुरु शब्द
इस दुनिया का
सबसे बड़ा झूठ बन जाएगा.
*******
यदा कदा
वो रोज मिलता है स्टेशन पर
प्रतिदिन दौड़कर
पकड़ता है ट्रेन
अक्सर मुस्कुराता है
देखकर
पर
नमस्कार करता है यदा कदा.
वो मेरा नाम नहीं जानता
मुझे भी नहीं पता
की वो
अवस्थी है या खोपकर
जेकब है या रियाज़
न तो मैंने कभी
बात की उससे
और न ही कभी
उसने ही पूछा
मेरा नाम
हम दोनों एक-दूसरे को देख
मुस्कुराते रहे अक्सर
पकड़ते रहे ट्रेन
वो
हांफते दौड़ते प्रतिदिन
खो जाता
ट्रेन की भीड़ में
तलाशता हुआ
चौथी सीट
एक दिन
मैं भी शामिल हो गया
ट्रेन पकड़ने की दौड़ में
उसके साथ
क्यूँ की
ललकार कर चेताया था उसने
समझाया था झिड़ककर
अगर खड़े रहे
भीड़ छटने के इंतज़ार में
तो इंतज़ार खत्म नहीं होगा कभी
बढती जायेगी भीड़
चली जायेगी ट्रेन
एक के बाद एक दूसरी
और तब
हासिल होगी
दफ्तर में
बॉस की फटकार
हाजिरी रजिस्टर पर
लाल स्याही से
दर्ज कर दिया जाएगा
लेट मार्क
और कट जायेगी
उस दिन की
आधी पगार
मैं सहमत था उससे
क्यूँकी उसने बताया था
भीड़ में दौड़कर घुसना
उसकी जिंदगी की
दौड़ धूप का एक हिस्सा है
यदा कदा हो जाता है लेट
तो कट जाती है पगार
उसने बताया था उस दिन
की दौड़ना जरूरी है
पगार कट जाए तो
भारी पड़ता है बिठाना
महीने का हिसाब
हाँ, उसदिन उसने
बात की थी मुझसे
पहली और आखरी बार
फ़िर टूट गया सिलसिला
यदा कदा नमस्कार का
लेट मार्क लगने का
खतरा टालने के लिए
उसने
अपने जीवन का सबसे बड़ा
खतरा उठाया
और, घुस जन चाह
भीड़ को चीर कर
तेजी से प्लेटफार्म
छोड़ती ट्रेन में
लेकिन उसकी एक ना चली
ट्रेन चली गई सरसराती हुई
और
थरथरा कर रह गया प्लेटफार्म
एक आदमी
अपने दफ्तर के
हाजरी रजिस्टर में
लगने से रोकने के लिए
लाल स्याही का निशान
कटने से बचाने के लिए
आधे दिन की पगार
पुरा कट गया था
और
प्लेटफार्म को अपने खून से
लाल कर गया था
*******
मैं नहीं चाहता की अचानक इस रोचक कार्यक्रम को यहाँ रोका जाए...लेकिन मजबूरी है बंधू आख़िर आप लोग भी एक ही पोस्ट पर अपना कितना समय देंगे? मेरे और भी तो ब्लोगर भाई बहिन हैं जिनकी पोस्ट आप के इन्तेजार में पलक पांवडे बिछाए है...उसे कैसे भूल जाऊँ? आख़िर एक ब्लोगर का ध्यान दूसरा नहीं रखेगा तो कौन रखेगा बताईये? चलिए समापन किस्त की और अग्रसर होने से पहले लेते हैं एक ब्रेक...जी हाँ सही समझे कमर्सिअल ब्रेक...
"तंदरुस्ती की रक्षा करता है लाईफ बाय....लाईफ बाय है जहाँ तंदुरस्ती है वहां...लाइफ बाय..." टिन टूँ